Book Title: Hemendra Jyoti
Author(s): Lekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
Publisher: Adinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HOME राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनन्दन ग्रंथ श्री हेमेन्द्र ज्योति स्वप्नदृष्टाः स्व. मुनिराज श्री प्रीतेशचंद्रविजयजी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SURI HEMEN Jam education International Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DRA છે શિ રો રામ ની - Si Jain ducation International Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि कहावे.. प्यारे गुरुराज हमारे... अधिवेशन मुंबई (१९९५) भारतजना ४८वाधिवेशन मुंबई महानगर में पूज्यश्री की निश्रा में भारत जैन महामंडल का ४८ वाँ अधिवेशन एवं राष्ट्रसंत शिरोमणि पद प्रदान समारोह झलकियाँ... यू. गच्छाधिपति आचार्य श्री हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. एवं पू. गच्छाधिपति आचार्य श्री इन्द्रदिन्नसूरीश्वरजी म.सा. का मिलन एवं अन्य गुरु भगवंत... उपप्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी राष्ट्रसंतशिरोमणि पद की घोषणा करते हुए MENT८पापपर परिवंद एस.वर्धन श्रीला जावानी। राचंद जैन (PSI) श्री ठाकरे प्रोफतराजजी मुणोत श्री भरता आर.भंग २१ जनवरी, ९६ रविवार कम KOSREKODKEDAGOOKS KOKCLOADXOPEDIA +श्री महावीर स्वामिने नमः, विश्वपूज्य श्री राजेन्द्र सूयिस्भ्यो नमः भारतजैन महामण्डल के४८वें अधिवेशन केशुभावसरपर प.पू.तपस्वीरत्न गच्छाधिपति करुणामूर्ति आचार्य भावन्त श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी के करकमलों में अर्पित राष्ट्रसंत शिरोमणि पदप्रदान के उपलक्ष में अभिनंदन पत्र OSE पूज्य गच्छाधिपति। प.पू. कपिल शरतति आचार्य श्री विजय विचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के पातक या यूज्य तपस्टीरत्न चरिन सलाद महावा यशस्वी सरल स्वभावी आधिपति आचार्यकारश्रीमद विजय हेमेन्द्रमीश्वरजी महाराज साहेब सात् देवपुरूष है। आपके शासनकालने चारो और धर्म समाज और संस्कतिकीपमा नत्ति हो रही है,यह आपके तापत जीवन का ज्वलना जिउदाहरण akiआपली जमधिपति केया पर आरडीकर जोमाजदर्शनमा आशीर्वाद प्रदान करसे है, अहिलेवनीय है। राष्ट्रसंत शिरोमणि हे या अपनी कुरणार्दि की विस्तृत सबाट किचन बनकर त्या और तितिक्षाकी निगी से संयना जीवन को काजोजवारा उमज और परीकेतकात राजमार्ग बनाकर दिनमा अपरिणामसनेकोतवाद का पाठ करना कम्यणकाहे आपकी प्रासंचालित किसस्थान धातिवराष्ट्रीय उत्थान के समय कार्य होतेखते है हमसेवा कीय कामगार संहिता पालाको हत्या के मामीभारत महसत-बाईक समाजवादीegrasी राष्ट्रगत सिरोहनिखसेकोगदोपको आपदीर्धदक्तकरयामकता के आधार को अपने मोबहमुद करके ऑक्षता शनायकरके अगदि प्रदानकायही दलकामा करते Thodeजतिशासन जबात सच की जयहो। आमलनकतापरमपरीया-हालकवी महारामप्रदेश के oXCOMCHOOMEDY श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन पत्र... ग्रन्थनायकको राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन पत्र अर्पित करते हुए श्री एल. के. आडवाणी... विशाल जन समूह का अभिवादन करते हुए..... Jar Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनन्दन ग्रन्थ हेमोन्द्र ज्योति परम पूज्य राष्ट्रसंतशिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर प्रकाशित प्रधान सम्पादक कोंकण केसरी मुनि श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी म.सा. मुनि श्री ऋषभचन्द्रविजयजी म.सा. 'विद्यार्थी' संयोजक मुनि श्री प्रितेशचन्द्रविजयजी म.सा. मुनि श्री चन्द्रयशविजयजी म.सा. सम्पादक डॉ. तेजसिंह गौड़, उज्जैन (म.प्र.) प्रकाशक श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर पेढ़ी (ट्रस्ट) श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, राजगढ़, जिलाधार (म.प्र.) ration International . Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम पूज्य राष्ट्रसंतशिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर प्रकाशित । * मार्गदर्शक संयमवयस्थविर मुनिराज श्री सौभाग्यविजयजी म.सा. पंन्यासप्रवर श्री रवीन्द्रविजयजी म.सा. मुनिराज श्री नरेन्द्रविजयजी म.सा. 'नवल' मुनिराज श्री जयशेखरविजयजी म.सा. प्रवर्तिनी सुसाध्वी श्री मुक्तिश्रीजी म.सा. * अवतरण श्री राजेन्द्रसूरि स्वर्गारोहण शताब्दी महोत्सव वि.सं.२०६३, पौष सुदि४, रविवार, दि.२४ दिसम्बर २००६ श्री मोहनखेड़ा तीर्थ (म.प्र.) * मूल्य : रु. 1000/ * सम्पादक मण्डल मुनि श्री जिनेन्द्रविजयजी म.सा. मुनि श्री हितेशचन्द्रविजयजी म.सा. मुनि श्री पीयूषचन्द्रविजयजी म.सा. मुनि श्री लाभेशचन्द्रविजयजी म.सा. श्री बी.टी. बजावत, चैन्नई श्री शांतिलाल मूथा, आहोर श्री फतेहलाल कोठारी, रतलाम श्री तेजराज बी. नागौरी, बेंग्लौर श्री मेघराज जैन, इन्दौर श्री के.एल. सकलेचा, जावरा * प्रकाशक श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर पेढ़ी (ट्रस्ट) श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, राजगढ़ जिलाधार (म.प्र.) फोन : 07296-232225 * प्राप्ति स्थान i) श्री भूपेन्द्रसूरि साहित्य समिति c/o. मंत्री, श्री शांतिलाल मूथा देरासरी, मु.पो. आहोर, (राजस्थान) * सम्प्रेरक साध्वी श्री जयंतश्रीजी म.सा. शासनज्योति साध्वी श्री महेन्द्रश्रीजी म.सा. सेवाभावी साध्वी श्री संघवणश्रीजी म.सा. साध्वी श्री अनंतगुणाश्रीजी म.सा. ii) श्री पार्श्वनाथ राजेन्द्रधाम मेवानगर, नाकोड़ा, (राजस्थान) फोन : 02988-240612 * प्रवन्ध सम्पादक संघवी श्री सुमेरमल लुक्कड़, भीनमाल श्री हुकमीचन्द्र एल. बागरेचा, राणीबेन्नूर श्री चम्पालाल के. वर्धन, मुम्बई श्री चम्पालाल कंकूचौपड़ा, आहोर श्री कमलचंद शेठ, आहोर श्री सुजानमल शेठ, राजगढ़ * मुद्रक नेहज एन्टरप्राईझ १७६/२, जवाहरनगर रोड नं.२, गोरेगाम (वेस्ट), मुम्बई-400 062. फोन : 022-28736545 फेक्स : 022-28736535 E-mail : honey@nehaj.com Website : www.nehaj.com Jan Education International Fo Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन्होंने हमारे अज्ञानांधकार को दूर कर उन् ज्ञान का प्रकाश प्रदान कर हमारे जीवन निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया शांत हृदयी, सरल स्वभावी दया एवं करुणा की. साक्षात मूर्ति सवत साधनारत परम श्रद्धेय गुरुदेव राष्ट्रसंतशिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के परम पावन. श्री चरणों में सविनय स.भक्ति. सादर समर्पित... मुनि प्रीतेशचन्द्रविजय मुनि चन्द्रयशविजय मर्पण... परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MOTIONavavayavayavatavavesaHINDS 114 24 23 119 628 29 3 36 35 461 34 44 8458 47 42 48 152 50 539 AO 53 RA 573 65 66 55 64 56 63 58 62 611 59 60 469 468 आ. राजेन्द्रसूरि 700 आ. भूपेन्द्रसूरि आ. धनचंद्रसूरि आ. हेमेन्द्रसूरि 710 आ. यतीन्द्रसूरि 72 आ. विद्याचंद्रसूरि UIC RURI श्री सौधर्मबृहततपागच्छीय गुर्वावली Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... श्री शंखेश्वर तीर्थाधिपति श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः श्री मोहनखेडा तीर्थाधिपति श्री आदिनाथाय नमः AAJ सौजन्य : श्री राजेन्द्रसूरि जैन दादावाडी ट्रस्ट - पेदेमीरम् (आ.प्र.) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CCCLXRLET सौजन्य : श्री. राजेन्द्रसूरीश्वरजी जैन ट्रस्ट - चैन्नई Jain Education internationa & Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ परंपरा में षष्ठम घाट पर बिराजमान पूज्य आचार्यश्री... उपाध्याय मोहनविजयजी म.सा. विजय धनचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. विजय भूपेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. उपाध्याय गुलाबविजयजी म.सा. विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. सौजन्य : श्री राजेन्द्रसरि जैन दादावाडी स्ट-राणीविक्षुर (कटिक) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थरादरी के महान उपकारी गुरुदेव श्री हर्षविजयजी म.सा. राजेन्द्रसूरिजी ने अंतिम अपना शिष्य बनाया गुरु हेमेन्द्रसूरि ने जिन्हें अपना गुरु बनाया ऐसे हैं गुरु श्री हर्षविजयजी महाराज साहेब जन-जन में लोकपिय.जिन्हें बनाया सौजन्य : श्री. गोड़ी पार्श्वनाथ जैन संघ-चित्रदुर्गा श्री राजेन्द्रसूरि जैन दादावाड़ी.दूस्द-चित्रदुर्गा Jan Education intematonal For Private & Personal use only aawjainelibrary.org Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAN कविरत्न आचार्य श्रीमद् विजय विद्यावन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. सौजन्य : श्री श्रेयांसनाथ जैन श्वे. सकल, श्री. संघ-निडदवोलु (आ.प्र.) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रसंत गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. सौजन्य : श्री महावीरस्वामी जैन श्वे. सकल श्री संघ - चिकबाल (कर्णाटक) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRIERHITIBIHIBIRHAIRHITRA HARIRRITISHETIRIRAM WARDHURRRRRRRRRISTIAN SHRIDERRIDHRIRBERARHIRAN RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRY HEIRLHISHIRHHHHHHIRSHAN RRRRRRRRRRRRRRRIER HHHHHHHHHHHORIBHUSERI MARRRRRRRRRRRRRRRRRIRAM गुरु चरणों की सेवा जो नि IDEAnti SHRIRAMIRRRIER ITHHATAR BIRTHRIRAHIMIRMIRRIRANI दि ग्रहण करता है। WITHHTHARIHARIHAR " जानित करता है। सदैव dain Educat ional For Private & Personal use only www.jainehbrary.org Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. पू. संयमवयस्थवीर मुनिराज श्री सौभाग्यविजयजी म.सा. मार्गदर्शक स्व. प. पू. ज्योतिषाचार्य मुनिप्रवर श्री जयप्रभविजयजी म.सा. सीधे सादे सरल स्वभावी, जिसने बजाया काशी में ज्योतिष का डंका वह मुनि जयप्रभविजय है ज्योतिष में बंका नित साधना में रहते लीन, मृदुभाषी, मितभाषी, नवकार में रहते तल्लीन, काशी विद्वत्परिषदने ज्योतिषाचार्य से अलंकृत किया, ये हैं संयमस्थवीर मुनि श्री सौभाग्यविजयजी म.सा. इसने गुरु का नाम रोशन किया। जैनधर्म दिवाकर मुनिराज श्री नरेन्द्रविजयजी म.सा. नर में जो इन्द्र है वही नरेन्द्र है, वह कवियों में कवीन्द्र है, जैन दिवाकर की पदवी से विभूषित जो है, वही प्रवचनपटु मुनि नरेन्द्रविजय 'नवल' है। पंन्यास प्रवर श्री रवीन्द्रविजयजी म.सा. आध्यात्मयोगी मुनिराज श्री जयशेखरविजयजी म.सा. रवि सम जो चमक रहा है, विद्या के उपवन में जो महक रहा है, गुरुपदपूजन का जिसने संकल्प किया, पंन्यासप्रवर रवीन्द्रविजय का नाम चमक रहा है। ये मुनि जयशेखरविजयजी निरभिमानी है, ज्योतिष, हस्तरेखा के विज्ञानी है, जितना इनसे जान सको जानो, ऐसे ये मुनिराज गुणखानी है। * Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WASTRATORS gঙ, খচ্চ कोंकण केशरी मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी ओजस्वी जिनकी वाणी है मंत्र साधना के जो ज्ञानी है कोंकण केशरी से जो है अलंकृत ये लेखेन्द्रशेखरविजयजी निरभिमानी है। CSSE ज्योतिषसम्राट् मुनिराज श्री ऋषभचंद्रविजयजी उद्भटज्योतिषविद्या के विद्वान भक्त जिनके करते रहते गुणगान मुनिराज ऋषभचंद्रविजयजी है ये श्रावक, नेता, अधिकारी करते जिनका सन्मान ( PARTY-TE: मुनिराज श्री प्रीतेशचंद्रविजयजी ये है सूरि हमेन्द्र के शिष्य प्रधान प्रीतेशचंद्रविजय है जिनका नाम बड़ी चतुराई से ये काम करवाते है। चमकायेंगे ये अपने गुरुवर का नाम मुनिराज श्री चंद्रयशविजयजी चन्द्रसम शीतल जिनका व्यवहार है। गुरु हेमेन्द्रसूरि की आज्ञा पालन को तैयार है। मुनि चन्द्रयशविजय कहलाते है ये जीवन प्रभात से ही सच्चा इनका आचार है। संपादक डॉ. तेजसिंह गौड़ For Private & Personal use only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादक मंडल मुनिराज श्री जिनेन्द्रविजयजी जिनेन्द्र ! जिनेन्द्र की भक्ति कर लो गुरु से जो पाया उसे सार्थक कर लो ___प्रवचनपटु तो तुम हो ही धर्म की गंगा में अवगाहन कर लो मुनिराज श्री हितेशचंद्रविजयजी प्रवचनपटु क्रिया में दक्ष कहलायें धर्म का मर्म खुलकर बतलायें ऐसे है मुनि हितेशचन्द्रविजयजी | एक एक बात को भली भांति समझाये aaraNAREE STOTRA मुनिराज श्री पीयूषचंद्रविजयजी पीयूष की तरह रहते है जीवन में तत्वज्ञान समझाते है प्रवचन में ऋषभ के प्रिय शिष्य है पीयूषचन्द्रविजय निश्चय ही महकेंगे राजेन्द्र के उपवन में 1 5 मुनिराज श्री लाभेशविजयजी गुरु लोकेन्द्र के है शिष्य प्रधान जिनवाणी पर देते रहते व्याख्यान बातें भी करते चतुराई से भरी भरी मन की बातों का लगने न दे भान लाभेशविजयजी Jairt Log i terational Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. पू. साध्वी श्री मुक्तिश्रीजी म.सा. है जितनी गहरी जिनकी साधना प्रवर्तनी श्री मुक्ति श्रीजी सुसाध्वीजी है ये संघ के प्रति रहती है जिनकी सदैव ही शुभकामना । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम पूज्य आचार्यश्री के सानिध्य में स्व. मुनि श्री प्रीतेशचन्द्रविजयजी म.सा., मुनि श्री चन्द्रयशविजयजी .सा. श्री मेघराजजी जैन एवं जांच के सम्पादक डॉ. तेजसिंह गौड़ एक दुर्लभ चित्र (अभिनंदन ग्रंथ को अंतिम स्वरूप देते हुए) Jindistoo intermstional www.jana Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय जीवन को समझना आसान नहीं है । इसे समझने-समझाने में ऋषि-मुनियों ने अपना जीवन खपा दिया । जीवन की जटिलता को सुलझाने के अनेक प्रयत्न समाधान से आज तक दूर ही दिखाई देते हैं । लेकिन यह तो तय है कि जीवन की नियति चेतना है । सृष्टि के दो मूल तत्व हैं जड़ और चेतन । जड़ का अपना कुछ नहीं, निसत्व है वह । न अपने लिये कुछ कर सकता न अन्य के लिये । जड़ तत्व तो पूर्णतः पराश्रित है । किंतु चेतना पराश्रित नहीं । चेतन तत्व भी कम नहीं असंख्य हैं । सभी चेतन तत्व, जड़ से तो भिन्न है किंतु चेतन तत्वों में भी भिन्नता तो अवश्यमेव दिखाई देती है । सभी प्राणियों में चेतन तत्व है । मानव समस्त प्राणियों से अधिक चेतना युक्त है । मानव अपनी बुद्धि और विवेक का प्रयोग सफलता से कर सकता है। उसमें सही और गलत को समझने की मेधा है । इसी मेधा ने जीवन को जटिल बनाया । मानव की इसी मेधा ने उलझन में डाल दिया है। आज हर तथ्य को विज्ञान की कसौटी पर कसने की परंपरा सी है । आज हम विज्ञान की रोशनी में जीवन को तलाश रहे हैं । विज्ञान की रोशनी भी सही-सही अर्थ सही-सही ज्ञान को स्पष्ट करने में असमर्थ सी है । विज्ञान की रोशनी तत्त्व को तलाशने वाले स्वयं भटक रहे हैं । ज्ञान की दिशा स्पष्ट नहीं हो पाती विज्ञान द्वारा । प्रयोग की सफलता चमत्कृत तो अवश्य करती हैं किंतु मानवीय मूल्यों को उठाव नहीं दे पाये । अणु-परमाणु के प्रयोग ने सृष्टि के सारे क्रम को भी गड़बड़ा दिया है, जहर से भर दिया है। विज्ञान की इस उपलब्धि से मानव निश्चिंत हो राहत की सांस तो ले ही नहीं सकता । जिस जगह चिंतन की धारा समाप्त हो जाती है, जहां विज्ञान के हाथ पैर नहीं पहुंच पाते वहां से अध्यात्म की धारा प्रस्फुटित व पल्लवित हो रही है । धर्म के सम्बल से व्यक्ति की दृष्टि भौतिक रूप से सम्पन्न कर आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है । अध्यात्म वास्तविक सुख, समता व समुन्नति की ओर चलने का एक मात्र समर्थ साधन है । धर्म का तात्पर्य किसी सम्प्रदाय, जाति, समूह की प्रगति या उन्नति से नहीं वरन् धर्म वह जो वास्तविकता है । जैनाचार्यों ने, जैन तत्वचिंतकों, ने तो स्पष्टतः कहा है 'वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। वत्थु सहावो धम्मो धर्म किसी कर्म काण्ड का नाम नहीं, धर्म स्वर्ग की सीढ़ियों पर चढ़ने का अनुष्ठान भी नहीं । धर्म तो प्रकृति है, स्वभाव है, निसर्ग हैं। शरीर तो नश्वर है, कभी भी किसी भी क्षण नष्ट हो जायेगा । किंतु प्रकृति या स्वभाव तो नित्य है, अनश्वर है। यही भेद विज्ञान धर्म है, इसी की धर्म के स्वरूप की पहचान है । व्यक्ति अपने वास्तविक स्वभाव को अपनी वास्तविक प्रकृति का साक्षात्कार कर ले तो अध्यात्म भावना का स्वतः आगमन हो जाता । जीवन के केन्द्र में आत्मा की प्रतिष्ठापना जीवन की वर्णमाला का आद्य अक्षर है । विज्ञान और अध्यात्म में टकराव की स्थिति निर्मित ही नहीं होती यदि अध्यात्म तत्व को महत्व दिया होता । विज्ञान भौतिक - Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख-सुविधाओं की बहुतायतता का साधन है जबकि धर्म जीवन के संशोधन का, सुधारने का, संभालने की भूमिका का निर्वाह करता है । जैन शास्त्रों में धर्म को सर्वोत्कृष्ट मंगल माना गया है । धर्म, अहिंसा, संयम तथा तप का समग्र रूप है । जैन धर्म को दयामय, करुणा से परिपूर्ण भी माना गया । जीवन के पथ में धर्म तो शीतल छाया की भांति स्वीकार किया है । धर्म नियंता व नियंत्रक है । मन, वचन, कर्म तीनों को नियंत्रित करने का साधन है धर्म । धर्म पवित्र जीवन पद्धति का एकमात्र संचालक है । व्यक्ति जब भी धर्म संस्कारों के आधार पर अपना लक्ष्य तय करता है तब धर्म भौतिक संसाधनों के त्याग एवं आध्यात्मिक जीवन का प्रारंभ का सोपान बन जाता है । हर व्यक्ति धार्मिक तो हो सकता है किंतु आध्यात्मिक होना, हर व्यक्ति का संभव प्रतीत नहीं होता । आध्यात्मिक दृष्टि संपन्न होना बड़ी बात है । सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान व सम्यग् चारित्र आध्यात्मिक प्रवृति के बिना संभव नहीं । धर्म को माननेवाले लोगों में भौतिक समृद्धि की कामना, दूसरों से प्रतिशोध की भावना के कुछ न कुछ अंश तो होते ही हैं । जो व्यक्ति आध्यात्मिक होता है वह धर्म का सुचारू रूप से प्रतिपालन करते हुए शुद्ध उद्देश्य निश्चित करता है । जीवन की सार्थकता अध्यात्म प्रवेश में है । सभी चेतन जीवों में मनुष्य जीवन ही ऐसा है जो मुक्ति का अधिकारी बन सकता है । मानव जीवन अलौकिक है, बड़ी मुश्किल से मिला है । मानव शरीर पूर्णतः विकसित एवं बौद्धिक चेतना से संपन्न है । मानव जीवन को यशस्वी रूप में परिणत कर तथा मानव जीवन को भव्य आराधना काल बनाकर किया जा सकता है । कषाय वृत्तियों का त्याग एवं संवर भावना को प्रतिक्षण घटाते-बढ़ाते रहते हैं । रागद्वेष के कारण ही क्रोध, मान, माया, लोभ जैसे कषायों की सक्रियता जीवन में उथल-पुथल मचाती है । इसके कारण मानव जीवन कलुषित हो जाता है । उसी मनुष्य को परुषार्थी कहा जा सकता है जो अपने मनोविकारों पर अपने आवेगों पर पूर्णतः नियंत्रण रखने में सक्षम हो । धर्म-पुरुषार्थ से आत्मा परमात्मा बन सकती है। मानव व अन्य जीवों में यही फर्क है कि मानव के पास अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करने, अपनी दिशा को समझने की बुद्धि है । अन्य जीव अपने जीवन की दिशा निर्धारित नहीं कर सकते, उनके पास विवेक नहीं होता । मानव परम शक्तिमान है । वह सृष्टि पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा में रत रहता है । मानव अपनी निर्धारित दिशा, अपने निर्धारित लक्ष्य से लाभ प्राप्त कर सकता । विवेकपूर्ण लक्ष्य निर्धारण से जो लाभ होता है उससे उसका जीवन सुधर जाता है । विवेक युक्त लाभ का तात्पर्य आध्यात्मिक लाभ है । अन्यथा मानव अपने उलझे हुए जीवन में भटक जाता है र मक्तिमार्ग से बहत दर चला जाता है । मानव अपने जीवन में सदज्ञान और सदविवेक उपयोग करे तो उसका जीवन पवित्र हो जाता है । महापुरुष अपने जीवन को तपस्या की अग्नि में तपा-गला शुद्ध स्वर्ण में बदलने की चेष्टा में लगे रहे । मानव जीवन के प्रत्येक पल को मूल्यवान समझें तथा अपने उद्देश्य की प्राप्ति में यदि अग्रसर हो तो उसका जीवन सफल हो सकता है। Forvena Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा अनश्वर है । आत्मा अजर-अमर है । आत्मा निष्प्रभावी है, उस पर जरा-मरण का कोई प्रभाव नहीं । मैं की अनुभूति इस नश्वर शरीर के लिये तो कदापि नहीं है । 'मैं शरीर नहीं चैतन्य स्वरूप, अनंतज्ञान दर्शन सुख का भोक्ता-आत्मा हूं । मेरा लक्ष्य परम श्रेष्ठ है । इस लक्ष्य से इतर कोई लक्ष्य नहीं । संसार शब्द का निर्माण 'सृ' धातु से हुआ है जिसका तात्पर्य है 'संसरण'। मैं आत्मा के रूप में सांसारिक व्यामोहों से भ्रमित होकर संसरण कर रहा हूं । मेरा परिभ्रमण और परिवर्तन मुझे अपने लक्ष्य से दूर भटका रहा है। जीव योनियों के असीम अंतरिक्ष में बार-बार चक्कर लगाते हुए मैं दूर, और दूर होता जा रहा हूं किंतु ऐसा करना मेरे लिये विनाश का सूचक है । मैं आत्मा हूं।' आत्मा-विकृति का कारण भौतिक सुख-सुविधाओं की आसक्ति है । भौतिक सुख-सुविधा से संपन्न होने के लिए नीतिगत अनीतिगत सभी कार्य करने में मनुष्य लगा रहता है । कर्म का उदय फल देते हैं तथा फल भोक्ता आत्मा के लिये नये-नये कर्मो का उपार्जन करते हैं । कर्म का फल एवं फल के भोग में आत्मा के पुरुषार्थी समर्थन के कारण नूतन कार्मण वर्गणा के पुद्गलों का प्रवेश जीवन पर कर्म का प्रत्यक्ष प्रभाव साफ-साफ दिखाई देता हैं । जितनी भी स्थितियाँ परिस्थितियाँ निर्मित होती वह कर्मफल के कारण है । आत्मा तथा कर्म के आपसी संबंधों के कारण यह विश्व संचलित हो रहा है । पुण्य कर्मों से व्यक्ति को सुख-समृद्धि मिलती है तो पापकर्मों के कारण दुःख, दरिद्रता, दुर्बलता आती है । जैन दर्शन का कर्मवाद अन्य कर्म सिद्धांतों से आंशिक रूप से सहमत होता है किंतु जिस गहराई, जिस अन्वेषण की तृष्णा को तप्त करता है, वह असाधारण है । भौतिक सुख-सुविधाओं के प्रति रूचि को कम करते हुए समाप्त करना आत्म विकास का सोपान है । इस पर आरूढ़ होते हुए क्रमशः पुद्गलों से अनासक्त बनना आत्मा के लिये अभीष्ट है । आत्मा उपादेय है, पुद्गल ज्ञेय है । पुद्गल का ज्ञान आत्मा के बचाव के लिये अनुरूप स्थिति निर्मित करता है । मानव संस्कृति के विशद् अध्ययन में महत्वपूर्ण स्वर्ण चिह्न के रूप में जैन संस्कृति है । जैन धर्म तो हैं ही, धर्म के रूप में उसका चिंतन, दर्शन, अध्यात्म एवं तत्वज्ञान भी परिमार्जित है लेकिन जैन संस्कृति ने एक स्वतंत्र संस्कृति का आकर लिया है । जैन संस्कृति ढोंग और पाखंड से मुक्त है । जैन संस्कृति तो स्वस्थ चिंतनयुक्त संस्कृति है। यह संस्कृति तो सामाजिक न्याय व आर्थिक एकरूपता के कारण समाजवादी समाज की संरचना की पक्षधर है । इस संस्कृति में तप का तेज, त्याग की तीव्रता एवं स्वावलंबन का संकल्प शिक्षा के रूप में मानव के समक्ष प्रस्तुत किया । इस संस्कृति की यह विशिष्ट देन है कि इतनी हिंसा होने के बावजूद अहिंसा के मूलभूत तत्व अक्षुण्ण रहे । वर्तमान जैन संस्कृति के पुरस्कर्ता तीर्थंकर महावीर है । अहिंसा के दृष्टिबोध ने प्राणिमात्र तक के प्रति सहिष्णु होने का भाव प्रस्थापित किया है, स्याद्वाद के चिंतन ने तथ्यान्वेषण की गहराई तक पैठ की है । उसके ये दोनों सूत्र विश्व व्यापी है । तीसरे सूत्र अपरिग्रह की आवश्यकता तो काल के प्रवाह के साथ-साथ निरंतर बढ़ती जा रही है । जैन संस्कृति निरंतर चिंतनशील रही और इसी कारण विचारों में संशोधन हुआ है । in Education International al use on Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति में यति क्रांति के कारण त्रिस्तुतिक समाज ने अपूर्व योग देकर प्रवाह को मोड़ा है । यतियों में शिथिलाचार बढ़ गया था । देवी-देवताओं की उपासना के कारण व्यक्ति वीतराग तक की अवेहलना करने लगा था । यति अपने चारित्रमार्ग से विचलित हो चुके थे । स्व-पर कल्याण की भावना भौतिक सुख-समृद्धि एवं रागरंग में भ्रमित होती जा रही थी । ऐसी परिस्थति में त्रिस्तुतिक सिद्धान्त के प्रतिपादन ने मिथ्यात्व की कालिमा को चीरकर रख दिया । इस मान्यता का संघर्ष केवल प्रतिक्रमण से एक स्तुति को हटा देने का नहीं था वरन् शुद्ध क्रियाकलापों व आत्मोन्नति के मार्ग के कंटकों को दूर करने एवं दोषों को विस्थापित करना था । उस काल के यति समाज की दुर्दशा का आकलन तो उस कलमनामे से हो सकता है जो श्री पूज्य धरणेन्द्रसूरि द्वारा परिस्थितिवश हस्ताक्षरित किया गया था। इस पर अन्य नौ यतिगणों के हस्ताक्षर भी हैं । यह कलमनामा ऐतिहासिक दस्तावेज है । त्रिस्तुतिक सिद्धांत को इस कारण बाट ाओं का सामना भी करना पड़ा है । त्रिस्तुतिक सिद्धांत की गंभीर गर्जना स्व. गुरुदेव श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ने की थी। श्रीमद् धरणेन्द्र सूरिजी के शिथिलाचार को, अपने शुद्ध क्रिया का पालन करते हुए समाप्त किया, भौतिक सुख-समृद्धि के प्रतीक चिह्नों व वस्तु तत्वों को दूर करने का कार्य किया । यति समुदाय के हस्ताक्षरों से तैयार किये गये कमलनामे का दस्तावेज श्रीमद् राजेन्द्र सूरिजी की क्रांति जाग्रति के कारण ही था । उनके द्वारा त्रिस्तुतिक सिद्धांत उद्भाषित हो आराधना पथ के प्रवासी उपकृत हुए। वे शलाका पुरुष थे । अपने जीवन में सभी उपाधियों को त्याग कर क्रियोद्धार की ओर बढ़ते हुए परिमार्जित साध्वाचार का उद्घोष किया । विविध प्रतिभाओं के धनी, संघ संचालन में अप्रतिम दक्षता, निष्णात दार्शनिक विचारक, युग प्रधान व्यक्तित्व से महिमामंडित थे श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी। श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने जीवन भर आत्मकल्याण की संज्ञाओं की तलाश में बिताया । जैन संस्कृ ति को कुंठित अवधारणाओं से मुक्त कर देव, गुरु और धर्म के सही स्वरूप को सबके सामने रखा। तपाराधना एवं यौगिक क्रियाओं से उनका प्रभामंडल अत्यंत तेजस्वी और जाज्वल्यमान बन गया । श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी में ऐसी ऊर्जा विकसित होती थी जिसने मानव को जीवन के अंतर में गोते लगाने के लिये प्रेरित किया । उनने जिन मुद्रा में दीर्घ समय तक शरीर को स्थिर कर जप व ध्यान किया । पंच परमेष्ठि में आपकी अडिग श्रद्धा का यह जीवंत प्रमाण है। श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने तर्क संगत सिद्धांत व सत्याचरण पर नैष्ठिक जोर दिया तथा क्रिया पालन में अद्भुत कठोरता दिखाई । इसी कारण आपके अनुयायी वर्ग की पृथक पहचान तैयार हो गयी । त्रिस्तुतिक सिद्धांत भी आपका कोई नया अविष्कार नहीं था । अंधविश्वास एवं आत्मसंकल्पहीनता के विरूद्ध उनका संघर्ष था । त्रिस्तुतिक समाज का पूर्ण नाम श्री सौधर्म वृहत्पागच्छीय त्रिस्तुतिक श्वेताम्बर जैन संघ है । स्पष्टतः त्रिस्तुतिक संघ की पट्टपरंपरा का श्री गणेश श्री सुधर्मा स्वामी से है । उनके पट्ट पर क्रमशः . Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामी, प्रभवस्वामी, सय्यंभवस्वामी आदि आसनारूढ़ हुए यह परंपरा ढ़ाई हजार साल तक अग्रशील होती गई । विजय क्षमा सूरि, विजय देवेन्द्रसूरि, विजय कल्याण सूरि के उपरांत विजय प्रमोदसूरि के पट्ट पर विजय राजेन्द्रसूरि युग प्रधान - सम हुये । श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी की परम्परा में उनके पट्ट पर चर्चा चक्रवर्ती जैनाचार्य श्रीमद धनचंद्रसूरीश्वरजी हुए । वे उत्कृष्ट क्रिया पालक तथा विद्वता में अपने गुरु की इच्छाओं के प्रतिरूप थे । आगमों के रहस्य का इनने पारदर्शन कर रखा था तथा संघ में गुरुदेव श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी के मूल्यों के संरक्षण में अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया था । इनके पट्ट पर जैनाचार्य श्रीमद् विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज आसीन हुये । शांत, उदात्त व सरलता इनके मुख्य गुण थे । दीर्घ समय तक समाज को आपका मार्गदर्शन प्राप्त नहीं हो पाया । इसी पट्ट परम्परा की अगली प्रकाशमान कड़ी में श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज जैसे प्रभावी आचार्य हुये । आपको संघ ने व्याख्यान वाचास्पति की उपाधि से अलंकृत किया । श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी महाराज की प्रखरता का अन्य उदाहरण नहीं प्राप्त होता । आप भी अप्रतिम विद्वान थे एवं अभिधान राजेन्द्र कोश के मुद्रण में आपका महत्वपूर्ण योगदान रहा । एक सुविशाल शिष्यवर्ग को भी आपने संयम जीवन की ओर अग्रसर किया । आपकी सज्झाएं, लावणियां, स्तवन, स्तुतियां लोक समूहों में आज तक गायी जाती है । आपके पट्ट पर जैनाचार्य श्रीमद् विजय विद्याचंद्रसूरीश्वरजी महाराज हुये जो उच्च कोटि के कवि तथा योगी के रूप में जाने गये । आपकी गुरु सेवा अनन्य थी । साथ ही आपका हृदय पुण्य सलिल की तरह पवित्र था । आपका उत्तराधिकार संघ ने ग्रंथ नायक जैनाचार्य श्रीमद् हेमेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज को अर्पित किया, जो वर्तमान में गच्छाधिपति हैं । इस परिप्रेक्ष्य में हम जब परम श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जीवन वृत्त पर दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि वे अपने जीवन के 88 वसंत पार कर चुके हैं और संयमराधना के 64वें वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं । आयु एवं संयमाराधना की यह उपलब्धि कम नहीं कही जा सकती । अपने सुदीर्घ संयम काल में परम श्रद्धेय आचार्यश्री ने बालकों में सुसंस्कार वपन करने और सेवा का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है । इस अवधि में आपने अनेक मुमुक्षुओं को दीक्षाव्रत प्रदान किया, उपधान तप सम्पन्न करवाये । संघ तीर्थ यात्राएं निकलवाई और प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न करवाये । इस सुदीर्घ संयमकाल में परम श्रद्धेय आचार्यश्री ने कौन कौन सी लब्धियां उपलब्ध की? इस सम्बन्ध में हम कुछ भी नहीं कह सकते, क्योंकि यह सर्वविदित है कि जैन संत प्राप्त लब्धियों का कहीं कोई प्रदर्शन नहीं करते हैं और यही उनकी एक अन्य बड़ी विशेषता कही जा सकती है । परम श्रद्धेय आचार्यश्री की दीर्घकालीन संमयाराधना को ध्यान के रखते हुए उनके सम्मान में उनके अनुयायी वर्ग द्वारा उनके अभिनन्दन में एक ग्रन्थ के प्रकाशन की योजना का अनुमोदन करना स्वाभाविक ही है । यद्यपि इस प्रकार के अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन एवं समर्पण श्रद्धेय आचार्यश्री की दीक्षा स्वर्णजयंती के अवसर पर किये जाने की भावना थी । उसके www.jalnelibrary.org Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिये उस समय एक दो बार रूपरेखा बनाकर, विचार विमर्श भी किया गया था, तथापि अन्य धार्मिक कार्यों में अति व्यस्तता के कारण उसे मूर्त रूप प्रदान नहीं किया जा सका । सन् 1998 में पुनः इस विषयक चर्चा चली और इस बार ठोस निर्णय ले ही लिया । विचार-विमर्श के उपरांत अभिनन्दन ग्रन्थ की रूप रेखा को अंतिम रूप देकर कार्य प्रारम्भ कर दिया। वर्षावास सं. 2055 (सन् 1998 ) में अभिनन्दन ग्रन्थ विषयक काफी कार्य हो चुका था । इसी बीच कुछ प्रतिष्ठा सम्बंधी कार्य आ जाने के फलस्वरूप उनमें व्यस्तता बढ़ गई । इसके अतिरिक्त सं. 2056 का वर्षावास श्रद्धेय आचार्यश्री का राणीबेन्नूर जिला हावेरी (कर्नाटक) में होने से भी थोड़ी बाधा उपस्थित हुई । इस वर्षावास की समाप्ति के पश्चात् भी अनुकूलता नहीं बन पाई । गत एक दो माह में थोड़ी अनुकूलता रही । उसमें भी विहारचर्या तो चल ही रही थी । फिर भी कार्य पूर्ण हुआ और प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रंथ मूर्त रूप प्राप्त कर सका । प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ पांच भागों में विभक्त है जिसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है प्रथम खण्ड : वन्दन भी अभिनन्दन भी है । इसमें श्रद्धेय आचार्यश्री के प्रति गुरुभक्तों की वंदनाएं शुभकामनाएं संकलित है । उनमें केवल वन्दन - अभिनन्दन न होकर श्रद्धेय आचार्यश्री के गुणों का विवरण भी सहज ही आगया है । यह खण्ड इस प्रकार के विवरण से महत्वपूर्ण बन गया है । द्वितीय खण्ड : आस्था अभिनन्दन शीर्षक से है जिसमें श्रद्धेय आचार्यश्री की गुरु परम्परा एवं श्रद्धेय आचार्यश्री का संक्षिप्त जीवन वृत्त दिया गया है । तृतीय खण्ड : चिंतन के आलोक में है । इसमें श्रद्धेय आचार्यश्री के प्रवचनों के कुछ अंश एवं उनके द्वारा कुछ कथायें दी गई है । रचित चतुर्थ खण्ड : जैनधर्म और दर्शन से सम्बन्धित है । नाम के अनुरूप ही इस खण्ड में जैनधर्म एवं दर्शन से सम्बन्धित देश के ख्याति लब्ध विद्वानों के महत्वपूर्ण आलेखों का संग्रह है । आलेख चिंतन प्रधान I और शोध प्रधान दोनों प्रकार के हैं। पंचम खण्ड : जैन इतिहास, कला, साहित्य एवं संस्कृति से सम्बन्धित है । इस खण्ड में जैन इतिहास, जैन कला, जैन साहित्य एवं संस्कृति से सम्बन्धित अत्यन्त महत्वपूर्ण शोध प्रधान आलेखों का संकलन है । कुछ आलेख तो ऐसे हैं जिन पर स्वतंत्र रूप से शोध कार्य किया जा सकता है । ये आलेख शोधार्थी के लिये सरणि का कार्य कर सकते हैं । I Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुल मिलाकर इस अभिनन्दन ग्रन्थ को विद्वानों, अनुसंधानकर्ताओं एवं सामान्य गुरु भक्तों के लिये उपयोगी बनाने का प्रयास किया गया है । विश्वास है कि यह ग्रन्थ हमारी भावना के अनुकूल प्रमाणित होगा । प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ इस रूप में प्रकट नहीं हो पाता यदि उसके लिये विद्वान आचार्य/मुनिराजों और लब्ध प्रतिष्ठित विद्वानों का सहयोग नहीं मिला होता । अतः हम ग्रन्थ के सहयोगी विद्वान लेखकों के प्रति आभार प्रकट करना अपना कर्तव्य समझते हैं । इसी अनुक्रम में धर्म प्रेमी स्नेहमूर्ति डॉ. तेजसिंह गौड़ के सहयोग को भी नहीं भुलाया जा सकता है । डॉ. गौड़ ने पूर्ण लगन, निष्ठा और कठोर परिश्रम करके अपने सम्पर्कों से देश के ख्यातिलब्ध विद्वानों से शोधपरक एवं चिंतनपरक आलेख निर्धारित समय सीमा र भी कम अवधि में प्राप्त कर ग्रन्थ के लिये अनुकूल सामग्री एकत्र कर ली । डॉ. गौड़ ने प्रतिकूल परिस्थिति में भी कार्य किया / यात्रायें की ओर इस ग्रन्थ को मूर्तरूप प्रदान करने में अपना अपूर्व सहयोग प्रदान किया । इतना ही नहीं जहां लेखन/पुनर्लेखन की आवश्यकता हई वहां भी डॉ. गौड ने अपने उत्तरदायित्व को पूरा किया । अतः हम डॉ. गौड़ को साधुवाद देते हैं और चाहते हैं कि उनका यह अपनत्वभरा/स्नेहभरा सहयोगभाव हमें सतत् मिलता रहे । जिन गुरुभक्तों ने स्व अर्जित लक्ष्मी का सदुपयोग इस ग्रन्थ को मूर्त रूप प्रदान करने में किया, उन्हें भी भुलाया नहीं सकता है । ऐसे समस्त गुरुभक्तों को धन्यवाद । अंत में उन सभी ज्ञात/अज्ञात सहयोगीजनों को भी धन्यवाद देते हैं जिनका सहयोग इस ग्रन्थ में मिला । परम श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की कृपा एवं आशीर्वाद के अभाव में इस आयोजन की सफलता की कामना तो हम कर ही नहीं सकते । अस्तु श्रद्धेय आचार्य के चरणों में वन्दन करते हुए शासनदेव से उनके सुदीर्घ स्वस्थ जीवन की कामना करते हैं । मुनि लेखेन्द्रशेखर विजय, मुनि ऋषभचन्द्रविजय विद्यार्थी, मुनि प्रीतेशचन्द्र विजय मुनि चन्द्रयश विजय 62626262628 28 688268 in Education International Forvateeded Use www.jainellbrary.org Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयोजकीय... श्री मोहनखेड़ा तीर्थ दि.१२.१२.२००६ जिनशासन के सरोवर में हंस के समान दिव्यता और श्रेष्ठता प्रदान करता है। कुशल माली गुरुदेवश्री का जन्म भक्ति और शक्ति की वीर प्रसुता या काश्तकार जिस प्रकार प्लांटेशन करके एक वृक्ष धरा राजस्थान के बागारा नचार में पिताश्री ज्ञानचंदजी में तरह-तरह के फलों के स्वादों की कलमें लगाकर के यहाँ मातुश्री उज्जमदेवी की रत्नकुक्षी से हुआ। उसका बहुमुखी विकास करता है, उसी प्रकार गुरु कहते हैं कि - गुरु शिष्टा को कल्याण का भी शिष्य को विविध प्रकार की साधनाएं, ज्ञान रास्ता बताते हैं, संसार में भटकते हुए प्राणी को गुरु । सम्पदाएं और संचित अनुभव देकर शिष्य के जीवन धर्म का, अध्यात्म का, आत्म शक्तियों को जगाने के को ज्योर्तिमय बना देते है। का पथ प्रदर्शन करते है। गुरु के अनंत उपकार शिष्ट पर होने पर भी गुरु शिष्य को ज्ञान देते हैं, वे शिक्षक हैं. गुरु अहंकारी नही होते वे हमेशा यथार्थवादी होते अनुशासक हैं, संसार में किस प्रकार जीना, कैसे है। ऐसे गुरु के उपकार को गुणमान कीर्तन शिष्य व्यवहार करना, जिसमें स्वयं को भी कष्ट न हो और किस प्रकार करता है यह विशेष जानने योग्य तथ्य उसके कारण दूसरों को भी कष्ट नहीं पहुँचे । जीवन होता है। परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणी नाच्छाधिपति की वह उदात्त शैली गुरु ही सिरवाते हैं। वर्तमानाचार्य देवेश श्रीमद्विजटा हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. ने हमें नया जीवन दिया, ज्ञान दिया, जीवन वेसंसारका वह रहस्य जानते हैं जिसे जानकर पर जीने की शैली दी, सत्यासत्य का बोध कराया, जीवन में जागृति और शक्ति का संचार किया जा जिनेश्वर देव के विशुद्ध मार्ग का पथिक बनाया। सके। जो ज्ञान शास्त्रों से प्राप्त नहीं होता वह ज्ञान हमारी अंधकारी आत्मा को प्रकाश का आस्वादन साधना के दिव्य अनुभव से गुरु ही दे सकते हैं। एक कराया, गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के दिव्य ही अनुभव सूत्र से शिष्य के संपूर्ण जीवन को तेजस्वी शासन से अनुबंधित कराया ऐसे अनगिनत ज्योर्तिमान बनाने की क्षमता रखता है - गुरु। उपकारकर्ता गुरुदेव श्री का शिष्टयत्व प्राप्त कर ऐसा जीवन की उलझी समस्याओं को सुलझाना, लगता है कि प्रतिशत संसारसाचार को हम पार साधना के विघ्नों का निवारण करना गुरु ही जानते कर चुके हैं। हैं। शिष्य के मार्गदर्शक, सच्चे साथी और सहारा महान तेजस्विता, असाधारण व्यक्तित्व, होते हैं - गुरु। अद्वितीय संटाम साधना, वीतरानाश्रद्धा में अलौकिक गुरु की भूमिका दाता की है। गुरु शिष्य को दृढ़ता के धनी गुरुदेव श्री का जीवन दर्पण की भांती देता ही रहता है, इतना देते है कि फिर भी उनका स्वच्छ एवं निर्मल है। इस आयु (८८ वर्ष) चारित्र स्वजाना कभी रवाली नहीं होता है। जैसे एक दीया की सूक्ष्म रुप से प्रतिपालना स्वाधीन होकर करना अपनी ज्योती के स्पर्श से हजारो हजार दीयों को हम सभी के लिये आदर्श है। आपका संपूर्ण जीवन प्रकाशमान कर देता है, वैसे ही गुरु शिष्य के भीतर ही "प्रेरणा" का जीता जागता उदाहरण है। शासन अपनी संचित ज्ञान-संपदा, आध्यात्मिक सम्पदा, एवम् गुरुताच्छके प्रति भक्ति एवम् समर्पणता के भाव ओज-तेज संक्रमति कर शिष्य के व्यक्तित्व को अनुमोदनीय एवम् अनुकरणीय है। Jan Education International For Pawate & Personal use only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस उम्र में जहाँशरीरको अधिकाधिक आराम सोचा ! कैसे अनंत गुणों के धारक गुरुदेवश्री की आवश्यकता होती है वहीं रात्री २.00 बजे के व्यक्तित्व से, जीवन दर्शन से सभी को परिचित उठकर अपनी साधना में लीन हो जाना सबके लिये करवाया जाए? आश्चर्यकारी है। ऐसे कई आश्चर्यों को देख कुछ तब सन् १९९९ में पू. भाई महाराज साहेब प्रश्न मैने गुरुदेवश्री से किटो। व्यवहार दक्ष मुनिराज श्री प्रीतेशचन्द्रविजयजी प्रश्न गुरुदेव ! रात को इतना जाना जरुरी है ? म.सा. के मन में अभिनंदन ग्रंथ के निमणि की क्या निंद नहीं आती? योजना बनी। उन्हों ने अथाह परिश्रम किया, ग्रंथ उत्तर देवो ! निंद तो बहुत आती है २४ घंटे सोता के प्रत्येक पहलु पर विचार कर उसे मूर्त रुप प्रदान रहुं तब भी तृप्ती नहीं हो। किन्तु ! “सारा दिन किया। (उनके दिल में ग्रंथ प्रकाशन के प्रति जी समाज के लिये करते हैं. रातको तो आत्मा के उत्साह मैने देखा वह अद्वितीय था। उनके तीनलिटो करें" चार वर्ष का प्रत्येक पल अभिनंदन ग्रंथ के लिये ही समर्पित था। गुरुभक्ति का जज्बा, कार्य करने की प्रश्न गुरुदेव! आप तो आचार्य हैं आपके वस्त्र तो शैली आदर्श थी। उनकी रवा-रता में गुरुदेवश्री के हंस के समान श्वेत रहना चाहिये ! (पद की प्रतिसमणिताका रक्तबहता था।) संपूर्ण ग्रंथ को महत्तानुसार) सुंदरता प्रदान कर विमोचन की तैयारिया की नाई। उत्तर नहीं चन्द्रयाश!“वस्त्र का उजलापन आत्मा किंतु इस तांथ के स्वप्नदृष्टा पू. भाई म.सा. को तीराने में सहायक नहीं होगा और ना ही का अकस्मात देवलोक नामन हो नाया। फिर चार तन काउजलापन वस्त्र औरतन धवल नहीं वर्ष व्यतीत हो नाये। तैयार तांथ के विमोचन की होंगी तो चलेगा किंतु ! मन कभी मैला नहीं जवाबदारी मेरी थी और आज इस ग्रंथ को “श्री होना चाहियो" हेमेन्द्र ज्योति" नाम से अलंकृत कर पू. गुरुदेवश्री प्रश्न इस उम्र में अब आपको तपस्या (उपवास, की पावन निश्रा में विमोचन की शुभ घड़ियों में हर्ष आयंबिल) नहीं करना चाहिये। का अनुभव कर रहा हूँ। गुरुभक्ति का यह छोटा सा उत्तर नहीं बेटा! जब तक शरीर में प्राण है तब तक अवसर प्राप्त कर मैं धन्यता का अहसास कर रहा इस शरीर का उपयोगा लेना चाहिये ताकि आत्मा की स्थिति सुदृढ बन जाए। श्री आदिनाथराजेन्द्र जैन श्वेताम्बरपेढ़ी ट्रस्ट इतने उच्च आदर्श विचार सुनकर आत्मा नगद ने तांथ प्रकाशन कर अपने कर्तव्य का श्रेष्ठ निर्वाह नगढू बन जाती है। ऐसी स्थिति में हथूि रोक पान किया है। मुश्किल हो जाता है। तांथ में डॉ.श्री तेजसिंहजी नोड़ का सराहनीय धन्य है गुरुदेव का जीवन एवं धन्य है आपकी के योगदान कभी विस्मृत नहिं किया जा सकता। दिव्यात्मा को ! ऐसे महापुरुष का जन्म इस धरा के सभी गुरुभक्तों को भी साधुवाद जिन्होने ग्रंथ | लिये वरदान होता है। प्रकाशन में गुरुभक्ति में ओतप्रोत होकर द्रव्य अर्पण मेरी लेखनी में बल कहाँ, किया। जोगुणसारे प्रकाश काँ! गुरुदेवश्री के चरणों में शत् शत् वंदन के साथ हेअनंत गुणों केधारकगुरुवर, ही दीर्घायु की शुभभावना के साथ... मैं भी ऐसा विकासकसँ! -मुनि चन्द्रवाशविजया दि.१२.१२.२००६ For Private & Per anal Use Only wwww.jainelibrary Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारअआभार सन् 1998 में पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा., पूज्य मुनिराजश्री ऋषभचन्द्रविजयजी म.सा. आदि मुनिमण्डल श्री मोहनखेडा तीर्थ पर विराजमान थे । मैं वहां पहुंचा । पू. मुनिराजश्री ने बताया कि आचार्यश्री के अभिनंदन ग्रन्थ के लिये तैयारी करना है और उसी समय आपने प. पू. आचार्यश्री के सुशिष्य मुनिराज श्री प्रीतेशचन्द्र विजयजी म.सा. से मेरा परिचय करवाया और अभिनन्दन ग्रन्थ की रूपरेखा के सम्बन्ध में विस्तार से बात हुई । इसी समय मैंने निवेदन किया कि पूर्व में मेरे द्वारा भेजी गई रूपरेखा उपलब्ध करवा दी जावें । पूर्व में भेजी गई एक रूपरेखा तो पालीताणा ही रह गई थी । एक रूपरेखा श्री मोहनखेडा तीर्थ भी भेजी थी । उसकी खोज की गई । वह भी नहीं मिल पाई । अंततः निर्णय यह हुआ कि पुनः रूपरेखा तैयार की जाकर उसका प्रकाशन करवाकर कार्य प्रारम्भ कर दिया जावें । पुनः रूपरेखा तैयार करने के विषय पर मैंने पूज्य मुनिराज श्री प्रीतेशचन्द्र विजयजी म.सा. से विस्तार से चर्चा की । परामर्श मण्डल, प्रेरक मण्डल सम्पादक मण्डल आदि में किन किन के नामों का समावेश किया जावें। प्रधान सम्पादक कौन रहेगा? सम्पादक, प्रबन्ध सम्पादक आदि के नामों पर भी विचार हुआ । वहीं ये सब नाम भी निश्चित हो गये । रूपरेखा के अन्य खण्डों में समाविष्ट होने वाले विषयों पर भी चर्चा हुई । उज्जैन आकर मैं रूपरेखा तैयार करने के कार्य में जुट गया । इस संदर्भ में यह भी स्पष्ट करना अपना कर्तव्य समझता हूं कि रूपरेखा तैयार करते समय मुझे अपने अभिन्न मित्र डा. ए.बी. शिवाजी, पूर्व आचार्य दर्शनशास्त्र विभाग, माधव महाविद्यालय, उज्जैन का भी अपूर्व परामर्श एवं सहयोग प्राप्त हुआ । अभिनन्दन ग्रन्थ की रूपरेखा तैयार होते ही मैं पुनः श्री मोहनखेडा तीर्थ के लिये खाना हुआ । वहां सबके सामने रूपरेखा रख दी । उसका अध्ययन हुआ और अंततः मुद्रण करवाकर कार्य आरम्भ करने का आदेश मिल गया । प. पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. से आशीर्वाद लेकर मैंने कार्यारंभ कर दिया । __प. पू. आचार्य श्री आदि मुनिमण्डल का वर्षावास वर्ष 1998 (वि. सं. 2055) का राजगढ़ जिला धार में रहा । मैं समय समय पर राजगढ़ जाकर प. पू. आचार्यश्री, पू. मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी म.सा., पू. मुनिराज श्री ऋषभचन्द्रविजयजी म.सा. एवं पू. मुनिराज श्री प्रीतेशचन्द्रविजयजी म.सा. को अभिनन्दन ग्रन्थ के कार्य की प्रगति की सूचना देता रहा । So c ean international Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षावास काल समाप्त हुआ और प. पू. राष्ट्रसंत श्री आदि मुनिमण्डल का राजगढ़ से विहार हो गया । मैं अभिनन्दन ग्रन्थ के लिये आवश्यक स्तरीय सामग्री जुटाने के कार्य में लगा रहा। अब तक मेरे पास देश के सुविख्यात विद्वानों की ओर से काफी सामग्री आ चुकी थी । यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक ही होगा कि इस सम्बन्ध में विद्वत जगत की ओर से उत्साहवर्धक सहयोग प्राप्त हुआ और कुछ वरिष्ठ विद्वानों ने तो अपनी व्यस्तता के बावजूद मेरे अनुरोध को स्वीकार कर समय सीमा के अन्दर अपने महत्वपूर्ण आलेख प्रेषित किये । प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ के खण्ड चार एवं पांच के अनुकूल अपेक्षित सामग्री प्राप्त हो चुकी थी किंतु अभी भी काफी सामग्री का संकलन/लेखन करना था । सबसे जरुरी कार्य था परम पूज्य राष्ट्रसंतश्री की जीवनी का लेखन । इसके लिये पू. मुनिराज श्री प्रीतेशचन्द्रविजयजी म.सा. से ही आग्रह किया । जीवनी की रूपरेखा को भी विचार विमर्श के उपरांत अंतिम रूप दे दिया गया । जीवनी लेखन का कार्य प्रारम्भ भी हो गया किंतु अपने व्यस्त कार्यक्रम के कारण जीवनी लेखन का कार्य पूर्ण नहीं हो सका और श्री मोहनखेडा तीर्थ से प.पू. राष्ट्रसंतश्री का विहार हो गया । इधर मार्च 1999 के प्रथम सप्ताह में पूज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी म.सा. अपने शिष्य परिवार सहित उज्जैन पधारे । आप प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रधान सम्पादक हैं । मैं प्राप्त सामग्री लेकर आपकी सेवामें पहुंचा। पू. कोंकण केसरीजी म.सा. ने मनोयोग पूर्वक प्राप्त सामग्री का अवलोकन किया और कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी दिये तथा कुछ और विषयों पर लेखों की आवश्यकता प्रतिपादित की । उनके अमूल्य सुझावों को स्वीकार करते हुए मैंने बताये विषयों पर लेख प्राप्त करने के लिये विशेषज्ञ विद्वानों से सम्पर्क कर आलेख प्राप्त किये। इतना सब होने पर ऐसा लग रहा था कि अब ग्रन्थ की सामग्री को मुद्रणार्थ दिया जाना सम्भव हो सकेगा किंतु उसी बीच प. पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि श्रीजी म.सा. आदि के वर्षावास की घोषणा राणीबेन्नूर जिला हावेरी (कर्नाटक) के लिये हो गई। इसलिये प. पू. आचार्य श्रीजी का विहार कर्नाटक की ओर हो गया । इस प्रकार दक्षिण भारत की धरा पर आपका वर्षावास होने से अभिनन्दन ग्रन्थ का कार्य भी प्रभावित हुआ । मैं अपने स्वास्थ्य के कारण राणीबेन्नूर नहीं जा सका । इस कारण अभिनन्दन ग्रन्थ का कार्य अवरूद्ध रहा । राणीबेन्नूर वर्षावास की समाप्ति के पश्चात् कार्य में पुनः तीव्रता आई । प. पू. आचार्य श्रीजी ने सं. 2057 के वर्षावास के लिये चेन्नई श्रीसंघ को स्वीकृति प्रदान कर दी और कर्नाटक तथा मार्गवर्ती ग्राम-नगरों के धार्मिक कार्य सम्पन्न कर आपने For Private & Personal use only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भार.737 दि. 7-7-2000 को चेन्नई में वर्षावास हेतु प्रवेश किया । उसी समय अभिनन्दन ग्रन्थ के कार्य को गति प्रदान की गई और एक सप्ताह के कठोर परिश्रम के बाद प्राप्त सामग्री को अंतिम रूप देकर मुद्रण के लिये सौंप दी गई । प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ को मूर्तरूप प्रदान करने में परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा., की कृपा और आशीर्वाद, प्रधान सम्पादक द्वय पूज्य मुनिराजश्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी म.सा. एवं पूज्य मुनिराजश्री ऋषभचन्द्रविजयजी म.सा. द्वारा समय समय पर दिया गया मार्गदर्शन, तथा इस ग्रन्थ के सूत्रधार स्वप्नदृष्टा गुरुभक्ति से ओतप्रोत होकर ग्रन्थ निर्माण की योजना बनाने वाले, सम्पादक पूज्य मुनिराज श्री प्रीतेशचन्द्रविजयजीजी म.सा. की लगन, निष्ठा और अध्यवसाय के साथ ही निदेशक मण्डल, परामर्श मण्डल, प्रेरक मण्डल, सम्पादक मंडल के सदस्यों प्रबन्ध सम्पादक तथा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अनेक महानुभावों का सहयोग/सहकार रहा। मैं उन सबके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूं । यदि जैन विद्या के लब्धप्रतिष्ठित विद्वानों का सहयोग नहीं मिला होता तो ग्रन्थ को इस रूप में प्रस्तत कर पाना सम्भव नहीं होता। अतः मै सभी मूर्धन्य विद्वानों के प्रति भी आभार प्रकट करता हूं । जिन गुरुभक्तों ने स्व अर्जित लक्ष्मी का सदुपयोग इस ग्रन्थ को साकार रूप प्रदान करने में किया, उनके प्रति भी आभार प्रकट करता हूं । हो सकता है, आभार प्रदर्शन की इस श्रृंखला में प्रमादवश कुछ नाम छूट गये हों । ऐसे सभी महानुभावों के प्रति भी मैं आभार प्रकट करता हूं और विश्वास करता हूं कि वे इसे अन्यथा नहीं समझेंगे । जैसा सहयोग, सहकार, अपनत्व प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ के समय मिला, विश्वास है कि भविष्य में जब भी ऐसी आवश्यकता होगी, वैसा ही स्नेहभरा सहयोग मिलेगा । इसी आशा और विश्वास के साथ - डॉ तेजसिंह गौड़ कालिदास नगर, पटेल कालोनी, अंकपात मार्ग, उज्जैन-४५६ 00६ (मप्र) E m aterinternational Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकाय.. विगत चार पाँच वर्षों से परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित कर उनके श्रीचरणों में समर्पित करने की योजना पर विचार विमर्श चल रहा था किंतु इस विचार को मूर्तरूप नहीं मिल पा रहा था । प. पू. आचार्य भगवन् के राजगढ़ (धार) वर्षावास की अवधि में इस विचार को क्रियान्वित करने का संकल्प हुआ और फिर इस दिशा में कार्य प्रारम्भ हुआ । अंततः प्रस्तुत राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन हुआ जिसकी हमें हार्दिक प्रसन्नता है । प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ के मूल में प. पू. आचार्य भगवन् का आशीर्वाद तो रहा ही जिसके परिणामस्वरूप यह ग्रन्थ अपने वर्तमान स्वरूप में प्रस्तुत किया जा सका । इसके लिये हम प. पू. आचार्य भगवन् के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं । इस अभिनन्दन ग्रन्थ को मूर्तरूप प्रदान करने में मार्गदर्शक मण्डल एवं परामर्श मण्डल का सहयोग मिला जिसके लिये भी हम उनके आभारी हैं । साथ ही ग्रन्थ के प्रधान सम्पादक द्वय पूज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी म.सा. एवं पूज्य ज्योतिष सम्राट मुनिराज श्री ऋषभचन्द्रविजयजी म.सा. विद्यार्थीने लगन एवं ग्रन्थ को आकार प्रदान किया उसके लिये पूज्य मुनिराज द्वय के प्रति भी हम हृदय से आभार प्रकट करते हैं । साथ ही हम इस ग्रन्थ के स्वप्नदृष्टा, अभिनन्दन ग्रन्थ निर्माता पू. आचार्य भगवन् के सुविनित शिष्यरत्न पूज्य मुनिराज श्री प्रीतेशचन्द्रविजयजीजी म.सा. के प्रति हृदय से आभार प्रकट करते हैं जिन्होंने ग्रन्थ को वर्तमान स्वरूप में प्रस्तुत करने के लिये प्राणपण से प्रयास एवं परिश्रम किया है । ग्रन्थ के सम्पादक मण्डल, सम्प्रेरक मण्डल एवं प्रबन्ध सम्पादक के प्रति भी आभार प्रकट करना हम अपना कर्तव्य समझते हैं । इसी अनुक्रम में अभिनन्दन ग्रन्थ के सम्पादक उज्जैन निवासी डा. तेजसिंह गौड़ के हार्दिक सक्रिय सहयोग का भी आभार व्यक्त करते हैं । डा. गौड़ ने पूर्ण निष्ठा के साथ ग्रन्थ के लिये अनुकूल सामग्री का संकलन किया और जहाँ आवश्यक हुआ वहां यथा समय पुनर्लेखन भी किया । हमारी कामना यही है कि भविष्य में भी आवश्यकतानुसार डॉ. गौड़ का इसी प्रकार का अपनत्व भरा सहयोग सतत् मिलता रहे । यदि गुरुभक्तों ने स्व अर्जित लक्ष्मी का इस कार्य हेतु सदुपयोग नहीं किया होता तो इस अभिनन्दन ग्रन्थ को इस रूप में प्रस्तुत कर पाना सम्भव नहीं होता । अतः जिन जिन गुरुभक्तों ने स्व-अर्जित लक्ष्मी का इस कार्य में सदुपयोग किया उन सबके प्रति भी आभार व्यक्त करते हैं और विश्वास है कि भविष्य में भी उनका इसी प्रकार का सहयोग मिलता रहेगा। नेहज इन्टरप्राईज प्रेस के श्री जयेशभाई के साथ ही उनके कार्यकर्ताओं को भी हृदय से धन्यवाद देते हैं जिन्होंने ग्रन्थ को पूर्ण साज सज्जा के साथ प्रस्तुत किया । अंत में हम उन सभी ज्ञात / अज्ञात सहयोगियों के प्रति भी आभार प्रकट करते हैं । अपेक्षा यही है कि सबका इसी प्रकार का सहयोग भविष्य में भी मिलता रहे। इत्यलम। सदस्यगण श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर पेढ़ी (ट्रस्ट) श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, राजगढ़, जिः धार (म. प्र.) ETEDinternational www.jainelibrary.orm Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका समर्पण.. सम्पादकीय.... संयोजक का वक्तव्य.... आभार. प्रकाशकीय... प्रथम खण्ड वन्दन भी अभिनन्दन भी 1. अनुमोदना – आचार्य श्री जिनमहोदयसागर सूरि म. 2. हार्दिक शुभेच्छा - आचार्य कलाप्रभसागर सूरि म..... 3. बागरा रा बाग रो फूल - आचार्य प्रेम सूरि म...... 4. हार्दिक प्रसन्नता – श्रमण विनयकुमार 'भीम'..... 5. शुभकामना सन्देश - आचार्य अशोकसागर म....... 6. हार्दिक अभिलाषा - आचार्य पद्मचन्द्र म... 7. अन्तर नी शुभेच्छा - आचार्य रविप्रभ सूरि म.. 8. समाज को नई चेतना कराये – गच्छाधिपति प्रद्युम्नविमल सूरि म.. 9. सरलता के जीवंत प्रतीक विजय हेमेन्द्र सूरि - प्रवर्तक रूपचन्द 'रजत'.. 10. एक आदर्श व्यक्तित्व – मुनि जयप्रभविजय 'श्रमण 11. सरलता की प्रतिमा – मुनि सौभाग्यविजय. 12. समता योगी – पंन्यास रविन्द्रविजय गणि. 13. प्रेरणा स्रोत – मुनि नरेन्द्रविजय 'नवल' .. 14. मंगल मनीषा – रमेश मुनि शास्त्री... 15. सेवाभावी, निर्लिप्त संतराज – कोंकणकेसरी मुनि लेखेन्द्रशेखरविजय, 16. क्षमावान - जयषेखरविजय.. 17. तीर्थ विकास के प्रेरक - मुनि ऋषभचंद्रविजय 'विद्यार्थी'.. 18. क्रियाषील व्यक्तित्व – मुनि जिनेन्द्रविजय.. 19. परम कृपालु – मुनि रजतचंद्रविजय.. 20. आजीवन ऋणी रहूंगा – मुनि पीयूषचंद्रविजय... Jain Ede Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21. हार्दिक शुभकामना – उपप्रवर्तक डॉ. राजेन्द्र मुनि. 22. दीर्घजीवन की कामना - उपाध्याय प्रसन्नचन्द्र विजय, मुनि प्रियंकर विजय 23. निस्पृह व्यक्तित्व – मुनि हितेशचन्द्र विजय. 24. अर्पित है जीवन जिनके श्रीचरणों में – मुनि प्रीतेशचन्द्रविजय.. 25. मेरे जीवन निर्माता गुरुदेव – मुनि चन्द्रयशविजय.. 26. सद्गुणों का अक्षय कोष – मुनि लाभेशविजय.... 27. एक चमत्कार की अनुभूति – मुनि लवकेशविजय ‘सुधाकर'... 28. गुरु कृपा बिन मुक्ति नाहि – मुनि ललितेशविजय. 29. निस्पृह व्यक्तित्व – प्रवर्तिनी साध्वी मुक्तिश्री... 30. शब्द सीमः गुण असीम – उपप्रवर्तिनी साध्वी स्वर्णप्रभा. 31. श्रद्धा के दो पुष्प - साध्वी सुधा.... -32 कसौटी पर खरे - सेवाभावी साध्वी संघवणश्री 33. आप तिरे औरन को तारे - साध्वी महेन्द्रश्री. 34. यथानाम तथागुण – साध्वी हेमप्रभाश्री. 35. विरल महापुरुष - साध्वी सिद्धान्तगुणाश्री. 36. राष्ट्रसंत शिरोमणि का अभिनन्दन हो शत शत बार - साध्वी भव्यगुणाश्री.. | 37. तप व त्याग के प्रतीक आचार्य भगवन्त - साध्वी विमलयशाश्री | 38. गुरु तेरे गुण अपार – साध्वी समकितगुणाश्री. 39. पू. गच्छाधिपति हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की जीवन झरमर – साध्वी मणिप्रभाश्री 40. महान व्यक्तित्व के धनी - श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा., - साध्वी तरुणप्रभाश्री 41. मेरे अनंत अनंत श्रद्धादीप - साध्वी कल्पदर्शिताश्री.. .............. | 42. आस्था के आयाम - साध्वी मनीषरसाश्री. 43. अनुभव की अनुभूति की एक झलक - साध्वी अनुभवद्रष्टाश्री 'गुजराती 44. जैन जगत के चमकते सूर्य - साध्वी अक्षयगुणाश्री.. 45. आप तारे हमें भी तारे - साध्वी मोक्षमालाश्री. 46. आशीष की आकांक्षा - साध्वी पुनीतप्रज्ञाश्री. 47. करुणा का स्पन्दन - साध्वी मोक्षरसाश्री....... 48. यशस्वी हो - साध्वी मोक्षयशाश्री | 49. हे गुरुवर वन्दन तुमको – साध्वी भक्तिगुणाश्री sinelibrary.org Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education temos 50. शतायु हो मानव मुनि 51. Message - H.D. Deve Gowda 52. संदेश लालकृष्ण आडवाणी. 53. संदेश डॉ. मुरली मनोहर जोशी. 54. हार्दिक शुभकानाएँ अनंतकुमार 55. Message - Ananthkumar 56. शुभकामनाएँ – डॉ. वल्लभभाई कथीरिया. 57. शुभकामनाएँ श्रीमती जयवंती मेहता, 58. संदेश सुन्दरसिंह भण्डारी.. - 59. Message-V.S. Ramadevi 60. संदेश- भैरोंसिंह शेखावत, 61. Message - Dharam Singh 62. Message - Mallikarjun Kharge - 63. Message Chandrababu Naidu 64. Message Rani Satish 65. शुभकामनाएँ डॉ. लक्ष्मीनारायण पाण्डेय. प्यारेलाल खण्डेलवाल, तेजसिंह गौड़, उज्जैन. 66. हार्दिक शुभकामनाएँ 67. अतिजात पुत्र डॉ. 68. संयम जीवन के प्रणेता 69. सरलता की प्रतिमूर्ति 70. वन्दनीय व्यक्तित्व 71. त्याग और वैराग्य की सौरभ 72. अनुकरणीय आदर्श जीवन 73. माधुर्य से ओतप्रोत व्यक्तित्व 74. तपस्या से आलोकित जीवन 75. विरल व्यक्तित्व 76. आडम्बर रहित जीवन 77. परोपकारी व्यक्तित्व 78. ज्योतिर्मय जीवन जयेश जोगाणी, नौसारी, हुक्मीचंद लालचंद, बागरेचा, राणीबेन्नूर प्रकाशचंद हिम्मतलाल, बागरा घेवरचंद माणकचंद सेठ, भीनमाल कोलचंद धर्मा जी गांधीमुथा, भीनमाल लक्ष्मीनारायण पंडित, बांसवाड़ा श्रेणिककुमार घोंचा, रतलाम मोहनलाल राठौर, झाबुआ महेश डूंगरवाल, कुक्षी लक्ष्मीचंद सुराणा, जोधपुर. अमृत बोहरा, बड़नगर. 33 ल ल ल ल ल ल ल ल ल 32 33 34 34 35 35 .36 .36 37 .37 38 38 39 39 .40 .40 .41 42 .42 43 43 .44 4 ...44 45 .45 45 .46 46 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 79. हार्दिक मंगलकामना - धर्मचन्द नागदा, खाचरोद..... 80. जनजन के प्रेरणा स्रोत – तेजराज बी. नागौरी, बीकानेर 81. श्रुत व शील सम्पन्न व्यक्तित्व – संघवी सुमेमरमल लुंकड, मुम्बई.. 82. करुणा के देवता - चम्पालाल के वर्धन, मुम्बई 83. मील का पत्थर बने - कन्हैयालाल संकलेचा, जावरा.... 84. प्रेरणा स्रोत आचार्यश्री - शांतिलाल जे. जैन, सियाणा 85. आशीर्वाद बना रहे - संघवी सांकलचंद चुन्नीलाल तांतेड़, भीनमाल. 86. सरलस्वभावी, परम उपकारी - प्रकाश कावड़िया, __87. वर्तमान गुरुदेव : एक दिव्य हस्ती – पी.सी. जैन, राजगढ़ (धार). 88. अविस्मरणीय स्मृतियाँ – रमेश रतन राजगढ़ (धार) 89. हार्दिक शुभकामना – भरतकुमार साकलचंद रायगांधी - जालोर 90. मार्गदर्शक - प्रकाश बाफना, इन्दौर.. ___91. शुभकामना – संजय छाजेड़, हिमांशु', राजगढ़ (धार).. 92. मंगलकामना - दिलीप धींग..... 93. शुभकामना संदेश – अश्विनीकुमार 'आलोक'. 94. जीवन धन्य हुआ - पारसमल बसंतीलाल रूंगरेचा, मंदसौर 95. मंगलमय शुभकामना – रवीन्द्र जैन, मालेर कोटला, (पंजाब) 96. निर्मल स्वभावी - चांदमल लूणिया 97. शुभकामना – मांगीलाल टी. जैन .... 98. जुग जुग जीवो - दिलीपकुमार प्रेमचन्दजी वेदमुथा, रेवतड़ा .. 99. दिव्य पुरुष पू. गुरुदेव श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. कोटि कोटि वंदन.. ____सदाशिवकुमार जैन, श्रीमोहनखेड़ा तीर्थ..... | 100. अभ्यर्थना - समर्थमल जैन, खाचरोद . 101.चिरजीवें गुरु महाराज हमारे - कु. सुधर्माजैन, खाचरोद 102.समर्पण - कु. सुधर्मा जैन, खाचरोद, 103.धन्य हो गये – महेन्द्र सी.कब्दी, भीमावरम. 104. वंदन है उनको – गटमल पालरेचा, राजमहेन्द्री 105. उनकी सादगी अनुपम है- नेमीचंद भण्डारी, हैदराबाद. A ntetbrary.org Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106. मन अभिभूत है - कांतिलाल कोठारी, कोयम्बटूर 107. अधूरे कार्य पूरे हुए – मांगीलाल भबूतमलजी .... 108. सबके लिये द्वार खुले हैं - विमलचंद घेवरचंद मुथा, तणुकु 109. एक अनुपम संत रत्न - महेन्द्रकुमार नरपतराजजी कोठारी, भिवंडी. 110. शुभकामना - ईष्वर भूरमलजी तांतेड़, चेन्नई 111. बहुत बड़ी उपलब्धि - मीठलाला, मदुराई, 112. सच्चे संयमाराधक - रमेषकुमार, मदुराई 113. दक्षिण भारत में धूम मचा दी - सुमेरमल कुहाड़, काकीनाड़ा. 114. मन खिल उठा - झवेरचंद मिश्रीमलजी, निदरवोलु....... 115. सतत साधना चलती है - रिखबचंद सोलंकी, विजयवाडा 116. जीवन क्षणभंगुर है - फूलचंद वेगाजी, गुंटूर. 117. मानव भव सार्थक कर लो - पुष्पराज कोठारी, विषाखापट्टनम 118. कृपा है उनकी – घेवरचंद साकलचंदजी, विषाखापट्टनम 119. बागरा ही नहीं मारवाड़ के गौरव हैं - पारसमल, विजयनगर. 120. साध पूरी हुई - गौतमचंद हस्तीमलजी, तेनाली. 121. प्रभु भक्ति बनी रहे - आचार्य नरदेवसागर सूरि. 122. सुरभित है कण कण – मेघराज जैन, इन्दौर, 123. आत्मबली गुरुदेव - फतेहलाल कोठारी, रतलाम. 124. उनका आषीर्वाद सब पर समान है - नथमल खूमाजी, बागरा, 125. दक्षिण धरा पर धूम मच गई - मांगीलाल भंडारी, हैदराबाद 126. अज्ञानांधकार को दूर करने वाले - सुमेरमल, आहोर 127. अनुपम त्याग – शांतिलाल बजावत, चेन्नई ...... 128. जन्म से नहीं कर्म से महान – पुखराज जोकमलजी वाणीगोता, चेन्नई. 129. जप साधना का अनुपम उदाहरण - ओटमल जेरूपजी, काकीनाड़ा. 130. कसौटी पर खरे - विजयकुमार गादिया, उज्जैन.. पद्य विभाग 131. पद आचार्य हेमेन्द्र – मुनि रूपचंद रजत'...... 132. शुभकामना संदेश - राष्ट्रसंत गणेश मुनि शास्त्री 133.आलोकित हृदय हृदय हो - मुनि ऋषभचन्द्रविजय 'विद्यार्थी'... Jain Educa Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134. दीपे थारुं नाम – मुनि प्रीतेषविजय.... 135. मंगलकामना - साध्वी डॉ. सुशील जैन 'शशि' 136. कोटि कोटि वंदन करें - अश्विनीकुमार 'आलोक'. 136. सन्त शिरोमणि विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी-विट्ठलदास 'निर्मोही', उज्जैन.. 137.अन्तर के उद्गार - श्री भंवर चौधरी...... 138. अभिनन्दन - सोहनलाल लहरी' खाचरोद 139. मंगल अभिनन्दन - भगवन्तराव गाजरे, निम्बाहेड़ा..... 140. पारदर्शी काव्यांजलि - छन्दराज पारदर्शी 141.श्री विजय हेमेन्द्र सूरीश्वर अष्टक - बालकवि मनुराजा प्रचंडिया 142. शीश नमाता - राजेश जैन, इन्दौर....... 143. सच्चो सुख : सन्त सेवा - विट्ठलदास 'निर्मोही' उज्जैन. द्वितीय खण्ड आस्था - अभिनन्दन 1. श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय गुर्वावली – (स्व.) मुनि देवेन्द्रविजय 'साहित्यप्रेमी 2. गुरुदेव की योग सिद्धि – (स्व.) मुनिराज श्री हर्षविजयजी 3. सौधर्म बृहत्तपागच्छीय आचार्य परम्परा – मुनि ऋषभचन्द्रविजय 'विद्यार्थी' 4. आचार्य श्री विद्याचन्द्रसूरिजी विरचित काव्य साहित्य के सांस्कृतिक अध्ययन की आवश्यकता पंन्यास रवीन्द्रविजय गणि. 5. तपस्वीरत्न मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. - राष्ट्रसंत आचार्य विजय हेमेन्द्र सूरि... 6. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा., संक्षिप्त जीवन परिचय मुनि प्रीतेशचन्द्रविजय, मुनि चन्द्रयषविजय....... 7. मुनि श्री प्रीतेषचंद्रविजय – मुनि चन्द्रयषविजय .. 8. गुण तेरे अपार कैसे गायूँ मैं - साध्वी रत्नरेखाश्री 9. जिन शासन के चमकते सितारे - साध्वी शीतलगुणाश्री 'स्नेही' 10. निष्काम आराधक - भवंरसिंह पवार, राजगढ़. 11. निष्कपटता : श्रेष्ठता का प्रतीक – कस्तूरचंद चौपड़ा ... 12. AProtrait of a great Saint - M.L. Punmia 13. आचार्य श्री हेमेन्द्र सूरि: दक्षिण भारते में - शा. घेवरचंद भण्डारी, सियाणा (चेन्नई)... 14. ज्यों की त्यों घर दीनी चदरिया – नरेन्द्रकुमार रायचंद, बागरा. ..........25 wnlialerary.org Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - N N N N W 14. आचार्य श्री के आहोर में हुए कार्यों का स्मरण एवं कुछ ऐतिहासिक बातें-मुथा शांतिलाल, आहोर....76 15. मार्गदर्शन मिलता रहे - समस्त ट्रस्टी, श्री मोहनखेड़ा तीर्थ. तृतीय खण्ड चिंतन के आलोक में प्रवचन कणिकाएँ 1. जीवन श्रेष्ठ बनाने का उपाय, 2. परहित की सोचें 3. धर्म के स्थायित्व के लिये. 4. धर्म सबका है 5. क्लेश का कारण 6. श्रद्धा का पात्र बनने का उपाय......... 7. सच्चा ध्यान 8. संयम की आवश्यकता.. 9. युवावर्ग और धर्म. 10. रागद्वेष का त्याग करें.. 11. आकुल मत बनो... 12. माता 13. क्रोध का त्याग करें.. 14. मायाचार पतन का मार्ग. 15. माता-पिता की सेवा... 16. जीवन की क्षणभंगुरता 17. मन को पवित्र रखें 18. वैभव से आत्म कल्याण नहीं. 19. ईश्वर को दोष मत दो........ 20. सामर्थ्यानुसार तप करो...... 21. मौन. 22. मृत्यु. 23. विनय.. 24. वाणी. NNNo जज Jain Eramioterment Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25. दया 26. विनय 27. परोपकार 28. वाणी विवेक 29. सुख - दुःख.. 30. परिग्रह से बचो.. 31. आत्म-निरीक्षण. 32. माताओं से. 33. पर्यावरण की रक्षा करें. 34. व्यसन से बचें. 35. रात्रि भोजन का त्याग करें.. 36. युवकों से 1. ईमानदारी 2. गुरु की शिक्षा 3. फूलों की मुस्कान. 4. पीपल का भूत 5. करनी का फल. 6. पश्चाताप 7. लालच का फल 8. भाग्य का चक्कर 9. पुण्य का खेल. 10. चोरी की आदत. 11. चतुर राहगीर ब्राह्मण 12. ईमानदार सेठ. 13. सच्चा अपराध 14. मेहनती किसान. 15. लोभ का परिणाम. 16. पटेल की घोषणा श्रद्धेय आचार्य श्री द्वारा रचित कथा साहित्य 10 11 12 121 13 14 15 15 16 17 17 18 19 20 21 23 .24 .26 .27 .28 29 .31 33 .33 .35 .36 38 39 wwwbrary.org Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. परिवर्तन. 18. लकड़हारा और राजा.......... 19. लालची साधु 20. दो साधु 21. भाग्य का खेल. 22. सेठ की चतुराई. 23. बुद्धि का महत्व. 24. सुख का मंत्र ... 25. दौलत का सदुपयोग... 26. सच्चा उपदेश..... 27. समाधि भाव की महत्ता 28. ज्ञान की अमर ज्योति 29. बुद्धि बिकाऊ है.. 30. वचन का पालन. 31. साधु की चार शिक्षाएं. 32. परिश्रम का फल .. 33. कुसंगति का प्रभाव 34. सेठ रोशनलाल 35. मुखिया का न्याय. 36. धर्मात्मा सेठ ... 