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मूलगुणाधिकारः ]
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पुटाभ्यां न सर्वः एकभक्तकालः त्रिमुहूर्तमात्रोऽपि विशिष्यते किन्तु भोजनं मुनेर्विशिष्यते तेन त्रिमुहूर्त कालमध्ये यदा यदा भुङ्क्ते तदा तदा समपादं कृत्वा अञ्जलिपुटेन भुञ्जीत । यदि पुनर्भोजनक्रियायां प्रारब्धायां समपादी न विशिष्यते अञ्जलिपुटं च न विशिष्यते हस्तप्रक्षालने कृतेऽपि तदानीं जानूपरिव्यतिक्रमो योऽयमन्तरायः पठितः स न स्यात् । नाभेरधो निर्गमनं योऽन्तरायः सोऽपि न स्यात् । अतो ज्ञायते त्रिमुहूर्तमध्ये एकत्र भोजनक्रियां प्रारभ्य केनचित् कारणान्तरेण हस्तौ प्रक्षाल्य मौनेनान्यत्र गच्छेत् भोजनाय यदि पुनः सोऽन्तरायो भुञ्जानस्यैकत्र भवतीति मन्यते जानूपरिव्यतिक्रमविशेषणमनर्थकं स्यात् । एवं विशेषणमुपादीयेत समपादयोर्मनागपि चलितयोरन्तरायः स्यात् नाभेरधो निर्गमनं दूरत एव न' सम्भवतीति अन्तराय परिहारार्थमनर्थकं ग्रहणं स्यात् तथा पादेन किञ्चित् ग्रहणमित्येवमादीन्यन्तराख्यापकानि सूत्राण्यनर्थकानि स्युः । तथाञ्जलिपुटं यदि न भिद्यते करेण किञ्चिद् ग्रहणमन्तरायस्य विशेषणमनर्थकं स्यात् । गृह्णातु वा मा वा अञ्जलिपुटभेदेन अन्तरायः स्वादित्येवमुच्यते । तथा जान्वधः परामर्शः सोऽप्यन्तरायस्य विशेषणं न स्यात् । एवमन्येऽपि अन्तराया न स्युरिति । न चैतेऽन्तरायाः सिद्धभक्तावकृतायां गृह्यन्ते सर्वदैव भोजनाभावः स्यात् । न चैवं यस्मात्सिद्धभक्त यावन्न' करोति तावदुपविश्य पुनरुत्थाय भुङ्क्ते । मांसादीन् दृष्ट्वा च रोदनादिश्रवणेन च उच्चारादींश्च
अंजलिपुट से ही करते हैं । यदि पुनः भोजन क्रिया के प्रारम्भ कर देने पर समपाद विशेष नहीं है और अंजलिपुट विशेष नहीं है तो हाथ के प्रक्षालन करने पर भी उस समय जानूपरिव्यतिक्रम नाम का जो अंतराय कहा गया है वह नहीं हो सकेगा और नाभि के नीचे निर्गमन नाम का जो अंतराय है वह नहीं हो सकेगा इसलिए यह जाना जाता है कि तीन मुहूर्त के मध्य एक जगह भोजन क्रिया को प्रारम्भ करके किसी अन्य कारण से हाथों को धोकर मौन से अन्यत्र भोजन के लिए जा सकते हैं । यदि पुनः वह अंतराय भोजन करते हुए के एक जगह होती है ऐसा मान लो तो जानूपरिव्यतिक्रम विशेषण अनर्थक हो जावेगा । किन्तु ऐसा विशेषण ग्रहण करना चाहिए था कि सम पैरों के किंचित् भी चलित होने पर अंतराय हो जावेगा, पुनः नाभि के नीचे से निकलने रूप अंतराय दूर से ही संभव नहीं हो सकेगा इसलिए अंतराय परिहार के लिए है ऐसा ग्रहण अनर्थक ही हो जावेगा । उसी प्रकार से पैर से किंचित् ग्रहण करना' इत्यादि प्रकार के अंतरायों को कहनेवाले सूत्र भी अनर्थक ही हो जायेंगे । तथा यदि अंजलिपुट नहीं छूटना चाहिए ऐसा मानेंगे तो 'कर से किंचित् ग्रहण करने रूप' अंतराय का विशेषण अनर्थक हो जायेगा । ग्रहण करो अथवा मत करो किन्तु अंजलिपुट के छूट जाने से अंतराय हो जावेगा ऐसा कहना चाहिए था । तथा जान्वधः परामर्श नामक जो अंतराय है वह भी नहीं बन सकेगा । इसी प्रकार से अन्य भी अंतराय नहीं हो सकेंगे ।
सिद्धभक्ति के नहीं करने पर ये अंतराय ग्रहण किये जाते हैं ऐसा भी नहीं कह सकते हैं अन्यथा हमेशा ही भोजन का अभाव हो जावेगा । किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि जब तक सिद्धभक्त को नहीं करते हैं तब तक बैठे रहकर पुनः खड़े होकर भोजन करते हैं । मांस आदि देखकर रोना आदि सुनकर अथवा मलमूत्र आदि विसर्जन करके भोजन करते हैं और पर काक आदि के द्वारा पिण्ड ग्रहण अंतराय भी सम्भव नहीं है ।
१-२ न नास्तिक प्रती ।
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