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[मूलाचारे पंच य—पंचसंख्यावचनमेतत् । चशब्द एवकारार्थः पंचैव न षट् । महव्वयाई–महान्ति च तानि व्रतानि महाव्रतानि,-महान् शब्दो महत्त्वे प्राधान्ये वर्तते, व्रतशब्दोऽपि सावद्यनिवृत्ती मोक्षावाप्तिनिमिताचरणे वर्तते, महंद्भिरनुष्ठितत्वात् । स्वत एव वा मोक्षप्रापकत्वेन महान्ति व्रतानि महाव्रतानि प्राणासंयमनिवृत्तिकारणानि। समिदीओ-समितयः सम्यगयनानि समितयः सम्यक्श्रुतनिरूपितक्रमेण गमनादिषु प्रवृत्तयः समितयः व्रतवृत्तय इत्यर्थः । जिणवरुद्दिट्ठा-कर्मारातीन् जयन्तीति जिनास्तेषां वराः श्रेष्ठास्तरुपदिष्टाः प्रतिपादिता जिनवरोपदिष्टाः । एतेन स्वमनीषिकाचचिता इमाः सर्वमूलगुणाभिधा न भवन्ति । आप्तवचनानुसारितया प्रामाण्यमासां समितीनां व्याख्यातं भवति । कियन्त्यस्ता: पंचैव नाधिकाः। पंचेविदियरोहा-इन्द्र आत्मा तस्य लिङ्गमिन्द्रियं, अथवा इन्द्रो नामकर्म तेन सृष्टमिन्द्रियं, तद् द्विविधं द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं च, चक्षुरिन्द्रियाद्यावरणक्षयोपशमजनित शक्तिर्भावन्द्रियं तदुपकरणं द्रव्येन्द्रियं यतो 'लब्ध्यपयोगी भावेन्द्रियं, निर्वृत्युपकरणे द्रव्योंद्रियं' चेति, रोधा अप्रवृत्तयः इन्द्रियाणां श्रोत्रादीनां रोधा इन्द्रियरोधाः सम्यध्यानप्रवेशप्रवृत्तयः कियन्तस्ते पंचैव । छप्पिय-षडपि च षडव न सप्त नापिपंच । आवासया
। उनमें
___ आचारवृत्ति--गाथा में आया हुआ 'पंच' शब्द संख्यावाची है। 'च' शब्द एवकार के लिए है अर्थात् ये महाव्रत पाँच ही होते हैं, छह नहीं। जो महान् व्रत हैं उनको महाव्रत कहते हैं। यहाँ पर महान शब्द महत्त्व अर्थ में और प्राधान्य अर्थ में लिया गया है। व्रत शब्द भी सावध से निवृत्तिरूप अर्थ में और मोक्ष की प्राप्ति के लिए निमित्तभूत आचरण अर्थ में है, क्योंकि ऐसे आचरण का महान् पुरुषों के द्वारा अनुष्ठान किया जाता है । अथवा स्वतः हो मोक्ष को प्राप्त करानेवाल होने से ये महान् व्रत महाव्रत कहलाते हैं। ये महावत प्राणियों की हिंसा की निवृत्ति में कारणभूत हैं।
___ सम्यक् अयन अर्थात् प्रवृत्ति को समिति कहते हैं । सम्यक् अर्थात् शास्त्र में निरूपित क्रम से गमन आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति करना समिति है। ये समितियाँ व्रत की रक्षा के लिए बाड़स्वरूप हैं। इनका जिनेन्द्रदेव ने उपदेश दिया है। कर्मशत्र को जो जीतते हैं वे 'जिन' कहला वर अर्थात जो श्रेष्ठ हैं वे जिनवर हैं। उनके द्वारा ये उपदिष्ट हैं, इस कथन से ये सभी मूलगुण अपनी बुद्धि से चर्चित नहीं हैं किन्तु ये आप्त वचनों का अनुसरण करनेवाले होने से प्रामाणिक हैं, ऐसा समझना चाहिए।
ये समितियाँ कितनी हैं ? ये पाँच ही हैं, अधिक नहीं हैं। पाँच ही इन्द्रियनिरोध व्रत हैं । इन्द्र अर्थात् आत्मा के लिंग को इन्द्रिय कहते हैं, अथवा इन्द्र अर्थात् नामकर्म, उसके द्वारा जो निर्मित हैं वे इन्द्रियाँ कहलाती हैं। इनके द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय की अपेक्षा दो भेद हैं। चक्षुइन्द्रिय आदि इन्द्रियावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई शक्ति भावेन्द्रिय और उसके उपकरण को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं । क्योंकि 'लब्धि और उपयोग ये भावेन्द्रिय हैं तथा निर्वृत्ति और उपकरण ये द्रव्येन्द्रिय हैं ऐसा सूत्रकारों का कथन है। इन इन्द्रियों की अर्थात् कर्ण आदि इन्द्रियों की विषयों में प्रवृत्ति नहीं करना रोध कहलाता है। सम्यक् ध्यान के प्रवेश में प्रवृत्ति करना अर्थात् धर्म-शुक्ल ध्यान में इन्द्रियों को प्रविष्ट करना यह इन्द्रियनिरोध है। ये कितने हैं ? ये भी पाँच ही हैं।
अवश्य करने योग्य कार्य को आवश्यक कहते हैं। इन्हें निश्चय-क्रिया भी कहते हैं।
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