37. संत की सीख चतुर्थ खण्ड जैनधर्म एवं दर्शन 1. मूर्ति पूजा की सार्थकता – ज्योतिषाचार्य मुनि जयप्रभविजय 'श्रमण 2. मन्दिर जाने से पहले – मुनि नरेन्द्रविजय 'नवल', शास्त्री 3. भारतीय दर्शनों की मान्यतायें – मुनि लेखेन्द्रशेखरविजय, 4. कर्म अस्तित्व के मूलाधारः पूर्वजन्म और पुनर्जन्म – आचार्य देवेन्द्रमुनि म. 5. धर्म और जीवन मूल्य – पं. रत्न मुनि नेमिचन्द्र ... स्याद्वाद सिद्धान्तः एक विश्लेषण – रमेशमुनि शास्त्री Jain EditioRinternmocral Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. अहिंसा दर्शनः जीवन का निदर्शन - दिनेश मुनि.... 8. आत्मावलम्बन के लिए जिन बिम्ब श्रेष्ठ आधार हैं - जैन विशारद मुनि जिनेन्द्र विजय 'जलज'....... 9. जिन शासन में जयणा का महत्व - साध्वी मणिप्रभाश्री. 10. गहनों कर्मणों गति - साध्वी तत्त्वलोचनाश्री.. 11. जैनधर्म में अभिव्यक्त हिंसा, अहिंसा - श्रीमती अर्चना प्रचण्डिया.... 12. विश्वधर्म के रूप में जैनधर्म - दर्शन की प्रासंगिकता - राजीव प्रचण्डिया. 13. पार्खापत्य कथानकों के आधार पर भ. पार्श्वनाथ के उपदेश - नन्दलाल जैन .. 14. महावीर की देशना और निहितार्थ - डॉ. सुनीताकुमारी.. 15. जैन दर्शन के अनुसार आचार का स्वरूप - डॉ. वसुन्धरा शुक्ला . 16. विश्व की वर्तमान समस्यायें और जैन सिद्धान्त – डॉ. विनोदकुमार तिवारी... 17. ज्ञान की आराधना कीजिये - किशोरचन्द एम. वर्धन... 18. जैन परम्परा में उपवासों का वैज्ञानिक महत्व - डॉ. स्नेहरानी जैन 19. सम्यगदर्शन के दो रूप - व्यवहार और निश्चय - अशोक मुनि..... 20. ज्ञानवाद और प्रमाण शास्त्र - सुभाष मुनि 'सुमन' 21. पाप और पुण्य - हुकमचंद एल. बाघरेचा पंचम खण्ड जैन इतिहास, कला, साहित्य एवं संस्कृति 1. विशिष्ट योग विद्या – स्व. मुनि श्री देवेन्द्रविजयजी म.सा. 2. भारतीय ज्योतिष में जैन मुनियों का योगदान – ज्योतिषाचार्य मुनिजयप्रभविजय 'श्रमण' .. 3. वन्दनीय कौन हैं ? - मुनि पुष्पेन्द्रविजय...... 4. श्री मोहनखेड़ा तीर्थ : संक्षिप्त इतिहास – मुनि पीयूषचन्द्रविजय....... 5. निस्पृह संत का राजनीतिक अवदान – मुनि विमल सागर...... 6. संलेखना : जैन दृष्टि में - साध्वी स्मृति, एम. ए. ......... 7. मांडव में जैन धर्म - डॉ. श्यामसुन्दर निगम, डॉ. प्रकाशचन्द्र जैन 8. दान : रूप और स्वरूप - विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्रसागर प्रचण्डिया 9. स्वप्न : एक चिन्तन - डॉ. कालिदास जोशी..... 10. जैन कला के विविध आयाम - प्रोफेसर एस. जी. शुक्ल... 11. उत्तम आहार - शाकाहार - श्रीमती रंजना प्रचंडिया 'सोमेन्द्र' 12. प्राकृत-अपभ्रंश साहित्य में प्रयुक्त संज्ञाओं की व्युत्पत्ति - डॉ. धन्नालाल जैन..... 13. व्यसन् और संस्कार - डॉ. रज्जनकुमार .... (PARNWAPorary.org Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Bon International 14. महामंत्र णमोकार जशकरण डागा. 15. पोरवाल जाति का संक्षिप्त इतिहास 16. णमोकार महामंत्र और उसकी उपादेयता 17. दृष्टि करो अपने जीवन पर साध्वी मोक्षरसाश्री. 18. जालोर जिले के जैन तीर्थ – मुनि लाभेशविजय 'राजहंस'. 19. जीवन में दान का महत्व साध्वी पुष्पा श्री. 20. दलित उत्थान में जैन समाज का योगदान डॉ. ए.बी. शिवाजी. 21. राग से वीतराग की ओर साध्वी अनंतगुणाश्री. 22. साधु पद का महत्व साध्वी मोक्षमाला श्री. 23. जैन साहित्य में द्वारिका डॉ. तेजसिंह गौड 24. जैनपर्वः प्रयोग और प्रासंगिकता श्रीमती डॉ. अलका प्रचंडिया. 25. जैन एवं बौद्ध वाङ्मय में वर्णित कुरुक्षेत्र - डॉ. धर्मचन्द्र जैन...... 26. प्राचीन पंजाब का जैन पुरातत्व - पुरुषोत्तम जैन - रवीन्द्र जैन. 27. अद्भुत समाधि साधना साध्वी मणिप्रभाश्री. 28. विहार से लाभ साध्वी मोक्षयशाश्री 29. संयम जीवन का सुख 30. क्षमा मेरी है साध्वी क्षमाशीलाश्री, मुनि चन्द्रयशविजय. डॉ. संजीव प्रचंडिया 'सोमेन्द्र' साध्वी पुनीतप्रज्ञा श्री. — 31. धर्म और जीवन मूल्य - भगवन्तराव गाजरे. 32. मालव तीर्थ मोहनखेड़ा (पद्य) 33. अखण्ड णमोकार गीत (पद्य) दिलीप धींग. 34. पोरवालजाति और उसकी विभूतियां 35. कष्टों एवं विषमताओं की औषधि 36. शान्ति साध्वी महेन्द्रश्री. 37. अपरिग्रह एक मौलिक चिंतन है - फतेहलाल कोठारी 38. जैन तीर्थ मुहारीपास मुथा घेवरचंद हिम्मतलालजी 39. बागरा नगरः इतिहास के आलोक में पुखराज भण्डारी सोहनलाल 'लहरी' स्व. मनोहरलाल पोरवाल स्व. मनोहरलाल पोरवाल प्र. अशोक सेठिया. समता साध्वी किरणप्रभाश्री आंग्ल विभाग 1. Temple of a Jain Goddess - Dr. Dharamsingh 2. Environment & Jain Vision - Dr. Shekharchandra Jain 3. Jaina Temples of the pratihare Period - Dr. Brajesh Krishna 982288 49 66 .70 .72 .73 .80 85 87 90 95 100 106 112 114 115 116 117 118 119 120 122 125 126 128 129 131 ---- 133 140 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ocedieron अभिनन्दन ग्रन्थ बिभाग यह तन विष की वेलड़ी, गुरु अमृत की खान । शिष कटाये जी गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ]] Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ luc i onal For Private & Personal use only www.janaborg Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत के झरोंखों में थराद चातुर्मास के दौरान प. पू. यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. श्री हर्षविजयजी एवं ग्रंथ नायक व मुनि मंडल (१९५४) 44 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भांडवपुर गुरु सप्तमी पर श्री विद्याचन्द्रसरिजी के साथ वर्तमानाचार्य श्री हेमेन्द्रसूरीश्वरजी (१९७७) मारवाड विहार के लिए पूज्यश्री के बढ़ते कदम... पारलु प्रवेश की एक यादगार झलक (१९७०) पारलु के लिए विहार में पूज्यश्री एवं ग्रंथनायक (१९७०) बडी दीक्षा के अवसर पर पूज्यश्री के साथ ग्रंथनायक व मुनिगण (१९७०) Jair Bucation International Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीते क्षण जब याद जब याद आते हैं... चित्र देख हम तब हुर्षात मेंगलवा (राज.)में प्रतिष्ठा महोत्सव में अंजनशलाका विधि पूर्ण कर आते हुए गणाधीश पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के साथ वर्तमानाचार्य पू.आ.दे. श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. www.jaimellorans, org Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीता हुआ कल... जो आज बन गएसनहरेपल www.jainelibrary.or श्री मोहनखेड़ा तीर्थ प्रतिष्ठा के शुभअवसर पर उपस्थित पू. आचार्य श्री ग्रंथनायक श्री व मुनि मण्डल (१९७८) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीता हुआ कल... जो आज बन गएसुनहरेपल - पू. श्री यतीन्द्रसूरि समाधि मंदिर में आचार्यदेव श्रीमद् विद्याचन्द्रसूरिजी एवं वर्तमानाचार्य श्रीमद हेमेन्द्रसूरिजी म.सा. (१९६५) पू. श्री यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के अन्तिम समय में उपस्थित मुनि मण्डल साथ ही ग्रंथनायक श्री पू.आ.श्री विद्याचन्द्रसूरिजी म. के साथ में वरिष्ठ मुनिप्रवर श्री हेमेन्द्रविजयजी (ग्रंथनायक) एवं अन्य मुनिगण (१९७२) राजगढ़ ओली आराधना के दौरान ग्रंथनायक एवं मुनिगण (१९७७) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KAHANI PARYAN बीता हुआ कल... जो आज बन गएसुनहरेपल 59-200Pada Bo90) GIFOOD YADHEPREMIERRORISERV TISUAJSHTANTRAT त SETTE ANDED DO पू. श्री विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. एवं वर्तमानाचार्य श्री हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. एवं मुनि मंडल (१९७२) थराद चातुर्मास में पू. श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी म. ग्रंथनायक-एवं मुनि मण्डल विचारविमर्श करते हुए (१९७२) प.पू.श्री विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. को चातुर्मास हेतु विनंती करते श्रेष्ठिवर्य बायी ओर हेमेन्द्र सू.म., पीछे जयप्रभ वि.म. (१९७८) के.एम. वर्धन पू. आचार्यश्री को कांबली बोहराते हुए। पास हैं वर्तमानाचार्य श्री पू.आ.वे श्री विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. को कांबली बोहराते हुए सेठ श्री घमण्डीरामजी गोवाणी साथ ग्रंथनायक श्री (१९७८) मोहनखेड़ा वरघोड़ा के दौरान एक अनोखा चित्र Saan education iterational HA CARDamanelterespongs Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ अनुमोदना खतरगच्छाधिपति आचार्य जिनमहोदयसागर सूरि म. चोहटन (राज.) स्वाध्याय के क्षणों में जब मन की एकाग्रता रहती है । तब चंचल मन में कई प्रकार के चिन्तन मनन की लहरें हिलोरें लेती हैं । एक बार चिन्तन चला कि इस अवसर्पिणी काल के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी को केवलज्ञान प्राप्त किए 2524 वर्ष पूरे हो गए हैं। वर्तमान समय में भी महावीर व उसके मौलिक सिद्धान्त की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है । भौतिक युग में वैज्ञानिक प्रगति निरन्तर उच्च शिखर की ओर अग्रसर हो रही है । इसकी प्रगति के आलम्बन पर हम दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि महावीर के सिद्धान्त को आधार मानकर अपना प्रभुत्त्व जन मानस पर बना रहा हैं । पर एक दीर्घ समय के बाद भी वैज्ञानिकों को महावीर के सिद्धान्त कैसे मिल गए । कुछ क्षण मनन मंथन किया तो मालूम पड़ा कि महावीर के सिद्धान्त का अस्तित्व ज्यों का त्यों रखने के लिए इस संसार में अनेक दिव्य चेतना का पदार्पण हुआ । उस दिव्य चेतना में अवश्य ही भगवान महावीर के परमाणु विद्यमान थे । गणधर गौतम, जम्बूस्वामी, सुधर्मास्वामी, आचार्य, मानतुंग, हेमचन्द्राचार्य, हरिभद्रसूरि नवअंगी टीकाकार अभयदेव सूरि, श्रीमद् राजेन्द्रसूरि इसी कड़ी में अनेक धर्माचार्यों ने समर्पण भाव से अपना सब कुछ जिन शासन की प्रभावना के लिए अर्पण कर अपूर्व सेवा की । सिद्धान्तों को लिपिबद्ध किया । उसी श्रृंखला में परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. ने पंचम काल के अज्ञानियों को बोधि ज्ञान देते हुए कई प्रकार की धर्माराधना, प्रतिष्ठायें, उपधान, तप, संघ प्रव्रज्यायें मानव मात्र के कल्याणकारी कई प्रकार की धर्म आराधना की प्रभावना करते हुए दीर्घ 62 वर्ष के आयुष्य में उत्कृष्ट 63 वर्ष की संयम साधना की यात्रा कर जिन शासन में एक कीर्तिमान स्थापित किया है । आप के द्वारा की गई धर्म प्रभावना आने वाले समय में सभी जन मानस के लिए आत्मा से परमात्मा पद देने वाली बने । जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरकजयंती की मैं भूरि भूरि अनुमोदना करता हूं । हार्दिक शुभेच्छा आचार्य कलाप्रभसागर सूरि सरल मन के धनी, सुविशुद्ध संयमी जैनाचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरिजी म.सा. के संयमी जीवन की अनुमोदनार्थ अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित करने जा रहे हैं । सो जानकर प्रसन्नता हुई । पूज्यश्री ने संयम जीवन के 59 वर्ष में अपने उत्तम चारित्र जीवन के साथ जैन शासन की अनेकविध शासन प्रभावनाएं की हैं । जैनाचार्य एवं गच्छाधिपति पद से विभूषित होने के बाद सविशेष जैन शासन एवं त्रिस्तुतिक गच्छ की उन्नति में आपका सविशेष योगदान हैं । आप दीर्घायु बनकर स्व-पर अनेक के मोक्षपथ प्रदायक इन्हीं यही हार्दिक शुभेच्छाओं सह अभिनंदन । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 1 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ बागरा रा बाग से फूल परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर श्री अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन के स्वर्णिम अवसर पर हमारी ओर से भूरि भूरि अनुमोदना । जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जन्म अमृत सा बना दिया, सचमुच ही कमल जैसे कोमल स्वभावी, शांतता प्रशांतता की सरिता देखनी हो तो जाओ आचार्य श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी के चरणों में । इस कलियुग में कपटी, क्रोधी, लोभी आदमी हर जगह मिलेंगे । ऐसे में भला कौन बचा होगा? हां... जरुर से एक आत्मा जिसे चौथे आरे का आत्मा कहा जा सकता है, वह है आचार्य श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. । न उनमें क्रोध मिलता है, न कपट मिलता है और न राग-द्वेष ही दिखाई देता है । अगर उनमें कुछ मिलता है तो वह है गुणों का लहराता सागर । हर पल प्रसन्न चेहरा देखते ही मन मोह लेता है । ऐसे गुरुवर के दर्शन पाने से सारे दुःखदर्द समाप्त हो जाते हैं । मिट जाते हैं । आचार्य प्रेमसूरि म. पन्यास रत्नशेखरविजय पन्यास हेमचन्द्रविजय बागरा नगर का पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान पवित्र पुत्र पूनमचंद जो जिनशासन में हेमवत स्वर्ण के समान चमकता दमकता जैनधर्म की शासन पताका को फहराता हुआ देश में यत्र तत्र विचरण कर रहा है और जिसने अनेक हीरे पैदा किये हैं । ऐसे गुरुवर का मनाया जा रहा हैं जन्म अमृत महोत्सव और दीक्षा हीरक जयंती महोत्सव । उसके लिये सभी अभिनन्दन के पात्र हैं । यही हार्दिक मंगलमनीषा है कि वे सुदीर्घ काल तक स्वस्थ रहते हुए जिनशासन की प्रभावना करते रहें । जो अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित किया जा रहा है, वह कार्य प्रशंसनीय एवं सराहनीय है । इससे बागरा रा बाग रा फूल की महक सम्पूर्ण भारत में महक उठेगी । Education International हार्दिक प्रसन्नता श्रमण श्री विनयकुमार 'भीम' I राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर उनके पावन श्रीचरणों में एक अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित कर समर्पित किया जा रहा है, यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई । मैं अभिनन्दन ग्रन्थ के लिये अपनी हार्दिक शुभकामनाएं प्रेषित करता हूं । यह ग्रन्थ अपनी अलौकिक प्रतिभा फैलाये । आचार्यदेव के पावन उपदेश पवित्र मार्ग जन जन तक पहुंचाएं। विशाल और विराट यह अभिनन्दन ग्रन्थ लोकप्रिय बने यही भव्य भावना है । सम्पादक मुनि श्री प्रीतेशचन्द्र विजय एवं आप बधाई के पात्र हैं । आपका यह कार्य चहुंमुखी विकास करें । (श्रमण संघीय स्व. युवाचार्य श्रीमधुकर मुनिजी म. के सुशिष्य ।) हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 2 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ शुभकामना संदेश आचार्य अशोकसागरसूरि म. आपश्री दीर्घायु हों और आपश्री की पावन निश्रा में शासन प्रभावना का कार्य अविरत चलता रहे । तमिलनाडु की धरा पर आपका वर्षावास तप आराधनापूर्वक चल रहा होगा | आपके जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर प्रकाशित होने वाले अभिनन्दन ग्रन्थ के लिये हमारी ओर से हार्दिक शुभकामना स्वीकार करें । +हार्दिक अभिलाषा आचार्य पद्मचन्द्रसूरि म. त्रिस्तुतिक मत के वरिष्ठ गच्छाधिपति शिरोमणि आचार्य श्रीमद विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. का जन्म महोत्सव तथा हीरक दीक्षा महोत्सव के उपलक्ष में अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन कर रहे हैं, वह एक अनुमोदनीय कार्य सुयोग्य व्यक्ति का योग्य मान होना ही चाहिए । इससे शासन की शोभा में अभिवद्धि होती है । आपका कार्य सफल हो, यही हार्दिक अभिलाषा। धर्मस्नेह रखें, सभी को धर्मलाभ । अंतर नी शुभेच्छा आचार्य श्री रविप्रभसूरि म. आचार्य श्री मल्लिसेनसूरि म. उपन्यास वजसेनविजय आचार्य महाराज श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ना संयम जीवन नी अनुमोदनार्थे अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित थई रहयो छे ते जाण्यु। परमात्मानुं साधुपणुं केq उत्तम छे ते साथे आपणा जैन धर्मनां सिद्धांतों ने आवरी लेतो आ ग्रंथ आराधक साधक पुण्यात्माओने प्रेरणानु पाथेय बने अने एक मात्र मुक्ति मार्गनो साचो राजबर बनी रहे तेवी अंतरनी शुभेच्छा । समाज को नई चेतना कराये गच्छाधिपति प्रद्युम्नविमलसूरि म. महापुरुषों का जीवन यानि जगत की व्यक्तित्वोन जीवंत प्रेरणा । महापुरुषों का जीवंत सान्निध्य अर्थात् परम उपकारक व्यक्तित्व की शानदार उपस्थिति । भावनीय महान व्यक्तिवों सामीप्य अर्थात जीवन की चेतनाओं जानदार आविभवि । पूजनीय महापुरुष की जीवंत प्रेरणा समान यह अभिनंदन ग्रंथ सर्व मानव समाज को नई चेतना नई क्रांति, जीवन सफलता प्राप्त कराये यही अभ्यर्थना । पूज्य श्री के चरणारविंद में मेरा भावपूर्ण वंदन । हेमेन्द ज्योति हेमेन्य ज्योति 3हेमेन्द ज्योति हेमेन्द ज्योति Camera Educatio Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सरलता के जीवंत प्रतीक विजय हेमेन्द्रसूरि -लोकमान्य संत प्रवर्तक रूपचन्द म. रजत' इस विश्व वाटिका में अनेक जीवन पुष्प खिलते हैं, और काल के विकराल थपेड़े खाकर फिर मुरझा जाते हैं। जो फूल जन हित और जन कल्याण की सुवास फैला जाते हैं, वे अपने शाश्वत स्वरूप को धारण कर लेते हैं । फूल मुरझा जाता है किन्तु सुगंध कभी नहीं मिटती हैं । ठीक उसी तरह व्यक्ति चला जाता है, किन्तु व्यक्तित्व सदैव विद्यमान रहता है । इसी सत्य के मूर्तिमंत प्रतीक है आचार्य विजय हेमेन्द्र सूरीश्वर जी महाराज । आचार्य प्रवर का जन्म अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है, यह सम्मान उनकी साधना, तपस्या एवं जनचेतना जागरण के लिये किये गये उन संकल्प का अभिनंदन है । आप आचार्य प्रवर श्रीमद राजेन्द्र सूरीश्वर जी म. के श्रमण संघ आकाश के ज्योतिर्मय नक्षत्र है । शांत दांत संयम निष्ठ गुणों के कारण आपकी व्यक्तित्व प्रतिभा लोक वंदित पूजित अर्चित एवं चर्चित है । आचार्य प्रवर के जीवन का एक विमल पक्ष यह भी है कि वे संप्रदाय की संकीर्ण परिधियों से मुक्त होकर समग्र मानवता के लिये अपने चिंतन को समर्पित किये हुए हैं । आपका महनीय व्यक्तित्व जिन देशना में कथित इस गाथा का जीवन्त उदाहरण है - चन्तारि पुरिस जाया पष्णता – तंजहा आयाणु कंपरणाम मेगे, णो पराणु कंपह, पराणु कंपए पराणु कंपए णाम भेगेण आयाणु कंपए एगे आयाणे कपए वि, एकिणे आयाणु कंपए णो पराणु कंपए । कई पुरुष अपनी आत्मा पर ही दया अर्थात अपनी सुरक्षा सुख सुविधा का ध्यान रखते हैं जैसे चोर लुटेरे । कई पुरुष दूसरों के प्रति अनुकंपा पूर्ण होते हैं और अपनी आत्मा के प्रति कठोर होते हैं, जैसे मैतार्य मुनि । कई पुरूष स्व और पर के कल्याण में सहाय भूत होते हैं ऐसे पुरुष महापुरुष की श्रेणी में आते हैं । इसके उदाहरण श्रमण महान होते हैं और अधम कोटि के अर्न्तगत वे व्यक्ति परिगणित होते हैं जो न अपने प्रति अनुकंपाशील होते हैं और न पर जीवों के प्रति उनके मन में करुणा का निर्झर बहता हैं । आचार्य प्रवर श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी का व्यक्तित्व आगम ज्ञान के दर्पण में स्व-पर के प्रति करुणाशील कोटि में आता है । आप वय दीक्षा और श्रुत की दृष्टि से स्थविरकल्पी साधक है । आपके इस दीर्घ ज्ञानानुभव एवं साधना का सम्मान कर कृतज्ञ श्रद्धालुजन एक सार्थक यज्ञ कर रहे हैं । मैं अपनी अनंत सद्भावना के साथ पूज्य आचार्य प्रवर के उच्च आदर्श मूलक जीवन की वर्धापना करता हूं। एक आदर्श व्यक्तित्व ज्योतिषाचार्य मालवरत्न मुनि जयप्रभविजय 'श्रमण परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पति, साहित्याचार्य आगम दिवाकर जैनाचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का बागरा नगर पर विशेष स्नेह और आशीर्वाद था । इसका कारण भी यह रहा है कि बागरा श्री संघ प्रारंभ से ही त्रिस्तुतिक मान्यता का अनुयायी रहा । बागरा में जैन धर्म की अच्छी प्रभावना होती रही एवं वर्तमान में भी आज तक हो रही हैं । हमारे वर्तमान राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की जन्मभूमि भी बागरा ही है । बागरा में जैन धर्म का विकास विषय पर एक पुस्तक तैयार हो सकती है । इस ओर अभी तक किसी ने प्रयास नहीं किया, किंतु प्रयास किया जाना आवश्यक है । वैसे यह उल्लेख करना प्रासांगिक ही होगा कि बागरा में अनेक विद्वान हुए है, अभी भी हैं और अनेक भव्य हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति4हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जीवों ने वीतराग प्ररूपित मार्ग अपनाया है, जिन्होंने बागरा का नाम उज्ज्वल ही किया है । प्रातः स्मरणीय विश्ववंद्य अभिधान राजेन्द्र कोश के रचयिता, सौधर्मवृहत्तपागच्छ नभोमणि तीर्थराज मोहनखेड़ा संस्थापक भट्टारक परम पूज्य प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के पंचम पट्टधर आचार्यदेव कविरत्न शासन प्रभावक श्रीमद्विजय विद्याचंद्र सूरीश्वरजी महाराज के सन् 1980 में देवलोक गमन के पश्चात् तत्काल आचार्य पद पर किसी को प्रतिष्ठित करने का निर्णय नहीं हो पाया । श्रीसंघ का कार्य किसी न किसी एक आचार्य अथवा मुनिराज के मार्ग दर्शन में चलता है । इस दृष्टि से उस समय श्रीसंघ ने वरिष्ठतम मुनिराज हेमेन्द्र विजयजी महाराज को गणाधीश मनोनीत करते हुए उनके मार्गदर्शन में कार्य करना सुनिश्चित किया । समय व्यतीत होता गया और पूज्य गणाधीश मुनिराज श्री हेमेन्द्र विजयजी ने अपनी निष्पक्ष कार्यशैली, सरल हृदय, शांतस्वभाव, निरभिमानता, समता व मिलनसारिता जैसे गुणों से सब पर एक अमिट छाप छोड़ी । आप एक आदर्श व्यक्तित्व के रूप में सबके सामने आये । लगभग तीन वर्षों का समय व्यतीत होने आया फिर भी आचार्य पद पर किसे प्रतिष्ठित किया जाय? यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहा । अंततः श्री संघ ने पूज्य गणाधीश मुनिराज श्री हेमेन्द्र विजयजी का नाम पाटगादी के नगर आहोर में त्रिस्तुतिक चतुर्विध श्रीसंघ ने एकत्र होकर सं 2040 पौष सुदि 7 को आहोर में आचार्य पद देने का निर्णय लिया और संवत 2040 माघ सुदि 9 को हजारों मानव संघ की उपस्थिति में आचार्य पद पर स्थापित कर आचार्य श्री हेमेन्द्र सूरीश्वर नाम घोषित किया । गणाधीश व आचार्य के रूप में अभी तक जितना समय व्यतीत हुआ, उसमें श्रीसंघ आशातीत धर्माराधनाएं प्रतिष्ठायें, संघयात्रायें, दीक्षा आदि सम्पन्न हुई । आप श्री के मार्गदर्शन में श्री मोहनखेड़ा तीर्थ का भी विकास तीव्रगति से हुआ है और अभी भी हो रहा है । मानव सेवा की दृष्टि से जीवदया दृष्टि से भी आपश्री के मार्गदर्शन में उल्लेखनीय कार्य हुए हैं और हो रहे हैं । आपश्री के जन्म अमृत महोत्सव तथा दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर एक अभिनंदन ग्रंथ के प्रकाशन की योजना का मैं अनुमोदन करता हूं तथा इसकी सफलता के लिए हार्दिक शुभकामना के साथ परम पूज्य आचार्य श्री के सुदीर्घ जीवन की हार्दिक शुभकामना प्रेषित कर रहा हूं । शुभम् ।। सरलता की प्रतिमा मुनि सौभाग्यविजय सरलता, सहजता, समता, दया और क्षमा की साक्षात् प्रतिमा प.पू.कविरत्न आचार्य श्रीमदविजय विद्याचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. के पट्टधर पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर उनके सुस्वस्थ एवं दीर्घायु जीवन की हार्दिक कामना करते हुए इस अवसर पर प्रकाश्यमान अभिनंदन ग्रंथ की सपफलता की कामना है। इस अवसर पर पू. राष्ट्रसंतश्री के चरणों में कोटि कोटि वंदन। 4 समता योगी पंन्यास रवीन्द्रविजय गणि वर्षों से प.पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. का पावन सान्निध्य संप्राप्त है। प.पू.गुरुदेव कविरत्न आचार्य श्रीमद्विजय विद्याचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. के पट्टधर के रूप में संघ और समाज को समान दृष्टि से अपना समान मार्गदर्शन प्रान कर रहे हैं। यदि आपको एक समतायोगी की संज्ञा दी जावे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। कारण कि आप हर परिस्थिति में समताधारण किये रहते हैं। किसी भी क्षण आपमें किसी हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 5 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Thtm NEE Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन थ भी प्रकार का कोई परिवर्तन देखने को नहीं मिलता है। आपकी दीक्षा हीरक जयंती और जन्म अमृत महोत्सव के अवसर पर प्रकाश्यमान अभिनंदन ग्रन्थ की सफलता की कामना के साथ ही आपके सुस्वस्थ एवं दीर्घायु जीवन की कामना करते हुए आपके चरणों में कोट-कोट वंदन। 4 प्रेरणास्रोत -मुनि नरेन्द्रविजय नवल प.पू. कविरत्न आचार्य श्रीमद्विजय विद्याचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. के पट्टधर पूराष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के जीवन का दृष्टिपात करें तो हम पाते हैं कि वहां कभी प्रमाद नहीं पाया जाता है। वे अपना कर्म स्वयं ही करते हैं। उनकी धर्म-साधना भी निरंतर चलती रहती है। आयु के इस पड़ाव में भी शिथिलता को कोई स्थान नहीं है। उनका समग्र जीवन हमारे लिए प्रेरणास्रोत है। पू.आचार्यश्री की दीक्षा हीरक जयंती एवं जन्म अमृत महोत्सव के अवसर पर उनके चरणों में कोटि कोटि वंदन करते हुए उनके सुदीर्घ एवं सुस्वस्थ जीवन की हार्दिक मंगल कामना है। 4 मंगल मनीषा -उपाध्याय रमेशमुनि शास्त्री यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव हुआ कि पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमदविजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के पावन अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन हो रहा है । पू. आचार्य श्री के गुण सम्पन्न व्यक्तित्व एवं संयमावधि को देखते हुए ऐसा करना स्वाभाविक ही है । मैं आपके इस आयोजन की सफलता की हृदय से कामना करता हूं और पू. आचार्य श्री के स्वस्थ एवं सुदीर्घ जीवन के लिये अपनी मंगल मनीषा प्रेषित करता हूं। (प. पू. अध्यात्मयोगी साधना के शिखर पुरुष उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. के सुशिष्य ।) सेवाभावी, निर्लिप्त संतराज - कोंकण केसरी मुनि लेखेन्द्रशेखर विजय भारतीय संस्कृति में संतों का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । इसका कारण यह है कि संतों के हृदय-स्रोत से सत्य, अहिंसा, संयम और तप के ऐसे निर्झर हैं जिनसे सदैव सत, पथगामिनी नदियां निरन्तर प्रवाहित होती है । ये सदैव मानव-मात्र ही नहीं प्राणिमात्र के लिये प्रयासरत रहते हैं । संत एवं संतवाणी संसारीयात्री के लिए एक नौका के समान है । संत सदैव सद्गुणों के बीजों का वपन करते है जिससे मानव सुख-शांति और आनन्द का दिव्य फल प्राप्त करते हैं । सेवा को जिन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया, बालकों में सुसंस्कार वपन करने का जिसने संकल्प लिया और आज भी उस संकल्प का पालन कर रहे हैं, ऐसे विरल सेवाभावी सरल स्वभावी, शांतहृदयी मौनसाधक, निरभिमानी, निर्लिप्त एवं सदैव सतत जाप साधना में रत रहने वाले परम श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर उनके सुदीर्घ स्वस्थ जीवन की हार्दिक शुभकामना करते हुए उनके चरणों में कोटि कोटि वंदन करता हूँ । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 6 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति rainelibrary Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ क्षमावान -मुनि जयशेखरविजय प.पूराष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. सरलता एवं सहजता की साक्षात प्रतिमा हैं। क्रोध तो आपके पास फटकता भी नहीं है। आपका स्वभाव सबके लिए प्रेरणास्रोत है। यदि किसी से जाने-अनजाने में कोई गलती भी हो जाती है तो आप उसे सहज ही कह देते हैं 'आगे ध्यान रखना' । इससे आप साक्षात क्षमावतार ही प्रमाणित हुए हैं। आपकी दीक्षा हीरक जयंती एवं जन्म अमृत महोत्सव के अवसर पर प्रकाशित होने वाले अभिनंदन ग्रंथ की सफलता के लिए हार्दिक शुभकामना के साथ ही आचार्यश्री के सुस्वस्थ एवं सुदीर्घ जीवन की मंगल मनीषा के साथ उनके चरणों में कोटि कोटि वंदन। तीर्थ विकास के प्रेरक -मुनि ऋषभचंद्रविजय विद्यार्थी प्रातः स्मरणीय, विश्व पूज्य गुरुदेव श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. द्वारा संस्थापित जैन तीर्थ श्री मोहनखेड़ा के समग्र विकास के लिये प.पू. गुरुदेव कविरत्न आचार्य श्रीमद्विजय विद्याचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. की अपनी कल्पना और योजना एवं उसके अनुरूप उन्होंने कार्य भी प्रारम्भ करवा दिये थे, किन्तु उनके अचानक स्वर्गवास के कारण वे अपनी कल्पना के अनुरूप विकास कार्यों को पूर्ण नहीं करवा सके। प.पू. कविरत्न आचार्यश्री के पट्टधर राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. को तीर्थ विकास की उनकी योजनाओं की जानकारी थी। इसलिये आप उन योजनाओं को पूरा करने के लिये अपने अनुयायियों और गुरुभक्तों को सतत प्रेरणा प्रदान करते रहते हैं। आपके मार्गदर्शन में तीर्थ निरंतर विकास की ओर अग्रसर हो रहा है और विकास कार्य किया जाता है तो प.पू.कविरत्न आचार्यश्री की कल्पनाएं ही मूर्त रूप ग्रहण कर लेगी। पू.आचार्यश्री की दीक्षा हीरक जयंती एवं जन्म अमृत महोत्सव के अवसर पर उनके सुदीर्घ एवं सुस्वस्थ जीवन की हार्दिक शुभकामना करते हुए उनके चरणों में कोटि कोटि वंदन। क्रियाशील व्यक्तित्व -मुनि जिनेन्द्रविजय अपने वैराग्यकाल में और फिर दीक्षा के पश्चात् से प.पू.राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमविजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. को मैंने सदैव धर्माराधनारत देखा है। उठते-बैठते, चलते-फिरते उनकी आराधना साधना चलती रहती है। मैंने कभी भी उन्हें निष्क्रिय बैठे नहीं देखा। आयु के इस मुकाम पर भी उनकी क्रियाशीलता युवाओं के लिए प्रेरणास्पद है। हार्दिक प्रसन्नता है कि प.पू.आचार्यश्री की दीक्षा हीरक जयंती एवं जन्म अमृत महोत्सव के अवसर पर एक अभिनंदन ग्रंथ का प्रकाशन हो रहा है। उसकी सफलता की हार्दिक मंगलकामना एवं आचार्यश्री के सुस्वस्थ एवं सुदीर्घ जीवन के लिए हार्दिक शुभकामना करते हुए उनके चरणों में कोटि कोटि वंदन। परम कृपालु -मुनि रजतचंद्रविजय प.पू.दादा गुरुदेव कविरत्न आचार्य श्रीमद्विजय विद्याचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. के पट्टधर पू.राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. स्वभाव से बहुत कृपालु हैं। उनकी कृपा की अमृत बूंदें सभी पर समान रूप से पड़ती है। हमारे लिये तो उनका आदरणीय जीवन प्रेरणा का स्रोत है। उनके सुदीर्घ संयमी जीवन में सदैव ही सद्गुणों का विकास होता आया है और वे प्राप्त ज्ञान को सबमें समान रूप से वितरित भी करते हैं। उनकी दीक्षा हीरक जयंती एवं जन्म अमृत महोत्सव के अवसर पर उनके सुदीर्घ एवं सुस्वस्थ जीवन की मंगलकामना करते हुए उनके चरणों में कोटि कोटि वंदन। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 7 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति Education Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ आजीवन ऋणी रहूँगा ___ - मुनि पीयूषचंद्रविजय गुरु शब्द जितना छोटा दिखाई देता है, वह उतना ही विषाल है । गुरु की महिमा में सभी धर्मों में बहुत कुछ लिखा गया है । पाष्चात्य चिंतकों ने भी महिमा गायी है । गुरु को एक ऐसा दीपक बताया गया है जो स्वयं जल कर दूसरों को प्रकाष प्रदान करता हैं । वैसे गुरु का शाब्दिक अर्थ भी यही है अंधकर को दूर कर प्रकाष प्रदान करने वाला अर्थात गुरु हमारे अज्ञानी रूपी अंधकार को दूर कर जीवन में ज्ञान रूपी प्रकाषक कर देता है । यह मेरा सौभाग्य है कि मेरे दीक्षा प्रदाता पूज्य गुरुदेव राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यश्रीमदविजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. है । पूज्य गुरुदेव ने मुझे दीक्षाव्रत प्रदान कर आत्मकल्याण का मार्ग दिखाया, उसके लिये मैं पूज्य गुरुदेव का आजीवन ऋणी रहूंगा उन्होंने मुझे मानवभव को सार्थक करने का मार्ग बताया, यह उनका बहुत बड़ा उपकार है। ऐसे ज्ञानी गुरुदेव के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर मैं अपने हृदय की गहराई से उनके सुदीर्घ एवं स्वस्थ जीवन की शुभकामना अभिव्यक्त करते हुए उनके चरणों में कोटि कोटि वंदन करता हूं। 4 हार्दिक शुभकामना उपप्रवर्तक डॉ. राजेन्द्र मुनि राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्र सूरीजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर उनके सम्मानार्थ एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है । यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई । यह अभिनन्दन व्यक्ति का नहीं गुणों का है । उनकी दीर्घ संयम पर्याय का है । जैन धर्म व्यक्ति पूजक न होकर गुण पूजक है । गुणों का सम्मान करना, अभिनन्दन करना अपने आराध्य के प्रति समपर्ण का प्रतीक है । आपका यह प्रयास सफल हो और आचार्यश्री सुदीर्घ काल तक स्वस्थ रहते हुए संघ और समाज को अपने आशीर्वाद तथा मार्गदर्शन से सिंचित करते रहें, यही हार्दिक शुभकामना है । (श्रमण संघीय स्व, आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्रमुनिजी म.सा. के सुशिष्य)। दीर्घ जीवन की कामना उपाध्याय प्रसन्नचन्द्रविजय - मुनि प्रियंकर विजय बड़ी प्रसन्नता का विषय है कि परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि वर्तमान आचार्य देवेश श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जाकर भक्तजनों को गुरुभक्ति से प्रोत्साहित करने का बीड़ा उठाया है। इस महान कार्य के लिए हम अपनी शुभकामनाएँ प्रेषित करते हैं । आचार्य श्री का सान्निध्य प्राप्त करने का हमें कम ही समय मिला, परन्तु वह घड़ी अभी तक हमारे स्मृति पटल पर अंकित है जब आहोर नगर में प. पू. गुरुदेव आचार्य श्री लब्धिचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. एवं परम आदरणीय पूज्य गुरुदेव मुनिराज श्री कमलविजयजी म.सा. की साक्षी में गुरुदेव को आचार्य पद से अलंकृत किया गया था । कितना उल्लास एवं आनंद का अवसर था जब हम इस पुण्य समारोह का दर्शन लाभ ले सके थे । आचार्य प्रवर शान्त, स्नेहयुक्त एवं सरलता की प्रतिमूर्ति हैं । आप प्रखर विद्वान, नम्र, सहज कृपा बरसाने वाले वयोवृद्ध युग पुरुष है । आपकी सौम्यता स्नेह युक्त वाणी श्रावक भक्तों के लिए सदा प्रेरणा देती रही हैं। प. पू. श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी रत्न पारखी है । झाबुआ प्रवास के अवसर पर आप द्वारा संग्रहित पाषाण रत्नों (मोहनखेडा तीथ) के खजाने को देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ था । सच्ची गुण ग्राहकता के आप धनी है । अपने शिष्य वन्दों को सहज स्नेह से प्लावित करने की शक्ति इनमें कूट कूट कर भरी पड़ी है । आपका निश्च्छल प्रेम एवं आशीर्वाद सभी को मिलता रहे एवं श्री सौधर्म बृहत् तपागच्छीय त्रिस्तुतिक संघ की शोभा बढाते रहें । आपके दीर्घ जीवन की कामना करते हैं । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 8 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति DEngdri Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 4 निस्पृह व्यक्तित्व मुनि हितेशचन्द्र विजय हमारी आस्था के केन्द्र, हमारे पथ प्रदर्शक परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य देवेश श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का आज हमें जो नेतृत्व मिल रहा है वह हमारे लिये परम् सौभाग्य की बात है। जबसे मैंने उनके पावन सान्निध्य में मुनि जीवन अपनाकर रहना शुरू किया तब से आज तक मैंने देखा कि वे सरलता की मूर्ति हैं । वे न अपनी प्रशंसा में हर्षित होते हैं और न आलोचना से उत्तेजित होते हैं । प्रत्येक परिस्थिति में वे समभावी बने रहते हैं । दुःख और हर्ष के क्षणों में भी मैंने देखा कि वे अविचलित, समताधारण किये रहते हैं । इससे यह प्रमाणित होता है कि वे एक निस्पृह व्यक्तित्व के स्वामी हैं । मैंने यह भी देखा है कि वे सदैव धर्माराधना में तल्लीन बने रहते हैं । यों देखने में आपको भले ही लगे कि वे मौन बैठे हैं किंतु हकीकत यह है कि उनका मानस सदैव धर्माराधना में लीन रहता है । मौन रहकर भी उनका जप चिंतन मनन सतत् चलता रहता है। आज जब उनके जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के शुभ अवसर पर उनके अभिनंदन हेतु एक अभिनंदन ग्रंथ का प्रकाशन होने जा रहा है तो हृदय उल्लसित हो रहा है । मैं इस अवसर पर परम् श्रद्धेय राष्ट्रसंत श्रीजी के सुदीर्घ स्वस्थ जीवन की कामना के साथ ही इस आयोजन की सफलता की कामना करते हुए उनके पावन श्री चरणों में काटि कोटि वंदन करता हूँ। अर्पित है जीवन जिनके श्री चरणों में मुनि प्रीतेशचन्द्र विजय श्री राजेन्द्र उपवन के परम् सुदंर, सौम्य, सुरभित पुष्प अपनी सौरभ से जन-जन के हृदयकाश को प्रफुल्लित करने वाले मेरे जीवन के तारण हार, परम् उपकारी प. पूज्य गुरुदेव राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के बारे में जब कुछ लिखने की बात आती है तो मानस पटल पर विचारों का सागर लहराने लगता है। जब लेखनी से अपने मन को कागज़ पर उतारने का प्रयत्न करता हूं तो प्रश्न यह उठता है कहां से प्रारंभ करूं, क्या लिखू और क्या छोडूं? शब्द भी तो नटखट बच्चों की भाँति अठखेलियाँ करते हैं, पकड़ में ही नहीं आते, दूर-दूर भाग जाते हैं। निरभिमानी, सरल, शांत, सौम्य, दया, क्षमा, करुणा, विनयशीलता, उदारता, सेवा–भक्ति व समानता की साक्षात् प्रतिमूर्ति गुरुदेवश्री के संबंध में जितना भी लिखा जाय वह कम होगा । सागर को कितना उलीचे, सागर से कितने कितने घट भरें; सागर-सागर ही रहेगा । सागर की लहरों की गणना करना जिस प्रकार असंभव, ठीक उसी तरह गुरुदेवश्री के गुणों का वर्णन करना भी सरल नहीं । मैंने तो प्रथम दर्शन करते ही उनके श्री चरणों में अपना जीवन अर्पित कर दिया। मैं तो परम् सौभाग्यशाली हूं कि मुझे गुरुदेवश्री का परम् पावन सान्निध्य प्राप्त हुआ । शासनदेव से यही प्रार्थना है कि वे गुरुदेवश्री का सान्निध्य सुदीर्घकाल तक बनाये रखें, उन्हें सदैव स्वस्थ्य बनाये रखे ताकि वे हमारा मार्गदर्शन करते रहें। अंत में मैं अपने परम् उपकारी गुरुदेवश्री के परम पावन श्री चरणों में कोटि-कोटि वंदन अर्पित करता हूँ। हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 9 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति addesiantite www.arelibrary Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ मेरे जीवन निर्माता गुरुदेव श्री मुनि चन्द्रयश विजय बचपन में कहीं पढ़ा था कि कहीं तो कोई ऐसा संत मिले जो निर्मल-मन-विचारों वाला हो, सही अर्थों में साधु हो। सच्चे संतों के लक्षण बताते गुरुनानक देव ने लिखा है : हरश-शोक जाके नहीं, वैरी-मीत समान | कहे नानक सुनरे मना, मुक्त ताहिते जान || इस्तुत निंद्या नाहि जिहं कंचन लोह समान | कहे नानक सुनरे मना, मुक्त ताहि ते जान || तात्पर्य यह है कि सच्चे संत को कुटुम्ब परिवार धन वैभव, भोजन वस्त्र आदि किसी में आसक्ति नहीं होती। जैसा मिला खा लिया, जो मिला पहन लिया । जब मैंने प्रथम बार परम् श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी के दर्शन किये तो मुझे लगा कि ये सच्चे संत हैं । मेरा मन इनकी ओर चुम्बक की भांति आकर्षित होता रहा और हृदय में वैराग्य की तरंगे लहराने लगीं । अंततः मैंने अपने आपको गुरुदेवश्री के चरणों में समर्पित कर दिया । प.पू. गुरुदेवश्री का सान्निध्य मिला तो पाया कि उनकी साधना की गहराई और हृदय की विशालता असीम है । वे अनेक सद्गुणों की खान हैं । उन्होंने मेरे जीवन का निर्माण शुरू कर दिया, किंतु मैं यह जान ही नहीं पाया । जिस प्रकार वे शिक्षा देते हैं, ज्ञान बांटते हैं उनकी शैली अनुपमेय है । वे सच्चे अर्थों में जीवन निर्माता है । उनका शिष्यत्व पाकर मैं कृत-कृत्य हुआ हूँ । ___शासनदेव से यही कामना है कि वे हम पर गुरुदेवश्री की छत्रछाया बनाये रखें । गुरुदेवश्री सदैव स्वस्थ रहते हए हमें मार्गदर्शन प्रदान करते रहें । उनके चरणों में कोटि-कोटि वंदन । सद्गुणों का अक्षय कोष मुनि लाभेश विजय इसे मैं अपना सौभाग्य ही मानता हूं कि मुझे परम श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का परम पावन सान्निध्य मिला । पिछले दो तीन वर्षों से तो उनके निरन्तर सान्निध्य में हूं । उनके इस नैकट्य में मुझे उनसे अनेक बातें सीखने को मिली । परम श्रद्धेयश्री राष्ट्रसंतश्री जी म. की सरलता एवं सहजता से तो मैं पूर्व से ही परिचित रहा हूं किंतु वे सरलता की उस सीमा तक पहुंचे हुए है, यह उनके नैकट्य से ही जान पाया । मैंने यह भी पाया कि आपश्री सदैव धर्माराधना करते रहते हैं । मैंने कभी भी आपको व्यर्थ ही समय गवांते नहीं देखा । आपश्री बैठे हो, सोये हो, चलते हो तब भी आपका मन धर्माराधना में लीन रहता है । हम छोटे साधुओं को भी आपश्री सदैव आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते रहते हैं । साधु जीवन के महत्व को बताते हुए सदैव यही कहते हैं कि एक साधु को सदैव स्व-पर कल्याण के प्रति सजग रहना चाहिये । साधु को किसी प्रपंच में नहीं पड़ना चाहिये । दो टुक शब्दों में आप कहते हैं कि साधु को कबीर ने जैसा बताया वैसा होना चाहिये । कबीर कहते हैं हेमेन्द्रा ज्योति* हेमोन्द्रा ज्योति 10 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति mahade inelibre Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ साधु ऐसा चाहिये, जैसे सूप सुभाय । सार सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय || स्व-धर्म के प्रति सचेत रहते हुए आप सदैव उसके प्रचार प्रसार की बात तो करते हैं किंतु ऐसे समय आचरण मर्यादित होना आप अवश्य मानते हैं । श्रद्धेय आचार्य भगवंत का यह भी कथन है कि विकास इसलिये नहीं हो पाता है कि मनुष्य प्रायः आज का कार्य कल पर छोड़ देता है । उसके मूल में आलस्य प्रमाद ही प्रधान है। जबकि मनुष्य यह नहीं जानता है कि जो सांस उसने छोड़ी है, वह वापस आयेगी भी या नहीं । मृत्यु का कोई भरोसा नहीं है । वह कभी भी कहीं भी आ सकती है । इसलिये प्रमाद कभी नहीं करना चाहिये और जो भी कार्य करना है, उसे तत्काल कर लेना चाहिये। कहा भी है : काल करे सो आज कर, आज करे सो अब्ब । पल में परलय होत है, बहुरि करेगो कब ॥ सूत्र कृतांग सूत्र में प्रमाद को कर्मबन्ध करने वाला बताया गया है । यथा : पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहावरम | 8/3 श्रद्धेय आचार्य भगवन, आलस्य न करने का निर्देश देकर समझाते हुए कहते रहते हैं कि आलस्य या प्रमाद मनुष्य के शरीर के अन्दर रहने वाला शत्रु है । उद्यम मनुष्य का बन्धु है । उद्यम या परिश्रम या प्रयास करनेवाला कभी भी दुःखी नहीं होता है। उद्यम के माध्यम से आलस्य को दूर किया जा सकता है। अतः कभी भी आलस्य नहीं करना चाहिये और अपना समस्त कार्य यथासमय करने की आदल डालनी चाहिये । यदि समय पर कार्य नहीं किया तो बाद में पछताने / पश्चाताप करने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय शेष नहीं रहता है। कहा गया है कि जो उद्यमी होता है वह सदैव जागृत रहता है और जो जागृत होता है, उसे ही कुछ मिलता है । जो आलसी है वह कुछ भी नहीं पाता : Educati जो सोवत है सो खोवत है, जो जागत है सो पावत है । अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत । और भी श्रद्धेय आचार्य भगवंत हमें सदैव व्यावहारिक बातों का ज्ञान भी प्रदान करते रहते हैं। जैसे साधु को कैसे उठना चाहिये, बैठना चाहिये । श्रावकों के साथ किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिये । किस प्रकार बोलना चाहिये। बोली से वाणी से व्यक्ति के व्यक्तित्व की पहचान होती है । कोयल अपने मीठे वचन के लिये सर्वत्र आदर पाती है और इससे विपरीत कौआ दुत्कारा जाता है । इसलिये सदैव ऐसी वाणी बोलनी चाहिये जैसा कि महात्मा कबीरदास जी ने कहा है - वाणी ऐसी बोलिये, मनका आपा खोय | औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय || इसके विपरीत यदि कटुक वचनों का प्रयोग किया तो उसका परिणाम सिर को भुगतना पड़ता है। जैसा कि रहीम ने कहा है : रहिमन जिव्हा बावरी कहि गई सरग पाताल । आपुतो कहि भीतर गई, जूती खात कपाल || श्रद्धेय आचार्य भगवंत यह समझाते रहते हैं कि कम से कम बोलना चाहिये। साथ ही यदि दो बड़े बात कर हेमेन्द्र ज्योति हेमेजर ज्योति 11 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ रहें हों तो उनके बीच में कभी भी नहीं बोलना चाहिये । जब पूछा जाय तभी बोलना चाहिये और उतना ही बोलना चाहिये जितना पूछा गया है । उसके अतिरिक्त जो कुछ बोलना है, उस पर पहले विचार कर लेना चाहिये । विचार करने के उपरांत बोलना अच्छा माना जाता है । बोलने के पश्चात उस पर विचार करने से पश्चाताप के सिवाय कुछ मिलने वाला नहीं है । कहा है : बिना विचारे जो करे, वो पाछे पछताय । काम बिगारे आपुनो, जग में होत हेसाय || हंसी का पात्र बनने से तो अच्छा है कि जो कुछ किया जाय या बोला जाय विचारकर ही किया जाय या बोला जाय। तौल तौल कर बोलना अच्छा माना गया है । आज परम श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य भगवन, श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. अपने जीवन की छियासी वर्ष की आयु में भी सक्रिय हैं । आपश्री की दीक्षा पर्याय के 63 वर्ष हो गये हैं । संयम यात्रा के इतने वर्ष व्यतीत हो जाना एक बहुत बड़ी उपलब्धि है । आपश्री से सीखने के लिये बहुत कुछ है । यदि हम उनसे कुछ सीख नहीं पाये, उनको अनुसरण नहीं कर पाये तो सब कुछ व्यर्थ है । मैंने तो समय समय पर उनसे मिलने वाली शिक्षाओं की एक झलक की ओर ही संकेत किया है । उनके आंतरिक गुणों का वर्णन करना मेरी सामर्थ्य के बाहर है । वे सद्गुणों का भण्डार हैं । आज जब उनके जीवन अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के पावन अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन हो रहा है तो हृदय आनन्दित है । शासनदेव से यही विनम्र निवेदन है कि वे श्रद्धेय आचार्य भगवन को सुदीर्घकाल तक स्वस्थ एवं प्रसन्न रखें ताकि हमें यथोचित मार्गदर्शन मिलता रहे । इसी हार्दिक भावना के साथ उनके श्रीचरणों में कोटि कोटि वंदन । एक चमत्कार की अनुभूति मुनि लवकेश विजय 'सुधाकर भारत भूमि और इसकी संस्कृति कोई हिल स्टेशनों अथवा माडलों की भूमि नहीं है अपितु यह रत्नगर्भा वसुंधरा तीर्थंकरों की भूमि है, संतो-महंतों की भूमि है । इस धर्मधरा पर अनेक महान, आचार्य हुए हैं, जिन्होंने अपने जीवन को त्याग तप और संयम साधना में अर्पित कर सार्थक किया है । मानव जीवन की सार्थकता इसमें भी है कि व्यक्ति अपना सर्वस्व समाज हित में समर्पित कर दे, साथ ही कोई ऐसा कार्य करे जिससे समाज गौरवान्वित हो । इस श्रृंखला में श्री अभिधान राजेन्द्र कोश के रचयिता, कलिकाल कल्पतरु, शासन शिरोमणि, श्री सौधर्मवृहत्त तपागच्छ के नायक, प्रातःस्मरणीय विश्व पूज्य श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. ने समाज को नए दिशा निर्देश देकर अद्भुत जागृति उत्पन्न की । उन्हीं के आशीर्वाद से वर्तमान में उनकी पाट परम्परा में षष्टम पट्टप्रभावक शूक्ष्म चारित्रपालक, वचनसिद्ध, चारित्रचूड़ामणि, शासन सम्राट, राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. अनेक गुणों के धारक है । आपके गुणों का वर्णन करने में मेरी लेखनी और मैं स्वयं समर्थ नहीं हूं। मेरे लिये तो उनके गुणों का वर्णन करना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है । यह तो मेरा परम पुण्योदय ही है कि लगभग छ: वर्ष से मुझे पूज्य आचार्यदेव की सेवा में रहते हुए सेवा करने का अवसर मिल रहा है । पू. आचार्य श्री के चरणों की रज प्राप्त करने का अवसर मुझे पालीताणा में प्राप्त हुआ, जहां मैंने आपश्री की संयम साधना को निकट से देखा । आपश्री रात्रि में एक बजे उठकर एक बजे से प्रातः चार बजे तक माला फेरते हैं, जाप करते हैं । अपनी आयु के छियासीवें वर्ष में भी आपश्री की संयम साधना अबाध रूप से चल रही हैं । इसके साथ ही आपके जीवन में कहीं कोई छिपाव नहीं है । मैंने तो आपश्री का जीवन खुली पुस्तक की भांति पाया है । आपका जीवन चंदन निर्मित पुस्तक के समान है | जिसकी सौरभ का अनुभव जन जन को हुआ है और हो रहा है । जिस साधक की साधना कठिन होती है, उसे चमत्कार करने की आवश्यकता नहीं होती, चमत्कारपूर्ण घटनाएं उसके जीवन में स्वतः घटित हो जाती है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 12 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्टसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ परम श्रद्धेय आचार्यश्री के जीवन के एक चमत्कारपूर्ण प्रसंग का मुझे आज भी अच्छी प्रकार स्मरण है । प्रसंग पालीताणा का है । उस समय परम पूज्य आचार्यदेव श्री राजेन्द्र भवन, पालीताणा में विराजमान थे । आपके दर्शनार्थ सुश्रावक श्री सुमेरमलजी लुंकड़ एवं सुश्रावक पृथ्वीराजजी पालीताणा आए थे । एक दिन वे प्रातः पू. दादा के दर्शन करने पहाड़ पर गये । लगभग ग्यारह बजे के आसपास वे श्री राजेन्द्र भवन आए । उन्होंने भोजन आदि किया और लगभग एक बजे पू. आचार्य श्री की सेवा में आए । दर्शन वंदन करने के पश्चात् वार्तालाप करने लगे । इसी बीच श्रीमान पृथ्वीराज जी ने कहा - "बावजी! आज शाम को पांच बजे की फ्लाईट से हम जा रहे हैं ।" “कहाँ जाओंगे?" पू. आचार्य श्री ने पूछा? "बावजी ! हम यहाँ से भावनगर जावेंगे । वहाँ से बम्बई के लिये हमारी फ्लाईट है ।" श्रीमान सुमेरमलजी लुंकड़ ने बताया । उनकी बात सुनकर पू. आचार्य भगवन कुछ क्षण मौन रहे । उसके पश्चात् बोले - "आप आज नहीं कल जाना । आपका आज जाना नहीं हो सकता ।" कल जाने की बात सुनते ही श्रीमान पृथ्वीराजजी तत्काल बोल उठे - "बावजी ! हमारा आज जाना बहुत जरुरी है। आजकी फ्लाईट के टिकिट भी हमारे पास है ।" "आप कुछ भी करो, आपको आज नहीं कल जाना है ।” पूज्य आचार्यश्री ने दृढ़ स्वर में फरमाया । दोनों सुश्रावक कुछ क्षण चिंतन में डूब गये और फिर पूज्यश्री के कथन को ध्यान में रखते हुए दोनों ने अपनी यात्रा स्थगित करने का मानस बना लिया तथा श्री राजेन्द्र भवन के मुनीम श्री प्रकाश जैन को बुलाकर अपने टिकिट देकर भावनगर हवाई अडडे से सम्पर्क कर निरस्त करवाने का कहा | श्री प्रकाश जैन ने उसी क्षण भावनगर हवाई अड्डे पर फोन से सम्पर्क किया । श्री जैन टिकिट निरस्त करने की बात कहते इससे पूर्व ही वहाँ के किसी अधिकारी या कर्मचारी ने कहा - "कृपया क्षमा करें, आज शाम को पांच बजे भावनगर से बम्बई के लिये जो वायुयान उड़ान भरने वाला था, वह फ्लाईट अपरिहार्य कारणों से निरस्त हो गई है ।" श्री प्रकाश जैन ने उपर्युक्त सूचना पू. गुरुदेव के समक्ष बैठे दोनों श्रावकजी को सुना दी । इस सूचना को सुनते ही वे दोनों आश्चर्य चकित रह गये । पू. आचार्यश्री का कथन सत्य हुआ । विस्मयकारी बात है कि क्या गुरुदेव को अभिज्ञान हो गया था अथवा यह गुरुदेव की वचन सिद्धि है । कुछ कहा नहीं जा सकता । दोनों सुश्रावक अभी भी नियमित रूप से पू. आचार्य भगवन की सेवा में आते रहते हैं तथा बिना गुरुदेव की अनुमति के तथा बिना मांगलिक लिये जाते नहीं है। _पू. आचार्य भगवन के जीवन के ऐसे और भी प्रसंग है । जिन्हें मैंने आपके सान्निध्य में रहकर अनुभव किया है । आज पू. गुरुदेव के पावन सान्निध्य में रहते हुए मुझे छ: वर्ष हो गये हैं । यह मेरे लिये सौभाग्य की बात है। यही कामना है कि पू. गुरुदेव का वरदहस्त हम पर बना रहे, वे इसी प्रकार हम पर अपनी कृपा और आशीर्वाद बनाये रखे जिससे हमारी साधना का मार्ग प्रशस्त होता रहे । मैं अपने हृदयोद्गार को बराबर अभिव्यक्त नहीं कर पा रहा हूं । फिर भी कहना चाहूंगा मधुर वाणी है जिनकी पहचान | अरिहन्त का जो करते ध्यान || सरल स्वभाव शान्तमूर्ति सुधाकर हेमेन्द्र सूरि है सन्त महान || प. पू. आचार्यदेवेश के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर प्रकाशित अभिनन्दन ग्रन्थ के आयोजन की मैं हृदय की गहराई से शुभकामना करता हूं और आपके परम पावन चरणों की चन्दन सम रज को अपने मस्तक पर धारण कर उनके चरण कमलों में काटि कोटि वंदन करता हूं । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 13 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति beafhnintentional Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ गुरू कृपा बिन मुक्ति नाहि मुनि ललितेश विजय वर्तमानाचार्य राष्ट्रसंत शिरोमणि सौधर्मबृहत्तपागच्छ नायक श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के संयम की महक आज सारे संसार के उपवन में फैल रही है । उनका संयम जीवन अनेक उपलब्धियों से परिपूर्ण है। आपने संसार की असारता को जानकर युवावस्था में दीक्षा ग्रहण कर उत्कृष्ट तप से अपने जीवन को तपाकर वैराग्य मार्ग पर चलने वाले मुमुक्षु को संयम मार्ग की ज्ञान मयी वाणी से, सदा भगवान महावीर की वाणी की प्रेरणा देते हैं । आप समयदृष्टि उत्कृष्ट तपोपालक सौधर्म बृहत्तपोगच्छ की उज्ज्वल पट्ट परम्परा के प्रतीक बने हुए हैं । जीवन को मधुर बनाया आपने | मधुरता से जीवन को सजाया आपने || सद्गुण गरिमा से मंडित होकर - शालीनता से संयम दीप जलाया आपने || इस संसार में गुरु को ही सर्वोपरि माना गया है । क्योंकि गुरु ही भगवान को मिलने का मार्ग बताता है । जिस व्यक्ति पर गुरु की असीम कृपा दृष्टि हो जाती है । वह इस संसार सागर से तिर जाता है । इसका मुझे अच्छी तरह आभास है । गुरु चरण सहोदरम, मुझ मन कृपा सिधार । जिसके मन, तन में गुरु चरण है, गुरु शरण हैं वे भाग्यशाली हैं, आत्मवासी हैं जिनके मनोपटलपर गुरुदेव की अमिट छाप है । यह दीपक की लौ निरन्तर जल रही है । मानव जीवन के मैदान में अंधी दौड़ में अग्रसर हो रहा है । इतिहास में अब तक जो परमात्मा तीर्थकर या सद्गुरु सिद्ध हो चुके हैं । हमारा सौभाग्य है कि मानव जीवन मिला । अतीत के मात्र उज्ज्वल पक्ष का न केवल स्मरण करना अपितु वर्तमान को उज्ज्वल बनाने का प्रयास हमें करना है। इसी प्रकार परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि श्रद्धेय गुरुदेव श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. ने मुझे इस संसार के मोह माया के सम्बन्ध में विस्तार से समझाया । मैं सदा ही उनके सान्निध्य में ज्ञानार्जन करता हूं । अनेक बार मुझे पथ पर चलते संयम जीवन की महत्ता गुरुदेवश्री ने बतायी । जब भी आचार्यश्री से जिज्ञासापूर्वक हम कोई संयम जीवन की समस्याओं की बातें करते हैं तो वे निराकरण बहुत ही सहजता एवं सरलता से कर हमें समझा देते हैं। गुरू मूरत रहे ध्यान में | गुरू के चरण बने पूजन || गुरू वाणी ही महामंत्र | गुरू प्रसाद से प्रभुदर्शन || बस अरिहंत परमात्मा से यही प्रार्थना करता हूं कि गुरु की मूरत सदा ध्यान में रहे, गुरु चरण बने प्रार्थना, गुरु की वाणी, वचन, संदेश मेरे लिये संदेश बन जाये । क्योंकि हरि के दर्शन गुरु कृपा बिना संभव नहीं, अचार्यश्री की कृपा से आज मैं संयम जीवन धारण कर स्वयं से साक्षात्कार कर भीतर में जन्म जन्मजन्मांतर से बसे संसार के दल दल से मुक्ति का मार्ग पाया है । श्री हेमेन्द्र सूरि अभिनन्दन ग्रंथ के प्रकाशन पर हार्दिक शुभ कामना एवं आचार्य श्री का मंगल आशीर्वाद युग युगांन्तर तक मिलता रहे यही परमात्मा से कामना करता हूं । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 14 हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द ज्योति on Education Internal ainelibre Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 4 निस्पृह व्यक्तित्त्व प्रवर्तिनी साध्वी मुक्तिश्रीम. आलोचना व्यक्ति को बुरी लगती है और प्रशंसा अच्छी । प्रायः प्रत्येक व्यक्ति ऐसा ही पसंद करते हैं । कुछ विरलें ही व्यक्ति ऐसे होते हैं जो न तो अपनी प्रशंसा पर प्रसन्न होकर मुस्कराते है और न ही निन्दा या आलोचना करने पर नाराज अप्रसन्न अथवा क्रोधित होते हैं । श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. एक ऐसे ही विरले व्यक्ति है। वे प्रशंसा आदि से सदैव दूर ही रहते हैं । उन्हें न निन्दा से मतलब होता है और न अपनी प्रशंसा से, वे प्रत्येक परिस्थिति में निस्पृह बने रहती हैं । उन्हें किसी से कोई मोह भी नहीं है । दर्शनार्थी आते हैं तो निस्पृह भाव से धर्मलाभ / आशीर्वाद प्रदान कर देते हैं । उनके मन में अपने शिष्यों तक के लिये कोई ममत्व नहीं है । वे सदैव सबको निस्पृह भाव से धर्माराधना करने की प्रेरणा प्रदान करते रहते हैं । संयम साधना के पचास-साठ वर्ष व्यतीत हो जाना एक बहुत बड़ी उपलब्धि होती हैं । अपनी संयम साधना के इतने वर्ष आचार्यश्री ने व्यतीत किये हैं । उस उपलक्ष्य में उनके सम्मान में एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन होने जा रहा है। यह प्रयास स्तुत्य है । मैं इस प्रयाय की सफलता की मंगलकामना करती हूं । श्रद्धेय आचार्यश्री सुदीर्घकाल तक स्वस्थ रहते हुए हमें आशीर्वाद/मार्गदर्शन प्रदान करते रहे यही शासनदेव से प्रार्थना है। पूज्य आचार्यश्री चरणों में सविनय वंदन। (शब्द ससीम : गुण असीम - उपप्रवर्तिनी साध्वी स्वर्ण, अम्बाला शहार करुणावतार, हे दिव्य मूर्ति, हे अमर साधक हे तपोमूर्ति, हे सत्य अहिंसा के संस्थापक, हे मानवता की अमर मूर्ति हे जगनायक लोकोद्वारक, हे गुरुवर मेरे हृदयाधीश वन्दन मेरे स्वीकार करो, जग को दे दो शुभाशीष || महापुरुषों का व्यक्तित्व बहुत ही अद्भुत और निराला होता है । समाज की संकीर्ण सीमाओं में आबद्ध होकर भी वे अपना सर्वतोमुखी विकास कर जन-जन के मन में अनन्त आस्था समुत्पन्न करते हैं, उनकी दिव्यता, भव्यता और महानता को निहार कर जन - जन के अन्तर्मानस में अभिनव आलोक जगमगाने लगता है, वे समाज की विकृति को नष्ट कर संस्कृति की ओर बढ़ने के लिए आगाह करते हैं । वे आचार और विचार में अभिनव क्रांति का शंख फूंकते हैं, वे अध्यवसाय के धनी होते हैं, जिससे कंटकाकीर्ण दूर पथ भी सुमन की तरह सहज, सुगम हो जाता है, पथ के शूल भी फूल बन जाते हैं विपत्ति भी संपत्ति बन जाती है, उन्हीं महापुरुषों की पावन पंक्ति में आते हैं -आचार्य श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.। आचार्य श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म. आज के युगपुरुष हैं, क्योंकि युग पुरुष अपने युग का स्रष्टा और द्रष्टा होता है । उसके भीतर सम्पूर्ण युग चेतना का आलोक प्रज्वलित रहता है । उसकी वाणी युग के कल्याण एवं निर्माण के लिए होती है, उसके कर्म युग के उत्थान और अम्युदय के स्तम्भ बनते हैं । युग पुरुष का समस्त जीवन, लोक-परलोक के हित और कल्याण के लिए समर्पित होता है । गुरुदेव का जीवन भी युग पुरुष के सदृश है । ऐसे युगपुरुष के चरणों में जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयन्ती के अवसर पर मेरी, मन्तव्यमयी मंगल मनीषा स्वीकृत हो । (साध्वी श्री राजकुमारीजी म. साध्वी श्री संतोषजी म., साध्वी श्री किरणजी म., साध्वी श्री कमलेशजी म के भी ऐसे ही भाव हैं) हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 15हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति www.armalbirava Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ श्रद्धा के दो पुष्प उपप्रवर्तिनी श्री स्वर्णकान्ताजी म. की शिष्या साध्वी सुधा हे आचार्यवर मेरी श्रद्धा के दो पुष्प आज स्वीकार करो । दुःखी दीन जन के करुणामय, करुणा कर सब कष्ट हरी || भगवान महावीर के परिनिर्वाण के पश्चात् यद्यपि जैन गगन में किसी सहस्ररश्मि सूर्य का उदय नहीं हुआ, किन्तु यह एक ज्वलन्त सत्य है कि समय समय पर अनेक ज्योतिष्यमान नक्षत्र उदित हुए हैं, जो अज्ञान अन्धकार से जूझते रहे । अपने दिव्य प्रभामण्डल के आलोक से विश्व का पथ प्रदर्शन करते रहे । ऐसे प्रभापुंज ज्योतिष्यमान नक्षत्रों से जप-तप, सेवा - सहिष्णुता और सद्भावना की चमचमाती किरणें विश्व में फैलती रही है। ऐसे ही एक दिव्य नक्षत्र हैं आचार्यदेव श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. । महापुरुषों के जीवन में धर्म ही सम्बल होता है, संस्कृति ही देवी होती है, समाज-सेवा ही महाव्रत होती है, जन-जन के प्रति औदार्य ही जीवन निष्ठा होती है । ऐसे महापुरुष की जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयन्ती के पावन प्रसंग पर हृदय की अनन्त आस्था से कोटि कोटि अभिनन्दन । (साथ में विराजित समस्त साध्वियों के भी ऐसे ही भाव हैं ।) कसौटी पर खरे सेवाभावी साध्वी संघवणश्री जाति, कुल तथा ऐश्वर्य से रहित अवस्था में समय गुजारने के बावजूद भी जो व्यक्ति अपने बाहुबल से, अपनी मानसिक दृढ़ता से जीवन को उन्नत बनाता है, वह अत्यंत प्रशंसा का पात्र है । सोना जिस प्रकार घिसने से काटने से, पीटने से तथा तपाने से शुद्ध होता है, उसी प्रकार महापुरुष अनेक कठिनाइयों, विपत्तियों तथा अभावों में से गुजरकर साधु पुरुष बनते हैं। इस सम्बन्ध में कहा भी गया है यथाचतुर्भिः कनकः परीक्षेत, निद्यर्षणच्छेदन ताप ताडनैः । तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्षेत, त्यागेन, शीलेन, गुणेन कर्मणा ॥ सोने की भांति मनुष्य की परीक्षा भी चार प्रकार से होती है। • त्याग, शील, गुण और कर्म से । महानता का सर्वप्रथम लक्षण त्याग माना जाता है । शील अनमोल रत्न है । गुणों की सर्वत्र पूजा होती है और मनुष्य की प्रतिष्ठा उसके उत्तम कर्मों से होती है । यदि उक्त कसौटी पर पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यश्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का जीवन देखें तो वह खरा उतरता है । उनके जीवन में त्याग है, शील है, गुण है और उत्तम कर्म है । ऐसे व्यक्तित्व के अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन होना सबके लिये गौरव की बात है । पू. आचार्यश्री को अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट कर भेंट करने वाले ही गौरवान्वित होंगे । मैं इस अवसर पर पू. आचार्यश्री के स्वस्थ एवं सुदीर्घ जीवन की कामना करते हुए उनके चरणों में वंदना अर्पित करती हूं । हेमेन्द्रर ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 16 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Personal Use Onl Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन पंथ आप तिरे औरन को तारे साध्वी महेन्द्र श्री अपने लिये तो सभी जीते हैं, परन्तु दूसरों के लिये जो जीता है वही महान है । आत्मीयता की उस भावना के विकास का भी एक क्रम होता है । कुछ व्यक्ति ऐसे होते है जो केवल अपने ही स्वार्थ तथा अपने ही शारीरिक सुख का ध्यान रखते हैं । कुछ ऐसे होते हैं जो अपने परिवार व सगे सम्बन्धियों की हित चिंता में लीन रहते हैं । उनसे जो उच्च होते हैं वे अपने देश के हित व सुख-समृद्धि के लिये प्रयास करते हैं किंतु जिनका हृदय उनसे भी अधिक विशाल होता है वे विश्व के प्रत्येक प्राणी के सुख को अपना सुख और दुःख को अपना दुःख समझते हैं। उनके हृदय में भगवान, महावीर की शिक्षा के अनुसर सदैव यही कामना रहती है सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात् || इसका तात्पर्य यह है कि सभी प्राणी सुखी हो, सभी निरोग रहें, सभी का कल्याण हो, कोई भी कष्ट का भागी न बने। परम पूजनीय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमदविजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. सदैव विश्व के प्राणिमात्र के कल्याण की कामना करते रहते हैं । किसी भी प्राणी को दुःखी देखकर उनका कोमल हृदय द्रवित हो जाता है । और वे उसका कष्ट दूर करने में लग जाते हैं । आप अपनी धर्माराधना संयमाराधाना के द्वारा अपना कल्याण करने में तो लगे ही हैं अन्य प्राणियों के कल्याण के लिये भी सतत प्रयत्न शील बने रहते हैं । ऐसे पूजनीय आचार्यश्री की दीर्घायु की कामना करते हुए उनके चरणों में सविनय वंदना करती हूं । यथानाम तथागुण साध्वी हेमप्रभाश्री बहुरत्ना वसुन्धरा, धरती माता विश्व के सम्पूर्ण भार को वहन करती है, लेकिन जब महान पुरुष पृथ्वी पर अवतरित होते हैं उस समय धरती माता को गौरव होता है। स्व-पर कल्याण के लिए ही महान विभूतियों का जन्म होता है । इसलिये ऐसे संतो, त्यागी तपस्वियों के जन्म से पृथ्वी अपने को धन्य, कृतार्थ मानती हैं । भारत भूमि रत्नगर्भा वसुन्धरा कही गई है। समय समय पर इस धरा ने समाज की सुरक्षा हेतु, दिशा देने के लिए समय अनुकूल महापुरुषों को जन्म दिया है। जिन्होंने अपने तप त्याग और संयम पूर्ण जीवन से समाज में क्रान्ति की एह लहर छोड़ कर उसे मोक्ष पथगामी बनाया है। कहा है : चांद तो होता गगन का, चांदनी सबके लिए बांसुरी चाहे पराई हो, रागिनी सब के लिए बांध सकते हैं फूल लेकिन गंध बन्ध सकती नहीं दीप किसी का भी हो, रोशनी सब के लिए || चन्द्रमा भले आकाश का कहा जाय परन्तु इसका प्रकाश सभी के लिए होता है, बांसुरी भले एक व्यक्ति की हो परन्तु उस का सुर सब के लिए होता है । फूल चाहे उद्यान में हो फिर भी उसकी सुगंध सबके लिए होती है। वैसे ही श्री हेमेन्द्र सूरिजी त्रिस्तुतिक परम्परा के हों मगर उनका प्रेरणादायी क्षमारूपी जीवन उज्ज्वल चरित्र सभी के लिए है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 17 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति For Pilaaina Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ । 