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बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवाधिकारः ]
प्रतिज्ञानिर्वहणार्थमाह
जं किंचि मे दुच्चरियं सव्वं तिविहेण वोस रे । सामाइयं च तिविहं करेमि सव्वं णिरायारं ॥ ३६ ॥
जं किंचि — यत्किचित् । मे मम । दुच्चरियं - दुश्चरितं पापक्रियाः । सव्वं — सर्वं निरवशेषं । तिविहेण — त्रिविधेन मनोवचनकायैः । वोसरे — व्युत्सृजामि परिहरामि । सामाइयं च - सामायिकं 'समन्वीभावं च । तिविहं—त्रित्रकारं मनोवचनकायगतं कृतकारितानुमतं वा । करेमि - कुर्वेऽहम्। सव्वं सर्वसकलम् । गिरायारं—– आकारान्निर्गतं निराकारं निर्विकल्पम् । समस्ताचरणं निर्दोषं यत्स्तोकमपि दुश्चरितं तत्सर्वं व्युत्सृजामि विविधेन, सामायिकं च सर्वं निरतिचारं निर्विकल्पं च यथा भवति तथा करोमीत्यर्थः, दुश्चरित्रकारणं यत् तत्सर्वं त्रिप्रकारैः मनोवाक्कायैः परिहरामीति ।
उत्तरसूत्रमाह
बज्झब्भंतरमुर्वाहं सरीराइं च सभोयणं ।
मणसा वचि कायेण सव्वं तिविहेण वोसरे ॥४०॥
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ब- बाह्यं क्षेत्रादिकम् । अब्भंतरं - अभ्यन्तरमन्तरंग मिथ्यात्वादि । उर्वाह - उपधि परिग्रहम् । सरीराई च - शरीरमादिर्यस्य तच्छरीरादिकम् । सभोयणं - सह भोजनेन वर्तत इति सभोजनं आहारेण सह । मणसा वचि कारण - मनोवाक्कायैः । सव्वं सर्वम् । तिविहेण — त्रिप्रकारैः कृतकारितानुमतैः ।
अब प्रतिज्ञा के निर्वाह हेतु कहते हैं
गाथार्थ - जो किंचित् भी मेरा दुश्चरित है उस सभी का मैं मन-वचन काय से त्याग करता हूँ और सभी तीन प्रकार के सामायिक को निर्विकल्प करता हूँ ॥ ३६ ॥
श्राचारवृत्ति - जो कुछ भी मेरी पाप क्रियाएँ हैं उन सभी का मन-वचन-काय से मैं परिहार करता हूँ और मन-वचन-कायगत अथवा कृत-कारित अनुमोदनारूप सम्पूर्ण समन्वय भाव सामायिक को आकार विरहित निराकार अर्थात् निर्विकल्प करता हूँ । समस्त आचरण निर्दोष हैं उसमें जो अल्प भी दुश्चरितरूप दोष हुए हों उन सभी को मैं त्रि प्रकार से त्याग करता हूँ और सम्पूर्ण सामायिक को निरतिचार या निर्विकल्प जैसे हो सके वैसा करता हूँ अर्थात् जो भी दुश्चरित के कारण हैं उन सभी का मैं मन-वचन-काय से परिहार करता हूँ ।
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अब आगे का सूत्र कहते हैं
गाथार्थ – बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह को, शरीर आदि को और भोजन को सभी को मनवचन - कायपूर्वक तीन प्रकार से त्याग करता हूँ ॥४०॥
आचारवृत्ति - क्षेत्र आदि बाह्य और मिथ्यात्व आदि अभ्यन्तर परिग्रह को, आहार के साथ शरीर आदि को सभी को मन-वचन-काय से और कृत-कारित अनुमोदना से मैं त्याग
१. क समत्त्वभावं च ।
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