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धीरेण वि मरिदव्वं णिद्धीरेण वि श्रवस्स मरिदव्वं । जदि दोहिं वि मरिदव्वं वरं हि धीरतणेण मरिदव्वं ॥ १०० ॥
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धीरेण वि-धीरेणापि सत्त्वाधिकेनापि । मरियव्यं - मर्तव्यं प्राणत्यागः कर्तव्यः । णिद्धीरेण विनिर्धैर्येणापि धैर्यरहितेनापि कातरेणापि भीतेनापि । अवस्स - - अवश्यं निश्चयेन । मरिवब्वं मर्तव्यं । जइदोहि वि-यदि द्वाभ्यामपि । मरिदव्यं - मर्तव्यं भवान्तरं गन्तव्यं विशेषाभावात् । वरं श्रेष्ठं । हि- स्फुटं । धीरत्तणेण - धीरत्वेन संक्लेशरहितत्वेन । मरिदव्वं - मर्तव्यं । यदि द्वाभ्यामपि धैर्याधर्मोपेताभ्यां प्राणत्यागः कर्तव्यो निश्चयेन ततो विशेषाभावात् धीरत्वेन मरणं श्रेष्ठमिति ॥ १००॥
क्षुधादिपीडितस्य यदि शीलविनाशे कश्चिद्विशेषो विद्यतेऽजरामरणत्वं यावता हि
सीलेणवि मरिदव्वं णिस्सीलेणवि श्रवस्स मरिदव्वं ।
जइ दोहि वि मरियव्वं वरं हु सीलत्तणेण मरियव्वं ॥ १०१ ॥
यदि द्वाभ्यामपि शीलनिःशीलाभ्यां मर्तव्यं अवश्यं वरं शीलत्वेन शीलयुक्तेन मर्तव्यमिति । व्रतपरिरक्षणं शीलं यदि सुशीलनिःशीलाभ्यां निश्चयेन मर्तव्यं शीलेनैव मर्तव्यम् ॥ १०१ ॥
अत्र किं कृतो नियम ? इत्याह
[मूलाचारे
गाथार्थ - धीर को भी मरना पड़ता है और निश्चित रूप से धैर्य रहित जीव को भी मरना पड़ता है । यदि दोनों को मरना ही पड़ता है तब तो धीरता सहित होकर ही मरना अच्छा है ॥ १०० ॥
श्राचारवृत्ति- -सत्त्व अधिक जिसमें है ऐसे धीर वीर को भी प्राणत्याग करना पड़ता है और जो धैर्य से रहित कायर हैं— डरपोक हैं, निश्चित रूप से उन्हें भी मरना पड़ता है । यदि दोनों को मरना ही पड़ता है, उसमें कोई अन्तर नहीं है तब तो धीरतापूर्वक - संक्लेश रहित होकर ही प्राणत्याग करना श्रेष्ठ है ।
क्षुधादि से पीड़ित हुए क्षपक के यदि शील के विनाश में कोई अन्तर हो तो अजरअमरपने का विचार करना चाहिए
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गाथार्थ - शीलयुक्त को भी मरना पड़ता है और शील रहित को भी मरना पड़ता है यदि दोनों को ही मरना पड़ता है तब तो शील सहित होकर ही मरना श्रेष्ठ है ॥। १०१ । श्राचारवृत्ति-तों का सब तरफ से रक्षण करनेवालों को शील कहते हैं । यदि शील सहित और शीलरहित इन दोनों को भी निश्चितरूप से मरना पड़ता है तब तो शीलसहित रहते हुए ही मरना अच्छा है ।
यहाँ यह नियम क्यों किया है ? ऐसा पूछने पर कहते हैं
१. क वरं खु धीरेण । २. क 'भ्यां निश्चयेन मर्तव्यं वरं ।
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