________________
बहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवाधिकारः
[५५ दर्शने तत्त्वार्थश्रद्धाने आलोके वा । चरित्ते य---चारित्रे च पापक्रियानिवृत्तौ । आवा–आत्मा। पच्चक्खाणेप्रत्याख्याने । आदा–आत्मा। मे-मम । संवरे-आस्रवनिरोधे । जोए---जोगे शुभव्यापारे ।
एओ य मरइ जीवो एग्रो य उववज्जइ। ____एयस्स जाइमरणं एओ सिज्झइ णीरो॥४७॥
एओ य-एकश्चासहायश्च । मरइ-म्रियते शरीरत्यागं करोति । जीवो-जीव: चेतनालक्षणः । एओ य--एकश्च । उववज्जइ-उत्पद्यते । एयस्स-एकस्य । जाइ-जातिः । मरणं-मृत्युः । एओ-एकः । सिाइ-सिद्ध्यति मुक्तो भवति । गोरओ----नीरजाः कर्मरहितः।
एग्रो मे सस्सयो अप्पा णाणदंसणलक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥४८॥ एओ-एकः । मे-मम । सस्सओ-शाश्वतो नित्यः। अप्पा-आत्मा। णाणदंसणलक्षणो--- ज्ञानं च दर्शनं च ज्ञानदर्शने ते एव लक्षणं यस्यासौ ज्ञानदर्शनलक्षणः । सेसा मे-शेषाः शरीरादिका मम। बाहिरा-बाह्या अनात्मीया:। भावा--पदार्थाः। सवे-सर्वे समस्ताः। संजोगलक्खणा-संयोगलक्षणाः। अनात्मनीनस्यात्मभावः संयोगः, संयोग एव लक्षणं येषां ते संयोगलक्षणा विनश्वरा इत्यर्थः । ज्ञानदर्शनचारित्रप्रत्याख्यानसंवरयोगेषु ममात्मैव, यतो म्रियते उत्पद्यते च एक एव, यतः एकस्य' जातिमरणे, यतः एकश्च नीरजाः सन् सिद्धि याति, यतः शेषाश्च सर्वे भावा: संयोगलक्षणा वाह्या यतः, अत एक एवात्मा ज्ञानदर्शनलक्षण:नित्यो ममेति ।
अथवा सामान्य सत्तामात्र के अवलोकन रूप दर्शन में है । पाप क्रिया के अभावरूप चारित्र में, त्याग में, आस्रवनिरोधरूप संवर में और शुभ व्यापाररूप योग में भी मेरा आत्मा ही है।
गाथार्थ-जीव अकेला ही मरता है और अकेला ही जन्म लेता है। एक जीव के ही यह जन्म और मरण हैं और अकेला ही कर्म रहित होता हुआ सिद्ध पद प्राप्त करता है। मेरा आत्मा एकाकी है, शाश्वत है और ज्ञानदर्शन लक्षणवाला है । शेष सभी संयोगलक्षणवाले जो भाव हैं वे मेरे से बहिर्भूत हैं ।।४७,४८।।
प्राचारवृत्ति यह चेतनालक्षणवाला जीव एक असहाय ही शरीर के त्यागरूप मरण को करता है, अकेला ही उत्पन्न होता है । अभिप्राय यह है कि इस एक जीव के हो जन्म और मरण होते हैं और यह अकेला ही कर्मरज से रहित होता हुआ मुक्त होता है। मेरा आत्मा नित्य है, ज्ञानदर्शन स्वभाववाला है। शेष जो शरीर आदि अनात्मीय पदार्थ हैं वे सभी संयोगरूप हैं अर्थात् जो अपने नहीं हैं उनमें आत्मभाव होना संयोग है। इस संयोग स्वभाववाले होने से सभी बाह्य पदार्थ विनश्वर हैं। ज्ञान-दर्शन-चारित्र, त्याग, संवर और शुभक्रियारूप योग इन सभी में मेरा आत्मा ही है । अभिप्राय यह है कि जिस हेतु से यह अकेला ही जन्ममरण करता है, इस अकेले के ही जन्ममरणरूप संसार है और जिस हेतु से यह अकेला ही कर्मरज रहित होता हुआ मुक्ति को प्राप्त करता है तथा जिस हेतु से अन्य सभी पदार्थ संयोग
१. कस्य च जाति: मरणं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org