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मूलगुणाधिकारः]
|૨૨ आवश्यका आवश्यकानि वा, न वशोऽवशः अवशस्य कर्मावश्यकाः निश्चयक्रियाः। छप्पी-षडपि न पंच नापि सप्त । समतास्तववन्दनाप्रतिक्रमणानि तथैव प्रत्याख्यानकायोत्सगो, एवं पडावश्यका निश्चयक्रिया यास्ता नित्यं षडपि कर्तव्याः । मूलगुणा इति कृत्वेति सामान्यस्वरूपं प्रतिपाद्य विशेषार्थं प्रतिपादयन्नाह
जीविदमरणे लाभालाभे संजोयविप्पनोगे य।
'बंधुरिसुहदुक्खादिसु समदा सामाइयं णाम ॥२३॥ जीविदमरणे-जीवितमौदारिकवैक्रियिकादिदेहधारणं, मरणं मत्युः प्राणिप्राणवियोगलक्षणं, जीवितं च मरणं च जीवितम रणे तयोर्जीवितमरणयोः। लाभालाभे-लाभोऽभिलषितप्राप्तिः, अलाभोऽभिलषितस्याप्राप्तिः लाभश्चालाभश्च लाभालाभौ तयोर्लाभालाभयोराहारोपकरणादिषु प्राप्त्यप्राप्त्योः । संजोयविप्पओगे य–संयोग इष्टादिसन्निकर्ष:, विप्रयोग इष्टवियोगः संयोगश्च विप्रयोगश्च संयोगविप्रयोगौ तयोः संयोगविप्रयोगयोः, इष्टानिष्टसन्निकर्षासन्निकर्षयोः । बन्धूरिसुखदुक्खादिसु-बन्धुश्च अरिश्च सुखं च दुःखं च बन्ध्वरिसुखदुःखानि तान्यादीनि येषां ते बन्ध्वरिसुखदुःखादयस्तेषु स्वजनमित्रशत्रुसुखदुःखक्षुत्पिपासाशीतोष्णादिषु। समदा-समता चारित्रानुविद्धसमपरिणामः । सामाइयं णाम-सामायिकं नाम भवति । जीवितमरणलाभालाभसंयोगविप्रयोगबन्ध्वरिसुखदुःखादिषु यदेतत्समत्वं समानपरिणामः त्रिकालदेववन्दनाकरणं च तत्सामायिक व्रतं भवतीत्यर्थः ॥
जिनेन्द्रदेव के गुणों का चिन्तवन करना--यह कायोत्सर्ग है । इन सबको आगम के अविरोधरूप से ही सम्यक् जानना चाहिए। ये करने योग्य आवश्यक छह ही हैं। जो वश में नहीं है (इन्द्रियों के अधीन नहीं है) वह अवश है, अवश के कार्य आवश्यक हैं। इन्हें निश्चयक्रिया भी कहते हैं। ये आवश्यक क्रियाएँ छह ही हैं, न पाँच हैं न सात । तात्पर्य यह कि समता, स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग--इस प्रकार छह आवश्यक हैं जो कि निश्चयक्रियाएँ हैं अर्थात् नियम से करने योग्य हैं । इन छहों को नित्य ही करना चाहिए।
ये मूलगुण हैं ऐसा होने से इनका सामान्य स्वरूप प्रतिपादित करके अब इनका विशेष अर्थ बतलाने के लिए कहते हैं
गाथार्थ-जीवन-मरण में, लाभ-अलाभ में, संयोग-वियोग में, मित्र-शत्रु में तथा सुखदुःख इत्यादि में समभाव होना सामयिक नाम का व्रत है ॥२३॥
प्राचारवृत्ति-औदारिक वैक्रियिक आदि शरीर की स्थिति रहना जीवन है । प्राणियों के प्राणवियोगलक्षण मृत्यु को मरण कहते हैं । अभिलषित वस्तु आहार उपकरण आदि की प्राप्ति का नाम लाभ है और अभिलषित की प्राप्ति न होना अलाभ है । इष्ट आदि पदार्थ का सम्बन्ध होना-मिल जाना संयोग है और इष्ट का अपने से पृथक् हो जाना वियोग है अर्थात् इष्ट का संयोग या वियोग हो जाना अथवा अनिष्ट का संयोग या वियोग हो जाना संयोग-वियोग है। इन सभी में तथा स्वजन, मित्र-शत्रु, सुख-दुःख में और आदि शब्द से भूख, प्यास, शीत, उष्ण आदि में चारित्र से समन्वित समभाव का होना ही सामायिक व्रत है।
१क बंध्वरि । २ क बंध्वरि।
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