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[मूलाचारे
परेण संगहीतानां च यदेतन्नादानमग्रहणं तददत्तपरिवर्जनं व्रतमिति। अथवा परद्रव्यं परेण संगहीतं च ग्रामादिषु पतितादिकं चाल्पादिकं च नादानं नादेयं आत्मीयं न कर्तव्यमिति योऽयमभिप्रायस्तददत्तपरिवर्जनं नामेति ॥
चतुर्थव्रतस्वरूपनिरूपणायाह
मादुसुदाभगिणीव य दठूणित्थित्तियं च पडिरूवं ।
इत्थिकहादिणियत्ती तिलोयपुज्ज हवे बंभं ॥८॥ ___ मादु-माता जननी। सुदा---सुता दुहिता । भगिणीव य-भगिनी स्वसा। इवौपम्ये द्रष्टव्य इवशब्द उपमार्थः चशब्द: समुच्चयार्थः । दठ्ठण-दृष्ट्वा सम्यक् ज्ञात्वा । इस्थित्तियं-स्त्रीणां त्रिक वृद्धबालयौवनभेदात् । पडिरूवं च–प्रतिरूपं च । चित्रलेपभेदादिषु स्थितं प्रतिबिंबं देवमनुष्यतिरश्चां च रूपं । इत्थिकहादिणियत्ती-स्त्रीकथा आदिर्येषां ते स्त्रीकथादयस्तेभ्यो निवत्तिः परिहार: स्त्रीकथादिनिवृत्तिः, वनिताकोमलालाप-मृदुस्पर्श-रूपालोकन-नृत्यगीतहासकटाक्षनिरीक्षणाद्यनुरागत्यागः । अथवा स्त्रीभक्तराजचौरकथानां परित्यागः रागादिभावेन तत्र प्रबन्धाभावः । तिलोयपुज्जं–त्रिभिर्लोकः पूज्य
का त्याग करना अदत्त परिवर्जन व्रत है अर्थात् अदत के ग्रहण करने में अभिलाषा का अभाव होना ही अचौर्यव्रत है । तात्पर्य यह हुआ कि ग्राम आदि में गिरा हुआ, भूला हुआ, अल्प अथवा बहुत जो परद्रव्य है और जो पर के द्वारा संगृहीत वस्तुएँ हैं उनका ग्रहण न न करना अदत्त त्याग नाम का व्रत है। अथवा परद्रव्य और पर के द्वारा संगृहीत वस्तु तथा ग्राम आदि में पतित इत्यादि अल्प-बहु आदि वस्तुओं को ग्रहण नहीं करना अर्थात् उनको अपनी नहीं करने रूप जो अभिप्राय है वह अचौर्य नाम का तृतीय व्रत है। .
चतुर्थ व्रत का स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं
गाथार्थ-तीन प्रकार की स्त्रियों को और उनके प्रतिरूप (चित्र) को माता, पुत्री और बहन के समान देखकर जो स्त्रीकथा आदि से निवृत्ति है वह तीन लोक में पूज्य ब्रह्मचर्य व्रत कहलाता है ॥८॥
प्राचारवृत्ति-वृद्धा, बाला और युवती के भेद से तीन प्रकार की स्त्रियों को माता, पुत्री और बहिन के समान सम्यक् प्रकार से समझकर तथा चित्र, लेप आदि भेदों में बने हुए स्त्रियों के प्रतिबिम्ब को एवं देव, मनुष्य और तिथंच सम्बन्धी स्त्रियों के रूप देखकर उनसे विरक्त होना; स्त्रियों के कोमलवचन, उनका मृदुस्पर्श, उनके रूप का अवलोकन, उनके नृत्य, गीत, हास्य, कटाक्ष-निरीक्षण आदि में अनुराग का त्याग करना स्त्रीकथादिनिवृत्ति का अर्थ है। अथवा स्त्रीकथा, भोजनकथा, राजकथा और चोरकथा इन विकथाओं का त्याग करना अर्थात् रागादि भाव से उनमें सम्बन्ध--आसक्ति का अभाव होना, यह त्रिलोकपूज्य देवों से, भवनवासियों से और मनुष्यों से अर्चनीय ब्रह्मचर्य महाव्रत होता है । गाथा में 'इव' शब्द उपमा के लिए है और 'च' शब्द समुच्चय के लिए।
तात्पर्य यह है कि देवी, मानुषी और तिर्यंचनियों के वृद्ध, बाल और यौवन स्वरूप
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