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[मूलाचारे दयमर्यादो। समणा-श्राम्यति तपस्यंतीति श्रमणा मुनयः । अहोरत्तमंडले--अहश्च रात्रिश्चाहोरात्रस्तस्य मण्डलं सन्ततिरहोरात्रमंडलं तस्मिन् दिवसरात्रिमध्यक्षणसमुदये । कसिणे-कृत्स्ने निरवगष । जं आचरंति-यदाचरन्ति यन्नियमादिक निर्वतयन्ति । सददं-सततं निरंतरं । एसो-एप प्रत्यक्षवचनमेतत् । भणिओ-भणितोऽहंदभद्रारकै: कथित: आपतकर्तत्वप्रतिपादनमेतत् । पदविभागी--पदस्यानुप्ठानं । उद्गमसूरप्रभतौ कृत्स्नेहोरात्रमण्डले यदाचरन्ति श्रमणाः सततं स एप पदविभागीति कथितः । उत्तरपदापेक्षया पुल्लिगतेति म दोपो लिंगव्यत्ययः ।।१३०॥
इण्टे वस्तुनीच्छाकारः कर्तव्य इत्युक्तं पुरस्तात् तत्किमित्याह
संजमणाणुवकरणे अण्णुवकरणे च जायणे अण्णे।
जोगग्गहणादीसु य इच्छाकारो दु कादव्वो॥१३१॥
संजमणाणवकरणे-मयम इन्द्रियनिरोध: प्राणिदया च ज्ञानं ज्ञानावरणक्षयोपशमात्पन्नवस्त. परिच्छेदात्मक प्रत्ययः श्रुतज्ञानं वा तयोरुपकरणं पिच्छिकापुस्तकादि तस्मिन् संयमज्ञानोपकरणहेतौ विपये वा। अण्णवकरणे च-अन्यस्य तपःप्रभतेरुपकरणं कुटिकाहारादिक तस्मिश्च तद्विषये च । जायणे-याचने भिक्षणे।
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का अर्थ है। इस पद में उद्गम शब्द का पूर्व में निपात हो गया है (यह व्याकरण का विषय है।। उस उद्गम सूर्य को आदि में लेकर अर्थात् सूर्योदय से लेकर सम्पूर्ण अहोरात्र के क्षणों में श्रमणगण-मुनिगण निरन्तर जिन नियम आदि का आचरण करते हैं सो यह प्रत्यक्ष में पदविभागी समाचार है ऐसा अर्हत भट्टारक ने कहा है । इसमे यह समाचार आप्त के द्वारा कथित है ऐसा निश्चय हो जाता है । यहाँ पद के अनुष्ठान का नाम पदविभागी है । श्रमण शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए आचार्य ने यहाँ बतलाया है कि जो थम करते हैं अर्थात् तपश्चरण करते हैं (श्राम्यन्ति तपस्यन्ति) वे श्रमण हैं अर्थात मूनिगण ही श्रमण या तपोधन कहलाते हैं । यहाँ पदविभागी शब्द में उत्तरपद की अपेक्षा पुल्लिग विभक्ति का निर्देश है इसलिए लिंग विपर्यय नाम का दोष
रण से नहीं होता है। तात्पर्य यह हुआ कि प्रातःकाल से लेकर वापस सूर्योदय होने तक साधुगण निरन्तर जिन नियम आदि का पालन करते हैं वह सब पदविभागी समाचार कहलाता है।
विशेषार्थ-श्री वीरनन्दि आचार्य ने आचारसार में इन दोनों के नाम संक्षेप समाचार और विस्तार समाचार मे भी कहे हैं।
इष्ट वस्तु में इच्छाकार करना चाहिए ऐसा आपने पहले कहा है। वह इष्ट क्या है ? सो बताते हैं---
__ गाथार्थ-संयम का उपकरण, ज्ञान का उपकरण, और भी अन्य उपकरण के लिए तथा किसी वस्तु के मांगने में एवं योग-ध्यान आदि के करने में इच्छाकार करना चाहिए ॥१३१॥
प्राचारवृत्ति-पाँच इन्द्रिय और मन का निरोध तथा प्राणियों पर दयाभाव-इसका नाम संयम है। संयम का उपकरण पिच्छिका है। ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हआ जो वस्तु को जानने वाला ज्ञान है अथवा जो श्रुतज्ञान है उसे ज्ञान शब्द से कहा है।
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