4विरल महापुरुष साध्वी सिद्धान्तगुणाश्री जीवन को मधुर बनाया आपने | मधुरता से जीवन को संजाया आपने || सद्गुण गरिमा से मंडित होकर - शालीनता से संयम दीप जलाया आपने || जड़ रत्न की भांति नर रत्न भी अपनी आत्मीक प्रभा से देदीप्यमान है । जैन जगत में ऐसे अनेक नर रत्नों ने अपनी निर्मल प्रभा से जग को आलोकित किया है । अपना आत्म साध्य तो उनका लक्ष्य ही है । परन्तु अपने तेजस्वी जीवन में अन्य भव्यात्माओं को भी आत्म साधना के पथ पर अंगुली पकड़कर चलना भी सिखाया है । वे महापुरुष बागरा नगर के नर रत्न राष्ट्रसंत शिरोमणि पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. आज भी जन जन को साधना मार्ग पर निरन्तर बढ़ने की प्रेरणा देते रहते हैं । जिनके मुख मंडल पर मृदु स्मितता वाणी में मधुरता, भावना में भव्यता हृदय में संवेदनशीलता व विशालता है । दृष्टि में विशालता व्यवहार में कुशलता, अन्तःकरण में कोमलता जिनका मूर्तिमंत जीवन, हृदय दर्पण स्वच्छ व निर्मल है । ऐसे विशाल व्यक्तित्त्व एवम् जिनका जीवन साधनामय उन परमादरणीय गुरुदेव श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के संयम जीवन के 62 बसन्त पूर्ण करके 63 वें वर्ष में प्रवेश करेंगे । यह हमारे जीवन में बहुत प्रसन्नता की बात है । आपका विशाल जीवन और पद विहार यात्रा जन जन के मन को प्रफुल्लित करने वाली है । आपकी असीम कृपा और आशीर्वाद हम सभी को मिलता रहे यही कामना करती हूं। आपका जीवन गुलाब की तरह महकता रहें और उसकी सौरभ से जन गण मन आनंदित होते रहें । सूर्य की तरह आपका व्यक्तित्व हमेशा प्रकाशमान रहे । चांद की तरह अमृत किरणें बरसाते रहो यही शुभ भावना भाती हूं । पूज्य गुरुदेव श्री के चरणों में श्रद्धापूर्वक अपने भावों को समर्पित करती हूं । युग-युग जीओ प्यारे गुरू पर मम जीवन का उद्धार करो । श्रद्धा भक्ति के उन सुमनों को श्री चरणों में स्वीकार को | राष्ट्रसंत शिरोमणि का अभिनन्दन हो शत-शत बार साध्वी भव्यगुणाश्री महापुरुष मानव समाज के गुलशन में खिले हुए ऐसे फूल हैं जो कभी मुरझाते नहीं, कभी कुम्हलाते नहीं । उनकी जिंदगी फूल की तरह सुंदर खिली हुई होती है | उनकी खुशबू फूल की सौरभ तरह सुरभित होती है । उनकी खुशबू से समाज की बगिया महकती रहती है । मानव समाज उनसे शोभा पाता है । गुलशन में तो कुछ फूल खिलते हैं । किंतु महापुरुषों के जीवन में सद्गुणों के हजार-हजार फूल खिला करते हैं । उनके जीवनाकाश पर ज्ञान का सूर्योदय शान्ति का इन्दु सदा उदीयमान रहता है । वे जैसे भीतर में होते हैं, वैसे ही बाहर और जैसे बाहर वैसे ही भीतर होते हैं । विपरीतता उनसे कोसों दूर रहती हैं। इसलिए तो मानव समाज उनके चरण कमलों में श्रद्धा के सुमन अर्पित कर अपने आपको कृत्तार्थ और धन्य समझता है । उन्हें पूजता है और देवता मानता है । हेगेन्च ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 18 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ उन्हीं महापुरुषों की अमर कड़ियों में वर्तमान गच्छाधिपति राष्ट्रसंत शिरोमणि प. पू. आचार्यदेवेश श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. भी एक दिव्य कड़ी है। तम्हारे त्याग से अलौकिक सारा जहाँ है | तुम्हारे नाम से बना अनूठा समाँ है | किस प्रतिभा को बखानूं मैं तुम्हारी | नभ मंडल में गूंज रही तुम्हारी महिमा है || आज पूज्य गुरुदेव जीवन की जिस ऊँचाई पर पहुंचे हैं, सहज में नहीं पहुंच गये, दीर्घकाल तक तपस्या से होकर गुजरे हैं । यथार्थ की कठोर असि धारा पर चलकर उन्होंने जीवन-महल का निर्माण किया है । हमारी दृष्टि केवल सतह पर वर्तमान में टिकी होती हैं । परंतु हम गहराई में कहां जाते हैं । हम देखते हैं कि वट वृक्ष बनने से पूर्ण बीज को धरती की कोख में एवं अंधकार में जाना पड़ता हैं । तब कहीं जाकर वह साधारण बीज आकाश की ऊंचाइयों को छू पाता है । सदियों से शस्य श्यामला भारत वसुन्धरा ऐसे नररत्नों को जन्म देती आई है । आज भी यह क्रम जारी है, निरंतर जारी है। पू. गुरुदेव का यह जीवनोत्सव यह अमृतमहोत्सव हमारे जीवन में बहार लाए, हमारे जीवन को और समाज को नया मोड़, नयी दिशा एवं नयी चेतना दे और यह अमृत महोत्सव हमारे जीवन का सौभाग्य बन जाए । अनन्त वात्सल्य के झरने से आप्लावित होकर हम सदभागी बने हैं और चिरकाल तक इसी सद्भाग्य को पाते रहें यही अंतर की मंगल मनीषा है । हे दयालु परमात्मा ! आज इन ज्योतिर्मय क्षणे में हम वंदन करते हैं । हृदय से अभिनन्दन करते हैं तथा मंगल क्षणों में चिरजीवन के लिए प्रार्थना भी करते हैं। ऐसे प्रकाशपुंज, तेजस्वी रत्न, ज्ञानपुंज को असीम श्रद्धा के साथ कोटि कोटि वंदना । जनम-जनम तक तव चरणों का साज मिले | बढ़े कदम जिनपथ की ओर नव निर्माण का राज मिले | जीवन को इस मधुर एवं पावन सुबेला में प्रभु से प्रार्थना कि हजारों वर्ष की उम्र आपको मिले | मतप व त्याग के प्रतीक आचार्य भगवन्त साध्वी विमलयशाश्री त्याग व तपस्या से अन्तःकरण पावन व निर्मल बनता है । गुरु से ज्ञान, मार्गदर्शन एवं दिशाबोध होता है । गुरु कृपा से लक्ष्य प्राप्ति में संदेह नहीं रहता । तप व त्याग की प्रतिमूर्ति परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद्विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के 'जन्म अमृत महोत्सव' एवं 'दीक्षा हीरक जयन्ती के शुभ अवसर पर आपश्री के दीर्घायु होने एवं स्वस्थ रहने की मंगल कामना करती हूं । साथ ही यह आशा करती हूं कि आपके मार्गदर्शन में समाज धर्माराध ना व तपस्या के सुपथ पर निरन्तर अग्रसर होकर जीवन को सार्थक बनाने में जुटा रहेगा । सहजता, सरलता व प्रसन्नता आपश्री के गुण हैं । आपके सान्निध्य में जो कोई रहता है, उसके साथ सदैव ही आप स्नेह एवं वात्सल्यपूर्ण व्यवहार करते हैं । मुझे भी पूज्य आचार्यदेव के सान्निध्य में रहने का सुअवसर मिला है । पूज्य आचार्यश्री तो इस जीव जगत् को परमात्मा की अभिव्यक्ति ही मानते हैं और हमें प्राणिमात्र के कल्याण हेतु बड़े ही धीर, गंभीर और शांत स्वर में फरमाते हैं - "महान पुण्य के उदय से संयम जीवन मिला है । भगवान महावीर के शासन के प्रति सदैव वफादार रहना ।" हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 19 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति w.sanelibrary.org) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ प्रातः स्मरणीय दादा गुरुदेव आचार्य श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. द्वारा उद्घाटित त्रिस्तुतिक परम्परा का बीज आज आचार्य श्रीमद् हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के शासन में पल्लवित, पुष्पित, फलित वृक्ष के रूप में त्रिस्तुतिक जैन संघ को ही नहीं सम्पूर्ण 'मानवता को अपनी छत्र छाया में पूर्ण सुरक्षित करके आत्म विकास एवं मानव कल्याण की ओर अग्रसर कर रहा है। प. आचार्यदेव श्रीसंघ की गंभीर समस्याओं का बहुत ही सहजता से निदान कर देते हैं । बड़ी से बड़ी विपत्ति में कभी विचलित नहीं होते । अंतर्विरोधों को लेकर आपके समक्ष आने वाले किसी व्यक्ति का संशय आचार्यदेव के दर्शन मात्र से ही समाप्त हो जाता है । ऐसे महान प्रभावशाली आचार्यश्री के सद्गुणों का बखान करना उतना ही दुष्कर कार्य है जितना सागर की गंभीरता का बखान करना या चद्रमा की शीतलता का । __मानव कल्याण की कामना के साथ ही करुणा, त्याग व ज्ञान की प्रतिमूर्ति पू. आचार्य श्री के चरणों में काटि-कोटि नमन् । गुरू तेरे गुण अपार साध्वी समकितगुणाश्री शास्त्रों में देव, गुरु, धर्म ये तीन तत्त्व बताये हैं । जिनमें गुरु तत्त्व की विशेष महिमा बताई हैं, क्योंकि धर्म की पहचान तथा सुदेव की पहचान कराने वाले, अज्ञान का पर्दा हटाने वाले गुरु ही होते हैं । गुरु भगवंत कष्टदायी जीवन जीकर स्वकल्याण के साथ सर्व जगत का कल्याण करने में तत्पर रहते हैं तथा सभी को धर्म के पथ की तरफ ले जाते हैं । हीरे की पहचान जौहरी ही करवा सकता है पत्थर की पहचान शिल्पी ही करवा सकता है इसी प्रकार धर्म की पहचान भी ज्ञानी गुरु ही करवा सकता है ऐसे ही महान गुरु - इत्र के मिट्टी में मिलने पर भी, महक जाती नहीं । तोड़ भी डालो तो हीरे की चमक जाती नहीं || महान गुरू किसी भी दिशा में विचरे मगर - उनके भीतर रहे सद्गुण कही छिपते नहीं || फूलों से लदी सुरभित वाटिका से कोई गुजरे और उसे देखकर उसका मन आनन्दित न हो, यह कैसे सम्भव है? चांद की सुन्दर चांदनी खिली हो और मन प्रसन्नता से न भर जायें यह हो नहीं सकता । वसंत ऋतु में आम्रवन में कोयल चुप रहे, यह संभव कभी नहीं, बादलों से भरे आकाश को देखकर मयूर कभी चुप नहीं रहता, वैसे ही गुरुदेव की वाणी से किसी का मन प्रफुल्लित न हो, यह कभी नही हो सकता । गुरुदेव के सम्पर्क में आने वाला व्यक्ति अपने आपको धन्य एवं कृत्त कृत्य माने बिना नहीं रह सकता । जहाँ जहाँ आप पदार्पण करते हैं । वहाँ वहाँ भव्य जीवों का अज्ञान तिमिर विलीन हो जाता है । पूज्य गुरुदेव में अनन्त वात्सल्य को देखती हूं । गुरुदेव की करुणा असीम है, बड़े से बड़े अपराधी को भी दयामय ज्ञान गंगा में नहलाकर वे पवित्र कर देते हैं । आप इतने ज्ञानी है, इतने लब्धप्रतिष्ठित है फिर भी तनिक अभिमान नहीं । नदी के झरने जैसा निर्मल हास्य, समुद्र जैसा विशाल हृदय, उच्च शिखर जैसा पावन जीवन, पूर्णिमा की ज्योत्सना जैसे शीतल विचार आपके जीवन में अनन्य हेतु है । आपने कभी अपने तन को अपना नहीं माना, अपनी तकलीफ को अपनी नहीं मानी, जन-जन के कल्याण व अज्ञान मिटाने के लिए भक्तों के आग्रह को पूरा करते हुए उनका उत्साह और आगे बढ़ाने के लिए अस्वस्थता की दशा में आप लम्बे लम्बे उग्र विहार करके त्याग-तपस्या में संकोच नहीं करते हैं । फूल स्वयं कांटो में घिरा रहकर भी दूसरों को अपनी सुवास देता है, मन को आनन्दित करता है । वैसे ही गुरुदेव स्वयं किसी भी कठिनाई में रहेंगे फिर भी जन मानस को खुशी का अनुभव कराते हैं। अपनी मधुरवाणी से सबके हृदय को तरोताजा करते हैं । हेमेन्द्र ज्योति हेमेटा ज्योति 20 हेमेन्द्रज्योति* हेगडट ज्योति parUse Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन पंथ मेरी सीमित बुद्धि आपके विशाल गुणों का अंकन करने में असमर्थ हैं, तो भी भक्ति भावना से निमज्जित होकर मंगल कामना करती हूं । आपके दीक्षा जीवन के स्वर्णिम वर्ष व्यतीत हुए हैं, भविष्य में भी आप चिरकाल तक स्वस्थ रहते हुए अपनी साधना में संलग्न रहते हुए त्रिस्तुतिक संघ का नेतृत्व करते रहें । गुरुदेव ! आप दीर्घायु हों और जैन समाज की यह धर्म पताका इसी प्रकार ऊंची रहे और हम भी आपकी निश्रा में आत्मश्रेय के लिए अधिकाधिक प्रगति करते रहे । इसी कामना के साथ मेरी परम आस्था के केन्द्र पू राष्ट्रसंत शिरोमणि श्रद्धेय गुरुदेव श्री हेमेन्द्र सूरिजी के चरणों में हार्दिक वंदन ! अभिनंदन । पू. गच्छाधिपति हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की जीवन झरमर साध्वी मणिप्रभाश्री गच्छाधिपति गुण गणं गणिनं सुसौम्यं वंदामि वाचक वरं श्रुतदान दक्षं | जैनशासन रत्नों की खान है । पंच परमेष्ठी भगवंत इसकी शान है । आचार्य का स्थान इन पंच परमेष्ठी में बीच में रहा हुआ है। "तित्थयर समो सूरि" तीर्थकर का काल अति अल्प होता है । प्रभु वीर की हाजरी मात्र 42 वर्ष रही । प्रभु वीर के निर्वाण के 3 वर्ष और 81/2 महिने के बाद पांचवां आरा बैठा । इस पांचवें आरे के पूरे 21000 वर्ष तक प्रभु महावीर स्वामी का शासन अखंड रूप से चलने वाला है । और इस शासन की धुरा को वहन करेंगे अनेकानेक सूरि सम्राट, तीर्थंकर की गैरहाजरी में आचार्य भगवंत का स्थान तीर्थकर के जितना ही महत्वपूर्ण होता है । इस शासन में पू. हरिभद्रसूरि, पू. हेमेचंद्राचार्य, पू. सिद्धसेन दिवाकर सूरि, पू. मुनिसुंदर सूरि जैसे महाप्रभावक अनेक आचार्य हुए । जिन्होंने स्वयं अनेक विध कष्टों का सामना किया, स्वयं ने जहर पिया और समाज को अमृत दिया । शासन पर आने वाले विघ्नों के सामने अडिग खड़े रहे । बीसवीं सदी में हुए पू. प्रातः स्मरणीय विश्व पूज्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज। जिन्होंने शिथिलाचार को दूर करके वर्तमान साधु जीवन को अत्यंत सुदृढ़ बनाया था । उन्हीं की परम्परा में षष्टम पट्टधर के रूप में हमें प्राप्त हुए है पू. गच्छाधिपति हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. | पू. गच्छाधिपति का जीवन अत्यंत शांत सरल करुणा से भरा है । चारित्र पालन की अत्यंत लगन । अत्यंत निस्पृह निष्परिग्रही एवं छोटी से छोटी वस्तु की भी तकेदारी रखना इनका स्वभाव है । जिस प्रकार गांधीजी अपने जीवन में किसी वस्तु की उपेक्षा नहीं करते थे, ठीक उसी प्रकार पू. सूरिजी भी किसी वस्तु का पूरा कस उठाए बिना फेंक नहीं देते । जिस प्रकार वस्तु की कीमत इन्होंने की है, उसी प्रकार सर्व जीवों के साथ भी मैत्री भावना द्वारा जीवों का भी मूल्यांकन किया है । छोटा या बड़ा, बाल या वृद्ध स्त्री या पुरुष श्रीमंत या रंक सभी को समभाव से देखते हैं। सभी को अपनी मीठी एवं करुणा से भरी वाणी से धर्म में जोड़ देते हैं । इनकी वाणी में वह आभा एवं वह जोश है तथा वह सिद्धि है जो पूर्व के महापुरुषों में हम पाते हैं । इनका वचन कभी निष्फल नहीं जाता । मनोबल भी इन पूज्यश्री का उतना ही तगड़ा है । जो एक बार सोच लेते हैं, उसको करके बताते हैं | जिस प्रकार मनुष्य की कीमत करते हैं, उसी प्रकार सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव रूपी रतन के जतन करने में भी कुशल झवेरी हैं । एक भी जीव अपनी असावधानी से मर न जाए इसकी पूरी जागृति रखते हैं । इसी हेतु पूज्यश्री का समय तेज ब्रह्म तेज खूब खूब बड़ा है । इतना ही नहीं प्रभु भक्ति की साधना भी आपकी अद्वितीय है । आप मंदिर में जब स्तवन बोलते उस समय सारे भक्त अपनी क्रिया को छोड़कर आपके स्तवन में लयलीन बन जाते हैं । हेमेन्ट ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 21 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्ध ज्योति Chintain Poon Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ आज 86 वर्ष की उम्र में भी तप करने में पीछे नहीं रहते । अत्यंत जितेन्द्रिय, निरभिमानी कैसे आचार्य भगवंत के दर्शन हृदय के पाप धोने में समर्थ है । इनके साथ में अगर अपना सामीप्य हों गया तो अपने जीवन की बेटरी भी चार्ज हो आत्म कल्याण को कर सकती है । दर्शन ज्ञान चारित्र एवं तप की साक्षात् प्रतिकृति सम पूज्य आचार्य श्री सतत खूब खूब शासन प्रभावना करें । इनके हाथ में ऐसा जादू है । इनके हाथों से जिस भाग्यशाली को दीक्षा मिलती है उनका जीवन धन्य बन जाता है । इसमें कोई शंका नहीं । मेरे भी दीक्षादाता गुरु आप ही होने से मेरा अनुभव रहा है कि आपके वासक्षेप में प्रभाव है। जहाँ जहाँ भी आप प्रतिष्ठादि करवाते हैं, वहाँ गांव नगर की उन्नति एवं बढ़ावा होता है । आपके सान्निध्य में कई संघ निकले । कई अंजनशलाका, प्रतिष्ठाएं आपने करवाई । आपके सुविनीत शिष्य आपकी खड़े पैर सेवा करते हैं । जो अत्यंत सराहनीय है जब-जब भी आपके वंदनादि का लाभ मिला ... कोई न कोई नई प्रेरणा हमें मिली है । आपकी कृपा दृष्टि हम पर सतत बनी रहें । आपका सुउज्ज्वल चारित्र हमारे पाप मेल को धोकर आत्मा को स्वच्छ बनाएं । इसी कामना के साथ आपश्री के चरण कमलों में हमारा सविनय शत-शत वंदन । महान व्यक्तित्व के धनी - श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. साध्वी तरुणप्रभाश्री मझधार में भी किनारा मिल गया, तूफानों में सहारा मिल गया, गजब है गुरू नाम का करिश्मा, अंधेरे में भी उजाला मिल गया ।। पुष्प वाटिका में अनेकानेक मन मोहक पुष्प प्रातः काल में खिलते हैं तथा अपनी रंगीन आभा एवं मनोहर सौरभ छटा को बिखेरते हुए सन्ध्या सुन्दरी के समय ममतामयी क्षमाशील धरती की गोद में अपने आप को समर्पित कर देते हैं । ठीक वैसे ही विश्व की सुरम्य मधुर वाटिका रूप मरुधर भूमि की ऐतिहासिक नगरी बागरा, जहां परम पूज्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. ने व्याख्यान वाचस्पति की महान् पदवी प्राप्त की थी । वो नगरी कितनी अनुपम और महान होगी । जिसका वर्णन हम जिह्वा से नहीं कर सकते हैं । ऐसी ही सुरम्य नगरी बागरा में एक बालक सुमन (पूनमचन्द) के रूप में श्रीमान् ज्ञानचन्दजी की धर्मपत्नी उजमबाई की रत्नकुक्षि से उदित हुआ था । मरुधर भू की शुभ नगरी बागरा जहां जन्म तुम पाया था। ज्ञानचन्द पिता जननी उजम कुल को जग में सरसाया था || भले ही पुष्प कितनी दूरी पर क्यों न खिले, मगर उसकी गंध छिप नहीं सकती हैं । वैसे ही होनहार बालक पूनमचन्द के जन्मते ही सर्वत्र खुशियाँ छाने लगी । होनहार बालक के लक्षण पहले ही दिख जाते हैं । होनकार बिरवान के, होते चिकने पात" क्योंकि अम्बर पर जब सूर्य उदित होता है, तब केवल प्रकृति ही नहीं समस्त जगत हर्ष विभोर हो जाता है, सारी धरा उजाले से भर जाती है । गुलाब का एक फूल डाल पर खिल जाता हैं, तब वो डाल ही नहीं, पूरा मधुवन महक उठता है और जब किसी असाधरण विभूति का धरातल पर अवतरण होता है तो केवल परिवार ही नहीं, सारा विश्व प्रफुल्लित हो उठता है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 22 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Fonts Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ I वैसे ही परम श्रद्धेय श्री हेमेन्द्रसूरीश्वरजी के जन्म पर सर्वत्र आनंद की रश्मियां बिखर रही थी। द्वितीया के चन्द्रमा के समान आपका जीवन पुष्प विकसित हो रहा था और साथ ही वैराग्य के भाव भी बढ़ रहे थे । मानों वैराग्य भावनाओं को साथ लेकर ही जन्में हो। उसी कारण आपश्री परम पूज्य श्री हर्षविजयजी म.सा. के सान्निध्य में युवा वय में ही संयम की राह पर चल पड़े। दीक्षा के पश्चात् मेधावी बुद्धि होने के कारण थोड़े ही दिनों में आपके जीवन रूपी उपवन में ज्ञान की फुलवारी खिलने लगी । देखकर गुरु श्री हर्षविजयजी म.सा. को अपरिमित संतोष था । उनके मुखसे निम्न मेधावी शिष्य के जीवन को वाणी झंकृत हो जाया करती थी चन्दन को टुकडों भलो, गाड़ी भली न काठ | चतुर तो एक ही भलो, मूरख भला न साठ || ज्ञान के साथ ही आपके जीवन में सरलता मृदुता, सौम्यता सहिष्णुता, करुणा, दया आदि अनेकानेक गुणों की झांकियां देखने को मिलती हैं । दया तो रग-रग में भरी हुई हैं अतः किसी का दुख देख नहीं सकते हैं । दीन दुखियों की सहायता करना आप अपना परम धर्म समझते हैं । अपने गुरु के पावन सान्निध्य में रहते हुए तथा गहनतम अध्ययन करते हुए भी आप बचपन से ही सेवाभावी बन गये। 'सेवा से मिले मेवा उस बात को सार्थक करने के लिए आपने अपने जीवन में सेवा धर्म को अपनाया । मन ही मन किसी का मुक्तक गुनगुनाते रहते थे - वह तन किस काम का, जो किसी की सेवा न कर पाया । वह मन किस काम का जो दुःखियों के हृदय जख्म न भर पाया, निरर्थक है उस धन का पाना, जो किसी की जिन्दगी को संवार न पाया || पूज्य श्री ने अंततः सेवा से मेवा प्राप्त कर ही लिया । याने साधु समाज एवं श्रीसंघ ने अनेकानेक गुणों के कारण प. पू. कविरत्न श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी के देवलोक गमन के पश्चात् वि. सं. 2040 माघ सुदि 9 दिनांक 10-2-1983 को आहोर (जि. जालोर) में अत्यन्त समारोह पूर्वक आचार्यपद से आपको अलंकृत कर दिया । जैसे आचार्य पदवी के पश्चात आपने अपने जीवन में अनेकानेक गांव नगरों में विचरण कर अनेक अंजनशलाकाएं प्रतिष्ठाएं सम्पन्न करवाई और बम्बई जैसी महा नगरी में आपने राष्ट्रसंत शिरोमणि की पदवी प्राप्त की । गांव गांव, नगर - नगर में धर्म की धूम मचा दी । जहां तहां सर्वत्र धर्म का रंग उतना फैलाया कि लोग धर्म के रंग में रंगने लगे। वृक्ष की शीतल छाया में विश्राम लेने वाले पथिक को अपूर्व शांति का अनुभव होता है, वैसे ही पूज्यश्री के सान्निध्य में लोगों को अपूर्व धर्म का लाभ और आत्म शांति प्राप्त होती है । सूर्य हजारों मील दूर है, किन्तु उसकी प्रभा से कमल खिल उठता है, वैसे ही आपश्री का उपदेश तो दूर रहा, किन्तु आपकी शांत और मौन जीवनचर्या भी हजारों व्यक्तियों को प्रेरणा देती हैं । आप अपनी साध्वाचार की क्रिया में अंशमात्र भी दोष नहीं लगने देते हैं । वृद्धावस्था होते हुए भी सारा काम अपने हाथों से करते हैं। आपश्री की स्नेह सरिता कल कल छल छल करती हुई सदा प्रवाहित रहती है और पाप पंक को नष्ट कर देती हैं सदा खिलते हुए मुख कमल को देखकर जो भी एक बार सम्पर्क में आता है वह प्रभावित हुए बिना नहीं रहता है । Education ऐसे परम पूज्य गुरुदेव श्री हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. युगों युगों तक जीए और प्राणिमात्र को धर्म की राह बताये। इसी शुभ कामना के साथ शत् शत् वंदन - फूल तो बहुत 'है, परन्तु गुलाब तो गुलाब है । सितारे तो बहुत है लेकिन चांद तो चांद है । जैन शासन में आचार्य तो बहुत है लेकिन - हेमेन्द्र जैसा कोई नहीं हेमेन्द्र तो हेमेन्द्र है || हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 23 हेमेन्द्र ज्योति हेमेजर ज्योति Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ । 4 मेरे अनंत अनंत श्रद्धा दीप साध्वी कल्पदर्शिताश्री भारत भूमि रत्नगर्भा है । इस वसुन्धरा ने अनेक रत्न उगले हैं । ऐसे ही रत्नों में से एक दीप्तिमय रत्न अपनी पूर्ण आभा के साथ तेजस्वी छटा बिखेर रहा हे । यह रत्न सामान्य परम्परा में नहीं बल्कि ऋषि परम्परा में जाज्वल्यमान है । पू. गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की परम्परा में वर्तमानाचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. के व्यक्तित्व को अंकित करना मुझ जैसे व्यक्ति के लिए सूर्य को दीपक दिखाने के समान है । जो स्वयं प्रकाशमान हैं उनके जीवन पर प्रकाश डालने की धृष्टता कैसे की जा सकती हैं? उनके बहुमुखी, आयामी व्यक्तित्त्व के किस आयाम को मैं स्पर्श करूं? प्रत्येक आयाम परिपूर्णता लिए परिलक्षित होता है । गुरुदेव में गुणों का सागर लहरा रहा है, कौन भी तरंग मेरी पकड़ में आ सकती है? कहां से शुरू करूं? यही उलझन है । पूज्य गुरुदेव में मां के अनंत वात्सल्य को देखती हूं, उनकी करुणा असीम है । उनके हर कार्य को मैं करुणा प्रेरित ही पाती हूं । उनके नेत्रों में कभी शेष मिश्रित लालिमा नहीं देखी। 2 वर्ष से निरन्तर पू. गुरुदेव के श्री चरणों की निकटता का अवसर मिला मगर एकबार भी गुरुदेव के रूठने का अहसास होता तो मैं मान लेती कि गुरु भी रूठा करते हैं । गुरुदेव प्रशांत महासागर हैं, जो बाहर के तूफानों के बावजूद गहराई में सुस्थिर है | श्रद्धास्पद गुरुदेव में प्रबल आत्म विश्वास, धैर्य, साहस एवं अनेकान्त दृष्टि से अवलोकन करने की अपूर्व क्षमता है । आपने जिस कार्य के लिए कदम उठाए वह पूर्ण होकर ही रहा है - "प्राण प्रतिष्ठा कार्य में, हाथ तुम्हारा हलका, जहां पदार्पण किया आपने, कि धन का घट छलका | एक महोत्सव हुआ न पूरा, और निमंत्रण आए, अल्पकाल में कई शिखर पर, तुमने ध्वज लहराएं ।" जहां जहां आप श्री पदार्पण करते हैं वहां वहां भव्य जीवों का अज्ञान तिमिर विलीन हो जाता है और वे विवेक के दिव्य प्रकाश में जगमगाने लगते हैं । तुम एक अलौकिक हो त्रिभुवन में सचमुच लाखों में । हे गुरुवर | मधुर शांत रस भरा हुआ, भरपूर तुम्हारी वाणी में | बहुमुखी प्रतिभा के धनी पू. गुरुदेव के व्यक्तित्व को शब्दों में बांधना संभव नहीं है फिर भी मैंने यह प्रयास किया है कि गुरुदेव के प्रति श्रद्धा का जो उपवन अभिनंदन ग्रन्थ के माध्यम से संजोया संवारा जा रहा है और जिसकी विशालता आंकना मेरे लिए संभव नहीं है । उस उपवन में मैं भी अपनी श्रद्धा के दो सुमन किसी क्यारी के एक कोने में संजोकर अपने शिष्यत्व के दायित्व का निर्वाह करूं । इसी कामना के साथ मेरी परम आस्था के केन्द्र पू. श्रद्धेय गुरुदेवश्री के चरण कमलों में हार्दिक वन्दन । 'गुलाब बनकर महक, तुझको जमाना जाने, तेरी भीनी-भीनी महक, अपना बेगाना जाने | सैर की, फूल चुने, खूब फिरे, दिल शाद रहे, ए बागवां कविता चाहती है गुलशन सदा आबाद रहे ।।" हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 24 हेगेन्द ज्योति* हेमेन्य ज्योति Edel Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ आस्था के आयाम "दशो दिशाओं में गूंज रहे हैं, गीत तुम्हारे सुबह और शाम । मंगल पावन अवसर पर स्वीकार करो शत शत प्रणाम || भारत देश संतों का देश है । भारत देश महन्तों का देश है। भारत देश अरिहंतों का देश है । भारत देश भगवंतों का देश है । इस पुण्यदेश में अनेकानेक पीर पैगाम्बर ऋषि महर्षि वीर भगवान हुए हैं जिन्होंने न केवल अपना ही कल्याण किया, किन्तु जन-जन के कल्याण हेतु कठिन पुरुषार्थ भी किया और अन्त में सफलता का वरण किया । उन्हीं महामनीषियों की लड़ी कड़ी में मेरी आस्था के आयाम परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य प्रवर श्रीमद्विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का नाम स्वर्णिम आभा के साथ-साथ जुड़ा हुआ है । साध्वी मनीषरसाश्री आचार्य अर्थात् जिसका आचरण पवित्र हो, जो आचारवान हो वही आचार्य । आचार्य दो प्रकार के होते हैं लौकिक और लोकोत्तर पहला आचार्य । शिल्पाचार्य, गुरुकुलाचार्य, आयुर्वेदाचार्य आदि लौकिक आचार्य तथा धर्माचार्य लोकोत्तर आचार्य है । जैन धर्म में आचार्य का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है । प्रसिद्ध नवकार महामंत्र के पांचों पदों में आचार्य ठीक मध्य में देहली दीप की तरह सुशोभित है जो मध्य में होता है, वह बीच में ही होता है उसका विशिष्ट महत्त्व भी होता है। नाभि शरीर के मध्य में है। सुमेरु पर्वत मध्य में है, मालव प्रदेश भारत के मध्य में है, तो इनका अपना अपना महत्त्व भी है । जैनशास्त्र के नंदीसूत्र में आचार्य को सारथी की उपमा दी है। जैसे सारथी अपने रथ का संचालन करता है और उसे गन्तव्य स्थान पर ले जाता है ठीक उसी प्रकार साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध घोड़ों से जुते हुए संघ रूपी रथ को आचार्य रूपी सारथी संघ की बागडोर सम्हालता हुआ गन्तव्य आत्मसिद्धि के स्थान पर ले पहुंचता है । "जिणाणं तारयाण पद को सार्थक बना देता है । जो श्रेष्ठ उत्तम आचारवंत साधु होता है वह संघ की श्रद्धा का पात्र होता है। उसकी देख-रेख एवं मार्गदर्शन में सारा संघ आध्यात्मिक उन्नति प्रगति करता हुआ आगे बढ़ता है । आचार्य और संघ का सम्बन्ध फूल और डाली का संबंध है। आचार्य फल है तो संघ डाली है । "श्रमण संघ" का एक अभूतपूर्व सद्भाग्य है कि आज उसे ऐसे ओजस्वी तेजस्वी आचार्य का सान्निध्य मिला है कि जिनके जीवन में कण-कण में संयम की प्रतिष्ठा है। आपश्री ज्ञानयोगी, ध्यान योगी और सिद्धजपयोगी है आपके अन्तर मानस में स्वर्ग को धरती पर उतारने की प्रबलतम इच्छा है । इस हेतु आप जीवन के उषाकाल से ही प्रयत्नशील बने हुए हैं । ducatice आपश्री की स्वास्थ्य सुषमा सम्यग् प्रकार से जगमगाती रहे आपकी छाया सदा मुक्ति पर बनी रहे और आप स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन को प्राप्त हों । मेरी आस्था के भाव पुष्प आपश्री के चरण कमलों में समर्पित करती हूं। इन आस्था पुष्पों में भले ही मनमोहक सुगन्ध न हो, आकर्षिक रूप रंग न हो, परन्तु ये श्रद्धा पुष्प अपने भाव रूपी नीर से सिंचित है, आचार्यश्री के प्रति गहरी आस्था और निष्ठा से भीगे हुए हैं । अतः जो कुछ मेरे पास है, जैसे भी हैं, जितने भी हैं सेवा में समर्पित हैं, स्वीकार करें । पूज्यवर ! मुझे आशीष के साथ यह मंगलमय वरदान दीजिये कि मैं भी आपके चरणों का अनुसरण, अनुकरण करके संघ सेवा करती हुई अपने चरमलक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर सकूं । 'आस्था के आयाम ! चिरयुग तक करते रहें, धरा पर, जिनवाणी का विमलोद्योत । और बहा दो इस धरती पर, आध्यात्मिकता का नव स्रोत || हेमेन्द्र ज्योति ज्योति 25 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 4 अनुभव की अनुभूति की एक झलक साध्वी अनुभवद्रष्टाश्री गुजराती बगीचे में फूल तो बहुत खिलते हैं मगर गुलाब तो गुलाब है आकश में सितारे भी बहुत हैं पर चांद तो चांद ही हैं दुनिया में गुरुवर तो बहुत देखे लेकिन गुरू हेमेन्द्र जैसे नहीं हेमेन्द्र तो गुरू हेमेन्द्र ही हैं | ___ यह वसुंधरा अनेक बहुमूल्य आकर्षक मनीषी रत्नों से भरपूर हैं । राजस्थान की मरुस्थल भूमि के जालोर जिले की बागरा नगरी के निवासी श्रेष्ठीवर्य श्रीमान ज्ञानचंदजी की धर्मपत्नी उजमबाई की कुक्षि से भारतवर्ष के होनहार सितारे ने जन्म लिया । बाल्यकाल से आप धर्मवृत्ति में अग्रसर थे । आपने संस्कृत, प्राकृत के अध्ययन पर बहुत तल्लीनता से ध्यान दिया और वैराग्य वासित भावना को परिपूर्ण करने के लिये आपने ज्ञानी, ध्यानी, परमयोगी, थीरपुर नगरी के परम उपकारी गुरुदेव श्री हर्षविजयजी के पावन पवित्र चरणों में पारमेश्वरी प्रव्रज्या ग्रहण करके गुरुदेव के चरणों में सर्वस्व अर्पण किया । गुरुदेव आपने अपने ओजस्वी तेजस्वी और यशस्वी चारित्र के प्रभाव से जन जन के हृदय में स्थान प्राप्त किया । आप एक जैनाचार्य नहीं, धर्माचार्य नहीं, बल्कि आप एक ऐसे कवि हैं कि आप के मुखारविंद से यदि एकबार परमात्मा की भक्ति के रूप में स्तवन भक्तिगीत सुन लिया हो तो सुननेवालों को यहां से उठने का मन नहीं बन पाता, बहुमुखी प्रतिभा के धनी परम पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति वर्तमान आचार्यदेवेश श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी के व्यक्तित्व को शब्दों में बांधना संभव नहीं है। फिर भी मैंने यह छोटा सा प्रयास किया हैं । गुरुदेव के प्रति श्रद्धा का जो उपवन अभिनंदन ग्रंथ के माध्यम से संजोया संवारा जा रहा हैं । इस श्रद्धा सुमन के खिले उपवन में भी अपनी मन की विचारधारा के दो सुमन किसी क्यारी के एक कोने में संजोकर मैं अपने आपको भाग्यशाली मानती हूं, क्योंकि इन योगी पुरुष के सचरित्र के विषय में लिखना मेरे वश की बात नहीं हैं फिर भी मेरे मन ने गुरुदेव के जीवन के प्रतिभाव भरी प्रस्तुति व्यक्त की आत्मा का गुण भी स्वरूप की अपने आपके अनुभव की अगम्य भावना के बल में मैं जो भी लिख रही हूं वह अल्प से भी कम हैं । मैंने कई बार आपके पावन सहयोग और पवित्र निश्रा में रहकर आपके प्रतिभा संपन्न विचार वर्तन और बोली के माध्यम से मैंने जो देखा जो पाया वह एक उच्च आदर्श के प्रतीक के रूप में हैं । आप इस अवस्था में अपनी क्रिया के प्रति जो रूचि, जो रस लेते हैं वह आनेवाली नई पीढी के लिये वरदान के रूप में है । सद्गुरु का महत्व भारतवर्ष में आज से नहीं अतीत काल से रहा है । बिना गुरु से ज्ञान प्राप्ति नहीं होता । गुरुदेव ही जीवन नौका के नाविक है । वो ही संसार समुद्र से पार करते हैं। तपस्वी रत्न गुरुदेव शीतकाल की भरसक ठंड में आप विहार के कार्यक्रम में भी अपनी अविरल गति से चल रही ज्ञान पंचमी की आराधना एवं गुरुदेव विश्वपूज्य कलिकाल कल्पतरु श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी की जन्म-स्वर्गतिथि का आयंबिल कभी कभी तिथि क्षय वृद्धि के कारण दोनों लगातार आते हैं । फिर भी आरोग्य की प्रतिकूलता, उम्र की असहायता, लेकिन उस की भी परवाह किये बिना आपने कई बार आराधना साधना के अंदर ओतप्रोत बनके अपने आपमें ऐतिहासिक बनके औरों के लिये प्ररणास्रोत बने हैं गुरुदेव । सूरज मुखी दिन को ही खिलता है | चन्द्रमुखी रात को ही खिलता है || पर आनन्द और उल्लास में मग्न - अन्तर मुखी साधक सदा ही खिलता रहता है || हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 26 हेमेन्द्रज्योति* हेमेन्द्र ज्योति do inelibre Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था आत्मिक प्रसन्नता के साथ लिख रही हूं कि आज का यह दिन स्वर्णिम प्रकाश फैलाता हुआ उदित हुआ हैं कि आज मुझे आप के साधनामय जीवन के बारे में दो शब्द लिखने का अवसर मिला। आपके बारे में क्या लिखना, क्या वर्तन करना, कलम और कागज दोनों ही कम पड़ जाते हैं । जिनका जीवन सूर्य की तरह प्रकाशित है । चन्द्र की तरह सौम्य है शेर की तरह निर्भीक हैं गजराज की तरह मस्त हैं फूलों की तरह सुगंधित हैं सागर की तरह गंभीर हैं, वही जीवन वंदनीय, वर्णनीय और अर्चनीय हैं । ऐसे शांत स्वावलम्बी परम श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के पावनीय चरणों में कोटि कोटि वंदन। (प. पू. विदुषी साध्वी रत्नाश्री पुष्पाश्रीजी म.सा. की सुशिष्या ।) 4 जैन जगत के चमकते सूर्य साध्वी अक्षयगुणाश्री वीर प्रसूता राजस्थान की गौरवमयी धरापर अनेक महान विभूतियों ने जन्म लेकर उसे गौरवान्वित बनाया । उस महान साधु परंपरा की गौरवमयी श्रेणी में वर्तमानाचार्य राष्ट्रसंत शिरोमणि आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का अद्वितीय स्थान है । उनका जीवन सूर्य की तरह प्रकाशित, चन्द्र की तरह सौम्य है । फलों की तरह रसदार सरिता की तरह प्रवहमान, सागर की तरह गंभीर हिमालय की तरह उन्नत, गजराज की तरह मस्त तथा शेर की तरह निर्भीक है । करुणा के असीम सागर, शान्ति के निर्भय प्रचारक सत्य के तेजपुंज, छल-कपट से अनभिज्ञ क्रोध से सहस्रों मील दूर, अहिंसा के अमर पुजारी पुष्पमयी कीर्ति से विभूषित अत्यन्त पवित्र धीर-वीर गंभीर हैं, वंदनीय वर्णनीय एवं अर्धनीय हैं। चित्रकार एक सुन्दर चित्र आलौकित कर सकता है, शिल्पकार एक भव्य उन्नत स्काय स्क्रेपर भवन का निर्माण कर सकता है, धर्मोपदेशक धर्मरथ के सारथी को तैयार कर सकता है, साहित्यकार आदर्श की रचना कर सकता है परंतु ऐसे महान विभूति के विषय में लिखना, शब्दबद्ध करना, यह सूर्य को दीपक दिखाने के समान है । जो स्वयं प्रकाशित है | जहां लेखकों की लेखनियां और कवियों की कमनीय कल्पनाएं भी नवमस्तक हो जाती है । गुरुवर दीनदयाला कृपानिधि तुम करूणा की खान, परम शिवधाम सदा तुम ऐसा दो वरदान तिरण और तारण जहाज पूज्य गुरुराज ही परम शिवधाम की राह दिखानेवाले है । जिनके द्वारा किसी प्राणी का अमंगल नहीं होता, जिनकी सदैव सम प्रवृति रहती है, वे सज्जन होते हैं । जब उनमें सागर के समान गंभीर्य धरती के तुल्य सहिष्णुता, आकाश के सदृश उदारता आदि गुण प्रकट हो जाते हैं, तो वे महापुरुष कहलाते हैं । ऐसे महापुरुष अटूट आत्म विश्वास के धनी होते हैं और अपने अतुल आत्मबल के कारण महाबली कहलाते हैं । ऐसे महाबली महापुरुष ही अपने साथ जगत के अन्यान्य जीवों को तारने में उनका उद्धार करने में सक्षम होते हैं । प्रातः स्मरणीय जगत वंदनीय पूज्य आचार्य प्रवर श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. भी ऐसे ही महापुरुषों में से एक हैं । यह भारतभूमि रत्नगर्भा, रत्नप्रसूता अनेकानेक महानविभूतियों, महात्माओं महापुरुषों की उद्भव स्थली हैं । रत्नगर्भा से प्राप्त होने वाले बहुमूल्य खनिजों के समान ही यहां की महामाताओं की रत्नकुक्षि से भी अनेक नररत्नों ने जन्म लिया है और अपने साधनामय जीवन से इस धराधाम को पावन किया है । इन मानव तिलकों के आधार से ही स्थिर है यहां का सुख साम्राज्य । इन्हीं परम पवित्र महापुरुषों की महक एवं उनके द्वारा संस्पर्शित पावन पवन से ही फलता फूलता रहा है । धर्म का आधार धर्मात्मा है । धर्म एवं धर्मात्माओं का अन्योन्याश्रित संबंध है । कहा भी है "न धर्मोधार्मिकैर्षिना" हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्य ज्योति 27 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Fo Private Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ धर्म के अभाव का तात्पर्य है कि धर्मात्मा का अभाव है । जीवों का परम सौभाग्य है कि उन्हें प्रलय काल के निकट जाती हुई इन घड़ियों में भी महायोगी सत्पुरुषों का सान्निध्य प्राप्त हुआ है उनके मार्गदर्शन का लाभ मिल रहा है । सत्पुरुषों के दिव्यगुणों के आलोक में मनुष्य अपना मार्ग खोज सकता है सत्संगति से मनुष्य में परिवर्तन आ जाता है । भर्तहरि ने नीतिशतक में बताया है कि जाऽयं धियो हरति सिञ्चति वांचि सन्यं मानोन्नति दिशति पापमपांकरोति । चेतः प्रसादयति दिक्ष ननोति कीर्ति सव्संगति कथय किंन करोति पंसाम || सज्जनों की संगत बुद्धि की जड़ता को दूर करती है वाणी में सत्य का सिंचन करती हैं । सम्मान का बघारा करती है पाप नाबूद करती है मन को प्रसन्न करती है दिशाओं में कीर्ति फैलाते है । सज्जनों की संगत मनुष्य को क्या नहीं कर सकती है अर्थात सब कुछ कर सकती है । चतुर्विध संघ के आधार है शास्त्रीय शबदों में - "अम्मा पियरो इव" आप न्याय एवं अनुशासनप्रिय हैं । निष्पक्ष एवं दूरदर्शी हैं । आचार्यत्व के गरिमामय पद के गुरुत्तर उत्तरदायित्वों में भी स्थिति परिस्थिति एवं वातावरण की प्रतिकूलता में भी आपश्री की अद्भूत शांति होती हैं। द्रव्य-क्षेत्र-काल भाव कैसी भी अनुकूलता प्रतिकूलता हो हरस्थिति में हम आपके सौम्य-शांत, प्रशांत धीर, गंभीर, अप्रभत मुद्रा के ही दर्शन करते हैं । अथाह जल की गहराई को नापना हास्यास्पद चेष्टा ही है । आपकी छत्रछाया में आपके अलौकिक गुणों के आलोक में मेरी उस क्षमता में निरंतर वृद्धि हो जो मुझे संयम साधना में सुदृढ रखती है । गुरुदेव के पावन चरणों में हृदय की असीम श्रद्धा समर्पित करते हुए शासनदेव से प्रार्थना करते हैं कि सरल परिणामी गुरुदेव का जैन शासन को युगों युगों तक मार्गदर्शन मिलता रहे इसी अभिलाषा के साथ कोटिशः अभिनंदन वंदन "हर नयी किरण, हर नया अलोक, हर नया प्रातः तुम्हें शुभ हो । हर नया चान्द, हर नया सितारा, हर नयी रात तुम्हे शुभ हो । आप तरे हमे भी तारे साध्वी मोक्षमालाश्री समस्त कुग्रहों के विनाशक,सूर्य के समान प्रकाशक जिस के आधार पर 2970 वर्ष तक प्रभु का शासन चलने वाला हैं । और 2004 में युग प्रधान और बहुत आचार्य होने वाले हैं । 36 गुणों के धारक ऐसे आचार्य भूतकाल में भविष्य काल एवं वर्तमान काल में अपनी आराधना के बल पर जैन शासन को टिका के रखेंगे... | । पूर्व के आचार्य भगवंतों की साधनाओं को आप देखेंगे तो आपको भी लगेगा की प्रभु का शासन कितना महान हैं । यह शासन उनमें कितने गहराई तक उतर गया होगा ...? जिससे चाहे वे गौतमस्वामी हो या दुघभट्टसूरि हो....| कैसे कैसे महान अपमान को उन्होंने सहन किया, इच्छाओं पर नियंत्रण रखकर इस शासन की संपत्ति अपने को प्राप्त करवाई हैं । अपने को मिला हुआ शासन किस किस प्रकार वैष्णव, बौद्ध, दिगम्बर अश्रद्धा के आक्रमणों के बाद भी यह शासन टिका हैं। उसी शासन की धुरा को वहन करने वाले सौधर्म बृहत्त तपागच्छीय श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के षष्टम पट्टधर पू. गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. हमें प्राप्त हुए । निकट उत्पीति में हो तर सोता 28 जानकर आयोति मलय जयोति हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द ज्योति 28 हेमेन्द ज्योति* हेमेन्ट ज्योति Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्टसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ आपश्री की आचार्य पदवी भी हमारी ही मातृभूमि आहोर नगर में ही हुई थी । इस बात का हमें गर्व हैं । आचार्य पदवी के बाद आपके हाथ से अनेकानेक शासन के कार्य हुए उसमें मेरी और मेरे साथ मेरी संसारी बड़ी बहन एवं मासी की दीक्षा भी ऐसे शांत दांत गंभीर आचार्य भगवंत के हाथों हुई, उसका हमें बहुत गर्व हैं । आपश्री इस 86 वर्ष की आयु में सतत अप्रमत्त एवं इतनी उमर में भी आपश्री आठम चउदस को आयंबिल करने का आपका नियम अद्वितीय हैं । प्रतिदिन रात को तीन बजे उठकर जाप करना, दोनों टंक अप्रमत्त पण खड़े खड़े प्रतिक्रमण बगैरे आपकी क्रिया आपके निकट मोक्ष की सूचक हैं । आप तरे और आप का सान्निध्य प्राप्त कर हमें भी तारे ऐसी शुभेच्छा के साथ । आशीष की आकांक्षा साध्वी पुनीतप्रज्ञाश्री 'तीथयर समो सूरि' परमात्मा ने आचार्य भगवंत को तीर्थंकर के तुल्य बताया है । तीर्थकर परमात्मा की पाट परंपरा को चलाने की पदवी आचार्य भगवंतों को मिलती है । वह स्थान आपने प्राप्त किया है आप उतनी ही वफादारी से उसका मूल्यांकान समझकर जिनशासन की प्रजा का पालन भी कर रहे हो । समकित जीव गुलाब के चारों तरफ कितने ही कांटे होने पर भी उसे गुलाब का छोड़ कहते हैं, कचरा पेटी में से हीरा ग्रहण करते हैं । खान में से 1000 किलो मिट्टी निकलती है और उसमें 1 किलो स्वर्ण निकलता है, तो उस खान को स्वर्ण की खान कहते हैं । सर्वत्र सद्गुण को देखो तो शुभ माना जाता है । उसी प्रकार संसार में कचरा भरा हैं, उसमें कांटे, मिट्टी, दुर्गुणी, वगैरे सब कुछ है, फिर भी आप कमल जिस प्रकार कादव के साथ रहता है, उसीमें उत्पन्न होता है फिर भी अपने आप को कादव का स्पर्श होने नहीं देता, ठीक उसी प्रकार आपके सामने भक्तों की टोली आती हैं । आपसे विनंती करते हैं 'बावसी! ओ मेलो कपड़ो जूनो कपड़ो नाखापो, शिष्यों ने दियो पो" फिर भी आप अपने चारित्र में निष्ठ होने के कारण श्रावक के प्रलोभन से चलित नहीं होते हैं । एक बार हमने गुरुदेव से कहा, गुरुदेव यह झोली बहुत मोटी और अच्छी नहीं है । दूसरी बनालो । उन्होंने तुरन्त ही कहा नहीं चलेगा मुझे तो है, वही बराबर है । आज आप गच्छाधिपति होते हुए भी एक छोटा सा बालक आ जाये तो भी उसके साथ मधुरवाणी में बातें करते हैं, हमेशा शुद्ध चारित्र पालन का ही लक्ष्य रखते हैं । आपका जो शुभ नाम है, उसी प्रकार अपना चारित्र बताया हेम यानी स्वर्ण और 'इन्द्र' यानी राजा (रत्न) स्वर्ण के राजा, दुनिया पूरी इसी पर जीवन जी रही है । यानी आपही गच्छ के नायक है । जो आचार्य भगवंत नहीं होते तो परमात्मा के शासन पर राज कौन करता? और राज्य का मालिक कोई न होता तो आज हमारे पास परमात्मा की अद्भुत देन कैसे आती? परमात्मा तो सिद्धि वधू को वर लिये अब आप ही हमारे लिए तीर्थंकर हो, अतः मार्ग बताने वाले हो । दर्शन ज्ञान चारित्र जो रत्नत्रयी है वह आपके नाम में छिपा है और जीवन में भी है । आपकी निस्पृहता, निष्कपटता और निरभिमानता के गुण देखकर हमारी आंखें भी खुल जाती है । आप जैसे हम भी बने यही प्रार्थना। ऐसे ही आशीष की आकांक्षा है । हेमेन्द्र ज्योति हेगेन्द्र ज्योति 29 हेगेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति sealed S Evenionlaoniliorial Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ करूणा का स्पन्दन साध्वी मोक्षरसाश्री साधकों की साधना भूमि कहलानेवाली इस भारत भूमि पर अनेकानेक धर्मवीर, कर्मवीर महापुरुषों ने जन्म लेकर अपने कर्मक्षेत्र को उज्ज्वल समुज्ज्वल ही नहीं पर अतिउज्ज्वल किया है । उसी कडी में जुड़नेवाले जीवन के अंधियारे में प्रकाशवत् हैं ऐसे प. पू. प्रवर स्वजीवन में सद्गुणों का साज सजाकर जीवन क्षण में जीवन को पहचानकर, जीवन बनाने के लिए सतत प्रतिपल जागृत ही रहे आचार्यश्री का तो कहना ही क्या? जो जीवन की आड़ी टेडी और बीहड़ पगदंडियों में जिन शासन सेवा का सम्यज्ञान का, सम्यक तप का अवसर प्रदान कर प्रकाश स्तंभ का कार्य करते हैं । आपके विराट् व्यक्तित्व का चित्रण एवं सदगुणों का वर्णन करना मेरी शक्ति में नहीं है, फिर भी हृदय की बलवती प्रेरणा कुछ न कुछ कहने के लिये विवश करती है, महाकवि कालिदास ने यथार्थ ही कहा है । ____वजदपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि वास्तव में संतों के हृदय की थाह नहीं मिल सकती है । जीवन की चलती घड़ियों में संकटकालीन स्थिति आने पर गुरु कभी भी आकुल व्याकुल नहीं होते । उस समय उनका हृदय वज़ से भी कठोर होता है । मगर, दूसरे प्राणियों के संकट के समय वही हृदय फूल से भी अति कोमल हो जाता है । ऐसा ही जीवन जी रहे हैं परम श्रद्धेय पू. हेमेन्द्र सूरिजी म.सा. । उन्हें बहुमुखी प्रतिभा के धनी कहा जाय तब भी अतिशयोक्ति नहीं होगी । आपने जैन समाज की सेवा की है, एवं कर रहे हैं । आपकी भावना में विनय, हृदय में सरलता, वाणी में मधुरता, स्वभाव में विनम्रता से युक्त आपके जीवन में ज्योत जाग रही है । विलक्षण बुद्धि, तेज स्मरण शक्ति, व्यवहार कुशलता आदि गुणाभिभूत होने से ही आपको श्रीसंघने राष्ट्रसंत शिरोमणि पद से अलंकृत किया । "वसंतवत् लोक हित चरन्त" वृक्ष का ऐश्वर्य वैभव वसंत से ही प्रकट होता है । किंतु जीवन को पतझड़ में ऐश्वर्य के अंकुर प्रस्फुटित करने में प्रेम एवं स्नेह के नानाविध पुष्पों को खिलाने का श्रेय आप जैसे महापुरुषों को जाता हैं । सागर के अंतःस्थल में प्रविष्ठ हो उसकी गहराई का माप लेना कठिन है । वैसे ही महान आत्मा के जीवन को परखना कठिन है। फिर भी सद्गुणों का अभिनन्दन करते हुए कहूंगी चिरायु होने के साथ आपके जीवन की सौरभ दिदिगंत में प्रसारित हो इन्हीं भावों के साथ जीवन में शीतलता है जैसे मलयगिरी चन्दन । प्रतिपल हृदय में धडकता है, करुणा का ही स्पन्दन" पू. आचार्य श्री के चरणों में श्रद्धभाव भरा अभिनन्दन । - यशस्वी हो साध्वी मोक्षयशाश्री मोह के दुःखों को दूर करने वाले, चित्तकी स्थिरता को करानेवाले सहज गुण का पालन करने वाले, उपशम भाव को धारण करने वाले ऐसे पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के चरणों में कोटिशः वंदना । पू. आचार्य भगवंत अनेकानेक गुणों से समृद्ध हैं । हमेशा बड़ों का गुणगान करने में तत्पर हैं । आचार्य भगवंत उपशमभाव से ओतप्रोत हैं । उपशमभाव से अनेक लाभ होते हैं । इससे समाधि प्राप्त होती है । किसी भी समय कैसा भी प्रसंग उपस्थित हो जाये, फिर भी समाधि भाव में ही रहते हैं । संसार में हर एक व्यक्ति किसी न किसी को अपना आदर्श मानता है, बनाता है, साहसिक व्यक्ति सिकन्दर को आदर्श मानता है । कुशल राजनीतिज्ञ बनने के लिए कोई चाणक्य जैसे राजनीतिज्ञ को आदर्श बनाता है । कोई खिलाड़ी अच्छे नामांकित खिलाडी को अपना आदर्श बनाता हैं । वैसे ही आचार्य भगवंत आत्महित लक्षी सिद्ध परमात्मा को अपना आदर्श मानते हैं । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 30 हेगेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ । आचार्य भगवंत जैन धर्म के दक्षव्यापारी शूरवीर है । यह पंक्ति पंडितलोक में प्रशस्त प्रशस्ति पाई हुई हैं । उसका कारण है कि विशाल भरतक्षेत्र में मात्र 251/2 आर्यभूमि है उसमें भी अनार्य प्रजा की बहुलता । फिर भी रत्न राशि जैसे संघ के संचालक आचार्य भगवंत हैं, उसमें से हमारे भी एक आचार्य भगवंत हैं । परमात्मा के विरह काल में आज शासन की धुरा को वहन कर रहे हैं । गुरुदेव शासन के शृंगार हैं । प्रभावक हैं, गीतार्थ हैं । अजैनों में जैनतत्त्व की ज्योत प्रगटाने में कुशल हैं । ऐसे आपश्री ने अनेकानेक शासन प्रभावना की । हमें चारित्र देकर अनेक उपकार किये हैं । आपका जीवन दिनों दिन यशस्वी हो । यही हार्दिक शुभेच्छा हैं । 4हे गुरुवर वन्दन तुमको साध्वी भक्तिगुणाश्री चमन वाले खिंजा के नाम से कभी घबरा नहीं सकते | कुछ फूल ऐसे भी खिलते हैं जो कभी मुरझाते नहीं || जैन धर्म का डंका बजाने वाले गुलाब के पुष्प को देखते ही दिल और दिमाग खुश हो जाता है । गुलाब का पुष्प सभी पुष्पों का राजा है । ऐसे ही गुरुवर श्री हेमेन्द्रसूरिजी सभी सन्तों में संयम साधना के मेरु समान है । उनके संयम की सौरभ देशभर में फैली हुई है । इसलिए उन्हें राष्ट्रसंत शिरोमणि कहा गया है । चारित्र एवं त्याग का रंग तो आपकी देह के कण-कण में समाया है । जैसे गुलाब के पुष्प पर भंवरे मडराते है वैसे आपकी सेवा में भक्तों की भीड़ लगी रहती हैं । आप ने अपनी सेवा की प्रगति के कारण आप अपने गुरुदेव के अंतरग शिष्य बनकर रहे । गुरुदेव के सान्निध्य में रहकर पू. गुरुदेव से बहुत कुछ प्राप्त भी किया है । आपने जो कुछ पाया है । शायद ही किसी अन्य शिष्य ने पाया है। आपने अपने नाम के अनुसार अपना जीवन धन्य और कृतार्थ बना दिया । आपने जीवन जीने की सच्ची कला सीखी है । वैसे तो संसार में अनेक प्राणी जन्म लेते हैं और एक दिन दुनिया से बिदाई भी ले लेते हैं, किन्तु नाम उन्हीं का अमर रहता है जिन्होंने अपने जीवन में कुछ पाया हो और जनता के लिए लुटाया भी हो । आपने गुरुदेव से जो पाया वह जन सेवा जनता की भलाई के लिए उसे लुटा भी रहे है । समाज को आप से बहुत अपेक्षा है । आप चिरायु प्राप्त करके हमें तथा समाज को जन को अपना ज्ञान धन बांटते रहें । हमें सन्मार्ग दिखाते रहें। हमें कृतार्थ करते रहें । ताकि हम भी अपना जीवन धन्य बनाकर आपके आपके बताये पथ का अनुसरण कर जिन शासन की, जनता की सेवा करते रहे । आपकी महिमा को देखकर मैं तो आश्चर्य चकित हँ । जैसे गूंगे को गुड़ का स्वाद पूछे तो वह क्या बतायेगा। वैसे मंद बुद्धिवाली मैं आप का क्या गुणगान करूँ? फिर भी मैं कुछ भाव प्रकट करना चाहती हूँ एक समय लोहे का टुकड़ा रास्ते में पड़ा था । पारस पत्थर भेद दृष्टि नहीं रखता था । वह तो लोहे के टुकड़ा हो या पत्थर हो, दोनों को स्पर्श कराते ही सोना बना देता है । मैं भी लोहे के सदृश हूँ । आपके चरण कमल से सोना बन जाऊँ । यही मेरी शुभ भावना है । नदियां बडी पवित्र होती है और नाला छोटा पर दोनों का पानी समुद्र में जाता है । वहाँ कोई भेद नहीं होता इस प्रकार आपने मुझे अपने संप्रदाय के विशाल हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 31 हेगेन्द्र ज्योति* हेगेन्द ज्योति avate Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था। सागर में स्थान दिया है और मेरा कल्याण किया है । आप अमर रहें हम सभी का उद्धार करें जैन जगत में चमकते रहे दमकते रहें, खिलते रहें । शासन की सुरभि को चिहूं दिशा में फैलाते रहें आपके अनेक गुणों में से एक बिन्दु भी मेरी जीवन में उतर जाये यही आशा रखती हूँ। आपको ज्ञान, ध्यान, चारित्र की जितनी प्रशंसा की जाये थोड़ी है । आपश्री के जीवन की विशेषता है कि त्याग अप्रमत्त साधना शुद्ध चारित्र होते हुए भी अहंकार की बिल्कुल भी नहीं हैं । अभिनन्दन है उनका, अभिनन्दन है उनका जिन्होंने जीवन के एक एक पल को सतर्कता के साथ जिया है एवं अप्रमत्तता के साथ जी रहे हैं । आपश्री सदैव स्वस्थ एवं दीर्घायु को प्राप्त का जिनशासन की अभिवृद्धि करते रहें यह मेरी मंगल भावना है । जनम जनम तक तव चरणों का साज मिले बढ़े कदम जिन पथ की ओर नव निर्माण का राज मिले । जीवन की इस मधुर एवं पावन सुबेला में प्रभु से प्रार्थना है कि हजारों वर्ष की उम्र आपको मिले ।। 4 शतायु हो मानवमुनि, इन्दौर (म.प्र.) संत किसी जाति सम्प्रदाय के नहीं होते हैं । जैन धर्म जीवन दर्शन है, जीने की कला सिखाता है । भगवान महावीर ने सम्प्रदाय नहीं बनाया था । चार तीर्थ साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका जो त्याग, संयम साधना में रहता हैं । त्याग से मनुष्य अमर हो जाता हैं । उसका यश रूपी शरीर कभी नहीं मरता । दानी दधीचि ने देवताओं के हित में अपने प्राण त्याग कर अपनी अस्थियों का दान कर दिया और अमरत्व को प्राप्त कर लिया । जिस व्यक्ति में यह चिन्तन जग गया कि यह संसार नश्वर है, यह जीवन क्षणभंगुर है, तब वैराग्य भावना जागृत हो जाती है । धर्म दुनिया में मंगलकारी तत्त्व है । धर्म को प्राप्त करनेवाला निर्भय बन जाता है । वीतराग पथ को प्राप्त कर मोक्षगामी हो जाता है । उसी सिद्धांत को लेकर ग्राम बागरा जिला जालोर में जन्म लिया नाम संस्कार दिया पूनमचंद । याने पूर्णिमा का चांद शीतल होता है, सबको आनन्द देने वाला होता है । वैसे ही श्री पूनमचंदजी को स्वयं आत्मज्ञान हो गया संसार असार हैं । त्याग ही जीवन का सार समझ का दीक्षा ग्रहण कर वीतराग पथ पर कदम बढ़ाते चले आप सुशोभित है । आचार्य पद का बड़ा महत्त्व होता है । महामंत्र नवकार में तीसरा पद नमो आयरियाणं, आचार्य 36 गुणों का धारी होता है । आप आचार्यदेव श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. सरल स्वभावी हैं। त्याय संयम साधना के धनी हैं । इन्हें शत शत वंदन । वे स्वस्थ एवं शतायु हो । अहिंसा परमोधर्म का ध्वज जनजन में फहराते रहें । संत किसी जाति सम्प्रदाय के नहीं होते वे स्वयं की आत्मा का कल्याण करने लिये मानव का कल्याण की भावना रखते हो हृदय ये करुणा, दया, मैत्री की भावना होती हैं । सम्यक दृष्टि होती है समताभाव होता है प्राणिमात्र को अभयदान मिले यह मनोभावना रहती है । ग्रन्थ जन जन के लिये प्रेरणादायक हो यह मंगल भावना है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 32 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द ज्योति Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ एच. डी. देवेगौड़ा H.D. Deve Gowda MESSAGE I am happy to know that you are bringing out an "Abinandana Grantha" in honour of Param Poojya Acharya "Hemendra Surishwarji Maharaj". My best wishes for all the success of your noble venture." There is an ancient saying in Kannada that there can never be self realisation without ever being a slave to the Guru. It is the Guru who is responsible for manifestation of perfection in man. He is the mirror for us to view ourselves in the divine light, which leads to the self-realisation. It is he who has to kindle the inner light with in us to clear the darkness that prevalied in us. The eighty two year old Param Poojya "Hemendra Surishwarji Maharaj" is the real Guruji to the entire man kind. His fifty seven years of dedicated sainthood is really an attempt to transform the world from darkness to the divine light, from living being to 'human' being and His service to humanity is in itself a message to every one. I, only pray in almighty that Param Poojya Guruji to guide us for many more years to come and also I humbly hope and pray that His blessings and prayers will bring about the peace and happiness to every one. सफल प्रकाशन की कामना करता हूं। 5, सफदरजंग लेन, नई दिल्ली 5, Safdarjung Lane, New Delhi लाल कृष्ण आडवाणी गृह मंत्री संदेश मुझे यह जानकर हर्ष हुआ है कि पूज्य आचार्यदेव "हेमेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज" के त्यागमय जीवन एवं दीक्षा हीरक जयन्ती जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में एक 'अभिनन्दन ग्रंथ' का प्रकाश किया जा रहा है । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति H.D. Deve Gowda 110 011 दूरभाष: 3794499 110011 Ph: 3794499 मैं इस अवसर पर अपनी शुभकामनाएं प्रेषित करता हूं एवं 'अभिनन्दन ग्रंथ के 33 लाल कृष्ण अडवाणी गृह मंत्रालय, नोर्थ ब्लाक, नई दिल्ली-110001 भारत हेमेकर ज्योति मेल ज्योति Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ डा. मुरली मनोहर जोशी Dr. Muli Manohar Joshi मानव संसाधन विकास मंत्री - भारत नई दिल्ली – 110001 Minister of Human Resource Development - India New Delhi 110 001 संदेश मुझे यह जानकर बहुत प्रसन्नता हुई कि राष्ट्रसंत शिरोमणि आचार्य श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की हीरक जयंती अमृत महोत्सव के अवसर पर उनके जीवन पर आधारित एक अभिनन्दन ग्रंथ का प्रकाशन किया जा रहा है । आचार्यश्री का जीवन देश, धर्म और समाज के कल्याण के लिए सदैव ही समर्पित रहा है । सृष्टि के महासागर की प्रवहमान जीवनधारा में अनंत विभूतियों का जन्म हुआ है । वे जीते भी हैं और मरते भी हैं, लेकिन इस सागर के अंतहीन इतिहास के पन्नों पर ऐसे महापुरुषों का भी जन्म हुआ है, जिनके जीवन की स्याही कभी धुंधली नहीं पड़ती है । वे इस अंतहीन गगनमण्डल में ध्रुवतारे की भांति सदैव स्थिर है, उदीप्त हैं तथा उनका जीवन- प्रकाश उनके जीवनकाल से भी अधिक आने वाले कल के लिए मूल्यवान है । काल का प्रवाह भी उसको बहा नहीं सका है । राष्ट्र के विकास एवं सेवा कार्यो हेतु आचार्यश्री द्वारा संचालित विभिन्न सेवा प्रकल्पों, यथा - नेत्र शिविर, जीवदया, जन-जागरण अभियान, अस्पतालों को उन्मुक्त दान आदि ने आचार्यश्री को अग्रणी एवं सच्चे राष्ट्रसंतों की श्रेणी में स्थापित किया है । मेरा विश्वास है राष्ट्रसंत पूज्य हेमेन्द्र सूरीश्वरजी के जीवन पर आधारित यह ग्रन्थ राष्ट्रोत्थान एवं राष्ट्रसेवा का अद्भुत मार्गदर्शन बनेगा एवं अनंतकाल तक राष्ट्रनिर्माण की प्रेरणा देता रहेगा । मेरी असीम शुभकामनाएं । मुरली मनोहर जोशी नागर विमानन मंत्रालय भारत सरकार हार्दिक शुभकामनाएं अनंतकुमार मंत्री मुझे यह ज्ञात हुआ कि हमारे कर्नाटक प्रदेश के ही प्रवासी रहे हुए महान संत सम्राट जैनाचार्य श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज सा. का अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित किया जा रहा है । इस प्रकाशन अवसर पर मैं अपनी ओर से हार्दिक शुभकामना व्यक्त करता हूं । शुभ हो, मंगल हो, शान्ति हो, सब जीव-जन्तु के लिये यही प्रार्थना भगवान से करता हूं । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 34 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति www.jng Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 पर्यटन एवं संस्कृति मंत्री भारत सरकार, नई दिल्ली श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ अनन्त कुमार Ananth Kumar 110 001 MESSAGE I am happy to leam that 'Abhinandan-Granth' is being published in honour of Param Pujya Rashtriya Saint Siromani Gachadhipathi Jainacharya Srimad Vijaya "Hemdendra Surishvarji Maharaj Sahib", His holiness who is 82 years old with 57 years of sainthood is a respected saint of our country and even in abroad. He has dedicated his life for the welfare of mankind by doing a lot of penance, religious tours social activities etc. He is a noble spirit for preservance of our ancient culture besides a guide, philosopher and a divine force for the Jain Community in speical and his followers in general. By his noble deeds and social activities he has occupied a important and respected place in the hearts and minds of millions of people throughout the universe. I wish the organisers all success in their endeavour and also in bringing out a publication on this occasion. भारी उद्योग एवं सार्वजनिक उपक्रम भारत सरकार, नई दिल्ली 110 001 Education सधन्यवाद Minister of Tourism and Culture Government of India, New Delhi - 110 001 डा. वल्लभाई कथीरिया Dr. Vallabhbhai Kathiria शुभकामनाएं भारत वर्ष की पवित्र धरती पर अनगिनत महान आत्मा ने जन्म लेकर न जाने विश्व के कितने जीवों को सदाचार के मार्ग पर प्रवेगित किया है । पूज्य संत गच्छाधिपति श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. भी इसी संत परंपरा में एक नेत्र दीपक की तरह समाज को प्रकाशित कर रहे हैं। निरंतर पद-विहार जैन मुनि महाराजश्री की परंपरा रही है। जैन साहित्य तथा भारतीय संस्कृति के विस्तार के लिए आचार्यदेवजी ने कई कदम उठाये हैं । आचार्यदेवजी के जीवन पर अभिनंदन ग्रंथ का प्रकाशन आनेवाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत बना रहेगा । मेरी हार्दिक शुभकामनाएं स्वीकार करें हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Ananth Kumar 35 Minister of State Heavy Industries & Public Enterprises Government of India, New Delhi-110001 भवदीय डॉ. वल्लभभाई कथीरिया हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति quelatinellbrand Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ श्रीमती जयवंती महेता Smt. Jayawanti Mehta विद्युत राज्य मंत्री, भारत नई दिल्ली - 110 001 Minister of State for Power India New Delhi-110001. शुभकामनाएं मुझे यह जानकर अत्यंत प्रसन्नता हुई कि 82 वर्षीय वयोवृद्ध पूज्य गुरुदेव गच्छाधिपति जैनाचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के दीक्षा जीवन के 57 वर्ष पूर्ण करने पर आचार्यश्री के जीवन पर, भारतीय सौधर्मवृहत्त 'तपागच्छिय' श्रावक संघ द्वारा एक अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित किया जा रहा है । आचार्यश्री जी ने समाज में त्याग, तपस्या, अहिंसा एवं क्षमा भावना का अनोखा आदर्श प्रस्तुत किया है । उनके आदर्श, ऐतिहासिक ज्ञान, भक्ति और दर्शन से संबंधित लेख एक ग्रंथ के रूप में सदैव ही, हम सब के लिए प्रेरणा के स्रोत रहेंगे । इस सुअवसर पर आपका हार्दिक अभिनंदन । शुभकामनाओं सहित, भवदीया जयवंती मेहता सुन्दरसिंह भंडारी Sundarsinha Bhandari राजयपाल राजभवन गांधीनगर - 382 020 सदेश मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि राष्ट्रसंत शिरोमणि प. पू. आचार्यदेव हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के त्यागमय जीवन एवं दीक्षा हीरक जयन्ती जन्म अमृत महोत्सव के अवसर पर अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है। मुझे विश्वास है कि उक्त ग्रन्थ प्रभावशाली होकर जन मानस में अपना प्राचीन गौरव ज्ञान प्रदान करते हुए भारतीयता, राष्ट्रीयता की प्रेरणा प्रदान करेगा । मैं, इस जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के शुभ अवसर पर बधाई देता हूं साथ ही अभिनन्दन ग्रन्थ के सफलता प्रकाशन हेतु शुभकामनाएं प्रेषित करता हूं। सुन्दरसिंह भंडारी हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 36 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति dressingular only nelibrar Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ V.S. Rama Devi Governor Raj Bhavan Bangalore MESSAGE I am happy to know that the devotees of Pujya Acharya Hemdendra Surishvarji are bringing out "Abhinandan - Granth" in honour of the Acharya during this year. It is heartening to know that the Acharya is doing social service to mitigate the suffering of many people. la I convey my best wishes on the occasion and wish the Granth is well received by the devotees and others. V.S. Rama Devi भैरोंसिंह शेखावत नेता, प्रतिपक्ष राजस्थान विधान सभा 14. सिविल लाइन्स जयपुर -302 006. फोन : 382487 सदेश मुझे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई है कि परम पूज्य आचार्यदेव हेमेन्द्र सूरीश्वरजी के दीक्षा हीरक जयन्ती एवं जन्म अमृत महोत्सव के अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रंथ का प्रकाशन किया जा रहो है । संत महात्माओं का जीवन सदैव प्रेरणादायक होता है तथा उनके बताये हुए मार्ग पर चलकर व्यक्ति आत्म शुद्धि और आत्मशांति ग्रहण कर सकता है । राष्ट्रसंत आचार्य हेमेन्द्र सूरिजी ने त्याग, तपस्या और अध्यात्म दर्शन के क्षेत्र में निरन्तर सक्रिय रहते हुए अमृतोत्सव में प्रवेश कर हमारी संत परम्परा को पुष्ट किया है । मुझे विश्वास है कि उनके अभिनन्दन ग्रन्थ की सामग्री आचार्यश्री के व्यक्तित्व, कृत्तित्व एवं जीवन दर्शन का ज्ञान कराने वाली होगी । मैं महाराज साहब को श्रद्धापूर्वक नमन् करते हुए इस ग्रंथ के सफल प्रकाशन के लिए अपनी शुभकामनाएं प्रेषित करता हूं । भैरोंसिह शेखावत हेमेन्द्ध ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 37 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति। Tod walaimelibreyara Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ Dharam Singh Minister for Public Works Vidhana Soudha, Bangalore - 1. Ph: (0) 2253835, 2092234 MESSAGE On the auspicious and happy occasion of reported completion of 57 years of Sainthood by Sri. Acharya Hemendra Surishvarji Maharaj Sahib, I wish to convey my heartfelt best wishes to the restraint monk. It is indeed felicitations and very befitting to bring out the publication "Abinandan Granth" in honour of Acharya who has devoted his life in contributing to the Social Activities like conducting Eye Camps and other welfare activities to the needy and deserving people. The 82 year old monk Hemendra Suriswarji Maharaj who has spent most of his lifetime in doing penances and religious tours. He is a real Guru to the entire mankind. The attempt made to transfirm the world from darkness to divine light, from living being to "Human being" and service humanity it itself universal message. I pray the almighty that Param Poojya Guruji guide all of us for many more years to come and pray that his blessings bring about peace and happiness to all of us. Dharam Singh Mallikarjun Kharge Minister for Home Vidhana Soudha, Bangalore - 1. Ph: (O) 2251798 MESSAGE I am extremely happy to know that your Trust is bringing out a'Felicitation Volume' in honour of Parama Pujya Acharya "Hemendra Surishwarji Maharaj' one of the great living saints of Jainism. Acharya Hemendraji has dedicated his entire life for the spread of principles of Jainism such as non-violence, brother hood and co-existence of all religions of the human kind, love to all. In addition, he has inspired all his disciples by conducting extensive tours in country and abroad to involve them in social and nation building activities. His contribution for the transformation of a man to divinity is really great. I strongly feel and pray that, Acharya Hemendra Surishwarji Maharaj should continue to be the spiritual social guide in between us for many more years to come for the sake of world peace and co existence. Mallikarjun Kharge हेमेन्द्रह ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 38 हेमेन्ट ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Perana Lise Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ac श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ Nara Chandrababu naidu Chief Minister, Andhrapradesh MESSAGE I am glad to note that the Jain Community is celebrating the 60th Anniversary of the Sainthood of Sant Shiromani Acharya Shri Vijay Hamendra Surishwarji, who is known for his penance, spiritual and social activities. He is a source of inspiration to one and all, particularly to the Jain Community, who have enlightened by his spiritual wisdom and great deliberations. I hope tha "Abhinandan Granth" being brought out on the occassion would be very much inspiring for the Jain brethren. N.Chandrababu Naidu RANI SATISH Minister of State of Kannada & Culture Vidhana Soudha, Bangalore - 1. Ph: (0) 2253651 (R) 5258772 MESSAGE I am happy to know an "Abhinandan-Granth" is being broughthout in Honour of Acharya Sri Hemendra Surishwarji Maharaj Sahib on occasion of his complition of 57 years of sainthhood. Acharyaji being a self restraint monk has done a lot of religious and Social activities. His contribution to the spredding of Jainism is remarkable. Spiritual leaders are the need of the day. They only have to guide people in the right path. Acharyaji is a guiding spirit who is capable of up- lifting the humanbeings to the sublime stage. I wish all success in your endevour. Rani Satish GUGU EN Giose taifa 39 ŠOU vila * Edou ceila For Free Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ डा. लक्ष्मी नारायण पाण्डेय संसद सदस्य (लोक सभा) सभापति रक्षा सम्बन्धी संसदीय स्थायी समिति कार्यालय : 136-ए, संसदीय सौध, नई दिल्ली - 1. दूरभाष : 3034136, 3015306 निवास : 1, फिरोजशाह रोड, नई दिल्लह - 1. दूरभाष : 3782143, 3389982 15, पुराना होस्पीटल रोड़, जावरा, जिला-रतलाम (म.