________________
सामाचाराधिकारः]
[१२७ किविशिष्ट एकविहारीत्यत आह
तवसुत्तसत्तएगत्तभावसंघडणधिदिसमग्गो य।
पवित्राआगमबलियो एयविहारी अणुण्णादो॥१४६॥
तपो द्वादशविधं सूत्रं द्वादशांगचतुर्दशपूर्वरूपं कालक्षेत्रानुरूपो वाऽगमः प्रायश्चित्तादिग्रन्थो वा सत्त्वं-कायगतं अस्थिगतं च बलं देहात्मकं वा भावसत्वं, एकत्वं शरीरादिविविक्ते स्वात्मनि रतिः भावः शुभपरिणामः सत्त्वकार्य, संहननं अस्थित्वग्दृढता वज्रर्षभनाराचादित्रयं, धृतिः मनोबलं, क्षुधाद्यबाधनं चैतासां द्वंद्व: एताभिर्युक्तस्तपःसूत्रसत्त्वकत्वभावसंहननधृतिसमग्रः । न केवलमेवंविशिष्टः किन्तु पवियाआगमबलिओ-प्रव्रज्यागमबलवांश्च तपसा वृद्धः, आचारसिद्धान्तक्षुण्णश्च यः स एकविहारी अनुज्ञातोऽनुमतो जिनवरैरिति सम्बन्धः।
न पुनरेवंभूतः
सच्छंदगदागदीसयणणिसयणादाणभिक्खवोसरणे।
सच्छंदपरोचि य मा मे सत्तूवि एगागी॥१५०॥ सच्छंदगदागदी-स्वैरं स्वेच्छया गत्यागती गमनागमने यस्यासौ स्वैरगतागतिः। केषु स्थानेष्वि
.एकलविहारी साधु कैसे होते हैं ? सो बताते हैं
गाथार्थ-तप, सूत्र, सत्त्व, एकत्वभाव, संहनन और धैर्य इन सबसे परिपूर्ण दीक्षा और आगम में बली मुनि एकलविहारी स्वीकार किया गया है ॥१४६।।
प्राचारवृत्ति-अनशन आदि द्वादश प्रकार का तप है। बारह अंग और चौदह पूर्व को सूत्र कहते हैं अथवा उस काल-क्षेत्र के अनुरूप जो आगम है वह भी सूत्र है तथा प्रायश्चित्त ग्रन्थ आदि भी सूत्र नाम से कहे गए हैं । शरीरगत बल को, अस्थि की शक्ति को अथवा भावों के बल को सत्त्व कहते हैं । शरीर आदि से भिन्न अपनी आत्मा में रति का नाम एकत्व है। और शुभ परिणाम को भाव कहते हैं यह सत्त्व का कार्य है। अस्थियों की और त्वचा की दृढ़ता वज्रऋषभ आदि तीन संहननों में विशेष रहती है। मनोबल को धैर्य कहते हैं। क्षुधादि से व्याकुल नहीं होना धैर्यगुण है। जो इन तप, सूत्र, सत्त्व, एकत्वभाव तथा उत्तम संहनन और धैर्य गुणों से परिपूर्ण हैं; इतना ही नहीं, दीक्षा से आगम से भी बलवान हैं अर्थात् तपश्चर्या से वृद्ध हैं-अधिक तपस्वी हैं, आचार सम्बन्धी सिद्धान्त में भी अक्षुण्ण हैं-निष्णात हैं। अर्थात् आचार ग्रन्थों के अनुकूल चर्या में निपुण हैं ऐसे गुणविशिष्ट मुनि को ही जिनेन्द्रदेव ने एकलविहारी होने की अनुमति दी है।
किन्तु जो ऐसे गुणयुक्त नहीं हैं उनके लिए क्या आज्ञा है ?
गाथार्थ-गमन, आगमन, सोना, बैठना, किसी वस्तु को ग्रहण करना, आहार लेना और मलमूत्रादि विसर्जन करना-इन कार्यों में जो स्वच्छंद प्रवृत्ति करनेवाला है, और बोलने में भी स्वच्छन्द रुचि वाला है, ऐसा मेरा शत्रु भी एकलविहारी न होवे ॥१५०॥
प्राचारवृत्ति- जिसका स्वैर वृत्ति से गमन-आगमन है। किन-किन स्थानों में ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org