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[मूलाचारे
जह-यथा । णिज्जावय रहिया -- निर्यापक रहिताः कर्णधारविरहिताः । णाबाओ - नाव: पोतादिकाः । वररदणसुपुण्णाओ - श्रेष्ठ रत्नसुपूर्णाः । पट्टणम सण्णाओ - पत्तनमासन्ना वेलाकूलसमीपं प्राप्ताः । खु–स्फुटं । पमादमूला - प्रमादः शैथिल्यं मूलं कारणं यासां ताः प्रमादमूला: । णिवुड्डति - निमज्जन्ति विनाशमुपयति । यथा नावः पत्तनमासन्नाः कर्णधार रहिताः वररत्नसम्पूर्णाः, प्रमादकारणात् सागरे निमज्जन्ति तथा क्षपकनावः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्र रत्नसम्पूर्णाः सिद्धिसमीपीभूतसंन्यासपत्तनमासन्ना निर्यापकाचार्य रहिता प्रमादनिमित्तात् संसारसागरे निमज्जन्ति तस्माद्यत्नः कर्तव्य इति ॥६८॥
कथं यत्नः क्रियते यावता हि तस्मिन् कालेऽभ्रावकाशादिकं न कर्तुं शक्यते इत्याहबाहिरजोगविरहिओ प्रब्भंतर जोगभाणमालीणो ।
जह तम्हि देसयाले प्रमूढसण्णा जहसु देहं ॥८६॥
बाहिरजोगविरहिदो — बाह्याश्च ते योगाश्च बाह्ययोगा अभ्रावकाशादयस्तै विरहितो होनो बाह्ययोगविरहितः । अब्भंत रजोगझाणमालीणों - अभ्यंतरयोगं अन्तरंग परिणामं ध्यानं एकाग्रचिन्तानिरोधनं आलीनः प्रविष्टः । जह-यथा । तहि तस्मिन् । देसयाले - देशकाले संन्यासकाले । अमूढसण्णो--अमूढ
श्राचारवृत्ति - जैसे उत्तम उत्तम रत्नों से भरे हुए जहाज आदि पत्तन अर्थात् समुद्रतट के समीप पहुँच भी रहे हैं, फिर भी यदि वे जहाज खेवटिया से रहित हैं अर्थात् उनका कोई कर्णधार नहीं है तो प्रमाद के कारण निश्चित ही वे समुद्र में डूब जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं । वैसे ही क्षपक रूपी नौकाएँ भी सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूपी रत्नों से परिपूर्ण हैं और सिद्धि के समीप में ही रहनेवाला जो संन्यास रूपी पत्तन है उसके पास तक अर्थात् किनारे तक आ चुकी हैं, फिर भी निर्यापकाचार्य के बिना प्रमाद के निमित्त से वे क्षपक रूपी नौकाएँ संसारसमुद्र में डूब जाती हैं, इसलिए सावधानी रखना चाहिए ।
भावार्थ- जो सल्लेखना करनेवाले साधु हैं वे क्षपक हैं और करानेवाले निर्यापकाचार्य हैं। एक साधु की सल्लेखना में अड़तालीस मुनियों की आवश्यकता मानी गयी है ।
यहाँ पर इसी बात को स्पष्ट किया है कि निर्यापकाचार्य के बिना क्षपक को मरण काल में वेदना आदि के निमित्त से यदि किंचित् भी प्रमाद आ गया तो वह पुनः रत्नत्रय से च्युत होकर संसार में डूब जायेगा किन्तु यदि निर्यापकाचार्य कुशल हैं तो वे उसे सावधान करते रहेंगे । अतः समाधि करने के इच्छुक साधु को प्रयत्नपूर्वक निर्यापकाचार्य की खोज करके उनका आश्रय लेना चाहिए तथा अन्तिम समय तक पूर्ण सावधानी रखना चाहिए ।
कैसे प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि उस काल में तो अभ्रावकाश आदि को करना शक्य नहीं है ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं
गाथार्थ - बाह्य योगों से रहित भी अभ्यन्तर योग रूप ध्यान का आश्रय लेकर उस मल्लेखना के काल में जैसे- बने-वैसे संज्ञाओं में मोहित न होते हुए शरीर का त्याग करो ॥८॥ आचारवृत्ति - अभ्रावकाश आदि योग बाह्य योग हैं, इनसे रहित होते हुए भी अभ्यन्तर योगध्यान अर्थात् अन्तरंग में एकाग्र - प्र - चिन्तानिरोध रूप ध्यान में प्रविष्ट होकर जैसे १-२ क मल्लीणो ।
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