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[मूलाचारे सर्वरागांगविकाराभावः । णिग्गंथं-ग्रन्येभ्यः संयमविनाशकद्रव्येभ्यो निर्गतं निग्रंथं बाह्याभ्यन्तरपरिग्राहाभावः । अच्चेलक्कं-अचेलकत्वं चेलं वस्त्रं तस्य मनोवाक्कायैः संवरणार्थमग्रहणं । जगदिपूज्जं-जगति पूज्यं महापुरुषाभिप्रेतवंदनीयम् । वस्त्राजिनवल्कलः पत्रादिभिर्वा यदसंवरणं निर्ग्रथं निर्भूषणं च तदचेलकत्वं व्रतं जगति पूज्यं भवतीत्यर्थः । अथ वस्त्रादिषु सत्सु दोषः इति चेन्न' हिंसार्जनप्रक्षालनयाचनादिदोषप्रसंगात्, ध्यानादि - वघ्नाच्चेति॥ अस्नानवतस्य स्वरूपं प्रतिपादयन्नाह
ण्हाणादिवज्जणेण य विलित्तजल्लमलसेदसव्वंगं ।
अण्हाणं घोरगुणं संजमदुगपालयं मुणिणो ॥३१॥ व्हाणादिवज्जणेण य-स्नानं जलावगाहनं आदिर्येषां ते स्नानादयः स्नानोद्वर्तनाञ्जनजलसेकताम्बूललेपनादयस्तेषां वर्जनं परित्यागः स्नानादिवर्जनं तेन स्नानादिवर्जनेन जलप्रक्षालनसेचनादिक्रियाकृतांगोपांगसूखारित्यागेन । विलितजल्लमलसेदसव्वंगं.-जल्लं सर्वांगप्रच्छादक मल अंगकदेशप्रच्छादक स्वेदः प्रस्वेदो संयम के विनाशक द्रव्य उनसे रहित निग्रंथ अवस्था होती है अर्थात् बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह का अभाव होना ही निग्रंथ है। इह प्रकार से चेल--वस्त्र को शरीर-संवरण के लिए मन, वचन-काय से ग्रहण नहीं करना यह आचेलक्य व्रत है जो कि जगत् में पूज्य है, महापुरुषों के द्वारा अभिप्रेत है और वंदनीय है। तात्पर्य यह निकला कि वस्त्र, धर्म, वल्कल से अथवा पत्ते आदि से जो शरीर का नहीं ढकना है, निग्रंथ और निर्भूषण वेष का धारण करना है वह आचेलक्य व्रत जगत् में पूज्य होता है।
प्रश्न-वस्त्र आदिकों के होने पर क्या दोष है ?
उत्तर-ऐसा नहीं कहें, क्योंकि हिंसा, अर्जन, प्रक्षालन, याचना आदि अनेक दोष आते हैं तथा ध्यान, अध्ययन आदि में विघ्न भी होता है । अर्थात् किसी भी प्रकार के वस्त्र से शरीर को ढकने की बात जहाँ तक होगी वहाँ तक उन वस्त्रों के आश्रित हिंसा अवश्य होगी उनको संभालना,धोना, सुखाना, फट जाने पर दूसरों से मांगना आदि प्रसंग अवश्य आयेंगे। पुनः इन कारणों से साधु को ध्यान और अध्ययन में बाधा अवश्य आयेगी इसीलिए नग्नवेष धारण करना यह आचेलक्य नाम का मूलगुण है ।
अस्नानव्रत का स्वरूप कहते हैं
गाथार्थ—स्नान आदि के त्याग कर देने से जल्ल, मल और पसीने से सर्वांग लिप्त हो जाना मुनि के प्राणीसंयम और इन्द्रियसंयम पालन करने रूप, घोर गुणस्वरूप अस्नानव्रत होता है ॥३१॥
प्राचारवत्ति—जल में अवगाहन करना -- जल में प्रवेश करके नहाना स्नान है। आदि शब्द से उबटन लगाना, आँख में अंजन डालना, जल छिड़कना, ताम्बूल भक्षण करना, शरीर में लेपन करना अर्थात् जल से प्रक्षालन, जल का छिड़कना आदि क्रियाएँ जो कि शरीर के अंग-उपांगों को सुखकर हैं उनका परित्याग करना स्नानादि-वर्जन कहलाता
१क चेत्तन्न।
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