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[मूलाधारे दीक्षाश्रतगुर्वादिभिः । विसज्जिदो-विसृष्टो मुक्तः । संतो--सन् । किमेकाक्यसौ गच्छति नेत्याह-अप्पचउत्थो-चतुर्णा पूरणश्चतुर्थः आत्मा चतुर्थो यस्यासावात्मचतुर्थः । त्रयाणां द्वयोर्वा पूरणस्तृतीयो द्वितीयः । आत्मा तृतीयो द्वितीयो वा यस्यासावात्मतृतीय आत्मद्वितीयः । त्रिभिभ्यिामेकेन वा सह गंतव्यं नैकाकिना। सो तदो-स साधुस्ततः तस्मात् स्वगुरुकुलात । णोदि--निर्गच्छति। एवमापृच्छ्य स्वकीयवरगुरुभिश्च विसृष्टः सन्नात्मचतुर्थो निर्गच्छति, आत्मतृतीय आत्मद्वितीयो वा उत्कृष्टमध्यमजघन्यभेदात् ॥१४७॥ किमिति कृत्वान्येन न्यायेन विहारो न युक्तो यतः
गिहिदत्थे य विहारो विदियोऽगिहिदत्थसंसिदो चेव ।
एत्तो तदियविहारो णाणण्णादो जिणवरेहिं ॥१४८॥ गिहिदत्थेय-गृहीतो ज्ञातोऽर्थो जीवादितत्त्वं येनासौ गृहीतार्थश्च एकः प्रथमः । विहारो-विहरणं देशान्तरगमनेन चारित्रानुष्ठानं । अथवा विहरतीति विहारः एकश्च विहारश्चैकविहारः । विदिओ-द्वितीयः । अगिहीदत्थसंसिदो-अगृहीतार्थेन संश्रितो युक्तः । अथ को द्वितीयः, अगहीतार्थस्तस्यानेन सहाचरणं नैकस्य । एत्तो-एताभ्यां गृहीतागृहीतार्थसंश्रिताभ्यामन्यः । तदियविहारो-तृतीयविहारः । णाणण्णादो-नानुज्ञातोः नाभ्युपगतो जिनवरैरहद्भिः । एको गृहीतार्थस्य विहारोऽपरोगृहीतार्थेन संथितस्य तृतीयो नानुज्ञात: परमेष्ठिभिरिति ।
लेकर पुनः क्या एकाकी जाता है ? नहीं, किंतु वह तीन को साथ लेकर या दो मुनियों या फिर एक मुनि के साथ जाता है । अर्थात् कम से कम दो मुनि मिलकर अपने गुरु के संघ से निकलते हैं। वह एकाकी नहीं जाता है ऐसा समझना । सारांश रूप से उत्कृष्ट तो यह है कि वह मुनि अपने साथ तीन मनियों को लेकर जावे । मध्यम मार्ग यह है कि दो मनियों के साथ जावे जघन्य मार्ग यह है कि एक मुनि अपने साथ लेकर जावे । अकेले जाना उचित नहीं है।
अन्य रीति से मुनि का विहार क्यों युक्त नहीं ? इसी बात को बताते हैं
गाथार्थ-गृहीतार्थ विहार नाम का विहार एक है और अगृहीतार्थ से सहित विहार दूसरा है। इनसे अतिरिक्त तीसरा कोई भी विहार जिनेन्द्रदेव ने स्वीकार नहीं किया है ॥१४८॥
आचारवृत्ति-गृहीत-जान लिया है अर्थ-जीवादि तत्त्वों को जिन्होंने उनका विहार गहीतार्थ कहलाता है। यह पहला विहार है अर्थात् जो जीवादि पदार्थों के ज्ञाता महासाधु देशांतर में गमन करते हुए चरित्र का अनुष्ठान करते हैं उनका विहार गृहीतार्थ नाम का विहार है। अथवा गृहीतार्थ साधु एक-एकल विहारी होता है । दूसरा विहार अगृहीत अर्थ से सहित है। इनके अतिरिक्त तीसरा विहार अर्हतदेव ने स्वीकार नहीं किया है।
भावार्थ-विहार के दो भेद हैं गृहीतार्थ और अगृहीतार्थ । तत्त्वज्ञानी मुनि चारित्र में दृढ़ रहते हुए जो सर्वत्र विचरण करते हैं उनका विहार प्रथम है और जो अल्प-ज्ञानी चारित्र का पालन करते हुए विचरण करते हैं उनका विहार द्वितीय है । इनके सिवाय अन्य तरह का विहार जिनशासन में अमान्य है।
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