प्र.) दूरभाष : (07414) 20245, 20524 शुभ कामनाएं राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति जैनाचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साहब के संत रूप में 57 वर्ष पूरे किए जाने पर उनके विविध कार्यकलापों को लेकर तथा समाज का जो उन्होंने समय-समय पर दिशा-दर्शन किया है, उसको जन-सामान्य तक पहुंचाने की दृष्टि से एवं सामाजिक क्षेत्र में विभिन्न स्थानों पर जीवदया केन्द्रो, चिकित्सालयों अन्य सामाजिक और धार्मिक कार्यों से संबंधित जो कार्य किये हैं, उन्हें लेकर उनके प्रति पूरे देश में श्रद्धा है । आचार्यश्री के द्वारा धार जिले में श्री मोहनखेड़ा नामक तीर्थ का विकास करना अत्यंत ही महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय है । संत श्री पावन चरणों में अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित करना एक विनम्र प्रयास है । मुझे विश्वास है कि अभिनन्दन ग्रन्थ में प्रकाशित की जाने वाली सामग्री व्यक्ति व्यक्ति में सौहार्द्र का भाव जहां भरेगी, वहीं समाज सेवा की प्रेरणा के साथ आत्मोद्धार के लिए भी प्रेरित करेगी । धर्म कर्म, तप और त्याग के संबंध में जहां इस ग्रन्थ से जानकारी प्राप्त होगी, वहीं धर्म-दर्शन, जीवन-मृत्यु अस्तित्ववाद व अनेकांत के बारे में भी उपयोगी सामग्री प्राप्त हो सकेगी । ग्रन्थ के प्रस्तावित प्रारूप में जिन विषयों का उल्लेख किया गया है वे वैश्विक समस्याओं के समाधान की दृष्टि से मानवीय आधारभूत दुश्चिंताओं को दूर करने में सहायक होंगे तथा मानवीय मूल्यों को पुनःस्थापित करने में एक विशिष्ट उपलब्धि होगी । मेरी शुभकामनाएं भवदीय, डा. लक्ष्मीनारायण पांडेय भारतीय जनता पार्टी Bharatiya Janata Party प्यारेलाल खंडेलवाल (पूर्व सांसद) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हार्दिक शुभकामनाएं मुझे यह जानकर हर्ष हुआ कि विश्वपूज्य श्रीमज्जैनाचार्य गुरुदेव श्रीमदविजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के षष्ठम पट्टधर परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयन्ती के अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ उनके परम पावन श्री चरणों में समर्पित करने का निर्णय लिया है। इस पुनीत कार्य के लिए मेरी ओर से हार्दिक शुभकामनाएं स्वीकार करें । आशा है कि कार्यक्रम सौल्लास सम्पन्न होगा । शुभकामनाओं सहित, भवदीय, (प्यारेलाल खंडेलवाल) कार्यालय : 11, अशोक रोड, नई दिल्ली-110001 दूरभाष : 3782604, 3382234, फैक्स : 3782163 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 40 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्ट ज्योति Hineducation internation Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ अतिजात पुत्र डॉ. तेजसिंह गौड़, उज्जैन स्थानांग सूत्र के चतुर्थ स्थान के प्रथम उद्देश्य के ऋतुसूत्र में पुत्रों का वर्गीकरण करते हुए कहा गया है। चत्तारि सुता पण्णत्ता, तं जहा - अतिजाते, अणुजाते, अवजाते, कुलिंगले । अर्थात् पुत्र चार प्रकार के होते हैं जैसे पिता से भी अधिक समृद्ध और श्रेष्ठ होता है । पिता के समान समृद्धि वाला होता है । पिता से हीन समृद्धि वाला होता है । कुल में अंगार के समान कुल को दूषित करनेवाला होता है । 1. कोई सुत अतिजात 2. कोई सुत अनुजात 3. कोई सुत अपजात 4. कोई सुत कुलांगार शास्त्र के कथन को कुछ और स्पष्ट इस प्रकार किया जा सकता है 1. अतिजात:- अतिजात पुत्र उसे कहा गया है जो अपने पिता की कीर्ति में यश में वृद्धि करता है। परिवार की समृद्धि में अपना योगदान देकर उसमें और वृद्धि करता है। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक आदि विविध क्षेत्रों में अपने पिता द्वारा जो कार्य किये गये हैं, उनसे भी बढ़कर सेवाकार्य करता है । जिस I पुत्र के नाम से पिता के नाम की पहचान होती है । जो अपने पिता से हर क्षेत्र में सवाया, डेढ़ा हो, आगे निकल जाय । जो माता-पिता और अपने कुल का नाम उज्ज्वल करे उसे अतिजात पुत्र कहा गया है। 2. अनुजात :- अपने पिता से न कुछ आगे और न ही कुछ पीछे या कम । जितना और जैसा पिता ने किया, उतना ही उसने किया अर्थात् यथास्थिति बनाये रखी । ऐसा पुत्र जो पिता की समानता बनाये रखता है वह अनुजात पुत्र कहलाता है । 3. अपजात :- अपजात पुत्र उसे कहा गया है जो कीर्ति को कम करता है । वह स्वयं तो कुछ नहीं करता वरन पिता के नाम को भुनाता है, उनके नाम और यशः कीर्ति का लाभ उठाता है । समाज में पिता ने जो अपना स्थान बनाया वह उससे भी नीचे चला जाता है । कहने का तात्पर्य यह कि पिता से नीचे की स्थिति पर चला जाने वाला पुत्र अपजात पुत्र कहलाता है । Education 4. कुलांगार - कुलांगार चौथे प्रकार का पुत्र बताया गया है जो अपने माता पिता की ख्याति को न केवल समाप्त करने वाला होता है । वरन् बदनाम भी कर देता है । इतना ही हीं वह अपने कुल का विनाश करने वाला भी होता है । ऐसे पुत्र अपने कार्यों से अपने पूरे कुल को कलंकित कर देता है । पिता द्वारा अर्जित प्रतिष्ठा को धूल में मिला देता है, समाप्त कर देता है । इस श्रेणी में अपराधी प्रवृति के व्यक्ति आते हैं । उपर्युक्त संदर्भ में यदि हम परम श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्री हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के जीवन को देखे तो सहज ही हम अथवा कोई भी व्यक्ति कह देगा कि आप अतिजात पुत्र की श्रेणी में आते हैं। स्पष्टतः कहा जा सकता है कि आपने त्याग और वैराग्य का जो अनुपम आदर्श उपस्थित किया वह प्रत्येक मानव के सामर्थ्य की बात नहीं है। फिर आपने तप और सेवा का आदर्श उपस्थित किया। धर्माराधना में तो आप उसी दिन से संलग्न है जिस दिन आपने गृहत्याग कर जैन भागवती दीक्षा ग्रहण की। अपने संयम जीवन में भी आपने अनेक आदर्श स्थापित किये। इतना ही नहीं आपने बच्चों को सुसंस्कारवान बनाने के लिये उनमें संस्कार वपन किये और आज भी आप यह कार्य कर रहे हैं। आपने न केवल अपने माता-पिता, कुल और जाति हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 41 हेमेन्द्र ज्योति ज्योति Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ को गौरवान्वित किया बल्कि अपनी जन्मभूमि और उस प्रांत के गौरव में चार चांद लगाये । आज न केवल आपके माता-पिता की पहचान आपके नाम से है वरन् आपकी जन्म स्थली की पहचान भी देश के दूरस्थ क्षेत्रों में आपके नाम से हो रही है । ऐसे आदर्श स्थापित करनेवाले पू. आचार्य भगवंत जो अनेक गुणों के भण्डार है, के जन्म अमृत महोत्सव और दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन होना स्वाभाविक ही है । मैं परमपिता परमात्मा से पू. आचार्य श्री के सुदीर्घ एवं स्वस्थ जीवन की कामना करता हूं और आचार्यश्री के चरणों में सादर वंदन करता हूं । संयम जीवन के प्रणेता जयेश जोगाणी नौसारी परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि वचनसिद्ध जैनाचार्य सौधर्म बृहत्तपोगच्छनायक श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा., आप संयम जीवन एवं सूक्ष्मज्ञान दर्शी है, इसलिए आपने जीवन पर जीवन मर्म को, जीवन की दशाओं को, जीवन की अनेक विविधताओं को, जीवन के सुख-दुख को, जीवन की निवृत्ति-प्रवृत्ति को, जीवन के बंधन और मुक्ति को, जीवन के निर्माण और विध्वंस को, जीवन की विलासिता एवं क्षणभंगुरता को, जीवन के भय को, अंधकार को, संदेह को, क्रोध को, ईर्ष्या और द्वेष को, छल और कपट को दर्शाकर जन-जीवन को आप सदैव सतर्क करते रहे । आपश्री का संयम जीवन वर्तमान में चमकते सूर्य की तरह जैन समाज के क्षितिज पर उदयमान है । आपने दीक्षा से लेकर आज तक अपने जीवन को तप की अग्नि में तपाकर उत्कृष्ट संयम का पालन किया और वर्तमान में संयम मार्ग पर आरुढ़ वैराग्य धारियों के लिए मार्ग प्रणेता बने हुये हैं । हमारी यह मनोइच्छा है कि आप सैकडों वर्षों तक जैन शासन की प्रभावना करते हुए इस समाज को सही मार्ग पर प्रशस्त करें। यहीं शुभकामना सह आपकी कीर्ति युगों युगांतर तक चिरस्मरणीय रहे । ऐसे उत्कृष्ट, तपोनिष्ठ संयम जीवन पालन के 63 वर्ष के संयम पर्याय पर "श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी अभिनंदन ग्रंथ" के प्रकाशन पर हमारे परिवार की ओर से कोटि-कोटि वंदना। सरलता की प्रतिमूर्ति -हुक्मीचंद लालचंद बागरेचा, राणीबेन्नूर यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि परम श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के शुभ अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है । मैं इस पावन आयोजन की हृदय की गहराई से शुभकामना करता हूं। श्रद्धेय आचार्य भगवन के सम्बन्ध में जहां तक मेरी जानकारी है, वे विनम्रता एवं सरलता की प्रतिमूर्ति है । अहंभाव तो उनके निकट आने का साहस ही नहीं करता है । वे इस आयु में भी सदैव धर्माराधना में लगे रहते हैं तथा अपना कार्य भी लगभग पूरा वे स्वयं ही करते हैं | वे सदैव प्रसन्न बने रहते हैं तथा दर्शनार्थ आनेवाले गुरुभक्तों को समान रूप से धर्मलाभ प्रदान करते हैं । यहां यह कहना प्रासंगिक ही होगा कि श्रद्धेय आचार्यश्री बच्चों में सदैव सुसंस्कारों का बीजारोपण करते रहते हैं, वैसे उन्हें बच्चे प्रिय भी हैं। ऐसे सरलमना, उदार आचार्यश्री की दीर्घायु और स्वस्थ जीवन की हृदय से कामना करते हुए उनके चरणों में कोटि कोटि वंदना करता हूं । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 42 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Sarpagandse only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ वन्दनीय व्यक्तित्व -प्रकाशचन्द हिम्मतमल, बागरा साधकों का जीवन सभी के लिए वंदनीय अर्चनीय एवं पूजनीय होता है । कारण यह कि उनका जीवन अपने आप में ऊर्ध्वारोहण की यात्रा है । वे स्वयं संयम मार्ग पर चलते हैं तथा अन्य व्यक्तियों को भी प्रेरणा प्रदान करते हैं | वे सदैव भूले भटके राही को मार्गदर्शन प्रदान कर सही मार्ग पर चलने को प्रेरणा प्रदान करते हैं । यह तो समाज पर निर्भर करता है कि वह कितना ग्रहण करता है | साधकों का सम्मान/अभिनन्दन उनके व्यक्तित्व का, कर्तव्य का सम्मान होता है । उनका व्यक्तित्व समाज को नई दिशा देने में सक्षम होता है । उनके संयम की सौरभ चहं ओर व्याप्त रहती है । वे चाहे कही भी रहे किंतु उनके गुणों की गंगा सर्वत्र प्रवाहित रहती है । भक्त उनके उपदेशामृत का पान कर आनन्द का अनुभव करता है। आज जब समाज पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म. के सम्मान में एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन कर उनके पावन कर कमलों में समर्पित करने जा रहा है तो मन आल्हाद से भर गया । उनका यह सारस्वत सम्मान सफल हो और नये कीर्तिमान स्थापित करे, यह हार्दिक शुभकामना करते हुए श्रद्धेय आचार्यश्री की स्वस्थ दीर्घायु की शुभकामना करते हुए उनके चरणों में कोटि कोटि वंदन । त्याग और वैराग्य की सौरभ -घेवरचंद माणकचंदजी सेठ, भीनमाल अभिनन्दन उन्हीं व्यक्तियों का होता है, जिनके जीवन में त्याग और वैराग्य की सौरभ होती है । ऐसे ही व्यक्तित्व का अभिनन्दन ग्रन्थ भी प्रकाशित होता है जिसमें उनके त्याग और वैराग्य की सुरभि को अक्षर रूप प्रदान किया जाता है। अपने राष्ट्र और समाज के लिये बलिदान देनेवालों का भी अभिनन्दन होता है । इस धरा पर लाखों हजारों व्यक्ति प्रतिदिन जन्म लेते हैं किंतु उनमें से कितने अभिनन्दनीय व्यक्तित्व होते हैं । यह विचारणीय है । अनेक व्यक्तियों का जीवन विकार और वासना से, राग-द्वेष से कलुषित रहता है । ऐसे व्यक्तियों का कोई मान सम्मान भी नहीं होता और न ही स्मृति शेष रहती है । इस संदर्भ में यदि पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का व्यक्तित्व देखते हैं तो वह त्याग, वैराग्य और सेवा की सौरभ से सुरभित है और जन-जन के लिये आदर्श तथा अनुकरणीय है । ऐसे व्यक्तित्व का अभिनन्दन कर, उनके सम्मान में अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन, समर्पण कर हम स्वयं गौरवान्वित होते हैं । वे त्याग और वैराग्य की साक्षात प्रतिमूर्ति है । मैं आचार्यश्री के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर प्रकाशित अभिनन्दन ग्रन्थ की सफलता के लिये अपनी ओर से हार्दिक शुभकामनाएं प्रेषित करता हूं और आचार्य भगवान के सुदीर्घ स्वस्थ जीवन की कामना करते हुए उनके श्री चरणों में कोटि कोटि वन्दन अर्पित करता हूं । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेजन ज्योति 43 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्त ज्योति For Piyaleshsongs Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ - अनुकरणीय आदर्श जीवन कोलचंद धर्माजी गांधी मूथा, भीनमाल मानव जीवन की सफलता उसके चरम लक्ष्य मोक्ष्य की प्राप्ति है । मोक्ष प्राप्ति के लिये अनेक प्रयास किये जाते हैं। इन प्रयासों में केवल साधु जीवन ही एक ऐसा साधन है, जो मोक्ष प्राप्त करने के मार्ग को प्रशस्त करता है – मोक्ष प्राप्त कराता है । स्मरणीय है कि सर्वसम्पदा से सम्पन्न, महान ऋद्धि धारक तीर्थकर भगवान भी अपने जीवन में साधु वृत्ति अपना कर साधना करके मोक्ष प्राप्त करते है । परम श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. शान्तमना, सरलस्वभावी तपोनिष्ठ संतरत्न है । वे सतत, धर्माराधना में लीन रहते हैं । उनका आदर्श जीवन समस्त लोगों के लिये अनुकरणीय है। मैं श्रद्धेय आचार्य भगवन के सुदीर्घ एवं स्वस्थ जीवन की कामना करता हूं और उनके जीवन अमृत महोत्सव तथा दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर प्रकाश्यमान अभिनन्दन ग्रन्थ के लिये अपनी हार्दिक शुभकामनाएं प्रेषित करता हूं । श्रद्धेय आचार्यश्री के चरणों में कोटि कोटि वंदनाएं । माधुर्य से ओतप्रोत व्यक्तित्व -लक्ष्मीनारायण पंडित, बांसवाड़ा यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य भगवंत श्रीमदविजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है | श्रद्धेय आचार्य भगवन जितेन्द्रिय साधक हैं । आपका जीवन धीरता, वीरता, विनम्रता, गम्भीरता, शांतिप्रियता, निर्भीकता, निष्पक्षता, दयालुता, सेवाभावना, व्यवहार कुशलता, संयम साधना आदि विविध गुणों से परिपूरित है । आपके ऐसे गुण निष्पन्न जीवन को देखते हुए संस्कृत काव्य की निम्नांकित पंक्तियां स्वतः स्मरण हो आती है - अधरं मधुरं वदनं मधुरं, नयनं मधुरं हसित मधुरं, हृदयं मधुरं गमनं मधुरं, मधुराधिपतेरिखलं मधुरम् वचनं मधुरं चरितं, मधुरं, वसनं मधुरं वलितं मधुरं, चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् || आपकी प्रत्येक गतिविधि में माधुर्य घुला हुआ है । चातुर्य, माधुर्य, औदार्य और साथ ही साथ दिव्य एवं जीवन के सत्य से आपका व्यक्तित्व ओतप्रोत है । जब कोई थकाहारा दर्शनार्थी आपके दर्शन करता है तो उसके मुखमण्डल पर स्फूर्ति तैर जाती है । आपके व्यक्तित्व में अद्भुत जादू है । ऐसे आचार्यदेव जिनका जीवन माधुर्य से ओतप्रोत है, के सुदीर्घ स्वस्थ जीवन की कामना करते हुए कोटि कोटि वंदन अर्पित करता हूं । हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 44 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ तपस्या से आलोकित जीवन - श्रेणिककुमार घोंचा, रतलाम भारतवर्ष रत्नगर्भा वसुन्धरा है। इस पावन धरती पर दानवीर, धर्मवीर, तपवीर शूरवीर आदि अनेक प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों ने जन्म लेकर उसके गौरव में चारचांद लगाये हैं। उल्लेखनीय है कि संसार में सन्तों का स्थान सदैव सर्वोच्च रहा है। बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं ने भी उनके चरणों में अपना शीश झुकाया है। इसका कारण उनकी सेवा और तपस्या है जिससे विश्व आलोकित हुआ है, हो रहा है । सामान्य मानव ऐसे सन्त महात्माओं के उपदेशों को सुनकर, पढ़कर उन पर चिन्तन मनन कर अपना जीवन सफल बनाने का प्रयास करता है। महान आत्माओं के प्रति समर्पित होकर उनका मान-सम्मान करना, अभिनन्दन करना कोई नई परम्परा नहीं है । उसी परम्परा का निर्वहन है श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमदविजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के पावन अवसर पर प्रकाशित होनेवाला अभिनन्दन ग्रन्थ । मैं अपनी ओर से इस आयोजन की सफलता की हृदय से कामना करता हूं । श्रद्धेय आचार्यश्री सुदीर्घकाल तक स्वस्थ रहते हुए अपने आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन से जन-जन का कल्याण करते रहे यही शुभकामना है। श्रद्धेय आचार्यश्री के चरणों में कोटि कोटि वंदन । विरल व्यक्तित्व -मोहनलाल राठौर, झाबुआ महान सेवाभावी त्यागी, तपस्वी श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. ने वासंती वय में संयमव्रत अंगीकार कर अपने मानव भव को सफल बनाने का प्रयास किया । किशोर अवस्था में ही आपके हृदय में वैराग्य के बीच प्रस्फुटित हो गये थे । जिसका सहज अर्थ यही है कि आपने अपने जीवन के प्रारम्भ में ही इस संसार की असारता का अनुभव कर लिया था । ऐसी भव्य आत्माएं विरल ही होती है । श्रद्धेय आचार्य भगवन ने अपने सतगुणों से गुरु गच्छ की कीर्ति में वृद्धि ही की है । आप शान्त स्वभावी, निश्छल हृदयी एवं सरलमना व्यक्तित्व के स्वामी हैं । आपके जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के पवन अवसर पर आपके सम्मान में एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है, यह जानकर हृदय आल्हादित है । मैं इस आयोजन की सफलता के लिये हृदय की गहराई से शुभकामना प्रेषित करता हूं और आचार्यश्री के चरणों में वंदन करते हुए उनके सुदीर्घ स्वस्थ जीवन की कामना शासनदेव से करता हूं । आडम्बर रहित जीवन -महेश डूंगरवाल, कुक्षी यह परम आनन्ददायक समाचार है कि श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के शुभ अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है । श्रद्धेय आचार्य भगवन का व्यक्तित्व सरल सौम्य एवं मधुर है। सामान्य जन भी आपके सम्पर्क में आकर अत्यधिक प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। आप अपनी बात जन सामान्य की भाषा में ही फरमाते हैं तात्विक विषय को भी आप कुछ इस प्रकार समझाते हैं कि श्रोता सहज ही उसे आत्मसात कर लेता है । आपका जीवन आडम्बर एवं छलकपट से रहित है आपकी अमृतमय वाणी जन जन में धर्म के बीजवपन करती है आपकी सहजता और सरलता के कारण ही जन साधारण भी आपकी ओर आकर्षित होकर धर्मलाभ प्राप्त करते हैं । | Education इस पावन अवसर पर में आपके पावन चरणों में वंदन करते हुए आपके सुदीर्घ स्वस्थ जीवन की वीरप्रभु से विनती करता हूं और अभिनन्दन ग्रनथ के लिए हार्दिक शुभकामनाएं प्रेषित करता हूं । हेमेकर ज्योति * हेमेकर ज्योति 45 For Pivate हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति warmlibrary Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 4 परोपकारी व्यक्तित्व -लक्ष्मीचंद सुराणा, जोधपुर किसी कवि ने कहा है सरवर तरवर संतजन चौथा वरसे मेह | पर उपकार के कारणे चारों धारा देह || श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमदविजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जीवन पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो हम पाते हैं कि आपका जीवन परोपकारी रहा है किसी भी दुःखी व्यक्ति को देखकर आपका कोमल हृदय द्रवित हो जाता है । आप तब तक आराम से नहीं बैठते जब तक कि दुःखी व्यक्ति को कुछ सहायता प्रदान नहीं करवा देते । उसके दुःख को दूर करने का उपाय नहीं कर देते । ऐसे परोपकारी आज बहुत ही कम देखने को मिलते हैं पू. आचार्य भगवन में परोपकार का गुण प्रारम्भ से ही भरा हुआ था जो अपने गुरुदेव का सान्निध य पाकर और विकसित होगया । पूज्य आचार्यदेव के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के शुभप्रसंग पर उनके भक्तों ने एक अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित कर उनके करकमलों में समर्पित करने का निर्णय लेकर एक आदर्श उपस्थित किया है। मैं इस आयोजन की हृदय से अनुमोदना करता हूं । पूज्य आचार्यदेव स्वस्थ रहे और दीर्घकाल तक संघ और समाज को मार्गदर्शन प्रदान करते रहे यही हार्दिक कामना है । आचार्य श्री के चरणों में कोटि कोटि वंदन । 4 ज्योतिर्मय जीवन -अमृत बोहरा, बड़नगर महापुरुषों के जीवन से अनेक भव्य प्राणी प्रेरणा ग्रहण कर अपना जीवन सफल बनाते हैं । परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य भगवन श्रीमदविजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के गुणों की सौरभ से म.प्र., मारवाड़ आदि प्रांत सुरभित है । यह सौरभ दूरस्थ दक्षिण भारत तक पहुंच चुकी है । सत्यनिष्ठा, सरलता, सहजता, निर्भीकता विनम्रता, शांति, दया और क्षमा जैसे गुणों से आपका व्यक्तित्व शोभायमान है । साधना की ज्योति से आचार्यश्री का जीवन ज्योतिर्मय है । संयम की साधना, मानवता की साधना, और ज्ञान की आराधना से आपका जीवन ओतप्रोत है । साधना पथ के पथिक बनकर आप उस पथ को प्रशस्त और उज्ज्वल बना रहे हैं। आप अपना प्रत्येक कार्य धैर्य के साथ करते हैं और प्रत्येक आगन्तुक दर्शनार्थी को भी ऐसे ही उपदेश देते हैं । आपके जीवन में प्रेम का झरना निरंतर प्रवाहित रहता है। ऐसे श्रद्धेय आचार्य भगवन के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन स्तुत्य है । इस पुनीत अवसर पर मैं अपनी और से हार्दिक मंगलकामनाएं देता हूं और विश्वास करता हूं कि वीरप्रभु की कृपा से आचार्य भगवन स्वस्थ एवं प्रसन्न रहते हुए हमें सुदीर्घ काल तक मार्गदर्शन प्रदान करते रहेंगे । पूज्य आचार्य श्री के पावन चरणों में सविनय वन्दन । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 46 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 4हार्दिक मंगल कामना -धर्मचन्द्र नागदा, खाचरोद प्रातः स्मरणीय विश्वपूज्य श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की परम्परा के षष्ठ पट्टधर राष्ट्रसंत शिरोमणि की उपाधि से अलंकृत परम पूज्य आचार्य भगवन् श्रीमद्विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव और संयम यात्रा की हीरक जयंती के अवसर पर गुरुभक्तों ने उनका अभिनन्दन कर अभिनन्दन ग्रन्थ उनके पावन कर कमलों में समर्पित करने का संकल्प कर स्तुत्य प्रयास किया है। श्रद्धेय आचार्यश्री का जीवन सरलता, सहजता, करुणा, क्षमा, समता, विनयशीलता जैसे गुणों से ओतप्रोत रहा है । उनके जीवन का एक प्रमुख अंग सेवा भी रहा है, जो उन्हें अपने गुरुदेव पूज्य तपस्वी मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. से विरासत में मिला है | उसके अतिरिक्त आपने अपने अभी तक के संयमी जीवन में बालकों में सुसंस्कार वपन का भी महत्वपूर्ण कार्य किया है । ऐसे आचार्य भगवन के लिये आयोजित इस सारस्वत सम्मान की सफलता के लिये मैं अपने हृदय की गहराई से मंगल कामना करता हूं और पू. आचार्य भगवन के स्वस्थ सुदीर्घ जीवन की कामना शासन देव से करता हूं । पू. आचार्यश्री के चरणों में सविनय कोटि कोटि वंदन । A जन जन के प्रेरणा स्रोत -तेजराज बी. नागौरी, बेंगलोर संयम जीवन की हीरक जयंती मनाना अपने आपमें एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है । परम श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमदविजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. ने अपनी इस संयम यात्रा की अवधि में ज्ञानाराधना, धर्माराधना के साथ साथ सुसंस्करों का वपन कर व्यसन रहित समाज की संरचना में महत्वपूर्ण योगदान दिया हे । मारवाड़ की पावन धरा पर जन्म लेकर पूज्य आचार्यश्री ने ज्ञान, त्याग और वैराग्य की त्रिवेणी से अपने जीवन को पावन किया है और जन जन के प्रेरणा स्रोत बने हैं । इस अवसर पर आपके अनुयायियों ने आपके कर कमलों में एक अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित कर समर्पित करने का संकल्प लेकर एक स्तुत्य प्रयास किया है । मैं इस प्रयास की पूर्ण सफलता की अन्तर्मन से कामना करता हूं और शासनदेव से विनम्र विनती करता हूं कि वे पू. आचार्य भगवन को सुदीर्घकाल तक स्वस्थ बनाये रखें ताकि वे संघ और समाज का समुचित मार्गदर्शन करते रहें । पू. आचार्यश्री के पावन चरणों में सविनय सादर वंदना । श्रुत व शील सम्पन्न व्यक्तित्व -संघवी सुमेरमल लुक्कड़, मुम्बई जब हम जैन साहित्य का अनुशीलन करते हैं, तो पाते हैं कि चरम तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी ने मानव जीवन का गम्भीर विश्लेषण करते हुए मानव चार प्रकार के बताये हैं । यथा 1. श्रुत सम्पन्न 2. शील सम्पन्न 3. श्रुत-शील सम्पन्न और 4. श्रुत व शील रहित । महान वही होता है जो श्रुत और शील सम्पन्न होता है | श्रुत सम्पन्न व्यक्ति उस पंगु के समान होता है जिसके नेत्र तो होते हैं किंतु पैर नहीं होते अर्थात् वह देख तो सकता है, किन्तु चल नहीं सकता और शील सम्पन्न व्यक्ति उस अंधे व्यक्ति के समान होता है जो चल तो सकता है किंतु देख नहीं सकता । शील रहित व्यक्ति न चल सकता है और न देख सकता है, वह अंधा और पंगु है । अतः श्रेष्ठ व्यक्ति वही होता है जिसमें शील और श्रुत दोनों हैं । जब हम पूज्य आचार्य श्रीमदविजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जीवन पर दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि वे श्रुत और शील सम्पन्न हैं, उनके जीवन की महत्ता भी यही है । पू. आचार्यश्री के जन्म अमृत महोत्सव और दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर प्रकाशित होने वाला अभिनन्दन उनके इन्हीं गुणों का अभिनन्दन हैं । मैं इस आयोजन की सफलता की हृदय से मंगलकामना करता हूं और आचार्यश्री के चरणों में वंदन करते हुए शासनदेव से उनके सुदीर्घ एवं स्वस्थ जीवन किसी हार्दिक कामना करता हूं। हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 47 हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द ज्योति internation ForPape Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन करुणा के देवता -चम्पालाल के वर्धन, मुम्बई परम आराध्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमदविजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जब भी दर्शन किये, मैंने उन्हें सदैव शांत एवं प्रसन्नचित पाया । उनके कोमल हृदय में करुणा दया का निर्झर सदैव बहता रहता है। वे कभी भी किसी भी व्यक्ति को दुःखी नहीं देख सकते । दुःखी व्यक्ति के दुःख को दूर करने के लिये सदैव तत्पर रहते हैं और जब तक दुःखी व्यक्ति को किसी न किसी प्रकार को सहायता नहीं पहुंचा देते तब तक स्वयं चैन से नहीं बैठते । इस दृष्टि से हम श्रद्धेय आचार्य भगवन को करुणा का देवता कह सकते हैं । स्वभाव से पूज्य आचार्यश्री बहुत ही सरल है । उनसे मिलना, दर्शन करना, वंदन करना और चर्चा करना भी सहज है । वहां कोई आडम्बर नहीं है, कोई दिखावा नहीं है । मैंने उन्हें सदैव साधनारत पाया । वे अपने भक्तों को भी धर्माराधना के लिये सदैव प्रेरित करते रहते हैं। शासनदेव से विनती है कि वे हमारे आराध्य आचार्यश्री को स्वस्थ एवं दीर्घायु बनाये रखे । श्रद्धेय आचार्यश्री के सम्मान में प्रकाशित होने वाले अभिनन्दन ग्रन्थ के आयोजन सफलता की हृदय के कामना करते हुए आचार्यश्री के चरणों में कोटि कोटि वंदन । मील का पत्थर बने -कन्हैयालाल सकलेचा, जावरा (म.प्र.) गुणीजनों का सम्मान करने की परम्परा अपने देश में प्राचीनकाल से चली आ रही है । इधर कुछ वर्षों से ऐसे महापुरुषों के सम्मान में अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित कर उनके कर कमलों में अर्पित करने का चलन भी बढ़ा है । अभिनन्दन ग्रन्थों की भी एक परम्परा है। उनमें जिस व्यक्ति का अभिनन्दन किया जाता है उसके समग्र जीवन के साथ उसके विविध गुणों का बखान भी किया जाता है और विभिन्न विषयों के आलेखों का भी प्रकाशन होता है । इसी परम्परा में पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमदविजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर उनके भक्तों द्वारा एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है। पू. आचार्यश्री सरलता, सहजता, दया करुणा, क्षमा, समता, विनम्रता निष्कपटता, निरभिमानता, पर दुःखकातरता आदि जैसे गुणों के स्वामी है। उनका अभिनन्दन उनके गुणों का अभिनन्दन है। विश्वास किया जा सकता है कि यह अभिनन्दन ग्रन्थ नये कीर्तिमान स्थापित करेगा और अभिनन्दन ग्रन्थों की परम्परा में मील का पत्थर प्रमाणित होगा । पू. आचार्यश्री दीर्घकाल तक स्वस्थ एवं प्रसन्न रहते हुए संघ एवं समाज का मार्गदर्शन करते रहे यही हार्दिक मंगल मनीषा है । पू. आचार्यश्री के चरणों में काटि कोटि वंदन । हेमेन्दर ज्योति र ज्योति 48 हे ज्योति *ज्योति Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 4 प्रेरणा स्रोत : आचार्यश्री -शांतिलाल जे. जैन, सियाणा जिन शासन के प्रचार प्रसार में एवं उसको गौरवान्वित करने में हमारे श्रद्धेय साधु-साध्वी वृंदों का योगदान सर्व विदित है । दूरस्थ से दूरस्थ क्षेत्रों में पाद विहार करते हुए ये पहुंच जाते हैं और जिनवाणी की अमृत वर्षा कर संतप्तजनों को सुख पहुंचाते हैं । अहिंसा और शांति का संदेश देते हैं । मानवीय मूल्यों की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं । जब यह जानकारी मिली कि राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमदविजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन कर उनके श्री चरणों में समर्पित किया जायेगा तो मन प्रसन्नता से भर गया । श्रद्धेय आचार्य भगवन का दीर्घ दीक्षा पर्याय सबके लिये अनुकरणीय हैं । एक आदर्श है । श्रद्धेय आचार्य भगवन ने अपने संयमकाल में सेवा के उच्च आदर्श स्थापित किये हैं और प्रारम्भ से ही बालकों में संस्कार वपन का कार्य किया है जो आज भी सतत् चल रहा है । आज भी वे बच्चों को उतना ही चाहते हैं तथा उन्हें सदैव सत्कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करते रहते हैं। मैं श्रद्धेय आचार्य भगवन के सुदीर्घ एवं स्वस्थ जीवन की कामना करते हुए उनके चरणों में वंदन करता हुआ अभिनन्दन ग्रन्थ के आयोजन की सफलता की हृदय से कामना करता हूं। 1 आशीर्वाद बना रहे -संघवी सांकलचंद चुन्नीलाल, तांतेड, भीनमाल यह जानकर अत्यन्त हर्ष हुआ कि राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमदविजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंत के अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन होने जा रहा है । वि. सं. 2053 के चातुर्मास की विनंती स्वीकार कर आपश्री ने जो उपकार हमारे परिवार पर किया वह अविस्मरणीय है । आपके पावन सान्निध्य में उस वर्ष उपधान तप की आराधना भी सम्पन्न हुई जिससे आपश्री ने हमारे सपने को साकार किया । आपश्री की इस अनुकम्पा के लिये हम आजीवन आपके आभारी रहेंगे । चातुर्मास काल की वे स्मृतियां और श्री शंखेश्वर तीर्थ के दर्शन मन को सुख एवं शांति प्रदान करते हैं । प. पू. आचार्य भगवन सुदीर्घकाल तक स्वस्थ रहते हुए अपना आशीर्वाद बनाये रखे । यही हार्दिक शुभ कामना है। पू. आचार्य श्री के चरणों में कोटि कोटि वंदन । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 49 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सरल स्वभावी, परम उपकारी वर्तमान गच्छाधिपति प. पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. प्रकाश कावड़िया मैनेजींगट्रस्टी गुरु राजेन्द्र मानव सेवा ट्रस्ट, राजगढ़ (धार) वर्तमान गच्छाधिपति राष्ट्रसंत शिरोमणि आचार्यदेवेश श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के पुनीत सान्निध्य में मुझे आने का अवसर सन् 1986 में प्राप्त हुआ । यह मेरे जीवन का प्रथम अवसर रहा कि मैं किसी आचार्यश्री का सान्निध्य प्राप्त कर सका । साथ ही अपने जीवन में प्रथम बार पू. मुनिराज श्री ऋषभचन्दविजयजी म.सा. की सद्प्रेरणा से मानव सेवा कार्यों को करने का साहस जुटा पाया । जैसे - जैसे समय व्यतीत होता गया, नये-नये अनुभवों को प्राप्त करते हुए पूज्य आचार्य श्री के अमृत वचनों को सुनते हुए तथा उनके द्वारा बहुत ही सरलता से बताये मार्ग का अनुकरण करते हुए अपने जीवन को नया मोड़ प्राप्त होने पर आनंद की अनुभूति होती रहती है । परम उपकारी सरल स्वभावी, अपने धार्मिक कार्यों में लगे रहने वाले, आचार्यश्री बहुत ही, निर्मल, पवित्रता के सरोवर है । और प्रत्येक दर्शनार्थी को धर्मलाभ प्रदान कर उन्हें धर्म की ओर, अच्छे सद्कार्यों की ओर प्रवृत रहने का उपदेश देने वाले आचार्यश्री धन्य है । कभी भी किसी प्रकार का भेदभाव न करने हुए, अन्य किसी धर्म, सम्प्रदाय की आलोचना न करनेवाले आचार्यश्री अपने आप में मगन रहकर भगवान व गुरुदेव का ध्यान करने हुए सदुपदेश प्रदान करते हैं । कभी किसी के बारे में आलोचना समालोचना न करते पाये । अपने धार्मिक ज्ञान को हमेशा बांटते रहते हैं । सत्संग कभी-कभी होने का अवसर आया तो अपने सरलमना चित से आशीर्वचन देते हुए मुस्कराते रहे हैं । क्रोध को कभी अवसर नहीं देने वाले हमेशा हंसते हुए हालचाल पूछने वाले विरले ही साधु संत मैंने अपने जीवन में देखे हैं । धार्मिक ज्ञान का भंडार हैं । पालीताणा चार्तुमास के अवसर पर पर्वाधिराज पर्युषण पर प्रतिक्रमण में पहली बार बहुत अच्छी सज्झाय सुनने का अवसर मिला तो यह लगा की ज्ञान वे भंडार है । ऐसे परम पूज्य आचार्यश्री के चरण कमल में कोटिश, वन्दना है तथा भगवान से प्रार्थना है कि वे इसी प्रकार समग्र समाज को मार्गदर्शन देने हुए जिनशासन की प्रभावना करने रहे । जैनम् जयंति शासनम् वर्तमान गुरुदेव एक दिव्य हस्ती -पी.सी. जैन, एडवोकेट, राजगढ़ (धार) श्रीमद्विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. असाधारण गुणों के भण्डार है इनके बारे में जितना चिंतन किया जाय. जितना भी लिखा जाय थोड़ा ही होगा । दादा गुरुदेव प्रातः स्मरणीय भट्टाराक श्रीमद् विजय श्रीश्री 1008 श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की पाट गादी पर षष्टम पट्टधर आचार्य के रूप में आपका आगमन एक अलौकिक व आनन्ददायी घटना है । आपके सरल, निश्छल, निष्कपट व सहृदयता ने त्रिस्तुतिक जैन संघ में, समाज में धर्म के प्रति नई जाग्रती आई । आपने जहां जहां वर्षावास का समय व्यतीत किया वहां आनन्द ही आनन्द बरसने लगा । आपकी पावन निश्रा में हजारों लाखों भवि आत्माओं ने जैन धर्म की आराधना कर जीवन धन्य बनाया और श्री मोहनखेड़ा तीर्थ के आचार्य होने के नाते श्री मोहनखेड़ा तीर्थ का यश व गौरव फैलने लगा । आपके त्याग व तपस्या से सभी के दुख दूर होने लगे । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्त ज्योति 50 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्च ज्योति Reve n useonly Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ११य आपकी नियमित जीवन चर्या में आप पूर्ण स्वस्थ रहे, पावन रहे । आपके दीर्घायु जीवन का यही रहस्य है। आप हमेशा संयम व नियमों के अन्तर्गत रहे । परम पूज्य गुरुदेव के निष्कपट व्यवहार ने सभी के साथ प्रेमभाव व अपनत्व ने आपको साधारण कोटि के मानव से हटाकर उच्च कोटि की असाधारण व अलौकिक कोटि के मानवों में स्थापित किया । धन्य हो गुरुदेव ! आपकी जीवन प्रणाली सदैव सादगी पूर्ण रही व आज भी वैसा ही आचरण कर रहे हैं | श्री मोहनखेड़ा तीर्थ के प्रति समर्पित भाव ने आपको इस असाधारण स्थान पर बैठाया । मानों प्रकाश का पुज स्वयं ही प्रकाशित हो रहा हो आलौकित हो रहा हो । आपने न सिर्फ साधुपद बल्कि सूरिपद को भी महिमा मंडित किया । सूरिपद पर होते हुवे आपके निरअभिमानी व्यवहार ने धर्म के क्षेत्र में अग्रणी स्थान पर पहुंचाया । राष्ट्रसंत शिरोमणि गुरुदेव धन्य हो । धन्य हो पूज्य गुरुदेव के जीवन में वीतराग भाव परिलक्षित रहा । पूज्य गुरुदेव की किसी भी वस्तु या चीज में आसक्ति नहीं रही । मोह नहीं रहा । आप हमेशा निर्मोही भाव में रहे, धन्य हो गुरुदेव। इस तरह आपका जीवन अनन्त गुणों का भण्डार है । अन्त में इतना ही लिखना चाहूंगा कि आप गुणों के भण्डार है साक्षात है दयालु है धर्मात्मा हैं । परम पिता परमात्मा से यही प्रार्थना है कि आप दीर्घायु रहें निरोग रहे और समाज को समय समय पर आपका मार्गदर्शन मिलता रहे । इसी आशा के साथ परम पूज्य हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. को कोटि कोटि वन्दन करता हूं। अभिनन्दन करता हूं। अविस्मरणीय स्मृतियां -रमेश रतन राजगढ़ (धार) आचार्यदेव श्रीमदविजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर प्रकाश्यमान अभिनन्दन पर कुछ लिखते हुए हार्दिक प्रसन्नता हो रही है । आज से लगभग 38 वर्ष पूर्व सन् 1962 में जब गुरुदेव का मालवा में पदार्पण हुआ, उस समय गुरुदेव का चातुर्मास मुनि विद्याविजयजी महाराज के सान्निध्य में मालवा के सबसे बड़े नगर इन्दौर में था । उस समय मैं एक छात्र की हैसियत से अपने 15-20 साथियों के साथ परीक्षा देने इन्दौर गया था । इसके पहले मेरा इन्दौर जाने का कभी काम नहीं पड़ा था। जैसे ही इन्दौर नगर के धरातल पर बस रूकी, हम सब अपना सामान उतारने में व्यस्त थे । मैने भी बस के ऊपर से अपना सामान उतारा तो नीचे आकर देखता हूं कि मेरे सब सहपाठी मुझे अकेला छोड़ कर चले गये। मैंने हिम्मत नहीं हारी और एक तांगे वालें से बात की । तांगे वाले अब्दुलकरीम ने एक रुपये में धर्मशाला ले चलने की बात कहीं । मैंने हाँ भर दी । वह मुझे इन्दौर नगर की 6-7 धर्मशाला में ले गया । लेकिन कहीं भी जगह नहीं मिली । अंतः वह अन्तिम धर्मशाला जो खजूरी बाजार में थी मेरा सामान उतार कर चला गया । मैंने अपना सामान उठाया और धर्मशाला में प्रवेश किया । मुनीमजी से ठहरने की प्रार्थना की । लेकिन धर्मशाला में जगह नहीं होने से मुझे वहां भी निराश होना पड़ा । सामान वहां रखकर मैं बाहर आया । मैंने सोचा दो-ढाई बज गये हैं । पहले पेट पूजा की जाए । मैं पास की एक गली में गया वहां 5 आने में भोजन किया । वहां से चला । मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था । क्या करूं कहां जाऊँ? एक स्वच्छ स्थान पर बैठ गया । नवकार मंत्र का स्मरण किया । अचानक मुझे मेरे पापा की कही बात याद आ गई । एक बार मेरे पापा ने कहा था । इन्दौर में गुरु राजेन्द्र उपाश्रय भी है । मैं उठा और चल दिया । मुझे उस गली में एक मन्दिर दिखाई दिया। मैंने वहां जाकर पुजारी से राजेन्द्र हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति 51 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति dicati www.jamelibrary.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAA श्री राष्ट्रसंत शिरामणि आभनंदन गंथा उपाश्रय के बारे में पूछा । पुजारी ने कहा सामने वाली गली में एक उपाश्रय हैं । किसका हैं? यह वहां जाकर तलाश करलो । मैं घूमता फिरता उपाश्रय के पास पहुंचा । उस पर राजेन्द्र जैन उपाश्रय का बोर्ड लगा था । बोर्ड देखकर मेरी खुशी का कोई पार नहीं रहा । मन खुशी से झूम उठा । जैसे किसी को गढ़ा धन प्राप्त होता हैं मुझे भी बहुत खुशी हुई । मैंने परम पिता परमेश्वर को कोटि कोटि नमन किया और उपाश्रय में प्रवेश किया । जैसे ही मेरा प्रवेश हुआ ऊपर की मंजिल से आते हुए मैंने अपने चिरपरिचित मुनि श्री भानुविजयजी के दर्शन का लाभ प्राप्त किया । वे मुझे ऊपर ले गये । वहां मुनि विद्याविजय महाराज सा.मुनि मण्डल के साथ विराजमान थे । शाता पूछने के बाद मैं वहां बैठ गया । उन्होंने पारा, रानापुर आदि ग्रामों के हाल चाल पूछे । मैंने कहा-बावजी सब कुशल हैं । मुनि विद्याविजयजी म.सा. से भी मैं परिचित था । मेरे हृदय में खुशी दुगनी हो गयी । विद्या बावजी ने पूछा और पारा से कौन कौन आया हैं । मैंने कहा बावजी और कोई नही आया हैं । मैं ही अकेला आया हूं। कैसे आना हुआ? परीक्षा देने आया, तब कहीं भी ठहरने की व्यवस्था नहीं हुई हैं । बावजी बोल्या आखी धर्मशाला खाली पड़ी है। कहीं भी ठहर जाओ । बावजी ने मुनि श्री भानुविजयजी को बुलाकर मेरे ठहर ने का इन्तजाम करवाया । मैंने भानुविजयजी के कमरे के पास एक खाली कमरे में अपना आसन जमाया । _परीक्षा के अध्ययन के साथ ही मुझे देवदर्शन, पूजन, और व्याख्यान का भी लाभ मिल रहा था। 2-3 दिन बाद मुझे मुनि श्री हेमेन्द्रविजयजी म.सा. का भी परिचय प्राप्त हुआ । 1-2 दिन में मैं इतना मिल जुल गया कि जैसे जनम जनम का साथ हो । परीक्षा कार्यक्रम समाप्त हुआ । गुरुदेव का साथ मिला दिन भर धार्मिक बातों के बारे में गुरुदेव मुझे समझाते थे । मन्दिर जाना, हिंसा नहीं करना, झूठ नहीं बोलना, चोरी नहीं करना, पूजा करना, बड़ो का आदर करना, साधु महाराज की सेवा करना आदि कई प्रकार की बातें वे मुझे समझाते थे । मुझे भी उनकी सेवा का लाभ मिला । गुरुदेव मुझ पर बहुत ही स्नेह रखते थे, गोचरी व पानी लेने जाते वक्त मुझे साथ ले जाते थे । इन्दौर नगर के कई परिवार वालों से मेरा परिचय भी करवाया । मैंने गुरुदेव से कहा गुरुदेव, 15-20 दिन हो गये हैं । कल सुबह मैं पारा जा रहा हूं । गुरुदेव ने कहा कल से पर्युषण शुरू हो रहे हैं । पर्युषण पर्व का लाभ उठालो। ऐसा मौका बार-बार नहीं आता है । मैंने हाँ करली । व्रत उपवास प्रतिक्रमण आदि धार्मिक कार्य चल रहे थे । मुझ में भी बड़ा उत्साह था । प्रतिदिन व्याख्यान होते थे । गुरुदेव व्याख्यान में जीव हिंसा, पर विशेष जोर देते थे । कल्पसूत्र का भी वांचन होता था । मैं सब बातें ध्यान से सुनता था । कई बातों ने मन मन्दिर में घर कर लिया । जिसे मैं आज भी अपना रहा हूं। _पर्युषण समाप्ति के पश्चात मैं अपने घर पारा वापस आ गया । अविस्मरणीय स्मृतियां लेकर । गुरुदेव की वाणी, प्रेम, ममत्व, प्यार सब मेरे दिल में समा गया । आज पर्यन्त गुरुदेव की बताई बातों का मैं पालन कर रहा हूं। _36 वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद राजगढ़ नगरमें गुरुदेव चातुर्मास हेतु पधारे । मन मयूर खशी से झूम उठा। राजगढ़ नगर में गुरुदेव हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के सान्निध्य में चातुर्मास पूर्णावधि में है । नगर में उल्लास और उमंग है । खूब धार्मिक कार्य हुए । प्रति गुरुवार को श्री मोहनखेड़ा तीर्थ की यात्रा का भी श्रावक-श्राविकाओं को लाभ प्राप्त हो रहा है । शान्तस्वभावी, मधुरवक्ता, बाल ब्रह्मचारी गच्छनायक श्रीमद हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. सदैव चिरायु रहें । हमें उनकी वाणी का लाभ प्राप्त होता रहा । ऐसी गुरुदेव से कामना करते हैं । आपका वरदहस्त हमारे ऊपर हैं और रहेगा ऐसी आशा करते हैं अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन के अवसर पर अपनी ओर से कोटिश वंदना के साथ हार्दिक अभिनंदन । मेन्द्र ज्योति हेमेन्या ज्योति 52 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति OPINEPermanause onlyp nalibra Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ हार्दिक शुभकामना -भरतकुमार साकलचंद रायगांधी, जालोर राष्ट्रसंत शिरोमणि श्री हेमेन्द्र सूरिजी म.सा. वर्तमान में सिर्फ आप ही त्रिस्तुतिक जैन समाज के एक वयोवृद्ध अनुभवी संत हैं। आपने भारत में प्रायः सब क्षेत्रों में विचरण करके जैन जैनेतर समाज में धार्मिक संस्कार के बीजारोपण करके अनेक भव्य आत्माओं को धर्माभिमुख किया है । आपकी वाणी में मिठास, कंठ में माधुर्य, वक्तृत्वकला में अद्भुत शक्ति हैं, और अखूट ज्ञान के भण्डार हैं । आप सौम्य प्रकृति के सेवाभावी, समाज उन्नति के सूत्रधार और श्रमण संघ के आधार स्तंभ हैं । आपकी वाणी में अद्भुत जादूभरा हुआ है । जिसको सुनकर श्रोतागण मंत्र मुग्ध हो जाते हैं । आप वय, ज्ञान और दीक्षा स्थविर होते हुए भी छोटे बड़े सन्तों के साथ एक रूप हो जाते हैं । यह आपकी नम्रता का प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । अभिनन्दन ग्रंथ के प्रकाशन के अवसर पर हमारी हार्दिक शुभकामनाएं एवं कोटि कोटि वंदना । 4 मार्गदर्शक -प्रकाश बाफना, इन्दौर पूज्य गुरुदेव श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जीवन के सम्बन्ध में जितना भी लिखा जाय उतना ही अपूर्ण लगेगा। जैसे सागर को गागर में समाने के बराबर है | आपके व्यवहार में सरलता, सुबोधता, प्रेम एवं सद्भावना सभी को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है । जो वस्तु बांटने से बढ़ती हैं वह है प्रेम, अपनत्व ! जैन धर्म ही नहीं सभी धर्मो को समान रूप से देखना अपनत्व से ही संसार की गहराई से बाहर निकला जा सकता है । रागद्वेष से विरक्त होना ही सच्चा वैराग्य है । ये ही सारी विद्यायें हमारे आचार्यश्री में विद्यमान है । मानव मात्र की दया के पात्र की सच्ची भावना से समस्त दुखों का नाश होता है । सभी के प्रति समभाव के स्वभाव के कारण ही आज वर्तमान में आचार्यश्री सभी के मार्गदर्शक बने हुये हैं। यह अनुभव प्रत्येक व्यक्ति को सम्पर्क में आने के पश्चात ही होता है। शुभकामना -संयज छाजेड हिमांशु,' राजगढ़ (धार) परम पूज्य वर्तमानाचार्य राष्ट्रसंत शिरोमणि जैनाचार्य श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का संयम जीवन जैन शासन के गौरवमयी इतिहास का प्रतीक है । आपका 63 वर्षीय संयम जीवन अनेक उपलब्धियों से भरा हुआ हैं । आप उत्कृष्ट तपकर अपने संयमित जीवन को तपाकर वर्तमान में वैराग्य मार्ग पर आरूढ़ वैरागी के मार्ग प्रणेता बने हुए हैं। आपकी सरल, सुबोध एवं ममतामयी, छबि बरबस हर व्यक्ति को आकर्षित कर लेती हैं । आपमें अखूट ज्ञान का भंडार है । जिस प्रकार सोना तपकर कुन्दन बनता है तब जाकर आभूषण बन कर किसी के जीवन को शृंगारित करता है । उसी प्रकार आपने अपने तन को तप की अग्नि में तपाकर संयम जीवन के मर्म को जन मानस को समझा दिया। आप करुणावतार सम्यग्दृष्टि उत्कृष्ट संयम जीवन का पालन, सौधर्म वृहत्तपागच्छीय परम्परा के उज्ज्वल पट्ट परम्परा का प्रतीक बने हुए हैं । इसी संदर्भ में चार पंक्तियां सादर समर्पित हैं । हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 53 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति । wilwainelariary.org Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ तप से बन जाये कांटे भी कलियां । तप से बन जाये मिट्टी भी सोने की डलियां || तप का चमत्कार अलौकिक होता है बन्धु तप से खुल जाये बंद जीवन की गलियां || भगवान महावीर के संदेश जियो और जीने दो को आचार्यश्री ने अपने जीवन का ध्येय बनाया और विश्व में अंहिसा पालन का संदेश मानव जाति को दिया । हमारी यही कामना है कि आचार्यश्री का आशीर्वाद युगों युगों तक हमारा मार्गदर्शक बना रहे । आचार्यश्री के 57 वर्ष दीक्षा पर्यन्त जीवन पर प्रकाशित श्री हेमेन्द्र सूरि अभिनन्दन ग्रंथ के प्रकाशन पर हमारी हार्दिक शुभकामना सह चरण कमल में कोटि कोटि वंदना । करुणा के काजल आखों में छायें । मैत्री के मोती से जीवन को सजायें || आप जिये हजारों साल यही कामना आपका आशीर्वाद सदा हम पायें || मंगल कामना डॉ. दिलीप धींग आचार्य संघ का अनुशास्ता होता है । पूज्य आचार्यश्री के दो पावन प्रसंग पर यह संकल्प कि श्रमणीय और श्रावकीय अनुशासन के प्रति हम निष्ठावान बनें । आचार्यश्री के दोनों ही पुनीत प्रसंगों के निमित्त होने वाले आयोजन की सफलता और सुफलता की कामना करता हूं । अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रस्तावित प्रारूप देखकर इस बात का हर्ष है कि ग्रन्थ में आचार्यश्री के व्यक्तित्व कृतित्व के साथ-साथ जैन धर्म-दर्शन एवं अनेक महत्त्वशाली विषयों का समावेश किया जा रहा है । अभिनन्दन ग्रन्थों में प्रायः ग्रन्थ नायक का वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण होता है । आप इससे बचकर आचार्यश्री और ग्रंथ दोनों की महत्ता महिमा बढ़ायेंगे । मेरी मंगल कामनाएं । शुभकामना संदेश -अश्विनी कुमार 'आलोक' मुझे यह जानकर परम आनन्द की अनुभूति हो रही है कि परम पूज्य गुरुदेव श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के परम अनुयायी मुनिश्री हर्ष विजय जी म.सा. के योग्य शिष्य आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के शुभ अवसर पर आप एक अभिनन्दन ग्रन्थ के हेतु तत्पर हैं । ग्रन्थ के लिये आपके विषय चुनाव सार्थक है और ग्रन्थ को ऐतिहासिक महत्त्व देने की क्षमता रखते हैं । मेरी ओर से अशेष मंगल कामनाएं स्वीकारिये कि आप अपने अनुष्ठान में सफल हों । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 54 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 4 जीवन धन्य हुआ -पारसमल बसंतीमल रूंगरेचा, मन्दसौर परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर प्रकाश्यमान अभिनन्दन ग्रंथ के प्रकाशन के इस अद्वितीय अनुपम ग्रंथ के लिये मेरा हृदय अति उत्साहित है । घणी घणी खम्मा म्हारा हेमेन्द्र गुरुजी ने । परम पूज्य गुरुदेव हेमेन्द्र सूरिजी म. सा. से मेरा सन् 1970 में परिचय हुआ । तब से आज तक मैं पूज्य गुरुदेव से अनेक बार सम्पर्क में रहा । पूज्य गुरुदेव के धर्मलाभ पत्र क्षमा पत्र प्रतिष्ठा पत्र अनेक कार्यक्रम के पत्र स्वयं पूज्य गुरुदेव के हस्त लिखित आते रहे। और आज भी आप स्वयं नहीं लिख सकते किंतु अन्य मुनि सभी की हस्त लिखित धर्मलाभ एवं क्षमा पत्र आते रहते हैं । पूज्य गुरुदेव का मन निर्मल शत्रुजय के पवित्र जल के समान है । वाणी अमृत के समान है । आप ने आत्म ध्यान तप से अपने तन मन को इतना निर्मल बना लिया है कि जिस की व्याख्या इस छोटे से प्रारूप में करना असंभव है। आपके दर्शन के लिये जो भी श्रावक-श्राविका या बच्चे आते हैं सभी को आप के मुख से धर्मलाभ एवं हस्त से आशीष मिलता है । मैंने अनेक बार आपके चरणों में वंदन कर आप का आशीर्वाद लिया है । पूज्यश्री के आशीर्वाद से, गुरुदेव के प्रभाव से मेरा जीवन धन्य हुआ है । मेरे परिवार के जीवन में सुख शांति बनी हुई है । प्रभु से मैं प्रार्थना करता हूं कि पूज्य श्री के आशीर्वाद हम सब पर बने रहे । कोटि कोटि वंदन के साथ सकल विश्व का जय मंगल हो । यह मेरी भावना है । समगलमय शुभकामना - रवीन्द्र जैन, मंत्री 26वीं महावीर जन्म कल्याणक शताब्दी संयोजिका समिति पंजाब महावीर स्ट्रीट, मालेर कोटला - 148 023 सर्व प्रथम इस समिति के समस्त सदस्यों की ओर से आचार्य श्रीमदविजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म. के चरणों में कोटिशः भाव वन्दना । आप का पत्र प्राप्त हुआ । पढकर हार्दिक प्रसन्नता अनुभव हुई कि वहां का श्रीसंघ पूज्य गुरुदेव के जन्म अमृत महोत्सव व दीक्षा हीरक जयंती पर एक अभिनंदन ग्रंथ निकाल रहा है | महापुरुषों का जन्म किसी जाति, सम्प्रदाय के लिये नहीं होता । उनके कार्य मानवमात्र की आत्मा के कल्याण के लिये होते हैं । जैन धर्म में आचार्य का पद तीर्थंकर के बाद आता हैं वह 36 गुणों का धारक संघ का शास्ता धर्म गुरु होता है । फिर जहां तक दीक्षा का प्रश्न है व दीक्षा तो एक घड़ी का भव बंधन कर देती हैं | फिर इतना लंबा दीक्षा पर्याय मानवता को समर्पित किया है हमारे गुरुदेव ने । भगवान महावीर ने उस पुरुष को बुरा माना है जो गुणवान के गुणों का गुणगान नहीं करता । गुणवान के गुणों का गुणगान का माध्यम हमारा यह अभिनंदन ग्रंथ बने । इसमें विश्व प्रसिद्ध विद्वानों द्वारा जुटाई शोध सामग्री का प्रकाशन जैनधर्म के माध्यम से आचार्यश्री का विश्व को परिचित कराने में सहायक सिद्ध होगा । सन् 2000 में इस विश्व स्तर पर भगवान महावीर का 2600 साला जन्म दिन मनायेंगे । ऐसे पवित्र अवसर पर यह ग्रंथ 2600 साला जन्म महोत्सव कार्यक्रम में मील का पत्थर साबित होगा । हम पुनः इस त्याग मूर्ति, तपस्वी आगमज्ञ जिनशासन प्रभावक आचार्य को जैनों के चारों सम्प्रदायों की संस्था की ओर से इस मंगलमय अवसर पर कोटिश; अभिनंदन करते हैं। उनके श्री चरणों में कोटिशः वन्दन, श्री संघ को जय जिनेन्द्र । हेगन्द्र ज्योति हेगेन्र ज्योति 55 हेमेन्य ज्योति* हेगेन्ना ज्योति For Pratea Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 4 निर्मल स्वभावी -चांदमल लूणिया प. पू. आचार्य भगवन्त के बारे में जितना लिखा जावे या कहा जावे बहुत ही कम होगा । प.पू. आचार्य भगवन्त के दर्शन लाभ वर्षों के पूर्व के हैं । मुनि भगवन्त के रूप में व आज के समय में भी किसी प्रकार का अहम देखने व व्यवहार में परिवर्तन नहीं हुआ । वही हंस मुख भोलापन अपनी जगह पर है । कोई भी श्रावक, श्राविका आवे सबको एक समान धर्म लाभ देते हैं । चाहे जितना बडा व्यक्ति हो या मुझ जैसा छोटा हो सबके साथ एक समान वार्तालाप करते हैं । कोई किसी से भी गुप्त (अलग कमरे में) का नाम नहीं । सबके साथ खुला व्यवहार है । चाहे विशेष भक्त जैन अथवा जैनेतर हो भोले स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं । नेत्रों की कमजोरी होते हुवे भी आवाज से ही परिचित को पहिचान जाते हैं । स्मरण शक्ति भी यथावत है । दया करना, वात्सल्यता, प्रेमरूपी सुधा से भरा हुआ जीवन है । हृदय में निश्छल वाणी मधुर व्यवहार में सज्जनता झलकती है अमृत वाणी से उनकी महिमा गरिमा सर्वत्र फैली है । संसार असार है । गुणी भगवन्त के सामने कोई झंजावात, कठिनाई आई हो उसे शांति पूर्वक विनम्रता के साथ समाधान किया है। आपने पद की कभी आशा नहीं की, परन्तु स्नेह व आग्रह के साथ आचार्य पद स्वीकारा है । पद की गरिमा कायम रखे हुवे हैं । आपकी निश्रा में बड़े बड़े मंदिरों की प्रतिष्ठा अंजनशलाका दीक्षायें हुई । परन्तु कभी भी अपने खुद के चेले सेवा हेतु की घोषणा नहीं की । अभी अभी कुछ वर्ष पूर्व भक्तों के अति आग्रह को देखते हुए स्वीकारा है। ऐसे भोले स्वभावी आचार्य भगवन्त के लिये वीर प्रभु से यही प्रार्थना है कि वे दीर्घायु हो । शुभकामना -मांगीलाल टी. जैन मुझे ज्ञात हुआ कि राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति तपस्वीरत्न श्रीमदविजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के उपलक्ष में अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित होने जा रहा है । यह शुभ कार्य, आचार्य भक्ति प्रशंसनीय अनुमोदनीय है । यह ग्रंथ जैन जैनेतर एवं मानव मात्र के लिये ज्ञानवर्धक हो । पू. आचार्यदेव दीर्घ संयमी शासन प्रभावक, भव्य जीवों को आत्म उद्धारक एवं पशु-पक्षियों के कल्याणकारी हो । यही मेरी शुभ कामना है । शुभ भावना के साथ आ. प्र. जीव रक्षा संघ, गुंटूर - उपाध्यक्ष श्री राजेन्द्रसूरि जैन सेवा समिति, गुंटूर 4 जुग जुग जीवो -दिलीपकुमार प्रेमचन्दजी वेदमुथा, रेवतडा (चेन्नै) कलिकाल कल्पतरु चर्तुविध सिरताज प्रातःस्मरणीय अभिधान राजेन्द्र कोश के रचयिता विश्व पूज्य प्रभु श्रीमदविजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के प्रशिष्य सरल स्वभावी शान्त हृदयी राष्ट्रसंत शिरोमणि वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जब भी दर्शन करते हैं तो सदा आपके चेहरे पर प्रसन्नता झलकती है । जब भी कुछ समय साथ बैठकर धर्म चर्चा होती है, तो कई पुरानी बातें तो कई महापुरुषों के जीवन हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 56 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति al Education Internal aineliti Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ का आंखों देखा हाल हमें सुनाते हैं तब गुरु भगवंत पर हमारी श्रद्धा और भी गहरी हो जाती हैं। आप इतने सरल स्वभावी है कि छोटा सा बच्चा भी अगर आपकी शरण में दर्शन वंदन करने आये तो वासक्षेप देकर धर्मलाभ का आशीर्वाद देते हैं । जिस दिन से चेन्नई में राजेन्द्र भवन में आपका मंगलमय चातुर्मास हेतु पदार्पण हुआ उस दिन से ज्ञान ध्यान तप की तो गंगा ही बह रही है। आचार्यश्री जी के शिष्य रत्न मुनिश्री प्रीतेशचन्द्रविजयजी म.सा. ने हमें बताया कि आप रात्रि में लगभग 2 से 2.30 बजे उठकर ध्यान जप करते हैं एवं जब तक आपके 60 माला गिननी पूरी नहीं होती, तब तक गोचरी नहीं करते हैं। इस वृद्धावस्था में 86 वर्ष की उम्र में भी आपका संयममय जीवन अति उत्कृष्ट है। अतः आप उत्कृष्ट चारित्र पालक है सूरि पद के बाद आपने जो जिन शासन में धर्मध्वजा फहराई वह प्रशंसनीय है । वंदनीय है । आचार्यश्री जी के साथ कई सन्तों में एक और महान सन्त कोंकण केशरी प्रवचन प्रभावक मुनि श्री लेखेन्द्रशेखर विजय म.सा. जिन्होंने प्रवचन में श्री शंखेश्वर पार्श्वप्रभु की महिमा बताई एवं श्री शंखेश्वर पार्श्वप्रभु के अट्टम आपने करवाए हैं । आज इसका तीसरा दिवस है । पार्श्व प्रभु की महिमा के साथ पूरा शंखेश्वर नगर का इतिहास बताया पूज्य गुरुवर की वाणी अति ओजसैव तेजस्वी है। | दीवो रे दीवो मंगलिक दीवो । हेमेन्द्र सूरि गुरू जुग जुग जीवो ॥ दिव्य पुरुष पू. गुरुदेव श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. कोटि कोटि वंदन : सदाशिवकुमार जैन, श्रीमोहनखेड़ा तीर्थ आदि अनादि अनन्त जन्मों से हमारा यह मानव जीवन, इस मानव जीवन को प्राप्त कर हम सदियों से भटक रहे हैं। चौरासी लाख जीवायोनि में हम निरंतर जन्म एवं मृत्यु का खेल खेल रहे हैं। हमारे पुण्योदय से हमें जन्म एवं जाति प्राप्त होती हैं । हमारे अच्छे कर्मों का फल हमें सद्गति प्रदान करता हैं । मोक्ष प्रदान करता हैं । सही प्रेरणा प्राप्त होती है । बुरे कर्मों का फल हमेशा बुरा ही होता है । I हमारा यह मानव जन्म एक अनमोल रत्न की भांति अति दुर्लभ है। क्योंकि मानव भव प्राप्त करने हेतु देवी देवता भी तरसते हैं अपार शक्तियों से सुसज्जित यह हमारा मानव मन उस मानव मन में अनेक शक्तियां छिपी है । जिस तरह मृग कस्तूरी की सुगंध से भाव विभोर होकर कस्तूरी को पाने हेतु वन में भटकता रहता है । फिर भी वह कस्तूरी को पाने में असमर्थ रहता है और कस्तूरी मृग के नाभिस्थल में ही विद्यमान रहती है उसी प्रकार हमारे नाभिचक्र में भी अनेकानेक शक्तियाँ छिपी हैं । चाहिये उसको ध्यान के माध्यम से, प्राणायाम के माध्यम से जागृत करने की । cation जन्म एवं मृत्यु के इस चक्कर को यही विराम देकर क्यों न हम सद्गति (मोक्ष) के द्वार खोलने की तैयारी में जुट जाए । इसके लिए हमें सबसे पहले त्याग तपस्याएं, धर्म आराधनाएं, दान धर्म पूजा आदि धर्म क्रियाओं पर ध्यान देने होगा। इसके बिना हमें सद्गति प्राप्त होना असम्भव है । इसी क्रम में है हमारे पूज्य गुरुदेव राष्ट्रसंत शिरोमणि पू. आचार्यदेव श्रीमदविजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. जो कि श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वे. पेढी (ट्रस्ट) श्री मोहनखेडा महातीर्थ के वर्तमान अध्यक्ष भी है । आपश्री का जन्म बागरा (राज.) नगरी में पिताश्री ज्ञानचन्दजी पोरवाल मातुश्री उजमबाई की कुक्षि से सम्पन्न हुआ। आपश्री की शिक्षा दीक्षा धर्म गुरु श्रद्धेय तपस्वीरत्न श्री हर्षविजयजी म.सा. के हाथों सम्पन्न हुई । आपश्री का ज्ञान ध्यान त्याग तपस्याएं दीर्घ है । धन्य हैं ऐसे माता पिता जिन्होंने समाज को एक अनमोल रत्न प्रदान किया जो आज आपके समक्ष एक सूर्य की भांति प्रकाशमान है। मैं भी इनके सौम्य एवं सरल रूप को कभी भी नहीं भुला पाऊंगा । ऐसे पू. गुरुदेव के सादर चरण कमलों में सदा नतमस्तक रहूंगा। आपके जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर आपश्री के चरणों में कोटि कोटि वंदन । | हेमेजर ज्योति मेजर ज्योति 57 हमे ज्योति ज्योति Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 4 अभ्यर्थना (कामना) -समर्थमल जैन, (छैगांववाला) खाचरौद अखिल भारतीय त्रिस्तुतिक संघ द्वारा परम उपकारी प्रातः स्मरणीय विश्व पूज्य जैनाचार्य गुरुदेव श्रीमद विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. द्वारा संस्थापक श्री मोहनखेडा तीर्थ के षष्टम पट्टधर परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति वर्तमान आचार्य भगवंत श्रीमदविजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रंथ उनके परम पवित्र चरणों में समर्पित किया जा रहा है। खाचरोद श्रीसंघ के लिये बड़े हर्ष का विषय है। विगत कई वर्षो से अभिनन्दन ग्रंथ भेंट करने का विचार त्रिस्तुतिक संघ में चल रहा था सो प्रभु कृपा से शुभ घडी प्राप्त हो गई। परम पूज्य हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. कस्तूरी के समकक्ष है । कस्तूरी वास्तविक रंग रूप से हीन होते हुवे भी सुगन्धित होने के साथ साथ बहुत कीमती होती है । परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमदविजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. भगवान महावीर स्वामीजी के द्वारा आगम ग्रंथ में जो साधु क्रिया का वर्णन किया गया है । पंचमकाल में उसका पालन अक्षर सह अक्षर आगम वचनों पर श्रद्धा के साथ आज पर्यन्त तक तदानुसार आचरण कर रहे हैं । इसी से आपश्री का चन्द्र समान शान्त निर्मल चारित्र बना हुआ है । परम पूज्य श्री आचार्य पूर्ण रूप से सम्यक्त्वी है । जो सम्यक्त्वी होता है वह लौकेषणा की कतई परवाह नहीं करता है। परम पूज्य आचार्य देव वाह्याडम्बर से बहुत दूर है । आप सभी को वाहरी दृष्टि नहीं अन्तर दृष्टि के द्वारा ही उपदेश देते रहते हैं । जो साधु एवं आचार्य भगवन्त आगमों में ही अपने मनोयोग को जोड़ देता है । उसके आचार विचार गंगाजल समान पवित्र हो जाते हैं । परम पूज्य आचार्यदेव के जीवन काल में छोटे बालक सी सरलता है एवं कहीं भी कपट भरा व्यवहार नहीं और फरमाते जैसी भावना होगी वैसे ही पुण्य बंधते हैं । व्यवहार में आत्मीयता एवं सौहार्द्रपूर्ण संयमी जीवन उत्तम निर्मल नीर लिप्त भगवान महावीर स्वामीजी के शासन को उन्नति पर लाने वाले सच्चे शासन दीपक हैं । ऐसे परम पूज्य आचार्यदेव के श्री चरणों में अभिनन्दन ग्रंथ में मेरे जैसा तुच्छ व्यक्ति क्या शुभ कामना संदेश दे सकता है । केवल अभ्यर्थना (कामना) ही कर सकता है कि महाराज श्री परम पूज्य हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. श्री संघ की सेवा के लिये जीवो हजारों साल । यही मंगल भावना है। 4 चिर जीवे गुरू महाराज हमारे -कु. सुधर्मा जैन छैगाँववाली, खाचरौद मन के सागर में कभी अनुभूतियों की लहरें मचलती हैं, तो कभी वह फूलों से लदी डाली की तरह सौरभ की वर्षा करता है, कभी यह मन नगाड़ों के साथ 'अमृत महोत्सव' तो कभी यह मन संयम पथ की पदचाप हीरक जयंती मनाने में प्रफुल्लित हो उठता है । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्रज्योति 58 हेमेन्य ज्योति * हेगेन्द्र ज्योति Pasal Use One P anelidge Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ इसका एक ही उद्देश्य व लक्ष्य देखने में आता है, वह जनमानस में उमड़ रही गुरु भक्ति तथा धार्मिक आस्था । जिस आर्य धरा पर महान गुणीवंत, तपस्वी, त्यागी सेवारत, परम उपकारी, संत प्रवर, परम पूज्य आगमज्ञ कर्म विशारद, अध्याम विद्या विशारद, राष्ट्रसंत शिरोमणि वर्तमान आचार्य श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती पर जो ग्रन्थ गुरु चरण में समर्पित किया जाने का निर्णय किया गया है । यह अनंत जीव आत्माओं के कल्याण के लिये प्रेरणा व जागृति का साक्षात प्रदर्शक होगा । भौतिक युग में मनुष्य भागमभाग की जिन्दगी जी रहा है, उसे अपनी आपाधापी से फुर्सत नहीं है किंतु अनेक भव्य आत्माएं जो कि अध्यात्म से परिचित है, उन आत्माओं ने पूज्य गुरुदेव श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के प्रतिबिम्ब मात्र से अपनी आत्मा को गुरुचरण में शरण लेकर अपना कल्याण कर रहे जिन आत्माओं को ऐसे बहुगुणों से अलंकृत गुरु का सान्निध्य मिले जिनकी वाणी में माधुर्य, नैतिक सामाजिक और धार्मिक तथा वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से जनमानस को जाग्रत करने के लिये अपनी वृद्धावस्था में भी उग्र विहार कर जिन मंदिर महोत्सव संघ यात्रायें प्रतिष्ठा महोत्सव उपधान, तप, धर्माराधना, दीक्षा समारोह और अन्य कार्यों में सकल संघ को अपने व्यक्तित्व व कर्तव्य से झंकृत करते हुए अपने आचार्यपद को कंचनमय बनाते हुए जो उपकार सम्पूर्ण मानस को प्रदान कर रहे हैं, हम आपके बहुत बहुत आभारी हैं और रहेंगे । इसी तारतम्य में आचार्यश्रीजी के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं तथा मंगलमय जीवन की आशा एवं विश्वास के साथ आपका आशीर्वाद हमें मिलता रहे तथा यह आदि अनादि चिरवंत भगवान श्री महावीरस्वामी का शासन देदीप्यमान बना रहे । पुनः इन्ही शुभ इच्छाओं के साथ शत्-शत् वन्दन, नमन । समर्पण -कु. सुधर्माजैन, छैगांववाली, खाचरौद आचार्य भगवन्त के चरणों में, जिन शासन के श्रुतधर ! कलिकाल के प्रभुवर तुम्हारे चरणों में नमस्कार, करलो इसको तुम स्वीकार । क्योंकि तुम्हारा ही तुम्हें अर्पण है, तव आशीष का संवेदन है, सोचती हूं - यह परमात्मा का कीर्तन है । या तुम्हारा निकेतन है । लगता है तुम प्रतिमूर्ति हो परमात्मा की मेरे हृदय आकाश तरंग की, तुम्हारा कीर्तन मेरा वतन है तुम्हारा ही तुम्हें अर्पण है । पूज्यवर ! मेरे भावों को स्वीकार करो, प्रभु से मेरी मनुहार करो तुम्हारा आशीष नित नूतन है, तुम्हारा ही तुम्हें अर्पण है सच ही तुम - मेरे जीवन के वरदान हो । इस जग की मुस्कान हो, तुम्हारा आसन शासन सनातन है तुम्हारा तुम्हें अर्पण है । हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 59 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ। धन्य हो गए -महेन्द्र सी.