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मूलगुणाधिकारः]
[२१ विशाले विस्तीर्णे विलादिविरहिते। अविरोहे-अविरोधे यत्र लोकापवादो नास्ति । उच्चारादिउच्चारो मलं आदिर्यस्य स उच्चारादिस्तस्य उच्चारादेः मूत्रपुरीषादेः । चाओ-त्यागः । पदिठावणियाप्रतिष्ठापलिका। हवे--भवेत् । समिदी-समितिः । एकान्ताचित्तदूरगूढविशालाविरोधेषु प्रदेशेषु यत्नेन कायमलादेर्यस्त्याग: सा उच्चारप्रस्रवणप्रतिष्ठापनिका समितिर्भवतीत्यर्थः । इन्द्रियनिरोधव्रतस्वरूपनिरूपणायोत्तरविभागासूत्रमाह
चक्खू सोदं घाणं जिन्भा फासं च इंदिया पंच।
सगसगविसएहितो णिरोहियव्वा सया मुणिणा ॥१६॥ चक्खु-चक्षुः। सोदं-श्रोत्रम् । घाणं-घ्राणम् । जिम्मा-जिह्वा। फासं-स्पर्शः । च समुच्चयार्थः । इंदिया-इन्द्रियाणि मतिज्ञानावरणक्षयोपशमशक्तयः । इन्द्रियं द्विविधं द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं चेति । तत्र द्रव्येन्द्रियं द्विविधं निर्वत्तिरुपकरणं च । कर्मणा निर्वय॑ते इति निर्वृत्तिः, सा च द्विविधा बाह्याभ्यन्तरा चेति उत्सेधामुलासंख्येयभागप्रमितानां शुद्धानामात्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षुःश्रोत्रघ्राणरसनस्पर्शनेन्द्रियसंस्थानेनावस्थितानां वृत्तिराभ्यन्तरा निर्वृत्तिः । तेषु आत्मप्रदेशेषु इन्द्रियव्यपदेशभाग् यः प्रतिनियतसंस्थाननामकर्मोदयापादितावस्थाविशेषः पुद्गलप्रचयः सा बाह्या निर्वृत्तिः । येन निर्वृत्तेरूपकारः क्रियते तदुपकरणं । तदपि द्विविधं आभ्यन्तरबाह्यभेदेन । तत्राभ्यन्तरं कृष्णशुक्लमण्डलं । बाह्य
से सूचित किया है । संवृत्त-मर्यादा सहित स्थान अर्थात् जहाँ लोगों की दृष्टि नहीं पड़ सकती ऐसे स्थान को गूढ़ कहते हैं। विस्तीर्ण या विलादि से रहित स्थान विशाल कहा गया है और जहाँ पर लोगों का विरोध नहीं है वह अविरुद्ध स्थान है। ऐसे स्थान में शरीर के मल-मूत्रादि का त्याग करना प्रतिष्ठापना नाम की समिति है। तात्पर्य यह हुआ कि एकान्त, अचित्त, दूर, गूढ़, विशाल और विरोधरहित प्रदेशों में सावधानीपूर्वक जो मल आदि का त्याग करना है वह मल-मूत्र विसर्जन के रूप में प्रतिष्ठापन समिति होती है।
____ अब इन्द्रियनिरोध व्रत के स्वरूप का निरूपण करने के लिए उत्तरविभाग सूत्र कहते हैं
गाथार्थ-मुनि को चाहिए कि वह चक्षु, कर्ण, घ्राण, जिह्वा और स्पर्शन इन पाँच इन्द्रियों को अपने विषयों से हमेशा रोके ॥१६।।
प्राचारवृत्ति-चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा और स्पर्श ये इन्द्रियाँ हैं अर्थात् मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम की शक्ति का नाम इन्द्रिय है। इन्द्रिय के दो भेद हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । उनमें द्रव्येन्द्रिय के भी दो भेद हैं-निर्वृत्ति और उपकरण । कर्म के द्वारा जो बनायी जाती है वह निर्वृत्ति है। उसके भी दो भेद हैं- आभ्यंतर निर्वृत्ति और बाह्य निर्वृत्ति। उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण, शुद्ध आत्मा के प्रदेशों का प्रतिनियत चक्षु, कर्ण, घ्राण, रसना और स्पर्शन इन्द्रियों के आकार से अवस्थित होना आभ्यन्तर-निर्वृत्ति है और उन आत्मप्रदेशों में इन्द्रिय इस नाम को प्राप्त प्रतिनियत आकार रूप नामकर्म के उदय से होनेवाला अवस्था विशेष रूप जो पुद्गल वर्गणाओं का समूह है वह बाह्य निर्वृत्ति है। जिसके द्वारा निर्वृत्ति का उपकार किया जाता है वह उपकरण है। आभ्यन्तर और बाह्य की अपेक्षा उसके
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