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मूलगुण फलप्रतिपादनार्थोपसंहारगाथा माह
एवं विहाणजुत्ते मूलगुणे पालिऊण तिविहेण ।
होऊण जगदि पुज्जो अक्खयसोक्खं लहइ मोक्खं ॥ ३६॥
एवं — अनेन प्रकारेण । विहाणजुत्ते — विधानयुक्तान् पूर्वोक्तक्रमभेदभिन्नान् सम्यक्त्वाद्यनुष्ठानपूर्वकान् । मूलगुणे -- मूलगुणान् पूर्वोक्तलक्षणान् । पालिऊण - पालयित्वा सम्यगनुष्ठाय आचर्य । तिविहेण -- त्रिविधेन मनसा वचसा कायेन वा । होऊण - भूत्वा । जगदिपूज्जो - जगति लोके पूज्योऽर्चनीयः । अक्खयसोक्खं - अक्षयसौख्यं व्याघातरहितं । लभइ— लभते प्राप्नोति । मोक्खं— मोक्षं अष्टविधकर्मापायोत्पन्नजीवस्वभावम् ॥
इत्याचारवृत्तौ वसुनंदिविरचितायां प्रथमः परिच्छेदः ॥ १ ॥
अब मूलगुणों का फल प्रतिपादन करने के लिए उपसंहाररूप गाथा कहते हैं
गाथार्थ - उपर्युक्त विधान से सहित मूलगुणों को मन, वचन, काय से पालन करके मनुष्य जगत् में पूज्य होकर अक्षय सुखरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ॥ ३६ ॥
[मूलाचारे
श्राचारवृत्ति - पूर्वोक्त क्रम से भेद रूप तथा सम्यक्त्व आदि अनुष्ठानपूर्वक मूलगुणों को मन, वचन, काय से पालन करके साधु इस जगत् में अर्चनीय हो जाता है और आगे बाधारहित अक्षयसुखमय और अष्टविध कर्मों के अभाव से उत्पन्न हुए जीव के स्वभाव रूप मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ।
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इस प्रकार श्री वसुनन्दि आचार्य विरचित मूलाचार की आचारवृत्ति नामक टीका में प्रथम परिच्छेद पूर्ण हुआ ।
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