कब्दी. भीमावरम पू. गुरुभगवंतों के दर्शनों की इच्छा सदैव बनी रहती है। जब यह इच्छा तीव्र हो जाती है तो जहां गुरुदेव बिराजमान होते हैं, वहाँ पहुँचकर दर्शन/वंदन कर अपनी इच्छा पूरी करते। कभी यह सोचा भी नहीं था कि दक्षिण भारत के दूरस्थ क्षेत्रों में गुरुदेव राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यप्रवर श्रीमदविजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. अपनी आयु के इस पड़ाव पर पधारकर मुझ जैसे दर्शन पिपासुओं की प्यास बुझा देंगे। आज पूज्य गुरुदेव की इस क्षेत्र में उपस्थिति से हमारी प्रसन्नता असीम है। पूज्य गुरुदेव का सान्निध्य पाकर हमारा रोम-रोम पुलकित है। मुझे जब यह जानकारी मिली कि पूज्य गुरुदेव के जन्म अमृतमहोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर उनके सम्मानार्थ एक अभिनंदन ग्रंथ का प्रकाशन हो रहा है तो यह प्रसन्नता द्विगुणित हो गई। मैं पूज्य गुरुदेव सुस्वस्थ सुदीर्घ जीवन की कामना करते हुए उनके चरणों में वंदना करता हूँ। वन्दन है उनको -गटमल पालरेचा, राजमहेन्द्री संत, मुनि अथवा आचार्य तो सब हैं। सबकी अपनी-अपनी विशेषता हैं किंतु सरलता एवं सहजता जितनी राष्ट्रसंत शिरोमणि आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. में देखने को मिलती है, उतनी शायद ही किसी में हो। उनकी दीर्घायु एवं दीर्घ संयम पर्याय को देखते हुए उनके पावन श्री चरणों में अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित कर समर्पित करना, एक स्तुत्य प्रयास की सफलता के लिये हृदय से शुभकामना अभिव्यक्त करता हूँ। इस अवसर पर मैं प.पू. आचार्यश्री केसुस्वस्थ सुदीर्घ जीवन की शुभकामना करते हुए उन्हें सादर वन्दन करता Price उनकी सादगी अनुपम है -नेमीचंद भण्डारी, हैदराबाद आज कल धर्म के क्षेत्र में भी बाह्याडम्बर बहुत देखने को मिल रहा है किंतु जो सच्चे साधक हैं और अपनी आत्मा का कल्याण चाहते हैं, वे इस प्रकार के आडम्बरों, तड़क-भड़क, शान-शौकत से दूर ही रहते हैं। परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. ऐसे की एक विरल संतरत्न हैं जो बायाडम्बरों से सर्वथा मुक्त हैं। परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणिजी म. की सादगी और सरलता अनुपम है, जो अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलती है। मुझे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणिजी म. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर अभिनन्दन ग्रंथ का प्रकाशन किया जा रहा है। इस अवसर पर मैं उनके श्रीचरणों में अपनी ओर से कोटि-कोटि वंदन प्रस्तुत करते हुए उनके दीर्घ सुस्वस्थ्य जीवन की हार्दिक मंगल कामना करता मन अभिभूत है -कांतिलाल कोठारी, कार्यम्बटूर जब यह समाचार मिला कि मेरे आराध्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के उपलक्ष्य में एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन हो रहा है तो मन अभिभूत हो गया। सत्य तो यह हे कि ऐसी महान विभूति का अभिनन्दन कर हम स्वयं ही गौरवान्वित हो हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति 60 हेगेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति PoEdushanternal Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ .. रहे हैं। परमश्रद्धेय आचार्यश्री जैसी सरलता एवं सादगी अन्यत्र यहीं देखने को मिलती है। इस अवसर पर मैं अपने हृदय की गहराई से श्रद्धेय आचार्यश्री के सुस्वस्थ जीवन एवं सुदीर्घ जीवन की कामना करते हुए उनके श्री चरणों में कोटि-कोटि वंदन करता हूँ। अधूरे कार्य पूरे हुए - मांगीलाल भबूतमलजी कार्य तो चलते रहते हैं, पूरे भी होते हैं किंतु यदि किसी महापुरुष का आशीर्वाद और प्रेरणा मिल जावे तो कार्यों में गति आ जाती है और वे समय पर पूर्ण भी हो जाते हैं। यह भी आवश्यक है कि महापुरुष ऐसे कार्यों को पूरा करने के लिये कहे। केवल उनकी उपस्थिति ही कार्यों की पूर्ति का निमित्त बन जाती है। परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. का जब से दक्षिण भारत की ओर पदार्पण हुआ तभी से इधर के चल रहे निर्माण कार्यों में स्वाभाविक रूप से गति आ गई। इसका परिणाम यह हुआ कि अनेक स्थानों पर पूज्य आचार्यश्री के पावन सान्निध्य में प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न हुए हैं। पू. आचार्यश्री के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के उपलक्ष्य में एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन कर उनके पावन चरणों में समर्पित करने का संकल्प स्तुत्य है। मैं आपके इस प्रयास की सफलता के लिए हार्दिक शुभकामना प्रेषित करता हूँ। पूज्य आचार्यश्री के पावन चरणों में कोटि-कोटि वंदना। सबके लिये द्वार खुले हैं। -विमलचंद घेवरचंदजी मुथा, तणुकु वर्तमान समय में प्रायः यह देखने को मिलता है कि कतिपय आचार्यगण, विशिष्ट मुनिराज आदि विशिष्ट व्यक्तियों से अलग कक्ष में द्वार बंद कर चर्चा करते हैं। कुछ श्रावकगण भी ऐसा ही चाहते हैं और करते भी हैं। इससे विपरित पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. चाहे छोटे कक्ष में विराजमान हो चाहे किसी बड़े हाल में। वे अपने उसी स्थान पर छोटे-बड़े विशिष्ट अतिविशिष्ट व्यक्ति से चर्चा करते हैं। सबके सामने चर्चा करते हैं। वहाँ कुछ भी छिपा हुआ नहीं है। (एक अनुपम संतरत्न - -महेन्द्रकुमार नरपतराजजी कोठारी, भिवंडी संत आचार्य बहुत हुए किंतु जितनी सरलता, सहजता, दयालुता, कारुण्यभाव,समता, पर दुःखकातरता, निर्भिमानता, निर्लोभिता, सादगी, सेवापरायणता परम श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य भगवान श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. में देखने को मिली उन्नती अन्यत्र दुर्लभ है। ऐसी महान विभूति के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित कर उनके पावन चरणों में समर्पित करना श्लाघनीय है। मैं आपके इस प्रयास की सफलता के लिये हार्दिक शुभकामनायें प्रेषित करता हूँ और पू.आचार्यश्री के सुदीर्घ सुस्वस्थ जीवन के लिये अभिनन्दन के लिये शासनदेव से विनती करता हूँ। प.पू. आचार्यश्री के पावन श्री चरणों में शत-शत अभिनंदन। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 61 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति U plication Forpineap Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ शुभकामना -ईश्वर भूरमलजी तांतेड, चेन्नई यह जानकार हार्दिक प्रसन्नता हुइ कि परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य प्रवार श्रीमदविजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के उपलक्ष्य में उनके सम्मानार्थ एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है। पूज्य आचार्य प्रवर ने अपने संयमी जीवन में सेवा को अधिक महत्व दिया। साथ ही आपने बच्चों में संस्कार वपन के कार्य को भी प्राथमिकता दी है। विश्वास है कि यह अभिनन्दन ग्रन्थ पूज्य आचार्य प्रवर के जीवन वृत्त को तो समग्र रूप से प्रस्तुत करने में सक्षम होगा ही, जैन विद्या से संबंधित महत्वूपर्ण विषयों पर भी सारगर्भित सामग्री प्रस्तुत कर अपनी एक विशिष्ट छाप छोड़ने में समर्थ होगा। इस अवसर पर मैं पूज्य आचार्य प्रवर के सुदीर्घ सुस्वस्थ जीवन की शुभकामना करते हुए उनके श्री चरणों में अपनी वंदना अर्पित करता हूं। बहुत बड़ी उपलब्धि -मीठालाल (आर.के.इलेक्ट्रिकल्स), मदुराई वर्तमान समय में प्रायः यह देखा जा रहा है कि यदि कोई व्यक्ति दस-पांच वर्ष किसी उच्च पद पर रह जाता है तो उसे उसकी महत्वपूर्ण उपलब्धि मानते हुए सम्मानित किया जाता है। इस परिप्रेक्ष्य में जब हम परमश्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमदविजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के जीवन पर दृष्टिपात उनके संयमी जीवन के बासठ वर्ष पूर्ण हो गये हैं जो अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। इस उपलब्धि का जितना भी सम्मान किया जावे वह कम ही है। यह भी प्रसन्नता का विषय है कि पू.आचार्यश्री की दीक्षा हीरक जयंती और जन्म अमृत महोत्सव को लक्ष्य कर उनके भक्तों ने उनके सम्मान में एक अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित कर उनके कर कमलों में समर्पित करने का संकल्प लिया है। मैं इस संकल्प की अनुमोदना करते हुए पू.आचार्यश्री के सुदीर्घ सुस्वस्थ जीवन की हार्दिक शुभकामना करता हूं। पू.आचार्यश्री के पावन चरणों में कोटि कोटि वंदन। सच्चे संयमाराधक -रमेशकुमार (राजस्थान ट्रेडिंग कं.), मदुराई वासंती वय में भोग का त्याग कर योग में प्रवृत्त होना कोई सरल बात नहीं है। ऐसा करना प्रत्येक युवक के सामर्थ्य की भी बात नहीं है। इस दृष्टि से जब हम परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के जीवन पर दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि उन्होंने अपने युवा काल में समस्त सांसारिक भोगों का त्याग कर संयमव्रत की पालना कर अपने आपको सच्चा संयमाराधक प्रमाणित कर दिया है। आज उनकी इसी संयम यात्रा के परिणामस्वरूप उनके सम्मान में जब एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन होने जा रहा है तो हृदय पुलकित हो रहा है। इस अवसर पर उनके सुदीर्घ स्वस्थ जीवन की कामना करते हुए उनके पावन चरणों में अपनी वंदना अर्पित करता हूं। हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 62 हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Sain Education anal Nachal Sodaimeliayog Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ दक्षिण भारत में धूम मचा दी -सुमेरमल कुहाड़, काकीनाड़ा परम श्रद्धेय शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. जिस समय अपने राणीबेन्नूर वर्षावास के लिये दक्षिण भारत की धरा पर पधारे तो वहां लोगों में धर्म जागृति का अद्भुत उत्साह संचरित हुआ। दक्षिण भारत में रहे गुरुभक्तों को विश्वास हो गया कि श्रद्धेय गुरुदेव उनके क्षेत्रों को भी अपनी चरण रज से पवित्र करेंगे और वैसा ही हुआ। राणीबेन्नूर वर्षावास की समाप्ति के पश्चात् चेन्नई और फिर राजमहेन्द्री के वर्षावास हुए। इस बीच आपने अनेक क्षेत्रों में विचरण कर धर्म की गंगा प्रवाहित कर दी। आपके पावन सान्निध्य में अनेक स्थानों पर प्रतिष्ठाएं भी हुई। अनेक धार्मिक कार्यक्रम भी उत्साहपूर्वक सानन्द सम्पन्न हुए। इससे दक्षिण भारत में धर्म की धूम मच गई। आचार्यश्री के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर प्रकाश्यमान अभिनन्दन ग्रन्थ के विषय में जब भक्तों को जानकारी मिली तो उनका उत्साह और भी द्विगुणित हो गया। मैं इस अभिनन्दन ग्रन्थ की सफलता के लिये अपनी हार्दिक शुभकामनायें प्रेषित करता हूं। पूज्य आचार्यश्री के पावन चरणों में शत्-शत् वंदन। मन खिल उठा –झवेरचंद मिश्रीमलजी, निरदवोलु राजस्थान अथवा मालवा की धरा पर रहो तो गुरु भगवंतों के दर्शन सहजता से होते रहते हैं किंतु दक्षिण भारत में गुरु भगवंतों के दर्शन होना बड़े सौभाग्य की बात है। कारण यह है कि इस ओर गुरु भगवंतों का विहार कुछ कम ही हो पाता है। जब यह सूचना मिली कि परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. अपने धर्म परिवार के साथ दक्षिण भारत पधार रहे हैं तो मन खिल उठा। उनके इस ओर आगमन से गुरु भक्तों में उत्साह का संचार हुआ। अच्छी धर्म-जागृति हुई। जहां-जहां भी वे पधारे आनंद और उमंग की लहरें उत्पन्न हो गई। इसी बीच यह ज्ञात हुआ कि उनके जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के उपलक्ष्य में एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन होने जा रहा है तो प्रसन्नता द्विगुणित हो गई। इस अवसर पर मैं प.पू. आचार्यश्री के पावन चरणों में वंदन करते हुए शासनदेव से उनके सुस्वस्थ-सुदीर्घ जीवन की हार्दिक शुभकामना करता हूं। सतत् साधना चलती है। -रिखबचंद सोलंकी, विजयवाड़ा परमश्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. को अपने पाट पर बैठे हुए एकाएक कोई देखे तो वह यह सोचेगा कि वे वैसे ही बैठे हैं। किन्तु वस्तुस्थिति इससे ठीक विपरीत है। वे मौन साधक हैं और उनकी साधना सतत चलती रहती है। उठते-बैठते, चलते-फिरते, खाते-पीते हर स्थिति में उनका मानस धर्माराधना में रत रहता है। इतना ही नहीं वे प्रत्येक दर्शनार्थी को भी धर्माराधना करने के लिये प्रेरित करते रहते हैं। जब यह ज्ञात हुआ कि परमश्रद्धेय आचार्यश्री के सम्मान में एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन होने जा रहा है तो हार्दिक प्रसन्नता हुई। मैं इस आयोजन की सफलता की कामना करते हुए श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणिजी के पावन चरणों में वंदन करता हूं। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्ट ज्योति 83 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Awarerana Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जीवण क्षणभंगुर है । -फूलचंद वेगाजी, गुंटूर सच्चा साधक वही होता है जो स्वयं तिरे और दूसरों को तीरने का मार्ग बतावे। मैंने कई बार देखा है कि परम श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वर म.सा. के दर्शनार्थ जब कोई आता है तो आपश्री सहज ही पूछते हैं "कुछ धर्म-ध्यान भी करते हो या नहीं। इस जीवन का कोई निश्चित नहीं है। यह क्षणभंगुर है। कब पंछी उड़ जाय कुछ कहा नहीं जा सकता। इसलिये जितना बन सके उतना धर्मध्यान अवश्य करो।" इसके पश्चात् भी यदि मनुष्य जागृत न हो तो क्या किया जाये। परम श्रद्धेय आचार्यश्री के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीक जयंती के अवसर पर प्रकाशित होने वाले अभिनन्दन ग्रन्थ की सफलता के लिये मैं अपनी ओर से हार्दिक शुभकामना प्रेषित करता हुए श्रद्धेय आचार्यश्री के पावन चरणों में वंदन करता हूँ। मानव भव सार्थक कर लो। -पुष्पराज कोठारी, विशाखापट्टनम मनुष्य यह जानता है कि यह मानव भव दुर्लभ है फिर भी वह भौतिकता की चकाचौंध में पड़कर इसे व्यर्थ बरबाद कर रहा है। हमारे आराध्य परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. समय-समय पर अपने भक्तों को कहा करते हैं कि जो दुर्लभ मानव भव मिला है, धर्माराधना करके उसे सार्थक कर लेना चाहिये। कहा नहीं जा सकता है कि अगले भव में यह तन मिले या नहीं मिले, जो अमूल्य अवसर अभी मिला है, उसका सदुपयोग करने में ही बुद्धिमानी है। ऐसे आचार्य भगवन के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर गुरु भक्तों द्वारा एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन कर उनके पावन चरण कमलों में समर्पित करना स्तुत्य प्रयास है। मैं इस प्रयास की सफलता के लिए हार्दिक शुभकामना करते हुए श्रद्धेय आचार्यश्री के चरणों में सादर वंदन करता हूँ। कृपा है उनकी -घेवरचंद साकलचंदजी, अध्यक्ष, विशखापट्टनम बड़े-बड़े नगरों में एवं सुविधाजनक मार्ग वाले ग्राम-नगरों में हर कोई जाना चाहता है अथवा चाहेगा। देश के दक्षिण भागों में जहां भाषायी समस्या भी रहती है, जाना और अपने भक्तों को दर्शन देकर उपकृत करना, यह उनकी कृपा का ही परिणाम है। श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. एक ऐसे ही विरल संतरत्न है जो दूरस्थ से दूरस्थ क्षेत्रों में भी जाकर अपने भक्तों को दर्शन देते हैं उन्हें धर्माराधना करने के लिये प्रेरणा प्रदान करते हैं। इस कथन की पुष्टि उनके उत्तरी आंध्रप्रदेश के विहार से होती है। पू. आचार्यश्री की आयुष्य एवं संयमकाल को देखते हुए जब हम उनकी सक्रियता देखते हैं तो विस्मित रह जाते हैं। आज भी वे अपने कर्तव्यों के प्रति पूर्णरूप से सजग हैं। ऐसी महान विभूति के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के उपलक्ष्य में प्रकाशित होने वाले अभिनन्दन ग्रन्थ की सफलता के लिए मैं अपनी हार्दिक शुभकामना प्रेषित करता हूँ। प.पू. आचार्यश्री के पावन चरणों में कोटि-कोटि वंदन। बागरा ही नहीं मारवाड़ के गौरव हैं। -पारसमल, संघ अध्यक्ष, विजयनगर परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यदेव हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. का जन्म बागरा में हुआ। उनके वर्तमान के कारण आज पूरा बागरा गांव गौरव का अनुभव कर रहा है। मैं तो यहाँ तक कह सकता हूँ कि उन जैसे हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 64 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ महान विभूति तो समूचे मारवाड़ का गौरव है। आज जब उनके जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के उपलक्ष्य में एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन हो रहा है तो इस गौरव में और भी अभिवृद्धि हो रही है और हृदय प्रफुल्लित है इस समाचार से। __ मैं आपके इस आयोजन की सफलता के लिए हार्दिक शुभकामना प्रेषित करता हूँ। परम पूज्य आचार्यश्री के पावन चरणों में कोटि-कोटि वंदन। साध पूरी हुई -गौतमचंद हस्तीमलजी, तेनाली वैसे तो परम श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वर म.सा. के मोहनखेड़ा तीर्थ की पावन भूमि पर और मारवाड़ के अनेक बार दर्शन करने और आशीर्वाद प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हुआ। मन में यह सोचा था कि प.पू. गुरुदेव कभी अपनी कर्मभूमि की ओर पधारकर कृतार्थ कर दे तो आनन्द असीमित हो जायेगा। इसे मैं अपना सौभाग्य ही मानता हूँ कि अपने दक्षिण भारत प्रवास के दौरान प.पू. आचार्यदेव का पर्दापण हमारे क्षेत्र में भी हुआ। यहाँ उनके दर्शन-वंदन करने से मन की साध पूरी हो गई। आयु के 85-86 वर्ष में भी पू. आचार्य सक्रिय हैं और युवकों को सदैव धर्म के प्रति श्रद्धावान बनाने के लिये प्रयास करते रहते हैं। ऐसे आचार्यश्री के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के उपलक्ष्य में एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन कर उनके चरणों में समर्पित करना एक स्तुत्य प्रयास है। मैं इस अवसर पर पू. आचार्यश्री के पावन चरणों में कोटि-कोटि वंदन करता हूँ। प्रभु भक्ति बनी रहे। -आचार्य नरदेवसागरसूरि पूज्य आचार्य भगवंत श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. से हाल ही में पेदीवरम में स्नेह मिलन हुआ। मिलनसार स्वभाव और सुरीली भक्तिमय स्वर इसी 85 वर्ष की आयु में सम्हाल कर रखा है और आप आज भी सरल पाठ कर सकते हैं आपकी दीक्षा पर्याय 60 वर्ष हो चुकी हे यह सुनकर - जानकर आश्चर्यसा हुआ। आपकी आयु प्रभु भक्ति एवं नवकार मंत्र में बनी रहे ऐसी शासन देव से प्रार्थना करता हूँ और वो स्वीकार करे। प्रस्तोता-गणि चन्द्रकीर्ति सागर सुरभित है कण कण -मेघराज जैन, इंदौर जब किसी उद्यान में सौरभ युक्त एक भी फूल खिला होता है तो उसकी सौरभ से समूचा वातावरण सुरभित हो जाता है। ठीक उसी प्रकार परम पूज्य गुरुदेव श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की बगिया के एक पुष्प की सौरभ से आज देश का कण-कण सुरभित हो रहा है। वह पुष्प हमारे सामने आज पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के रूप में विद्यमान है। उनके सेवा, दया, क्षमा, समता, करुणा, उदारता, सरलता, शांतता, निरभिमानता, सहजता, निस्वार्थता, मृदुता, मितभाषिता, सत्यता, कर्मठता, धैर्य आदि सदगुणों की सौरभ से आज इस पावन धरा को कण-कण सुरभित हो रहा है जिसे उनके अनुयायी ही नहीं अन्य वर्ग के लोग भी महसूस कर रहे हैं। ऐसे सद्गुणों भण्डार पूज्यश्री के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के उपलक्ष्य में प्रकाश्यमान अभिनन्दन ग्रन्थ की सफलता के लिए मैं अपनी हार्दिक शुभकामनाएं प्रेषित करते हुए पूज्यश्री के चरणों में कोटि-कोटि वंदन करता हूँ। हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति 65 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ । आत्मबली गुरुदेव -फतेहलाल कोठारी, रतलाम छियासी वर्ष की आयु में अपना कार्य स्वयं करना, साधना-आराधना करना और हजारों किलोमीटर की पद यात्रा करना कोई सरल कार्य नहीं है। सामान्य व्यक्ति तो ऐसा कर ही नहीं सकता। कोई दृढ़ इच्छा शक्ति वाला व्यक्ति, दृढ़ आत्मबली ही ऐसा कुछ कर पाता है। परम श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य भगवंत श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के जीवन पर दृष्टिपात करें तो हमें यह एक देखकर आश्चर्य होता है कि अपनी इस वय में भी वे आज भी सक्रिय हैं। निश्चित ही पूज्य गुरुदेव दृढ़ आत्मबली हैं। मुझे जब यह विदित हुआ कि उनके दीर्घकालीन संयमी जीवन के परिप्रेक्ष्य में एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन हो रहा है तो मेरे आनन्द की सीमा नहीं रही। निश्चित ही यह अभिनन्दन ग्रन्थ अनुपम होगा। ग्रन्थ के प्रकाशन की सफलता के लिये मैं अपने हृदय की गहराई से शुभकामना अभिव्यक्त करते हुए पूज्य गुरुदेव आचार्य श्रीमदविजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के सुस्वस्थ दीर्घ जीवन की भी कामना करता हूँ और उनके चरण कमलों में कोटि-कोटि वंदन करता हूँ। उनका आशीर्वाद सब पर समान है। -नथमल खूमाजी, बागरा जब सूर्य की किरणें धरती पर पड़ती है तो वे बिना अमीर-गरीब, मूर्ख-विद्वान का भेद किये सब पर समान रूप से पड़ती है। ठीक इसी प्रकार आस्था के केन्द्र परम श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. जब अपने श्रीमुख से मंगल वचन फरमाते हैं तो वे बिना किसी भेदभाव से सबके लिये समान होते हैं। उनके प्रवचन पीयूष की वर्षा भी समान रूप से होती है। उनके श्री चरणों में सबको समान रूप से स्थान प्राप्त है। वहाँ किसी भी प्रकार का भेदभाव परिलक्षित नहीं होता है। अपनी आयु के इस पड़ाव पर भी परम पूज्य आचार्य श्री सक्रिय है। हमारे लिये सुखद एवं संतोष की बात है। परम पूज्य आचार्य श्री की दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर प्रकाशयमान अभिनन्दन ग्रन्थ की सफलता के लिये मैं अन्तर मन से अपनी शुभकामना प्रेषित करते हुए उनके श्री चरणों में कोटि-कोटि वंदन करता हूँ। दक्षिण धरा पर धूम मच गई, -मांगीलाल भंडारी, हैदराबाद प्रातःस्मरणीय, विश्व पूज्य श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के अनुयायी वर्ग का एक बहुत बड़ा भाग दक्षिण भारत में विभिन्न व्यवसायों में कार्यरत है। पूज्य गुरुदेव की परम्परा के साधु-साध्वी वृन्द का जब भी दक्षिण भारत की ओर पर्दापण होता है तो हमारा मन मयूर नाच उठता है। वर्षा से हम दक्षिण भारत के निवासियों की भावना थी कि परम श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. दक्षिण भारत की ओर पधारे ताकि इस ओर धार्मिक कार्य सम्पन्न हो सके और हमें भी उनकी सेवा करने का लाभ मिल सके। हम दक्षिण भारतीय भक्तों की भावभरी विनती को मान देकर पूज्यश्री लगभग तीन वर्ष पूर्व इस ओर पधारे। आपश्री के इस ओर पधारते ही धार्मिक उत्सवों, कार्यक्रमों आदि की धूम मच गई। आपके अनुयायियों में नये उत्साह का संचार हुआ। आनन्द की सरिता प्रवाहित होने लगी। इसी समय हमें यह भी ज्ञात हुआ कि पूज्यश्री के दीर्घ संयमी जीवन को ध्यान में रखते हुए एक अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित कर आपश्री के चरणों में समर्पित करने का कार्य भी चल रहा है। मैं इस अभिनन्दन ग्रन्थ की सफलता के साथ ही पूज्यश्री के सुदीर्घ स्वस्थ जीवन की कामना अन्तरमन से करते हुए पूज्यश्री के चरणों में अपनी वन्दना प्रस्तुत करता हूँ। हेगेन्द ज्योति* हेमेन्द ज्योति 66 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति DILCobraepdates Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ( आज्ञानांधकार को दूर करने वाले - सुमेरमल, संघ अध्यक्ष, आहोर परम पूज्य गुरुभगवंत जन-जन के अज्ञान रूपी अंधकार को दूर कर ज्ञान रूपी प्रकाश प्रदान करने वाले होते हैं वे ही हमारे जीवन निर्माता, मार्गदर्शक एवं संरक्षक होते हैं उनका संरक्षण प्राप्त कर हम निर्मल बन जाते हैं। वे ही हमें भव-सागर पार करने का मार्ग दर्शन करते हैं। उनके बताये मार्ग का हम कितना अनुशरण करते हैं यह हम पर निर्भर करता है यदि उनके बताये मार्ग पर न चलकर अन्य मार्ग अपनाया तो हमारा अपना दोष ही कहलायेगा। गुरु भगवंत तो दिशा निर्देश कर देते हैं यदि हम नहीं सम्हलते हैं, फिर हमारे समान मूर्ख कौन हो सकता है। परम श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हमें सदैव हित-शिक्षायें प्रदान कर हमारा मार्गदर्शन करते रहते हैं। विशेषकर बाल वय में वे सद्गुणों का वपन करना अनिवार्य मानते हैं। उनका यह मार्गदर्शन आज भी सतत् चल रहा है। 1 यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि उनकी दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन हो रहा है। यह अभिनन्दन ग्रन्थ, अभिनन्दन ग्रन्थों की परम्परा में अपना विशिष्ट स्थान बनायेगा, यही हार्दिक शुभकामना है। पूज्यश्री के पावन चरणों में कोटि-कोटि वंदन । अनुपम त्याग - शांतिलाल बजावत, चैन्नई मनुष्य अपनी युवावस्था में लोगों की ओर आकर्षित होता है। वह विश्व की भौतिक चकाचौंध के प्रति समर्पित होकर उसमें आकर डूब जाता है। इस वय में उसे और कुछ भी दिखाई नहीं देता है किंतु हजारों लाखों युवाओं में एक-दो युवा ऐसे भी होते हैं जो भोग को रोग मानकर उसका त्याग कर योग की ओर प्रवृत्त होते हैं तथा अपना अमूल्य मानव भव सार्थक करने में जुट जाते हैं। हमारे हृदय सम्राट परम श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. लाखों युवकों में से एक हैं जो वासंती वय में भोग को ठोकर मानकर योग मार्ग की ओर अग्रणी हुए। यह उनके संयम पालन का ही परिणाम है कि आज इस आयु में भी पूज्यश्री सक्रिय हैं। जब ज्ञात हुआ कि पूज्यश्री के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीकर जयंती के अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन हो रहा है तो मन आल्हादित होकर नाच उठा। मैं शासन देव से पूज्यश्री के सुदीर्घ स्वस्थ जीवन की कामना करता हूँ और उनके श्री चरणों में कोटि-कोटि वंदन प्रेषित करता हूँ। जन्म से नहीं कर्म से महान -पुखराज जोकमलजी वाणीगोता, चैन्नई आदमी कहां जन्म लेता है और कहां कार्य करते हुए अपनी जीवन की गाड़ी को चलाता रहता है? इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता। फिर इस धरा पर असंख्य व्यक्ति जन्म लेते हैं। उनमें से हम कितनों को जानते हैं। लोग उन्हीं लोगों को जानते हैं जिनके कर्म उच्च कोटि के होते हैं। जो जन-जन के लिये जीते हैं। अपने लिये तो सभी जीते हैं किंतु दूसरों के लिये जीना वास्तविक जीना है। ऐसे ही व्यक्तियों के कर्म भी उच्च कोटि के होते हैं फिर भले ही वे किसी भी क्षेत्र में हों। धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, कोई भी क्षेत्र हो, यदि ऐसे क्षेत्रों में जन-जन के कल्याण के लिये व्यक्ति कार्य करता है तो वह अमर हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों को लोग सदा-सदा स्मरण करते रहते हैं। Sain Flication हमे ज्योति ज्योति 67 हेमेन्द्र ज्योति ज्योति www.jainelibrary. Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जब हम परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के जीवन दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि उन्होंने अपना जीवन धर्म और सेवा के लिये समर्पित कर दिया है। वे अपने जीवन की परवाह किये बिना जन-जन को मार्गदर्शन प्रदान करते रहते हैं। धार्मिक कार्य सम्पन्न करवाते रहते हैं। सेवा भावना का उच्च आदर्श प्रस्तुत करते हैं। तब हमारा मस्तक स्वतः उनके चरणों में झुक जाता है। यह प्रसन्नता का विषय है कि ऐसे गुरुदेव के जीवन पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन कर उनके श्री चरणों में समर्पित किये जाने का कार्य चल रहा है। मैं आपकी इस योजना की सफलता की कामना करते हुए पूज्यश्री के पावन चरणों में वन्दन करता हूँ। जप साधना का अनुपम उदाहरण -ओटरमल जेरूपजी, काकीनाड़ा उपाश्रय में जहाँ परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य भगवान श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. अपने धर्म परिवार के साथ बिराजमान रहते हैं, वहाँ दर्शनार्थियों का सतत् आवागमन बना रहता है। वहाँ विराजित अन्य मुनिराज भगवतों से तात्वकि चर्चायें भी करते रहते हैं। मैंने देखा है कि ऐसे भीड़ भरे वातावरण में परम पूज्य आचार्य अपनी जप साधना तल्लीन बने रहते हैं। दर्शनार्थी उनके निकट आते हैं, वन्दन करते हैं। आपश्री उन्हें अपना आशीर्वाद देकर पुनः अपनी जप साधना में लीन हो जाते हैं। उपाश्रय में दर्शनार्थियों की भीड़ और उनकी चर्चाओं से उत्पन्न आवाज और कभी-कभी बालकों की उपस्थिति के शोर पर उनकी जप साधना अप्रभावित रहती है। पूज्यश्री अपनी जप साधना में इतने तल्लीन रहते हैं कि दर्शनार्थी वन्दन कर उनके सम्मुख खड़ा रहता है तो भी आपकी साधना आवाध गति से चलती रहती है। जब कोई दर्शनार्थी पूज्यश्री को पुकारता है तो फिर कहीं उनका ध्यान भंग होता है। जप साधना का ऐसा अनुपम उदाहरण मैंने कहीं भी नहीं देखा है। ऐसे महापुरुष की दीक्षा हीरक जयंती और जन्म अमृत महोत्सव के अवसर पर प्रकाशन अभिनन्दन ग्रन्थ की सफलता के लिये मैं अपनी हार्दिक शुभकामनाएं प्रेषित करते हुए शासन देव से पूज्यश्री के सुदीर्घ स्वस्थ जीवन की कामना करता हूँ। पूज्यश्री के चरणों में कोटि-काटि वंदन। कसौटी पर खरे -विजयकुमार गादिया, उज्जैन जिस प्रकार सोने की शुद्धता प्रमाणिक करने के लिये घिसाई, कटाई, तपाई तथा पिटाई की जाती है, उसी प्रकार व्यक्ति को परखने के लिये उसके ज्ञान, शील, कर्म तपादि गुण देखे जाते हैं। कहा भी गया है यथाचतुर्भिः कनक परिक्षेत निघर्षण, छेदन, तापन ताड़णा। तथा चतुर्भिः पुरुषं परीक्षेत ज्ञानेन शीलेन, गुणेन, कर्म ।। इस परिप्रेक्ष्य में यदि हम परम श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के जीवन पर दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि वे ज्ञान के आगार है, शीलव्रत के पालनहार हैं, तपस्वीरत्न हैं और उनके कर्म जन-जन के लिये अनुकरणीय हैं। इस दृष्टि से पूज्य आचार्य भगवंत इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। उनके सदगुणों के प्रति हमारा मस्तक स्वतः ही उनके चरणों में झुक जाता है। परम श्रद्धेय आचार्य भगवंत के सुदीर्घ संयमी जीवन को देखते हुए उनके श्री चरणों में अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित करना एक स्तुत्य प्रयास है। मैं हृदय की गहराई से आपके इस प्रयास की सफलता के लिये अपनी शुभकामनाएं प्रेषित करते हुए पूज्यश्री के चरणों में कोटि-कोटि वंदन करता हूँ हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्रज्योति 68 हेमेन्द्रज्योति* हेमेन्द्र ज्योति USOM Jainelibrary Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ पद्य विभाग पद आचार्य हेमेन्द्र श्री रूपचन्द म. रजत पार्श्व रूपपारसपरम, चिन्तामणि सुखधाम । काम धेनु सुरविरय वर लोक मान्य अभिराम ।। गणिमणी सम रसधणी, विजयहेमन्त अभिधान । सरल शशिमुनि इन्दसो, त्रीस्तुति रूप निधान ।। रतन प्रकट्यौ वागरे मरूस्थली जालोर । पिता ज्ञानचन्द धिनहुओ, उजम मात चह ओर ।। बाणा, ऋषि, निधि चन्द्रवर, शुभदिन मास घड़ी । पूनम घर आयो पाहुणो, त्रीथुई हीरणड़ी ।। बाल सुलभ लीला मधुर, हरषितव्है मन मोर । पूनम छिब मन मोहती, चलतां ले चित चोर ।। वर चतुर पद परखियो, तेज विलक्षण भाल । भविष भाखियौ रूपसी, करसीजोग कमाल ।। 'हर्षविजय' गुरु भेटियों, प्रकटितइयन प्रकाश । हेमइन्द्रसूरि कियौ पूनम चन्द्र उजास ।। संयम सेवा साधना, त्याग तितिक्षा पंथ । वीतराग मग माघसो, हेमसूरिश्वरसंत' ।। खलक मुलकरो सेवरो, सूरिन्द्रविद्याचन्द्र । चालीसे दिलोकग्याँ, पदआचार्य हेमेन्द्र ।। धरमध्यानअराधना, तप उपधान विराट । 'हेमइन्द्र दरबार में, संघ यात्रा को ठाट ।। - प्रेषक नानेश विरक्त हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 69 हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति। www. melihatia Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन पंथ शुभकामना संदेश -राष्ट्रसंत गणेश मुनि शास्त्री संत तिमिरांध मन में ज्ञान का दीप जलाते हैं । जो भूल जाते सतपथ उन्हें सन्मार्ग पर चलाते हैं । संत क्षमा, शांति और दया की वो त्रिवेणी है - जिसमें सदैव आत्मचिंतन के हिमबिन्दु झिलमिलाते हैं ।। संत अनादिकाल से अभिनंदनीय रहे और रहेंगे । संत की हर क्रिया से जन चेतना के स्रोत अनवरत बहेंगे । भारत को धर्मप्रधान देश संतों ने ही बनाया है बंधु संत जहां भी जायेंगे सम्प संगठन की बात कहेंगे ।। आचार्य श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी एक त्यागी संत है । आत्म साधना में लीन रहने वाले वैरागी संत हैं । जिनका संयमी जीवन सेवा के सुनहरे रंग से रंगा है - वे जन मन को सेवा परायण बनाने में सहभागी संत हैं ।। आचार्य प्रवर बालक मन में सद्संस्कार भरते हैं । कलयुग की कालिमा से बचाने का नेक काम करते हैं । तप के तेज से निखरा हुआ है जिनका तन मन उनका पावन सान्निध्य पाने वालों के पाप स्वतः झड़ते हैं ।। दीक्षा हीरक जयंती पर वंदन शत शत बार है । अंतर की गहराई से अभिनंदन भरा शुभ हार है । स्वस्थ रहें और पायें शतायु, करते रहें जगत कल्याण धर्म परम्परा चमके दमके यही मेरे उदगार हैं ।। हेगेन्द्र ज्योति *हेगेच ज्योति 70 हेगेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ fucation श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ आलोकित हृदय हृदय हो सत्य अहिंसा के उपदेशक विश्वशांति के सुख दाता । त्रिस्तुतिक संघ के गौरव, गुरुगच्छ के त्राता ।। सकल समाज के पूज्य, ऋषभ के भाग्य विधाता । मेरे कवि का कोमल हृदय, तेरे ही गुण गाता ।। तुझको शत, अभिनन्दन करता, अपना शीश नवाता । इस ऋषभ से गुरु तेरा जनम जनम का नाता ।। है मुझको विश्वास गुरुवर, अंधकार मिटा देंगे । इस समाज के जन-जीवन को उपहार नया देंगे ।। हे गुरुदेव ! तेरी और तेरे आदर्शों की जय हो । तेरे अभिनन्दन ग्रन्थ दीपों से, आलोकित हृदय हृदय हो ।। दीपे थारू नाम (तर्ज- टीलडी रे मारा प्रभुजी ने) -मुनि ऋषभचन्द्रविजय 'विद्यार्थी हे.. दीपे थारु नाम हेमेन्द्र सूरि राया. 2 .... जैन शासन केरु नाम थें दीपाव्यु जग मे थे धन्य कीधी काया ओ सूरिजी मारा दीपे थारुं नाम.... ।। 1 ।। मरुधर देषे गांव बागरा सौभागी वीर वाणी अमृत पाव्यु ओ सूरिजी मारा दीपे थारुं नाम ... ।।2।। - मुनि प्रीतेशचन्द्रविजय विरल विभूति थारा गुण जग गावे । जन्म लियो थे महाभागी ओ सूरिजी मारा दीपे थारुं नाम ... ।। 3 ।। नाम गगन मांही गाजे ओ सूरिजी मारा दीपे थारुं नाम... ।।4।। हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 71 वाणी सुणाई घणा कर्मों ने काप्या भक्तो रा काज सुधार्या ओ सूरिजी मारा दीपे थारुं नाम... ।।5।। सरल हृदयरा थे हो गुरु प्यारा प्रीतेष मुनि गुण गावे सूरिजी मारा दीपे थारुं नाम... ।।6।। हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन प्रथा मंगल कामना -साध्वी डॉ. सुशील जैन, 'शशि' त्याग और बलिदान की धरती राजस्थान । ग्राम बागरा धन्य है, जन्में संत महान् ।। ज्ञानचंदजी थे गुणी, श्रावक श्रद्धावान । धर्मपत्नी उजमावती थी ज्ञानी गुणवान ।। पूनमचंद जन्म पा, किया ज्ञान आलोक । तमस मिटा अज्ञान का, हर्षा लोकालोक ।। हर्षविजय के चरण में संयम लिया स्वीकार । हेमेन्द्र विजय के नाम से, जाने सहु संसार ।। अमृत महोत्सव जन्म का, आया है सुखकार । दीक्षा हीरक प्रसंग पर, हर्षित है नर-नार ।। मन की मंगलभावना, देते हैं श्रद्धाभाव । 'सुशील' चिरायु तुम रहो, पूरे सबके चाव ।। कोटि कोटि वंदन करें : -अश्विनी कुमार आलोक निष्ठापूर्वक कर रहे धर्म-ध्यान, उत्थान | जग तेरा कृतज्ञ है ले महापंथ का दान ।।1।। सारे तीर्थों में हुई जन्म भूमि सिरमौर । अनुगूंज आकाश में धन्य धन्य जालोर ।।2।। जहां बागरा ग्राम में जन्मे पूनमचंद । ज्यों पुष्पों की गोद में आलोड़ित मकरंद ।।3।। जिसने भी देखा, कहा यह तो वही महान् । जिसके भाल सुचंद्र से संरक्षित है ज्ञान ।।4।। योगी, ज्ञानी ने कहा भावी जीवन मर्म । यह देगा संसार को मानवता का धर्म ।।5।। इसके सुभग ललाट पर बहुत विलक्षण रेख । नहीं नयन रूक पा रहे मन नहीं थकता देख ।।6 || हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 72 हेमेन्द्र ज्योति * हेगेन्द्र ज्योति is Education internal Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जिन शासन का यह महा होगा साधु सुशील । जिसके पावन योग की जले अमर कंदील | 17 || उजमबाई मातु हुई भावी से भयभीत । पिता ज्ञान श्रीचंद भी मोह सके ना जीत ।। 8 ।। प्राणों से प्रिय पुत्र को दे ममता भरपूर साधु संगति से रहे रखते दोनों दूर ||9|| पर विधि ने जो लिख दिया, वह तो महा यथार्थ । कुरुक्षेत्र से पूर्व तक समझ न पाया पार्थ ।।10।। होनहार होकर रहे, यह विधना की रीत । पूनमचंद ने जोडली साधु धर्म से प्रीत ।।11।। मन बरबस होने लगा दीक्षा को तैयार । परिजन को करना पड़ा इसको अंगीकार ।।12।। ज्योंही पूनमचंद का हुआ मार्ग प्रशस्त । दीवारें अज्ञान की त्योंही हो गई ध्वस्त ||13|| भीनमाल के परमतपी विजय जैन श्री हर्ष । उनको दीक्षित कर किया यश का ही उत्कर्ष ।।14।। हुए तभी से आप हेमेन्द्र विजय मुनिराज । पाकर गौरव में खिला पूरा जैन समाज ।।15।। वंदन अभिनंदन करें कोटि कोटि यशगान । धर्माराधन, त्याग, तप, ज्ञान-यज्ञ उपधान ||16|| कोटि कोटि वंदन करें लेकर श्रद्धाभाव । तेरे आशीर्वाद का होने न पाये अभाव ।।17।। सन्त शिरोमणि विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी धन्य विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी, धन्य आपका जीवन । वासन्ती वय में काया करदी, जैन धर्म को अर्पण || उन्नत भाल हिमालयसा, आंखों में ममता दिखती है । श्वेत केश राशि मुखपे, मानों रजतकणों सी लगती है ।। वाणी से मानो बरसे सुधा, भीगे भक्तों के तन और मन । धन्य विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी, धन्य आपका जीवन ।।1।। भव्य ललाट, तेजस्वी मुख, भक्तों को सुख पहुंचाता है । एक बार जो दर्शन पावे, वो पुनः दर्शन को आता है ।। हे राष्ट्रसंत, हे सन्त शिरोमणि, अनुकरणीय आपका जीवन । -विट्ठलदास, 'निर्मोही, उज्जैन धन्य विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी, धन्य आपका जीवन ।।2।। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 73 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति www.jalnelibrary Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ षष्ठम पट्टधर राजेन्द्रसूरि के, आप सत्य, अहिंसा साधक हैं । आपने जाना माया, मोह तो, भक्ति पथ में बाधक है ।। एकाग्रचित हो आपने, किया धर्म का चिन्तन । धन्य विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी, धन्य आपका जीवन ।।3।। तप, संयम के द्वारा आपने, सन्त शिरोमणि पद पाया है । यों आत्म चिन्तन कर आपने, अमृतफल पाया है ।। हीरक जयन्ती के शुभ अवसर पर, हम करते तव अभिनंदन । अमृत महोत्सव के अवसर पर, स्वीकारों हमारा वन्दन ।। धन्य विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी, धन्य आपका जीवन ।।4।। जैन संस्कृति के उत्थान हेतु, आप सदा यों लगे रहें । इन सेवाभावी राष्ट्रसंत के, निकट सदा, हम बनें रहें ।। करे शतायु प्रभु आपको स्वस्थ रहे तन औ मन । धन्य विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी, धन्य आपका जीवन । वासन्ती वय में काया करदी, जैन धर्म को अर्पण ।।5।। 1 अन्तर के उद्गार (राग : गुणती रे खोले ने बारे काढ़ रे वणजारा, (लोक भजन) -श्री भंवर चौधरी धीर ने वीरों री धरती दीपती दुनिया में, एरत्नों री खाण हे राजस्थान हो जी ..... मरूधर भूमि में थे तो उपना गुरुवरजी, ए दिपायुं दुनिया में अमर नामहो जी धीर ने वीरों री धन्य श्री ज्ञानचन्दजी तात ने गुरुवरजी, ए धन्य हे उजम थारी मात हो जी ........ काया ने माया कारमी जाणी ने गुरुवरजी, ए लीधो रे संयम करो पंथ हो जी ....... धीर ने वीरों री हेमेन्द्रज्योति हेमेन्द्रज्योति 74 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Hamalinelibraroo Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ त्यागी तपस्वी संयम पारखी गुरुवरजी, ए ज्ञान गुणों रा दरिया आप हो जी उपदेशे कई भविजन बोधिया गुरुवरजी, ए जैन शासन रा शणगार हो जी ज्योत जलाई थे तो ज्ञान री गुरुवरजी, ए कीधा हे शासन रा घणा काम हो जी मुक्ति से मारगिया देखाडीयो गुरुवरजी, ए नहीं रे भूले ओ जग उपकार हो जी वंदन स्वीकारो घणुं विनवुं गुरुवरजी, ए संघ सकल सरातज हो जी अन्तकरण री अर्जी सांभलो गुरुवरजी, ए हेमेन्द्र सूरीश्वर गुरु महाराज हो जी अभिनंदन ज्ञानचन्द ने ज्ञान बिखेरा, मां उजमां ने उपजाया । भीनमाल का माल मुकम्मिल हेमेन्द्र विजय कहलाया । मोहनखेडा उद्यान सुचि, अद्भुत षटपद गुंजन । बुहारा पन्थ बागरा भूने, पूनम तब प्रगटाया ।। हीरा-सा जगमगाय, आज्ञा चक्र चिरन्तन । यह हर्ष सहर्ष प्रताप, कि विजय राजेन्द्र पदपदपाया ।। धीर ने वीरों री हेमचन्द्र की अमर ज्योत्सना, जगमग जग में छाये । धीर ने वीरों री गच्छाधिपति गुण गान, समाज का शत शत वंदन ।। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति धीर ने वीरों री त्रिस्तुतिक समाज का चक्र षट विध, वीतराग दर्शाये । -सोहनलाल 'लहरी, खाचरौद कुण्डलनी जागरण, अमर लहरी अभिनंदन || 75 मंद मंद मुस्कान सदा, मंगल वर्षा बन जाये || घर घर मानवता निबजाकर, जैन जगत हर्षाये ।। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ । मंगल अभिनन्दन भगवन्त राव गाजरे निम्बाहेडा धार्मिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक चेतना के प्रकाश पुंज, व्यक्ति, समाज व राष्ट्र के प्रेरक तथा पथ प्रदर्शक जन-जन के उद्धारक, अन्तर्मन के आत्मा के सच्चे शोधक, पीड़ित मानवता की सेवा में जीवन मूल्यों के विकास में सद्वृत्तियों की जागृति में सदा सर्वदा समर्पित साहित्य संस्कृति की अबाध गति मति तथा शक्ति-भक्ति के महान-बलवान मूल्यवान सबल स्तम्भ, सरल, सौम्य एवं वन्दनीय श्रावकों के अभिनन्दनीय, चिन्तक, विचारक, दार्शनिक समता व क्षमता के स्वरूप ज्ञान-भक्ति कर्म में एक रूप परम पूजनीय जैनाचार्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. आप जैसे त्यागी तपस्वी, जीवन मूल्यों के पालक, सेवा - संयम-साधना के उद्घोषक भगवान महावीर के आदर्शों के प्रचारक-प्रसारक परार्थ की ओर उन्मुख, सत्य से साक्षात्कार हेतु उत्सुक, इच्छुक नवपथ के प्रणेता सदैव धन्य है - आपकी साधना, सतत-अटूट आराधना प्रफुल्लित है जिसमें भव्य आत्मा का अमूल्य आलोक ऐसी महान विभूति को कोटिशः अभिनन्दन के बाद उनके पावन चरणों में शत-शत ही नहीं सहस्रबार मन आत्मा से वन्दन तथा सश्रद्धा सादर समर्पित यह भावपूर्ण, भाषारहित मंगल अभिनंदन | पारदर्शी काव्यांजलि (मनहरण - कवित्त) सन्तों ने संसार सारा, सत्य से सजा सँवारा, राजस्थान प्रान्त जहाँ, जालोर जिला है वहीं, ज्ञान का ही दान दिया, विद्वेष मिटाया है पिता ज्ञानचन्द माता उजमबाई के प्यारे, ।। 1 ।। गाँव 'बागरा' में एक, पुण्य जीव आया है । पूत पग पालने दिखे है सारा जग जाने, -छन्दराज पारदर्शी 261, ताम्बावती मार्ग, आयड, उदयपुर - 313001. पूनमचन्द ने खूब लाड़ प्यार पाया है । पारदर्शी विलक्षण, बालक कहाया है । || 2 || देख विराट ललाट, एक ज्ञानी ने बताया, जिन शासन का यह, नायक ही आया है । पिता-माता घबराए साधु-सन्तों से बचाए, हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति जागे पुण्य संस्कार, मान संसार असार, पर होनहार कोई, टाल नहीं पाया है । दृढ़ संकल्प के धनी, पारदर्शी नाना गुणी, 76 करूँ दीक्षा अंगीकार, भाव मन भाया है । आई जितनी बाधाएँ, हो गया सफाया है। हमे ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ducatio श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जागी जब दीक्षा प्यास, ज्ञानी गुरु की तलाश, ।। 3 ।। मिले हर्ष विजयजी, आशीर्वाद पाया है । आषाढ़ शुक्ला द्वितीया, उन्नीसौ निन्याणु साल, भीनमाल नगर में, उत्सव सजाया है । तपस्वीरत्न सरल-स्वभावी मुनि प्रवर, हर्ष विजयजी हस्ते, दीक्षा-दान पाया है । मुनि हेमेन्द्र विजय शुभ नाम दिया गुरु, 'पारदर्शी' तीन थुई, संघ हरषाया है । || 4 || ज्ञान लिया ध्यान किया, तन को तपाय लिया, मुनि हेमेन्द्र विजय, सेवा मन भाई है । ध्यान-साधना महान, श्वेत खादी परिधान, तेजस्वी-तपस्वी गुरु, वाचा - सिद्धि पाई है । बच्चों को दें सुसंस्कार, किया गुरु उपकार, जिन - धर्म की भावना, हृदय जगाई है । 'पारदर्शी उपकारी, जग-जन हितकारी, हेमेन्द्र विजयजी में, समता समाई है । 11 5 11 विश्व पूज्य गुरुदेव, श्री राजेन्द्र सूरीश्वर, तीन स्तुति का सिद्धांत, प्राचीन बताया है । धन- भूपेन्द्र - यतीन्द्र, फिर आए विद्याचन्द्र, तीन थुई समाज का गौरव बढ़ाया है । पंचम थे पट्टधर, सिद्ध क्षेत्र पाया है । फली यों भविष्यवाणी, आचार्य कहाया है । आचार्य श्री विद्याचन्द्र सूरीश्वर गुरुदेव, 'पारदर्शी' छट्टे पाट, बिराजे हेमेन्द्र मुनि, 11 6 11 दस फरवरी सन् उन्नीसौ तिर्यासी वर्ष, आचार्य का उच्च पद, श्रीसंघ प्रदान किया, गांव-नगर-शहर, पैदल ही घूमकर, जीओ और जीने दो का, सन्देश सुनाया है । शुद्ध आचार-विचार, किया अहिंसा प्रचार, 'पारदर्शी' गुरुदेव, सुमार्ग दिखाया है । आहोर में श्रीसंघ ने, उत्सव मनाया है । हेमेन्द्र सूरीश्वरजी, शासन दिपाया है । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 77 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Educatiduram श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ || 7 || भव्य विमा - स्वर - भाल रखें हृदय विशाल, सच्चे समाज शिक्षक, युवा पथ प्रदर्शक, महायशस्वी, तपस्वी, आध्यात्मिक ज्ञानी है । संयम पथ - पथिक, ध्यान-योगी हैं अधिक, मानवता के पुजारी, पारदर्शी उपकारी, 'पारदर्शी का वन्दन करते अभिनन्दन, मृदुल स्वभावी गुरु, मधु मम वाणी है । जिन - धर्म प्रचारक, सम्प की निशानी हैं । हेमेन्द्र सूरीश्वरजी, सन्त स्वाभिमानी है । ।। 8 ।। राष्ट्रसन्त शिरोमणि, हेमेन्द्र सूरीश्वरजी, प्रतिष्ठाएँ उपधान, संघ- यात्राएँ महान्, तप - दीक्षा समारोह, महिमा अपार है । कोकिल-कंठी आवाज, जिन-शासन के ताज, झुकता जैन समाज मानता संसार है । काव्यांजलि है अर्पण कर लें स्वीकार हैं । तीन थुई समाज के, आप कर्णधार है । श्री विजय हेमेन्द्र सूरीश्वर अष्टक सभी संपदा त्याग कर धारा संत-स्वरूप । - बालकवि मनुराजा प्रचडिया मंगलकलश, 394, सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़ - 202001. बाहर-भीतर एक से बने श्रमण अनुरूप 1|1|| देखा आगम- आंख से, जग को भली प्रकार । नश्वरता हरदम दिखी, नैतिकता के द्वार 1121 संयम औ' तप-तेज से किया कर्म का नाश । कर्म निर्जरा से जगा, भीतर परम प्रकाश ||3|| लोभ पाप का बाप है, त्यागा उसे त्वरन्त । कौतुक सभी कषाय के व्यर्थ किये भगवंत 11411 चय संचय को त्याग कर हुये पूर्णतः रिक्त | अंतरंग आकाशमय, किया ध्यान अतिरिक्त 115।। अनेकांत के अर्क हो, हे सूरीश्वर देव । वाक् द्वन्द्व सब मिट गये, वंदे तव अतएव ।।6।। सदाचार के ब्याज से, दिये सभी उपदेश । जियो स्वयं जीवें सभी महावीर सन्देश |7|| गुरुवर पाकर धन्य हैं, जग के लोग तमाम । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 78 सभी वंदना कर रहे, नियमित सुबहू शाम 118 || हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति www.relibrary.org Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन गंथ। शीश नमाता -राजेश जैन, इन्दौर उत्तांग हेमेन्द्र तुमने सबको निभाया, सबको सम्हाला, सबको सवांरा जिन शासन की भक्ति में सबको लगाया । बैरी जो बन गया है, छोटा भाई समझ कर उसको भी निभाया । क्षमा-शीलता तुम्हारी, इतिहास बन गई है, सत्य और प्रेम की मिसाल बन गई है । शीतल हो हिमाद्री की तरह, ऊँचे हों हिमालय से, दुनिया को तुमने प्रेम का संदेश सुनाया । राजेन्द्र की भक्ति में सबको लगाया । धनचन्द्र की सिद्धि को, भूपेन्द्र की शक्ति को, यतीन्द्र की विद्या को, गुरु हेमेन्द्र सूरि तुमने दुनिया को बताया । भक्ति में डूब कर चरणों में तुम्हारे भक्त मैं राजेश शीश अपना नमाता । सच्चो सुख सन्त सेवा (मालवी) -विट्ठलदास निर्मोही, उज्जैन पलक पांवड़ा आज विछइदो, कंकू पगलिया माण्डोजी । हेमेन्द्र सूरिजी यां आवेगा, दरवाजे तोरण बान्दोजी ।। धन्य भाग हे एसा सन्त का, दरसन घर बेठा पावांगा । गंगाजल लइके मेलि राख्यो, इनका पांव पखारांगा ।। फेरि दिजो नोतो गाम में, चरणामृत लेवा आजोजी । पलक पांवड़ा आज विछइदो, कंकू पगलिया माण्डोजी ।।1।। सच्चा सन्त का दरसन दुरलब, कदि कदि नगे आवे है । सन्त तो रमताजोगी भय्या, किका किकाज घरे जावे है । इनके जिमावांगा बड़ा प्रेम से, परसाद लेवा सब आजोजी । पलक पांवड़ा आज विछइदो, कंकू पगलिया माण्डोजी ।।2।। सन्त समागम यां हुइरयो हे, इनके सुणवा आजोजी । धरम करम की वातांकेगा, जीवन में विके तम लाजोजी ।। अणि जीव के बंधन में तम, ओर जादा मत बान्दोजी । पलक पांवड़ा आज विछइदो, कंक पगलिया माण्डोजी ।।3।। हेमेन्दा ज्योति * हेमेन्दा ज्योति 79 हेगेन्च ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति walaman Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ। सांचा सन्त इ जैन धरम का, इनका दरसन कर लिजो । पाप तमारा कटि जायगा, थोड़ो पुन्न कमइ लिजो ।। मनख जमारो फेरनि आवे, धन्य इके तम कर लिजोजी । पलक पांवड़ा आज विछइदो, कंकू पगलिया माण्डोजी ।।4।। सन्त समागम जणे कोनि, जनम यूंज गंवायो है । सन्त की सेवाजणे करि हे, जनम सफल बणायो है ।। घर बेठे गंगाजी आयी, डुबकी तम लगइ लोजी । पलक पांवड़ा आज विछइदो, कंक पगलिया माण्डोजी ।।5।। माया मोह को छोड़ो चक्कर, 'निर्मोही जद बण जाओगा । कइर्यो विट्ठलदास लोगों, सच्चो सुख तम पाओगा ।। सन्त सेवा में रमिगया तो, तरि जायगा परदादोजी ।। पलक पांवड़ा आज विछइदो, कंकू पगलिया माण्डोजी ।। हेमेन्द्रसूरिजी यां आवेगा, दरवाजे तोरण बान्दोजी 16 || हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 80 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द ज्योति Uml Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RE हसत ARA अभिनन्दन ग्रन्थ विभाग आज की पावन क्षण पर, गुरुवर ऐसा दे दो वरदान । जनम जनम के भटके जीव का, हो जाये पूरण कल्याण ]] Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Fre Personel Only www.almeirator Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न मुद्राएँ भांति-भांति की यौवन मुद्राएँ, याद दिलाती हैं। प्रभु भजन मे लगे रहो, हमे ये दर्शाती हैं। cation Intern Personal use rery.ore Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न मुद्राएँ श्री Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहोरनगर में आ.भ. श्री त्रिस्तुतिक सकल संघ द्वारा गणधीश श्री हेमेन्द्रविजयजी म.सा. को वि.सं. १९८४ में माघ सुद ९ को आचार्यपद पर पदासीन किया गया । आचार्यपद की क्रिया करते हुए मुनिराज श्री हेमेन्द्रविजयजी म.सा. आहोर में आचार्यपद पाया । सकल जैन संघ तब हर्षाया ।। SHES TUES O O Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यपदवी रंगविजयजी एवं श्री जयानंदविजयजी ग्रन्थनायक पू. मुनि श्री हेमेन्द्रविजयजी के साथ... दुर्लभ चित्र आचार्यपद पश्वात् आचार्यपद समारोह हेतु नगरप्रवेश का दृश्य आचार्यपद प्रदान समारोह में मुनि मंण्डल चर्चारत मुनि श्री जयप्रभविजयजी एवं मुनि श्री लक्ष्मणविजयजी श्री नरेन्द्रविजयजी म.सा. आचार्यपद का महत्व बताते हुए Jan Egnation remational For Pre & Personal use only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ain Education International आचार्यपद के पश्चात प्रसन्नचित्त नूतन आचार्यश्री (अन्धनायक) सिंहगर्जना आज से हेमेन्द्रसूरिजी के नाम जाने जायेंगे श्री विद्याचंद्रसूरिजी के वरद हस्तों से वासक्षेप (सं. १९८४) चिन्तनमग्गन 1000 For Private & Personal Lise Only ww वर्तमानाचार्यदेव श्री हेमेन्द्रसूरिजी म.सा., आचार्यदेव श्रीमद् लब्धिचन्द्रसूरिजी म.सा. एवं समाज का प्रबुद्धवर्ग गौड़ी पार्श्वनाथ मंदिर में वर्तमानाचार्य श्री हेमेन्द्रसूरिजी म.सा. एवं श्री लक्ष्मणविजयजी म.सा. श्री सयभचंद्रविजयजी म.सा. Q Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरिमंत्रपट वोहराते हुए श्री मफतलालजी शेठ-भीनमाल (सं. १९८४) नूतन आचार्य श्री हेमेन्द्रसूरिजी म.सा., श्री लक्ष्मणविजयजी म.सा. एव शेठ श्री किशोरजी वर्धन प्रसन्न मुद्रा में पू. वर्तमानाचार्य आचार्यदेवश्री को काम्बली ओढाते कंकु चौपड़ा परिवार के सदस्यगण वर्धमान पट वोहराते हुए श्री जाँवतराजजी शेठ-भीनमाल आचार्यपद के पश्चात वासक्षेप करते भक्तगण 學校 आचार्यपद एवं गच्छाधिपतिपद की काम्बली ओढाते श्री किशोरचंदजी एम. वर्धन एवं शांतिदेवी Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न मदार पूज्यश्री हैं एक आपके रुप अनेक हर चहरे में राज छुपाए हुवे बैठे देखो गुरुवर आज।। मुद्रा हैं जिनकी मनोहारी वो सुधारे भक्तों के का।।। stimmtema Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न मुद्रा पूज्यश्री हैं एक आपके रुप अनेक GUR cation International Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न मुद्राएँ पूज्यश्री हैं एक आपके रुप अनेक For Private Personal Use Only www.jainelibrary.dg Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यश्री हैं एक आपके रुप अनेक ८ विभिन्न मुद्राएँ PREVCHARIOR MASTARAKH ANALENTINENNEELAMIRRIVENTIONARI TERATOP Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न मुद्राएँ पूज्य श्री हैं एक आपके रूप अनेक cation International पाट गादी के स्थापनाचार्य पडिलेहन Hy For Private & Persona श्री यतिन्द्रसूरि शताब्दि ग्रंथ का अवलोकन करते हुए लेखनकार्य में व्यस्त Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न मुद्राएँ पूज्यश्री हैं एक आपके रुप अनेक । Jain Education international Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न मुद्राएँ पूज्य श्री हैं एक आपके रूप अनेक P Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न मुद्राए पूज्यश्री हैं एक आपके रुप अनेक Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GURUSAGE श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय गुर्वावली । पूज्यपाद व्याख्यानवाचस्पति, लक्ष्मणीतीर्थोद्धारक आचार्यवर्य श्रीयतीन्द्र सूरीश्वरान्तेवासि स्व. मुनि देवेन्द्रविजय 'साहित्यप्रेमी' शासनपति श्री महावीरस्वामी 1. श्री सुधर्मस्वामीजी 2. श्री जम्बूस्वामीजी 3. श्रीप्रभवस्वामीजी 4. श्रीशय्यंभवसूरिजी 5. श्रीयशोभद्रसूरिजी 6. श्रीसंभूतिविजयजी, श्रीभद्रबाहुस्वामीजी 7. श्रीस्थूलिभद्रसूरिजी 8. श्रीआर्यमहागिरिजी, श्रीआर्यसुहस्तिसूरिजी 9. श्रीसुस्थितसूरिजी, श्रीसुप्रतिबद्धसूरिजी 10. श्रीइन्द्रदिन्नसूरिजी 11. श्रीदिन्नसूरिजी 12. श्रीसिंहगिरिसूरिजी 13. श्रीवज्रस्वामीजी 14. वज्रसेनसूरिजी 15. श्रीचन्द्रसूरिजी 16. श्रीसामंतभद्रसूरिजी 17. श्रीवृद्धदेवसूरिजी 18. श्रीप्रद्योतनसूरिजी 19. श्रीमानदेवसूरिजी 20. श्रीमानतुंगसूरिजी 21. श्रीवीरसूरिजी 22. श्रीजयदेवसूरिजी 23. श्रीदेवानन्दसूरिजी 24. श्रीविक्रमसूरिजी 25. श्रीनरसिंहसूरिजी 26. श्रीसमुद्रसूरिजी 27. श्रीमानदेवसूरिजी 28. श्रीविबुधप्रभसूरिजी 29. श्रीजयानन्दसूरिजी 30. श्रीरविप्रभसूरिजी 31. श्रीयशोदेवसूरिजी 32. श्रीप्रद्युम्नसूरिजी 33. श्रीमानदेवसूरिजी 34. श्रीविमलचन्द्रसूरिजी 35. श्रीउद्योतनसूरिजी 36. श्रीसर्वदेवसूरिजी 37. श्रीदेवसूरिजी 38. श्रीसर्वदेवसूरिजी 39. श्रीयशोभद्रसूरिजी, श्रीनेमिचन्द्रसूरिजी 40 श्रीमुनिचन्द्रसूरिजी 41. श्री अजितदेवसूरिजी 42. श्रीविजयसिंहसूरिजी 43. श्रीसोमप्रभसूरिजी श्रीमणिरत्नसूरिजी 44. श्री जगचन्द्रसूरिजी 45. श्रीदेवेन्द्रसूरिजी, श्रीविद्यानन्दसूरिजी 46. श्रीधर्मघोषसूरिजी 47. श्रीसोमप्रभसूरिजी 48. श्रीसोमतिलकसूरिजी 49. श्रीदेवसुन्दरसूरिजी 50. श्रीसोमसुन्दरसूरिजी 51. श्रीमुनिसुन्दरसूरिजी 52. रत्नशेखरसूरिजी 53. श्रीलक्ष्मीसागरसूरिजी 54. श्रीसुमतिसाधुसूरिजी 55. श्रीहेमविमलसूरिजी 56. श्रीआनन्दविमलसूरिजी 57. श्रीविजयदानसूरिजी 58. श्रीहीरविजयसूरिजी 59. श्रीविजयसेनसूरि 60. श्रीविजयदेवसूरिजी 61. श्रीविजयसिंहसूरिजी 62. श्रीविजयप्रभुसूरिजी । 63. श्री विजयरत्नसूरिजी :- जन्म संवत् 1712 शीकर में, पिता ओशवंशीय श्री सौभाग्यचंदजी, माता शृंगारबाई, जन्म नाम रत्नचन्द्रजी । आपका अति रूपवती सूरिबाई नामक श्रेष्ठीकन्या के साथ हुआ । सगपन को छोड़ कर सोलह वर्ष की किशोर वय में श्रीविजयप्रभसूरिजी महाराज के पास दीक्षा ग्रहण की थी । स्वगुरु के पास विद्याभ्यास कर वि. संवत् 1733 ज्येष्ठ कृ. 6 के रोज नागौर (मारवाड़) में आचार्यपद प्राप्त किया । संवत् 1770 को जोधपुर में चातुर्मास में रहकर महाराजा अजितसिंहजी को उपदेश दे कर मेड़ता में मुसलमानों ने उपाश्रय की जो मस्जिद बना डाली थी, उसे तुड़वा कर फिर से उसको उपाश्रय का रूप दिया। आनन्दविमलसूरि आदि आचार्यों के प्रसादीकृत 'मासकल्पादि मर्यादा बोलपट्टक' सर्वत्र प्रसिद्ध कर गच्छ के साधु-साध्वियों को उत्कृष्ट मर्यादा में चलाए और जो शिथिल थे उनको गच्छ बाहर किये । चंद, सागर, और कुशल आदि शाखाओं के कितने शिथिलाचारियों ने आपका सामना भी किया, किन्तु उनकी परवाह नहीं करते हुये । गच्छमर्यादा प्रवर्तन में आप कटिबद्ध रहे । किसी भोजक-कवि ने कहा है कि | 1 फिट् चन्दा फिट् सागरा, फिट् कुराला नै लेड़ां | रत्नसूरि धडूकतां, भाग गई सब भेड़ां ||1|| DOSTOMODE आपके 33 हस्तदीक्षित शिष्य थे, उनमें से वृद्धक्षमाविजयजी सदाचारप्रिय, विनीत, सिद्धान्तपाठी, गच्छमर्यादापालक और सहनशीलतादि गुणों के प्रधानधारक थे । और लघुक्षमाविजयजी भी गच्छमर्यादा के दृढ़पालक और अति लोकवल्लभ थे। आप वृद्धक्षमाविजयजी को आचार्यपदारूढ करके संवत् 1773 आश्विन कृष्णा द्वितीया के दिन उदयपुर (मेवाड़) में स्वर्गवासी हुए । 64. श्रीवृक्षमासूरिजी : जन्म संवत् 1750 खेतड़ी, पिता ओशवंशीय केशरीमलजी माता लक्ष्मीबाई, जन्म नाम क्षेम (खेम) चंद | आपने श्रीरत्नसूरि महाराज के पास 11 वर्ष की वय में दीक्षा ली थी । संवत् 1772 में माघ शु. पांचम के दिन आपको हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 1 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ श्रीविजयरत्नसूरिजी महाराजने सूरिपद दिया जिसका महोत्सव शा. नानजी भाणजीने बड़े समारोह से किया और साहमती श्राविकाने एक सहस्र स्वर्ण मुद्राओं (मोहरों) से आपकी चरणपूजा की थी । एक समय आप बनाश नदी उतर रहे थे, तब चित्रावेल आपके चरणों में लिपटा गई थी, परन्तु आपने उसे लेने की अंशमात्र भी अभिलाषा नहीं की। गच्छभार निभाते हुए आपने जीवन पर्यन्त ही श्रीवर्द्धमानतप किया था । आपके अठारह शिष्य थे उनमें से मुख्य शिष्य श्री देवेन्द्रविजयजी को सूरिपदारूढ कर निर्दोष चरित्र पालन करते हुए आप संवत् 1827 में राजस्थान के प्रसिद्ध नगर बीकानेर में स्वर्गवासी हुए। 65. श्रीविजयदेवेन्द्रसूरिजी : जन्म संवत् 1785 रामगढ में । पिता ओशवंशीय पनराजजी, माता मानीबाई, संसाराी नाम दौलतराज । संवत् 1827 बीकानेर में आपको सूरिपद मिला, आचार्यपदारूढ होते ही आपने जीवनपर्यन्त आयंबिल तप करने का नियम ग्रहण किया था । आपके 1 क्षमाविजय 2 खान्ति विजय 3. हेमविजय और 4. कल्याणविजय ये चार अन्तेवासी थे। इनमें से क्षमाविजय को शिथिल और अविनीत जानकर आपने गच्छ बाहर कर दिया । खान्तिविजयजी सिद्धान्त-पारगामी, प्रकृति के भद्र, परन्तु कुछ लोभी प्रकृति के थे । कोई भावुक सोने आदि के पूठे, ठवणियाँ देता तो उसे संग्रह कर लिया करते थे । उस समय हेमविजयजी कहा करते थे कि यह परिग्रह आगे शिष्यों के लिये दुःखकर होगा । अतः इसे संग्रह करना ठीक नहीं है । खान्तिविजयजी यों कहकर चुप लगाते थे कि यह परिग्रह हम अपने लिये नहीं, पर ज्ञान के लिये संग्रह करते हैं । यों करते करते खान्तिविजयजी का स्वर्गवास हो गया, तब शिष्यों में पूठे और ठवणियों के लिये परस्पर कलह होने लगा । हेमविजयजी बोले कि मैंने तो पहले ही कहा था कि यह परिग्रह आगे दुःखदायी होगा, परन्तु उस समय मेरे कथन पर किसीने ध्यान नहीं दिया । अस्तु । हेमविजयजी ने संवत् 1883 में क्रियोद्धार किया और निर्दोषवृति से रहने लगे । खान्तिविजयजी के लालविजय, दलपतविजय आदि शिष्य हुए। हेमविजयजी व्याकरण, न्याय और कार्मिक ग्रन्थों के अद्वितीय विद्वान थे । उदयपुर के महाराणाने आपको 'कार्मणसरस्वती का पद दिया था । एक समय देवेन्द्रसूरिजी ध्यान में विराजित थे । उन्होंने ध्यान में आगामी वर्ष दुष्काल पड़ने के चिह्न देखकर शिष्यों से कहा कि ओगणसित्तर में (1869) दुष्काल पड़ेगा । यह बात पाली-निवासी शान्तिदास सेठने सुनली और गुरु वचन पर विश्वास रख कर उसने धान्य संग्रह किया । वह खान्तिविजयादि अनेक साधुओं की आहारादि से बढ़कर भक्ति करता था परन्तु श्रीदेवेन्द्रसूरिजी महाराज तो उसके घर का आहारादि नहीं लेकर गांव में जो कुछ प्राप्त होता उससे ही सन्तुष्ट रहते थे । दुष्काल व्यतीत होने के बाद कल्याणविजयजी को आचार्यपद देकर आप संवत 1870 में जोधपुर (मारवाड़ - राजस्थान) में स्वर्गवासी हुए। 66. श्रीविजयजकल्याणसूरिजी : जन्म संवत् 1824 बीजापुर में । पिता का नाम देसलजी, माता धूलीबाई, संसारी नाम कलजी । आप ज्योतिष और गणित शास्त्र के श्रेष्ठ विद्वान् थे । आपने अनेक ग्राम-नगरों में विहार कर उपदेश बल पर कितने ही प्रतिमा विरोधियों का उद्धार किया तथा मेवाड़ और मारवाड़ में अनेक स्थानों पर मन्दिरों की होती हुई आशातनाएं दूर करवाई। संवत् 1893 में श्रीप्रमोदविजयजी को आचार्यपद दे कर आप आहोर में स्वर्गवासी हुए । 67. श्रीविजयप्रमोदसूरिजी : आपका जन्म गांव डबोक (मेवाड़) में गौडब्राह्मण परमानन्दजी की धर्मपत्नी पार्वती से विक्रम संवत् 1850 चैत्र शु. प्रतिपदा को हुआ था । आपका संसारी नाम प्रमोदचन्द्र था । आपने संवत् 1863 वैशाख शु. 3 के दिन दीक्षा ली थी । आपको संवत् 1893 ज्येष्ठ शु. 5 को सूरिपद मिला था । आप शास्त्रलेखनकला के प्रेमी थे और उसमें बड़े दक्ष थे । आपका समय शास्त्र लेखन में अधिक जाता था । यह बात आपके स्वहस्तोल्लिखित अनेक उपलब्ध ग्रन्थों से ज्ञात होती है । समय दोष से आप में कुछ शिथिलता आ गई थी, परन्तु दोनों समय प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन आदि हेमेन्द ज्योति हेमेन्द ज्योति 21 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द ज्योति Enadhe Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ क्रिया में आप बड़े कट्टर थे । वृद्धावस्था के कारण आपको आहोर में ही स्थायी रहना पड़ा था। आपके रत्नविजयजी और ऋद्धिविजयजी ये दो शिष्य थे । वि. संवतृ 1924 वैशाख शु. 5 के दिन श्रीसंघाग्रह से महामहोत्सवपूर्वक आपने श्रीरत्नविजयजी को आचार्यपदारूढ़ किया था और श्रीविजयराजेन्द्रसूरिजी नाम से उनको प्रसिद्ध किया । संवत् 1934 चैत्र कृ. अमावस को आहोर में आपका स्वर्गवास हुआ । 68. श्री विजय राजेन्द्रसूरिजी : : आपका जन्म वि. संवत् 1883 पौष शु. 7 गुरुवार को अछनेरा रेलवे स्टेशन से 17 मील दूर और आगरे के किले से 34 मील दूर पश्चिम में राजपूताना भरतपुर नगर में ओशवंशीय पारखगोत्री शेठ श्रीऋषभदासजी की धर्मपत्नी केशरबाई से हुआ था । आपका जन्म नाम रत्नराज था । बड़े भाई मानकचन्दजी व छोटी बहिन प्रेमाबाई थी । उदयपुर (मेवाड़) में श्रीप्रमोदसूरिजी के उपदेश से संवत् 1903 वैशाख शु. 5 शुक्रवार को श्री हेमविजयजी के पास आपने दीक्षा ली और नाम मुनि श्रीरत्नविजयजी रखा गया । खरतरगच्छीय यति श्रीसागरचन्द्रजी के पास व्याकरण, न्याय, काव्यादि ग्रन्थों का अभ्यास और तपागच्छीय श्रीदेवेन्द्र सूरिजी के पास रहकर जैनागमों का विधिपूर्वक अध्ययन किया । संवत् 1909 वैशाख शुक्ला 3 के दिन उदयपुर (मेवाड़) में श्री हेमविजयजी ने आपको बृहद्दीक्षा और गणी (पन्यास) पद दिया । वि.सं. 1924 वैशाख शुक्ला 5 बुधवार को श्री प्रमोदसूरिजी ने आपको आचार्यपदवी दी, जिसका महोत्सव आहोर (मारवाड़) के ठाकुर श्रीयशवन्तसिंहजीने बड़े समारोह से किया और आपका नाम 'श्रीविजयराजेन्द्रसूरिजी रखा गया। वि.सं. 1925 आषाढ़ कृ. 10 बुधवार के दिन जावरा (मालवा) में आपने श्री पूज्य श्रीधरणेन्द्रसूरि के सिद्धकुशल और मोतीविजय इन दोनों यतियों के द्वारा श्रीपूज्य सुधार सम्बन्धी नव कलमें स्वीकार करवा कर और उन पर उनके हस्ताक्षर करवा कर शास्त्रीय विधि विधानपूर्वक महामहोत्सव सह क्रियोद्धार किया । इसी समय आपके पास भींडर (मेवाड़) के यति प्रमोदेरुचिजी और धानेरा (पालनपुर) के यति लक्ष्मीविजयजी के शिष्य धनविजयजी ने पंचमहाव्रत रूप दीक्षोपसंपद् ग्रहण की । सं. 1927 के कुकसी के चातुर्मास में श्रीसंघ के आग्रह से आपने व्याख्यान में 45 आगम सार्थ बांचे थे। क्रियोद्धार के पश्चात् आपके करकमलों से 22 अंजनशलाका और अनेक प्रतिष्ठाएं सम्पन्न हुई थी । आपने चिरोला जैसे महाभंयकर 250 वर्ष पुराने जाति कलह को भी मिटाया था । आपने लोकोपकारार्थ प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी और गुजराती भाषा में श्रीअभिधान राजेन्द्रकोश, पाइयसदबुहिकोश, प्राकृतव्याकरण व्याकृति टीका (पद्य). श्रीकल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी टीका, श्री कल्याणमन्दिरस्तोत्र प्रक्रिया टीका, सकलैश्वर्य स्तोत्र, शब्दकौमुदी (पद्य) धातुपाठतरंग और सिद्धान्तप्रकाश आदि 61 ग्रन्थों की रचना की । आपके जीवन के अनेक कार्य हैं, जिनका विशेष परिचय 'श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर जीवनप्रभा' से जानना चाहिये । आपके हस्तदीक्षित श्रीधनचन्द्रसूरिजी, प्रमोदरुचिजी और मोहनविजयजी आदि 19 शिष्य और श्री अमरश्रीजी, विद्याश्रीजी, प्रेमश्रीजी, मानश्रीजी आदि साध्वियाँ हैं । झाबुवा और चिरोला नरेश तथा सियाणा (राजस्थान) के ठाकुर आपके पूर्ण भक्त थे और आपके फोटू के नितप्रति दर्शन-पूजन करते थे । संवत् 1963 पौष शु. 