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मूलमुवाधिकारः] मूलगुणान् कीर्तयिष्यामि, चशब्दोऽनुक्तोऽपि द्रष्टव्यः । यथा पृथिव्यप्तेजोवायुराकाशमित्यत्र । मूलगुणकयनप्रतिज्ञां निर्वहन्नाचार्यः संग्रहसूत्रगाथाद्वयमाह*
पंचय महव्वयाई समिदीनो पंच जिणवरुट्टिा । पंचेविदियरोहा छप्पि य आवासया लोगो ॥२॥ आचेलकमण्हाणं खिदिसयणमदंतघंसणं चेव ।
ठिदिभोयणेयभत्तं मूलगुणा अट्टवीसा दु॥३॥ को नमस्कार करके मैं मूलगुणों को कहूँगा ऐसा अर्थ करना। यहाँ पर 'मूलगुणों को और संयतों को' इसमें जो चकार शब्द लेकर उसका अर्थ किया है वह गाथा में अनुक्त होते हुए भी लिया गया है। जैसे 'पृथिव्यप्तेजोवायुराकाशम्' सूत्र में चकार अनुक्त होते हुए भी लिया जाता है अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ऐसा अर्थ किया जाता है उसी प्रकार से उपर्युक्त में भी चकार के अर्थ के बारे में समझ लेना चाहिए ॥१॥
अब मूलगुणों के कथन की प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हुए आचार्य संग्रहसूत्र रूप दो गाथाओं को कहते हैं
____ अर्थ-पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, छह आवश्यक, लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त ये अट्ठाईस मूलगुण जिनेन्द्रदेव ने यतियों के लिए कहे हैं ॥२-३॥
निम्नलिखित दो गाथाएँ फलटन से प्रकाशित प्रति में अधिक हैं
रत्नत्रय के साधक परिणाम(१) णाणादिरयणतियमिह, सझं तं साधयंति जमणियमा ।
जत्थ जमा सस्सदिया, णियमा णियतप्पपरिणामा ॥२॥
अर्थ-सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रय साध्य है, यम और नियम इस रत्नत्रयरूप साध्य को सिद्ध करने वाले हैं। इसमें यम नामक उपाय शाश्वतिक यावज्जीवन के लिए होता है और नियम अल्पकालिक होने से नियतकाल के लिए ग्रहण किया जाता है।
भावार्थ---महाव्रत आदि आजीवन धारण करने योग्य होने से यमरूप हैं और सामायिक प्रतिक्रमण आदि अल्पकालावधि होने से नियम कहलाते हैं। ये यम-नियमरूप परिणाम रत्नत्रय प्राप्ति के साधन हैं।
मूलगुण और उत्तरगुण(२) ते मलुत्तरसण्णा मूलगुणा महव्वदादि अडवीसा।
तवपरिसहादिभेदा, चोत्तीसा उत्तरगुणक्खा ॥२॥
अर्थ—ये मूलगुण और उत्तरगुण जीव के परिणाम हैं। महाव्रत आदि मूलगुण अट्ठाईस हैं, बारह तप और बाईस परीषह ये उत्तरगुण चौंतीस होते हैं।
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