Book Title: Hemendra Jyoti
Author(s): Lekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
Publisher: Adinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi

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Page 631
________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ We should not cut the trees but we should grow them and protect them. We should not kill animals for food, or for making pleasure or for fashions. We should keep the air free from spreading to the sky and getting mixed up with pure air. We should spread the principle of Jainism to strengthen the feelings of mutual love, affection, brother-hood and peaceful co-existence. We should develop mercy, pity, affection, respect, friendship, love etc. If we wish to save ourselves from the mass suicide. We should sincerely concentrate and protecting the environment. जिस व्यक्ति में न किसी प्रकार की विद्या है और न तपगुण, न दान है और न आचारविचारशीलता, न औदार्यादि प्रशस्त गुण हैं और न धर्मनिश्ठा। ऐसा निर्गुण व्यक्ति उस पशु के समान है जिसके भींग और पूंछ नही हैं; बल्कि उससे भी गयागुजरा है। जिस प्रकार सुंदर उपवन को हाथी और पर्वत को वज चौपट कर देता है, उसी प्रकार गुणविहीन नरपशु की संगति से गुणवान व्यक्ति भी चौपट हो जाता है। अतः गुणविहीन नरपशु की संगति भूल करके भी नहीं करना चाहिये। हाथों की शोभा सुकत-दान करने से, मस्तिष्क की शोभा हर्षोल्लासपूर्वक वंदन-नमस्कार करने से, मुख की शोभा हित, मित और प्रिय वचन बोलने से, कानों की भाोभा आप्तपुरुशों की वचनमय वाणी श्रवण करने से, हृदय की शोभा सद्भावना रखने से, नेत्रों की शोभा अपने इश्टदेवों के दर्शन करने से, भुजाओं की भाोभा धर्मनिन्दकों को परास्त करने से और पैरों की शोभा बराबर भूमिमार्ग को देखते हुए मार्ग में गमन करने से होती है। इन वातों को भलीविध समझ कर जो इनको कार्यरूप में परिणित कर लेता है वह ही अपने जीवन का विकास कर लेता है और अपने मार्ग को निश्कंटक बना लेता है। साध, साध्वी, श्रावक, श्राविका, संघ के ये चार अंग हैं। इनको शिक्षा देना, दिलाना, वस्त्रादि से सम्मान करना, समाजवृद्धि के लिये धर्मप्रचार करना-कराना, हार्दिक भाभ भावना से इनकी सेवा में कटिबद्ध रहना और इनकी सेवा के लिये धनव्यय करना। इन्हीं भुभ कार्यो से मनुष्य वह पुण्यानुबंधी पुण्य उपार्जन करता है जो उसको उत्तरोत्तर ऊंचा चढ़ाकर अन्तिम ध्येय पर पहुंचा देता है और उसके भवभ्रमण के दुःखों का अन्त कर देता है। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति 139 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति HAPrivateRomen and m

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