6 गुरुवार की रात्रि को आठ बजे राजगढ़ (मालवा) में अर्हम् अर्हम् का उच्चारण करते हुए आपका स्वर्गवास हुआ । आपके स्वर्गवास के समय धार और झाबुवा के नरेश भी अन्तिम दर्शन को आए थे । स्वर्गवासोत्सव में राजगढ के जैन त्रिस्तुतिकसंघने तथा आगन्तुक संघने नव हजार की निछरावल की थी । पौष शुक्ला 7 शुक्रवार को राजगढ से एक मील दूर आपके ही दिव्योपदेश से संस्थापित जैन श्वे. तीर्थ श्री मोहनखेड़ा में जहां आपके पार्थिव शरीर का अग्नि संस्कार किया गया था, वहीं पर एक अति रमणीय संगमरमर का समाधि-मन्दिर निर्माण कराने का निश्चय किया गया, जिसमें आपकी रम्य मनोहर प्रतिकृति (प्रतिमा) आज विराजित है । अन्त्येष्ठि क्रिया के दिन ही से प्रतिवर्ष आपकी जयंती मनाई जाती है । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 3 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति www.jainelibrary. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ * गुरुदेव की योगसिद्धि __-मुनिराज श्री हर्षविजयजी अध्यात्मवाद और योगिसिद्धि ये भारतीय धर्मों की मूल वस्तु कही जाय तो किसी तरह की अतिशयोक्ति नहीं होगी। चिरकाल से ही इनको धर्मक्षेत्र में प्रधानता दी गई है । सम्पूर्ण योगसिद्ध व्यक्ति ही अपनी ज्ञानात्मा द्वारा चराचर विश्व के पदार्थों को जान सकता है । इसलिये इस स्तर के ज्ञान को ही पूर्णतया ज्ञान कहा गया है, इससे पहिले की अवस्थाएं अपूर्ण ही कही जाती है । योग शब्द 'युजिर योगे इस धातु से निष्पन्न होता है । योग शब्द की व्याख्याएं अनेक प्रकार से अपनी अपनी मान्यतानुसार की गई है । परन्तु फिर भी सभी की मान्यता में योग शब्द का मूलस्वरूप एकसा ही प्राप्त होता है। 'चित्तवृत्तिनिरोधो योगः' इससे यही मतलब निकलता है कि -मानसिक अशुभ प्रवृत्तियों का निग्रह करना ही योग है । मानसिक कहने मात्र से स्वयं ही वाचिक और कायिक अशुभ प्रवृत्तियों का निग्रह करना सिद्ध हो जाता है । जैनदर्शन में योग का लक्षण यही बतलाया है "कायवाङ्मनः कर्मयोगः" तत्त्वार्थसूत्र । आत्मा की मानसिक, वाचिक, कायिक क्रिया के द्वारा कर्मों का आत्मा के साथ संबंध होना योग कहा गया है । फिर चाहे योगों में शुभ या अशुभ भाव हों, अशुभ योग त्याज्य हैं जब कि शुभ योग जीवन में उपादेय माने गये हैं। योगसिद्ध व्यक्ति अपनी यौगिक क्रिया के द्वारा परमात्मपद तक पहुंच सकता है । इस मान्यता में किसी तरह का संशय नहीं है । ज्ञानात्मा, परमात्मा आदि जो श्रेणियां दिखाई देती है, वे योग पर ही निर्भर हैं । योगसिद्ध व्यक्ति के विषय में या उनके जीवन में कई अनेक प्रकार की असंभव-आश्चर्यकारी घटनाएं सुनने में आती हैं । वे योगसिद्धजन्य ही रही हुई हैं । फिर वे चाहे थोड़े या अधिक विस्मय से परिपूर्ण हों । योगीराज प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्र सुरीश्वरजी महाराज ने अपने विशुद्ध साधुजीवन में उत्कृष्ट संयम के पालन से जो अद्भुत योगसिद्धियां प्राप्त की है उन्हीं में से केवल एक संबंधित एवं आश्चर्यकारी घटना यहां पर बतलाना आवश्यक मानी गई है । योगसिद्ध व्यक्ति योग के प्रभाव से अपने योगों में इतना तन्मय हो जात है कि भूत, भविष्य एवं वर्तमानकालीन सभी बातों को अपने ज्ञान द्वारा जानने में समर्थ बन सकता है । गुरुदेवने अपने योगबल के द्वारा कई असंभव और बड़े-बड़े भारी कार्यों को भी सहज में कर दिखाएं हैं । ___1. मालावा प्रान्त में बड़नगर और खाचरौद के बीच में चिरोला नामक एक गांव आया हुआ है । कई वर्षों से चिरोलवाले ओसवालों का मालवा प्रान्तीय ओसवाल आदि सभी समाजों ने बहिष्कार कर दिया था । इसका मुख्य कारण यह था कि पिता और माता ने अपनी एक ही कन्या की शादी करने का निर्णय, अलग अलग रतलाम और सीतामऊ वाले दो अलग अलग वरों के साथ किया । ठीक समय पर दोनों जगह से वर बड़ी धूमधाम के साथ अपनी-अपनी बरात सजाकर लग्न के लिये आये । इस तरह से एक ही कन्या के लिये दो वर और उनकी बरातों को आई हुई देखकर चिरोला और उसके समीपवर्ती पंचो ने यही निश्चय किया कि - माता ने लड़की के विवाह का जो निश्चय सीमातऊवाले के साथ किया है वही हो और अन्त में वही होकर रहा । इस निर्णय से रतलामवालों को अपना बड़ा भारी अपमान जान पड़ा और उन्होंने मालवा प्रान्त की समाज को एकत्र कर चिरोलावालों का सम्पूर्ण बहिष्कार किया । यह मामला इतनी उग्रता पर बढ़ने लगा कि चिरोलावाले और उनके कुछ पक्षीय लोग सभी तरह से हताश होने लगे । विवाहादि संबन्ध तो दूर रहे परन्तु इनके हाथ का पानी पीना भी बड़ा भारी अपराध माना जाने लगा । सारे प्रान्त में अपने इस तिरस्कार, जाति बाहर से अन्त में चिरोलावालों को सभी तरह से बड़ी भारी परेशानी होने लगी । अपने अपराध की माफी और दण्ड आदि देकर जातीय एवं पारस्परिक संबन्ध के स्थापनार्थ उन्होंने कई हेमेन्या ज्योति हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति jainelibre Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ। बार समाज से प्रार्थना की परन्तु उसका परिणाम शून्य ही आया और कोई भी इन को अपनाने के लिये किसी तरह से भी तैयार नहीं हुये । इस विषय में बड़े बड़े गृहस्थ, राजकीय कर्मचारी, संत-साधु आदि ने अपना-अपना पूरा परिश्रम किया, परन्तु फिर भी इस कार्य में उन्हें कुछ भी सफलता नहीं मिली । इस तरह से यह विषय लगभग 250 वर्ष से चल रहा था और किसी तरह से भी कोई आशा दृष्टिगोचर नहीं हो रही थी । पूज्य स्व. गुरुदेव समर्थ प्रभावक योगीराज प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज उस समय जैन शासन में एक महान जैनाचार्य थे । खाचरौद श्रीसंघ के अत्याग्रह से अपने शिष्य परिवार के साथ आप यहां चातुर्मास हेतु विराजमान थे । उस समय आपका अलौकिक प्रभाव और तप-त्याग एवं अद्भुत सर्वत्र विश्रुत हो चुकी थी । 'चिरोलावालों ने गुरुदेव की सेवा में उपस्थित होकर व्याख्यान के बाद विनम्र दुःख भरी प्रार्थना की कि हे गुरुदेव! आप जैसे समर्थ धर्माचार्य एवं योगसिद्ध आदेय वचनी के विराजमान होते हुए भी यदि हमारा पुनरुद्धार नहीं हुआ तो फिर हमारा भविष्य किसी तरह से सुधरने वाला नहीं है । आपही एक हमारा उद्धार करने में समर्थ हैं । आपके आदेय और योगसिद्ध वचनों को कोई भी कदापि अस्वीकार नहीं करेगा । गुरुदेवने कहा कि आप लोग किसी तरह से हताश न हों और आपका कार्य शीघ्र ही संपन्न होगा । गुरुदेव के इस कथन में शासनप्रेम और धर्मजागृति भरी भावना को देखकर उन्हें बड़ा भारी संतोष हुआ और उन्होंने कहा कि इस विषय में जो मान, अपमान, दण्ड आदि जैसा भी आपकी आज्ञा से मिलेगा हम सहर्ष शिरोधार्य करेंगे । गुरुदेव की योगशक्ति और तप-त्यागमय जीवन का समाज पर इतना प्रबल प्रभाव था कि जो व्यक्ति किसी तरह भी लाख रुपये के दण्ड से और समाज पंचों के जूते शिर पर उठाने पर भी माफी देने के लिये कदापि तैयार नहीं थे और इस कार्य को जो असंभव ही मानते थे वे ही व्यक्ति गुरुदेव के प्रभावशाली वचनों और धर्ममर्म की व्याख्या से इतने आकर्षित हुए कि उन्हें आखिर में अपना निर्णय बदलना ही पड़ा । फलतः अन्य में बिना किसी दण्ड के प्रेम एवं स्वधर्मी के नाते सारी मालवा प्रान्तीय समाजने उनका पुनरुद्धार करके उनको पूर्ववत् अपने में मिला लिया। यह गुरुदेव के आदेय वचन और उनकी अलौकिक तप त्यागमय आदर्श जीवन का ही उदाहरण है । इसी तरह से अन्य भी कई प्रकार की आश्चर्यकारी घटनाएँ आपके जीवन से संबन्धित हैं । कितने ही राजा, महाराजा बड़े-बड़े विद्वान्, योगी, सन्यासी, साधु और जैन-जैनेतर धर्माचार्यों ने आपकी सात्विक योगसिद्धि, सत्यनिष्ठता, निःस्पृहता एवं कठिनतम साध्वाचार पालन की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है । गुरुदेवने अपने जीवन में जिस क्रान्ति और सत्य वस्तु के प्रचार से समाज में आनेवाली शिथिलता को दूर की है वह इतिहास के पृष्ठों पर और जैन समाज में चिरकाल के लिये स्मरणीय बनी रहेगी । आपकी अटल धैर्यशालिनी शान्त मुद्रा, लुभावनी मनमोहिनी आकृति प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित कर लेती थी । कई योग्य व्यक्ति गुरुदेव के भक्त या शिष्य कहलाने में अपना बड़ा भारी महत्व मानते थे और उनकी भक्ति कर जीवन को सफल हुआ समझते थे । इस अर्द्धशताब्दी के नायक आप है जो विक्रमीय बीसवीं शताब्दी के महान पुरुषों में से एक हैं । जैन और जैनेतर समाज में आपके त्याग, तपोबल और योगशक्ति की कई एक कथायें प्रचलित है । आपकी विद्वता और समयज्ञता के विषय में तो लिखना ही क्या है । आपकी अनेक प्रकार की विशेषताओं को अन्तकरण में स्मरण कर भक्तिभरी श्रद्धा से शिर चरणों में सहसा नत हो जाता है । विद्वता के परिचयार्थ तो आप का रचित साहित्य ही पर्याप्त है जिसमें श्री अभिधान राजेन्द्र कोश सर्वोपरि एक प्राकृत महाकोश है । "स जीवति यशो यस्य' इस सूक्ति के अनुसार गुरुदेव का निर्मल यश सदा के लिये अमर बन चुका है । 'त्रिस्तुतिः' का पुनरूद्धार करना आपके ही सार्मथ्य में था । शुभम् हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 5 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सौधर्म बृहत्तपागच्छीय आचार्य परम्परा आचार्य श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसूरिजी म.सा. के शिष्य रत्न -मुनि ऋषभचन्द्र विजय विद्यार्थी अनादि काल से चली आ रही अखण्ड जैन परम्परा में तीर्थंकर निग्रंथ संघ की स्थापना करते हैं । गणधर तीर्थंकरों देवों के शिष्य समुदाय का सम्यक संचालन करते हैं । वे तीर्थकरों के मंगल प्रवचनों को ग्रहण कर आगमों की रचना करते हैं तथा जब तीर्थंकर नहीं होते हैं, उस अवधि में, संघ को मार्गदर्शन व नेतृत्व प्रदान करते हैं । छत्तीस गुणों से युक्त होकर वे तीर्थंकरों के उपदेश जनता में प्रचारित प्रसारित करते हैं । आचार्य परम्परा के सुवाहक होते हैं । वर्तमान युग के अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर के विक्रम पूर्व 501/500 की वैशाख शुकल 11 के शुभ दिवस पावापुरी (अपापानगरी) में अपने गणधरों सहित साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका के चर्तुविध श्रीसंघ की स्थापना की थी। महावीर के ग्यारह गणधर थे । इनमें से नौ गणधर को भगवान के जीवनकाल में ही मोक्ष प्राप्त हो गया था व इनकी श्रमण सम्पदा गणधर सुधर्मस्वामी के गण में शामिल हो गई थी । प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम (गौतम स्वामी) को भगवान के निर्वाण के साथ ही केवल ज्ञान प्राप्त हो गया । अतः आचार्य परम्परा का प्रारम्भ सुधर्मास्वामी से माना जाता हैं । दिगम्बर मान्यता में गौतमस्वामी प्रथम आचार्य माने जाते हैं । आचार्य सुधर्मा से आरम्भ हुई यह परम्परा विभिन्न गच्छों में विभाजित भी हुई, उनके नामाकरण में परिवर्तन हुए, मगर इसकी अविच्छिन्नता व निरंतरता बनी रही। भगवान महावीर के समय में भी पूर्व तीर्थंकर पार्श्वनाथ की परम्परा जारी थी व उनके प्रधानाचार्य श्री केशीस्वामी थे जिन्होंने महावीर के गणधर गौतम के साथ विचार-विमर्श कर भगवान के शासन में प्रवेश लिया था। इसकी पहचान अब भी पार्श्व संतानीय उपकेशगच्छ या कंवलागच्छ के रूप में की जाती है। गणधरवंश व वाचकवंश महावीर परम्परा के दो प्रवाह है । ये प्रवाह अलग होते हुए भी सहयोगी ही रहे थे। संघ नायक आचार्यगण की देखभाल, मार्गदर्शन, साधुओं को आगम वाचना देना व श्रुत परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखने का कार्य स्वयं ही करते थे । मगर संघ विस्तार के कारण आगे चलकर यह संभव नहीं रहा । आचार्य महावीर तक एक ही परम्परा रहीं । महावीर आगम वाचना देते थे व आचार्य सुहस्ति गण का प्रबंध करते थे । इस व्यवस्था ने आगे चलकर परम्परा का रूप ले लिया । दोनों का शिष्य समुदाय प्रथक था । महावीर के शिष्यों से वाचक परम्परा का जन्म हुआ जिसमें सुहस्ति के पश्चात बलस्सिह का नाम आता है जो वीर संवत 245 में आचार्य बने थे । इसी प्रकार एक अन्य परम्परा और विकसित हुई जिसे युगप्रधान के नाम से संबोधित किया जाता है । किसी समयावधि विशेष में जैनधर्म की प्रभावना में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले आचार्य युगप्रधान कहे गयें । ये संघनायक या वाचनाचार्य भी हो सकते थे या इनसे पृथक कोई आचार्य भी। यही कारण है कि श्यामाचार्य, स्कंदिल आदि वाचनाचार्य व वजस्वामी आदि संघनायक को युगप्रधान मानकर उनको पट्टावली में स्थान दिया गया । वाचक परम्परा ज्ञान व शिक्षा-प्रधान थी और गणधर परम्परा संभवतः आचार, लोकप्रियता तथा संगठन कौशल के आधार पर अपना नायक चयन करती थी । सभी परम्पराओं में आचार्य सुधर्मा से सुहस्ति तक के समस्त संघनायकों को अपनी परम्परा के पूर्वजों के रूप में स्वीकारा गया है। पृथक से प्रथम युगप्रधान गुणसुन्दरसूरि को माना जाता है जो आचार्य सुहस्ति के शिष्य थे व मेघगणी के नाम से भी जाने जाते हैं । वीरसंवत 291 में जब सुस्थितसूरि संघनायक बनें उसी वर्ष से मेघगणी को युग प्रधान कहा गया हैं । हेमेञ्च ज्योति* हेमेन्ट ज्योति हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 6 Djpu doleman Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ प्रथम गणधर सुधर्मास्वामी की यह परम्परा निग्रन्थ परम्परा कहलाती थी । आचार्य सुहस्ति के शिष्य आचार्य द्वय सुस्थित व सुप्रतिबद्ध द्वारा उदयगिरि पर सूरि मंत्र के एक करोड़ जाप करने से इसका दूसरा नामाकरण "कौटिक गच्छ" हुआ । अंतिम दसपूर्व के ज्ञाता वज्रस्वामी के प्रशिष्य नागेन्द्र, चन्द्र, निवृति व विद्याधर के नाम से एक–एक गच्छ स्थापित हुआ व इनमें भी 84 उपगच्छ बनें । मुख्यधारा चन्द्रगच्छ की होने से निग्रंथ परम्परा ने तीसरा नाम 'चन्द्र गच्छ' प्राप्त किया। दिगम्बर व श्वेताम्बर परम्परा में समानरूपेण आदर प्राप्त करने वाले समंतभद्रसूरि व उनके शिष्यों के वन में रहने के कारण इसका एक और नामकरण 'वनवासीगच्छ' हुआ । आचार्य उद्योतनसूरि द्वारा सर्वदेवसूरि सहित आठ मुनियों को एक साथ एक वट वृक्ष के नीचे आचार्य पद प्रदान किये जाने से सर्वदेवसूरि व उनके शिष्यों से 'बड़ गच्छ' नाम अस्तित्व में आया । आचार्य जगच्चन्द्रसूरि ने विक्रम संवत 1273 में क्रियोद्धार कर आजीवन आयम्बिल करने का व्रत लिया । कठोर तपश्यचर्या के कारण इस परम्परा का अगला नामकरण 'तपागच्छ' हुआ । तपागच्छ से भी अनेक शाखा प्रशाखा प्रस्फुटित हुई जो आज भी विद्यमान है । समाचारी व क्रियाओं में भी अन्तर आए । श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने त्रिस्तुतिक प्राचीन मान्यता को पुर्नस्थापित किया । इस मान्यता को स्वीकार करने वाला समुदाय 'सौधर्मवृहत्तपागच्छ' के नाम से शोभित होता है । आचार्य परम्परा से आशय संघ के नायक आचार्य से होता है जिसका आदेश व नेतृत्व चतुर्विध संघ स्वीकार करता हो । आचार्य में किन गुणों का होना आवश्यक है इसका उल्लेख शास्त्रों में मिलता है । परम्परा के इतिहास में अनेक ऐसे अवसर भी उपलब्ध है जब एक समय में एक ही गच्छ समुदाय में एक से अधिक आचार्य रहे है मगर गुरुत्व/नेतृत्व एक ही आचार्य के हाथों में रहा । आचार्य यशोभद्रसूरि, संभूतिविजय, स्थूलभद्र आदि गणनायकों के शिष्यों में अनेक आचार्य (स्थविर) थे । यह परम्परा आगे भी जारी रहीं । तपागच्छ से स्थापक आचार्य जगच्चन्द्रसूरि, सोमप्रभसूरि, सोमतिलकसूरि, सोमसुन्दरसूरि, हीरविजयसूरि आदि गणनायकों के गण / गच्छ में सूरि / आचार्य पदधारी अनेक शिष्य थे । मगर सभी आचार्यों को पट्टावलियों में गच्छनायक के रूप में शामिल नहीं किया गया है। कुछ प्रसंगों में इन आचार्यों या इनके शिष्यों द्वारा धार्मिक क्रियाओं, मान्यताओं व कभी-कभी व्यक्तित्व की टकराहट के कारण अपने अलग गच्छ कायम कर लिए । आचार्य परम्परा की अनेक पट्टावलियां प्रचलित है । श्वेताम्बर व दिगम्बर मान्यता तो पृथक है ही मगर दोनों परम्परा में भी कई-कई गच्छ व उपभेद होनें से पट्टावलियों में अन्तर दिखाई देता है । श्वेताम्बर समाज मूर्तिपूजक, स्थानकवासी आदि विभागों में विभक्त है । मूर्तिपूजक संप्रदाय में तपा, खरतर आदि गच्छ है । इन गच्छों के भी कई उपविभाग है । इन उपविभागों के भी विभाजन है जिनकी अपनी प्रथक पट्टावली है । तपागच्छ संस्थापक श्री जगच्चन्द्रसूरि से हीरविजय सूरि तक लगभग समान पट्टावलियां है, मगर पश्चातवर्ती आचार्य विजयसेनसूरि व विजयदेवसूरि के समय व बाद में काफी शाखाऐं अस्तित्व में आई । सौधर्मवृहत्तपागच्छ तपागच्छ की ही एक शाखा है। जो सुधर्मा की परम्परा के तपागच्छ नामाकरण को अंगीकार करती है । परम्परा में प्रथम दो आचार्य सुधर्मा व जम्बूस्वामी केवलज्ञानी थे । सुधर्मा की दीक्षा व चर्तुविध संघ की स्थापना एक ही दिवस हुई थी । वीरनिवार्ण के बारह वर्ष पश्चात इनको केवलज्ञान प्राप्त हुआ व आठ वर्ष केवली अवस्था में विचरण करते हुए विक्रम पूर्व 450 में राजगृही में मोक्षगत हुए । अंतिम केवलज्ञानी आचार्य जम्बूस्वामी ने 16 वर्ष की तरुणावस्था में अपने विवाह के दूसरे दिवस ही अपनी आठ पत्नियों के साथ सुधर्मास्वामी से दीक्षा गृहण की थी व बीस वर्ष की संयम-साधना के पश्चात केवलज्ञानी हुए । वीर संवत 64 अर्थात ईस्वी पूर्व 462 में मोक्ष को प्राप्त हुए । जंबूस्वामी से संबधित कई गाथाऐं व चरित्र जैन साहित्य की अनमोल व लोकप्रिय धरोहर हैं । जंबूस्वामी के साथ ही मनःपर्याय ज्ञान, परमावधि ज्ञान, पुलाकलब्धि, जिनकल्प, सिद्धिपद आदि का विलोप हो गया । जंबू के पश्चात श्रुतकेवली आचार्यों की श्रृखंला आरम्भ हुई जो आचार्य भद्रबाहु (ईसा पूर्व 359 ) तक चली । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 7 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ श्रुतकेवली आचार्यों में प्रभवस्वामी, सय्यंभवसूरि, यशोभद्रसूरि, संभूतिविजय व भद्रबाहुस्वामी हुए जो परम्परा में क्रमशः तीसरे, चौथें, पांचवें व छठे क्रम के आचार्य थे । छठवें क्रम पर संभूतिविजय व भद्रबाहुस्वामी के नाम एक साथ लिए जाते है । इसका कारण संभवतः यह होगा कि ये दोनों पूर्ववर्ती आचार्य यशोभद्रसूरि के शिष्य व परस्पर गुरु भाई थे । कुल पट्टावलियों में दोनों को छठवें व सातवें क्रम पर वर्णित किया गया हैं। आचार्य प्रभव, जिनको दिगम्बर परम्परा में विद्युचर' कहा गया है, ने वीर संवत 64 से 75 तक जैन संघ को नेतृत्व प्रदान किया । इसी मध्य पार्श्व परम्परा के आचार्य रत्नप्रभसूरि विद्यमान थे जिन्होंने वीर संवत 70 में औसियां के राजा व प्रजा को प्रतिबोधित कर ओसवाल जाति की स्थापना की । प्रभव अपने जीवन की सांध्य बेला में आचार्य बने थे । अतः संघ के अगले योग्य नायक को शीघ्र चयन करना उनकी प्राथमिकता रही होगी । उन्होंने प्रयत्नपूर्वक वेद-वेदांग में पारंगत पं. संय्यभंव को जैनधर्म की ओर प्रेरित किया । प्रभव के शिष्य व चतुर्थ संघ नायक आचार्यसंय्यभंवसूरि ने विशाल संघ को समुचित मार्गदर्शन प्रदान किया साथ ही 'दर्शवैकालिकसूत्र' जैसी महान कृति भी दी जो आज भी साधु जीवन की आचरण, आहार, विनय-संयम की मार्गदर्शिका मानी जाती है व जैन समाज के सभी संप्रदायों में समान रूप में मान्य हैं । वीर संवत 98 में आपके स्वर्गवास के पश्चात आचार्य यशोभद्र मात्र 36 वर्ष की वय में संघ नायक बने । इस समय मगध की राजधानी पाटलिपुत्र थी व नन्दवंश का शासन था । जैन व बौद्ध धर्म का काफी प्रसार हो चुका था । आपने तत्कालीन मगध, अंग तथा विदेह राज्यों में जैनधर्म की प्रभावना की । आपके पश्चात् आपके दो शिष्य संभूतिविजय व भद्रबाहु क्रमशः आचार्य बने । यह समय राजनीतिक सामाजिक दृष्टि से काफी उथल पुथल भरा था । आठ दशक पुराना नंदवंश समाप्त हुआ व मौर्यवंश की स्थापना हुई । सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया । इसके साथ ही देश को लंबे व भयावह अकाल का सामना करना पड़ा, फलस्वरूप देश की राजनीतिक व धार्मिक व्यवस्था व संगठन अस्तव्यस्त हो गये । योग्य आहार-पानी के अभाव में अनेक मुनि काल कवलित हो गये व शेष यत्र-तत्र विहार कर गये । पठन-पाठन के बंद हो जाने से ज्ञान विलुप्त होने लगा । सौभाग्य से इस विषम युग में संघ का नेतृत्व योग्य हाथों में था जिन्होंने संघ का यथासंभव योग क्षेम किया और विलुप्त हो चले ज्ञान को पुनःसंकलित कर आगामी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखा । आचार्य संभूतिविजय के विशाल शिष्य समुदाय में श्रमणी संघ भी शामिल था। आचार्य भद्रबाहु का नाम आचार्य परम्परा में अत्यधिक सम्मान से लिया जाता है । आपने 14 वर्षों तक श्रमण संघ का कुशल नेतृत्व किया । इनके चार मुख्य शिष्य थे । एक के नाम से गौदास गण की स्थापना हुई थी। भद्रबाहु द्वारा रचित अनेक नियुक्तियां, सूत्र व संहिता जैन साहित्य में विद्यमान व लोकप्रिय है मगर यह विवादास्पद है कि इनके रचयिता उपरोक्त आचार्य है या भद्रबाहु द्वितीय जो एक पश्चातवर्ती आचार्य हैं । आचार्य प्रभव से भद्रबाहु तक सभी आचार्य 14 पूर्व के ज्ञाता थे । भद्रबाहु के साथ ही दृष्टिवाद के ज्ञान का विलोप हो गया। दिगम्बर परम्परा में पांच श्रुतकेवली क्रमशः विष्णु, नंदीमित्र, अपराजित, गोवर्धन व भद्रबाहु माने गये हैं जिनकी अवधि सौ वर्ष थी । आचार्य संभूतिविजय द्वारा दीक्षित तथा भद्रबाह द्वारा शिक्षित आचार्य स्थूलीभद्र ने ईसा पूर्व 356 से 311 तक 45 वर्ष जैन संघ का नेतृत्व किया । उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान उनकी अध्यक्षता में हुई पाटलिपुत्र की आगम वाचना है जिसमें दुष्काल के कारण छिन्न-भिन्न हुई श्रुतधारा को संकलित किया गया था । दृष्टिवाद की वाचना लेने के लिए वे लम्बे समय तक आचार्य भद्रबाहु के साथ नेपाल में रहे थे । स्थूलीभद्र के साथ अंतिम चार पूर्वो का ज्ञान विलोप हो गया । ईसापूर्व 312 से 235 तक आर्य महागिर व आर्य सुहस्ति का नेतृत्व प्राप्त हुआ । इस समय तक भगवान महावीर के शासन को स्थापित हुए दो शताब्दी बीत चुकी थी। चन्द्रगुप्त मौर्य व अशोक के प्रभाव से मौर्य साम्राज्य ने उस उत्कर्ष को प्राप्त कर लिया था जिसके पश्चात् पराभव आरम्भ होता है । चन्द्रगुप्त जैन जबकि अशोक बौद्ध मतावलंबी था । विशाल मौर्य साम्राज्य की विभिन्न राजधानियों में उज्जैन प्रमुख थी जिसका शासक अशोक का पौत्र संप्रति था । संप्रति ने सुहस्ति से प्रभावित होकर जैन धर्म स्वीकारा । जैनधर्म के विस्तार में संप्रति हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 8 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Education Interna einelt Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ की वही भूमिका रही जो बौद्ध धर्म के विस्तार में अशोक की थी । इस समय उज्जैन जैनधर्म का मुख्य केन्द्र बन गया था । इनके कालक्रम के बारे में इतिहासककारों में कुछ मतभेद है । आर्य महागिर के विशाल शिष्य परिवार से कुछ गण निकले। आर्य सुहस्ति के 12 मुख्य शिष्यों का उल्लेख कल्पसूत्र में मिलता है । जिनसे छह गणों का जन्म हुआ । इनके शासनकाल में गणधरवंश, वाचकवंश व युगप्रधान आचार्य की परम्परा आरम्भ हुई । ईसा पूर्व 235 से 187 के मध्य आचार्य सुस्थित गणाधीश बने । कुछ पट्टावलियों में इनके साथ आचार्य सुप्रतिबद्ध का नाम भी लिया जाता है जो सगे भाई थे तथा साधुओं को आगम ज्ञान देते थे । इस समय तक चन्द्रगुप्त, बिम्बसार द्वारा स्थापित राजनीतिक एकता बिखरने लगी थी । दुर्बल उत्तराधिकारी आक्रमण व आन्तरिक विद्रोह का सामना नहीं कर सके। अंतिम मौर्य राजा बृहदरथ को उसीके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने भरी सभा में मार कर सत्ता पर अधिकार कर लिया । शुंग वैदिक धर्म का पक्षपाती था, उसने जैन व बौद्ध साधुओं पर भारी अत्याचार किए । जैन साधु मगध से कलिग की ओर विहार कर गयें जहां खारवेल का शासन था। कलिंग की कुमारगिरि पर सुस्थित व सुप्रतिबद्ध ने उग्र तपश्चर्या करते हुए सूरिमंत्र के एक करोड़ जाप किये थे । कलिंग जैनधर्म का मुख्य केन्द्र बन गया था । ईसापूर्व 187 से ईस्वी 22 के मध्य तीन आचार्य संघनायक रहे । दसवें क्रम पर इन्द्रदिन्नसूरि, ग्यारहवें पर आचार्य दिन्नसूरि व बारहवें क्रम पर सिंहगिरि ने जैन शासन का नेतृत्व किया । दो शताब्दियों के मध्य मात्र तीन नायकों का होना कुछ असामान्य सा लगता हैं । विगत आचार्यों की औसत नेतृत्व अवधि 30 वर्ष रही है। शायद ये दीर्घजीवी रहे हों । दिन्नसरि के प्रशिष्यों से तापसी, कुबेरी आदि शाखाओं का जन्म हुआ । इसी मध्य साधुओं के दाह-संस्कार की परम्परा आरम्भ हुई । सिंहगिरि के शिष्य आर्यसमिति से बृहद्दीपिका शाखा ने जन्म लिया । इनके शिष्य वज्रस्वामी को विशेष अध्ययन हेतु युगप्रधान परम्परा के आचार्य दसपूर्वधर भद्रगुप्तसूरि के पास भेजा था जिससे प्रकट होता है कि उस समय जैन धर्म की विभिन्न धाराओं में परस्पर ज्ञान व विचारों का निर्बाध आदान-प्रदान होता था । इस काल में आचार्य स्वाति, स्कंदिल, रेवतिमित्र, नंदिल आदि प्रभावी व प्रज्ञावान आचार्य हुए व दो नए संवत विक्रम व ईस्वी प्रारम्भ हुए । इनके पश्चात ईस्वी की प्रथम शताब्दी में वज़स्वामी, वजसेनसूरि व चन्द्रसूरि हुए । वजस्वामी अंतिम दसपूर्वधर थे । सौलहवें क्रम पर संमतभद्रसूरि नायक बनें । लगभग यहीं समय था जब दिगम्बर मत प्रारम्भ हुआ। वीरसंवत 670 में 17वें आचार्य देवसूरि स्वर्गवासी हुए । इनको प्रथम चैत्यवासी कहा जाता है । इनके पश्चात क्रमशः प्रद्योतनसूरि, मानदेवसूरि, मानतुंगसूरि, वीरसूरि, जयदेवसूरि, देवानन्दसूरि, विक्रमसूरि (विक्रम 578 के लगभग) नरसिंहसूरि, समुद्रसूरि, मानदेवसूरि (द्वितीय), विबुधप्रभसूरि (वीर संवत 1170 के लगभग), रविप्रभसूरि, यशोदेवसूरि, प्रद्युम्नसूरि, मानदेवसूरि (तृतीय) हुए । तत्पश्चात् उद्योतनसूरि आचार्य बने जो बड़गच्छ के प्रथम आचार्य थे । आपका कार्यकाल विक्रम 1061 तक माना जाता है। बड़गच्छ (बृहतगच्छ) की पट्टावलियों में सर्वदेव के पश्चात भिन्नता आ जाती है । सैतीसवें आचार्य देवसूरि को कुछ पट्टावलियों में अजितदेव भी कहा गया है । अगले आचार्य सर्वदेवसूरि (द्वितीय) के जीवन व सालवारी की जानकारी उपलब्ध नहीं है । इनके स्वर्गवास के पश्चात आचार्य द्वय यशोभद्रसूरि व नेमिचंद्रसूरि हुए । नेमिचन्द संभवतः 1129 से 1139 के मध्य आचार्य बने । इन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की । इस समय तक चैत्यवास की परम्परा बहुत शक्तिशाली हो गई थी एवं खरतरगच्छ का जन्म हो गया था । चालीसवें क्रम पर आचार्य मुनिचन्द्रसूरि पदासीन हुए जो प्रभावक आचार्य, कुशल लेखक व विशाल गच्छ के नायक थे । पश्चात इनके शिष्य वादीदेवसूरि से नागपुरिया गच्छ का उदय हुआ जो आगे चलकर पुनः कई भागों में बंट गया । इकतालीसवें आचार्य श्री अजितदेव कुशल वादी थे । आपने संवत 1191 में जीरावला तीर्थ की स्थापना की थी। तत्पश्चात् विजयसिंहसूरि व सोम या प्रभसूरि हुए । उपरोक्त नामवाले अनेक आचार्य होने से इनके विषयक जानकारी भी परस्पर मिल गई है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Loww.jaineliteracy Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ वीर निर्वाण के 1755 वर्ष पश्चात सुधर्मा की निग्रंथ परम्परा को एक नया नामाकरण 'तपागच्छ' प्राप्त हुआ व इसके कारक थे - आचार्य जगच्चन्द्रसूरि । आप विजयसिंह (देव) सूरि के प्रशिष्य व सोमप्रभसूरि के गुरुभाई थे । आपने तत्कालीन शिथिलाचार को समाप्त करने हेतु चैत्रवालगच्छ के देवभद्रगणी व स्वशिष्य दगेन्द्र के साथ विक्रम संवत 1273 में क्रियोद्धार किया व आजीवन आयम्बिल व्रत करने का अभिग्रह किया । एक संदर्भ के अनुसार नाणावाल, कोरंटक, पीपलिक, बड़, राज, चन्द्र आदि गच्छों ने जगच्चन्द्रसूरि को योग्य व संवेगी आचार्य मानते हुए आपकी आज्ञा / अनुशासन में रहना स्वीकार किया था । आपकी उग्र तपश्चर्या से प्रभावित होकर चित्तौड़ नरेश राजा जैत्रसिंह ने आपको 'तपा' के विरूद से शोभित किया । इसीसे इनके गच्छ का नाम तपागच्छ हुआ । नए नामकरण को स्वीकार न करने वालों ने बड़गच्छ के प्रथम अस्तित्व को बनाए रखा मगर मान्यताएँ व आचार संहिता एक ही थी। उस युग के महान श्रावक गुजरात के अमात्य वस्तुपाल व तेजपाल ने अनेक प्रभावक कार्य आपकी प्रेरणा से व निश्रा में कराये थे । विक्रम संवत 1287 में आपका स्वर्गवास हो गया । आपके उत्तराधिकारी आचार्य धर्मघोषसूरि ने मांडवगढ़ के मंत्री पेथड़ व झाझंण को प्रतिबोधित कर अनेक मंदिरों व ज्ञान भण्डारों की स्थापना कराई । आप 30 वर्ष तपागच्छ का नेतृत्व कर 1357 में स्वर्गवासी हुए तत्पश्चात शुद्ध चारित्र व ज्योतिषज्ञान के लिए विख्यात सोमप्रभसूरि ने संवत 1373 तक नेतृत्व प्रदान किया। इनके 4 शिष्य आचार्य थे जिनमें से दो का स्वर्गवास हो जाने के कारण सोमतिलकसूरि को पट्टधर के रूप में स्थापित किया गया । आप अन्य गच्छों में भी आदरणीय थे । अगले पट्टधर श्री देवसुन्दरसूरि का मुख्य योगदान साहित्य की सुरक्षा के संदर्भ में रहा । आपने ताड़पत्रीय ग्रंथों का कागज पर उतारने को बढ़ावा दिया। 50वें आचार्य सोमसुन्दरसूरि ने राणकपुर के विश्वविख्यात मंदिर की प्रतिष्ठा की व साधु वर्ग में व्याप्त अनियमितता को नियंत्रित करने के लिए मर्यादा पट्टक बनाया । आपने अनेक बालावबोध, अवचूरि फाग, व स्तोत्रों की रचना की थी । तपागच्छ की लगभग 50 शाखाओं के 1800 साधु आपके अनुशासन में थे । आपके शिष्य व पट्टधर मुनिसुन्दरसूरि अपने आगम-ज्ञान के कारण दक्षिण भारत में 'काली सरस्वती' के नाम से जाने जाते थे । लगभग इसी समय लुका मत की उत्पत्ति हुई । आपके पश्चात क्रमशः रत्नशेखरसूरि व लक्ष्मीसागरसूरि पदासीन हुए । इसी समय सोमदेव से एक अलग परम्परा आरम्भ हुई जो आगे चलकर संवत 1544 से कमलाकलश शाखा के नाम से जानी गई । अगले नायक सुमतिसाधुसूरि व हेमविमलसूरि हुए जिन्होंने संवत 1547 से 1584 तक नेतृत्व दिया । विक्रम की सोलहवी शताब्दी के अन्त तक तपागच्छ की स्थापना हुए लगभग 300 वर्ष हो चुके थे । इस अन्तराल में साधु समुदाय में शिथिलता आ गई थी । अनेक गच्छों व मतों का जन्म हो चुका था । इनके प्रभाव से समाज भी विखण्डित होने लगा था व श्रमण समाज में अराजकता की स्थिति पैदा हो गई थी । अनुयायी समाज को मर्यादा के अन्तर्गत लाने के लिए आपने 400 साधुओं को साथ लेकर क्रियोद्धार किया । शत्रुजय का 16 वां जीर्णोद्धार आपकी प्रेरणा से हुआ था । इसके पश्चात श्री विजयदान सूरि नायक बने इसी समय 1605 में एक नया गच्छ लघु पौषालिक / सोमतिलक शाखा के नाम से अस्तित्व में आया । संवत 1622 में श्री हीरविजयसूरि गच्छनायक बने व तपागच्छ ने ख्याति व विस्तार के उच्च स्तरों को प्राप्त किया । सम्राट अकबर इनका अत्यधिक सम्मान करता था व इनके आग्रह पर जीवदया आदि के अनेक फरमान जारी किये थे । आपका शिष्य समुदाय बहुत ही विशाल था । आपने अनेक ग्रंथों की रचना की । आपके जीवन के संदर्भ में अनेक काव्य व अन्य रचनाएं लिखी गई है । आपके पश्चात तपागच्छ कई गच्छों में विभाजित हो गया। मुख्यधारा में श्री विजयसेन सूरि व इनके बाद 60 से 63 वें क्रम पर क्रमशः विजयदेवसूरि, विजयसिंहसूरि, विजयप्रभसूरि व विजयरत्नसूरि गच्छाधिपति बनें। 64 वें गच्छाधिपति श्री वृद्धक्षमासूरि जिन्होंने कल्पसूत्र का गुजराती अनुवाद (भीमाशाही कल्पसूत्र के नाम से विख्यात) किया था, का स्वर्गवास संवत 1785 में दिन में हुआ व विजय देवेन्द्रसूरि प्रधान बनें । आचार्य पद ग्रहण करते ही अपने गुरु के समान ही आजीवन आयम्बिल व्रत अंगीकार कर लिया था । उदयपुर महाराणा ने आपको 'कार्मण सरस्वती' संबोधन से अलंकृत किया था । अपने शिष्य कल्याणविजय को आचार्य पद प्रदान कर संवत 1870 में जोधपुर में देह-त्याग की । आचार्य विजयकल्याणसूरि हेमेन्ट ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 10 हेमेन्द्रज्योति* हेमेन्द्र ज्योति SPRupanemapaluse only Jalnelibeo Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ज्योतिष व गणित के अच्छे जानकार थे । संवत 1893 में आहोर में श्री प्रमोदविजय जी को आचार्य पद प्रदान कर वही स्वर्गवासी हुए । 67 वें आचार्य विजयप्रमोदसूरि शास्त्र-लेखन के आग्रही व सिद्धहस्त थे साथ ही साधु क्रिया के प्रति सदैव जाग्रत रहते थे । प्रमोदसूरि ने अपने एक शिष्य धरणेन्द्रविजय को आचार्य पद प्रदान कर दिया था मगर इनमें तथा साधुवर्ग में अत्यधिक शिथिलाचार व संग्रह-प्रवृति विकसित हो चुकी थी । जब समाज में इस प्रकार की विकृतियां आती है तो बदलाव व शुद्धिकरण अवश्यसंभावी होता है । तपागच्छ की इस धारा में वह समय आ चुका था । इस परिवर्तन व क्रान्ति के नायक बने – श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वर जिनके योगदान को जैनधर्म कभी नहीं भुला सकता । श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि का जन्म संवत 1883 की पौष शुक्ल सप्तमी को भरतपुर में हुआ था । आपने संवत 1904 में श्री प्रमोदसूरि के ज्येष्ठ गुरुभ्राता श्री हेमविजयजी से दीक्षाव्रत लेकर मुनि रत्नविजय नामाकरण प्राप्त किया व जैनागमों का गहन अध्ययन किया । अपने गुरु, जिनको श्रीपूज्य कहा जाता था, के निर्देशन पर उन्होंने संवत 1914 से 1919 तक श्री धरणेन्द्रसूरि तथा अन्य यतियों को विद्याभ्यास कराया । इसी मध्य श्री धरणेन्द्रसूरि साध्वाचार से विमुख होते चले गये । श्रावक वर्ग भी इनके क्रियाकलापों से नाराज था । अंततः श्री प्रमोदसूरि ने संवत 1924 में आहोर में आपको श्रीपूज्य पद प्रदान कर श्रीपूज्य श्री विजयराजेन्द्रसरि नामाकरण प्रदान किया । आपके बढ़ते प्रभाव को देखकर यति समुदाय ने अन्त में आपके द्वारा निर्धारित शास्त्रोक्त समाचारी को स्वीकार किया। संवत 1925 की आषाढ़ शुक्ल 10 को जावरा में आपने परिग्रह का त्याग किया व क्रियोद्धार कर सच्चा साध्वाचार ग्रहण किया । यह कदम यति परम्परा का संवेगी परम्परा में रूपान्तरण का कदम था । श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि जैनागमों तथा इतर साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान थे। उन्होंने अनेक ग्रंथों का सजन किया। श्री राजेन्द्र अभिधान कोश आपकी विश्वप्रसिद्ध व विशाल कृति है । सूरिजी ने साहित्य संरक्षण के लिए कई ज्ञान भण्डारों की स्थापना की। प्राचीन देवालयों का पुनरोद्धार व नवीन जिनालयों व प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराई। आपने संवत 1925 के खाचरोद के चार्तुमास में प्राचीन त्रिस्तुतिक मान्यता को पुनः प्रकट किया जो विद्वानों व श्रावकों के मध्य चर्चा व विवाद का विषय बना । आपने अपने शास्त्र सम्मत अकाट्य तर्कों से इस मान्यता को विचारों व क्रियाओं में पुनःस्थापित किया । अतः आपके अनुयाइयों को त्रिस्तुतिक कहां जाता है। श्रीमद राजेन्द्रसूरि एक चमत्कारी आचार्य थे । इनके चमत्कारों के कई प्रसंग उनके अनुयाइयों में लोकगाथाओं की भांति प्रचलित हैं । आपने मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र आदि राज्यों में भ्रमण कर जैन मान्यताओं का प्रचार प्रसार किया । आपने अनेक शिष्य - शिष्याओं तथा विशाल श्रावक समुदाय को नेतृत्व प्रदान किया । अपने संगठन कौशल से समाज में एकता व भाई चारा पैदा किया। संवत 1963 की पौष शुक्ल षष्ठम की संध्या को राजगढ़ में आपका स्वर्गवास होगया । अगले दिवस आपके ही द्वारा स्थापित मोहनखेड़ा मंदिर के प्रांगण में आपका अंतिम संस्कार किया गया जो अब एक विशाल तीर्थ बन गया । प्रतिवर्ष लाखों अनुयायी इस पुण्यभूमि पर आराधना व दर्शन हेतु आते है । श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिजी की परम्परा ही सौधर्मवृहत्तपागच्छ कहलाती है । श्री राजेन्द्रसूरिजी के पश्चात श्री धनचन्द्रसूरि भगवान महावीर की परम्परा के 69वें तथा इस सौधर्म वृहत्तपागच्छीय परम्परा के द्वितीय आचार्य बने । आपने श्रीलक्ष्मीविजयजी से संवत 1917 में यति दीक्षा ली थी व श्री रत्नविजयजी (श्री राजेन्द्रसूरि जी) के पास शिक्षण हेतु गये थे । संवत 1925 में आपने श्री राजेन्द्रसूरि से साधु दीक्षोपसंपदा ली । इसी वर्ष आपको उपाध्याय पद व 1966 में आचार्य पद दिया गया । आप अच्छे साहित्यकार थे । आपने लगभग 25 पुस्तकों की रचना की थी । संवत 1977 भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा को बागरा में आपका स्वर्गवास हो गया । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 11 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ । सौधर्मवृहत्तपागच्छ के तृतीय आचार्य श्री भूपेन्द्रसूरि को संवत 1973 में जावरा में आचार्य पद प्रदान कर गच्छ नायक का दायित्व दिया गया । आपका जन्म संवत 1944 में तथा दीक्षा संवत 1952 में हुई थी । दीक्षा के पश्चात् आपके गुरु श्री राजेन्द्रसूरि ने आपको मुनि नाम दीपविजय दिया था । श्री अभिधान राजेन्द्र कोश के सम्पादन व प्राकृत भाषा, व्याकरण, न्याय तर्क के श्रेष्ठ विद्वान थे । संवत 1993 की माघ शुक्ल सप्तमी को 49 वर्ष की आयु में आहोरमें आप स्वर्गवासी हुए । श्री भूपेन्द्रसूरि के स्वर्गवासोपरान्त संवत 1995 की वैशाख शुक्ल दसमी को इतिहासविद् श्री यतीन्द्रसूरि आचार्य बनें। आपकी दीक्षा श्री राजेन्द्रसूरि जी द्वारा संवत 1954 में हुई थी। श्री धनचन्द्रसूरिजी ने आपको व्याख्यान-वाचस्पति व उपाध्याय पद से अलंकृत किया था । आपका विहार क्षेत्र व्यापक था साथ ही विहार के मध्य आने वाले स्थानों । के मूर्तिलेखों व अन्य ऐतिहासिक संदर्भो को एकत्र व लिपिबद्ध करने का महत्वपूर्ण कार्य भी आपने किया । आपके प्रयासों से विभिन्न स्थानों पर शालाएं व गुरुकुल की स्थापना हुई । आपके कर कमलों से लगभग 45 प्रतिष्ठा/अंजनशलाकाऐं हुई व आठ वृहत् संघ यात्रा को नेतृत्व प्रदान किया । आपने लगभग 60 पुस्तकों की रचना की तथा 18 शिष्यों को दीक्षा प्रदान की । पौष शुक्ल तृतीया संवत 2017 (21 दिसम्बर 1960) को मोहनखेडा में आपने अपनी नश्वर देह को त्याग दिया जहां आपका एक सुंदर स्मृति मंदिर बनाया गया है । श्री यतीन्द्रसूरीश्वरजी के स्वर्गवास के पश्चात तीन वर्ष तक वरिष्ठ मुनि श्री विद्याविजयजी ने संघ प्रमुख का दायित्व निर्वाह किया । फाल्गुन शुक्ल तृतीयां संवत 2020 को श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में आपको समारोहपूर्वक आचार्य पद से अलंकृत किया गया। तत्पश्चात आप श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसूरि के नाम से विख्यात हुए । आपने अनेक प्रतिष्ठाऐं कराई व तीर्थों के विकास हेतु प्रयत्नशील रहे । श्री मोहनखेड़ा तीर्थ का आधुनिक विकास आप ही की गाम है । आप इस तीर्थ को जैन विद्या व संस्कृति के केन्द्र के रूप में स्थापित करना चाहते थे। आपने अनेक मुमुक्षों को मुनि दीक्षा प्रदान की जिनमें इन पंक्तियों का लेखक भी शामिल है। निरन्तर मंत्र साधना के प्रभाव से आपको कुछ सिद्धियाँ भी प्राप्त थी । आप एक सरस कवि व सिद्धहस्त लेखक थे । आपने अनेक रचनाएँ की । आप अंतिम समय तक अन्तेवासियों को विभिन्न मार्गदर्शन देते रहें । अल्प अस्वस्थता के पश्चात संवत 2036 की आषाढ़ शुक्ल तृतीया (18 जुलाइ 1980) को मोहनखेड़ा तीर्थ में आपका स्वर्गवास हो गया जहां आपका स्मृति-मंदिर बनाया गया है । सौधर्मवृहत्तपागच्छ के वर्तमान आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरिजी है जो श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी की परम्परा में श्री विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी के उत्तराधिकारी बनें । आपको संवत 2040 में आहोर में आचार्य पद प्रदान किया गया । आपके कुशल नेतृत्व व मार्गदर्शन में गच्छ निरन्तर प्रगति कर रहा है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 12 हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Inducareena UPos org Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ आचार्य श्री विद्याचन्द्र सूरिजी विरचित काव्य साहित्य के सांस्कृतिक अध्ययन की आवश्यकता पंन्यास रवीन्द्र विजय गणि साहित्य के निर्माण में, विशेष कर भक्ति साहित्य और चरित साहित्य के निर्माण में जैन आचार्यों, मुनिराजों तथा जैन साध्वियों का योगदान अक्षुण्ण रहा है । यद्यपि जैन संतों का जीवन आत्मलक्ष्मी है, तथापि पर हितार्थ भी वे सतत चिंतन करते रहते है तथा अपने लेखनी के माध्यम से जन-जन का मार्ग दर्शन करते रहते हैं । भक्ति परक रचनाओं के साथ-साथ वैराग्य से ओतप्रोत रचनाओं का भी सृजन हुआ है । साथ ही दार्शनिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन हुआ है । ऐतिहासिक दृष्टि से पुराणा ग्रन्थों की रचना की गई । यहां हमारा लक्ष्य समग्र जैन साहित्य के विषय में लिखना न होकर कविरत्न आचार्य श्रीमद्विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म. द्वारा काव्य साहित्य की ओर संकेत करते हुए उनका सांस्कृतिक अध्ययन करने की ओर आवश्यकता का प्रतिपादन करना है । आचार्यश्री ने कुल मिलाकर तीस-चालीस पुराणों/ग्रन्थों का प्रणयन किया है । इनमें से कुछ महाकाव्य है तो कुछ महाकाव्य की श्रेणी में रखे जाने वाले ग्रन्थ है । यहां यह उल्लेख करना प्रांसगिक ही होगा कि आचार्यश्री ने एक से अधिक महाकाव्यों की रचना की हैं और जो महाकाव्य की श्रेणी की कृतियाँ हैं वे भी किसी महाकाव्य से कम नहीं है । आचार्यश्री द्वारा रचित प्रमुख महाकाव्य एवं काव्य कृतियां इस प्रकार है श्री भूपेन्द्र सूरि, श्री शिवानंदन काव्य, दशावतरी महाकाव्य, शांतिनाथ महाकाव्य, चरम तीर्थंकर महावीर काव्य सचित्र, पथिक काव्य लता, श्री यतीन्द्र सूरि, श्री राजेन्द्र सूरि चालीसा, पथिक मणिमाला, चिंतन की रश्मियां, प्रभु गुण गरिमा आदि प्रमुख है । आचार्यश्री ने अपनी काव्य साधना छन्द बद्ध रूप से की है । साहित्यिक दृष्टि से यदि इनका अध्ययन किया जावे तो रस, छन्द, अलंकार, संधि आदि का विपुल मात्रा में विवरण उपलब्ध होता है । हमारे विचार से साहित्यिक/समीक्षात्मक अध्ययन रचनाओं के मूल्यांकन की एक विधा है । उस आधार पर यह निश्चित किया जाता है कि अमुक रचना साहित्य के धरातल पर खरी उतरती है या नहीं? हम इस प्रकार के अध्ययन से कुछ भिन्न अध्ययन की चर्चा करना चाहेंगे । इस में यह भी साथ-साथ हो सकता है कि आचार्यश्री की काव्य कृतियों में काव्य के विभिन्न अंगों का अध्ययन भी एक अध्ययन के माध्यम से कर लिया जावे । हम तो आचार्यजी के समग्र काव्य संसार का सांस्कृतिक अध्ययन करने की आवश्यकता पर बात कर रहे हैं । हो सकता है, कुछ पाठकों को हमारा यह विचार इसलिये विचित्र लगे कि इस प्रकार का अध्ययन अभी तक कही हुआ नहीं है और यह परम्परा से हट कर है । ___ सांस्कृतिक अध्ययन के लिये जिन बिन्दुओं की आवश्यकता होती है, सर्वप्रथम हम उनकी ओर संकेत करना उचित समझते है । इन बिन्दुओं का उपयोग अध्यायों के रूप में भी किया जा सकता है । सम्बन्धित रचनाकार की रचनाओं के सांस्कृतिक अध्ययन के पूर्व एक बिन्दु अथवा अध्याय में रचनाकार का जीवन परिचय और परम्परा (यदि संत है तो) का उल्लेख करना आवश्यक प्रतीत होता है । तत्पश्चात् निम्नांकित बिन्दुओं को लिया जा सकता है। 1. समाजदर्शन : इसके अन्तर्गत आचार्य श्रीमद्विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. द्वारा रचित काव्य कृतियों में पाया जाने वाला सामाजिक विवरण जैसे सामाजिक संगठन, वर्ण, जाति, जातियों की उत्पत्ति एवं उनके कर्म, परस्पर सम्बन्ध, परिवार, खान पान, वस्त्राभूषण, विवाह तथा अन्य संस्कार प्रचलित, रूढियां एवं परम्पराएं, समाजगत दोष, दोषों को दूर करने के उपाय, शिक्षा व्यवस्था, मनोरंजन के साधन, व्याधियां, उपचार, अंतिम क्रिया, स्त्रियों की दशा आदि आदि । काव्य कृतियों में इस विषयक मिलने वाली सामग्री का व्याख्यात्मक विश्लेषण किया जावें । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 13 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति ducatiohintai Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 2. राजनैतिक विवरण : इसके अन्तर्गत राजा, राजा की शिक्षा, दैनिक चर्या, राजा के कर्तव्य, राज्य के अन्य पदाधिकारी और उनके कर्तव्य, गुप्तचर व्यवस्था, राज्यों में पारस्परिक सम्बन्ध, युद्ध, युद्ध को टालने के प्रयास, युद्ध में प्रयुक्त अस्त्र शस्त्र, पराजित राजा के साथ व्यवहार । कानून, कानून के स्रोत, न्याय व्यवस्था, अपराध, दण्ड का स्वरूप, कारागार, कारागार में कैदियों के साथ व्यवहार आदि आदि । 3. आर्थिक विवरण : राज्य की आय के स्रोत, राज्य की आर्थिक स्थिति, समाज की आर्थिक स्थिति, कृषि, पशुपालन, व्यापार, स्थानीय, राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय व्यापार, आयात निर्यात नियम आदि । नाप-तौल, मुद्रा आदि । उद्योग धंधे, उद्योग धंधे में कार्यरत श्रमिकों की दशा । 4. धर्म एवं दर्शन : इस बिन्दु के अंतर्गत धर्म की अवधारणा, समाज में प्रचलित धर्म, समयग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र, पंच महाव्रत (अहिंसा, सत्य अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य), तप, तप का महत्व, तप से मिलने वाली उपलब्धियां, आचार, श्रमणाचार, श्रावकाचार, कर्म सिद्धांत, पुनर्जन्म विषयक मान्यता, ईश्वर सम्बन्धी, धारणा एवं विवरण व्रतादि। अन्य धार्मिक विवरण/सद्गुणों का विवरण, सामायिक प्रतिक्रमण आदि । तथा इसी प्रकार अन्य धार्मिक पर्वो आदिके विवरण को भी इसके अन्तर्गत लिया जा सकता है । अन्य धर्मो का विवरण यदि हो । दार्शनिक चिंतन :- आत्मा, तत्व, सृष्टिवाद, अनेकांत एवं स्याद्वाद । अन्य भारतीय दर्शनों के विवरण यदि हों । 5. कला विषयक विवरण : इसमें पुरुषोचित कलायें, स्त्रियोचित कलाऐं लेना है । तत्कालीन समाज में प्रचलित कलायें, कलाकार का समाज में स्थान, संगीतकला, नृत्यकला, चित्रकला । नगर रचना, भवन निर्माण कला तथा अन्य कलायें। 6. पर्यावरण : पर्यावरण का अर्थ बताते हुए आचार्यश्री की रचनाओं में पर्यावरण विषयक मिलने वाले विवरण को प्रस्तुत करना । 7. उपसंहार : अंत में उपसंहार में रूप में समग्र रूप से मूल्यांकन प्रस्तुत करना । यहां यह आशंका अभिव्यक्त की जा सकती है कि काव्य साहित्य में इस प्रकार का विवरण कैसे मिल सकता है । तो आशंका का निवारण करते हुए हम यहां कुछ उद्धरण प्रस्तुत कर अपने मत की पुष्टि करना चाहेंगे । यहाँ हम यह भी स्पष्ट उल्लेख करना अपना कर्तव्य समझते हैं कि इस समय हमारे समक्ष आचार्य श्री की काव्यकृतियाँ उपलब्ध नहीं है, जो भी उपलब्ध है उसी आधार पर ये उद्धरण दिये जा रहे है । यथा : आचार्य श्री द्वारा रचित श्री शांतिनाथ महाकाव्य को ले लीजिये । इस काव्य की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए पं. शितिकण्ठ शास्त्री साहित्याचार्य ने अपनी भूमिका में लिखा है - इसकी एक विशेषता यह भी है कि - यह काव्य सही रूप में जैन सिद्धांत के कर्म एवं पुनर्जन्मवाद का परम पोषक है - क्योंकि इसकी रचना कल्पना के आधार पर नहीं अपितु वास्तविक रूप में घटित सत्य कथानक के आधार पर हुई है । (पृ. 11) इस महाकाव्य में यज्ञोपवीत संस्कार का विवरण कुछ इस प्रकार मिलता है । थे नन्दीमुनि लघुवय श्रीमुनि पुत्रों उसी के, थे अभ्यासी धरगिजर से पुत्र दोनों सुभागी । दोनों यज्ञोपवित पहिनी शास्त्रबोधी बने थे, था दासी पुत्र कपिल उसे दी नहीं थी सुदीक्षा || प्रस्तुत पंक्तियों में यज्ञोपवीत के साथ ही यह भी बताया गया कि दासीपुत्र को शिक्षा नहीं दी जाती थी । यह समाज दर्शन के अंतर्गत उल्लेख करने योग्य भी है । हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति 14 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति ImmEducatigriliterpart Smartelaranday Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ निम्नांकित पद में राज सभा और वहां होने वाले न्याय का विवरण दिया गया है : श्रीषेण की राजसभा अनूठी, सामन्त बैठे बन के विनोदी । चर्चा वहां अनेकों चलती वहां थी, जो न्याय होता वह सत्य होता | इस महाकाव्य में प्रकृति विवरण भी सुन्दर रीत्यानुसार वर्णित है । अपहरण का विवरण भी इस काव्य में है। देखें: दोनों भाई तब कनकश्री को उठाके चले वे | ले जाते हैं यह नगर में घोषणा की उन्होंने | धोखा देका अरर | तनूजा ले चले जा रहे है || दौड़ो | दौड़ो | त्वरित पकड़ो, व्योम मार्ग गये हैं || उपर्युक्त पद्य में आकाश मार्ग से जाने का उल्लेख यातायात के साधनों का संकेत करता हैं यह अन्वेषणीय है कि उस समय आकाश मार्ग के लिये कौन से साधन थे? निम्नांकित पद्य में चक्रवर्ती, राजा और मांडलिक राजा का विवरण है और सेवा करने का भी उल्लेख है । षट्खण्ड साधे पद चक्रवर्ती । जो पार्ववर्ती नृप मांडलीकः ।। आते पदों में नृपराज के ही । सेवा करे नित्य प्रमोदकारी || युद्ध का विवरण देखें: होके सन्नर द्वय लड़ते युद्ध भूमि बनी थी । भागा था सैन्य तब उसका पुत्र भागा कहीं था । दौड़ा था मेघरथ पर मैदान में दत्त हारा । योद्वाओं ने त्वरित उसको बांध डाला वहीं था | कृषकों की प्रसन्नता का विवरण देखें : सुभग भाद्रव की वदि सप्तमी । कृषक हर्षित भाव मना रहे || फसल को लख सुन्दर क्षेत्र की | मधुर गीत को शिशु मण्डली || और आगे देखें : नीलाम्बरी थी वसुधा सुघती | गोपाल गायें वन में चराते || निष्काम से खेत निवास वाले | पक्षी उड़ाते निज खेत में से || कहने का तात्पर्य यह है कि इसी प्रकार यदि काव्य कृतियों का गहराई से अध्ययन किया जावे तो जिन बिन्दुओं का हमने उल्लेख किया है, उनके अनुसार, विवरण मिल सकता है और एक अच्छा शोध प्रबन्ध तैयार हो सकता है । आचार्य श्री की अन्य काव्यकृतियों में भी कुछ उदाहरण यहां प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 15 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Epr a se clilly Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ। श्री यतीन्द्रसूरि में शिक्षा कैसी हो? यह निम्नांकित पद्य से ज्ञात हो जाता है । देखें : गुरुदेव सेवा कीजिये नित, नाश हो अज्ञान का | आशीष उनकी लीजियेगा, उदय हो शुभज्ञान का || शिखा हृदयंगम कीजियेगा, मनसमन खिल जायेगा | अनुकूल रहना सतत उनके, शिष्य धर्म कहलायेगा || इसमें गुरुजी की सेवा एवं शिष्य धर्म का भी समावेश हो गया है । निम्नांकित पंक्तियों में गुरुदेव का उपदेश कितना सटीक है। है जिन्दगी - दिनचार की, यह मोह करना व्यर्थ है । माता-पिता पुत्र मित्र, द्वारा स्वार्थ के साथी सभी । आया अकेला है यहां पर साथ क्या लाया तभी । इन पंक्तियों की विस्तृत व्याख्या से अनेक बातें स्पष्ट हो जाती है । पथिक मणिमाला में सप्त व्यसन पर लिखा : सप्तव्यसन से वे सदा, पाप तत्त्व की रेख | रोना हंसता भोगवे, अशुभ करम का लेख || चरम तीर्थकार श्री महावीर काव्य वृति में भगवान महावीर के विवाह का विवरण कुछ इस प्रकार दिया गया है: समरवीर भूपति की कन्या, ललित यशोदा जिसका नाम | रति से भी थी अतिशय सुन्दर, विनयवती सौन्दर्य सुधाम || वर्धमान से पाणिग्रहण संस्कार हुआ शुभ पर्व समान | भाग्यवती हो गई यशोदा, या प्रभु का आश्रय महान || इसी काव्य कृति में प्रभु की देशना शीर्षकान्तर्गत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, परदारा सेवन, रात्रिभोजन, अठारह पाप स्थान आदि का सुन्दर रीत्यानुसार वर्णन किया गया है । पंचम काल का प्रभाव शीर्षकान्तर्गत राजा प्रजा के सम्बन्ध में कहा गया है : राजा प्रजा सभी होवेंगे, क्रोधी लोभी एक समान | छल छदमी बनकर लूटेंगे, कर आपस में द्वन्द महान || अनुशासन को छोड़ बनेगी उच्छृखल सब की संतान | घृणा करेंगे धर्म कर्म से लेगा न कोई धार्मिक ज्ञान || प्रस्तुत आलेख में हमने सांकेतिक रूप से सांस्कृतिक अध्ययन की दृष्टि के कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर यह बताने का प्रयास किया है कि आचार्य श्रीमदविजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. विरचित काव्य साहित्य में सभी प्रकार का विवरण उपलब्ध है । आवश्यकता इस बात की है कि उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में उसका अध्ययन हो । हमने तो एक प्रकार से संकेत किया है । विश्वास है जिज्ञासु विद्वान, अनुसंधानकर्ता इस दिशा में पहल करके इस कार्य को पूर्णता प्रदान करने का प्रयास करेंगे। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्ब ज्योति 16 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Indirat ional Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन थि। तपस्वीरत्न मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. -आचार्य विजय हेमेन्द्र सूरि वर्तमान मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल । इस भोपाल में किसी समय श्रीमान कालूरामजी नीमा का प्रतिष्ठित परिवार निवास करता था । वि. सं. 1944 की वैशाख शुक्ला तृतीया जो पूरे भारतवर्ष में अक्षय तृतीया के रूप में मनाई जाती है, श्रीमान् कालूरामजी नीमा के लिये विशेष हर्ष और उल्लास का कारण बनी । अक्षय तृतीया का महत्व सभी जाति एवं धर्म में माना जाता है किंतु इसका जैनधर्म में विशेष महत्त्व है और जैन धर्म में वर्षीतप के पारणे इसी दिन होते हैं । श्रीमान् कालूरामजी नीमा का सौभाग्य था कि इसी दिन उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रूक्मणिदेवी की पावन कुक्षि से एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ । अक्षय तृतीया जैसे शुभ दिन परिवार में पुत्ररत्न की प्राप्ति से हर्ष और उल्लास का वातावरण छा गया । इस दिन जन्म लेने वाले बालक का भविष्य एक प्रकार से स्वतः निर्धारित सा हो गया । यह बालक निश्चित रूप से धर्म के क्षेत्र में अपना और अपने परिवार का नाम उज्ज्वल करेगा । ऐसी धारणा परिवार जनों की बन गई । धूमधाम से पुत्र जन्मोत्सव मनाया गया । माता-पिता ने परिजनों की सहमति से बालक का गुण निस्पन्न नाम जगन्नाथ रखा । समय के प्रवाह के साथ बालक जगन्नाथ भी विकास करता गया । उसकी बाल सुलभ लीलायें सबको अपनी ओर बरबस आकर्षित कर लिया करती । आयु बढ़ने के साथ साथ बालक जगन्नाथ की प्रवृत्तियों में भी परिवर्तन परिलक्षित होने लगा । उसके स्वभाव में गम्भीरता दिखाई देने लगी। वह धर्माभिमुख होने लगा । जैनधर्म में पर्युषण पर्व की अवधि में धर्म की आराधना विशेष रूप से की जाती है । उसे पर्वाधिराज भी कहा जाता है । यह पर्व वर्ष में एक बार आता है । जिस समय बालक जगन्नाथ की आयु नौ वर्ष थी, उस समय पर्युषण पर्व के समय भोपाल नगर के जैन मंदिरों में बड़ी संख्या में आराधक धर्माराधना कर रहे थे । इन सब आराधकों में एक नौ वर्ष का बालक पूर्ण तन्मयता से ध्यान लगाकर भगवान् की स्तुति कर रहा था । सभी आराधक उसकी ओर देखते और उसकी धार्मिक भावना तथा भक्ति भावना की प्रशंसा करते । अनेक आराधक उसकी भक्ति भावना से प्रभावित होकर उसका परिचय भी जानने का प्रयास करते । इस अल्पवय में उसकी उत्कृष्ट धार्मिक भावना देख देखकर आराधकों को आश्चर्य भी होता था । कई एक कहते भी थे कि निश्चित ही यह बालक भविष्य में अच्छी धर्मप्रभावना करेगा । कहा भी है कि पूत के पांव पालने में ही दिखाई देते हैं । अथवा होनहार बिरवान के होत चिकने पात । जो लोग इस बालक का परिचय जानने के लिये उत्सुक थे, उन्हें उसका परिचय भी मिल गया । यह बालक श्रीमान कालूरामजी नीमा का सुपुत्र जगन्नाथ है । सभी लोग श्रीमान् कालूरामजी नीमा के भाग्य की सराहना करने लगे । इन लोगों में एक श्रेष्ठी केशरीमलजी तो जगन्नाथ से अत्यधिक प्रभावित थे । एक समय तो वे अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पाये और उन्होंने पूछ ही लिया - "तुम किसके पुत्र हो?" "जी, श्री कालूरामजी नीमा मेरे पिताश्री है ।" विनयपूर्वक जगन्नाथ ने उत्तर दिया । "तुम्हारा नाम क्या है?" "जी, जगन्नाथ मेरा नाम है ।" "आज तुमने कौनसी तपश्चर्या की?" "जी, आज उपवास है ।" आगे जगन्नाथ ने बताया- "एक दिन भूखा रहने से कोई मरता नहीं । उसके दो लाभ हैं- एक शरीर स्वस्थ रहता है और दूसरा इन्द्रियों के विकारों का विनाश होता हैं जिससे नये कर्मों का उपार्जन नहीं होता ।" बालक की ज्ञानगर्भित बातें सुनकर श्रेष्ठी केशरीमलजी आश्चर्यचकित रह गये । कुछ व्यक्ति पास खड़े होकर उनका वार्तालाप सुन रहे थे । उनमें से एकने कहा - "निश्चित ही यह बालक आगे चलकर महान बनेगा । यह अपना व अपने कुल का नाम उज्ज्वल करेंगा ।" वास्तव में मात्र नौ वर्ष की अल्पायु में ऐसी धार्मिक भावना एवं ज्ञान विरले लोगों को ही होता है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 17 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ वैराग्य : बालक जगन्नाथ का अध्ययन चल रहा था। इसके साथ ही उसका आध्यात्मिक चिंतन भी चलता रहता था । उसका आध्यात्मिक चिंतन धार्मिक अध्ययन का प्रतिफल था। वह विचार करता - 'आदमी अपने लिये ऊंचे ऊंचे महल बनवाता है, भव्य मन्दिरों का निर्माण करवाता है, धन सम्पत्ति एकत्र करता है किंतु उन सबको छोड़ कर उसे एक दिन तो जाना ही पड़ता है। उसकी अर्जित सम्पत्ति आदि यही रह जाती है। उसके साथ कुछ भी नहीं जाता है फिर भी व्यक्ति इनके मोह में फंसा हुआ है । यहां तक कि परिजन भी कुछ दिन उसके वियोग में शोक मनाकर सामान्य हो जाते हैं और अपने कामकाज में मग्न हो जाते हैं। जगन्नाथ ने पुस्तक में पढ़ा था कि ये सब कुछ यहां के यहीं रह जाते हैं । यदि व्यक्ति के साथ कुछ जाता है तो उसके कर्म-पुण्य और पाप । तब फिर यह सब झंझट क्यों ? संसार का मोह त्याग देना चाहिये । उसके माया जाल को तोड़कर फेंक देना चाहिये । यह मानव देह सौभाग्य से मिली है। यह भी नश्वर है । यदि शाश्वत है अजर अमर है तो बस केवल आत्मा । आत्मा के कल्याण की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। इस असार संसार में रहकर पाप की पोटली क्यों बांधी जाय ? जगन्नाथ का चिंतन इसी प्रकार चलता रहता । कोई पूछता "जगन्नाथ! क्या विचार कर रहे हो?" I "विचार चल रहे हैं । इस असार संसार के विषय में चिंतन हो रहा है । वैराग्यपूर्ण भावों का उदय हो रहा है। सोचता हूं, सब मायाजाल को छोड़कर अनंत सुख की खोज के लिये निकल पडूं ।" जगन्नाथ का उत्तर यही होता है । "अभी तो तू बालक है । वैराग्य का मार्ग सरल नहीं है । जब बड़ा हो जाय तब जैसा उचित लगे वैसा करना।" "काल का कोई भरोसा नहीं है । वह कब आ जाये । आत्म-कल्याण के मार्ग को अपनाने में किसी प्रकार का विलम्ब नहीं करना चाहिये । यदि कोई विलम्ब करता है तो वह मूर्ख है। मैं तो इसी समय संसार का त्याग करना चाहता हूं।" श्रेष्ठी केशरीमलजी बालक जगन्नाथ के सतत सम्पर्क में रहते । वे जगन्नाथ की उत्कृष्ट वैराग्य भावना से अत्यधिक प्रभावित भी हुए । छोटी आयु में ऐसी उच्च भावना विरले ही भव्य जनों में देखने को मिलती है । वे जगन्नाथ को अपने यहां बुलाते और उसकी धर्म प्रवृत्ति को देखकर आनन्द का अनुभव करते और स्वयं भी पुण्यार्जन करने का प्रयास करते । जब हम वैराग्य के कारणों का अध्ययन करते है तो शास्त्रों में अनेक कारण मिलते हैं। उनमें एक कारण ज्ञानगर्भित वैराग्य भी बताया गया है । हमारे चरितनायक का वैराग्य भाव ज्ञानगर्भित वैराग्य की श्रेणी में आता है। यह वैराग्यभाव स्थायी होता है और श्रेष्ठ माना जाता है । केशरीमलजी पारख : उल्लेखनीय है कि जब जगन्नाथ चार वर्ष का था, तब उसके पिता श्रीमान् कालूरामजी का स्वर्गवास हो गया था और एक वर्ष पूर्व माता रुक्मणि का भी स्वर्गवास हो गया था। माता-पिता के स्वर्गवास ने उसके चिंतन को और भी परिपक्व बना दिया था श्रेष्ठी केशरीमलजी का जगन्नाथ पर विशेष स्नेहभाव था और वे अधिक समय तक उसे अपने पास रखना चाहते थे । पू. गुरुदेव के दर्शन : श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय आचार्य भगवन श्रीमद विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का नाम उस समय भारतवर्ष के कोने कोने में गूंज रहा था। इसका प्रमुख कारण यह था कि उन्होंने शिथिलाचार को दूर करने का शंखनाद किया था और स्वयं ने भी क्रियोद्धार कर शुद्ध चारित्र धर्म ग्रहण किया था। दूसरे उस समय उनके ज्ञान का डंका भी बज रहा था । इस समय पूज्य गुरुदेव मध्यभारत के कुक्षी नगर में विरजमान थे । श्रेष्ठी केशरीमलजी internal हेमेजर ज्योति हेमेजर ज्योति 18 हेमेन्द्र ज्योति हेमेजर ज्योति Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ बालक जगन्नाथ को लेकर पू. गुरुदेव की सेवा में कुक्षी आए । पू. गुरुदेव का ज्ञानगर्भित एवं वैराग्यगर्भित प्रवचन चल रहा था । बालक, युवा एवं वृद्ध सभी तन्मय होकर गुरुदेव के वचनामृत का पान कर रहे थे । प्रवचन समाप्त हुआ और कई ने गुरुदेव से श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किये तथा कुछ अन्य ने कुछ नियम भी ग्रहण किये । बालक जगन्नाथ गुरुदेव के प्रवचन को ध्यान से सुन रहा था । प्रवचनोपरांत जो हो रहा था, वह भी वह देख रहा था । वह खड़ा हुआ और उसने करबद्ध हो निवेदन किया – “पूज्य गुरुदेव ! मेरी भावना इस असार संसार का त्याग करने की है । क्या आप मुझे शिष्य रूप में स्वीकार करेंगे?" "तेरा नाम क्या है ?" "मेरा नाम जगन्नाथ है ।" "जगन्नाथ ! क्षणिक आवेश में आकर या वैराग्य की तरंगों में बहकर तुम यह कह रहे हो । तुम्हें पता नहीं है कि तुम आज जो कह रहे हो वह भावना कल समाप्त हो जायगी । आज वैराग्य की बात कर रहे हो और कल पुनः रागी नहीं बनोंगे, इसकी क्या खात्री ?" तभी श्रेष्ठी केशरीमलजी उठे हाथ जोड़कर उन्होंने कहा - "गुरुदेव! इस बालक का वैराग्य श्मशान वैराग्य नहीं है, सच्चा वैराग्य है ।' इतना कहकर उन्होंने जगन्नाथ की धर्माराधना एवं चिंतन के विषय में सब कुछ बता दिया । यह भी बता दिया कि इस बालक के माता-पिता का स्वर्गवास हो चुका है । इस पर गुरुदेव ने पूछा “तब यह बालक कहां रहता है ?" "गुरुदेव ! यह बालक मेरे पास रहता है । मैं अपना सौभाग्य मानता हूं कि यह पुण्यात्मा मेरे पास रहा ।" श्रेष्ठी केशरीमलजी ने बताया । इस प्रकार बालक जगन्नाथ गुरुदेव की सेवा में आगया । दीक्षा महोत्सव : दीक्षा लेना तो सरल है किंतु दीक्षा मार्ग पर चलना, संयम का पालन करना अति कठिन है । कहा गया है कि असिधार पर चलना सरल है किंतु संयम मार्ग पर चलना कठिन है । जो भव्यात्मायें होती हैं वे इस मार्ग का अनुसरण कर स्व पर कल्याण करती है । पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. ने वैरागी जगन्नाथ का वैराग्य परिपक्व जानकर दीक्षा का मुहूर्त प्रदान कर दिया । इसके अनुसार माघ शुक्ला तृतीया को वैराग्यमूर्ति जगन्नाथ को दीक्षा प्रदान की जानी निश्चित हो गई और इसके साथ ही दीक्षोत्सव की तैयारियां भी शुरू हो गई । बालक जगन्नाथ की दीक्षा का समाचार अनेक नगरों एवं गांवों में प्रसारित हो गया । गांव-गांव, नगर-नगर से गुरुभक्तों का आगमन कुक्षी में होने लगा । जैसे जैसे दीक्षा का दिन निकट आता गया, वैसे वैसे गुरुभक्तों की भीड़ बढ़ने लगी । कुक्षी वासियों ने अपने नगर को बहुत ही सुन्दर रीत्यानुसार सजाया था । दीक्षा का निर्धारित दिन आया । माघ शुक्ला तृतीया का अभी सूर्य भी उदय नहीं हुआ था कि कुक्षी के गुरुभक्तों की चहल पहल शुरू हो गई । सूर्योदय होते होते सभी तैयारियों हो गई । एक सुन्दर सुसज्जित रथ में वैराग्य मूर्ति जगन्नाथ को बैठाया गया और चल समारोह शुरू हुआ । वाद्य यंत्रों की मधुर धुन के साथ गुरुभक्तों की जय जयकार और रंग बिरंगे वस्त्रों मे सुसज्जित रमणियों के सुमधुर कंठों से निसृत गीतों की ध्वनि कुक्षी के गगनमंडल में गूंज उठी। नगर के मुख्य मार्गों से होता हुआ यह चल समारोह दीक्षा स्थल पर आया । उल्लेखनीय बात यह है कि इस चल समारोह में विश्व पूज्य प्रातःस्मरणीय श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा., अपने शिष्य परिवार पू. मुनिराज श्री धनविजयजी म.सा. पू. मुनिराज श्री रूपविजयजी म., पू. मुनिराज श्री मोहनविजयजम., पू. मुनिराज श्री लक्ष्मीविजयजी म., पू. मुनिराज श्री दीपविजयजी म., एवं पू. मुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी म. आदि के साथ चल रहे थे । इन सबके मध्य में रथ पर बैठे जगन्नाथ वर्षीदान देते हुए चल रहे थे । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 19 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Pariww.jainelibrary.org Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARRORG श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन गंथ यह चल समारोह दीक्षा स्थल पर आकर धर्मसभा के रूप में परिवर्तित हो गया । पू. गुरुदेव पाट पर उच्चासन पर विराजमान हुए और उनके आसपास अन्य मुनिराज विराजित हो गये । इस अवसर पर पूज्य गुरुदेव ने त्याग मार्ग को समझाते हुए अपना प्रवचन फरमाया और अपार जन समूह की साक्षी में निश्चित मुहूर्त पर समस्त औपचारिकताएं पूरी कर वैराग्य मूर्ति जगन्नाथ को दीक्षा व्रत प्रदान कर मुनि श्री हर्षविजयजी म. के नाम से अपना शिष्य घोषित कर प्रसिद्ध किया। तपस्वीपद : दीक्षोपरांत नवदीक्षित मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. अपने गुरुदेव आचार्य श्रीमदविजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. सा, की सेवा में रहकर ज्ञानोपार्जन करने में जुट गये | गुरुदेव के साथ साथ ग्राम-ग्राम, नगर-नगर विचरण भी करते रहे । इसी बीच कुछ तीर्थ स्थानों की यात्रा भी की । वहां दर्शन वंदन - पूजन का लाभ भी मिला । प्रतिष्ठाएं, उपधान तपादि भी पूज्य गुरुदेव के पावन सान्निध्य में सम्पन्न हुए । मुनि श्री हर्षविजयजी म. ने ये सब क्रियाएं देखी और सीखी । इस प्रकार आपकी संयम यात्रा के आठ वर्ष व्यतीत हो गये । इस अवधि में आपने विविध प्रकार की तपस्याएं भी की । आपकी सेवाभावना और उग्र तपस्याओं के परिणाम स्वरूप आपको तपस्वी एवं सेवाभावी की उपाधि से अलंकृत किया गया । गुरुदेवश्री का वियोग : चातुर्मास काल व्यतीत हो चुका था । पू. गुरुदेव आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. अपने शिष्य परिवार के साथ राजगढ़ (धार) में विराजमान थे । मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. भी उनकी सेवामें ही थे । इस समय पू. गुरुदेव का स्वास्थ्य अस्वस्थ था । उनकी अस्वस्थता के समाचार चारों ओर प्रसारित हो गये थे । परिणाम स्वरूप निकटस्थ एवं दूरस्थ के ग्राम-नगरों से गुरु भक्तों का दर्शनार्थ सतत आवागमन बना हुआ था । पौष शुक्ला षष्ठी को गुरुदेव ने अपना अंतिम संदेश दिया । अपने शिष्य परिवार को अपना आशीर्वाद दिया । मुनिमण्डल की मुख मुद्रा पर चिंता की रेखायें खिंच गई किंतु आज तक मृत्यु को कौन टाल पाया है । जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु अटल है। टूटी की बूटी नहीं है । पू. गुरुदेव ने अंतिम सांस ली और इस प्रकार सभी मुनिराजों के साथ मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. को भी अपने जीवन निर्माता गुरुदेव का वियोग सहन करना पड़ा । पौष शुक्ला सप्तमी वि.