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द्भ्यो नमोस्तु । सर्वज्ञपूर्वक आगमो यतोऽतस्तन्नमस्कारानन्तरमागमश्रद्धानं श्रद्दधे जिनप्रज्ञप्तमित्युक्तं सम्यक्त्वपूर्वकं च, यतः आचरणमतः प्रत्याख्यामि सर्वपापकमित्युक्तं । अथवा क्त्वान्तोऽयं नमःशब्दः प्राकृत लोपबलेन सिद्धः । सिद्धानहतश्च नमस्कृत्वा जिनोक्तं श्रद्दधे पापं च प्रत्याख्यामीत्यर्थः । अथवा 'मिङन्तोऽयं नमःशब्दः तेनैवं सम्बन्धः कर्तव्यः-सर्वदुःखाहीणान् सिद्धान् अर्हतश्च नमस्यामि जिनागमं च श्रद्दधे । पापं च प्रत्याख्यामीत्येकक्षणेऽनेकक्रिया एकस्य कर्तुः संभवंति इत्यनेकान्तद्योतनार्थमनेन न्यायेन सूत्रकारस्य कथनमिति ।। भक्तिप्रकर्षार्थं पुनरपि नमस्कारमाह--
णमोत्थु धुदपावाणं सिद्धाणं च महेसिणं ।
'संथरं पडिवज्जामि जहा केवलिदेसियं ॥३८॥ अथवा प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवौ द्वावधिकारौ, द्वे शास्त्रे वा गृहीत्वा एकोऽयं अधिकारः कृतः, कुतो ज्ञायते नमस्कारद्वितयकरणादिति । णमोत्थु-नमोऽस्तु। धुदपावाणं-धुतं विहतं पापं कर्म यैस्ते धूतपापस्तेभ्यः । सिद्धाणं च-सिद्धेभ्यश्च । महेसिणं- महर्षिभ्यश्च केवद्धिप्राप्लेभ्यः। 'संथरं-संस्तरं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपोमयं भूमिपाषाणफलकतृणमयं वा । पडिवज्जामि-प्रपद्ये अभ्युपगच्छामि । जहा-यथा । केवलिदेसियं-केवलिभिष्ट: केवलिदृष्टस्तं केवलज्ञानिभिः प्रतिपादितमित्यर्थः। धुतपापेभ्य: सिद्धेभ्यो महर्षिभ्यश्च नमोऽस्तु । केवलिदृष्टं संस्तरं प्रतिपद्येऽहं इति पूर्ववत्सम्बन्धः कर्तव्यः । सिद्धानां नमस्कारो मंगलादिनिमित्तं महर्षीणां च तदनुष्ठितत्वाच्चेति । करता हूँ। अथवा क्त्वा प्रत्ययान्त यह नमः शब्द प्राकृत में लोप के बल से सिद्ध है, इस कथन से सिद्धों और अहंतों को नमस्कार करके जिनेन्द्र कथित का श्रद्धान करता हूँ और पाप का त्याग करता हूँ। अथवा यह नमः शब्द मिङन्त है । इसका ऐसा सम्बन्ध करना कि सर्व दुःखों से रहित सिद्धों को और अहंतों को नमस्कार करता हूँ, जिनागम का श्रद्धान करता हूँ तथा पाप का त्याग करता हूँ। इस प्रकार से एकक्षण में एक कर्ता के अनेक क्रियाएँ सम्भव हैं, अतः अनेकान्त को प्रकट करने हेतु इस न्याय से सूत्रकार का कथन है ऐसा समझना।
भक्ति की प्रकर्षता के लिए पुनः नमस्कार करते हैं
गाथार्थ-पापों से रहित सिद्धों को और महर्षियों को मेरा नमस्कार होवे, जैसा केवली भगवान् ने कहा है वैसे ही संस्तर को मैं स्वीकार करता हूँ ॥३८।।
आचारवृत्ति-अथवा यहाँ पर प्रत्याख्यान और संस्तरस्तव ये दो अधिकार हैं या इन दो शास्त्रों को ग्रहण करके यह एक अधिकार किया गया है। ऐसा कैसे जाना जाता है ?
नमस्कार को दो बार करने से जाना जाता है । जिन्होंने पापों को धो डाला है ऐसे सिद्धों को और केवल ऋद्धि को प्राप्त ऐसे महर्षियों को नमस्कार होवे । केवली भगवान् ने जैसा प्रतिपादित किया है वैसा ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र और तपोमय अथवा भूमि, पाषाण, पाटे
और तृणमय संस्तर को मैं स्वीकार करता हूँ। यहाँ पर सिद्धों का नमस्कार मंगल आदि के लिए है और महर्षियों का नमस्कार इसलिए है कि इन्होंने उपर्युक्त संस्तर को प्राप्त करने का अनुष्ठान किया है। १.कतिङन्तो। २. कणे नैका क्रिया। ३. क संथारं।
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