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[मूलाचारे
कलुसिद – कलुषितः रागद्वेषाद्युपहतः । भूदो - भूतः सन् । कामभोगेसु — कामभोगेषु । मुच्छिदो— मूच्छितः । संतो -सन् । अभुंजंतो वि य - अभुञ्जानोऽपि च असेवमानोऽपि च । भोगे - भोगान् सांसारिकसुख हेतून् । परिणामेण - परिणामेन चित्तव्यापारेण । णिवज्झेइ - निबध्यते कर्मणा परवशः क्रियते, कर्म वा बध्नाति । कामभोगेषु मूच्छितः सन् कांक्षितः कलुषीभूतश्च भोगानुभुंजानोऽपि जीवः परिणामेन कर्म बध्नाति बध्यते वा कर्मणेति ॥८१॥
किमिच्छामात्रेणाभुंजानस्यापि पापं भवतीत्याह
श्राहारणिमित्तं किर मच्छा गच्छंति सत्तम पुढवि । सच्चित्तो आहारो ण कप्पदि मणसावि पत्थेदुं ॥ ८२ ॥
आहारणिमित्तं - आहारकारणात् । किर - किल आगमे कथितं नारुचिवचनमेतत् निश्चयवचनमेव । मच्छा -- मत्स्याः । गच्छंति - यान्ति प्रविशन्ति । सतम - सप्तमी । पुढव — पृथिवीं अवधिस्थानं सच्चित्तो— सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तः सावद्योऽयोग्यः प्राणिघातादुत्पन्नः । आहारो - भोजनं । ण कप्पदिन कल्पते न योग्यो भवति । मणसावि-मनसापि चित्तव्यापारेणापि । पत्थेतुं - प्रार्थयितुं याचयितुं । आहारनिमित्तं मत्स्याः शालिसिक्थादयो निश्चयेन सप्तमीं पृथिवीं गच्छति यतोऽतो मनसापि प्रार्थयितुं सावद्याहारो न
कांक्षा जिसको होती है अथवा जो कांक्षा करता है वह कांक्षित है । रागद्वेष आदि भावों से सहित जीव कलुषित है । तथा नाना विषयों की इच्छा करता हुआ रागद्वेष युक्त यह जीव काम और भोगों से मूच्छित होता हुआ, अत्यधिक आसक्त होता हुआ, सांसारिक सुख के कारणंभूत भोगों का सेवन नहीं करते हुए भी मन के व्यापार से, भावमात्र से, कर्मों से बन्ध जाता है अर्थात् कर्मों के द्वारा परवश कर दिया जाता है अथवा यह जीव कर्मों को बाँध लेता है अर्थात् नाना प्रकार की इच्छाओं को करता हुआ जीव भोगों को बिना भोगे भी कर्मों का बन्ध करता रहता है ।
क्या इच्छामात्र से बिना भोगते हुए भी पाप होता है ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैंगाथार्थ - आहार के निमित्त से ही नियम से मत्स्य सातवीं पृथ्वी में चले जाते हैं इसलिए सचित्र आहार को मन से भी चाहना ठीक नहीं है ||२||
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आचारवृत्ति - यहाँ किल शब्द से ऐसा अर्थ समझना कि आगम में कहा गया यह अरुचि - अश्रद्धा रूप कथन नहीं है अर्थात् किल का अर्थ यहाँ निश्चय को ही कहनेवाला है । आहार के कारण से अर्थात् आहार की इच्छामात्र से मत्स्य निश्चय से ही सातवें नरक चले जाते हैं । जो चित्त अर्थात् जीव सहित है वह सचित्त है । अर्थात् सावद्य - सदोष अयोग्य आहार, जो कि प्राणियों की हिंसा से उत्पन्न हुआ है, अधः कर्म से उत्पन्न हुआ आहार है । हे साधो ! ऐसा आहार तुम्हें मन से भी चाहना योग्य नहीं है । तात्पर्य यह है कि स्वयंभूरमण समुद्र में महामत्स्य के कर्ण में तन्दुलमत्स्य होते हैं जो कि तन्दुल के समान ही लघु शरीरवाले हैं किन्तु उनमें भी वज्रवृषभनाराच संहनन होता है । वे मत्स्य आदि जन्तु महामंत्स्य के मुख में प्रवेश करते हुए और निकलते हुए तमाम जीवों को देखते हैं तो सोचते रहते हैं कि यदि मेरा बड़ा शरीर होता तो मैं इन सबको खा लेता, एक को भी नहीं छोड़ता किन्तु वे खा नहीं पाते हैं ।
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