________________
गृहत्प्रत्याल्यानसंस्तरस्तवाधिकारः]
णाणम्हि-ज्ञाने। बंसम्हि य-दर्शने च । तवे-तपसि । चरिते य-चरित्रे च । चउसुविचतुर्ध्वपि । अकंपो-अकंपोऽधृष्यः । धीरो-धीरो धेर्योपेतः । आगमकुसलो-आगमकुशलः स्वसमयपरसमयविचारदक्षः । अपरिस्साई-अपरिश्रावी आलोचितं न कस्यचिदपि कथयति । रहस्साणं-रहसि एकान्ते भवानि रहस्यानि गुह्यानुष्ठितानि। ज्ञानदर्शनतपश्चारित्रेषु चतुर्वपि सम्यस्थितो यो रहस्यानामपरिश्रावी धीरस्वागमकुशलश्च यस्तस्य आलोचना कर्तव्या नान्यस्येति । आलोचनानन्तरं क्षमणं कर्तुकामः प्राह
रागेण य दोसेण य ज मे प्रकदण्हुयं पमादेण।
जो मे किचिवि भणिो तमहं सव्व खमावेमि ॥५८॥. रागेण य-रागेण च मायालोभाभ्यां स्नेहेन वा। दोसेण य-द्वेषेण च क्रोधमानाभ्यां अप्रीत्या वामेयन्मया अकदण्ड-अकृतज्ञत्वं युष्माकमयोग्यमनुष्ठितं । पमादेण-प्रमादेन । जो मे-यो मया। किचिवि-किंचिदपि। भणिओ-भणितः। तमहंतं जनं अहं। सव्वं-सर्व । समावेमि–क्षमयामि संतोषयामि। रागद्वेषाभ्यां मनागपि यन्मया कृतमकृतज्ञत्वं योऽपि मया किंचिदपि भणितस्तमहं सर्व मर्षयामीति ।
आगम में निपुण हैं और रहस्य अर्थात् गुप्तदोषों को प्रकट नहीं करनेवाले हैं, वे आचार्य आलोचना सुनने के योग्य हैं ॥५७।।
प्राचारवृत्ति-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप इन चारों में भी जो अकंप अर्थात् अचल वृत्ति धारण करनेवाले हैं, धैर्य गुण से सहित हैं, स्वसमय और परसमय के विचार करने में दक्ष होने से आगमकुशल हैं और शिष्यों द्वारा एकान्त में कहे गये गुह्य अर्थात् गुप्त दोषों को किसी के सामने भी कहनेवाले नहीं हैं ऐसा यह जो अपरिश्रावी गुण उससे सहित हैं, उनके समक्ष ही आलोचना करना चाहिए, अन्य के समक्ष नहीं-यह अर्थ हुआ।
आलोचना के अनन्तर क्षमण को करने की इच्छा करते हुए आचार्य कहते हैं -
गाथार्थ-जो मैंने राग से अथवा द्वेष से न करने योग्य कार्य किया है, प्रमाद से जिसके प्रति कुछ भी कहा है उन सबसे मैं क्षमायाचना करता हूँ ॥५८॥
प्राचारवृत्ति-राग से अर्थात् माया, लोभ या स्नेह से; द्वेष से अर्थात् क्रोध से, मान से या अप्रीति से मैंने आपके प्रति जो अयोग्य कार्य किया है। अथवा जो मैंने प्रमाद से जिसके प्रति कुछ भी वचन कहे हैं। उन सभी साधु जनों से मैं क्षमा माँगता हूँ अर्थात् उनको संतुष्ट करता हूँ। तात्पर्य यह हुआ कि मैंने राग या द्वेषवश जो किंचित् भी अयोग्य अनुष्ठान किया है
* निम्नलिखित गाथा फलटन से प्रकाशित प्रति में अधिक हैएरिस गुणजुत्ताणं आइरियाणं विसुद्धभावेण । आलोचेवि सुविहिवो सब्वे दोसे पमोतूण ॥२६॥
अर्थ-उपर्युक्त आचार्यगुणों से युक्त आचार्यों के पास में निर्मल परिणाम से सुचरित्र धारक मूनि सर्व दोषों का त्याग करके आलोचना करता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org