सं. 1963 को गुरुदेव का अंतिम संस्कार किया गया । गुरुदेव के स्वर्गगमन से सर्वत्र शोक की लहर व्याप्त हो गई। पू. गुरुदेव आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के देवलोकगमन के पश्चात् वि. सं. 1964 वैशाख शुक्ला तृतीया के दिन मुनिराज श्री धनविजय जी म.सा. को आचार्य पद से अलंकृत किया गया । स्मरण रहे वैशाख शुक्ला तृतीया का यही दिन हमारे चरित्रनायक का जन्म दिन भी है । उनके बीसवें जन्म दिन पर उन्हें दूसरे आचार्यदेव का सान्निध्य मिला। वि. सं. 1964 से वि. सं. 1977 तक कुल चौदह वर्ष तक मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. पू. आचार्य श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के सान्निध्य में रहे । इन चौदह वर्षों में आपने आचार्यदेव की अपूर्व सेवाभक्ति का लाभ लिया और अपने मनोबल में अपूर्व वृद्धि कर वचनसिद्धि का वैशिष्ट्य प्राप्त किया । आचार्यश्री धनचन्द्र सूरि का वियोग : चातुर्मास काल में आचार्य श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी म. बागरा जिला जालोर में अपने शिष्यों सहित विराजमान थे । उत्तरोत्तर धर्म की वृद्धि हो रही थी । पर्युषण पर्व के अवसर पर आचार्य भगवन ने संकेत कर दिया कि वे सांवत्सरिक प्रतिक्रमण नहीं कर पायेंगे । श्री महावीर जन्म वाचन का दिन आया और उसी दिन आचार्य श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी म. का स्वर्गगमन हो गया । सर्वत्रशोक व्याप्त हो गया । हमारे चरित्रनायक मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. ने आचार्यश्री की सेवाभक्ति का अपूर्व लाभ लिया । जो सेवा आपने की वह अनुपम थी । हमारे चरित्रनायक के सिर से दूसरे आचार्य भगवन का छत्र उठ गया । हेमेन्द्रर ज्योति* हेमेन्द्रज्योति 20 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति jameligio Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था तीसरे आचार्य : आचार्य श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी म. के पाट पर मुनिराज श्री दीपविजयजी म. को प्रतिष्ठित कर आचार्यपद से अलंकृत किया और उनका नाम आचार्य श्रीमद्विजय भूपेन्द्रसूरि रखा गया । मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म. को उपाध्याय पद प्रदान किया गया । हमारे चरित्र नायक मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. को बारह वर्ष तक आचार्यदेव श्रीमद विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी म. का सान्निध्य मिला । वि.सं. 1991 में अहमदाबाद में हुए मुनि सम्मेलन में आचार्य भगवन के साथ मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. रहे । आचार्य भगवन की आज्ञा से मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. मुनिराज श्री वल्लभविजयजी म. के साथ मन्दसौर पधारे और यहां वैशाख शुक्ला दसमी वि.सं. 1991 को समारोहपूर्वक प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई । इसी बीच आचार्य भगवन की अस्वस्थता के समाचार मिलने पर आप आचार्यश्री की सेवा में पहुंचे और वि. सं. 1991 का वर्षावास आचार्यश्री के साथ ही व्यतीत किया । आचार्यश्री का स्वास्थ्य इन दिनों अस्वस्थ ही बना रहता था । मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. उनकी सेवा में लगे रहते । अंततः काल ने अपना प्रभाव दिखाया और एक दिन आचार्य श्रीमद विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी म. को ले ही गया । आचार्य श्री के निधन से सर्वत्र शोक की लहर छा गई । इस प्रकार मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. को अपने जीवन काल में तीसरे आचार्यदेव का वियोग सहन करता पड़ा। । । चौथे आचार्य : आचार्य श्रीमदविजय भूपेन्द्र सूरिजी म. के देवलोक गमन के पश्चात उनके पाट पर उपाध्याय श्री यतीन्द्र विजयजी म. को प्रतिष्ठित का आचार्यपद से अलंकृत किया गया । मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. को चौथे आचार्यदेव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का सान्निध्य प्राप्त हुआ । मुनिराज श्री गुलाबविजयजी म. को उपाध्याय पद प्रदान किया गया । आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की आज्ञा से मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. अलग से विहार कर विचरण करने लगे । अलग विहार करने पर मुनिराज श्री वल्लभविजयजी म. और मुनिराज श्री चारित्रविजयजी म. आपके साथ रहे । आपने थराद की ओर विहार किया । थराद में : थराद उत्तर गुजरात क्षेत्र में जैन धर्मावलम्बियों का अच्छा केन्द्र माना जाता है । यहां के गुरुभक्तों को जब विदित हुआ कि मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. आदि यहां पधार रहे हैं, तो वे अधीरता से उनकी प्रतीक्षा करने लगे। आपके आगमन पर धूमधाम से आपका नगर प्रवेश करवाया । इस अवसर पर विशाल वरघोड़ा भी निकाला गया। आपका थराद का कार्यक्रम ऐतिहासिक रहा । मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. ने यहां सुतार शेरी में प्रतिष्ठा कार्य भी सम्पन्न कराया । आपने अपने साथी मुनियों के साथ वर्ष वि.सं. 1994 का चातुर्मास थराद में ही व्यतीत किया । चातुर्मास समाप्ति के पश्चात ग्रामानुग्राम विहार करते हुए आप डुबा अमीझरा पार्श्वनाथ भगवान के दर्शनार्थ पधारे । यहां आपके पावन सान्निध्य में अट्ठाई महोत्सव का आयोजन किया गया तथा दण्ड ध्वज एवं कलशारोपण जैसे मांगलिक कार्य भी सम्पन्न हुए । मतभेद निवारण : विभिन्न क्षेत्रों में विचरण करते हुए मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. मोरसीम पधारे । यहां के संघ में मतभेद था। मतैक्य के अभाव में संघ को हानि हो रही थी । कुशाग्र बुद्धि के स्वामी मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. ने सम्पूर्ण परिस्थिति को अच्छी प्रकार समझ कर दोनों पक्षों को एकता का महत्व बताते हुए उनके मतभेदों का निवारण किया। आपकी समझाईश पर दोनों पक्ष एक हो गये और मतभेद समाप्त हो गये । वर्षों के बाद यहां एकता स्थापित हुआ। हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 21 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्ट ज्योति स hoto Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री राष्ट्रसंत शिरामणि भिनंदन था। बात वि.सं. 1995 की है और यह चातुर्मास आपका मोरसीम में ही सम्पन्न हुआ । चातुर्मास काल में तपश्चर्याओं की धूममची रही। अच्छी धर्म प्रभावना हुई । इस चातुर्मास के उपलक्ष्य में श्री मोरसीम हर्ष प्रकाश' नामक पुस्तक का प्रकाशन भी हुआ । थराद चातुर्मास एवं उपधान : वि.सं. 1996 का चातुर्मास आपका थराद मे विभिन्न धार्मिक क्रियाओं के साथ सम्पन्न हुआ । यही उपधान तप भी आपके सान्निध्य में सम्पन्न हुआ । चातुर्मास सम्पन्न हुआ और मोवड़िओं की विनती स्वीकार कर वहां नव पद ओली जी की आराधना करवाने के लिये आपने स्वीकृति दी साथ ही आपने वहां वैशाख शुक्ला दसमी को प्रतिष्ठा भी सम्पन्न करवाई। कुआ पानी से भर गया : मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. के पावन सान्निध्य में वासणा में प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई । यहां एक चमत्कार घटित हुआ । प्रतिष्ठा महोत्सव के अवसर पर यहां पेयजल का अभाव सा हो गया था । कुए में पानी नहीं के बराबर था। जल तो जीवन है । पानी के अभाव में कोई भी कार्य कर पाना सम्भव नहीं होता है । करें तो क्या करें । वासणा संघ चिंतित था । मुनिराज श्री हर्षविजयजी के सम्मुख बैठे संघ के सदस्य पानी की समस्या पर घुसुर पुसुर कर रहे थे । संघ प्रमुख की मुखमुद्रा पर चिंता की रेखायें खिंची हुई थी । ऐसी स्थिति देखकर मुनिराज ने पूछा-"आप किस बात की चिंता कर रहे हैं ? क्या बात है?" "बावजी ! कुए में पानी समाप्त हो गया है । पानी के बिना क्या होगा? बस यही चिंता है ।" "सब ठीक हो जायेगा । तुम चिंता मत करो ।" वचन सिद्ध मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. ने फरमाया । इसके पश्चात् मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. सबके साथ उस कुए पर आए । वहां जल देवी का स्मरण किया और कुए के अन्दर पवित्र जल का छिड़काव किया । सबके देखते देखते एक चमत्कार हो गया । कुए के मध्य झरण फूट पड़ी। पानी की धार निकल पड़ी और कुआ पानी से भराने लगा । यह देखकर सब उपस्थित व्यक्ति जय जयकार कर उठे । फिर तो प्रतिष्ठा महोत्सव उत्साहपूर्वक सानन्द सम्पन्न हुआ । वि. सं. 1997 का चातुर्मास थराद में और वि. सं. 1998 का चातुर्मास वासणा में सम्पन्न किया । भीनमाल में दीक्षोत्सव : चातुर्मास की समाप्ति के पश्चात् आपने भीनमाल की ओर विहार किया । स्मरण रहे कि भीनमाल निवासी श्री थीरपाल धरू ने थीरपुर नगर अर्थात् वर्तमान थराद की स्थापना की थी । इस सम्बन्ध में कहा जाता है - भीनमाल नगर को छोड़ के, पश्चिम गये परमार | संवत एक सौ एक में वस्यो शहर थराद || भीनमाल एक ऐतिहासिक नगर है । यहां जैनधर्म का अच्छा प्रभाव रहा है । इस सम्बन्ध में यहां लिखना कुछ अप्रासंगिक प्रतीत होता है । भीनमाल संघ की विनती को मान देकर आपने वि.सं. 1999 के चातुर्मास की स्वीकृति प्रदान कर दी । भीनमाल नगर में आपका प्रवेश समारोहपूर्वक हो चुका था । यहीं पर आपके साथ रह रहे वैराग्यमूर्ति श्री पूनमचंद (अथार्त-मेरा) का दीक्षोत्सव आषाढ़ शुक्ला दूज वि.सं. 1999 को सम्पन्न हुआ । इस प्रकार वर्षों से हृदय में जो वैराग्य भाव पल रहे थे वे गुरुदेव पूज्य मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. के करकमलों से भीनमाल में फलीभूत हुए । नवदीक्षित मुनि का नाम रखा गया मुनिश्री हेमेन्द्र विजयजी म. और उन्हें मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. का शिष्य घोषित किया गया । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 22 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरामणि अभिनंदन गंथ मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. ने भीनमाल चातुर्मास मुनिराज श्रीललितविजयजी म. एवं मुनिराज श्री हेमेन्द्रविजयजी म. के साथ विविध धार्मिक कार्यक्रमों के साथ सम्पन्न किया । चातुर्मास समाप्ति के पश्चात् आपने यहां से विहार कर दिया और विभिन्न क्षेत्रों में धर्म प्रभावना करते रहे । सं. 2000 का वर्षावास आपने मारवाड़ के मंडवारिया में सम्पन्न किया । वर्षावास के पश्चात् विहार कर थराद क्षेत्र में पधारे और वहां लोवाणा में प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई । सं. 2001 का चातुर्मास आपने थराद में सम्पन्न कर धर्म की गंगा प्रवाहित की । चातुर्मास के पश्चात् श्री ऋषभदेव भगवान की प्रतिष्ठा का मुहूर्त प्रदान किया । आपने अपने उपदेश से थराद में पू. स्व. गुरुदेव आचार्य श्रीमद विजय राजेन्द्र सूरीजी म., पू. स्व. आचार्य श्रीमद विजय धनचंद्र सूरिजी म. एवं पू. स्व. आचार्य श्रीमद विजय भूपेन्द्र सूरिजी म. की प्रतिमाओं की स्थापना करवा कर गुरुमंदिर बनवाने की प्रेरणा प्रदान की । संघ ने आपकी आज्ञा स्वीकार कर गुरुमंदिर बनवाना मान लिया । और फाल्गुन शुक्ला पंचमी सं. 2002 को समारोह पूर्वक तीनों गुरुदेवों की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई । इसी प्रकार आपके सान्निध्य में थराद में श्री ऋषभदेव भगवान की प्रतिमा की भी महोत्सवपूर्वक प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई । वर्षीतप का पारणा वैशाख 3 : थराद का प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न होने के पश्चात मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. ने मुनिराज श्री ललितविजयजी म. एवं श्री मुनिराज श्री हेमेन्द्रविजयजी म. के साथ सिद्धाचल की ओर विहार किया । तीर्थाधिराज शत्रुजय गिरिराज पधारने पर आप चम्पा निवास धर्मशाला में पधारे, जहां गुरुदेव विराजमान थे । यहां मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. ने वर्षीतप का पारणा कर अपना 59वां जन्म दिवस अमर बनाया । सं. 2003 का चातुर्मास आपने अपने शिष्यों सहित यही पर व्यतीत किया । आपके पावन सान्निध्य में अनेक श्रावक श्राविकाओं ने चातुर्मासिक धर्माराधना की । आचार्यश्री की सेवा में : सं. 2004 का चातुर्मास आचार्यदेवेश श्रीमदविजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का थराद में स्वीकृत हो चुका था। आचार्य भगवन का स्वास्थ्य कुछ अस्वस्थ चल रहा था । एक दिन उनका स्वास्थ्य कुछ अधिक ही अस्वस्थ हो गया। आचार्यश्री की अस्वस्थता की सूचना पालीताणा में विराजित मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. को दी गई। मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. को तीन तीन आचार्यदेवों की सेवा का लाभ मिल चुका था । आचार्य भगवन की अस्वस्थता की सूचना मिलते ही मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. उग्रविहार कर पालीताणा से थराद पू. आचार्य भगवन श्रीमदविजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म. की सेवा में पधार गये । सं. 2004 का चातुर्मास आपने आचार्य भगवन के सान्निध्य में किया। आपने आचार्य भगवन की सेवा का अच्छा लाभ लिया । जब तक आचार्यश्री स्वस्थ नहीं हो गये तब तक आप बराबर उनके समीप तत्पर बने रहे । वे आचार्य के साथ ही ज्येष्ठ गुरुभ्राता भी थे। विहार एवं प्रतिष्ठाएं : आचार्य श्रीमदविजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म. की आज्ञा से चातुर्मास पश्चात सं. 2005 मगसर शुक्ला दशमी को पीलुडा प्रतिष्ठा आपने सानंद प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई । पीलुड़ा में प्रतिष्ठा करवा कर आप नैनावा पधारे और माघ शुक्ला पंचमी को प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई । सं 2005 का चातुर्मास मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. ने मुनिराज श्री हेमेन्द्रविजयजी म. मुनिराज श्री विमलविजयजी म. एवं मुनिराज श्री रसिकविजयजी म. के साथ आहोर में सम्पन्न किया । सं. 2006 का चातुर्मास भीनमाल में सम्पन्न कर सं. 2007 माघ शुक्ला त्रयोदशी को दासप्पा में प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई । वहां से भीनमाल पधारे और फिर कागमाला पधार कर जिनेश्वर भगवान की पांच प्रतिमाओं की समारोहपूर्वक प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई। हेमेन्द्रज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 23 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सं. 2008 का चातुर्मास भीनमाल में किया और यहां वर्षों से चले आ रहे संघ के मतभेद दूर कर संघ में एकता स्थापित की । सं. 2009 का चातुर्मास भी भीनमाल में ही सम्पन्न किया । सं. 2010 का चातुर्मास मुनिराज श्री हेमेन्द्र विजयजी म. की जन्मभूमि बागरा में करने की स्वीकृति प्रदान की। यथा समय चातुर्मास के लिये मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. अपने शिष्यों के साथ बागरा पधारे। समारोहपूर्वक आपका नगर प्रवेश हुआ । चातुर्मास के उपरान्त आपने बागरा से विहार कर दिया और गुमानुग्राम विहार करते हुए आप थराद पधारे, जहां आपके पावन सान्निध्य में उपधान तप की आराधना सम्पन्न सं 2012 का चातुर्मास ग्राम लुवाणा में अपूर्व धर्माराधना के साथ सानन्द सम्पन्न किया। इस समय मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. का स्वास्थ्य कुछ अस्वस्थ दिखाई दे रहा था । थराद श्री संघ की हार्दिक इच्छा थी कि मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. थराद में स्थिरता रखे । थराद श्रीसंघ की विनती को मान देकर आपने थराद की ओर विहार कर दिया। | देह तो नश्वर होती है । इसका कोई विश्वास नहीं कि कब विनाश को प्राप्त हो जावे । मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. की देह दिन प्रतिदिन क्षीण होती जा रही थी । मृत्यु का कोई भरोसा नहीं कि कब आजावे । सामान्य व्यक्ति तो मृत्यु से भयभीत हो जाता है किंतु जो ज्ञानी होता है, योगी होता है, वह प्रसन्नता पूर्वक मृत्यु का स्वागत करता है । गुरूदेव का वियोग : मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. सा. ज्ञानी थे, योगी थे, तपस्वी थे। उन्हें अपनी मृत्यु का कोई भय नहीं था । उन्हें अपने अंतिम समय का अहसास हो गया और वे मृत्यु का स्वागत करने की तैयारी में लग गये । आप थराद पधार चुके थे । आपकी अस्वस्थता के समाचार चारों ओर प्रसारित हो चुके थे । फलस्वरूप समीपस्थ ग्राम नगरों के साथ ही अहमदाबाद, मुम्बई, मध्यप्रदेश, मारवाड़ आदि के विभिन्न ग्राम नगरों के गुरुभक्त उनके अंतिम दर्शनों के लिये आ रहे थे । सं. 2013 ज्येष्ठ कृष्णा नवमी तदनुसार दिनांक 21-6-1957 को मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. का स्वर्गवास हो गया। आपके स्वर्गवास से आपके शिष्यों तथा गुरुभक्तों में शोक की लहर फैल गई । एक तपस्वीरत्न को समाज का वियोग हो गया । विशेष : पू. मुनिराज श्री हर्षवियिजी म.सा. के कर कमलों से मुनिराज श्री हेमेन्द्रविजयजी म. के अतिरिक्त निम्नांकित पुण्यवानों ने भी दीक्षा व्रत अंगीकार किया था - 1. मुनिराज श्री विमलविजयजी 2. मुनिराज श्री नीतिविजयजी म. 3. साध्वीजी श्री हीराश्रीजी म. 4. साध्वीजी श्री भुवनप्रभाजी म. 5. साध्वी श्री दर्शनश्रीजी 6. साध्वी मनरंजन श्रीजी 7. साध्वी लब्धिश्रीजी in Education internal हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 24 हेमेन्द्र ज्योति ज्योति amelibre/19 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म. : संक्षिप्त जीवन परिचय - मुनि प्रीतेशचन्द्रविजय - मुनि चन्द्रयशविजय राजस्थान अपनी अनेक विशेषताओं के लिये विश्व विख्यात है । राजस्थान के ग्राम-नगर तथा क्षेत्रों की भी अपनी अलग अलग विशेषताएं है और उन विशेषताओं के कारण उनकी विशिष्ट पहचान है | राजस्थान में जहां शूरवीरों का बाहुल्य रहा है, वहीं दानवीरों की भी कमी नहीं रही है । इसके साथ ही यहां तपवीर, धर्मवीर, क्षमावीर आदि भी हुए जिन्होंने इस प्रदेश को गौरवान्वित ही किया । यहां यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि इस प्रदेश की शीलवती नारियों ने भी प्रदेश के गौरव में चारचांद लगाये हैं । राजस्थान में जहां भक्तिरस की गांगा बही वहीं राजनीतिक उथल-पुथल भी रही । एक ही प्रदेश पर सत्ता परिवर्तन के कारण अनिश्चितता एवं असुरक्षा के वातावरण ने लोगों को पलायन करने के लिये बाध्य कर दिया, तो कुछ समय की प्रतीक्षा कर संकट समाप्त होने तक मौन साधे वहीं बने रहे । इस प्रकार के उतार चढ़ाव राजस्थान के जालोर जिले में भी आए । एक समय तो ऐसा भी आया कि जैन मंदिरों पर शासन ने अपना अधिकार जमा लिया और उसे शस्त्रागार बना दिया । जालोर की यही स्थिति थी । विश्ववंद्य श्रीमज्जैनाचार्य गुरुदेव श्रीमदविजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के सदप्रयासों से इस स्थिति का निराकरण हुआ और फिर उनके द्वारा जैन मंदिर का उद्धार हुआ। आज जालोर दुर्ग स्थित जिनालय तीर्थ स्थान का स्वरूप ग्रहण कर चुके हैं । उसी जालोर जिले में एक कस्बाई ग्राम है बागरा । बागरा में जैन मतावलम्बी तो अच्छी संख्या में निवास करते ही है, यहां जैनधर्म की स्थिति भी काफी अच्छी रही है । यहां के जैन धर्मावलम्बियों की श्रद्धाभक्ति को ध्यान में रखते हुए समय समय पर जैनाचार्यो, जैनमुनियों, जैन साध्वियों का सतत् आवागमन बना रहता था और आज भी यही स्थिति है । यहां अनेक मूर्धन्य जैनाचार्यों, जैन मुनियों और जैन साध्वियों ने वर्षावास कर इस अवधि में धर्म की गंगा प्रवाहित ही है । इसके अतिरिक्त यहां समय समय पर अनेक महत्वपूर्ण कार्यक्रम भी सम्पन्न हुए हैं। यहां का श्रावक वर्ग भी काफी समृद्ध हैं । बागरा पर आचार्य भगवंत श्रीमद विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की विशेष कृपा थी तभी तो उन्होंने यहां तीन वर्षाकाल किये । उनकी कृपा से यहां जैन गुरुकुल की स्थापना भी हुई थी और उन्होंने यहां उपधान तप भी करवाया था। यहां के जैन मंदिर प्राचीन है तथा दर्शनीय भी हैं | बागरा गांव का बाह्य प्राकृति दृश्य भी मनमोहक है । बागरा गांव जालोर से भीनमाल जाने वाले मार्ग पर स्थित है । यहां रेल सुविधा भी है । रेलवे स्टेशन बागरा रोड समीप ही है और उससे अहमदाबाद तथा जोधपुर तक पहुंचा जा सकता है । सड़क यातायात के माध्यम से भी बागरा मुख्य मार्ग पर स्थित होने के कारण मुख्य नगरों से जुड़ा हुआ है । यही बागरा हमारे चरितनायक राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का जन्म स्थान है । यह बागरा मारवाड़ के नाम से प्रख्यात है । परिवार प्रशस्ति : जालोर जिलान्तर्गत इस बागरा गांव में एक पोरवाल जाति का परिवार रहता था । पोरवाल जाति हमारे देश की जातियों में अपना प्रमुख स्थान रखती है । इस जाति की उत्पत्ति ईसा की आठवीं शताब्दी के लगभग मानी जाती है । जैनाचार्य श्री स्वयंप्रभ सूरि से प्रतिबोध पाकर इस जाति की उत्पत्ति हुई । इस जाति में जैनधर्मावलम्बी एवं वैष्णव धर्मावलम्बी दोनों ही पाये जाते हैं । बागरा में निवास कर रहे पोरवाल परिवार के मुखिया श्रीमान् ज्ञानचन्दजी थे । श्रीमान ज्ञानचन्दजी के दो पत्नियां थी। पहली पत्नी का नाम सौ. उज्जमदेवी तथा दूसरी पत्नी का नाम सौ. कंकूबाई था । इस दम्पती के दो पुत्र घेवरचंद एवं पूनमचंद तथा पांच पुत्रियां 1. मुनिबाई 2. लहेरीबाई 3. जड़ावीबाई 4. मोहिनीबाई और 5. शांताबाई थी। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 25 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति amalnuTE www.dainelibrary ore Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ श्रीमान ज्ञानचन्दजी का सोनेचांदी का व्यापार था। इस परिवार का कपड़े का भी मुख्य व्यवसाय था। कपड़े का व्यवसाय बीजापुर के समीप बागेवाडी (कर्नाटक) में था । इससे हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि श्रीमान् ज्ञानचन्दजी का परिवार आर्थिक दृष्टि से काफी समृद्ध था और परिवार में किसी भी प्रकार का अभाव नहीं था । जाति एवं गोत्र : श्रीमान ज्ञानचन्दजी की जाति के सम्बन्ध में हम ऊपर उल्लेख कर ही चुके हैं कि वे पोरवाल जाति के थे। उनका गोत्र लाम्ब गोत्र चौहाण है । इससे यह आभासित होता है कि उनकी उत्पत्ति क्षत्रिय कुल से हुई। इस परिवार में उपनाम तराणी भी लगाया जाता है। तराणी की उत्पत्ति का कोई विवरण हमें नहीं मिलता है । इसलिये इस सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है । पोरवाल जाति के जितने भी गोत्र मिलते हैं, उनमें से किसी की भी उत्पत्ति का विवरण नहीं मिलता है किंतु एक बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि पोरवाल जाति की उत्पत्ति ब्राह्मण एवं क्षत्रिय कुलों से हुई है । जन्म : वैसे तो श्रीमान ज्ञानचन्दजी का परिवार भरा पूरा था । उन दिनों अधिक सन्तानों का होना बुरा नहीं माना जाता था वरन गौरव की बात मानी जाती थी । श्रीमान् ज्ञानचन्दजी के दो पत्नियां थी। ज्येष्ठ पत्नी पतिपरायणा और धर्मपरायणा श्रीमती उज्जमदेवी थी । श्रीमती उज्जमदेवी पतिव्रता नारी होने के साथ ही साथ सरल स्वभावी उदार हृदया एवं मिलनसार प्रकृति की भद्र महिला थी। परिवार को एक सूत्र में बांधे रखना उनका प्रमुख ध्येय था। संयोग से श्रीमती उज्जमदेवी के गर्भ के लक्षण प्रकट हुए । जब यह बात श्रीमान ज्ञानचन्दजी तथा परिवार के अन्य सदस्यों को ज्ञात हुई तो उनके हर्ष की सीमा न रही। श्रीमती उज्जमदेवी सावधानी पूर्वक गर्म का पालन करने लगी । इस अवधि में श्रीमती उज्जमदेवी को विभिन्न वस्तुएं खाने की इच्छा होती, कुछ वस्तुएं तो तत्काल उपलब्ध हों जाती किंतु जो वस्तुएं बागरा जैसे गांव में नहीं मिलती उन्हें प्राप्त करने के लिए श्रीमान ज्ञानचन्दजी को विशेष प्रयास करने होते। कभी कभी श्री उज्जमदेवी का मन भ्रमण करने का भी करता । वह चाहती कि गांव के बाहर खुले में स्वछन्द होकर विचरण करूं। यद्यपि उन दिनों महिलाओं का इस प्रकार विचरण करना विशेष प्रचलन में नहीं था और ऐसा अच्छा भी नहीं माना जाता था किंतु फिर भी श्रीमान ज्ञानचन्दजी अपनी पत्नी की भावना को समझते हुए किसी न किसी प्रकार का कोई उपाय कर भ्रमणार्थ निकल ही पड़ते । श्रीमान ज्ञानचन्दजी अच्छी प्रकार जानते थे कि उनकी पत्नी की ये भावनाएं गर्भस्थ शिशु के कारण उत्पन्न हो रही है । 77 22 गर्भकाल की अवधि में श्रीमती उज्जमदेवी के हृदय में प्राणिमात्र के लिए दया के भाव उमड़ते थे । वे पशुओं को घास आदि डलवाती पक्षियों के लिए अनाज तो वे स्वयं एक निर्धारित स्थान पर डालती थी। कई बार उनकी इच्छा तीर्थायात्रा की भी होती। समीपस्थ तीर्थ स्थान जालोरगढ़ के दर्शन तो उन्हें सरलता से हो जाते थे । गुरु भगवंतों के प्रवचन श्रवण करने की भावना भी उत्पन्न होती, जिसे पूरा कर दिया जाता। यह तो संयोग ही था कि बागरा में जैन साधु-साध्वियों का आवागमन बना रहता। वर्षावास भी होता ही था । यदि कभी बागरा में किसी साधु-साध्वी का वर्षावास न भी होता तो समीपस्थ ग्राम या नगर में वर्षावास होता, तब उनके प्रवचन पीयूष का पान करना कठिन नहीं होता । कहने का तात्पर्य यह कि गर्भकाल में श्रीमती उज्जमदेवी की प्रत्येक इच्छा की पूर्ति श्रीमान् ज्ञान्चन्दजी द्वारा की गई । समय के प्रवाह के साथ गर्भकाल पूर्ण हुआ और माघ कृष्णा चतुर्थी विक्रम संवत 1975 के शुभ दिन श्रीमती उज्जमदेवी की पावन कुक्षि से एक सुकुमार सुकोमल, सलोने सुन्दर पुत्ररत्न का जन्म हुआ । पुत्ररत्न के जन्म से सारे परिवार में असीम हर्ष और आनन्द छा गया । तत्काल वाद्य-यंत्र बज उठे । नारी कंठों से पुत्र जन्म की बधाई के स्वरवाले गीत गूंज उठे। आस-पड़ोस में रहने वाले लोगों ने तथा मित्रों ने श्रीमान ज्ञानचन्दजी को पुत्ररत्न के जन्म की हार्दिक बधाइयां दी । इस अवसर पर श्रीमान ज्ञान्चन्दजी ने हृदय खोलकर मिठाई का वितरण करवाया। हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 26 Botez Geifel at hoe ochta jairiel ore Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जब बालक के नामकरण का समय आया तो श्रीमान ज्ञानचन्दजीने अपने परिजनों से परामर्श किया और सबके परामर्श से सद्य प्रसूत पुत्ररत्न का नाम पूनमचंद रखा गया। वास्तव में यह पुत्ररत्न परिवार में पूनम के चांद की भांति ही था। इस पुत्र के जन्म से परिवार में जिस प्रसन्नता और शांति का अनुभव किया गया, उसका वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है। यह तो गूंगे के द्वारा गुड खाने के समान हैं । समय की गति के साथ बालक पूनमचंद चन्द्रमा की कला की भांति बड़ा होने लगा । उसकी किलकारियों से घर आंगन गूंज उठा । वह अपनी बाल सुलभ क्रीड़ाओं से परिवार के सभी सदस्यों को मंत्र मुग्ध करने लगा । बालक पूनमचंद को अपनी गोद में लेने उसे खिलाने की होड़ सी रहती थी । अड़ोस पड़ोस के किशोर तथा स्त्रियां भी उसेलेकर आनन्द का अनुभव करते। जब वह कुछ बड़ा हुआ और पांव पांव चलने लगा तो वह घर में कम पडोसियों के यहां अधिक रहने लगा । बाल क्रीड़ाओं में पांच छः वर्ष किधर व्यतीत हो गये किसी को अहसास ही नहीं हुआ । भविष्यवाणी : बालक पूनमचंद की शिक्षा आरम्भ हो गई । आवश्यक व्यावहारिक शिक्षण उसने प्राप्त किया । इसी बीच एक पड़ोसी ने विचित्र भविष्यवाणी कर दी । उसकी भविष्यवाणी से परिवार में चिंता की रेखायें खिंच गई । हुआ यों कि वह पड़ोसी एक समय श्रीमान ज्ञानचन्दजी के पास बैठा बतिया रहा था। इसी समय बालक पूनमचंद भी अपने पिता के समीप किसी कार्य से आया । पड़ोसी ने पूनमचंद को देखा । उसके ललाट पर उसकी दृष्टि पड़ी और वह पड़ोसी चिंतन के सागर में डूब गया । पूनमचंद वहां से चला गया । श्रीमान ज्ञानचन्दजी ने अपने पड़ोसी को चिंतन मुद्रा में देखा तो सहज ही पूछ लिया "अरे, आप कहां खो गये? क्या बात है ? "हां, हां ! आप क्या कह रहे थे ?" पड़ोसी का चिंतन भंग हुआ और पूछा । "मैं कह रहा था कि आप किस चिंता में डूब गये थे?" श्रीमान ज्ञानचन्दजी पूछा । "चिंता नहीं, चिंतन कहो ।" पड़ोसी ने कहा । "ठीक है चिंतन ही सही । यह बताओ कि बात क्या थी ?" श्रीमान ज्ञानचन्दजी ने कहा । "आपके पुत्र को देखकर मैं चिंतन में डूब गया था ।" पड़ोसी ने कहा । "क्यों ? क्या बात देखी आपने मेरे पुत्र में? बताइये ।" श्रीमान ज्ञानचन्दजी ने पूछा । "मैं जो कुछ भी कहूं उसका आप बुरा मत मानना । मैं आपके पुत्र के ललाट जो देखकर भविष्य की बात कर रहा हूं।" पड़ोसी ने कहा । "आप बतावें तो सही । उसमें बुरा मानने की बात ही कहां है ।" श्रीमान ज्ञानचन्दजी ने कहा । "पूनमचंद के ललाट को मैंने आज ध्यान से देखा है। उसके आधार पर मैं यह कह सकता हूं कि आपका यह पुत्र अधिक समय तक गृहस्थी में नहीं रहेगा। यह दीक्षा व्रत लेकर जैन शासन का नायक बनेगा ।" पड़ोसी ने बताया । "ओह ! यह बात है । मैं तो कुछ और ही समझ रहा था ।" श्रीमान ज्ञानचन्दजी ने कहा कुछ क्षण मौन रहकर उन्होंने कहा- "मैं ऐसा प्रयास करूंगा कि पूनमचंद पर जैन साधु साध्वियों की परछाई तक नहीं पड़े, फिर यह किस प्रकार दीक्षा ले पायेगा। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी ।” "आप चाहे जितने और जैसे उपाय कर लेना, मेरा दृढ़ विश्वास है कि पूनमचंद जैन शासन का नायक अवश्य बनेगा।" पड़ोसी ने कहा और फिर वह अपने घर चला गया । इन दोनों के बीच हो रही चर्चा का कुछ अंश श्रीमती उज्जमदेवी तथा परिवार के अन्य सदस्यों ने भी सुना । पड़ोसी के चले जाने के पश्चात् श्रीमान ज्ञानचन्दजी से परिवार के लोगों ने सब कुछ जानना चाहा । जैसा पड़ोसी ने कहा था वही उन्होंने दोहरा दिया । इस भविष्यवाणी को सुनकर परिवार में एक नई चिंता व्याप्त हो गई । अब हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 27 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन गंथा माता पिता पूनमचंद को साधु साध्वियों की संगति से दूर ही रखते । उनका प्रयास यही रहता कि पूनमचंद उनका लाड़ला बेटा किसी भी स्थिति में साधु-साध्वियों के सम्पर्क में नहीं आने पावे । इधर पूनमचंद का शिक्षण चल रहा था और उसकी रूचि धर्म के प्रति विशेष रूप से उत्पन्न हो गई । अब वह धार्मिक कार्यों में अधिक रूचि लेने लगा। उसे सांसारिक कार्यों के प्रति अलगाव सा होने लगा । माता-पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों के मानस पटल पर पड़ोसी द्वारा की गई भविष्यवाणी का गहरा प्रभाव था। इस कारण वे पूनमचंद के अपने प्रतिबंध में रखने का प्रयास करते । यह कटु सत्य है कि जिसे जितना नियंत्रण में रखा जाता है वह उतना ही स्वतंत्र रहने का प्रयास करता है । पूनमचंद को साधु-साध्वियों की संगति से जितना दूर रखने का प्रयास किया गया, उसकी उत्कंठा उतनी ही उनके दर्शन प्रवचन श्रवण की ओर होने लगी । अब तक पूनमचंद लगभग पन्द्रह वर्ष का हो गया था । इस आयु में किशोर बालक काफी कुछ सोचने-समझने लगता है तथा अपने हित अहित के विषय में कुछ निर्णय करने की भी सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है । आचार्यदवेश के उपदेशों का प्रभाव : जैसा कि हम पहले स्पष्ट कर चुके हैं कि बागरा में जैनाचार्य, मुनिराजों एवं जैन साध्वियों का आवागमन सदैव होता रहता था और यहां जिनवाणी की पावन गंगा सतत् प्रवहमान बनी रहती थी। श्रद्धालु श्रावक-श्राविकायें उनके प्रवचन पीयूष का पान कर अपने आपको धन्य मानते थे । उन्हें धन्य मानना भी चाहिये। कारण कि यहां प्यासों के पास कुआ स्वयं चलकर आता था । अन्यथा प्रायः प्यासा ही कुएं के समीप जाता है । इसी अनुक्रम में एक बार आचार्य देवेश श्रीमद विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. अपने शिष्य परिवार सहित बागरा पधारे। उनके बागरा पधारने के साथ ही प्रवचन गंगा प्रवाहित होने लगी और श्रद्धालु उसका रसपान करने लगे । उसे संयोग कहें अथवा होनहार कि एक दिन पूनमचंद ने भी आचार्य भगवंत के प्रवचन का रसास्वादन कर लिया । वैराग्य भाव से ओतप्रोत प्रवचन का पूनमचंद पर गहरा प्रभाव पड़ा । धर्म की ओर रूचि तो पूर्व में ही जागृत हो गई थी । अब जब आचार्य भगवंत का प्रवचन सुना तो पूनमचंद के मस्तिष्क में नाना प्रकार के विचार उत्पन्न होने लगे । कुछ ऐसे भी प्रश्न उत्पन्न होते जिनका समाधान उसके पास नहीं था । परिवार वाले उसकी उस स्थिति को देखकर कुछ चिंतित हुए किंतु वे वास्तविकता को समझ नहीं पाये । पूनमचंद मानव भव की सार्थकता पर भी विचार करने लगा । किशोर पूनमचंद को संतोषजनक समाधान नहीं मिल सका । पुनः प्रवचन श्रवण का अवसर मिला और उसे अपने मनुष्य जन्म को सार्थक करने का मार्ग मिल गया । उसने मन ही मन संकल्प कर लिया कि वह सांसारिक चक्कर में न पड़कर संयमव्रत अंगीकार करेगा। जिस समय पूनमचंद ने आचार्य भगवान के उपदेशों से प्रभावित होकर दीक्षाव्रत अंगीकार करने का संकल्प लिया उस समय उसकी आयु मात्र पन्द्रह वर्ष थी । अर्थात् यह बात वि.सं. 1990 की थी । आचार्य भगवन श्रीमदविजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. को भी पूनमचंदजी की भावना का पता चल गया और उन्होंने भी पूनमचंद को अपना आशीर्वाद प्रदान कर लिया । पूनमचंद के मस्तिष्क में वैराग्योत्पति के दृढ भाव उत्पन्न हो गये थे । उसने संयममार्ग पर चलने की अपनी भावना भी परिजनों के समक्ष अभिव्यक्त कर दी थी । उसके द्वारा जैसे ही यह भावना अभिव्यक्त की गई, परिवार में एक प्रकार से विस्फोट सा हो गया । उन्हें पड़ोसी द्वारा की गई भविष्य वाणी का स्मरण भी हो आया । अब माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों ने पूनमचंद पर अपने नियंत्रण और भी सख्त कर दिये । यहां यह उल्लेख करना भी प्रासंगिक ही होगा कि बिना परिवार की अनुमति के पूनमचंद दीक्षा व्रत अंगीकार नहीं कर सकता था । दीक्षा व्रत ग्रहण करने के पूर्व परिवार की अनुमति अनिवार्य होती है । अनुमति भले ही न मिली हो, परिवार की ओर से पूनमचंद के मार्ग में बाधायें उपस्थित की जाता रही हो, किंतु पूनमचंद अपने संकल्प के प्रति दृढ़ था । उसका वैराग्य रंग पक्का था । जब यहां वैराग्य की बात आई है तो प्रसंग वश वैराग्य की उत्पत्ति पर भी विचार करना प्रासंगिक ही होगा । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 28 हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्ध ज्योति NEducation informatiorials Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ यदि हम पूनमचंद के वैराग्योत्पति के कारण को देखते हैं तो पाते हैं कि उनका वैराग्य ज्ञानगर्भित वैराग्य है। कारण कि उनको जो वैराग्य भाव उत्पन्न हुए हैं, हो रहे हैं, वे ज्ञान के आधार पर हो रहे हैं । अपने ज्ञानचक्षु से अनुभव कर पूनमचंद अपने कदम आगे बढ़ा रहे हैं । किंतु उनका लक्ष्य आसान दिखाई नहीं दे रहा है । कारण परिवार द्वारा उनके मार्ग में विघ्न उत्पन्न किये जा रहे हैं । सबसे प्रमुख बात तो यह है कि जब तक परिवार की, माता-पिता की ओर से दीक्षाव्रत अंगीकार करने की अनुमति नहीं मिल जाती तब तक पूनमचंद संयम मार्ग नहीं अपना सकते । और माता पिता अनुमति देने के लिये तैयार नहीं है । दीक्षा में बाधा : वैराग्योत्पति के पश्चात दीक्षार्थी शीघ्रातिशीघ्र अपने गुरुदेव के चरणों में संयमव्रत अंगीकार कर समर्पित होना चाहता है, किंतु यह बात कहने में जितनी सरल लगती है, व्यावहारिक रूप में उतनी ही कठिन होती हैं । इसका कारण यह है कि दीक्षाव्रत अंगीकार करने के लिए परिवार की / माता-पिता की अनुमति अनिवार्य होती है । पूनमचंद की भावना तो दीक्षाव्रत अंगीकार करने की प्रबल थी किंतु परिवार की ओर से अनुमति नहीं मिल पा रही थी । इसके विपरीत उनके मार्ग में और भी समस्यायें खड़ी की जा रही थी । कभी तो पैतृक व्यवसाय का उत्तरदायित्व सम्हालने की बात होती कभी अध्ययन पूर्ण करने का बहाना होता । यहां यह बात विचारणीय है कि जब व्यक्ति आत्मकल्याण के मार्ग पर चलने का संकल्प ले लेता है, तो उसे सब कुछ व्यर्थ लगने लगता है । अपार सुख सम्पत्ति का लोभ भी उसे तृणवत लगता है । उसे तो बस केवल एक ही बात सत्य लगती है कि संयममार्ग अपना कर उस अमूल्य मानव भव को सार्थक करना । दीक्षाव्रत की यह भावना यथार्थ के धरातल पर सही होती है । वह संसार पंक में पड़कर अपना जीवन व्यर्थ गवांना नहीं चाहता । इसके विपरीत माता-पिता की अपनी आकांक्षाएं होती है । वे अपनी संतान को लेकर सपने संजोते रहते हैं। जब उनके स्वप्न इस प्रकार अनायास भंग होते दिखाई देते हैं तो वे येनकेन प्रकारेण अपने पुत्र को संयम मार्ग पर चलने से रोकने का प्रयास करते हैं । यद्यपि वे इस तथ्य से भली भांति परिचित रहते हैं कि उनका पुत्र जिस राह पर चलना चाहता है वह मार्ग सही है परम सुख प्रदान करने वाला है किंतु मोह/ममत्व के कारण वे उसे अनुमति नहीं देते हैं । दीक्षा के मार्ग में कुछ अन्य बाधायें भी होती हैं जैसे अल्पायु का होना, पागल होना आदि। ये समस्या पूनमचंद के प्रकरण में नहीं थी । वय के दृष्टि से कोई बाधा नहीं थी । अन्य और कोई समस्या नहीं थी । केवल माता-पिता की ओर से अनुमति मिलने की समस्या थी । माता-पिता और पूनमचंद दोनों में एक प्रकार से प्रतियोगिता सी हो गई । माता-पिता अनुमति नहीं देकर पूनमचंद को किसी भी प्रकार से रोक रखना चाहते थे । पूनमचंद हर परिस्थिति में दीक्षाव्रत अंगीकार करने के लिये संकल्पित थे । एक अघोषित संघर्ष की स्थिति थी । जैसा कि पूर्व में संकेत किया जा चुका हैं कि किसी बात पर जितना अधिक प्रतिबंध लगाया जाता है वह उतनी ही शक्ति के साथ सामने आती है प्रचारित होती है । पूनमचंद पर जितने प्रतिबंध लगाये जाते, उन्हें जितने नियंत्रण में रखा जाता उनका वैराग्य भाव और अधिक दृढ़ से दृढ़तर होता जाता। उसमें किसी प्रकार की कमी नहीं होती । यहां यह बात शतप्रतिशत लागू हो रही थी कि अच्छे कार्यों में बाधा उत्पन्न होती ही है । बागरा में जैनाचार्यों, मुनिराजों और साध्वियों का आगमन होता ही रहता था । पूनमचंद को जैसे ही सूचना मिलती कि बागरा में मुनिराज अथवा साध्वीवृंद का आगमन हुआ है, वे येनकेन प्रकारेण उनकी सेवा में पहुंच जाते और दर्शन-वंदन एवं प्रवचन पीयूष का पान कर आनंद विभोर हो जाते । इस अवसर पर पूनमचंद विचारों में खो जाते कि दीक्षाव्रत अंगीकार करने का उनका स्वप्न कब साकार होगा । कभी कभी पूनमचंद को सूचना मिलती की समीपवर्ती गांव में मुनिराज आदि विराजमान है, तो वह किसी न किसी बहाने उस गांव/नगर में पहुंच जाते उन्हें इस बात की चिंता नहीं थी कि उनके इस आचरण के कारण परिवारवाले उनके साथ कैसा व्यवहार करेंगे? हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 29 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ पाषाण पिघले : एक ओर माता पिता दृढ़ थे तो दूसरी ओर पूनमचंद सुदृढ़ थे । ऐसा लग रहा था कि दोनों में से कोई भी पीछे हटने वाला नहीं है । पूनमचंद संसार त्याग कर श्रमण जीवन अपनाना चाहता है और माता-पिता उसे अपनी मोह ममता में बांध कर संसार में बनाये रखना चाहते हैं | माता-पिता अपने प्रयास में विफल होते दिखाई दे रहे हैं । वे जितना समझाने का प्रयास अपने पुत्र को करते हैं, पुत्र उतना ही विरक्त होता चला जा रहा है । अंततः एक दिन माता-पिता ने इस समस्या पर गहन विचार मंथन किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अब पूनमचंद को और अधिक बांधे रखना कठिन है । उसे दीक्षाव्रत अंगीकार करने की अनुमति दे देनी चाहिये । किंतु अनुमति देने के पूर्व एक बार पुनः उसे समझाने का प्रयास किया जाय । अपने इस निर्णय के परिप्रेक्ष्य में श्रीमान ज्ञानचन्दजी ने अपने पुत्र पूनमचंद को अपने पास बुलाया । उस संयम श्रीमती उज्जमदेवी भी वही थी । कुछ क्षण तक तो कक्ष में मौन का साम्राज्य छाया रहा । फिर मौन को भंग करते हुए श्रीमान ज्ञानचन्दजी ने कहा - "बेटा ! जिस राह पर तुम चलना चाहते हो वह सरल नहीं है । तलवार की धार पर चलना सरल है किंतु समय मार्ग पर चलना सरल नहीं है । तुम अपने निर्णय पर पुनः विचार करो ।" "पिताश्री! आप जो कुछ कह रहे हैं, मैं उन सब बातों पर विचार कर चुका हूं । मैंने जो भी संकल्प लिया है, अच्छी प्रकार सोच समझकर लिया है । इसके लिये आपको चिंता करने की आवश्यकता नहीं है । मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि मेरे कारण आपको कभी भी शर्मिन्दा नहीं होना पड़ेगा ।" पूनमचंद ने कहा । "तुम्हारी बात मान लेता हूं किंतु बेटा ! अभी तुम्हारी आयु ही कितनी है? अभी तुमने संसार में देखा ही क्या है? भोगा ही क्या है ? यदि तुम दीक्षा ही लेना चाहते हो तो कुछ वर्षों बाद ले लेना । हम तुम्हें उस समय अनुमति दे देंगे ।" पिता ने कहा । "पिताश्री ! यह संसार दुःखों को बढ़ाने वाला है । मनुष्य जन्म भोग के लिए नहीं योग के लिए है । जो कार्य अभी करना है, उसे भविष्य पर क्यों छोड़ा जाय? आयुष्य का कोई निश्चित समय नहीं है । अगले ही पल क्या होगा? क्या आप बता सकते हैं ? आप तो क्या कोई भी नहीं बता सकता । फिर जब बाद में आप मुझे अनुमति दे सकते हैं तो अभी क्यों नहीं?" पूनमचंद ने दृढ़ता से कहा । "बेटा ! मेरा तो ध्यान रख । तेरे जाने के बाद मेरा क्या होगा ?" माता ने बीच में कहा । __ "माताजी ! उस संसार में कोई किसी का ध्यान नहीं रखता है । सब अपने पूर्वकृत कर्मों के अनुसार अपना जीवनयापन करते हैं । इस समय आप जो कुछ कह रही है वह आपकी ममता है । जब तक मैं आपके सामने हूं तब तक ममत्व के कारण आप मुझे अलग नहीं करना चाहेगी । मैं जैसे ही आपसे दूर होकर चला जाऊंगा, वैसे ही आपकी ममता में अन्तर आना शुरू हो जायेगा । फिर समय सबसे बड़ी औषधि है । समय के प्रवाह के साथ आपका ममत्व भाव भी समाप्त हो जायेगा । आपके साथ परिवार में जो रहेंगे उनमें आप मग्न हो जाओगी । संसार के जो नाते-रिश्ते हैं वे सब झूठे हैं । इसलिये मेरी प्रार्थना मान जाइये और मुझे दीक्षाव्रत अंगीकार करने की अनुमति दे दीजिये ।" पूनमचंद ने कहा। पूनमचंद / अपने पुत्र का उक्त कथन सुनकर माता-पिता दोनों अवाक रह गए । उन्हें कल्पना नहीं थी कि उनके पुत्र के विचारों में इतनी प्रौढ़ता आ गई है । अब उनके सामने अनुमति देने के अतिरिक्त कोई मार्ग शेष नहीं रहा । कुछ क्षण मौन रहा । मन ही मन सभी विचार करते रहे | फिर श्रीमान ज्ञानचन्दजी ने मौनभंग किया और कहा "बेटा ! यदि तुम हमारा कहना नहीं मानते हो । हमारे साथ रहना नहीं चाहते हो । हमें असहाय छोड़ कर जाना चाहते हो तो तुम्हारी इच्छा। हम तुम्हारी राह में बाधा उत्पन्न नहीं करेंगे ।' "पिताश्री ! इस संसार में सब अकेले आते हैं और अकेले जाते हैं । यहां कोई किसी का सहारा नहीं होता है । यदि होता है तो केवल, एकमात्र धर्म का सहारा होता है । फिर अपने पूर्वकृत कर्मों के आधार पर व्यक्ति को जैसा सुख-दुख मिलना होता है वह हर परिस्थिति में मिलकर रहता है । इसलिये आपने जो कुछ कहा वह सब व्यर्थ है, मुझे संयम मार्ग पर जाने से रोकने का प्रयास मात्र है । आप कृपा कर अनुमति दे दें । यही मेरा निवेदन है ।" पूनमचंद ने कहा । हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 30 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति । o n Education international S anelbe Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ। ....... "ठीक है । हमें कोई आपत्ति नहीं है । तुम संयम मार्ग पर जाना चाहते हो तो जाओ।" पिता ने कहा । माता ने भी अपनी मौन स्वीकृति दे दी । माता-पिता से दीक्षाव्रत अंगीकार करने की अनुमति मिल जाने से पूनमचंद भावविभोर हो गया । उसका रोम रोम खिल उठा । अब उसकी मनोकामना पूर्ण हो जायेगी । दीक्षा अर्थ एवं महत्व : दीक्षा 'दीक्ष' धातु से बना है । जिसका अर्थ है किसी धर्म-संस्कारके लिए अपने आपको तैयार करना । आत्म-संयम की ओर अग्रसर होना । दीक्षा को आन्तरिक चेतना का रूपान्तर भी कह सकते हैं । दीक्षा आध्यात्मिक जीवन का प्रवेश द्वार है । दीक्षा का दूसरा नाम वृत्तियों का पवित्रीकरण और संस्कारशीलता भी है । मनुष्य अनंतानंत शक्तियों और पुरुषार्थ का स्वामी है किंतु विषय वासना और कषायादि वृत्तियों के कारण उसकी आत्म शक्तियाँ आच्छादित और सुषुप्त बनी हुई है । जिस प्रकार अण्डे के आवरण को तोडकर पक्षी नवीन जीवन धारण करता है, ठीक उसी प्रार आत्म शक्ति को आवृत् करने वाले मोह माया के आवरण को नष्ट कर शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने की साधना का नाम दीक्षा है । दीक्षा के सम्बन्ध में एक कवि का कथन दृष्टव्य है - विश्वानन्दकरि भवाम्बुधितरी, सर्वाऽऽपदां कर्तरी, मोक्षाध्वैक विलंधनाय विमला, विद्या परा खेचरी | दृष्टया भावित कल्मषापनयने, बदा प्रतिज्ञा दृढ़ा, रम्यार्हच्चरितम तनोतु भविनां, दीक्षा मनोवांछितम् ।। अर्थात् विश्व में आनन्द का संचार करने वाली, घोर संसार सागर से पार पहुंचाने वाली, सम्पूर्ण आपदाओं को काटने वाली, मोक्ष मार्ग को पार करने के लिए एकमात्र निर्दोष आकाशगामिनी उत्कृष्ट विद्या है । दृष्टिमात्र से सम्बन्धित पाप मल को हटाने में जो दृढ़ प्रतिज्ञावाली है, ऐसी सुरम्य अर्हत दीक्षा अर्थात् भावगती प्रव्रज्या भव्यजनों को मनोवांछित फल प्रदान करें। दीक्षा के सम्बन्ध में आगे भी कहा जाता है कि जैन भागवती दीक्षा में साधक आजीवन हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह आदि का तीन करण तीन योग अर्थात् मन, वचन और काया से त्याग करता है एवं स्वयं न करना, दूसरों से न करवाना तथा उन्हें करते हुए का अनुमोदन नहीं करने की प्रतिज्ञा धारण करता है । इस प्रतिज्ञा के धारण करने के साथ ही वह आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करता है । स्वयं पर स्वयं का नियन्त्रण स्थापित करता है । वह अपने 'स्व' का विस्तार कर प्राणिमात्र के साथ मैत्रीभाव का सम्बन्ध स्थापित करता है । सभी जीवों को अपने ही समान समझने लगता है । उनकी समानता और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए वह अपने आपको आत्मानुशासित कर स्व-स्वरूप की प्राप्ति के लिए सदा जागृत रहता है । दीक्षा के सम्बन्ध में एक विद्वान ने लिखा है कि दीक्षा आध्यात्मिक जीवनोत्थान का प्रथम यात्रा सोपान है। यहीं से चरम लक्ष्य मोक्ष की यात्रा प्रारम्भ होती है । दीक्षा गुरुजनों का वह प्रसादपूर्ण आशीर्वाद है जो पारलौकिक पहचान ही नहीं दिलाता वरन् इहलौकिक बंधनों व्यवधानों को भी निर्मूल कर देता है । दीक्षा जीवन का परिवर्तन है । दीक्षा प्रक्रिया में वेशपरिवर्तन, सिरमुण्डन गृहपरित्याग आदि सब कुछ होता है । ये सब तो दीक्षा की बाह्य क्रियाएं हैं और ये आभ्यंतरिक परिवर्तन की परिचायक होती है । दीक्षा में केश लुंचन होता है, वह तभी सार्थक होता है जब राग-द्वेष की जटायें भी मुंडित हो सकें । ममता-बुद्धि का त्याग आदि दीक्षान्तर्गत परिवर्तन के मूलतत्व है । जिसकी भोग की इच्छा हो वह कभी दीक्षा के लिए पात्र नहीं माना जा सकता। जिसके अन्तर्मन में मोक्ष की कामना का तीव्रतम स्वरूप हो और उसी की प्राप्ति हेतु साधानारत होने के संकल्प के साथ वीतरागी हो जाने की दृढ़ इच्छा वहन करने वाला ही यथार्थ में दीक्षार्थी हो सकता है । दीक्षा का उद्देश्य अचंचल मन से मुक्ति मार्ग पर सतत् गतिशीलता का शुभारम्भ है । दीक्षा की सार्थकता उसी में है कि वह साधना के पथ को ज्योतिर्मय कर दे । हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्य ज्योति 31 हेगेन ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति। Kawasadelibranto Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ दीक्षोत्सव : मुमुक्षु पूनमचंद को संयम मार्ग पर चलने की अनुमति मिल जाने से मार्ग की सभी बाधाएं समाप्त हो गई। मुमुक्ष पूनमचंद अब अपने गुरुदेव के श्रीचरणों में समर्पित होकर संयम मार्ग पर अग्रसर होना चाहता था । कोई भी जैनाचार्य अथवा मुनिराज सहज ही किसी को दीक्षा प्रदान नहीं कर देते हैं । वे दीक्षार्थी को परखते हैं । यह देखते हैं कि दीक्षार्थी वास्तव में दीक्षा लेकर आत्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर होना चाहता है अथवा किसी उत्साह अथवा अन्य किसी कारण के उपस्थित होने पर दीक्षा लेने चाहता है । कहीं दीक्षार्थी दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् कहीं संयम मार्ग का त्याग तो नहीं कर देगा । इन सब बातों को देख पारख कर कसौटी पर खरा उतरने के पश्चात् ही दीक्षाव्रत प्रदान किया जाता है । दीक्षा प्राप्ति के लिये मुमुक्षु पूनमचंद प्रातः स्मरणीय विश्वपूज्य गुरुदेव श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के शिष्यरत्न परम तपस्वी, विद्वदरत्न पूज्य मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. की सेवा में विचरण करने लगा । वैराग्य काल में पूनमचंद ने अपने गुरुदेव की पूरी पूरी सेवा की, अन्य मुनि भगवंतों की भी वह सेवा करता, उनकी आज्ञा के अनुसार काम करता, उनकी आज्ञा के अनुसार ही आचरण भी करता । पूनमचंद के आचरण से गुरुदेव मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. ने शीघ्र ही जान लिया कि पूनमचंद का वैराग्य पक्का है, वह वास्तव में दीक्षा का अधिकारी है । उन्होंने सभी प्रकार से विचार कर एक दिन मुमुक्षु पूनमचंद की दीक्षा का मुहूर्त घोषित कर दिया । पूज्य मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. का वि.सं. 1999 का वर्षावास भीनमाल के लिए स्वीकृत हो चुका था। इस बात को ध्यान में रखते हुए और श्रीसंघ भीनमाल की भावना को सम्मान देते हुए पू. मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. ने वि.सं. 1999 आषाढ़ शुक्ला द्वितीया को भीनमाल में मुमुक्षु पूनमचंद को दीक्षा प्रदान करने का शुभमुहूर्त प्रदान कर दिया । दीक्षा का शुभमुहूर्त मिलने पर मुमुक्षु पूनमचंद की प्रसन्नता असीम हो गई । उसका मन प्रफुल्लित हो गया । रोम रोम खिल उठा । आषाढ़ शुक्ला द्वितीया वि. सं. 1999 भीनमाल में अविस्मरणीय बन गया । वैसे भी भीनमाल प्राचीनकाल से ही जैनधर्म का केन्द्र रहा है । भीनमाल राजस्थान के जालोर जिले का एक प्राचीन नगर है और नगर ने अनेक उतार चढाव देखे हैं । कुछ जैन जातियों का यह उत्पत्ति स्थान भी रहा है । अनेक जैनाचार्य एवं मुनिराजों की यह जन्मभूमि एवं कर्मभूमि रहा है । प्रातः स्मरणीय परम पूज्य दादा गुरुदेव श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमदविजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की भी इस नगर पर कृपा रही है । इसी भीनमाल नगर में मुमुक्षु पूनमचंद का दीक्षोत्सव आयोजित हुआ । आषाढ़ शुक्ला द्वितीया वि.सं 1999 को शुभमुहूर्त में गुरुदेव प.पू. मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. ने अपार जनसमूह की साक्षी में दीक्षार्थी पूनमचंद को दीक्षाव्रत प्रदान कर नूतन मुनि का नाम मुनिराज श्री हेमेन्द्र विजयजी म.सा. रखकर अपना शिष्य घोषित किया । इस अवसर पर जैनधर्म की जय महावीर स्वामीकी जय गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरिजी म. की जय के निनादों से भीनमाल का गगन मण्डल गूंज उठा । उपस्थित जनसमूह ने नव दीक्षित मुनिराज श्री हेमेन्द्रविजयजी म. सा. के भाग्य की मुक्तकंठ से सराहना की । अब आपका संयमी जीवन प्रारम्भ हो गया । संयम की राह पर : मुनि जीवन में प्रवेश के साथ ही आपकी मनोकामना पूर्ण हो गई । अब आप अपने नये जीवन के अनुसार रहने लगे । श्रमणाचार के लिये आवश्यक ज्ञान की प्राप्ति अपने गुरुदेव के सान्निध्य में प्राप्त करना प्रारम्भ कर दिया। आपका प्रथम वर्षावस वि. सं. 1999 का अपने गुरुदेव परम तपस्वी मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. के सान्निध्य में भीनमाल में व्यतीत हुआ । अध्ययन के अतिरिक्त आपने अपने आपको अपने गुरुदेव एवं वरिष्ठ मुनिराजों की सेवा में समर्पित कर दिया । गुरुदेव की आज्ञा का पूर्ण निष्ठा के साथ पालन करना, उनकी सेवा करना, अन्य मुनिराजों की सेवा करना लगभग यही कार्य आपने अपने प्रथम वर्षावास में किया । गुरुदेव की आज्ञा से आगमग्रंथों का विशेष कर दशवकालिक का स्वाध्याय भी करते रहते । इस वर्षावास में आपको मुनि जीवन के आचरण को श्रमणाचार को समझने और उसे अपने जीवन में उतारने का अवसर मिला । आप इस बात के लिये सदैव सतर्क रहते कि आचरण में कहीं कोई शिथिलता न आने पावे । जैसा श्रमणाचार शास्त्रों में बताया गया है, गुरुदेव ने जैसा बताया है, सिखाया है उसमें किसी प्रकार की कमी नहीं रहने पाये । हेमेन्ट ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 32 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति DDENCorinternational Sour Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ श्रावक-श्राविकायें दर्शनार्थ उपस्थित होते । गुरुदेव एवं वरिष्ठ मुनि भगवंतों के दर्शन करते, आपके निकट भी दर्शनार्थ आते। आपसे कुछ बातें भी करने का प्रयास करते तो आप गुरुदेव की ओर संकेत कर देते । आपने इस वर्षावास में सम्पर्क बढाने, परिचय करने में कोई रुचि प्रदर्शित नहीं की । आपका पूरा ध्यान गुरुदेव द्वारा सौंपे गए कार्य को ठीक प्रकार से सम्पन्न करने उनकी सेवा करने और अपना अध्ययन करने में ही व्यतीत होता । इस प्रकार आपका प्रथम वर्षावास व्यतीत हुआ । वर्षावास की समाप्ति के पश्चात् अपने गुरुदेव के साथ आपका भी भीनमाल से विहार हो गया । शेषकाल में आप अपने गुरु भगवंत के साथ गुमानुग्राम विचरण करते रहे । समयानुसार अध्ययन भी चलता रहा । हिन्दी तो आपकी मातृभाषा ही है । आपने गुरुदेव के सान्निध्य में रहते हुए मुनि जीवन की क्रियाओं को सीखने के साथ ही संस्कृत और प्राकृत भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करना भी प्रारम्भ कर दिया । विहारकाल में वैसे भी समयाभाव रहता है और अध्ययन के लिए अनुकूलता नहीं रहती है । फिर भी जहां कहीं भी अनुकूलता मिलती आप अपने अध्ययन में लग जाते। उसी बीच पौष शुक्ला सप्तमी आगई । यह दिन प्रातः स्मरणीय विश्व पूज्य गुरुदेव श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की जन्मतिथि एवं पुण्य तिथि है । इस तिथि को आज तो बहुत ही भव्यरूप से विशाल स्तर पर स्थान - स्थान पर मनाया जाता है । उस समय भी गुरु सप्तमी मनाई गई। इसमें भी आपको बहुत कुछ सीखने को मिला । अपने गुरुदेव के साथ ग्राम-ग्राम, नगर-नगर में विचरण कर धर्मप्रचार करने में सहायक बनकर आप अपना सेवा कार्य भी यथावत करते रहें । सं 2000 का वर्षावास आपने मारवाड़ के आहोर गांव में सम्पन्न किया । अपने मुनि जीवन का आपका यह दूसरा वर्षावास था । विभिन्न धार्मिक क्रियाओं के साथ यह वर्षावास सानन्द सम्पन्न हुआ और वहां से विहार कर आप अपने गुरुदेव के साथ थराद क्षेत्र में पधारे तथा वहां लुवाणा में हुई प्रतिष्ठा में सहयोग प्रदान किया । आपके सामने यह प्रथम प्रतिष्ठोत्सव था । अतः इस अवसर पर होनेवाली प्रत्येक क्रिया को आपने ध्यानपूर्वक देखा और समझा। सं. 2001 का आपका वर्षावास अपने गुरुदेव के सान्निध्य में गुड़ा में व्यतीत किया । गुड़ा के गुरुभक्त समर्पित श्रद्धालु है । यहां वर्षावास के चारों माह धर्म की पावन गंगा प्रवाहित होती रही। इस वर्षावास के पष्चात गुरुदेव तपस्वी मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. ने थराद श्री संघ को प्रातः स्मरणीय पूज्य गुरुदेव आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. पू. गुरुदेव आचार्य श्रीमद विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी म. एवं पू. गुरुदेव आचार्य श्रीमद विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की प्रतिमाओं की स्थापना करवाकर गुरुमंदिर बनवाने की प्रेरणा प्रदान की । आपकी प्रेरणा से श्रीसंघ ने गुरुमंदिर का निर्माण कर प्रतिष्ठा करवाना स्वीकार कर लिया। थराद में भगवान ऋषभदेव की प्रतिष्ठा भी तपस्वी मुनिराज श्री हर्षवियजी म. तथा आपके पावन सान्निध्य में समारोह पूर्वक सानंद सम्पन्न हुई । उस अवसर पर आपने पूर्ण उत्साह के साथ प्रतिष्ठा के कार्य सम्पन्न करवाये । थराद का प्रतिष्ठोत्सव सम्पन्न हुआ और आपने अपने गुरुदेव तपस्वी मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. एवं मुनिराज श्री ललितविजयजी म. के साथ सिद्धाचल की ओर विहार कर दिया । तीर्थाधिराज शत्रुजय गिरिराज पधारने पर आप चम्पा निवास धर्मशाला में बिराजे । यहां आपश्री का अक्षय तृतीया पर वर्षीतप का पारणा सम्पन्न हुआ । इसी दिन गुरुदेव का 59 वां जन्म दिन भी मनाया गया। सं. 2002 का वर्षावास आपका गुरुभगवंतों के साथ यहीं विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों के साथ सम्पन्न हुआ । मुनिमण्डल के सान्निध्य में अनेक श्रावक-श्राविकाओं को वर्षावास भी हुआ । स्मरण रहे यह तीर्थ जैनधर्मावलम्बियों का प्रमुख तीर्थ है और प्रति वर्ष वर्षावास के लिए यहां हजारों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं और वर्षावास कालीन धार्मिक क्रियाएं सम्पन्न कर अपना मानव जीवन सफल बनाने का प्रयास करते हैं । इस महान तीर्थ स्थान पर आपका प्रथम बार आगमन हुआ था । यहां की धर्माराधना की धूमधाम देख कर और शासनदेव तीर्थाधिपति के दर्शन का आप अभिभूत हो गये थे । यहां के मन्दिर समूहों की भव्यता देखकर आपका हृदय गद्गद् हो गया था । इस प्रकार विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों के साथ वर्षावास समाप्त हुआ । वर्षावास की समाप्ति के पश्चात् भी आप कुछ समय यहीं हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति 33 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Poreringaroo Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ। अपने गुरुदेव के सान्निध्य में विराजमान रहे । सं. 2004 के वर्षावास की स्वीकृति का समय आचुका था। आचार्य देवेश श्रीमद विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का वर्षावास थराद के लिये स्वीकृत हो चुका था । इसी बीच जिस समय पू. आचार्यश्री थराद में विराजमान थे, उनका स्वास्थ्य एकाएक अधिक अस्वस्थ हो गया । वैसे उनका स्वास्थ्य पूर्व से ही अस्वस्थ चल रहा था किंतु सामान्यतः वे किसी प्रकार की चिंता नहीं करते थे और अपने सभी कार्य सुचारू रूप से करते रहते थे । जब स्वास्थ्य अधिक बिगड़ गया तो तपस्वी मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. को सूचित किया गया। इस समय आप अपने शिष्यों के साथ पालीताणा में ही विराजमान थे। पू. आचार्य श्री आपके गुरुभ्राता भी थे । अतः उनकी अस्वस्थता की सूचना मिलते ही आपने पालीताणा से थराद के लिये उग्र विहार कर दिया । गुरुदेव मुनिराज श्री हेमेन्द्र विजयजी म. के लिये उग्र विहार का यह प्रथम अवसर था । इस विहार में आपने अपने गुरुदेव का पूरा पूरा साथ दिया। इस विहार में आपको यह भी देखने और समझने का अवसर मिला कि उग्र विहार की स्थिति में क्या क्या परिषह आते हैं। मुनि जीवन में अनेक कठिनाइयां आती हैं, वे भी इस अवधि में आपको देखने को मिली । यह सब यहां प्रस्तुत करना एक अप्रांसगिक विषय हो जायेगा । अतः यह लिखना ही उचित होगा कि उग्र विहार कर आप अपने गुरुदेव के साथ पू. आचार्यश्री की सेवा में थराद पधार गये । यहां आते ही मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. आचार्यश्री की सेवा में प्राण पण से जुट गये । आपने स्वयं देखा कि आपके गुरुदेव अपने गुरुभ्राता एवं आर्चाश्री की सेवा सुश्रुषा दत्तचित्त होकर कर रहे हैं । आप भी उनके सहभागी बने । अपने गुरुदेव द्वारा की जाने वाली सेवा सुश्रुषा आपके लिये प्रेरणा स्रोत बन गई । सं. 2004 का वर्षावास पू. आचार्यश्रीमद विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के सान्निध्य में आपका भी थराद में ही सम्पन्न हुआ। इस अवधि में आपने भी पू. आचार्य भगवन की सेवा का अच्छा लाभ लेकर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। वर्षावास समाप्त हुआ और आचार्यश्री की आज्ञा से तपस्वी मुनिराजश्री हर्षविजयजी म. ने अपने शिष्य परिवार सहित पीलुड़ा पहुंचकर सं 2005 को मगसर शुक्ला दशमी को वहां प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई । फिर वहां से नैनावा पधारकर माघ शुक्ला पंचमी को वहां भी प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई । सं 2005 का वर्षावास आपने थराद में सम्पन्न किया । सं. 2006 का वर्षावास आहोर में किया। यहां आहोर के सम्बन्ध में इतना ही उल्लेख कर देना उचित प्रतीत होता है कि आहोर जैनधर्म का और विशेषकर त्रिस्तुतिक जैन मतावलम्बियों का गढ़ रहा है और आज भी है । यह जैन धर्मावलम्बियों का तीर्थ भी माना जाता है, जो श्री गोड़ी पार्श्वनाथ के नाम से विख्यात है । आहोर में अनेक मुमुक्षुओं के दीक्षोत्सव सम्पन्न हुए और कई मुनि भगवंतों को सूरिपद प्रदान किया गया । प्रातः स्मरणीय विश्वपूज्य गुरुदेव श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमदविजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. , व्याख्यान वाचस्पति आचार्य श्रीमदविजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. को सूरिपद यही प्रदान किया गया था । जिन आचार्य भगवन श्रीमदविजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के दर्शन-वंदन और प्रवचन श्रवण से हमारे चरितनायक को वैराग्योत्पति हुई थी, उन आचार्यश्री का स्वर्गगमन भी आहोर में ही हुआ था । हमारे चरित्रनायक को भी सूरिपद आहोर में ही समारोहपूर्वक प्रदान किया गया था। यहां के अनेक भव्यजनों ने जैन भगवती दीक्षा ग्रहण कर आहोर के नाम को उज्ज्वल किया है । ऐसे ऐतिहासिक आहोर में आपका अपने गुरुदेव के सान्निध्य में वर्षावास विभिन्न धार्मिक क्रियाओं और कार्यक्रमों के साथ सानन्द सम्पन्न हुआ। आहोर में वर्षावास काल में आपको अध्ययन की अच्छी सुविधा प्राप्त हुई । कारण कि यहां गुरुदेव आचार्य श्रीमद विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. द्वारा स्थापित शास्त्र भण्डार है जिसमें अनेक दुर्लभ ग्रन्थ हैं | चूंकि आहोर तीर्थ स्थल भी है । इस कारण यहां वर्षावास की अवधि में दर्शनार्थियों का आवागमन भी अच्छा रहता है । निकटस्थ ही नहीं दूरस्थ स्थानों के श्रद्धालु यहां सदैव आते रहते हैं । यद्यपि आपने अपने सम्पर्क/परिचय बढ़ाने का कोई प्रयास नहीं किया तथापि दूरस्थ ग्राम-नगरों से आए श्रद्धालुओं के साथ सामान्य चर्चा तो होती ही है । इससे आपको दूरस्थ ग्राम-नगरों के विषय में जानने का अवसर मिला । वर्षावास समाप्त हुआ और आपने अपने गुरुदेव के साथ विहार कर दिया । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द ज्योति 34हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति S a preneuscoury Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्टसंत शिरोमणि अभिनंदन था शेषकाल में आप अपने गुरुदेव के साथ विभिन्न क्षेत्रों में विचरण कर धर्म प्रचार करते रहे | धीरे धीरे समय व्यतीत हुआ और वर्षावास का समय निकट आने पर गुरुदेव तपस्वी श्री हर्षविजयजी म.सा. ने सं. 2007 के वर्षावास के लिये भीनमाल श्री संघ को साधु भाषा में स्वीकृति प्रदान का दी । यथा समय वर्षावास के लिये भीनमाल में समारोहपूर्वक आपका नगर प्रवेश हुआ । इसके साथ ही वर्षावास कालीन धार्मिक क्रियायें प्रारम्भ हो गई । स्मरण रहे कि भीनमाल में ही हमारे चरित्रनायक ने संयमव्रत अंगीकार किया था और प्रथम वर्षावास भी यही व्यतीत किया था । सं. 2007 माघ शुक्ला त्रयोदशी को दासपा में प्रतिष्ठा सम्पन्न करवानी थी, अतः आप अपने गुरुदेव के साथ दासपा पधारे । प्रतिष्ठा सम्पन्न होने के पश्चात् आप भीनमाल होते हुए कागमाला पधारें, जहां तपस्वी मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. तथा आपके पावन सान्निध्य में जिनेश्वर भगवानों की पांच प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई । सं. 2008 का वर्षावास आपने अपने गुरुदेव के साथ भीनमाल में व्यतीत किया । इस वर्षावास की उपलब्धि यह रही कि यहां संघ में वर्षों से मतभेद चले आ रहे थे । गुरुदेव तपस्वी श्री हर्षविजयजी म.सा. प्रयासों से वे मतभेद समाप्त हो गये और संघ में एकता स्थापित हो गई । इन प्रयासों में हमारे चरित्रनायक गुरुदेव की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही । संयम जीवन के दस वर्ष व्यतीत हो गये । उस अवधि में हमारे चरित्रनायक ने बहुत कुछ सीखा । अपने इस जीवन में आपने त्याग और सेवा का अपना लक्ष्य रखा । साथ ही आपने बच्चों में संस्कार वपन करना भी शुरू किया । आप संस्कारों के महत्व से भलीभांति परिचित हैं । आप इस तथ्य से भी परिचित थे कि आजकल की भागमभाग की जिन्दगी में बालकों को परिवार में बराबर संस्कार नहीं मिल पाते हैं । परिणाम स्वरूप बच्चे दिग्भ्रमित भी हो सकते हैं । इस दृष्टि से आपने यह प्रयास प्रारम्भ किया । प्रातः उठकर नवकार महामंत्र का स्मरण करना। माता-पिता तथा अन्य वरिष्ठ सदस्यों के चरण स्पर्श करना । अभिवादन में जय जिनेन्द्र का उच्चार करना । नियमित रूप से मंदिर जाकर दर्शन वंदन पूजन करना । सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, ब्रह्मचर्य का पालन करना। इतना ही नहीं आपने व्यसन मुक्त समाज के निर्माण के लिये भी व्यसनों के दोषों को गिनाते हुए व्यसनों से बचने की भी प्रेरणा प्रदान की । अनेक बालकों को आपने गुरुवंदन भी सिखाया । जिनालय में प्रवेश करते समय कौन कौन सी सावधानियों रखनी चाहिये । यह भी सिखाया । इन सब बातों का परिणाम यह हुआ कि आप जहां भी विराजते आपके पास बालकों की भीड़ लग जाती । बालकों में संस्कार वपन करने के कार्य से आपको भी सुखानुभूति होती । बाद में तो आपने त्याग, सेवा और बालकों में संस्कार वपन को अपने दैनिक जीवन का अंग बना लिया। जो आज तक चल रहा है । सं 2009 का वर्षावास हमारे चरिनायक ने अपने गुरुदेव तपस्वी मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. के साथ अपनी जन्मभूमि बागरा में व्यतीत किया । बागरा निवासी अपने लाड़ले सपूत को नये रूप में देख देखकर तथा उनकी शिक्षाओं को सुन सुनकर मुग्ध हो रहे थे । उन्हें इस बात की विशेष प्रसन्नता थी की बागरा की माटी में जन्मे, पले-पुसे साधक का उन्हें चार माह सान्निध्य मिलेगा । वर्षावास विभिन्न धार्मिक क्रियाओं के साथ व्यतीत हो गया। लोगों की अहसास ही नहीं हो पाया कि चार माह की यह अवधि कैसे निकल गई । वर्षावास की समाप्ति पर आपने अपने गुरुदेव के साथ थराद की और विहार कर दिया, जहां उपधान तप सम्पन्न करवाया । सं. 