________________
मूलगुजाधिकारः ]
[ १७
प्रत्येकमभिसम्बध्यतें, ईर्याया: समितिः ईर्यासमितिः सम्यगवलोकनं समाहितचित्तस्य प्रयत्नेन गमनागमनादिकम् । भाषायाः समितिः भाषासमितिः श्रुतधर्माविरोधेन पूर्वापरविवेक सहितमनिष्ठुरादिवचनम् । एषणाया: समितिरेषणासमितिः लोकजुगुप्सादिपरिहीनविशुद्ध पिण्ड ग्रहणम् । निक्षेपादानयोः समितिर्निक्षेपादानसमितिश्चक्षुः पिच्छकप्रतिलेखनपूर्वकसयत्नग्रहणनिक्षेपादिः । पदिठावणिया य-- प्रतिष्ठापनिका च, अत्रापि समितिशब्दः सम्बन्धनीयः, प्रतिष्ठापनासमितिर्जन्तुविवर्जितप्रदेशे सम्यगवलोक्य मला - द्युत्सर्गः । तहा - तथैव । उच्चारादीण उच्चारादीनां मूत्रपुरीषादीनां प्रतिष्ठापना सम्यक्परित्यागो यः सा प्रतिष्ठापना समितिः । पंचविहा एव – पंचप्रकारा एव समितयो भवन्तीत्यर्थः ।
1
सामान्येन पंचसमितीनां स्वरूपं निरूप्य विशेषार्थमुत्तरमाह
फासुयमग्गेण दिवा जुंगतरप्पेहिणा सज्जेण । जंतूणि परिहरतेणिरियासमिदी हवे नमणं ॥ ११ ॥
फासुगमग्गेण - प्रगता असवो जीवा यस्मिन्नसौ प्रासुकः प्रासुकश्चासौ मार्गश्च प्रासुकमार्गो निरवद्यः पंथास्तेन प्रासुकमार्गेण, गजखरोष्ट्र गोमहिषी जनसमुदायोपमदतेन वर्त्मना । दिवा - दिवसे सूरोद्गमे प्रवृत्तचक्षुःप्रचारे । जुगंतरप्पेहिणा-युगान्तरं चतुर्हस्तप्रमाणं प्रेक्षते पश्यतीति युगान्तरप्रेक्षी तेन युगान्तरप्रेक्षिणा सम्यगवहितचित्तेन पदनिक्षेप प्रदेशमवलोकमानेन । सकज्जेण-कार्यं प्रयोजनं शास्त्रश्रवणतीर्थयात्रागुरुप्रेक्षणादिकं सह कार्येण वर्तते इति सकार्यस्तेन सकार्येण सप्रयोजनेन धर्मकार्यं मन्तरेण न गन्तव्यमित्यर्थः । जंतूणि— जन्तून् जीवान् एकेन्द्रियप्रभृतीन् । परिहरतेण - परिहरता अविराधयता ।
समिति षण समिति है अर्थात् लोक-निन्दा आदि से रहित विशुद्ध आहार का ग्रहण करना । निक्षेप और आदान की समिति निक्षेपादान समिति है अर्थात् नेत्र से देखकर और पिच्छिका से परिमार्जित करके यत्नपूर्वक किसी वस्तु को उठाना और रखना । प्रतिष्ठापना की समिति प्रतिष्ठापन समिति है अर्थात् जन्तु से रहित प्रदेश में सम्यक् प्रकार से देखकर मल-मूत्र आदि का त्याग करना । इस तरह ये पाँच प्रकार की ही समितियाँ होती हैं ऐसा अभिप्राय है । सामान्य से पाँच समितियों का स्वरूप निरूपित करके अब उनके विशेष अर्थ के लिए उत्तरसूत्र कहते हैं
Jain Education International
गाथार्थ - प्रयोजन के निमित्त चार हाथ आगे जमीन देखनेवाले साधु के द्वारा दिवस में प्राकमार्ग से जीवों का परिहार करते हुए जो गमन है वह ईर्यासमिति है ॥ ११॥ आचारवृत्ति - 'प्रगता असवो यस्मिन्' – निकल गये हैं प्राणी जिसमें से उसे प्रासुक कहते हैं । ऐसा प्राक - निरवद्य मार्ग है । उस प्रासुक मार्ग से अर्थात् हाथी, गधा, ऊँट, गाय, भैंस और मनुष्यों के समुदाय के गमन से उपमदित हुआ जो मार्ग है उस मार्ग से । दिवस में सूर्य के उदित हो जाने पर, चक्षु से वस्तु स्पष्ट दिखने पर चार हाथ आगे जमीन को देखते हुए अर्थात् अच्छी तरह एकाग्रचित्तपूर्वक पैर रखने के स्थान का अवलोकन करते हुए, सकार्य अर्थात् शास्त्रश्रवण, तीर्थयात्रा, गुरुदर्शन आदि प्रयोजन से, एकेन्द्रिय आदि जन्तुओं की विराधना न करते हुए, जो गमन करना होता है, वह ईर्यासमिति है । इससे यह भी समझना कि धर्मकार्य के बिना साधु को नहीं चलना चाहिए ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org