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[मूलाचारे
त्याह-सयणं - शयनं । णिसयणं-निषदनं आसनं । आदाणं-- आदानं ग्रहणं । भिक्ख-- भिक्षा । वोसरणंमूत्रपुरीषाद्युत्सर्गः। एतेषु प्रदेशेषु शयनासनादानभिक्षाद्युत्सर्गकालेषु । सच्छंदजं पिरोचि य-स्वेच्छया जल्पनशीलश्च स्वेच्छ्या जल्पने रुचिर्यस्य वा एवंभूतो यः सः । मे मम शत्रुरप्येकाकी माभूत् किं पुनर्मुनिरिति । यदि पुनरेवंभूतोऽपि विहरति ततः किं स्यादतः प्राह
गुरुपरिवादो सुदवुच्छेदो तित्थस्स मइलणा जडदा । भिभलकुसीलदत्थदा य उस्सारकप्पम्हि ॥ १५१ ॥
गुरुपरिवादो - गुरोः परिवादः परिभवः केनायं निःशीलो लुञ्चितः इति लोकवचनं । सुदबुच्छेदो — श्रुतस्य व्युच्छेदो विनाशः स तथाभूतस्तं दृष्ट्वा अन्योऽपि भवति अन्योऽपि कश्चिदपि न गुरुगृहं सेवते ततः श्रुतविनाशः । तित्थस्स - तीर्थस्य शासनस्य । मइलणा – मलिनत्वं नमोस्तूनां' शासने एवंभूताः सर्वेऽपीति मिथ्यादृष्ट्यो वदन्ति । जडदा -- मूर्खत्वं । भिभल-विह्वल आकुलः । कुसील - कुशीलः । पासत्यपार्श्वस्थ एतेषां भावः विह्वलकुशीलपार्श्वस्थता | उस्सारकप्पम्हि - उत्सारकल्पे त्याज्यकल्पे गणं त्यक्त्वा एकाकिनो विहरणे इत्यर्थः । मुनिनैकाकिना विहरमाणेन गुरुपरिभवश्रुतव्युच्छेद तीर्थमलिनत्वजडताः कृता भवन्ति तथा विह्वलत्वकुशीलत्वपार्श्वस्थत्वानि कृतानीति ।। १५१ ।।
सोने में, बैठने में, किसी वस्तु के ग्रहण करने में, आहार ग्रहण करने में, और मलमूत्रादि के विसर्जन करने में इन प्रसंगों में जो स्वेच्छा से प्रवृत्ति करता है और बोलने में जो स्वेच्छाचारी है ऐसा मेरा शत्रु भी एकाकी न होवे फिर मुनि की तो बात ही क्या है। अर्थात् आहार, विहार नीहार, उठना, बैठना, सोना और किसी वस्तु का उठाना या धरना इन सभी कार्यों में जो आगम के विरुद्ध मनमानी प्रवृत्ति करता है ऐसा कोई भी, मेरा शत्रु ही क्यों न हो, अकेला -- न रहे, मुनि की तो बात ही क्या है । उन्हें तो हमेशा गुरूओं के संघ में ही रहना चाहिए ।
और फिर भी यदि ऐसा मुनि अकेला विहार करता है तो क्या होता है ? सो बताते हैंगाथार्थ – स्वेच्छाचार की प्रवृत्ति में गुरु की निन्दा, श्रुत का विनाश, तीर्थ की मलिनता मूढ़ता, आकुलता, कुशीलता और पार्श्वस्थता ये दोष आते हैं ।। १५१ ॥
श्राचारवृत्ति - उत्सार कल्प में गण को छोड़कर एकाकी विहार करने पर उस मुनि के गुरु का तिरस्कार होता है अर्थात् इस शीलशून्य मुनि को किसने मूंड दिया है ऐसा लोग कहने लगते हैं । श्रुत की परम्परा का विच्छेद हो जाता है अर्थात् ऐसे एकाकी अनर्गल साधु को देखकर अन्य मुनि भी ऐसे हो जाते हैं, पुनः कुछ अन्य भी मुनि देखादेखी अपने गुरुगृह अर्थात् गुरु के संघ में नहीं रहते हैं तब श्रुत-शास्त्रों के अर्थ को ग्रहण न करने से श्रुत का नाश हो जाता है। तीर्थं का अर्थ शासन है । जिनेन्द्रदेव के शासन को 'नमोस्तु शासन' कहते हैं अर्थात् इसी दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में मुनियों को 'नमोस्तु' शब्द से नमस्कार किया जाता है। इस नमोस्तु शासन में -- जैन शासन में सभी मुनि ऐसे ही ( स्वच्छन्द) होते हैं ऐसा मिथ्यादृष्टि लोग कहने लगते हैं। तथा उस मुनि में स्वयं मूर्खता, विह्वलता, कुशीलता और पार्श्वस्थ रूप दुर्गुण प्रवेश कर जाते हैं ।
१. कत्वं सर्वज्ञानां शा ।
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