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[मूलाचारे
नमस्कारानन्तरमुररीकृतस्यार्थस्य प्रकटनार्थमाह--
सव्वं पाणारंभं पच्चक्खामि अलीयवयणं च ।
सव्वमदत्तादाणं मेहुणपरिग्गहं चेव ॥१०६॥ प्रथमं तावत् व्रतशुद्धि करोमीति । सव्वं पाणारंभं---सर्व निरवशेष प्राणारम्भं हिंसां । पच्चक्खामि -प्रत्याख्यामि त्यजामि । अलीयवयणं च-व्यलीकवचनं च मिथ्यावाद च । सव्वं-सर्वं। अदत्तादाणंअदतादानं । मेहुण-मैथुनं । परिग्गहं चेव–परिग्रहं चैव । पाणारम्भ, मिथ्याव वनं, अदत्तादानं, मैथुनपरिग्रहौ च प्रत्याख्यामीति ॥१०६।।
उनमें जो वृषभ-प्रधान हैं वे सयोग केवली, अयोग केवली अथवा सिद्ध परमेष्ठी जिनवर वृषभ कहलाते हैं। वर्धमान भगवान् जिनवर वृषभ हैं, शेष जिनों में तेईस तीर्थंकर अथवा समस्त अर्हन्त परमेष्ठी आ जाते हैं । ऋषि, मुनि, यति और अनगार इनके समूह का नाम गण है। गणों से सहित गणधरदेव सगण गणधर कहलाते हैं । अर्थात् श्री गौतमस्वामी आदि गणसहित गणधर हैं। तात्पर्य यह हुआ कि ग्रन्थ के करने के अभिप्रायवाला यह मैं जिनवरों में प्रधान वर्धमान भगवान् को, शेष सभी जिनेश्वरों को और अपने-अपने गणसहित सभी गणधरों को प्रणाम करता हूँ। अथवा गण और गणधरों सहित सभी जिनेश्वरों को मैं नमस्कार करता हूँ- ऐसा भी अभिप्राय समझना चाहिए। इस अर्थ में 'सगण गणधर' यह विशेषण जिनेन्द्र का ही कर दिया गया है।
विशेषार्थ—'हरिवंशपुराण' में भगवान् महावीर के ग्यारह गणधरों के गणों की संख्या पृथक्-पृथक् बतलायी गयी है। सभी संख्या जोड़कर ही भगवान् के समवसरण के मुनियों की संख्या निर्धारित की गयी है। यथा 'भगवान् महावीर स्वामी के समवसरण में इन्द्रभूति आदि ग्यारह गणधर थे। उनमें से प्रथम गणधर इन्द्रभूति पुनः द्वितीयादि गणधर अग्निभूति, वायुभूति, शुचिदत्त, सुधर्म, मांडव्य, मौर्यपुत्र, अकंपन, अचल, मेदार्य और प्रभास इन नाम वाले थे। इनमें से प्रारम्भ के पाँच गणधरों की गण अर्थात् शिष्य-संख्या, प्रत्येक की दो हजार एक सौ तीस, उसके आगे छठवें और सातवें गणधर की गणसंख्या प्रत्येक की चार सौ पच्चीस, तदनन्तर शेष चार गणधरों की गणसंख्या प्रत्येक की छह सौ पच्चीस, इस प्रकार ग्यारह गणधरों की शिष्य-संख्या चौदह हज़ार थी। इन चौदह हज़ार शिष्यों में से तीन सौ मुनि पूर्व के धारी, नौ सौ विक्रियाऋद्धि के धारक, तेरह सौ अवधिज्ञानी, सात सौ केवलज्ञानी, पाँच सौ विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान के धारक, चार सौ परवादियों के जीतनेवाले वादी और नौ हजार नौ सौ शिक्षक थे। इस प्रकार श्री जिनेन्द्रदेव भगवान् महावीर का, ग्यारह गणधरों से सहित चौदह हज़ार मुनियों का संघ नदियों के प्रवाह से सहित समुद्र के समान सुशोभित हो रहा था।' (हरिवंश पुराण, सर्ग ३, श्लोक ४१-५०)
नमस्कार के अनन्तर स्वीकृत किये अर्थ को प्रकट करते हुए कहते हैं
गाथार्थ-सम्पूर्ण प्राणिहिसा को, असत्य वचन को, सम्पूर्ण अदत्त ग्रहण और मैथुन तथा परिग्रह को भी मैं छोड़ता हूँ ॥१०६।।
टीका का अर्थ सरल है।
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