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मूलगुणाधिकारः ]
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इति । अथवा नाडीप्रमाणे उदयास्तमनकाने च वर्जिते मध्यकाले त्रिषु मुहूर्तेषु भोजनक्रियाया या निष्पत्तिस्तदेकभक्तमिति । अथवा अहोरात्रमध्ये द्वे भक्तवले तत्र एकस्यां भक्तवेलायां आहारग्रहण मेकभक्तमिति । एकशब्दः संख्यावचनः भक्तशब्दोऽपि कालवचन इति । एकभक्तैकस्थानयोः को विशेष इति चेन्न पादविक्षेपाविक्षेपकृतत्वाद्विशेषस्य, एकस्मिन् स्थाने त्रिमुहूर्तमध्ये पादविक्षेपमकृत्वा भोजनमेकस्थानं, त्रिमुहूर्त कालमध्ये एकक्षेत्राधारण रहिते भोजन मेकभक्तमिति । अन्यथा मूलगुणोत्तरगुणयोरविशेषः स्यात् न चैवं प्रायश्चित्तेन विरोधः स्यात् । तथा चोक्तं प्रायश्चित्तग्रन्थेन, 'एकस्थानमुत्तरगुणः एकभक्तं तु मूलगुण' इति । तत्किमर्थमिति 'चेन्न इन्द्रियजयनिमित्तं, आकांक्षानिवृत्त्यर्थं महापुरुषाचरणार्थं चेति | किमर्थं महाव्रतानां भेद इति चेन्न, छेदोपस्थापन-शुद्धिसंयमाश्रयणात् । नापि महाव्रतसमितीनामभेदः सचेष्टाचेष्टाच रणविशेषाश्रयणात् । नाप्यात्मदुःखार्थमेतत्, अन्यथार्थत्वात् भिषक्क्रियावदिति । अथ तपसां गुप्तीनां च क्वान्तर्भाव इति प्रश्ने उत्तरमाह-
अथवा अहोरात्र में भोजन की दो बेला होती हैं उसमें एक भोजन बेला में आहार ग्रहण करना एक भक्त है । यहाँ पर एक शब्द संख्यावाची है और भक्त शब्द कालवाची है ऐसा समझना ।
प्रश्न- एक भक्त और एक स्थान में क्या अन्तर है ?
उत्तर - पादविक्षेप करना और पाद विक्षेप न करना यही इन दोनों में अन्तर है । तीन मुहूर्त के बीच में एक स्थान में खड़े होकर अर्थात् चरणविक्षेप न करके भोजन करना एक स्थान है और तीन मुहूर्त के काल में एक क्षेत्र की मर्यादा न करते हुए भोजन करना एकभक्त है । यदि ऐसा नहीं मानोगे तो मूलगुण और उत्तरगुण में कोई अन्तर नहीं रहेगा किन्तु ऐसा नहीं, नहीं तो प्रायश्चित्त शास्त्र से विरोध आ जायेगा, उसमें कहा हुआ था कि एकस्थान उत्तरगुण है और एक भक्त मूलगुण है ।
ऐसा भेद क्यों है ?
इन्द्रियों को जीतने के लिए, आकांक्षा का त्याग करने के लिए और महापुरुषों के आचरण के लिए ही भेद है ।
महाव्रतों में भेद क्यों हैं ?
छेदोपस्थापना शुद्धि नामक संयम के आश्रय से यह भेद है । महाव्रत और समिति में भी अभेद नहीं है क्योंकि क्रियात्मक और अक्रियात्मक आचरण विशेष देखा जाता है अर्थात् समिति क्रियारूप हैं उनमें यत्नाचारपूर्वक गमन करना, बोलना आदि होता है और महाव्रत अक्रियारूप हैं क्योंकि वे परिणामात्मक हैं ।
ये महाव्रत समिति आदि आत्मा को दुःख देने वाले हैं ऐसा भी नही समझना क्योंकि वैद्य की शल्यक्रिया के समान ये दुःख से विपरीत अन्यथा अर्थवाले ही हैं अर्थात् जैसे वैद्य रोगी के फोड़े को चीरता है तो वह आपरेशन तत्काल में दुःखप्रद दिखते हुए भी उसके स्वास्थ्य के लिए है वैसे ही इन महाव्रत समितियों के अनुष्ठान में तत्काल में भले ही दुःख दीखे किन्तु ये आत्मा को स्वर्ग मोक्ष के लिए होने से सुखप्रद ही हैं ।
१ क चेत् इ ।
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