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मूलाचार अथ किमिति कृत्वा संयोगलक्षणो भावः परिह्रियते इति चेदत आह
संजोयमूलं जीवेण पत्तं दुक्खपरंपरं।
तम्हा संजोयसंबंधं सव्वं तिविहेण वोसरे ॥४६॥ संजोयमूलं--संयोगनिमित्तं। जीवेण-जीवेन। पतं-प्राप्त, लब्धं । दुक्खपरंपरं-दुःखानां परम्परा दुःखपरम्परा क्लेशनैरन्तर्यम् । तम्हा-तस्मात् । संजोयसंबंधं-संयोगसम्बन्धम् । सव्वं-सर्वम्। तिविहेण–त्रिविधेन मनोवचनकायः। वोसरे----व्युत्सृजामि। संयोगहेतोर्जीवेन यतो दुःखपरम्परा प्राप्ता, तस्मात् संयोगसम्बन्धं सर्वे त्रिविधेन व्युत्सृजामीत्यर्थः । पुनरपि दुश्चरित्रस्य परिहारार्थमाह
मूलगुणउत्तरगुणे जो मे णाराहियो पमाएण।
तमहं सव्वं णिदे पडिक्कमे 'प्रागममिस्साणं ॥५०॥ मूलगुणउत्तरगुणे-मूलगुणाः प्रधानगुणाः, उत्तरगुणा अभ्रावकाशादयो मूलगुणदीपकास्तेषु मध्ये । जो मे-यः कश्चिन्मया।णाराहिओ-नाराधितो नानुष्ठितः । पमाएण-प्रमादेन केनचित्कारणान्तरेण सालसभावात् । तमहं-तच्छब्दः पूर्वप्रक्रान्तपरामर्शी, तदहं मूलगुणाद्यनाराधनम् । सव्वं-सर्वम् । णिदे-निन्दामि स्वभावी होने से बाह्य हैं, इसी हेतु से ज्ञानदर्शन स्वभाववाला अकेला आत्मा ही नित्य है और मेरा है।
अब, किस प्रकार से संयोगलक्षणवाले भाव का परिहार किया जाता है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हैं
गाथार्थ-इस जीव ने संयोग के निमित्त से दुःखों के समूह को प्राप्त किया है इसलिए मैं समस्त संयोग सम्बन्ध को मन-वचन-कायपूर्वक छोड़ता हूँ॥४६॥
प्राचारवत्ति-यह जीव संयोग के कारण ही निरन्तर दुःखों को प्राप्त करता रहा है इसलिए मैं सम्पूर्ण संयोगजन्य भावों का त्रिविध से त्याग करता हूँ।
पुनः आचार्य दुश्चरित के त्याग हेतु कहते हैं
गाथार्थ—मैंने मूलगुण और उत्तर गुणों में प्रमाद से जिस किसी की आराधना नहीं __ की है उस सम्पूर्ण की मैं निन्दा करता हूँ और भूत-वर्तमान ही नहीं, भविष्य में आनेवाले का भी मैं प्रतिक्रमण करता हूँ॥५०॥
प्राचारवृत्ति-प्रधानगुण मूलगुण हैं और मूलगुणों के उद्योतन करनेवाले अभ्रावकाश आदि उत्तरगुण हैं। इनमें से जिस किसी का भी मैंने यदि प्रमाद से या अन्य किसी कारण से अथवा आलस्यभाव से अनुष्ठान नहीं किया हो तो उस अनुष्ठान नहीं किए रूप दोष की मैं निन्दा करता हूँ, आत्मा में उस विषय को ग्लानि करता हूँ तथा उस अनाराधन रूप दोष का परिहार करता हूँ। उसमें भी केवल भूतकाल और वर्तमान काल के विषय में ही नहीं, बल्कि भविष्यकाल में होनेवाले अनुष्ठानाभाव रूप दोष का भी प्रतिक्रमण करता हूँ। अर्थात् जो गुण हैं उनमें से जिस किसी गुण की आराधना नहीं की है वह दोष हो गया, उस सम्पूर्ण दोष की १. क आगमेसाणं । २. क नालस।
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