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[मूलाचारे पादावणादिगहणे सण्णा भामगादिगमणे वा।
विणयेणायरियादिसु पापुच्छा होदि कायव्वा ॥१३॥
आदावणादिगहणे-आतपनं व्रतपूर्वक मुष्णसहनं आदिर्येषां ते आतापनादयस्तेषां ग्रहणमनुष्ठानं तस्मिन्नातपनवक्षमूलाभ्रावकाशकायोत्सर्गादिग्रहणे । सण्णा उभामगादिगमणे-वा संज्ञायामाहारकालशोधनादिकेच्छायां उद्धृम्यते गम्यते उद्भ्रम, उद्मम एवोद्भ्रमकोऽन्यग्रामः स आदिर्येषां ते उद्भ्रमकादयस्तेषां गमनं प्रापणं तस्मिन्वा, निमितवशादन्यग्रामगमने वा। विणण-विनयेन नमस्कारपूर्वकप्रणामेन । आइरियादिसु-आचार्य आदिर्येषां ते आचार्यादयस्तेषु आचार्यप्रर्वतकस्थविरगणधरादिषु । आपुच्छा-आपृच्छा। होदि-भवति । कादम्वा कर्तव्या। यत्किचित्कार्य करणीयं तत्सर्वमाचार्यादीनापुच्छ्य क्रियते यदि आपच्छा भवति तत इति ॥ ३५॥
प्रतिपृच्छास्वरूपनिरूपणार्थमाह
जं किचि महाकज्ज करणीयं पुच्छिऊण गुरुआदी।
पुणरवि पुच्छदि साहू तं जाणसु होदि पडिपुच्छा ॥१३६॥
जंकिंचि-यत्किचित् सामान्यवचनमेतत् । महाकज्ज—महत्कार्य वृहत्प्रयोजनं। करणीयं--- कर्तव्यमनुष्ठानीयं। पुच्छिऊण---पृष्ट्वा । गुरुआदी—गुरुरादिर्येषां ते गुर्वादयस्तान् गुरुप्रवर्तकस्थविरादीन् । पुणरवि-पुनरपि । पुच्छदि—पृच्छति । साहू-साधून् परिशेषधर्मोद्युक्तान् । अथवा स साधुः पुनरपि पृच्छति येन पूर्वं याचितं । तं जाण-तज्जानीहि बुध्यस्व। होदि-भवति । पडिपुच्छा–प्रतिपृच्छा। यत्किचित्
गाथार्थ-आतापन आदि के ग्रहण करने में, आहार आदि के लिए जाने में अथवा अन्य ग्राम आदि में जाने के लिए विनय से आचार्य आदि से पूछकर कार्य करना चाहिए ॥१३५।।
प्राचारवृत्ति-व्रतपूर्वक उष्णता को सहन करना आतापन कहलाता है। आदि शब्द से वृक्षमूलयोग, अभ्रावकाशयोग, और कायोत्सर्ग को ग्रहण करते समय, आहार के लिए जाते समय, शरीर की शुद्धि-मलमूत्र आदि विसर्जन के लिए जाते समय, उद्भ्रामक अर्थात् किसी निमित्त से अन्य ग्राम आदि के लिए गमन करने में विनय से नमस्कार पूर्वक प्रणाम करके आचार्य, प्रवर्तक, स्थविर, गणधर आदि से पूछकर करना चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि जो कुछ भी कार्य करना है वह सब यदि आचार्य आदि से पूछकर किया जाता है उसी का नाम आपृच्छा है।
अब प्रतिपृच्छा के स्वरूप का निरूपण करते हुए कहते हैं
गाथार्थ-जो कोई भी बड़ा कार्य करना हो तो गुरु आदि से पूछकर और फिर साधुओं से जो पूछता है वह प्रतिपृच्छा है ऐसा जानो।।१३६॥
प्राचारवृत्ति-मुनियों को यदि कोई बड़े कार्य का अनुष्ठान करना है तो गुरु, प्रवर्तक, स्थविर आदि से एक बार पूछकर, पुनरपि गुरुओं से तथा साधुओं से पूछना प्रतिपृच्छा है। अथवा यहाँ साधु को प्रथमान्तपद समझना, जिससे ऐसा अर्थ होता है कि साधु किसी बड़े कार्य
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