________________
४०]
फायभूमिप से पमसंथारिदम्हि पंच्छण्णे । दंडं धणुव्व सेज्जं खिदिसयणं एयपासेण ॥३२॥
फासुयभूमिपएसे- - प्रगता असवः प्राणा यस्मिन्नसौ प्रासुको जीववधादिहेतुरहितः भूमेः प्रदेशो भूमिप्रदेशः प्रासुकश्वासौ भूमिप्रदेशश्च प्रासुकभूमिप्रदेशस्तस्मिन् जीवहिंसा मर्द नकलह संक्लेशादिविमुक्तभूमिप्रदेशे । अप्पमसंथारिदम्हि --- अल्पमपि स्तोकमपि असंस्तरितं अप्रक्षिप्तं यस्मिन् सोऽल्पासंस्तरितस्तस्मिन्नल्पासंस्तरि अथवा अल्पवति संस्तरिते येन बहुसंयमविघातो न भवति तस्मिन् तृणमये काष्ठमये शिलामये भूमिप्रदेशे च संस्तरे गृहस्थयोग्यप्रच्छादनविरहिते आत्मना वा संस्तरिते नान्येन । अथवा आत्मानं मिमीत इति आत्ममं आत्म प्रमाणं संस्तरितं चारित्रयोग्यं तृणादिकं यस्मिन् स आत्ममसंस्तरितप्रदेशस्तस्मिन् । पच्छण्णे - प्रच्छन्ने गुप्तकप्रदेशे 'स्त्री शुषं कविवर्जिते असंयतजनप्रचारविवर्जिते । दण्डं दण्ड इव शयनं दण्ड इत्युच्यते । धणु-- धनुरिव शयनं धनुरित्युच्यते । शय्याशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । दण्डेन शय्या धनुपा शय्या । अधोमुखेनोत्तानेन शय्या न कर्तव्या दोषदर्शनात् । खिदिसयणं - क्षितौ शयनं क्षितिशयनं । विवर्जितपत्यकादिकं । एयपासेण - एकपार्श्वेन शरीरैकदेशेन । प्रासुकभूमिप्रदेशे चारित्राविरोधेनाल्पसंस्तरितेऽसंस्तरिते आत्मप्रमाणेनात्मनैव वा
[ मुलाचारे
गाथार्थ - अल्प भी संस्तर से रहित अथवा किंचित् मात्र संस्तर से सहित एकान्त स्थान रूप प्रासुक भूमि प्रदेश में दण्डाकार या धनुषाकार शयन करना अथवा एक पसवाड़े से सोना क्षितिशयन व्रत है ||३२||
आचारवृत्ति-जीव वध आदि हेतु से रहित प्रदेश प्रासुक प्रदेश है अर्थात् जीवों की हिंसा से, उनके मर्दन से अथवा कलह संक्लेश आदि से रहित जो प्रदेश है वह प्रासुक प्रदेश है । जहाँ पर किंचित् भी संस्तरण नहीं किया है अर्थात् कुछ भी नहीं विछाया है वह अल्प असंस्तरित है, अथवा जहाँ पर अल्पवान संस्तर किया गया है जिससे बहुत संयम का विघात न हो ऐसे तृणमय, काष्ठमय, शिलामय और भूमिमय इन चार प्रकार के संस्तर में से किसी एक प्रकार का संस्तर किया गया है ऐसा संस्तर जोकि गृहस्थ के योग्य प्रच्छादन से रहित है, अथवा जो अपने द्वारा बिछाया गया है अन्य के द्वारा नहीं, वह संस्तर यहाँ विवक्षित है ।
Jain Education International
अथवा जो 'आत्मानं मिमीते' आत्मा को मापता है अर्थात् अपने शरीर प्रमाण है। ऐसा बिलाया गया संस्तर यहाँ विवक्षित है जोकि चारित्र के योग्य तृण आदि रूप है वह आत्म प्रमाण संस्तरित प्रदेश साधु के शयन के योग्य है । वह प्रच्छन्न होवे अर्थात् वहाँ पर स्त्री, पशु और नपुंसक लोग न होवें और असंयतजनों के आने-जाने से रहित हो ऐसे गुप्त - एकान्त प्रदेश साधु के शयन योग्य है । वहाँ पर दण्ड के समान शरीर को करके अर्थात् दण्डाकार, या धनुष के समान सोना, अथवा एक पसवाड़े से शयन करना - इन तीन प्रकार से सोने का विधान होने से यहाँ पर अधोमुख होकर या ऊपर मुख करके सोना नहीं चाहिए यह आशय है क्योंकि इनमें दोष देखे जाते हैं । उपर्युक्त विधि से शयन ही क्षितिशयन व्रत है। तात्पर्य यह हुआ कि चारित्र से अविरोधी ऐसे अल्प संस्तर को डाल करके अथवा संस्तर नहीं भी बिछा करके, अपने शरीर प्रमाण में अथवा अपने द्वारा बिछाये गये ऐसे संस्तरमय, एकान्त
१ क 'शुपंडक' ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org