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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
चुकी । 14 वी अट्ठाई का तीसरा दिन आया – धीरे धीरे बुखार चढ़ने लगा । गुरुदेव ने डॉ. को बुलाने का कहा। लेकिन उन्होंने नम्र निवेदन किया कि - इतने से बुखार में डॉ. की जरूरत क्या है? एक-दो दिन और देखें ।
दुपहर का समय अंदर अतिवेदना होने लगी तो भी मुख पर सौम्यता को धारण करते हुए गुरुदेव से विनंति की मुझे महाव्रत (पक्खी सूत्र) आपके श्रीमुख से सुनाये । तीसरे महाव्रत का आलावा सुनते सुनते मस्तक गुरु चरणों में ढल गया । अपर्दू समाधि सह प्राण पखेरु निकल गये । धन्य है इनकी समाधि / धन्य तपस्या । धन्य साधना ।
जिन शासन में समाधि की कीमत खूब अधिक है । इसलिए प्रतिदिन लोगस्स एवं जयवीयराय सूत्र में भगवान के पास बारम्बार उत्तम समाधि की मांगणी की जाती है । साधक आत्मा समझती है कि जीवन में मरण समय जो एक बार समाधि की साधना हो गई तो साध्य मोक्ष बिल्कुल नजदीक ही समझ लो । लेकिन यह समाधि लाने के लिए जीवन भर अद्भुत साधना एवं धन परिजन एवं संसार की अवस्थाओं एवं शरीर के मोह से दूर रहना जरूरी है । आत्म तत्व को समझे बिना उसकी कीमत आंके बिना शरीर से निस्पृह और मौत समय घर परिवार के छूटने का भयत्यागना अति मुश्किल है । जीवन में बनने वाली छोटी-छोटी घटनाएं एवं छोटे-बडे शारीरिक रोग या कष्टों में अगर पूर्व कर्म आदि के चिंतन से यदि मन को स्वस्थ रखने का प्रयत्न किया जाय तो जीवन भी समतामय बन सुखी बन सकता है एवं अंत में भी प्रभु चरणों में मन जुड़ सकता है । चलो अपने भी परमात्मा के शासन को प्राप्त करने की सफलता जीवन को समता एवं समाधि से शणगारित करके करें ।
जिस धर्म या समाज का साहित्य अत्युज्जवल और सत्य वस्तुस्थिति का बोधक है संसार में वह धर्म या समाज सदा जीवित रहता है, उसका नाश कभी नहीं होता। आज भारत में जैनधर्म विद्यमान है, इसका मूल कारण उसका उज्जवल साहित्य ही है। जैन-साहित्य अहिंसादि और सत्य वस्तुस्थिति का बोधक है। इसी कारण से आज भारतीय एवं भारतेतरदेशीय बड़े-बड़े विद्वान् इसकी मुक्तकंठ से सराहना कर रहे हैं। अतः जैन साहित्य का मुख उज्ज्वल और समादणीय बन रहा है। सर्वादरणीय और सत्य साहित्य में संदिग्ध रहना अपनी संस्कृति का घात करने के बराबर है।
जिस देव में भय, मात्सर्य, मारणबुद्धि, कषाय और विषयवासना के चिन्ह विद्यमान हैं, उसकी उपासना से उसके उपासक में वैसी बुद्धि उत्पन्न होना स्वभाविक है। जैनधर्म में सर्व दोषों से रहित, विषयवासना से विमुक्त और भवभ्रमण के हेतुभूत कर्मो से रहित एक वीतराग देव ही उपास्य देव माना गया है। जिस की उपासना से मानव ऐसा स्थान प्राप्त कर सकता है जहाँ भवभ्रमणरूप जन्म-मरण का दुःख नहीं होता। इस प्रकार के वीतराग देव की आराधना जब तक आत्मविश्वास से न की जाय, तब तक न भवभ्रमण का दुःख मिटता है और न जन्म-मरण का दुःख।
श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.
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