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| मूलाचार
कानां, गुणाधिकानां, स्वगुरोः, अर्हत्सिद्धप्रतिमानां च । रादीणं.-राश्यधिकानां दीक्षया महतां च । किदियम्मेण—क्रियाकर्मणा कायोत्सर्गादिकेन सिद्धभक्तिश्रुतभक्तिगुरुभक्तिपूर्वकेण। इदरेण-इतरेण श्रुतभक्त्यादिक्रियापूर्वकमन्तरेण शिरःप्रणामेन मुंडवंदनया। तियरणसंकोचणं-त्रयश्च ते करणाश्च त्रिकरणा मनोवाक्कायक्रियाः तेषां संकोचनं त्रिकरणसंकोचनं मनोवाक्कायशुद्धक्रियं मन:शुद्धया वाकशुद्धया कायशुद्धया इत्यर्थः । पणमो---प्रणामः स्तवनम् । अर्हत्सिद्धप्रतिमानां, तपोगुरूणां श्रुतगुरूणां गुणगुरूणां दीक्षागुरूणां दीक्षया महत्तराणां कृतकर्मणेतरेण च त्रिकरणसंकोचनं यया भवति तथा योऽयं प्रणामः क्रियते सा वन्दना नाम मूलगुण इति ।। अथ कि प्रतिक्रमणमित्याशंकायामाह
दवे खत्ते काले भावे य कयावराहसोहणयं ।
णिदणगरहणजुत्तो मणवचकायेण पडिक्कमणं ॥२६॥ दम्वे-द्रव्ये आहारशरीरादिविषये । खेत्ते-क्षेत्रे वसतिकाशयनासनगमनादिमार्गविषये। कालेपूर्वाह्णापराह्मदिवसरात्रिपक्षमाससंवत्सरातीतानागतवर्तमानादिकालविषये । भावे-परिणामे चित्तव्यापार
तप, श्रुत और गुणों से जो महान् हैं अर्थात् जो तपों में अधिक हैं, श्रुत में अधिक हैं तथा गुण में अधिक हैं वे तपोगुरु, श्रुतगुरु और गुणगुरु कहलाते हैं। तथा अपने गुरु को यहाँ गुरु से लिया है, ऐसे ही जो दीक्षा की अपेक्षा एक रात्रि भी बड़े हैं वे रात्र्यधिक गुरु हैं। इन सभी की कृतिकर्म पूर्वक वन्दना करना अर्थात् सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, आचार्यभक्ति पूर्वक कायोत्सर्ग आदि के द्वारा मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक इनको प्रणाम करना वन्दना है । अथवा श्रुतभक्ति आदि क्रिया के बिना भी सिर झुकाकर इनको नमस्कार करना वन्दना है। अर्थात् समय-समय पर कृतिकर्मपूर्वक वन्दना की जाती है और हर क्रिया के प्रारम्भ में सिर झुकाकर नमोऽस्तु शब्द का प्रयोग करके भी वन्दना की जाती है। वह सभी वन्दना है।
तात्पर्य यह है कि अर्हन्त-सिद्धों की प्रतिमा तपोगुरु, श्रुतगुरु, गुणगुरु, दीक्षागुरु और दीक्षा में अपने से बड़े गुरु-इन सबका कृतिकर्मपूर्वक अथवा बिना कृतिकर्म के नमस्कार मात्र करके मन-वचन-काय की विशुद्धि द्वारा विधिपूर्वक जो नमस्कार किया जाता है वह वन्दना नाम का मूलगुण कहलाता है।
प्रतिक्रमण क्या है ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं
गाथार्थ-निन्दा और गर्हापूर्वक मन-वचन-काय के द्वारा द्रव्य क्षेत्र काल और भाव के विषय में किये गये अपराधों का शोधन करना प्रतिक्रमण है॥२६॥
प्राचारवृति-आहार शरीर आदि द्रव्य के विषय में; वसतिका, शयन, आसन और गमन-आगमन आदि मार्ग के रूप क्षेत्र के विषय में ; पूर्वाह्न-अपराह्न, दिवस, रात्रि, पक्ष, मास, संवत्सर तथा भूत-भविष्यत्-वर्तमान आदि काल के विषय में और परिणाम -मन के व्यापार रूप भाव के विषय में जो अपराध हो जाता है अर्थात् इन द्रव्य आदि विषयों में या इन द्रव्यक्षेव-काल-भावों के द्वारा व्रतों में जो दोष उत्पन्न हो जाते हैं उनका निन्दा-गर्हापूर्वक निराकरण
१क खित्ते।
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