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[मूलाचारे
सव्वमिदं सर्वमिमं । उवदेसं --- उपदेशमागमं । जिणदिट्ठ - जिनदृष्टं कथितं वा । सद्दहामि - श्रद्दधे तस्मिन् रुचि करोमीति । तिविहेण — त्रिविधेन । तस्थावरखेमकरं - त्रसन्ति उद्विजन्तीति सा द्वीन्द्रियादि पंचेन्द्रियपर्यन्ताः । स्थानशीलाः स्थावराः पृथिवीकायिकादिवनस्पतिपर्यन्ताः । अथवा त्रसनामकर्मोदयात् त्रसाः स्थावरनामकर्मोदयात्स्थावराः तेषां क्षेमं दगं सुखं करोतीति सस्थावरक्षेमकरस्तं सर्वजीवदया - तिपादकं । सारं - प्रधानभूतं सारस्य कारणात्सारः । निव्वाणमग्गस्स - निर्वाणमार्गस्य मोक्षवर्त्मनः । सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्राणां तस्मिन् सति तेषां सद्भावान्निर्वाणमार्गस्य सारं त्रसस्थावरक्षेमकरं च सर्वमिममुपदेश जिनदृष्टं त्रिविधेन श्रद्दधेऽहमिति ॥ ६१ ॥
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तस्मिन् काले यथा द्वादशांगचतुर्दश पूर्वविषया श्रद्धा क्रियते तथा समस्तश्रुतविषया चिंता पाठश्च कंतु किं शक्यते ? इत्याह
हि तम्हि देसयाले सक्को बारसविहो सुदक्खंधो । सव्वा प्रणुचितेदं बलिणावि समत्थचित्तेण ॥६२॥ न-प्रतिषेधवचनं । हि यस्मादर्थे । तहि तस्मिन् । देसयाले - देशकाले । 'दिश् अतिसर्जने'
श्राचारवृत्ति - जो यह सम्पूर्ण उपदेशरूप आगम है वह जिनेन्द्रदेव द्वारा देखा गया है अथवा कथित है, मैं मन-वचन-कायपूर्वक उसी का श्रद्धान करता हूँ, उसी में रुचि करता हूँ । जो त्रास को प्राप्त होते हैं-उद्विग्न होते हैं वे त्रस हैं । अर्थात् दो इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीव त्रस कहलाते हैं । जो 'स्थानशीलाः' अर्थात् ठहरने के स्वभाववाले हैं वे स्थावर हैं । पृथ्वी कायिक से लेकर वनस्पति पर्यन्त स्थावर जीव हैं । अथवा त्रसनाम कर्म के उदय से त्रस होते हैं एवं स्थावर नामकर्म के उदय से स्थावर हैं । अर्थात् ऊपर जो त्रस स्थावर शब्द की व्युत्पत्ति की है वह सर्वथा लागू नहीं होती है क्योंकि इस लक्षण से तो उद्व ेग से रहित गर्भस्थ, मूर्च्छित या rus में स्थित आदि जीव त्रस नहीं रहेंगे तथा वायुकायिक, अग्निकायिक त्रस हो जावेंगे इसलिए यह मात्र व्याकरण का व्युत्पत्ति अर्थ है । वास्तविक अर्थ तो यही है कि जो त्रस या स्थावर नाम कर्म के उदय से जन्म लेवें वे ही त्रस या स्थावर हैं । इन त्रस और स्थावर जीवों का क्षेम — उनकी दया का, उनके सुख का करनेवाला यह उपदेश है । और, यह सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमय निर्वाण मार्ग का सार है अर्थात् इस उपदेश के होने पर ही मोक्षमार्ग क. सद्भाव
है इसीलिए यह प्रधानभूत है -- सारभूत मोक्षमार्ग का कारण होने से यह देश स्वयं सारभूत ही है ऐसा समझना ।
उस संन्यास के काल में जैसे द्वादशांग और चतुर्दशपूर्व के विषय में श्रद्धा की जाती है वैसे ही समस्त श्रुतविषयक चिन्तन और पाठ करना शक्य है क्या ? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं
गाथार्थ – उस संन्यास के देश-काल में बलशाली और समर्थ मनवाले साधु द्वारा भी सम्पूर्ण द्वादशांग रूप श्रुतस्कन्ध का चिन्तवन करना शक्य नहीं है ॥२॥ श्राचारवृति - ' देशकाले' पद का अर्थ कहते हैं । दिश् धातु अतिसर्जन - त्याग
१. क यादयः पं ।
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