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[मूलाचारे स्थितिभोजनस्य स्वरूपं निरूपयन्नाह--
अंजलिपुडेण ठिच्चा कुड्डाइविवज्जणेण समपाय।
'पडिसुद्धे भूमितिए असणं ठिदिभोयणं णाम ॥३४॥ अंजलिपुडेण-अञ्जलिरेव पुटं अञ्जलिपुटं तेन अञ्जलिपुटेन पाणिपात्रेण स्वहस्तपात्रेण । ठिच्चा–स्थित्वा ऊर्ध्वाधः स्वरूपेण नोपविण्टेन नापि सुप्तेन न तिर्यग्व्यवस्थितेन भोजनं कार्यमित्यर्थः । ऊर्ध्वजंघः संस्थाय । कुड्डाइविवज्जणेण -कुड्यमादिर्येषां ते कूड्यादयस्तेपा विवर्जन परिहरणं कुड्यादिविवर्जन तेन कूड़यादिविवर्जनेन भित्तिविभागस्तंभादीननाश्रित्य । समपायं--समौ पादौ यस्य क्रियाविशेषस्य तत्समपादं चतुरंगुलप्रमाणं पादयोरन्तरं कृत्वा स्थातव्यमित्यर्थः । परिसुद्धे---परिशुद्धे जीवबधादिविरहिते। भूमितिएभमित्रिके भ्रमेस्त्रिकं भूमित्रिक तस्मिन् स्ववादप्रदेशोत्सृष्टपतनपरिवेषकप्रदेशे । असणं-अशनं आहारग्रहणम् । ठिदिभोयणं-स्थितस्य भोजनं स्थितिभोजनं नामसंज्ञक भवति । परिशुद्ध भूमिश्केि कुड्यादिविवर्जनेनाञ्जलिपटेन समपादं यथाभवति तथा स्थित्वा यदेतदशनं क्रियते तत्स्थितिभोजनं नाम व्रतं भवतीति । समपादाञ्जलि
उत्तर- यह व्रत वीतारागता को बतलाने के लिए और सर्वज्ञदेव की आज्ञा के पालन हेतु कहा गया है।
स्थितिभोजन का स्वरूप कहते हैं
गाथार्थ-दीवाल आदि का सहारा न लेकर जीव-जन्तु से रहित तीन स्थान की भूमि, में समान पैर रखकर खड़े होकर दोनों हाथ की अंजली बनाकर भोजन करना स्थितिभोजन नाम का व्रत है ॥३४॥
प्राचारवृत्ति-दीवाल का भाग या खंभे आदि का सहारा न लेकर, पैरों में चार अंगुल प्रमाण का अन्तर रखकर खड़े होकर अपने कर-पात्र में आहार लेना स्थितिभोजन है। यहाँ 'खड़े होकर' कहने से ऐसा समझना कि साध न बैठकर आहार ले सकते हैं, न लेटकर, न तिरछे आदि स्थित होकर ही ले सकते हैं किन्तु दोनों पैरों में चार अंगुल अन्तर से खड़े होकर ही लेते हैं। वे तीन स्थानों का निरीक्षण करके आहार करते हैं । अपने पैर रखने के स्थान को, उच्छिष्ट गिरने के स्थान को और परोसने वाले के स्थान को जीवों के गमनागमन या वध आदि से रहित-विशुद्ध देखकर आहार ग्रहण करना होता है। उसका स्थितिभोजन नामक व्रत कहलाता है।
तात्पर्य यह है कि तीनों स्थानों को जीव-जन्तु रहित देखकर भित्ति आदि का सहारा न लेकर समपाद रखकर खड़े होकर अंजलिपुट से जो आहार ग्रहण किया जाता है वह स्थितिभोजन व्रत है।
समपाद और अंजलिपुट इन दो विशेषणों से तीन मुहर्त मात्र भी एकभक्त का जो काल है वह संपूर्णकाल नहीं लिया जाता है किन्तु मुनि का भोजन ही इन विशेषणों से विशिष्ट होता है । इससे यह अर्थ हुआ कि साधु जब-जब भोजन करते हैं तब-तब समपाद को करके
{क दिवि । २ क पादं । ३ क परिसु। ४ क त भाजनेन । ५ क
र्वजंघस्व ।
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