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[मूलाचारे सवर्णभेदास्तेषु क्रियासंस्थानवर्णभेदेषु, नृत्यगीतकटाक्षनिरीक्षणसमचतुरस्राकारगौरश्यामादिविकल्पेषु, शोभनाशोभनेषु । रागादिसंगहरणं-राग आदिर्येषां ते रागादयः रागादयश्च ते संगाश्च रागादिसंगाः संगाश्चासक्तयस्तेषां हरणं निराकरणं रागादिसंगहरणं रागद्वेषाद्यनभिलाषः । चक्खुगिरोहो-चक्षुषोनिरोधश्चक्षनिरोधः चक्षुरिन्द्रियाप्रसरः । हवे-भवेत् । मुणिणो-मुनेरिन्द्रियसंयमनाथकस्य । स्त्रीपुरुषाणां स्वरूपलेपकर्मादिव्यवस्थितानां ये क्रियासंस्थानवर्णभेदास्तद्विषये यदेतत् रागादिनिराकरणं तच्चक्षनिरोधवतं मुनेर्भवतीत्यर्थः ।। श्रोत्रेन्द्रियनिरोधव्रतस्वरूपनिरूपणायाह
सड़जादि जीवसद्दे वीणादिअजीवसंभवे सद्दे।
रागादीण णिमित्ते तदकरणं सोदरोधो दु॥१८॥ सड्जादिजीवसद्दे-षड्जः स्वरविशेषः स आदिर्येषां ते षड्जादयः जीवस्य शब्दा जीवशब्दाः षड्जा
आकारों और वैशाख तथा बन्धपुट आदि आसनों में और गौर श्याम आदि वर्गों में अर्थात् नर्तन, गीत, कटाक्ष, निरीक्षण, समचतुरस्र आकार और गौर-श्याम आदि तथा सुन्दर-असुन्दर आदि अनेक भेदों में राग-द्वेषपूर्वक आसक्ति का त्याग करना अर्थात् राग-द्वेष आदि पूर्वक अभिलाषा नहीं होना-यह इन्द्रियसंयम के स्वामी मुनि का चक्षुनिरोध व्रत है।
विशेषार्थ-उपयोग को भावेन्द्रिय में भी लिया है और जीव का आत्मभत लक्षण भी उपयोग है जोकि सिद्धों में भी पाया जाता है, दोनों में क्या अन्तर है ? और यदि अन्तर न माना जाये तो सिद्धों में भी भावेन्द्रिय का सद्भाव मानना पड़ेगा। इसपर धवला टीकाकार ने बताया है:-'क्षयोपशमजनितस्योपयोगस्येन्द्रियत्वात् । न च क्षीणाशेषकर्मसु सिद्धेषु क्षयोपशमोऽस्ति, तस्य क्षायिकभावेनापसारित्वात् ।' अर्थात् क्षयोपशम से उत्पन्न हुए उपयोग को इन्द्रिय कहते हैं । किन्तु जिनके सम्पूर्ण कर्म क्षीण हो गये हैं, ऐसे सिद्धों में क्षयोपशम नहीं पाया जाता है क्योंकि वह क्षायिकभाव के द्वारा दूर कर दिया जाता है। अभिप्राय यह कि भावेन्द्रियों में जो उपयोग लिया है वह भी यद्यपि आत्मा का ही परिणाम है तो भी वह कर्मों के क्षयोपशम की अपेक्षा रखता है और सिद्धों को भावेन्द्रियाँ न होने के कारण उनका उपयोग पूर्णतया ज्ञान-दर्शन रूप होने से क्षायिक है अतः वह इन्द्रियों में गर्भित नहीं है।
तात्पर्य यह है कि अपने स्वरूप में या लेपकर्म आदि में बने हुए जो स्त्री या पुरुष हैं उनकी क्रियाओं, आकार और वर्णभेदों में जो राग-द्वेष आदि का निराकरण करना है वह मुनि का चक्षुनिरोध नाम का व्रत है।
अब श्रोत्रेन्द्रिय निरोध व्रत का स्वरूप निरूपण करने के लिए कहते हैं
गाथार्थ षड्ज, ऋषभ, गान्धार आदि शब्द और वीणा आदि अजीव से उत्पन्न हुए शब्द-ये सभी रागादि के निमित्त हैं । इनका नहीं करना कर्णेन्द्रिय-निरोध व्रत है ॥१८॥
प्राचारवृत्ति-षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, धैवत, पंचम और निषाद के भेदों की
* धवला पु. प्र. पृ. २५१ ।
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