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संक्षेपप्रत्याख्यानाधिकारः ]
सामायिकत्रतस्वरूपनिरूपणार्थमाह-
सम्मं मे सव्वभूदेस वेरं मज्झण केणइ ।
आसाए वोसरित्ताणं समाधि पडिवज्जए ॥ ११० ॥
सम्म – समस्य भाव साम्यं । मे मम । सव्वभूदेसु - सर्वभूतेषु निरवशेषजीवेषु । वेरं - वैरं । मज्झमम । ण केणइ --- न केनापि । आसाए - आशा आकांक्षाः । वोसरित्ताणं- व्युत्सृज्य । समाहिसमाधि शुभ परिणामं । पडिवज्जए - प्रतिपद्ये । यतः साम्यं मम सर्वभूतेषु वैरं मम न केनाप्यत आशा व्युत्सृज्य समाधि प्रतिपद्ये इति ॥। ११० ।।
पुनरपि परिणामशुद्ध्यर्थमाह
सव्वं आहार विहि सण्णाओ ग्रासए कसाए य । सव्वं चेय ममत्त जहामि सव्वं खमावेमि ॥ १११ ॥
सर्वमाहारविधि अशनपानादिकं संज्ञाश्चाहारादिका आशा इहलोकाद्याकांक्षाः कषायांश्च सर्व चैव ममत्वं जहामि त्यजामि सर्वं जनं क्षामयामीति ।
द्विविधप्रत्याख्यानार्थमाह
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एहि देशयाले उवक्कमो जीविदस्स जदि मज्भं । एदं पञ्चक्खाणं णित्थिण्णे पारणा हुज्ज ॥ ११२ ॥
एदम्हि - एतस्मिन् । देसयाले - देशकाले । उवक्कमो - उपक्रमः प्रवर्तनं अस्तित्वं । जीविदस्स
सामायिकव्रत के स्वरूप का निरूपण करते हुए कहते हैं
गाथार्थ - सभी प्राणियों में मेरा साम्यभाव है । किसी के साथ भो मेरा वैर नहीं है, मैं सम्पूर्ण आकांक्षाओं को छोड़कर शुभ परिणाम रूप समाधि को प्राप्त करता हूँ ॥११०॥ इसकी टीका सरल है ।
पुनरपि परिणाम की शुद्धि के लिए कहते हैं—
गाथार्थ – सर्व आहार विधि को, आहार आदि संज्ञाओं को, आकांक्षाओं और कषायों को तथा सम्पूर्ण ममत्व को भी मैं छोड़ता हूँ तथा सभी से क्षमा कराता हूँ ॥१११॥
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श्राचारवृत्ति - अशन, पान आदि सम्पूर्ण आहारविधि को, आहार भय आदि संज्ञाओं को, इस लोक तथा पर लोक आदि की आकांक्षा रूप सभी आशाओं को, कषायों को और सम्पूर्ण ममत्व को मैं छोड़ता हूँ तथा सभी जनों से मैं क्षमा कराता हूँ ।
दो प्रकार के प्रत्याख्यान बताते हुए कहते हैं
गाथार्थ - यदि मेरा इस देश या काल में जीवन रहेगा तो इस प्रत्याख्यान की समाप्ति करके मेरी पारणा होगी ॥ ११२ ॥
आचारवृत्ति - इस देश काल में उपसर्ग के प्रसंग में यदि मेरा जीवन नहीं रहेगा तो
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