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सामाचाराधिकारः]
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प्रवेशकाले । णिसीहियं-निषेधिकां। कुज्जा--कुर्मात् कर्तव्या। अत आसिका कुतः ? तेहितो . तेभ्य एव कन्दरादिभ्यः । णिग्गमणे-निर्गमने निर्गमनकाले। तहासिया-तथैवासिका। होदि-भवति । कायव्वाकर्तव्या इति ॥१३४॥
प्रश्नश्च केषु स्थानेषु इत्युच्यते
बड़े छिद्र हैं उन्हें गुफा कहते हैं । इन कंदरा, पुलिन तथा गुफाओं में, 'आदि' शब्द से और भी अन्य निर्जंतुक स्थानों में या नदी आदि में, प्रवेश करते समय निषेधिका करना चाहिए और इन कंदरा आदि से निकलते समय उसी प्रकार से आसिका करना चाहिए।
विशेषार्थ-वहाँ के रहनेवाले स्थानों के व्यंतर आदि देवों के प्रति कहना कि 'मैं यहाँ प्रवेश करता हूँ, आप अनुमति दीजिए।' इस विज्ञप्ति का नाम निषेधिका है । अन्यत्र भी कहा है
वसत्यादी विशेत्तत्स्थं भूतादि निसहीगिरा :
आपृच्छ्य तस्मान्निर्गच्छेत्तं चापृच्छ्यासहीगिरा ।'
अर्थात् वसतिका आदि में प्रवेश करते समय वहाँ पर स्थित भूत व्यंतर आदि को निसही शब्द से पूछकर प्रवेश करना निषेधिका है। और वहाँ से निकलते समय असही शब्द से उन्हीं को पूछकर निकलना आसिका है । 'आचारसार' में भी कहा है कि
स्थिता वयमियत्कालं यामः क्षेमोदयोऽस्तु ते। इतीष्टाशंसनं व्यन्तरादेराशीनिरुच्यते ॥ जीवानां व्यन्तरादीनां बाधायै यन्निषेधनम्।
अस्माभिः स्थीयते युष्मद्दिष्ट्यैवेति निषिद्धिका ॥११॥
अर्थात् 'हम यहाँ पर इतने दिन तक रहे, अब जाते हैं। तुम लोगों का कल्याण हो' इस प्रकार व्यंतरादिक देवों को इष्ट आशीर्वाद देना आशीर्वचन है। मुनिराज जिस गुफा में या जिस वसतिका में ठहरते हैं उसके अधिकारी व्यन्तरादिक देव से पूछकर ठहरते हैं और जाते समय उनको आशीर्वाद दे जाते हैं। मुनियों की ये दोनों ही समाचार नीति हैं।
तुम्हारी कृपा से हम यहाँ ठहरते हैं। तुम किसी प्रकार का उपद्रव मत करना, इस प्रकारे जीवों को तथा व्यन्तरादिक देवों को उपद्रव का निषेध करना निषिद्धिका नाम की समाचार नीति कहलाती है।
किन-किन स्थानों में पूछना चाहिए ? सो बताते हैं--
१. अनगार धर्मामृत २. आचारसार, अ०२
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