________________
मलगुणाधिकारः]
[२५ दयश्च जीवशब्दाश्च षड्जादिजीवशब्दाः षड्जर्षभगान्धारमध्यमधैवतपंचमनिषादभेदा उर कण्ठशिरस्थानभेदभिन्नाः, आरोह्यवरोहिस्थायिसंचारिवर्णयुक्ता मन्द्रतारादिसमन्विताः, अन्ये च दुःस्वरशब्दा रासभादिसमुत्या ग्राह्याः। वीणादिअजीवसंभवा-वीणा आदिर्येषां ते वीणादयो वीणादयश्च ते अजीवाश्च वीणाधजीवास्तेभ्य: संभवन्तीति वीणाद्यजीवसम्भवा बीणा-त्रिशरी-रावणहस्तालावनि-मृदंग-भेरी-पटहायुद्भवाः । सहे. शब्दाः । रागादीण-राग आदिर्येषां ते रागादयस्तेषां रागादीनां रागद्वेपादीनाम् । णिमित्ते-निमित्तानि हेतवो रागादिकारणभूताः । तदकरणं-तेषां षड्जादीनामकरणमश्रवणं च तदकरणं स्वतो न कर्तव्या नापि तेऽन्यः क्रियमाणा रागाद्याविष्टचेतमा श्रोतव्या इति । सोदरोधो दु-श्रोत्रस्य श्रोत्रेन्द्रियस्य रोधः श्रोत्ररोधः । द विशेषार्थः । रागादिहेतवो ये पड्जादयो जीवशब्दा वीणाद्यजीवसम्भवाश्च, तेषां यदश्रवणं आत्मना अकरणं च तच्छोत्रव्रतं मुनेर्भवतीत्यर्थः । अथवा पड्जादिजीवशब्दविपये वीणाद्य जीवसंभवे शब्दविषये च रागादीनां यन्निमित्तं तस्याकरणमिति ॥ तृतीयस्य नाणेन्द्रियनिरोधव्रतस्य स्वरूपनिरूपणार्थमाह
पयडीवासणगंधे जीवाजीवप्पगे सुहे असुहे। रागद्देसाकरणं घाणणिरोहो मुणिवरस्स ॥१६॥
अपेक्षा जीव से उत्पन्न हुए शब्दों के सात भेद हैं । छाती, कण्ठ, मस्तक स्थान से उत्पन्न होने की अपेक्षा भी शब्दों के अनेक भेद हैं । आरोही, अवरोही, स्थायी और संचारी वर्गों से युक्त मन्द्र तार आदि ध्वनि से सहित भी नाना प्रकार के शब्द जीवगत देखे जाते हैं और अन्य भी, गधे आदि से उत्पन्न हुए दुःस्वर शब्द भी यहाँ ग्रहण किये जाते हैं । वीणा, त्रिशरी, रावण के हाथ की आलावनि, मृदंग, भेरी, पटह आदि से होनेवाले शब्द अजीव से उत्पन्न होते हैं अतः ये अजीवसंभव कहलाते हैं। ये सभी प्रकार के शब्द राग-द्वेष आदि के निमित्तभूत हैं। इन शब्दों को न करना और न सुनना अर्थात् राग-द्वेष के कारणभूत इन शब्दों को न स्वयं करना और न ही दूसरों द्वारा किये जाने पर रागादि युक्त मन से इनको सुनना-यह श्रोत्रेन्द्रियनिरोधव्रत है । तात्पर्य यह कि षड्ज आदि जीव-शब्द और वीणा आदि से उत्पन्न हए अजीवशब्द-ये सभी राग-द्वेष आदि के हेतु हैं। इनका जो नहीं सुनना और नहीं करना है मुनि का वह श्रोत्रव्रत कहलाता है। अथवा संक्षेप में यह समझिए कि षड्जादि जीव शब्द के विषयों में और वीणादि से उत्पन्न अजीव शब्द के विषयों में राग-द्वेषादि का निमित्त है। उसे नहीं करना श्रोत्रेन्द्रियजय है।
अब तृतीय घ्राणेन्द्रियनिरोध व्रत का स्वरूप निरूपण करने के लिए कहते हैं
गाथार्थ-जीव और अजीवस्वरूप सुख और दुःखरूप प्राकृतिक तथा पर-निमित्तिक गन्ध में जो राग-द्वेष का नही करना है वह मुनिराज का घ्राणेन्द्रियजय व्रत है ॥१६॥
१. क "रस्थभे । * पद्मपुराण में चर्चा है कि रावण ने वालि मुनि की स्तुति अपने हाथ की तन्त्री निकालकर की थी। उसी
को लक्ष्य कर रावणहस्तालावनि वाद्य विशेष का नाम प्रचलित हुआ जान पड़ता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org