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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
यही कारण है कि सामायिक पाठ में परमात्मा के चरणों को अपने हृदय में प्रतिष्ठित करके प्रतिक्रमण आलोचना, निन्दना गर्हणा एवं अतिक्रमादि दोषों को जानकर प्रायश्चित के द्वारा आत्मशुद्धि का विधान है। यह व्यवस्था इसलिए की गई है कि ऐसा करने से समता योग की प्रगति अवरूद्ध न हो, वह निरन्तर विकास की ओर अग्रसर होता रहे आत्मशुद्धि समता योग के तृतीय सोपान उपासना का मार्ग प्रशस्त करती है।
3. उपासना
भावना प्रबल हो गई और आत्मशुद्धि हो गई तो फिर परमात्मा की उपासना का मार्ग प्रशस्त है। उपासना के अन्तर्गत ऐसे महान पुरुषों की उपासना करना चाहिए, जो वीतराग हो, समता के सर्वोच्च शिखर पर विराजमान हो, वीतराग समता शिरोमणि मुक्त परमात्मा को अपने अन्तःकरण में विराजमान करके उनके समता परिपोषक गुणों का गहराई से चिंतन करके उनकी उपासना करने से ही समता की परिणति प्रतिपल टिकी रह सकती है, आत्मभावों में स्थिरता अथवा मुक्त परमात्मा के गुणों में लीनता भी तभी रह सकती है और समता का दीपक हृदय मन्दिर में तभी प्रज्वलित रह सकता है ।
आत्मिक प्रगति के लिए उपासना आवश्यक एवं अनिवार्य माध्यम है। जीवन शोधन की प्रक्रिया के साथ चलता हुआ उपासनाक्रम आशातीत परिणाम लाता है । इसलिये तत्वंज्ञ आत्मवेताओं ने उपासना को समता योग का अनिवार्य अंग माना है । उपासना में समत्व शिखरारूढ़ परमात्मा के साथ भावात्मक दृष्टि से समीपता, तादात्म्य एवं अनन्य श्रद्धा होनी आवश्यक है। इसके लिए आचार्यों ने तीन बातों का निर्देश किया है। - 1. जप 2. अर्चा एवं 3.
ध्यान ।
उपासना में श्रद्धा और विश्वास का होना अत्यन्त आवश्यक है। यदि श्रद्धा और विश्वास के अभाव में उपासना की जाती है तो वह फलहीन ही होगी ।
सामायिक पाठ में आत्मशुद्धि के पश्चात् समता योग में प्रगति और प्रोत्साहन के लिए वीतराग परमात्मा की उपासना का क्रम बताया गया है। जब तक राग-द्वेष और मोह का लेशमात्र भी अवशेष है तब तक समता योग की साधना अधूरी है । अतः इन सब बातों का ध्यान रखकर निर्मल मन से उपासना करना चाहिए ।
4. साधना.
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सामान्यतः लोगों के मन में यह एक भ्रान्ति है कि परमात्मा की उपासना करने से सब पाप कट जायेंगे। विषमताएं दूर हो जायेगी और परमात्मा प्रसन्न हो जायेंगे किंतु समत्व की साधना किये बिना आत्मा का पूर्ण विकास नहीं होगा । इसलिए उपासना के साथ-साथ साधना का होना भी अनिवार्य है । ये दोनों आध्यात्मिक प्रगति के दो पहलु हैं और एक दूसरे के पूरक हैं। उपासना का जितना महत्व है उतना ही साधना का भी है। उपासना के साथ-साथ साधना पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। उपासना तो कुछ घण्टे के कुछ निश्चित क्रिया कलापों के पश्चात् समाप्त हो जाती है किन्तु साधना तो निरन्तर चलती ही रहती है । पल प्रतिपल साधना चलती रहती
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है अपने प्रत्येक कार्य पर दृष्टि रखनी होती है जहां भूल हो उसका परिष्कार करना चाहिए। समत्व साधना का अर्थ है अपनी आत्मा को साधना अपने स्वभाव में स्व-स्वरूप में रमण करने की साधना करना । समत्व साधना वह शक्ति उत्पन्न करती है, जिससे आत्मबल विकसित हो सके और आत्मनिर्माण के पथ पर चलने की पांवों में क्षमता रह सके। समत्व साधना साहस उत्पन्न करती है। जिसके कारण साधक अनेक विपत्तियों से बचा रह सकता है।
इन चार सोपानों से समत्व की साधना होती है और कष्टों और विषमताओं से छुटकारा पाया जा सकता है। क्योंकि जब प्रत्येक परिस्थिति में समभाव में स्थिर हैं तो फिर क्या दुःख? क्या सुख? न तनाव, न किसी प्रकार का झगड़ा । अस्तु प्रत्येक साधक को चाहिए कि वह समत्व की आराधना कर विषमताओं को दूर करने का प्रयास करें।
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