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[मूलाचारे
गुरुसाहंमियदव्वं - गुरुश्च साधर्मिकश्च गुरुसाधर्मको तयोर्द्रव्यं गुरुसाधर्मिकद्रव्यं । पुच्छयंपुस्तकं ज्ञानोपकारकं । अण्णं च - अन्यच्च कुण्डिकादिकं । गेहिदु — ग्रहीतुं आदातुं । इच्छे — इच्छेद्वाञ्छेत् । सि -- तेषां गुरुसाधार्मिकद्रव्याणां गृहीतुमिष्टानां । विणएण-- विनयेन नम्रतया । पुणो- पुनः । णिमंतणानिमंत्रणा याचना । होइ - भवति । कायव्वा - कर्तव्या । यदि गुरुसाधर्मकादिद्रव्यं पुस्तकादिकं गृहीतुमिच्छेत् तदानीं तेषां विनयेन याचना भवति कर्तव्या इति ।। १३८ ||
उपसम्पत्सूत्रभेदप्रतिपादनार्थमाह
उवसंपया य णेया पंचविहा जिणवरेंहि णिद्दिट्ठा । fare खेत्ते मग्गे सुहदुक्खे चेव सुत्ते य ॥१३६॥
उपसंपया य— उपसम्पच्चोपसेवात्मनो निवेदनमुपसम्पत् । णेया- ज्ञेया ज्ञातव्या । पंचविहापंचविधा पंचप्रकारा । जिणवरेहिं - जिनवरैः । णिद्दिट्ठा - निर्दिष्टा कथिता । के ते पंच प्रकारा इत्याहविणये - विनये । खेत्ते - क्षेत्रे | मग्गेमार्गे । सुहदुक्खे – सुखदुःखयोः । चशब्दः समुच्चये । एवकारोऽवधारणे । सुत्ते य-सूत्रे च । विषयनिर्देशोऽयं विनयादिषु विषयेधूपसम्पत् पंचप्रकारा भवति विनयादिभेदैर्वेति । तत्र विजयोपसम्पत्प्रतिपादनार्थमाह
पाहुण विणउवचारो तेस चावासभूमिसंपुच्छा । दाणा वत्तणाद विणये उवसंपया णेया ॥ १४०॥
पाहुणविण उपचारो -- विनयश्चोपचारश्च विनयोपचारौ प्राघूर्णिकानां पादोष्णानां विनयोपचारी,
प्राचारवृत्ति - गुरु और अन्य संघस्थ साधुओं से यदि पुस्तक या कमण्डलु आदि लेने की इच्छा हो तो नम्रतापूर्वक पुनः उनकी याचना करना अर्थात् पहले कोई वस्तु उनसे लेकर पुनः कार्य हो जाने पर वापस दे दी है और पुनः आवश्यकता पड़ने पर पाचना करना सो निमन्त्रणा है ।
अब उपसंपत् सूत्र के भेदों का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं
गाथार्थ - उपसंपत् के पाँच प्रकार हैं ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है । इन्हें विनय, क्षेत्र, मार्ग, सुखदुःख और सूत्र के विषय में जानना चाहिए ॥१३६॥
आचारवृत्ति - - उपसंपत् का अर्थ है उपसेवा अर्थात् अपना निवेदन करना । गुरुओं को अपना आत्मसर्पण करना उपसंपत् है जोकि विनय आदि के विषय में किया जाता है । इसलिए इसके पाँच भेद हैं- विनयोपसंपत्, क्षेत्रोपसंपत् मार्गोपसंपत्, सुख-दुःखोपसंपत् और सूत्रोपसंपत् ।
उनमें सबसे पहले विनयोपसंपत् को कहते हैं-
गाथार्थ --आगन्तुक अतिथि- साधु की विनय और उपचार करना, उनके निवास स्थान और मार्ग के विषय में प्रश्न करना, उन्हें उचित वस्तु का दान करना, उनके अनुकूल प्रवृत्ति करना आदि - यह विनय - उपसंपत् है ।
श्राचारवृत्ति - आगन्तुक साधु को प्राघूर्णिक या पादोष्ण कहते हैं । उनका अंगमर्दन
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