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मूलगुणाधिकारः]
-अदतपरिवर्जनं अदत्तस्य परिवर्जनं अदत्तपरिवर्जनं, “अदत्तादानं स्तेयं" आदानं ग्रहणं अदत्तस्य पतितविस्मृत-स्थापिताननुज्ञातादिकस्य ग्रहणं अदतादानं तस्यः परित्यागोऽदत्तपरिवर्जनम् । चशब्दः समुच्चयार्थः । बंभं च–ब्रह्मचर्य च, ब्रह्मेत्युच्यते जीवस्तस्थात्मवतः परांगसम्भोगनिवृत्तवृत्तेश्चर्या ब्रह्मचर्यमित्युच्यते मैथुनपरित्यागः । स्त्रीपंसोश्चारित्रमोहोदये सति रागपरिणामाविष्टयोः परस्परस्पर्शन प्रतीच्छा मिथुनः, मिथुनस्य कर्म मैथुनं तस्य परित्यागो ब्रह्मचर्यमिति । संगविमुत्तीय--संगस्य परिग्रहस्य बाह्याभ्यन्तरलक्षणस्य विमुक्तिः परित्यागः संगविमुक्तिः श्रामण्यायोग्यसर्ववस्तुपरित्यागः परिग्रहासक्त्यभावः। तहातथा तेनैवागमोक्तेन प्रकारेण । महव्वयाइं-महाव्रतानि सर्वसावद्यपरिहारकारणानि पंच न षट। पण्णत्ता--प्रज्ञप्तानि प्रतिपादितानि कैजिनेन्द्ररिति शेषः । महभिरनुष्ठितत्वात् स्वत एव वा महान्ति व्रतानि महाव्रतानि पंचैवेति ।।
जीवस्थानस्वरूपं 'बन्धस्थानपरित्यागं च प्रतिपादयन् हिंसाविरतेर्लक्षणं प्रपंचयन्नाह
सत्य को कहते हैं । जो ऋत नहीं है वह अनृत है । वह क्या है ? जो प्राणियों को पीड़ा उत्पन्न करनेवाले वचन हैं वे अप्रशस्त हैं । वे चाहे विद्यमान अर्थविषयक हों चाहे अविद्यमान अर्थविषयक हों, अप्रशस्त ही कहे जाते हैं। ऐसे वचनों का त्याग करना ही सत्य महावत है। .
अदत्त का वर्जन करना अचौर्यत्रत है, चूंकि 'अदत्त का ग्रहण चोरी है' ऐसा सूत्रकार का कथन है। गिरी हुई, भूली हुई, रखी हुई और बिना पूछे ग्रहण की हुई वस्तु अदत्त शब्द से कही जाती है। ऐसी अदत्त वस्तुओं का ग्रहण अदत्तादान है और इनका त्याग करना अचौर्यव्रत कहलाता है।
ब्रह्म शब्द का अर्थ जीव होता है । उस आत्मवान्-जितेन्द्रिय जीव की परांग संभोग के अभावरूप वृत्ति का नाम चर्या है। इस प्रकार से ब्रह्मचर्य शब्द की परिभाषा है जो कि मैथुन के परित्याग रूप है। चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से राग परिणाम आविष्ट हुए स्त्री और पुरुष की परस्पर में स्पर्श के प्रति जो इच्छा है उसका नाम मिथुन है और मिथुन की क्रिया को मैथुन कहते हैं । उसका परित्याग ब्रह्मचर्य है।
संग-बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह की विमुक्ति-त्याग करना संगविमुक्ति है। अर्थात् श्रमण के अयोग्य सर्ववस्तु का त्याग करना और परिग्रह में आसक्ति का अभाव होना ही परिग्रह-त्याग महाव्रत है। इस तरह ही आगमोक्त प्रकार से सर्वसावध-पापक्रियाओं के परिहार में कारणभूत ये महाव्रत पाँच ही हैं, छह नहीं हैं और न चार हैं । ऐसा श्री जिनेन्द्र देव ने प्रतिपादन किया है। चूंकि महान् पुरुषों ने इनका अनुष्ठान किया है अथवा ये स्वतः ही महान् व्रत हैं इसीलिए ये महाव्रत कहलाते हैं । ये पाँच ही हैं ऐसा समझना चाहिए।
जीवस्थान का स्वरूप और बन्ध का परित्याग प्रतिपादित करते हुए हिंसाविरति के लक्षण को विस्तार से कहने के लिए आचार्य गाथासूत्र कहते हैं
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१. कवध' ।
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