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सामाचाराधिकार: ]
न केवलमेते दोषा किन्त्वात्मविपत्तिश्चेत्यत आह
कंटखण्णुयपडिणियसाणगोणादिसप्पमेच्छेहि ।
पावइ श्रादविवत्ती विसेण व विसूइया चेव ॥ १५२॥
कंटय - कण्टकाः । खणुय - स्थाणुः । पडिणिय -- प्रत्यनीकाः क्रुद्धाः । साणगोणदि - श्वगवादयः । रूपमेच्छह-सर्प म्लेच्छाः । एतेषां द्वन्द्वस्तैः कण्टकस्थाणुप्रत्यनीकश्व गवादिसर्पम्लेच्छैः । पावइ – प्राप्नोति । आदविवत्ती-आत्मविपत्ति स्वद्विनाशं । विसेण व- विषेण च मारणात्मकेन द्रव्येण । विसूइया चेव -- विसूचिक्या वाजीर्णेन । एवकारो निश्चयार्थः । निश्चयेनैकाकी विहरन् कण्टकादिभिर्विषेण विसूचिकया वात्मविपत्ति प्राप्नोति ॥ १५२॥
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विहरस्तावत्तिष्ठतु तिष्ठन् कश्चित् पुनर्निर्धर्मो गुरुकुलेऽपि द्वितीयं नेच्छतीत्याह
गारविप्रो गिद्धी माइल्लो श्रलसलुद्धषिद्धम्मो ।
गच्छेवि संवसंतो णेच्छइ संघाडयं मंदो ॥ १५३॥
गारविओ— गौरवसमन्वितः ऋद्धिरससातप्राप्त्या अन्यानधिक्षिपति । गिद्धीओ-गृद्धिक आकां
भावार्थ- जो मुनि आगम से विरुद्ध होकर अकेले विहार करते हैं उनके निमित्त से उनके दीक्षागुरु का अपमान, श्रुत की परम्परा का विच्छेद, जैन शासन की निन्दा ये दोष होते हैं तथा उस मुनि के अन्दर मूर्खता आदि दोष आ जाते हैं ।
केवल इतने ही दोष नहीं होते हैं, मुनि के आत्मविपत्तियाँ भी आ जाती हैं, सो ही बताते हैं
गाथार्थ - काँटे, ठूंठ, विरोधीजन, कुत्ता, गौ आदि तथा सर्प और म्लेच्छ जनों से अथवा विष से और अजीर्ण आदि रोगों से अपने आपमें विपत्ति को प्राप्त कर लेता है ।। १५२ ॥
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श्राचारवृत्ति - निश्चय से एकाकी विहार करता हुआ मुनि काँटे से, ठूंठ से, मिथ्यादृष्टि, क्रोधी या विरोधी जनों से, कुत्तेगौ आदि पशुओं से या साँप आदि हिंसक प्राणि से अथवा म्लेच्छ अर्थात् नीच अज्ञानी जनों के द्वारा स्वयं को कष्ट में डाल लेता है । अथवा विषैले आहार आदि से या हैजा आदि रोगों से आत्म विपत्ति को प्राप्त कर लेता है । इसलिए अकेले विहार करना उचित नहीं है । यहाँ 'एव' शब्द निश्चय अर्थ का वाची है अतः अकेले विहार करनेवाला मुनि निश्चित ही इन कंटक, विष आदि निमित्तों से अपनी हानि कर लेता है ।
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एकाकी विहार करनेवाले की बात तो दूर ही रहने दीजिए, कोई धर्मशून्य मुनि गुरु के संघ में भी दूसरे मुनिजन को नहीं चाहता है
गाथार्थ - जो गौरव से सहित है, आहार में लम्पट है, मायाचारी है, आलसी है, लोभी है और धर्म से रहित है ऐसा शिथिल मुनि संघ में रहते हुए भी साधु समूह को नहीं चाहता
है ॥ १५३ ॥
श्राचारवृत्ति-जो ऋद्धि, रस और साता को प्राप्त करके उनके गौरव से सहित होता
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