Book Title: Hemendra Jyoti
Author(s): Lekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
Publisher: Adinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi

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Page 585
________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था जायेगी। यही सोचकर यादव कुमारों ने ऋषि पर लकड़ियों, पत्थरों आदि से प्रहार करना शुरू कर दिया। द्वैपायन ऋषि गिर पड़े। यादवकुमार उन्हें मृत जानकर वहां से द्वारिका आगए । जब श्रीकृष्ण को इस घटना की जानकारी मिली तो उन्हें अत्यधिक पश्चाताप हुआ। वे क्षमायाचना के लिये द्वैपायन ऋषि के पास भी गये। द्वारिकावासियों से धर्माराधना के लिये आग्रह भी किया। श्रीकृष्ण भगवान अरिष्टनेमि की सेवा में भी गये और उन्होंने वहां द्वारिका विनाश की अवधि भी पूछी। भगवान अरिष्टनेमी ने फरमाया कि द्वारिका का दहन द्वैपायन ऋषि बारहवें वर्ष में करेंगा । द्वैपायन ऋषि मरकर अग्निकुमार देव के रूप में उत्पन्न हुआ। वह अपने वैर के कारण द्वारिका में आया। इस समय द्वारिकावासी आयंबिल, उपवास, बेले, तेले आदि तपाराधनाएं कर रहे थे। इस कारण वह देव कुछ नहीं कर पाया। बारहवाँ वर्ष आया । द्वारिकावासियों ने सोचा कि उनकी तप तथा धर्माराधना के कारण द्वैपायन चला गया है। सब जीवित रह गये। ऐसा सोचकर वे स्वेच्छा पूर्वक आनन्दमय जीवन व्यतीत करने लगे। इतना ही नहीं वे मद्यपान और मांसाहार भी करने लगे। द्वारिका का विनाश :- जब द्वैपायन के देव ने द्वारिकावासियों की स्थिति देखी तो उचित अवसर जानकर उसने अंगारों की वृष्टि की । इससे श्रीकृष्ण के सभी अस्त्र-शस्त्र जलकर नष्ट हो गये । उसके संवर्त वायु के प्रयोग से जंगल का घास और काष्ठ द्वारिका में एकत्र हो गया । तत्पश्चात प्रलयकारी अग्नि प्रज्वलित हुई । लोग भागने लगे तो द्वैपायन उन्हें पकड़कर अग्नि में डाल देता । श्रीकृष्ण और बलदेव ने वसुदेव, देवकी और राहिणी को द्वारिका से बाहर निकालने के लिये रथ में बैठाया तो द्वैपायन ने अश्वों को स्तम्भित कर दिया । श्रीकृष्ण स्वयं रथ खींचने लगे तो रथ टूट गया । माता-पिता की करुण पुकार सुन श्रीकृष्ण बलराम उनके रथ को द्वारिका के दरवाजे तक ले आये किंतु उसी समय द्वार बन्द हो गये। उनके प्रयास विफल रहे । वे निरर्थक श्रमकर रहे थे तभी द्वैपायन उनके समीप आकर बोला कि क्यों व्यर्थ परिश्रम कर रहे हो । मैंने पहले ही वह दिया था कि तुम दोनों के अतिरिक्त कोई भी जीवित नहीं बचेगा । वसुदेव, देवकी और रोहिणी ने श्रीकृष्ण और बलराम से अन्यत्र चले जाने का आग्रह किया और उन्होंने संथारा ग्रहण कर लिया । विवश होकर श्रीकृष्ण और बलराम द्वारिका से चल दिये । द्वारिका जलकर विनष्ट हो गई। इस प्रकार द्वारिका का विनाश हो गया। निष्कर्ष : इस संक्षिप्त विवरण के पश्चात् द्वारिका के सम्बन्ध में हम निम्नांकित निष्कर्ष निकाल सकते हैं1. द्वारिका के दो बार विनाश होने का विवरण मिलता है । 2. द्वारिका एवं समीपवर्ती क्षेत्र भगवान अरिष्टनेमी एवं श्रीकृष्ण का कर्म क्षेत्र रहा । 3. वर्तमान द्वारिका और बेट द्वारिका में और उसके समीपवर्ता क्षेत्रों में श्रीकृष्ण से सम्बन्धित अनेक स्थान बताये जाते हैं । जिससे द्वारिका उसी क्षेत्र में होनी चाहिये । 5. इस विषयक और अनुसंधान अपेक्षित है । जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य के संदर्भ में इस पर अनुसंधान की आवश्यकता है । प्राचीन द्वारिका के अवशेषों की खोज समुद्र में हो रही थी । इस खोज को निरन्तर रखा जाना चाहिये ताकि वास्तविक तथ्य स्पष्ट हो सकें। आशा ही नहीं विश्वास है कि उस दिशा में कोई ठोस प्रयास होगा । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 93 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति

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