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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था
साधकों में प्रतिष्ठा पाने, नेतृत्व पाने, पूजनीय, वन्दनीय बनने की होड़ लगी है । इसके लिए बाह्याडम्बर, प्रदर्शन, भौतिक, चमत्कारों का आश्रय लिया जा रहा है । ऐसी विषम परिस्थिति में शान्ति के स्थान पर अशान्ति, चिन्ता, व्याकुलता दौड़धूप, तनाव, आदि बने रहते हैं। इन सबके होते हुए साधना में उनका मन कैसे लग सकता है? गृहस्थ साधक अपनी साधना का मूल्य वसूल करने में लग जाते हैं । भोले-भाले लोगों को ठगने लगते हैं । इन्हें भी प्रसिद्धि और रुपया चाहिए ।
इतनी वैषम्य परिस्थिति में यदि कोई सुखशान्ति चाहे तो कैसे मिल सकती है । लोग नाना प्रकार के उपाय करते हैं, देवी-देवताओं की मनौती मानते हैं किन्तु फिर भी उन्हें कहीं सुख शांति प्राप्त करने में सफलता नहीं मिलती है । उन्हें ऐसा कोई उपाय नहीं मिलता जिससे उन्हें सुख-शान्ति और आनन्द की प्राप्ति हो सके ।
विषमताओं को मिटाकर सुख-शान्ति और आनन्द प्राप्ति की महान औषधि बताई है आचार्य श्री अमितगति ने । वे इस औषधि को रामबाण औषधि बताते हैं । यह औषधि है - सामायिक | सामायिक या समता योग के लिये चार सोपान बताये गये हैं । यथा -1. भावना 2. आत्मशुद्धि 3. उपासना और 4. साधना । इन चार सोपानों से सामायिक-समतायोग की आराधना करने से सभी प्रकार की विषमता, चिंता, बेचैनी, कष्ट, तनाव, दुःख आदि सदा के लिये समाप्त हो जाते हैं । इन चारों का संक्षिप्त विवेचन यहां प्रस्तुत किया जा रहा हैं । 1. भावना -
भावना का जीवन में बहुत अधिक महत्व होता है । जिसकी जैसी भावना होती है, उसके वैसे ही विचार होते हैं और विचार के अनुसार आचार होता है । इसलिए समता को परिपुष्ट करने वाली भावनाओं की आवश्यकता होती है । सामायिक का भावनात्मक लक्षण करते हुए एक आचार्य ने कहा है -
समता सर्वभूतेषु संयमः शुभभावनाः ।
आर्त रौद्रपरित्यागस्तद्वि सामायिकं व्रतम् ।। अर्थात् - समस्त प्राणियों के प्रति समभाव, शुभ भावनाएं, आर्त्त-रौद्रध्यान का परित्याग, यही तो सामायिक व्रत का स्वरूप है ।
कहने का तात्पर्य यह है कि प्राणिमात्र के प्रति समभाव रखना, प्रत्येक परिस्थिति में समभाव रखना, व्यक्तिगत जीवन हो चाहे सामाजिक जीवन सब में समभाव रखना, हाँ आर्त रौद्रध्यान के अवसरों को छोड़कर समभाव रूप धर्मध्यान में विचरण करना सही समतायोग का परिस्फुट रूप है । एक आचार्य ने तो यह भी बताया है कि समभाव से भावित आत्मा निःसन्देह मोक्ष को प्राप्त करता है -
समभाव भावियप्पा लहइ मुक्खं न सन्देहो । प्रबल भावना वाला व्यक्ति यदि कुसंगति में पड़ भी जाता है तो वह डिगेगा नहीं । इसके विपरीत यदि दुर्बल भावना वाला व्यक्ति ऐसी संगति में पड़ जाता है तो उसका पतन हो जायेगा । वह कुमार्गगामी हो जायेगा । इसलिये यदि मनुष्य की भावना प्रबल है । उसमें आशा, विश्वास और उत्साह है तो वह बड़े से बड़े संकट को भी पार कर लेगा ।
___ मनुष्य की भावना ही मृत्यु है और भावना ही अमृत है । भावना की तेजस्विता मनुष्य में साहस, तेज, ओज, मनोबल तथा आयुष्य आदि की वृद्धि करती है जबकि भावना की दुर्बलता या निर्जीवता जीवित रहते हुए भी मनुष्य को निर्जीव, दीन-हीन-क्षीण बना देती है । इससे भावना का तात्पर्य स्पष्ट हो जाता है । 2. आत्मशुद्धि -
भावना के बाद आत्मशुद्धि का क्रम आता है | समता योग का प्रबल/दृढ़ बनाने के लिए आत्मशुद्धि की भी आवश्यकता है । काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों के आ जाने से विषमता बढ़ जाती है जब विषमता बढ़ती है तो निश्चय ही समता नष्ट होती है । समता नष्ट न हो/समता भाव बना रहे, इसलिए विकारों से बचना चाहिए। दोषों की मात्रा के अनुरूप प्रायश्चित करना चाहिए । इनके निवारण के लिये आत्मालोचन करना चाहिए । ऐसा करने से आत्मशुद्धि होती है। यदि आत्मशुद्धि नहीं होती है तो समतायोग का विकास और संवर्धन अवरूद्ध हो जायेगा।
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 1233हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति