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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
जिन शासन का यह महा होगा साधु सुशील ।
जिसके पावन योग की जले अमर कंदील | 17 ||
उजमबाई मातु हुई भावी से भयभीत ।
पिता ज्ञान श्रीचंद भी मोह सके ना जीत ।। 8 ।। प्राणों से प्रिय पुत्र को दे ममता भरपूर
साधु संगति से रहे रखते दोनों दूर ||9|| पर विधि ने जो लिख दिया, वह तो महा यथार्थ ।
कुरुक्षेत्र से पूर्व तक समझ न पाया पार्थ ।।10।।
होनहार होकर रहे, यह विधना की रीत ।
पूनमचंद ने जोडली साधु धर्म से प्रीत ।।11।।
मन बरबस होने लगा दीक्षा को तैयार ।
परिजन को करना पड़ा इसको अंगीकार ।।12।।
ज्योंही पूनमचंद का हुआ मार्ग प्रशस्त ।
दीवारें अज्ञान की त्योंही हो गई ध्वस्त ||13||
भीनमाल के परमतपी विजय जैन श्री हर्ष ।
उनको दीक्षित कर किया यश का ही उत्कर्ष ।।14।।
हुए तभी से आप हेमेन्द्र विजय मुनिराज ।
पाकर गौरव में खिला पूरा जैन समाज ।।15।। वंदन अभिनंदन करें कोटि कोटि यशगान ।
धर्माराधन, त्याग, तप, ज्ञान-यज्ञ उपधान ||16||
कोटि कोटि वंदन करें लेकर श्रद्धाभाव ।
तेरे आशीर्वाद का होने न पाये अभाव ।।17।। सन्त शिरोमणि विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी
धन्य विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी, धन्य आपका जीवन । वासन्ती वय में काया करदी, जैन धर्म को अर्पण || उन्नत भाल हिमालयसा, आंखों में ममता दिखती है । श्वेत केश राशि मुखपे, मानों रजतकणों सी लगती है ।। वाणी से मानो बरसे सुधा, भीगे भक्तों के तन और मन ।
धन्य विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी, धन्य आपका जीवन ।।1।।
भव्य ललाट, तेजस्वी मुख, भक्तों को सुख पहुंचाता है । एक बार जो दर्शन पावे, वो पुनः दर्शन को आता है ।। हे राष्ट्रसंत, हे सन्त शिरोमणि, अनुकरणीय आपका जीवन ।
-विट्ठलदास, 'निर्मोही, उज्जैन
धन्य विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी, धन्य आपका जीवन ।।2।।
हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 73
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