________________
मूलगुणाधिकारः]
[२७
असणादिचवियप्पे--अशनमादियेषां तेऽशनादयो भोजनादय: चत्वारश्च ते विकल्पाश्च चतुर्विकल्पा: अशनादयश्चतुर्विकल्पा यस्मिन्नसौ अशनादिचतुर्विकल्परतस्मिन्नशनपानखाद्यस्वाद्यभेदे भक्तदुग्धलड्डकैलादिस्वभेदभिन्ने । पंचरसे--पंचरसा यस्मिन्नसो पंचरसस्तस्मिन् पंचरसे तिक्तकटुकषायाम्लमधुरभेदभिन्ने । लवणस्य मधुररसेऽन्तर्भावः । फासुए-प्रासुके जीवसम्मूर्च्छनादिरहिते। गिरवज्जे-अवद्याद्दोषान्निर्गतो निरववस्तस्मिन् निरवद्ये पापागमविरहिते कुत्सादिदोषमुक्ते च । इट्ठाणि?--इष्टोऽभिप्रेतो मनोह्लादकः, अनिष्टोऽनभिप्रेत: मनोदुःखदः, इष्टश्च अनिष्टश्चेष्टानिष्टस्तस्मिन्निष्टानिष्टे। आहारे-आहारो बुभुक्षाद्युपशामक द्रव्यं तस्मिन्नाहारे । वत्ते--प्राप्ने दातृजनोपनीते । जिन्भाजओ-जिह्वाया जयो जिह्वाजयो रसनेन्द्रियात्मवशीकरणम् । अगिद्धी--अगद्धिरनाकांक्षा। आहारे अशनादिचतुष्प्रकारे पंचरससमन्विते प्रासूके निरवद्ये च प्राप्ते सति येयमगद्धिस्तज्जिहाजयव्रतं भवतीत्यर्थः ।। स्पर्शनेन्द्रियनिरोधव्रतस्य स्वरूपं प्रतिपादयन्नुत्तरसूत्रमाह
जीवाजीवसमुत्थे कक्कडमउगादिअट्ठभेदजुदे।
फासे' सुहे य असुहे फासणिरोहो असंमोहो॥२१॥ जीवाजीवसमत्थे–जीवश्च अजीवश्च जीवाजीवौ तयोः जीवाजीवयोः समुत्तिष्ठते सम्भवतीति जीवाजीवसमुत्थातस्मिश्चेतनाचेतनसम्भवे । कक्क उमउगादि अट्ठभेदजुदे—कर्कशः कठिनः, मृदुः कोमलं
प्राचारवृत्ति- अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य के भेद से भोज्य वस्तु के चार भेद हैं। इनके उदाहरण में भक्त अर्थात् रोटी-भात आदि अशन हैं, दूध आदि पीने योग्य पदार्थ पान हैं, लडड आदि खाद्य हैं और इलायची आदि स्वादिष्ट वस्तएँ स्वाद्य हैं। तिक्त, कटक, कषायले. खट्टे और मीठे के भेद से रस के पाँच भेद हैं । यहाँ पर नमक को मधुररस में अन्तर्भूत किया गया है । अर्थात् नमक भोजन में सबसे अधिक रुचिकर होने से इसका अन्तर्भाव मधुररस में ही हो जाता है। सम्मूर्च्छन आदि जीवों से रहित को प्रासुक कहते हैं । आगम कथित आहार के दोषों से रहित भोजन निर्दोष कहलाता है, अर्थात् जो पाप के आस्रव का कारण नहीं है और कुत्सा-निन्दा, ग्लानि आदि दोषों से रहित है तथा जो दातारों के द्वारा दिया गया एवं भूख आदि को शमन करनेवाला द्रव्य जो कि आहार इस नाम से विवक्षित है ऐसा आहार चाहे मन को आह्लादकर होने से इष्ट हो या मन को अरुचिकर होने से अनिष्ट हो उसमें गृद्धि अर्थात् आसक्ति या आकांक्षा नहीं रखना, अपनी रसना इन्द्रिय को अपने वश में करना—यह जिह्वाजय व्रत है। तात्पर्य यह कि अशन आदि के भेद से चार प्रकार रूप, पाँच रसों से समन्वित, प्रासक तथा निर्दोष ऐसे आहार के मिलने पर उसमें गृद्धता नहीं होना जिह्वाजयव्रत कहलाता है।
अब स्पर्शनेन्द्रिय निरोधव्रत के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए उत्तरसूत्र कहते हैं
गाथार्थ---जीव और अजीव से उत्पन्न हुए एवं कठोर, कोमल आदि आठ भेदों से युक्त सुख और दुःखरूप स्पर्श में मोह रागादि नहीं करना स्पर्शनेन्द्रियनिरोध है ॥२१॥
प्राचारवृत्ति-कठोर, कोमल शीत, उष्ण, चिकने, रूखे, भारी और हल्के ये आठ प्रकार स्पर्श हैं। ये स्त्री आदि के निमित्त से होने पर चेतन से उत्पन्न हुए कहे जाते हैं और गद्दे
१ जऊ द. । २क प्राप्तेऽप्रा । ३क फस्से । ४ क फस्स ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org