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[मूलाचारे वोसरे--व्युत्सृजामि । बाह्य शरीरादि सभोजनं परिग्रह, अन्तरंगं च मिथ्यात्वादिकं सर्व त्रिप्रकारैर्मनोवाक्कायैः परिहरामीत्यर्थः ।
सव्यं पाणारंभं पच्चक्खामि अलीयवयणं च ।
सव्वमदत्तादाणं मेहूण परिग्गहं चेव ॥४१॥ सव्वं पाणारंभं-सर्व प्राणारम्भं जीववधपरिणामम् । पच्चक्खामि-प्रत्याख्यामि दयां कुर्वेऽहम् । अलीयवयणं च-व्यलीकवचनं च । सव्वं-सर्वम् । अदत्तादाणं--अदत्तस्यादानं ग्रहणमदत्तादानम् । मेहूण-- मैथुन स्त्रीपुरुषाभिलाषम् । परिग्गहं चेव-परिग्रहं चैव बाह्याभ्यन्तरलक्षणं । सर्वं हिंसाऽसत्यस्तेयाब्रह्ममूर्छास्वरूपं परित्यजामीत्यर्थः । सामायिक करोमीत्युक्त तत्कि स्वरूपमित्यतः प्राह---
सम्मं मे सव्वभूदेसु वेरं मझ ण केणवि । आसा' वोसरित्ताणं समाहिं पडिवज्जए॥४२॥
करता हूँ। तात्पर्य यह है कि भोजन सहित शरीर आदि बाह्य परिग्रह को और अन्तरंग मिथ्यात्व आदि को, इन सभी को कृत-कारित-अनुमोदना सहित मन-वचन-काय से त्याग करता हूँ।
गाथार्थ-सम्पूर्ण प्राणिवध को, असत्यवचन को, और सम्पूर्ण अदत्त ग्रहण को, मैथुन को तथा परिग्रह को भी मैं छोड़ता हूँ ।।४१।।
आचारवृत्ति- सम्पूर्ण जीववध परिणाम का मैं त्याग करता हूँ अर्थात् दया करता हूँ। असत्य वचन का, सम्पूर्ण विना दो हुई वस्तु के ग्रहण का, स्त्री-पुरुष के अभिलाषारूप मैथुन का और बाह्य अभ्यन्तर लक्षण परिग्रह का मैं त्याग करता हूँ। अर्थात् सम्पूर्ण हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और मूर्छास्वरूप परिग्रह का मैं परिहार करता हूँ।
मैं सामायिक स्वीकार करता हूँ ऐसा जो कहा है उसका क्या स्वरूप है-ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं
गाथार्थ मेरा सभी जीवों में समताभाव है, मेरा किसी के साथ वैर नहीं है, सम्पूर्ण आशा को छोड़कर इस समाधि को स्वीकार करता हूँ।' ४२।।
१. क आसाए। फलटन से प्रकाशित प्रति में यह गाथा अधिक है
छक्करण चउठिवहत्थी किदकारिद अणुमोदिदं चेव। जोगेसु अबम्भस्स य भंगा खलु होति अक्खसंचारे ॥६॥
अर्थ--स्पर्शन आदि मन सहित छह इन्द्रियाँ, देवांगना, मनुष्यनी, तिर्यंचनी और चित्रस्त्री इन चार प्रकार की स्त्रियों के साथ स्वयं मैथुन करना, अन्य से कराना और मैथुन कर्म में प्रवृत्त हुए अन्य को अनुमति देना, ये भेद मन वचन और काय से इन तीनों से इस प्रकार से, ६ । ४४३४३-२१६ भेद अब्रह्मचर्य के हो जाते हैं।
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