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बृहत्प्रत्मास्पानसंस्त रस्त वाधिकारः ]
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आत्मानं जुगुप्से । पडिक्कमे— प्रतिक्रमामि निर्हरे न केवलमतीतवर्तमानकाले 'आगमिस्साणं - आगमिष्यति च Set | ये गुणास्तेषां मध्ये यो नाराधितो गुणस्तमहं सर्वं निन्दयामि प्रतिक्रमामि चेति ।
तथा
अस्संजममण्णाणं मिच्छत्तं सव्वमेव य मर्मात्त । जीवे अजीवेय तं णिवे तं च गरिहामि ॥५१॥
अस्संजमं— असंयमं पापकारणम् । अण्णाणं - अज्ञानं अश्रद्धान पूर्वकवस्तुपरिच्छेदम् । मिच्छतं - मिथ्यात्वमतत्त्वार्थश्रद्धानम् । सव्वमेव य - सर्वमेव च । मर्मात - ममत्त्वमनात्मीये आत्मीयभावम् । जीवेसु अजीवेय - जीवाजीवविषयं च । तं णिदे ---तं निन्दामि । तं च तच्च । गरिहामि - गर्भेऽहं परस्य प्रकटयामि । मूलोत्तरगुणेषु मध्ये यन्नाराधितं प्रमादतोऽतीतानागतकाले तत्सर्वं निन्दामि प्रतिक्रमामि च । असंयमाज्ञानमिध्यात्वादि जीवाजीवविषयं ममत्वं च सर्वं गर्हे निन्दामि चेति प्रमाददोषेण दोषास्त्यज्यन्ते ।
प्रमादाः पुनः किं न परिहियन्त इति चेन्न तानपि परिहरामीत्यत आह
सत्त भए श्रट्ट मए सण्णा चत्तारि गारवे तिण्णि । तेत्तीसाच्चासणाश्रो रायद्दोसं च गरिहामि ॥५२॥
सप्तभए - सप्तभयानि । अट्ठमए- अष्टौ मदानि । सण्णा चत्तारि -संज्ञाश्चतस्रः आहारभय मैथुनमैं निन्दा करता हूँ और प्रतिक्रमण करके उस दोष को दूर करता हूँ यह अभिप्राय हुआ । उसी प्रकार से
गाथार्थ - असंयम, अज्ञान और मिथ्यात्व तथा जीव और अजीव विषयक सम्पूर्ण ममत्व --- उन सबकी मैं निन्दा करता हूँ और उन सबकी मैं गर्हा करता हूँ ॥ ५१ ॥
आचारवृत्ति - पाप का कारण असंयम है, अश्रद्धानपूर्वक वस्तु का जाननेवाला ज्ञान अज्ञान है और तत्त्व श्रद्धान का नाम मिथ्यात्व है । अनात्मीय अर्थात् अपने से भिन्न जो वस्तु हैं, चाहे जीवरूप हों, चाहे अजीवरूप हों, उनमें अपनेपन का भाव ममत्व कहलाता है । इन सम्पूर्ण असंयम आदि भावों को जो मैंने किया हो मैं उनकी निन्दा करता हूँ तथा पर अर्थात् गुरु के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करते हुए मैं उनकी गर्हा करता हूँ । अभिप्राय यह कि अपने मूलगुणों और उत्तरगुणों में से मैंने प्रमाद से भूत, भविष्यत् काल में जिनकी आराधना नहीं की हो उन सभी के लिए निन्दा करता हूँ और प्रतिक्रमण करता हूँ । असंयम, अज्ञान, मिथ्यात्व तथा जीव और अजीव विषयक जो ममत्व परिणाम हैं उन सबकी भी मैं निन्दा करता हूँ । इस प्रकार प्रमाद के दोष से जो अपराध हुए हैं उन सभी का त्याग हो जाता है, ऐसा समझना । आप प्रमाद का पुनः क्यों नहीं परिहार करते हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर 'सम्पूर्ण प्रमादों को भी छोड़ता हूँ', ऐसा उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं
गाथार्थ - सात भय, आठ मद, चार संज्ञा, तीन गारव, तेतीस आसादना तथा राग और द्वेष इन सबकी मैं गर्हा करता हूँ ॥ ५२ ॥
आचारवृत्ति-सात भय और आठ मदों के नाम आचार्य स्वयं आगे बतायेंगे । १. क आगमेमाणं । २. क त्वानि
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