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[मूलाचारे जा गदी अरहंताणं णिटिवाणं च जा गदी।
जा गदी वीदमोहाणं सा मे भवदु सस्सदा॥१०७॥
जा गदी--या गतिः । अरहंताणं-अर्हतां । णिद्विवद्वाणं च-निष्ठितार्थानां च या गतिः सिद्धानामित्यर्थः । जा गदी-या गतिः । वीदमोहाणं-वीतमोहानां क्षीणकषायाणां । सा मे भवदु-सा मे भवतु । सस्सदा-शश्वत् सर्वदा । अर्हतां या गतिः, या च निष्ठितार्थानां वीतमोहानां च या, सा मे भवतु सर्वदा नान्यत् किंचिद्याचेऽहमिति । नात्र पुनरुक्तादयो दोषा: पर्यायाथिकशिष्यप्रतिपादनात् तत्कालयोग्यकथनाच्च । नापि विभक्त्यादीनां व्यत्ययः प्राकृतलक्षणेन सिद्धत्वात् । छन्दोभंगोऽपि न चात्र गाथाविगाथाश्लोकादिसंग्रहात, तेषां चात्र प्रपंचो न कृतः ग्रन्थबाहुल्यभयात् संक्षेपेणार्थकथनाच्चेति ॥१०७॥ .
इत्याचारवृत्तो वसुनन्दिविरचितायां द्वितीयः परिच्छेदः ।
गाथार्थ-अर्हन्त देव की जो गति हुई है और कृतकृत्य-सिद्धों की जो गति हुई है तथा मोहरहित जीवों की जो गति हुई है वही गति सदा के लिए मेरी होवे ॥१०७।।
प्राचारवृत्ति-हे भगवन्, जो गति अर्हन्तों की, सिद्धों की और क्षीणकषायी जीवों की होती है वही गति मेरी हमेशा होवे, और मैं कुछ भी आपसे नहीं माँगता हूँ।
इस अधिकार में पुनरुक्ति आदि दोष नहीं ग्रहण करना चाहिए क्योंकि पर्यायार्थिक नय से समझनेवाले शिष्यों को समझाने के लिए और तत्काल-उसकाल के योग्य कथन को कहने के लिए ही पुनः पुनः एक बात कही गयी है। विभक्ति आदि का विपर्यय भी इसमें नहीं लेना क्योंकि प्राकृत व्याकरण से ये पद सिद्ध हो जाते हैं। छंदभंग दोष भी यहाँ नहीं समझना क्योंकि गाथा, विगाथा और श्लोक आदि का संग्रह किया गया है । ग्रन्थ के विस्तृत हो जाने के भय से और संक्षेप से ही अर्थ को कहने की भावना होने से यहाँ इन गाथाओं के अर्थ का अधिक
र से विवेचन नहीं किया गया है। अर्थात मैंने (टीकाकार वसनन्दि ने) टीका में मात्र उन्हीं शब्दों का ही अर्थ खोला है किन्तु विशेष अर्थ का विवेचन नहीं किया है अन्यथा ग्रन्थ बहुत बड़ा हो जाता । और दूसरी बात यह भी है कि हमें संक्षेप से ही अर्थ कहना था ।
इस प्रकार श्री वट्टकेर आचार्य विरचित मूलाचार की श्री वसुनन्दि आचार्य द्वारा विरचित 'आचारवृत्ति' नामक टीका में
द्वितीय परिच्छेद पूर्ण हुआ।
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