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बृहत्प्रत्याख्यान संस्तरस्तवाधिकारः ]
अथ किमभियोगकर्मेति तेनोत्पत्तिश्च का चेदतः प्राह
कहते हैं
अभिजुंजइ' बहुभावे साहू हस्साइयं च बहुवयणं । अभिजगह कम्मे हि जुत्तो वाहणेसु' उववज्जइ ॥ ६५॥
अभिजुंजद अभियुक्त करोति, बहुभावे - बहुभावान् तंत्रमंत्रादिकान् । साहू — साधुः । हस्साइयं च -- हास्यादिकं च हास्यकौत्कुच्यपर विस्मयनादिकं । बहुवयणं - बहुवचनं वाग्जालं । अहिजोगेहिअभियोगः तादर्थ्यात्ताच्छन्द्यं आभिचारकैः, कम्मे हि — कर्मभिः क्रियाभिः । जुत्तो युक्तस्तन्निष्ठः । वाहणेसु — वाहनेषु गजाश्वमेषमहिषस्वरूपेषु । उववज्जइ - उत्पद्यते जायते । यः साधू रसादिषु गृद्धः मंत्रतंत्रभूतिकर्मादिकमुपयुक्त हास्यादिकं बहुवचनं करोति स तैरभियोगैः कर्मभिर्वाहनेषु उत्पद्यत इति ।
किल्विषभावनास्वरूपं तथोत्पत्ति च प्रतिपादयन्नाह
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तित्थयराणं पडिणीश्रो संघस्स य चेइयस्स सुत्तस्स । प्रविणदो यिडिल्लो किव्वि सियेसूववज्जे ' ॥६६॥
● अभियोग कर्म क्या है और उससे कहाँ उत्पत्ति होती है ? ऐसा पूछने पर आचार्य
गाथार्थ - जो साधु अनेक प्रकार के भावों का और हास्य आदि अनेक प्रकार के वचनों का प्रयोग करता है वह अभियोग कर्मों से युक्त होता हुआ वाहन जाति के देवों में उत्पन्न होता है ॥ ६५ ॥
श्राचारवृत्ति - जो साधु तन्त्र-मन्त्र आदि नाना प्रकार के प्रयोग करता है और हँसी, काय की कुचेष्टा सहित हँसी — कौत्कुच्य और पर में आश्चर्य उत्पन्न कराना आदि रूप बहुत से वाग्जाल को करता है वह इन अभियोग क्रियाओं से युक्त होता हुआ हाथी, घोड़े, मेष, महिष आदि रूप वाहन जाति के देवों में उत्पन्न होता है । तात्पर्य यह है कि जो साधु रस आदि में आसक्त होता हुआ तन्त्र-मन्त्र और भूकर्म आदि का प्रयोग करता है, हँसी-मजाक आदि रूप बहुत बोलता है वह इन कार्यों के निमित्त से वाहन जाति के देवों में जन्म लेता है । वहाँ उसे विक्रिया से अन्य देवों के लिए वाहन हेतु हाथी घोड़े आदि के रूप बनाने पड़ते हैं ।
किल्विष भावना का स्वरूप और उससे होनेवाली उत्पत्ति को कहते हैं
गाथार्थ - जो तीर्थंकरों के प्रतिकूल है; संघ, जिन प्रतिमा और सूत्र के प्रति अविनयी है और मायाचारी है वह किल्विष जाति के देवों में जन्म लेता है ॥६६॥
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१. क अभिभुंजइ । २. क णेसूव । ३.क वज्जइ ।
फलटन से प्रकाशित प्रति में निम्नलिखित गाथा अधिक है ।
मंताभियोगकोदुगभूदीकम्मं पउंजये जो सो ।
इड्रिससाबहे अभियोगं भावणं कुणदि ॥ ३७ ॥
अर्थ - जो ऋद्धि, रस और साता के निमित्त मन्त्र प्रयोग, कौतुक और भूतिकर्म का प्रयोग करता वह साधु अभियोग भावना को करता है।
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