2012 का वर्षावास ग्राम आहोर में अपूर्व धर्माराधना के साथ सम्पन्न हुआ । इंद शरीरं व्याधि मंदिरम के अनुसार इस समय तपस्वी मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. का स्वास्थ्य कुछ अस्वस्थ रहने लगा था । उपचार भी चल रहा था किंतु कोई लाभ नहीं हो रहा था । इसी समय थराद श्रीसंघ ने अपनी हार्दिक इच्छा प्रकट की कि मुनिराजश्री थराद में स्थिरता रखे । थराद श्रीसंघ की विनती को मान देकर आपने अपने शिष्यों के साथ थराद की ओर विहार कर दिया । आप थराद पधार गये । हमारे चरित्र नायक दत्तचित्त होकर अपने गुरु की सेवामें लग गये। वजाघात: तपस्वी मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. की अस्वस्थता की सूचना चारों ओर प्रसारित हो गई थी । परिणामस्वरूप देश के विभिन्न भागों से गुरुभक्तों का थराद आवागमन शुरू हो गया । हमारे चरितनायक गुरुदेव मुनिराज श्री हेगेल्या ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 35 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति www.fingbrary of Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ............... हेमेन्द्रविजयजी म.सा. अपने गुरुदेव की सेवा में प्राणपण से लगे हुए थे । वे दर्शनार्थियों की जिज्ञासा का भी समुचित रीति से समाधान भी करते थे । तपस्वी मुनिराज की चिकित्सा भी यथावत् चल रही थी किंतु उसका कोई प्रभाव होते दिखाई नहीं दे रहा था । सम्भवतः तपस्वी मुनिराज को अपने अतिम समय की अनुभूति भी हो गई थी । वे इससे तनिक भी विचलित नहीं हुए । ज्ञानियों की यही विशेषता है कि वे मृत्यु से घबराते नहीं हैं, वरन् प्रसन्नता के साथ उसका स्वागत करते हैं । वे इस तथ्य से भलीभांति परिचित रहते हैं कि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु अवश्य है । फिर वे यह भी जानते हैं कि मरण तो शरीर का होता है जो नश्वर है, आत्मा तो अजर अमर है । फिर नश्वर देह के लिये शोक कैसा? अपनी आत्मा को उज्ज्वल बनाने के लिये हर सम्भव प्रयास करना चाहिये और ज्ञानी महापुरुष यही करते भी हैं । कहते है कि टूटी की बूटी नहीं होती । तपस्वी मुनिराज की देह दिन प्रतिदिन क्षीण होती चली जा रही थी और फिर एक दिन देह रूपी पिंजरा छोड कर पंछी उड़ गया । सं. 2013 ज्येष्ठ कृष्णा नवमीं दिनांक 21-6-1957 को मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. का 69 वर्ष की आयु में थराद में स्वर्गवास हो गया । उनके स्वर्गवास से हमारे चरितनायक को तो ऐसा लगा कि उन पर वज्राघात हो गया है । उनके जीवन निर्माता के नहीं रहने से उन्हें गहरा आघात लगा । कुछ दिन तक तो उन्हें ऐसा लगा कि वे इस आघात से उबर नहीं पायेंगे । अब आगे उनका भविष्य क्या होगा? कौन उन्हें मार्गदर्शन प्रदान करेगा? भविष्य में कैसे क्या होगा? कुछ भी समझ में नहीं आ पा रहा था । उन्हें अपने सामने केवल शून्य ही दिखाई दे रही थी । कहते हैं समय सबसे बड़ी औषधि है । जैसे जैसे समय व्यतीत होता गया दुःख के बादल छंटते गये । आपको अपने गुरुदेव द्वारा दी गई शिक्षाएं एक एक कर स्मरण आने लगी । किसी पर ममत्व मत रखो । यह दुःख का सबसे बड़ा कारण है । जीवन क्षण भंगुर है । मानव भव दुर्लभ है । समय रहते उसका सदुपयोग कर लेना चाहिये । देह तो नश्वर है, आत्मा अजर अमर है। आत्मा के उत्थान के लिये प्रयास करना चाहिये । मृत्यु भी जन्म की भांति एक महोत्सव है, उस पर शोक करना व्यर्थ है। आदि आदि इन बातों से आपको सम्बल मिला और आपने अपनी दिनचर्या को यथावत बनायें रखा । साथी मुनियों के साथ विभिन्न क्षेत्रों में विचरण करते रहे । आघात पर आघात : अपने गुरुदेव तपस्वी मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. के वियोग को अभी अधिक समय नहीं हुआ था कि उनके गुरुभ्राता आचार्यदेव श्रीमद विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का सं. 2017 पौष शुक्ला द्वितीया को स्वर्गवास हो गया । पू. आचार्यश्री के निधन से आपको गहरा आघात लगा । इस आघात को आपने समभाव से स्वीकार किया। होनी को कोई टाल नहीं सकता । मृत्यु तो अवश्यंभावी है । पू. आचार्यश्री के निधन से आचार्य पद रिक्त हो गया । जब तक नवीन आचार्य का निर्णय नहीं हो जाता तब तक वरिष्ठ मुनिराज श्री विद्याविजयजी म.सा. संघ का नेतृत्व करते हुए मार्गदर्शन देते रहे । अंततः आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के निधन के तीन वर्ष पश्चात् संघ ने सं. 2020 फाल्गुन शुक्ला द्वितीया, दिनाक 16-2–1964 को मुनिराज श्री विद्याविजयजी म. सा. को श्री मोहनखेड़ा तीर्थ की पावन भूमि पर आचार्य पद से अलंकृत किया और अब संघ नूतन आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचंद्र सूरीश्वरजी म.सा. के मार्गदर्शन में चलने लगा। आचार्य श्री का वियोग : लगभग सोलह वर्ष और कुछ माह तक संघ को आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का मार्गदर्शन मिलता रहा । हमारे चिरतनायक गुरुदेव मुनिराज श्री हेमेन्द्र विजयजी म.सा. भी अपने आचार्य भगवंत के मार्गदर्शन में अपनी साधना तथा अन्य सौंपे गये कार्य कुशलतापूर्वक सम्पन्न करते रहे । इस अवधि में अनेक महत्वपूर्ण कार्य सम्पादित हुए । जैसा कि सब जानते हैं, कोई भी अमर नहीं होता। आचार्य श्रीमद विजय विद्याचन्द्र सरीश्वरजी म.सा. का दिनांक 18-7-1980 में अल्प अस्वस्थता के पश्चात निधन हो गया और एक बार पुनः संघ आचार्य विहीन हो गया । आचार्य श्री ने अपने स्वर्गगमन के छतीस घण्टे पूर्व श्रीमोहनखेड़ा तीर्थ के विकास की रूपरेखा भी बता दी थी । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 36 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्च ज्योति D Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ आचार्य श्री के निधन के पश्चात् गुरुदेव मुनिराज श्री हेमेन्द्र विजयजी म.सा. संघनायक के रूप में लगभग तीन वर्ष तक संघ का नेतृत्व कर मार्गदर्शन प्रदान करते रहें । सं 2040 का वर्षावास आपका दादावाड़ी पालीताणा में श्री किशोरचन्द्र एम. वर्धन परिवार की ओर से हुआ वर्षावास कलीन धार्मिक क्रियाओं और नवकार महामंत्र की सामूहिक आराधना के साथ वर्षावास सानंद सम्पन्न हुआ । कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को श्रीमती अंकीबाई घमंडीराम गोवाणी की ओर से नवाणुयात्रा प्रारम्भ हुई। मगसर कृष्णा पंचमी को पालीताणा से राजस्थान की ओर विहार हुआ। शंखेश्वर, धराद, वरमाण, सिरोही, सुमेरपुर आदि नगरों में धर्मप्रचार करते हुए पौष शुक्ला पंचमी संवत 2040 को आहोर मे समारोहपूर्वक प्रवेश किया । गुरुसप्तमी का पर्व समारोहपूर्वक मनाया गया और इसी दिन हमारे चरितनायक को प.पू. कविरत्न शासन प्रभाव आचार्यश्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरिजी म. के पट्टधर के रूप में घोषित किया गया। पौष शुक्ला चतुर्दशी को आहोर में पाटोत्सव आयोजित करने का निर्णय हुआ। पाटोत्सव माघ शुक्ला नवमी को अष्टान्हिका महोत्सव के साथ मनाया जाना निश्चित हुआ । भेंसवाडा में मुनिश्री ऋषभचन्द विजयजी म. एवं चार अन्य साध्वियांजी की बड़ी दीक्षा सम्पन्न हुई । : आचार्यपद से अलंकृत : आचार्यपद को अधिक समय तक तो रिक्त नहीं रखा जा सकता था। अतः संघ समाज के कर्णधरों ने एक स्वर से निर्णय कर वरिष्ठ मुनिराज श्री हेमेन्द्रविजयजी म. को आचार्यपद से अलंकृत करने का निर्णय कर लिया और आचार्यपद प्रदान महोत्सव के लिये सं. 2040 माघ शुक्ला नवमी शनिवार दिनांक 11-2-1984 का दिन भी निश्चित हो गया । जब आचार्यपद के महोत्सव का शुभमुहूर्त निश्चित हो गया तो अब सबका लक्ष्य यही दिन हो गया। पाटोत्सव के आयोजन के लिये आहोर श्रीसंघ की विनती को मान देकर उसे स्वीकृति प्रदान कर दी गई। जैसे जैसे उक्त तिथि निकट आती गई वैसे वैस तैयारियां होने लगी । अब सबका लक्ष्य आहोर पहुंचना हो गया। श्रीसंघ के प्रमुख पदाधिकारीगण भी आहोर पहुंच गये। इसके पूर्व पाटोत्सव की सफलता पूर्वक सम्पन्नता के लिये विभिन्न समितियों का गठन कर दिया गया था। प्रत्येक समिति के सदस्यगण सौंपे गये कार्य को पूर्णनिष्ठा और लगन के साथ कर रहे थे । मुख्य दिवस के दो चार दिन पूर्व से ही गुरुभक्तों का आना प्रारम्भ हो गया था । छोटे से आहोर ने एक नगर का स्वरूप ग्रहण कर लिया था । दिनांक 10-2-1984 को तो स्थिति यह हो गई थी कि आहोर के मुख्य मार्ग ही नहीं गली गली में रंग बिरंगें वस्त्रों से सुसज्जित नर-नारी के समूह के समूह दिखाई दे रहे थे । सभी हसते खिलखिलाते मुख्य दिवस की प्रतीक्षा में थे कई स्थानों से नारियों के सुमधुर कंठो से गीतों की स्वरलहरियां फूट पड़ रही थी । | समूचे आहोर को बंदनवारों और तोरण द्वारों से सजाया गया था। भवन स्वामियों ने भी अपने अपने भवन को सुन्दर रीत्यानुसार सजाया था । अजैन लोगों ने भी अपने घरों को सजाया । इस अवसर पर स्थान स्थान पर ही गई विद्युत की साज-सज्जा सूर्यास्त होते ही खिल उठती थी । अनेक स्थानों की विद्युत साज सज्जा देखने के लिये दर्शनार्थी एकत्र हो जाते जिससे आवागमन अवरूद्धसा हो जाता तब विनम्रतापूर्वक उनसे हटकर मार्ग देने का आग्रह करना पड़ता । दिनांक 10-2-1984 की संध्या तक हजारों की संख्या में गुरूभक्तों का आगमन हो चुका था । स्वगच्छीय साधु साध्वियां भी इस अवसर पर उपस्थित हुए थे । दिनांक 11-2-1984 का सूर्योदय अभी हुआ भी नहीं था किंतु नगर में चहल पहल प्रारम्भ हो गई थी। जय जयकार के निनाद भी सुनाई दे रहे थे । गुरुभक्तों का जमावड़ा श्री गोड़ी पार्श्वनाथ भगवान के मन्दिर की ओर हो रहा था । सूर्योदय हुआ और पृथ्वी का कण कण चमक उठा । आजका सूर्योदय कुछ विशेष संदेश लेकर आया, ऐसा अनुभव हो रहा था । पक्षियों की चहचहाहट संगीत का अनुपम आनन्द प्रदान कर रही थी । कुल मिलाकर सारा वातावरण बहुत ही आनन्दायक और मनोरम लग रहा था। कार्यक्रम जिस स्थान पर होनेवाला था उसे भव्यातिभव्य रीत्यानुसार सजाया गया था । साधु-साध्वियों के बैठने के लिये पृथक पृथक व्यवस्था थी । दर्शनार्थियों हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 37 ज्योति मे ज्योति ** www.minelibrary.or Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ..... ............... की बैठक व्यवस्था मुख्य मंच के ठीक सामने थी और उसे मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त किया गया था । एक भाग श्रावकों के लिए और दूसरा भाग श्राविकाओं के लिये निर्धारित किया गया था । सबसे आगे प्रमुख अतिथियों के बैठने की व्यवस्था की गई थी । जैसे जैसे शुभ मुहूर्त का समय निकट आता जा रहा था, वैसे वैसे गुरुभक्तों की संख्या में वृद्धि होती जा रही थी । ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यहां का विशाल प्रांगण भी आज छोटा पड़ जावेगा। इसी समय उद्घोषणा हुई कि मुनिराज एवं साध्वीजी म. पधार रहे हैं । उनके पधारने के कुछ ही क्षणोपरांत मनोनीत आचार्यश्री मुनिमण्डल सहित पधारने वाले हैं । आप सब शांति बनाये रखें । मनोनीत आचार्यश्री के पधारते ही कार्यक्रम प्रारम्भ हो जावेगा । इस उद्घोषणा के साथ ही जैनधर्म की जय । गुरुदेवश्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. की जय के निनादों से गगन मंडल गूंज उठा । जय जयकार के निनाद अभी थम भी नहीं पाये थे कि पुनः उद्घोषणा हुई सभी अपने अपने स्थान पर बैठ रहे । मनोनीत आचार्य श्रीमुनिमण्डल सहित पधार रहे हैं । कृपया शांति बनाये रखें । जय जयकार के निनादों के साथ मनोनीत आचार्यश्री हेमेन्द्र विजयजी म.सा. ने पदार्पण किया। इनके साथ स्वगच्छीय वरिष्ठ मुनिराज तो थे ही इस अवसर पर विशेष रूप से पधारे आचार्य श्रीमद विजय लब्धिचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. भी अपने शिष्य परिवार सहित उपस्थित थे । सबने आसन ग्रहण किया और मंगलाचरण के साथ ही कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ । सामान्य औपचारिकताओं के पश्चात् मुनिराजश्री हेमेन्द्र विजयजी म.सा. को सूरिमंत्र प्रदान कर आचार्य पदसे अलंकृत कर उनका नाम आचार्य श्रीमंद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. घोषित किया गया । इसी बीच वहां उपस्थित हजारों की संख्या में गुरुभक्तों ने अनुभव किया कि उनके ऊपर कुछ गिर रहा है । देखने पर ज्ञात हुआ कि जो गिर रहा है, वह फूल और फूल की पखुडियों हैं । सभी आश्चर्यचकित हो उठे कि यह पुष्प वर्षा कहां से हो रही है? सबकी दृष्टि आकाश की ओर उठ गई तो पाया कि एक हेलिकाप्टर के द्वारा पुष्प वर्षा की जा रही है। इधर सूरिमंत्र प्रदान किया जा रहा था और उधर आकाश से पुष्प वर्षा हो रही थी । इस अनुपम दृश्य को देखकर सभी उपस्थित दर्शनार्थी जय जयकार कर उठे। इस प्रकार विश्वपूज्य प्रातः स्मरणीय गुरुदेव श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के छठे पाट पर आचार्य श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. को समारोहपूर्वक प्रतिष्ठित किया गया । आचार्य के रूप में : आचार्यपद से अलंकृत होने के पश्चात् आचार्यप्रवर श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. ने अपने मुनिमण्डल के साथ आहोर से विहार किया । मार्गवर्ती ग्राम-नगरों में आपको आचार्य के रूप में पधारने पर अधिक उत्साह पाया गया । स्थान-स्थान पर आपका स्वागत-सम्मान भी किया गया । चैत्र कृष्णा 10 को मुनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी म.सा. का अहमदाबाद में निधन हो गया । उनके निधन से संघ की अपूरणीय क्षति हुई । समाज में शोक की लहर व्याप्त हो गई। __जालोर, बागरा, सांथू, बाकरा रोड, बाकरा, रेवतडा, धानसा, मोदरा, बोरटा, नरता आदि ग्राम नगरों में धर्म ध्वजा फहराते हुए आचार्यश्री का पदार्पण चैत्र शुक्ला पूर्णिमा सं 2041 को भीनमाल में हुआ । आपके यहां पदार्पण से संघ में उत्साह की लहर फैल गई। भीनमाल से विहार कर भरुड़ी, रामसेन, मोटागांव, पालड़ी, सिरोही होते हुए वामनबाड़जी पधारे । वहां से उयदपुर, केशरियाजी, बांसवाड़ी, बामनिया, पेटलावद, झकनावदा आदि ग्राम नगरों में होते हुए श्री मोहनखेडा तीर्थ पधारे । आपके यहां पधारते ही विभिन्न ग्राम-नगरों के श्रीसंघों का आगमन होने लगा और आगामी वर्षावास के लिये विनंतियां होने लगी । देशकाल परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए आचार्यश्री ने सं 2041 के वर्षावास की स्वीकृति साधु भाषामें जावरा श्रीसंघ को प्रदान कर दी । जैसे ही जावरा वर्षावास की घोषणा हुई वैसे ही जावारा श्रीसंघ का उत्साह द्विगुण्ति हो गया और जय जयकार के निनादों से गगनमंडल गुजा दिया। कुछ दिन श्री मोहनखेड़ा तीर्थ की पावन भूमिपर आपकी स्थिरता रही और फिर वर्षावास काल निकट जानकर जावरा की ओर विहार कर दिया । राजगढ़ सरदारपुर पधारने पर स्वामीवात्सल्य का आयोजन हुआ । फिर जोलाना, लाबरिया, राजोद, छायन, बदनावर काछीबडोदा, रूणीजा, मड़ावदा, खाचरोद, बड़ावदा होते हुए वर्षवास हेतु आषाढ़ शुक्ला एकादशी सं 2041 को जावरा में समारोहपूर्वक प्रवेश किया । आपके प्रवेश के समय श्री संघ जावरा का हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 38 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ उत्साह देखते ही बनता था । इस अवसर पर अनेक ग्राम-नगरों के श्री संघ भी पधारे थे । वर्षावास काल में आहोर, भीनमाल, बागरा, सायला, रेवतडा राजगढ़ (धार) बम्बई खाचरोद आदि विभिन्न ग्राम नगरों के श्रीसंघ जावरा में एकत्र हुए और इन श्रीसंघों ने आचार्यश्री से एक स्वर में प. पू. गुरुदेव श्री के क्रियोद्धारक पाट पर विराजने की भावभरी विनती की । आचार्यश्री ने विनम्र शब्दों में उस पाट पर बैठने से मनाकर दिया तो श्रीसंघों का आग्रह और बढ़ गया । अंततः श्रीसंघों के अत्यधिक आग्रह को मान देकर आप क्रियोद्धारक पाट पर विराजित हुए। इस वर्षावास काल में नवकार महामंत्र की आराधना तो हुई ही, साथ ही श्री राजेन्द्र जैन महासभा का सम्मेलन भी हुआ। मुनिराज श्री रवीन्द्रविजयजी म.सा. ने 42 उपवास की तपस्या की । पू. गुरुदेव श्रीमद विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. द्वारा लिखित श्री कल्पसूत्र बालावबोध के तृतीय संस्करण का समारोहपूर्वक विमोचन भी हुआ । जिसके प्रकाशन में आहोर निवासी मुथा घेवरंचदजी जेठमलजी एवं पुखराजजी केशरीमलजी कंकू चौपड़ा का विशेष सहयोग रहा । मगसर शुक्ला नवमी को चौपाटी , जावरा पर श्री शंखेश्वर पार्श्व राजेन्द्र चेरिटेबल ट्रस्ट द्वारा निर्मित जैनमंदिर का प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न करवाया । इसी दिन संघवी शांतिलालजी की सुपुत्री निर्मलाकुमारी की जैन भवगती दीक्षा सम्पन्न हुई और उन्हें साध्वी श्री दर्शनरेखाश्रीजी म. के नाम से प्रसिद्ध किया । दीक्षोपरांत पौष कृष्णा दशमी को श्री जीतमलजी केशरीमलजी लुंकड़ एवं श्री ऊंकारमलजी सागरमलजी वोरा की ओर से साढ़े तीन सौ व्यक्तियों का छरिपालक पैदल संघ श्री मोहनखेड़ा तीर्थ के लिये निकला । जावरा से नामली रतलाम, करमदी, धराड, बिलपांक, सूपाखेडा, धारसीखेडा, राजोद, लाबरिया, जोलाना, नरसिंहरेवला, सरदारपुर, राजगढ़ होते हुए संघ पौष शुक्ला तृतीया को श्री मोहनखेडा तीर्थ पहुंचा । तीर्थ की पावनभूमि पर संघमाल आदि कार्यक्रम हुए । पौष शुक्ला सप्तमी को गुरु सप्तमी पर्व विशाल स्तर पर मनाया गया । संवत 2042 का वर्षावास बागरा में किया। वर्षावास काल में विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों के अतिरिका तपस्यायें भी खूब हुई । गुरु सप्तमी पर्व भी यही समारोहपूर्वक मानाया गया । फाल्गुन शुक्ला 2 सं 2042 में मुनिराज श्री जिनेन्द्रविजयजी म. का दीक्षोत्सव सम्पन्न हुआ । फाल्गुन शुक्ला तृतीया सं 2042 को कविरत्न आचार्य श्रीमद विजय विद्याचन्द्र सूरिजी की प्रतिमा समाधि मंदिर में अतिथि रूप में प्रवेश करवाया गया। काकीनाड़ा श्रीसंघ के लिये श्रीगौतम स्वामी एवं गुरुदेव आदि जिन प्रतिमाओं का अभिषेक किया। यहीं आपकी सेवा में आहोर श्री संघ का आगमन हुआ | श्री संघ आहोर ने आपकी सेवा में श्री गोड़ी पार्श्वनाथ के विशाल प्रांगण में निर्मित श्री सीमंधर स्वामी के जिनमंदिर के प्रतिष्ठांजनशलाका के लिये विनंती की। श्री विद्या विहार में निर्मित श्रीपार्श्वनाथ एवं गुरुमंदिर की प्रतिष्ठा के लिये भी विनंती की । आचार्यश्री ने इनके लिये शुभमुहूर्त प्रदान किया। तदानुसार श्री सीमंधरस्वामी के लिये सं. 2043 ज्येष्ठ शुक्ला षष्ठि एवं श्री विद्या विहार के लिये ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी का मुहूर्त प्रदान किया गया । श्री मोहनखेडा तीर्थ से राजस्थान की ओर मुनिमण्डल सहित विहार कर दिया । मार्गवर्ती ग्राम नगरों में जिनवाणी की वर्षा करते हुए आचार्यश्री ज्येष्ठ कृष्णा द्वितीया को आहोर में पधारे । आपके पधारते ही श्री संघ में उत्साह का संचार हो गया । समारोहपूर्वक आपका नगर प्रवेश करवाया गया । यहां दशान्हिका महोत्सव के साथ ही कार्यक्रम प्रारम्भ हो गये। यहां 200 जिनबिम्बों की अंजनशलाका, प्रतिष्ठा महोत्सव, विद्या विहार की प्रतिष्ठा आदि सब आपश्री के पावन सान्निध्य में सम्पन्न हुए । यहीं पर श्री शांतिलाल लक्ष्मणजी, श्री मांगीलाल लक्ष्मणाजी की ओर से बीस स्थानक तप का उद्यापन भी सम्पन्न हुआ । ज्येष्ठ शुक्ला षष्ठी को विभिन्न श्री संघों ने आचार्यश्री की सेवा में अपने अपने यहां वर्षावास करने की भावभरी विनतियां की । देशकाल परिस्थिति को ध्यान में रखकर और श्री संघ बागरा की अत्यधिक आग्रहभरी विनती को मान देकर आपने सं. 2043 के वर्षावास के लिये श्री मोहनखेड़ा तीर्थ को साधु भाषा में स्वीकृति प्रदान कर दी । अपने यहां वर्षावास की स्वीकृति मिलते ही श्रीसंघ मोहनखेड़ा तीर्थ जय जयकार कर उठा । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 39 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था ........................ वर्षावास का समय निकट जानकर आचार्यश्री ने बागरा की ओर विहार किया और यथासमय वर्षावास के लिये समारोह पूर्वक बागरा में प्रवेश हुआ । स्मरण रहे बागरा आचार्यश्री की जन्मभूमि है । बागरावासी अपने लाडले सपूत के आचार्य के रूप में दर्शन पाकर गद्गद् हो गये । विविध धार्मिक कार्यक्रमों और नवकार आराधना के साथ वर्षावास सांनद सम्पन्न हुआ। वर्षावास के पश्चात् आचार्यश्री ने यहां से विहार कर दिया । भागली, बाकरा, बाकरा रोड, मोदरा बोरटा, नरता आदि मार्गवर्ती ग्रामों को पावन करते हुए आचार्यश्री का भीनमाल पदार्पण हुआ, वहां मगसर शुक्ला षष्ठी को श्री महावीर स्वामी जैन मंदिर के विशाल प्रांगण में जैनरत्न बाफना मूलचंदजी फूलचंदजी के द्वारा अपनी मातुश्री गजराबाई की स्मृति में निर्मित बाफना मातुश्री व्याख्यान हाल गजराबाई फूलचंदजी का उद्घाटन आपके पावन सान्निध्य में सम्पन्न हुआ । बागरा निवासी भण्डारी लक्ष्मीचंदजी प्रतापचंदजी की ओर से श्री सिद्धाचलजी की यात्रा निमित्त निकाले श्रीसंघके प्रयाण के लिये आचार्यश्री का बागरा में पुनः पदार्पण हुआ । बागरा से श्रीसंघ का प्रस्थान हुआ । श्रीसिद्धाचलजी में माला परिधान की विधि के लिये मुनिराज श्री नरेन्द्रविजयजी म.सा. को पालीताणा की ओर विहार करने का आदेश दिया गया । ____भीनमाल से श्री अंचलगच्छीय शंखेश्वर पार्श्वनाथ जिनमंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के लिये सकल श्रीसंघ का आपकी सेवा में आकर विनंती करना । विहार कर आप भीनमाल पधारे और वैशाख शुक्ला चतुर्थी को साध्वीजी ललितश्रीजी की शिष्या के रूप में साध्वी श्री मणिप्रभाश्रीजी की दीक्षा, वैशाख शुक्ला षष्ठी को प्रतिष्ठा और उसी दिन प्रतिष्ठा आदि कार्य सम्पन्न किये। कुछ समय तक यहां स्थिरता रही । फिर यहां से श्री मोहनखेड़ा तीर्थ के लिये विहार कर दिया । उसके पूर्व भीनमाल में यही के निवासी श्री खीमचंदजी प्रतापचंदजी के सुपुत्र श्री बाबूलालजी वर्धन की ओर से श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में वर्षावास करने की आग्रहभरी विनती को स्वीकार कर वहां वर्षावास करने की स्वीकृति प्रदान की। ___ मार्गवर्ती विभिन्न ग्राम नगरों को पावन करते हुए आचार्यश्री का श्री मोहनखेड़ा तीर्थ की पावन भूमि पर पदार्पण हुआ। सं. 2044 का वर्षावास श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पर विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों नवकार आराधना, 150 अट्ठाइयां और विविध तपस्याओं के साथ सानंद सम्पन्न हुआ । पर्युषण पर्व की अवधि में भीनमाल निवासी नाहर श्री घेवरचंदजी बाबूलालजी की ओर से भीनमाल में उपधान तप करवाने की विनती आचार्यश्री की सेवामें प्रस्तुत की जिसे स्वीकार कर लिया गया । वर्षावास के पश्चात् गुरुसप्तमी पर्व के अवसर पर आहोर निवासी वजावत श्री छगनराजजी नगराजजी की ओर से नवाणुयात्रा करवाने की विनती की । इस उपलक्ष्य में मुनिराज श्री ऋषभचन्द्रविजयजी म. सा. तथा मुनिराज श्री हितेशचन्द्र विजयजी म.सा. को पालीताणा जाने का आदेश आचार्यश्री द्वारा दिया गया । पूज्य आचार्यश्री ने अन्य मुनियों के साथ श्री मोहनखेडा तीर्थ से भीनमाल के लिये विहार किया और मार्गवर्ती ग्राम नगरों को पावन करते हुए भीनमाल नगर में समारोहपूर्वक प्रवेश किया। जहां आपके सान्निध्य में उपधान तप, 161 छोड़ का उद्यापन आदि सम्पन्न हुए । उपधान तप में 300 आराधकों ने सम्मिलित होकर आराधना की । उपधान तप की माला चैत्र कृष्णा त्रयोदशी सं. 2044 को सम्पन्न हुई। उधर पालीताणा में वैशाख कृष्णा प्रतिपदा को नवाणु रोपण की माला सम्पन्न हुई । भीनमाल में मुनिराजश्री जिनेन्द्र विजयजी म.सा. एवं साध्वीजी श्री प्रमितगुणाश्रीजी, साध्वीजी श्री रश्मिरेखाश्रीजी, साध्वीश्री अनुभवद्रव्यश्रीजी आदि की बड़ी दीक्षा सम्पन्न हुई । भीनमाल का कार्यक्रम सम्पन्न कर नवपद ओली जी की आराधना के लिये आचार्यश्री ने बागरा की ओर विहार कर दिया । बागरा पधारने पर आचार्यश्री का नगर प्रवेश समारोहपूर्वक करवाया गया और बागरा निवासी श्री सौभाग्यमलजी की ओर से भागली में निर्मित नूतन धर्मशाला लक्ष्मणधाम में प्रवेश हुआ । यही नवपद ओलीजी की आराधना सम्पन्न हुई । ओलीजी की आराधना के कार्यक्रम की समाप्ति के पश्चात् आचार्यश्री ने यहां से विहार कर दिया । आहोर, गुढ़ा, राणकपुर, उदयपुर, बांसवाडा आदि मार्गवर्ती ग्राम नगरों को पावन करते हुए आचार्यश्री श्री मोहनखेडा तीर्थ पधारे । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति हेगेन्द्र ज्योति* हेमेन्द ज्योति klin Educazione Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सं. 2045 का वर्षावास कोठारी श्री चम्पालालजी वस्तीमलजी की ओर से श्री मोहनखेडा तीर्थ पर सम्पन्न किया। पू. आचार्य श्री की आज्ञा से इस वर्षावास काल में भीनमाल में मुनिराज श्री नरेन्द्रविजयजी म. द्वारा चौमुखी मंदिर में श्री गौतमस्वामीजी एवं मुनिराज श्री देवेन्द्र विजयजी म. की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई । इसी प्रकार फीरोजाबाद में आचार्यश्री की आज्ञा से जिनालय में सुसाध्वीश्रीजी श्री मुक्तिश्रीजी म. के सान्निध्य में यक्ष यक्षिणी की मूर्ति की प्रतिष्ठा हुई। मोहना (महाराष्ट्र) में गुरुमंदिर की प्रतिष्ठा आचार्यश्री के आदेश से मुनिराज श्री लेखेन्द्र शेखर विजयजी म. एवं मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी म. ने करवाई। नरेल (महा.) में भी जिनमंदिर की प्रतिष्ठा करवाने का आदेश दोनों मुनिराजों को दिया । इसी प्रकार के प्रतिष्ठा, उद्घाटन, अठारह अभिषेक आदि के कार्यक्रम भी आचार्यश्री की आज्ञा से आज्ञानुवर्ती मुनिराजों और साध्वियों जी द्वारा सम्पन्न करवाये गये । मुनिराज श्री जयप्रभविजयजी म. को श्री सम्मेदशिखरजी की यात्रा की आज्ञा के साथ में मुनिराज श्री हितेशचन्द्र विजयजी थे । मुनिराज श्री जयप्रभविजयजी तीर्थ यात्रा करते हुए बनारस पधारे। यहां उनका वर्षावास हुआ और दि. 5-11-1989 को पंडित सभा काशी द्वारा मुनिराज को सम्मानित करते हुए ज्योतिषाचार्य की उपाधि से अलंकृत किया । सं. 2046 का वर्षावास आचार्यश्री का श्रीकिशोरमलजी सुमेरमलजी, भीनमाल वालों की ओर से श्री मोहनखेडा तीर्थ पर हुआ। जहां श्री सुमेरमलजी हजारीमलजी लुंकड, भीनमाल से संघ सहित आचार्यश्री की सेवा में और मनमोहन पार्श्वनाथ एवं गुरूमंदिर की अंजनशालाका हेतु विनती की । वर्षावास काल में सामूहिक नवकार आराधना के साथ ही अन्य धार्मिक कार्यक्रम भी सम्पन्न हुए । वर्षावास के पश्चात् श्री मोहनखेडा तीर्थ से विहारकर बांसवाडा पधारे जहां आपके पावन सान्निध्य में गुरु सप्तमी पर्व धूमधाम से मनाया गया। यहां से विहार कर मार्गवर्ती ग्राम-नगरों में गुरुगच्छ की ध्वजा फहराते हुए आचार्यश्री भीनमाल पधारे । जहां माघ शुक्ला चतुर्दशी को श्री सुमेरमलजी हजारीमलजी लुंकड, द्वारा नव निर्मित मंदिर में भगवान मनमोहन की अंजनशलाका एवं गुरु मूर्तियों की प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई । इस समय भी विभिन्न क्षेत्रों में अपने आज्ञानुवर्ती मुनिराजों एवं साध्वियां को ओदश देकर वीस स्थानक उद्यापन दीक्षा, अट्ठाई महोत्सव आदि विभिन्न धार्मिक कार्य सम्पन्न करवाये । फाल्गुन शुक्ला नवमी को सोहनी उद्यान कुंदनपुर (काकमाड़ा) में नाहर श्री सुखराज बाबूलाल चेरिटेबल ट्रस्ट द्वारा निर्मित श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जिन मंदिर की प्रतिष्ठा आपके सान्निध्य में सम्पन्न हुई और फाल्गुन शुक्ला एकादशी को आपने पालीताणा की ओर विहार कर दिया । विभिन्न ग्राम नगरों को पावन करते हुए आचार्यश्री ने चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को पालीताणा में प्रवेश किया । स्मरण रहे कि दादावाडी एवं श्री राजेन्द्र जैन भवन पालीताणा के ट्रस्टियों ने पालीताणा में प्रतिष्ठोत्सव के लिए आचार्यश्री की सेवा में भीनमाल पधारकर विनंती की थी । आपके पालीताणा पधारते ही गतिविधियों में तीव्रता आ गई । दिनांक 14-4-90 को ट्रस्ट मण्डल की बैठक हुई और उसमें प्रतिष्ठोत्सव का निर्णय किया । साथ ही आवश्यक तैयारियां भी प्रारम्भ हो गई । इतना ही नहीं ट्रस्ट मण्डल ने आचार्यश्री से वर्ष 2047 का वर्षावास पालीताणा स्थित श्री राजेन्द्र जैन भवन में कराने का निर्णय लिया और उसके अनुरूप आचार्यश्री की सेवा में उपस्थित होकर ट्रस्ट मण्डल ने वर्षावास हेतु विनती की । वैशाख शुक्ला त्रयोदशी को वर्षावास का निर्णय हो गया, स्वीकृति मिल गई । ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्दशी को आचार्यश्री का श्री राजेन्द्र जैन भवन में भव्य प्रवेशोत्सव हुआ । प्रतिष्ठोत्सव समारोहपूर्वक सानन्द सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर पुत्तलिकाओं की एक प्रदर्शिनी भी लगाई गई थी, जो दर्शनार्थियों के आकर्षण का विशेष केन्द्र बनी रही । Ucation हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 41 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति www.jaingelibrary.or Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरामणि अभिनंदन ग्रंथ वर्षावास काल प्रारम्भ होने के साथ ही धार्मिक क्रियायें प्रारम्भ हो गई । यथासमय सामूहिक नवकार महामंत्र की आराधना भी हुई । अनेक तपस्यायें भी हुई । इस वर्षावास की सबसे उल्लेखनीय बात यह रही कि यहां दिनांक 15-9-1990 से 17-9-1990 तक तीन दिवसीय अखिल भारतीय जैन साहित्य समारोह पू. आचार्य भगवंत के पावन सान्निध्य में सात सत्रों में सम्पन्न हुआ । इस समारोह में जैन विद्या के जाने माने विद्वानों ने देश के विभिन्न भागों से यहां आकर अपने अपने आलेखों का वाचन किया । इस साहित्य समारोह में एक सौ से भी अधिक विद्वान यहां आए थे। अखिल भारतीय जैन साहित्य समारोह का उद्घाटन गुजरात के तत्कालीन मुख्य मंत्री श्री चिमनभाई पटेल ने किया था । इस अवसर पर विद्वानों के अतिरिक्त जो अन्य विशिष्ट महानुभाव उपस्थित थे, उनके नाम इस प्रकार हैं - माननीय श्री प्रवीणसिंह जाडेजा, पर्यावरण मंत्री, गुजरात सरकार, माननीय श्री दलसुखभाई पटेल, राजस्व मंत्री, गुजरात सरकार, दानवीर सेठ श्री दीपचंदजी एस. गार्डी, श्री किशोरचन्द्रजी एम. वर्धन, श्री फतेहलाल जी कोठारी, श्री संचयलालजी डागा, श्री सुमेरमलजी लुंकड श्री नृपराजजी जैन, श्री पुखराजजी लुंकड, श्री पी.वी.सेठ, श्री सी.एन. संघवी चातुर्मास समिति के अध्यक्ष श्री शांतिलालजी मुथा और अ.भा. जैन साहित्य समारोह के संयोजक डॉ. रमणभाई सी. शाह | यह अखिल भारतीय जैन साहित्य समारोह अपने आप में अनुपम था । कारण कि किसी भी साहित्यिक समारोह में इतनी बड़ी संख्या में विद्वानों का आगमन सामान्यरूप से नहीं होता है । समय की कमी के कारण अनेक विद्वानों के आलेखों का सार संक्षेप ही प्रस्तुत किया गया । कुछ विद्वानों के आलेखों के शीर्षक बता दिये गये । यह समारोह इस अर्थ में अपना वैशिष्ट्य रखता है कि जैन मतावलम्बियों के सबसे बड़े तीर्थ स्थल पर सम्पन्न हुआ । और इसमें विविध विषयों से सम्बन्धित आलेख प्रस्तुत किये गये जिनका प्रकाशन भी एक समस्या बन गयी। समारोह के उद्घाटन के दिन पालीताणा को पवित्र नगर घोषित करने और जैन विद्या के विकास के लिये स्वतंत्र विश्वविद्यालय की स्थापना की मांग भी उठी थी । पवित्र नगर घोषित करने की मांग को लेकर तो वक्ताओं में होड़ सी लग गई थी । मंच पर विराजित गुजरात के मुख्यमंत्री माननीय श्री चिमनभाई पटेल ने इस मांग को आंशिक रूप से पूरी करने की बात कही थी । कुल मिलाकर यह साहित्यिक समारोह सफल रहा । समारोह के अंतिम दिन रात्रि में एक आध्यात्मिक कवि सम्मेलन भी सम्पन्न हुआ, जो देर रात तक चलता रहा । इस अखिल भारतीय जैन साहित्य समारोह की व्यवस्था सुन्दर बनाये रखने में श्री प्रकाशचन्द्रजी जैन, मैनेजर, श्री राजेन्द्र भवन एवं श्री गट्टभाई, मैनेजर, श्री राजेन्द्र विहार दादावाड़ी का सहयोग भी प्रशंसनीय रहा । वि. सं. 2047 का पालीताणा का आपश्री का वर्षावास प्रत्येक दष्टि से सफल रहा। अपने इस ऐतिहासिक वर्षावास के पश्चात् पालीताणा से अपने मुनिमण्डल के साथ मारवाड़ की ओर विहार कर दिया । मार्गवर्ती विभिन्न ग्राम नगरों को पावन करते हुए आपश्री भीनमाल पधारे । आपके यहां पदार्पण से धार्मिक जाग्रति उत्पन्न हो गई और श्री संघ में उत्साह का संचार हुआ । भीनमाल में शंखेश्वर गुरुमंदिर की प्रतिष्ठा आपश्री के पावन सान्निध्य में सम्पन्न हुई । यही पर कु:मंजू खीमराज जी मेहता को जैन भागवती दीक्षा प्रदान कर उसे साध्वी श्री विनितप्रभाश्रीजी म. के नाम से साध्वीश्रीजी ललितश्रीजी म.सा. की शिष्या घोषित किया । यहां का कार्यक्रम सम्पन्न कर आपने बागरा की ओर विहार किया, जहां आपके सान्निध्य में उपधान प्रारम्भ हुआ । बागरा में उपधान चल ही रहा था कि आपने पुनः यहां से भीनमाल की ओर विहार कर दिया । भीनमाल पधारकर आपश्री ने श्रीमान, धर्मचंदजी बाफना की सुपुत्री कु. अनिता बाफना को जैन भगवती दीक्षा प्रदान की और उन्हें साध्वी पुनीतप्रज्ञाश्रीजी म. के नाम से सुसाध्वीजी श्री ललितश्रीजी म.सा. की शिष्या के रूप में प्रसिद्ध किया। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 42 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति raine Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था भीनमाल का दीक्षा कार्यक्रम सम्पन्न कर वहां से विहार कर आप बागरा पधारे। जहां आपके सान्निध्य में उपधान तप की माला का कार्यक्रम हर्षोल्लासमय वातावरण के बीच आन्नद सम्पन्न हुआ। पू. आचार्य भगवंत की सेवा में बम्बई के गुरुभक्तों की विनती वर्षों से होती आ रही थी। वहां विभिन्न क्षेत्रों में कुछ प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न होना था। गुरुभक्तों की आग्रहभरी विनंती की अधिक समय तक विलम्बित नहीं रखा जा सकता था। इस वर्ष तो वहां के गुरुभक्तों की विनंती पुरजोर रूप से थी। उनकी भावना को सम्मान देते हुए पूज्य आचार्य भगवंत ने मारवाड़ से बम्बई की ओर अपने मुनि मण्डल के साथ विहार कर दिया। आपके मारवाड़ से बम्बई की ओर विहार की सूचना बम्बई के गुरुभक्तों को मिल गई। इस सूचना से वहां के गुरुभक्तों में हर्ष की लहर व्यक्त हो गई और उन्होंने अपने यहां के कार्यक्रमों की तैयारियां प्रारम्भ कर दी। मार्गवर्ती विभिन्न गांव-नगरों को पावन करते हुए आपका पदार्पण महानगर बम्बई के उपनगर वर्धमान नगर में हुआ। भव्य समारोहपूर्वक प्रवेष हुआ। इस समय गुरुभक्तो का उत्साह देखते ही बनता था। वर्धमान नगर में श्री किषोरचन्द एम वर्धन के संयोजन में श्री शंखेष्वर पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिष्ठा का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। यहां का कार्यक्रम सम्पन्न कर आपश्री मुनि मण्डल सहित सर्वोदयनगर पधारे। सर्वोदयनगर में भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमाजी की प्रतिष्ठा सम्पन्न की। इस प्रतिष्ठोत्सव के अवसर पर गच्छाधिपति श्री दर्षनसागरसूरीष्वरजी म.सा. विषेष रूप से उपस्थित थे। सर्वोदयनगर की प्रतिष्ठा का कार्यक्रम सम्पन्न होने के पष्चात आपश्री वहां से विहार कर मलार मालवणी पधारे जहां आपश्री के सान्निध्य में प्रतिष्ठोत्सव कार्य सानन्द सम्पन्न हआ। मलार मालवणी से विहार कर आप कमाठीपुरा पधारे जहां आपके पावन सान्निध्य में भगवान नमिनाथ जिनालय का षिलान्यास कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। इसी बीच आपका वि.सं. 2048 का वर्षावास महालक्ष्मी क्षेत्र में श्री किषोरचन्द एम.वर्धन एवं श्री घमंडीराम गोवाणी परिवार की ओर से होना घोषित हो चुका था। वर्षावास का समय अति निकट आगया था। अतः कमाठीपुरा से आपने वर्षावास स्थल तिरूपति अपार्टमेंट, महालक्ष्मी रोड के लिये विहार किया। विभिन्न मार्गो से होता हुआ प्रवेषोत्सव का चल समारोह तिरूपति अपार्टमेंट पहुँचा और वहां पहुंचकर धर्मसभा में परिवर्तित हो गया। इस धर्मसभा में विभिन्न वक्तओं ने अपने हृदयोदगार प्रकट किये। इसके साथ ही चातुर्मासिक धर्म आराधनाएं प्रारम्भ हो गई, पर्युषपर्व में अच्छी तपस्यायें हुई। यह महापर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। इससे पूर्व महामंत्र नवकार को सामूहिक आराधना का कार्यक्रम भी सानंद सम्पन्न हुआ। जिसमें अच्छी संख्या में आराधकों ने सम्मिलित होकर आराधना का लाभ लिया। विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों के साथ वर्षावास समाप्त हुआ और सकल श्री जैन संघ की और से श्री मोहनखेड़ा तीर्थ के लिये आपश्री की निश्रामें छरी पालित संघ का निर्णय हुआ। निर्णयानुसार निष्चित शुभ मुहूर्त के दिन बम्बई के सुमेरटावर से तीन सौ यात्रियों के साथ आपश्री के सान्निधय में छ'री पालित संघ ने श्री मोहनखेड़ा तीर्थ के लिये प्रस्थान किया इसके पूर्व भूती निवासी कुमारी मारती को आपने जैन भागवती दीक्षा प्रदान कर साध्वी हर्षवर्धताश्री के नाम से सु साध्वीजी श्री संघवणाश्रीजी म.सा. की षिष्या के रूप में प्रसिद्ध किया। छ: री पालित संघ मार्गवर्ती ग्राम-नगरों से होता हुआ आपके सान्निध्य में श्री मोहनखेडा तीर्थ पहुंचा । संघमाला के कार्यक्रम में म.प्र. के मुख्यमंत्री श्री सुन्दरलाल पटवा मुख्य अतिथि के रूप में विशेष रूप से उपस्थित हुए थे। इस अवसर पर मुमुक्षु नीलेशकुमार महेन्द्रकुमार भण्डारी को आपश्री ने जैन भागवती दीक्षा प्रदान की और मुनि श्री पीयूषचन्द्रविजयजी म. के नाम से मुनिराज श्री ऋषभचन्द्रविजयजी म.सा. के शिष्य के रूप में प्रसिद्ध किया। इसी अवसर पर कु. अरविन्दा जेठमलजी छोगाजी को भी दीक्षाव्रत प्रदान कर साध्वी श्री मुक्तिप्रज्ञाश्रीजी के नाम से सुसाध्वीजी श्री मुक्तिश्रीजी म.सा. की शिष्या के रूप में घोषित किया । इसी अवसर पर भगवान आदिनाथ की प्रतिमाजी की अंजनशलाका भी सम्पन्न की। वि.सं. 2050 का वर्षावास पू. आचार्यदेव एवं मुनिमण्डल का सियाणा जालोर निवासी श्री हुकमीचन्दजी लालचंदजी बागरेचा वर्तमान में राणीबेन्नुर (कर्नाटक) की ओर से श्री मोहनखेडा तीर्थ पर विभिन्न धार्मिक क्रियाओं एवं आराधनाओं के साथ सानन्द सम्पन्न हुआ । यहां सुसाध्वीजी श्री मुक्तिश्रीजी म.सा. को प्रवर्तिनी पद से सामरोहपूर्वक अलंकृत किया गया। इस अवसर पर मुनिश्री पीयूषचन्द्रविजयजी म. तथा अन्य साध्वियांजी म. की बड़ी दीक्षा भी सम्पन्न हुई । वर्षावास की समाप्ति के पश्चात् आपश्री एवं मुनि मण्डल का समीपस्थ क्षेत्रों में धर्म प्रचारार्थ विचरण होता रहा । समय समय पर आपश्री श्री मोहनखेडा तीर्थ पर भी पधारते रहे । इसी बीच वि. सं. 2051 का वर्षावास भी आपश्री एवं मुनिमण्डल का श्री मोहनखेडा तीर्थ के लिये स्वीकृत हुआ । वर्षावास की अवधि में अन्य धार्मिक क्रियाओं के अतिरिक्त सदैव की भांति श्री नवकार महामंत्र की सामूहिक आराधना और महापर्व पर्युषण की आराधना समारोहपूर्वक हुई । अच्छी संख्या में तपस्यायें भी हई । वर्षावास समाप्त हुआ और समीपवर्ती क्षेत्रों में आपश्री का विचरण होता रहा । आपश्री की सेवा में इस समय मुमक्ष नरेशकुमार विजयकुमारजी मादरेचा निवासी रतलाम अर्थात मैं रह रहा था । आपश्री की सेवा में दीक्षाव्रत अंगीकार करने की प्रबल भावना थी । समय व्यतीत होता जा रहा था किन्तु दीक्षा का मुहूर्त नहीं मिल पा रहा था । पू. आचार्य भगवन हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 43 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति fliestion Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरामणि आभनंदन गया से इस सम्बन्ध में सतत् आग्रहपूर्ण विनती भी की जा रही थी । अंतत: मेरी आकांक्षापूर्ति का मार्ग प्रशस्त उस समय हुआ जब पू.आचार्य भगवन ने मेरे दीक्षा समारोह के लिये फाल्गुन कृष्णा द्वितीया सं. 2051 दिनांक 27-2-1994 का मुहूर्त प्रदान कर दिया । पू. आचार्य भगवन एवं मुनिमण्डल ग्रामानुग्राम धर्म प्रचार करते हुए पावा पधारे जहां प्रतिष्ठा की जाजम हुई पावा से शंखेश्वर पधारें जहां अंजनशलाका एवं प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न किया और दि. 21-2-1994 को मुमुक्षु सुनीलकुमार मणिलाल गुगलिया को जैन भागवती दीक्षा प्रदान कर मुनि श्री लाभेशविजयजी म. के नाम से पन्यास प्रवर श्री लोकेन्द्रविजयजी म.सा. के शिष्य के रूप में प्रसिद्ध किया । दिनांक 27-2-1994 को प्रतिष्ठोत्सव के अवसर पर मुमुक्षु नरेशकुमार विजयजकुमार मादरेचा अर्थात् मुझे पू. गुरुदेव आचार्य भगवन ने जैन भागवती दीक्षा प्रदान कर मुनिश्री प्रीतेशचन्द्रविजय के नाम से अपना शिष्य घोषित किया । यहां के कार्यक्रम सम्पन्न कर आपश्री ने मुनिमण्डल सहित पुनः पावा की ओर विहार किया जहां भगवान श्री संभवनाथ की अंजनशलाका एवं प्रतिष्ठाकार्य सानन्द सम्पन्न का आहोर की ओर विहार किया । आपके आहोर पधारते ही वहां हर्ष और उल्लास का वातावरण छा गया । आहोर में वैशाख शुक्ला दशमी सं. 2051 दिनांक 20-5-1994 को तीन वैरागन बहनों को दीक्षाव्रत प्रदान किया जिनके नाम इस प्रकार है-1. कु. निर्मला मांगीलाल तिलेसरा 2. कु. कान्ता मांगीलाल तिलेसरा एवं 3. श्रीमती सेवन्ती बहन पत्नी प्रकाशचन्दजी । इन तीनों नवदीक्षित साध्वियां को सुसाध्वीजी श्री संघवणाश्रीजी म.सा. की शिष्या घोषित किया गया । इंसी समय आपश्री के वि.सं. 2051 के वर्षावास की आग्रहभरी विनतियां भी हो रही थी । श्री सुमेरमलजी लुंकड परिवार की ओर से आपश्री के वर्षावास की घोषणा पालीताणा के लिये हुई । पालीताणा के लिये वर्षावास की घोषणा होने के पश्चात् आपश्री का विहार पालीताणा की ओर हो गया । निश्चित समय पर वर्षावास के लिये आपका प्रवेश श्री राजेन्द्र दादावाडी पालीताणा में हुआ । इस वर्षावास में लगभग 800 आराधकों ने धर्माराधना की । इस वर्षावास में तपस्यायें भी खूब हुई । अर्हत योगी मुनिराजश्री रवीन्द्र विजयजी म.सा. ने मासखमण की तपस्या की । तपस्या के पारणे के अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री दिग्विजयसिंह पालीताणा आये थे । इस वर्षावास की एक अन्य उल्लेखनीय बात यह रही कि इस समय सम्मेदशिखरजी तीर्थ विषयक राजेन्द्र दादावाडी में साधु सम्मलेन का आयोजन भी पू. आचार्य भगवन के सान्निध्य में हुआ। जिसमें तेरह आचार्य भगवन् भी पधारे थे । गच्छाधिपति श्री प्रद्युम्नविमल सूरीश्वरजी म.सा. ने ग्यारह उपवास की तपस्या की थी। यहीं पू. आचार्यश्री द्वारा मुनिराज श्री रवीन्द्रविजयजी म.सा. एवं मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजी म.सा. से श्री भगवतीसूत्र के योगोदवहन भी करवाये और यहीं उक्त दोनों मुनिराजों को पन्यास पद से समारोहपूर्व अलंकृत किया। यहां श्री पुखराजजी केसरीमलजी कंकू चौपड़ा निवासी आहोर एवं श्री हस्तीमलजी केसरीमलजी बागरेचा के आयोजन में नवाणु की दो यात्राएं भी आपश्री ने सम्पन्न करवाई। इस प्रकार आपश्री का यह वर्षावास सभी दृष्टि से अति सफल एवं ऐतिहासिक रहा । वर्षावास समाप्त होने के पश्चात् आपश्री ने मुनि मण्डल के साथ बम्बई की ओर विहार कर दिया । विभिन्न ग्राम नगरों को पावन करते हुए आपका पर्दापण नवसारी हुआ। जहां आपश्री के पावन सान्निध्य में गुरुसप्तमी पर्व पंचान्हिका महोत्सव सहित भव्यरूप से मनाया गया। नवसारी से विहार कर मार्गवर्ती ग्राम-नगरों में धर्मप्रचार करते हुए आपका पर्दापण बम्बई में हुआ । आपके यहां पधारते ही गुरुभक्तों में जागृति उत्पन्न हो गई । कमाठीपुरा, बम्बई में पू. आचार्यश्री के सान्निध्य में भगवान श्री नमिनाथ जैन मंदिर की प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई । फिर यहां से आप सुमेर टावर पधारे जहां भगवान श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा सम्पन्न कर नीलमनगर पधारे । जहां पर आपके सान्निध्य में प्रतिष्ठोत्सव सम्पन्न हुआ और यहीं पर आपके सान्निध्य में एवं भारत जैन महामण्डल के नूतन अध्यक्ष श्री किशारेचंद एम. वर्धन की अध्यक्षता में भारत जैन महामण्डल का अधिवेशन हुआ । इस अवसर पर भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री लालकृष्ण अडवाणी एवं महाराष्ट्र के उपमुख्य मंत्री श्री गोपीनाथ मुण्डे भी विशेष अतिथि के रूप में उपस्थित थे । उल्लेखनीय बात यह है कि भा. ज. पा. के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री लालकृष्ण अडवाणी ने पू. आचार्यश्रीजी को राष्ट्रसंत की उपाधि से अलंकृत किया और आपको एक अभिनन्दन पत्र भी भेंट किया । यहां के कार्यक्रम सम्पन्न कर आपने यहां से विहार कर दिया । मार्गवर्ती विभिन्न ग्राम नगरों को पावन करते हुए आपका पदार्पण भीनमाल हुआ । जहां आपके पावन सान्निध्य में भगवान श्री लक्ष्मीवल्लभ पार्श्वनाथ बहत्तर जिनालय का शिलान्यास सम्पन्न हुआ। और इसी अवसर पर आपके कर कमलों हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 44 हेमेन्द्र ज्योति * हेगेन्द्र ज्योति Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था से मुमुक्षु श्री मनीषकुमार महेन्द्रकुमार भण्डारी को दीक्षाव्रत प्रदान किया गया । दीक्षोपरांत नव दीक्षितमुनि को मुनिश्री रजतचन्द्र विजयजी म. के नाम से मुनिराज श्री ऋषभचन्द्र विजयजी म.सा. 'विद्यार्थी' का शिष्य घोषित किया। भीनमाल के कार्यक्रमों की समाप्ति के पश्चात आपने आहोर की ओर विहार किया । मार्गवर्ती ग्राम-नगरों को पावन करते हुए आपका पदार्पण आहोर हुआ जहां आपके सान्निध्य में श्री घेवरचंदजी हुकमीचंदजी का जीवित अट्ठाई महोत्सव सम्पन्न हुआ और फिर आपने आहोर से जोधपुर के लिये विहार कर दिया । आचार्य के रूप में आपका यहां प्रथम बार ही पदार्पण हुआ इस कारण श्री संघ में विशेष उत्साह एवं हर्ष की लहर व्याप्त हो गई । आपके पदार्पण के उपलक्ष्य में यहां पंचान्हिका महोत्सव का आयोजन हुआ । जोधपुर से विहार कर ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए आपका पर्दापण श्री नाकोड़ा जी हुआ जहां आपकी प्रेरणा से श्री राजेन्द्र सूरि दादावाड़ी के लिये भूमि क्रय की गई और भूमि पूजन भी आपके सान्निध्य में सम्पन्न हुआ। श्री नाकोड़ा जी से विहार कर आपका पदार्पण सांचोर होते हुए थराद हुआ । जहां आपकी तीन दिन तक स्थिरता रही। तीनों दिन महोत्सव का अयोजन हुआ और आपके सान्निध्य में दादा गुरुदेव तपस्वी मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. की पुण्य तिथि समारोह पूर्वक मनाई गई । स्मरण रहे कि थराद में आपका नगर प्रवेशोत्सव ऐतिहासिक रूप से हुआ था । प्रवेशोत्सव के समय गुरुभक्तों का उत्साह/उमंग देखते ही बनता था । थराद श्रीसंघ पर अपनी अमिट छाप छोडकर आपने यहां से शंखेश्वर के लिये विहार किया । इस वर्ष अर्थात सं 2053 का आपका वर्षावास शंखेश्वर के लिये स्वीकृत हुआ था। ग्रामानुग्राम गुरु गच्छ का नाम उज्ज्वल करते हुए यथासमय आपका शंखेश्वर पदार्पण हुआ और समारोहपूर्वक वर्षावास के लिये नगर प्रवेश सम्पन्न हुआ । वर्षावास स्थल पर धर्म सभा में विभिन्न वक्ताओं ने अपनी अपनी भावनाएं अभिव्यक्त की । इस वर्षावास में भी सदैव की भांति श्री नवकार महामंत्र की सामूहिक आराधना पर्युषण पर्व की आराधना विभिन्न त्याग तपस्याओं के साथ सम्पन्न हुई । यहां उपधान तप का भी आयोजन आपके सान्निध्य में हुआ। उपधान तप की माला का कार्यक्रम भी समारोहपूर्वक सम्पन्न हुआ । वर्षावास समाप्त हुआ और आपने यहां से मुनि मण्डल सहित श्री मोहनखेडा तीर्थ के लिये विहार कर दिया । ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए आपश्री मुनि मण्डल सहित श्री मोहनखेडा तीर्थ की भूमि पर पधारें । जहां आपके पावन सान्निध्य में पौष शुक्ला सप्तमी को गुरुसप्तमी पर्व भव्यातिभव्य समारोहपूर्वक मनाया गया । श्री मोहनखेडा तीर्थ पर ही आपके सान्निध्य में जैन पत्रकार सम्मेलन का आयोजन हुआ । इस अवसर पर श्री सुशील मनिजी म.सा. जिन्होंने जैन धर्म का प्रचार विश्व स्तर पर किया, वे तथा श्री सुभाष यादव उप मुख्यमंत्री म.प्र. सरकार विशेष रूप से उपस्थित हुए । श्री मोहनखेडा तीर्थ से विहारकर आपश्री खाचरोद पधारे । जहां आपके सान्निध्य में श्री शंखेश्वर जिन मंदिर का प्रतिष्ठोत्सव सम्पन्न हुआ । खाचरोद के कार्यक्रम सम्पन्न कर आप यहां से विहार कर पूज्य दादा गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की क्रियोद्धार भूमि जावरा पधारे । यहां आपका पाटोत्सव दिवस समारोहपूर्वक मनाया गया तथा यहां आपके कर कमलों से मुमुक्षु श्री पवनकुमार विजयकुमार मादरेचा को दीक्षा प्रदानकर मुनि श्री प्रीतेन्द्रविजय, (मुनि श्री चन्द्रयशविजय), के नाम से अपना शिष्य घोषित किया । जावरा में ही आपके सान्निध्य में श्री अ. भा. राजेन्द्र सूरि जैन फेडरेशन अधिवेशन भी सम्पन्न हुआ। यहां से मालवा के अन्य क्षेत्र में विचरण करते हुए श्री मोहनखेडा तीर्थ पधारे । यहां देश के विभिन्न श्री संघों द्वारा आपश्री से अपने अपने यहां वि. सं. 2054 के वर्षावास हेतु विनतियां की । देश काल परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए आपश्री ने साधु भाषा में भीनमाल श्री संघ को अपने वर्षावास की स्वीकृति प्रदान की । इस स्वीकृति से भीनमाल श्री संघ में हर्ष की लहर उत्पन्न हो गई और जय जयकार के निनादों से गगनमण्डल गुंजा दिया । यथासमय श्री मोहनखेडा तीर्थ से विहार कर मार्गवर्ती ग्राम नगरों को पावन करते हुए आपश्री का मुनिमण्डल सहित वर्षावास हेतु भीनमाल पदार्पण हुआ । श्रीसंघ द्वारा समारोहपूर्वक आपका भव्य रूप से नगर प्रवेश करवाया। यह चल समारोह नगर के विभिन्न मार्गों से होता हुआ वर्षावास स्थल पर जाकर धर्म सभा में परिवर्तित हो गया । जहां विभिन्न वक्ताओं ने अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान की । विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों जैसे श्री नवकार महामंत्र की आराधना पर्युषण पर्व आदि समारोहपूर्वक सम्पन्न हुए । इस वर्षावास में पन्यास प्रवर श्री लोकेन्द्रविजयजी म.सा. के एकाएक दुःखद निधन हो जाने से चारों ओर शोक की लहर व्याप्त हो गई । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द ज्योति45 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति ducation Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ वर्षावास की समाप्ति के पश्चात् पू. आचार्यश्री ने भीनमाल से विहार किया और शंखेश्वर पधारे । शंखेश्वर से आपका पदार्पण पालीताणा हुआ । जहां श्री बालचंदजी सरेमलजी रामाणी, गुढाबालोतान द्वारा नवाणु की यात्रा का आयोजन आपके सान्निध्य में किया गया जिसमें 300 आराधकों ने भाग लेकर लाभ लिया । पालीताणा से विहारकर विभिन्न ग्राम नगरों में गुरुगच्छ की धर्मध्वजा फहराते हुए आपश्री श्री मोहनखेडा तीर्थ पधारे । श्री मोहनखेडा तीर्थ की पावन भूमि पर आपके सान्निध्य में एक वृहद् आदिवासी सम्मेलन का आयोजन सम्पन्न हुआ। स्मरण रहे कि आदिवासियों को व्यसन मुक्त जीवन जीने की प्रेरणा इस प्रकार के सम्मेलनों में दी जाती है । इन सम्मेलनों से प्रेरित होकर हजारों की संख्या में आदिवासी भाईयों ने व्यसनों का त्याग किया है । आदिवासियों के सामाजिक सुधार आदि में ज्योतिषसम्राट मुनिराज श्री ऋषभचन्द्रविजयजी म.सा. 'विद्यार्थी का विशेष योगदान है। आदिवासियों को व्यसन मुक्त करने और सदाचार का जीवन व्यतीत करने के लिये वे उन्हें सतत् प्रेरणा प्रदान करते रहते हैं । समय अपनी गति से चलता रहता है, वह किसी की प्रतीक्षा नहीं करता है | समय व्यतीत होता रहा और वर्षावास का समय भी निकट आता जा रहा था । विभिन्न श्री संघों से वर्षावास के लिये आपकी सेवा में विनतियां आ रही थी । आपने देश काल परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए और श्री संघ राजगढ़ जिला धार की भावना को मान देते हुए वि. सं. 2055 के वर्षावास के लिए साधु भाषा में स्वीकृति प्रदान कर दी । इससे श्री संघ में हर्ष की लहर व्याप्त हो गई और वर्षावास के लिये तैयारियां प्रारम्भ हो गई । वर्षावास का समय समीप आया और आपश्री श्री मोहनखेडा तीर्थ से राजगढ़ पधारे । आपश्री का वर्षावास हेतु प्रवेशोत्सव समारोहपूर्वक सम्पन्न हुआ । प्रवेशोत्सव का चल समारोह नगर के विभिन्न मार्गों से होता हुआ वर्षावास स्थल हाथीवाला जिन मंदिर में जाकर धर्मसभा में परिवर्तित होगया । यहां वक्ताओं ने अपनी अपनी भावनाएं व्यक्त की और इसके साथ ही वर्षावास कालीन क्रियाएं प्रारम्भ हो गई । सं. 2055 का वर्षावास राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आयार्य श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा., पू. कोंकण केसरी मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा., पू. ज्योतिषसम्राट मुनिराज श्री ऋषभचंद्र विजयजी म. सा. तथा अन्य मुनि भगवंतों का राजगढ़ जिला धार में सम्पन्न हुआ । इस वर्षावास में विभिन्न धार्मिक क्रियाओं के साथ सामूहिक नवकार महामंत्र आराधना, तथा अनेक तपस्यायें भी सम्पन्न हुई । सम्पूर्ण वर्षावास काल में दर्शनार्थियों का निरन्तर आवागमन बना रहा । स्मरण रहे कि यह स्थान विश्व पूज्य प्रातः स्मरणीय गुरुदेव श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का स्वर्गारोहण स्थान है, इस कारण इसका विशेष महत्व है। वर्षावास सानन्द सम्पन्न हुआ और पू. आचार्यश्री ने राजस्थान की ओर विहार किया । मार्गवर्ती विभिन्न ग्राम नगरों को पावन करते हुए आप जालोर जिले के ग्राम भेंसवाडा पधारे यहां दिनांक 31-1-1999 सं. 2055 माघ शुक्ला चतुर्दशी को नवनिर्मित जिनालय में मूलनायक श्री शीतल शांतिनाथ आदि प्रभु के जिन बिम्बों, श्री गौतमगणधर, पू. गुरुदेव श्रीमद विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. एवं श्री भैरवनाथ व श्रीमणिभद्र इन्द्रदेव की प्रतिमाओं की अंजनशलाका प्रतिष्ठा दशान्हिका महोत्सव सहित सानंद सम्पन्न किया और वहां से विहार कर आप आहोर पधारे। आहोर में आचार्य भगवन के परम पावन सान्निध्य में श्री गोडीजी पार्श्वनाथ तीर्थ का शताब्दी समारोह विविध धार्मिक कार्यक्रमों के साथ सानन्द सम्पन्न हुआ । इन दोनों कार्यक्रमों के पश्चात् आचार्यश्री ने आहोर से विहार किया और आपश्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ पधारे । कुछ दिनों तक यहां स्थिरता रही फिर यहां से मुनिमंडल के साथ श्री मोहनखेडा तीर्थ के लिये विहार किया । मार्गवर्ती ग्राम-नगरों में जैनधर्म की ध्वजा फहराते हुए पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि श्री मोहनखेडा तीर्थ पधारे जहां आपके सान्निध्य में ओली जी की आराधना का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ । पू. राष्ट्रसंत शिरोमणिजी म. आदि मुनिमंडल एवं साध्वी मंडल का श्री मोहनखेडा तीर्थ से विहार हुआ और मार्गवर्ती ग्राम-नगरों का पावन करते हुए आप सिमलावदा जिला रतलाम पधारे । आपके यहां पदार्पण से हर्षोल्लास की लहर व्याप्त हो गई, साथ ही प्रतिष्ठा के कार्यक्रम भी प्रारम्भ हो गये । यहां पधारने पर आपश्री का समारोहपूर्वक प्रवेशोत्सव सम्पन्न हुआ। पू. कोंकण केसरीजी म. भी अपने शिष्य परिवार के साथ यहां पधार गये । सिमलावदा में हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 46 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति Education intell Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ नवनिर्मित जिनालय में भगवान श्री सुपार्श्वनाथजी, श्री गौतमस्वामजी, गुरुदेव श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. आदि का प्राण प्रतिष्ठा अष्टान्हिका महोत्सव सहित दिनांक 21-4-1999 को पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणिजी म. एवं श्रमणीवर्य साध्वी श्री प्रसन्नश्रीजी म. साध्वी श्री पुष्पाश्रीजी म., साध्वी श्री महेन्द्रश्रीजी म. आदि के पावन सान्निध्य में सानन्द सम्पन्न हुआ। इस प्रतिष्ठोत्सव के अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में महिला एवं बाल विकास मंत्री श्रीमती जमुनादेवी तथा अयक्ष के रूप में वन मंत्री श्री शंकर सोढी और विशेष अतिथि के रूप में श्री माणक अग्रवाल, श्री मोतीलाल दवे, विधायक, श्री सुमेरमल लुंकड, श्री हिम्मत कोठारी, आदि भी उपस्थित थे। सिमलावदा में पूज्य आचार्यश्री के सान्निध्य में एवं प. श्री कोंकण केसरीजी म. की प्रेरणा से अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन फेडरेशन की शाखा का गठन भी हुआ । सिमलावदा प्रतिष्ठोत्सव की समाप्ति के पश्चात् पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि आदि मुनि मंडल एवं साध्वी वृंद ने नागदा जिला उज्जैन की ओर विहार किया । जहां स्व. श्री लोकेन्द्रविजयजी म.सा. की पुण्य स्मृति में नवनिर्मित श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ आदि जिनबिम्बों एवं श्री पद्मावती, श्री नाकोड़ा भैरवनाथ की प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा पंचान्हिका महोत्सव सहित होनेवाली थी । दिनांक 25-4-1999 को पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि, पू. कोंकण केसरजी म. आदि मुनिमण्डल एवं साध्वी वृंद का समारोहपूर्वक नगर में स्थान स्थान पर तोरण द्वार बनाये गये थे । यहां का प्रतिष्ठोत्सव दिनांक 28-4-99 को हर्ष एवं उल्लासमय वातावरण में सानन्द सम्पन्न हुआ । इस अवसर पर म. प्र. शासन की आदिमजाति कल्याण मंत्री श्रीमती उर्मिलासिंह विशेष रूप से उपस्थित हुई । स्मरण रहे कि यह जिनालय समाजसेवी श्री मनोहरलाल चौरडिया ने अपने माता-पिता की स्मृति में महिदपुर रोड नाका, नागदा पर बनवाया है। इस अवसर पर संगीत के कार्यक्रम भी सम्पन्न हुए। नागदा का प्रतिष्ठोत्सव सम्पन्न होने पर पूज्य आचार्यश्री एवं श्री कोंकणकेसरी जी म. ने अपने साधु-साध्वी वृन्द के साथ जावरा की ओर विहार किया । नागदा से खाचरोद, बड़ावदा आदि मार्गवर्ती ग्राम-नगरों में धर्मप्रचार करते हुए आप जावरा पधारे, जहां श्रीसंघ जावरा ने सभी का भावभीना स्वागत कर समारोहपूर्वक नगर प्रवेश करवाया। जावरा में स्थानीय चौपाटी स्थित श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन मंदिर के पास नाहटा परिवार द्वारा प्रदत्त भूमि एवं सहयोग से ट्रस्ट मंडल द्वारा नवनिर्मित मंदिर में अधिष्ठायिका देवी श्री पार्श्वपद्मावती की मूर्ति स्थापना समारोह हर्षोल्लास के साथ भव्य रूप से सम्पन्न हुआ । इस निमित्त पूर्व में एक भव्य चल समारोह श्री राजेन्द्र सूरि जैन दादावाडी से निकाला गया । चल समारोह में आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के साथ ज्योतिषाचार्य मुनिराज श्री जयप्रभ विजयजी म., कोंकण केसरी मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म. सहमुनि मंडल एवं साध्वी मंडल चल रहे थे । यह चल समारोह नगर के प्रमुख मार्गों से होता हुआ चौपाटी स्थित नवनिर्मित मंदिर को प्रांगण में पहुंचकर धर्मसभा के रूप में परिवर्तित हो गया । पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के पावन सान्निध्य में मूर्ति स्थापना का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ | श्री संघ एवं चौपाटी ट्रस्ट मंडल की ओर से आचार्यश्री को काम्बली ओढाई गई । यहां श्री पार्श्व पद्मावती देवी की महापूजन भी पढ़ाई गई । जावरा के कार्यक्रम सम्पन्न कर पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि ने साधु साध्वियों के साथ जावरा से विहार कर दिया । मार्गवर्ती रतलाम आदि ग्राम-नगरों में जिनवाणी का संदेश देते हुए आचार्यश्री दिनांक 8-5-99 को श्री मोहनखेडा तीर्थ पधारे । आपके यहां आगमन के साथ ही विभिन्न ग्राम-नगरों के श्रीसंघों का भी आगमन हुआ । दिनांक 10-5-99 को आयोजित धर्मसभा में विभिन्न ग्राम-नगरों के श्रीसंघों ने आपश्री की सेवा में वर्षावास हेतु अपनी अपनी भावभीनी विनतियां प्रस्तुत की । पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. ने सबकी विनतियां ध्यानपूर्वक सुनी और देशकाल परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए सं. 2056 के वर्षावास के लिये राणीबेन्नूर जिला हावेरी (कर्नाटक) श्रीसंघ को साधु भाषा में स्वीकृति प्रदान की । इस घोषणा के साथ ही उपस्थित गुरुभक्तों के जयजयकार के निनादों से गगन मंडल गुंजा दिया । स्मरण रहे कि दक्षिण भारत के विभिन्न स्थानों के श्रीसंघ प... राष्ट्रसंत शिरोमणि जी म.सा. के वर्षावास के लिये कई वर्षों से विनंती करते आ रहे थे । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 47 हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति HITrollstone Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ चूंकि समय बहुत कम था और वर्षावास स्थल की दूरी अधिक थी । इसलिये पू. आचार्यश्री एवं पू. कोंकण केसरी जी म. आदि साधु-साध्वी वृन्द ने दिनांक 17-5-99 को श्री मोहनखेडा तीर्थ से राणीबेन्नूर की ओर विहार कर दिया । दक्षिण भारत की ओर : श्री मोहनखेडा तीर्थ से विहार हुआ और मार्गवर्ती ग्राम नगरों को पावन करते हुए आप मनावर पधारे । पू. आचार्य भगवन का यहां प्रथम बार ही आगमन हुआ । आपके आगमन से यहां हर्षोल्लास की लहर फैल गई। आपका समारोहपूर्वक नगर प्रवेश करवाया गया । प्रवेशोत्सव का चल समारोह नगर के विभिन्न मार्गों से होता हुआ उपाश्रय पहुंचा और वहां धर्मसभा में परिवर्तित हो गया । इस धर्मसभा में विभिन्न वक्ताओं ने अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान की । पू. कोंकण केसरी जी म. का सामयिक सारगर्भित प्रवचन हुआ । श्री संघ ने आपसे कुछ दिन ठहरने की आग्रहभरी विनती भी किंतु समयाभाव में उसे स्वीकार नहीं किया जा सका और आपने मनावर से विहार कर दिया । मनावर से सेन्धवा, सिरपुर आदि नगरों को पावन करते हुए आप धूलिया पधारे । आपके स्वागत में धूलिया के गुरुभक्त बैण्ड बाजों के साथ नगर के बाहर उपस्थित थे । आपके दर्शन होते ही वाद्य यंत्र बज उठे । रंगीन परिधानों में सुसज्जित ललनाओं के कोमल कंठों से स्वागत गीतों की स्वर लहरियों गूंज उठी । नगर प्रवेश का यह चल समारोह यहां से चल पड़ा और नगर के विभिन्न मार्गों से होता हुआ उपाश्रय जाकर धर्म सभा में परिवर्ति हो गया । इस धर्मसभा में विभिन्न गुरुभक्तों ने अपनी भावना को अभिव्यक्त किया और पू. आचार्यश्री तथा साधु-साध वी मंडल के धूलिया पधारने को अपना सौभाग्य माना। कोंकण केसरीजी म. का प्रभावशाली एवं प्रेरक प्रवचन हुआ। यहां आचार्य श्री के सान्निध्य में अ.भा. श्री राजेन्द्रसूरि जैन फेडरेशन की शाखा की स्थापना हुई । समाज के गरीब भाइयों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिये नवगठित शाखा ने संकल्प लिया और दो लाख रुपये का कोष भी तत्काल एकत्र कर लिया । धूलिया से विहार हुआ और मालेगांव, मनमाड़, शिर्डी आदि मार्गवर्ती ग्राम नगरों को पावन करते हुए आपका पदार्पण अहमदनगर हुआ । स्मरण रहे कि आपका इस ओर पदार्पण पहली बार ही हुआ और संयम व्रत अंगीकार करने के पश्चात् आप पहली बार दक्षिण भारत की धरा पर पधारे । यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक ही होगा कि पू. राष्ट्रसंत श्री अपने सांसारिक जीवन में कर्नाटक प्रदेश के बागेवाडी कस्बे में रहकर कपड़े का व्यवसाय कर चुके हैं । इस तथ्य से न केवल बागेवाडी कस्बे के आसपास के गुरुभक्त परिचित है, वरन् कर्नाटक के समीपवर्ती प्रदेशों के गुरुभक्त भी भलीभांति परिचित हैं । राष्ट्रसंत श्री आचार्य के रूप में उस क्षेत्र में प्रथमबार ही पधार रहे हैं । अतः जहां भी आपका आगमन होता, वहां गुरुभक्त आपके दर्शनों के लिये उमड़ पड़ते । प्रत्येक गुरुभक्त आपके श्रीमुख से जिनवाणी का अमृतपान कर आशीर्वचन प्राप्त करने के लिये लालायित हो उठता । अहमदनगर एक ऐतिहासिक नगर है, अपनी ऐतिहासिकता के अनुरूप ही राष्ट्रसंतश्री एवं समस्त साधु-साध्वी वृंद का यहां ऐतिहासिक स्वागत सम्मान अभिनन्दन भी हुआ । आपका यहां पदार्पण एक चिरस्मरणीय स्मृति प्रदान कर गया। अहमदनगर से आपका विहार हुआ और विभिन्न ग्राम नगरों में गुरुगच्छ का नाम उज्ज्वल करते हुए आप अपने साधु - साध्वीवृंद के साथ दूसरे ऐतिहासिक नगर बीजापुर पधारे | आपके बीजापुर पदार्पण से यहां के श्रीसंघ में हर्ष एवं उल्लास की लहर व्याप्त हो गई समस्त गुरुभक्त उमड़ पडे । बैण्ड बाजों एवं स्वागत गीतों की मधुर स्वर लहरी के साथ | राष्ट्रसंत श्री आदि का भव्य समारोह के साथ नगर प्रवेश हुआ । नगर के मुख्य मार्गों से हुआ आपके नगर प्रवेश का चल समारोह उपाश्रय पहुंचकर धर्मसभा में परिवर्तित होगया । धर्मसभा में विभिन्न व वक्ताओं ने आपके स्वागत सम्मान में अपनी भावना प्रकट की । कोंकण केसरी जी म. का सामयिक प्रभावशाली एवं प्रेरक प्रवचन हुआ । आचार्यश्री के मंगलवचन के साथ धर्मसभा समाप्त हुई । बीजापुर से विहार कर आचार्यश्री आदि हुबली पधारे । यहां कुछ दिनों की स्थिरता रही । हुबली में पू. दादा गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का 131 वाँ क्रियोद्धार दिवस एवं पू. आचार्यश्री के परम उपकारी गुरुदेव तपस्वी रत्न पू. मुनिप्रवर श्री हर्षविजयजी म.सा. का बयालीसवां महाप्रयाण दिवस समारोहपूर्वक सानन्द सम्पन्न किया । वर्षावास के समय की निकटता को देखकर आपने यहां से राणीबेन्नूर की ओर विहार कर दिया। हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 48 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ राणीबेन्नूर वर्षावास : जिस समय राष्ट्रसंत श्री आदि मुनिमण्डल एवं साध्वी मण्डल के साथ हुबली पधारे, उस समय आपके यहां पदार्पण की सूचना न केवल राणीबेन्नूर वरन् आसपास के विभिन्न ग्राम नगरों तक पहुंच चुकी थी । परिणाम स्वरूप जितने दिन आप हुबली में विराजमान रहे, वहां दर्शनार्थियों का सतत आवागमन बना रहा । राणीबेन्नूर श्री संघ ने गुरुभक्तों का तो अब प्रतिदिन आपकी सेवा में आना बना रहा । यह क्रम आपके राणीबेन्नूर पदार्पण तक बना रहा। परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. एवं पू. कोंकण केसरी मुनिराज श्री लेखेन्द्र शेखर विजयजी म.सा. ठाणा 7 तथा साध्वीजी श्री विमलयशाश्रीजी म.सा आदि ठाणा हुबली से विहार कर मार्गवर्ती ग्राम-नगरों को पावन करते हुए दिनांक 18-7-1999 को वर्षावास के लिए राणीबेन्नूर पधारे । हजारों गुरुभक्तों के साथ आपका समारोहपूर्वक भव्यातिभव्य नगर प्रवेश हुआ । वर्षों से जिस दिन की प्रतीक्षा यहां के गुरुभक्त कर रहे थे, वह स्वप्न आज साकार हुआ । नगर के विभिन्न मार्गों से होता हुआ नगर प्रवेश का चल समारोह वर्षावास स्थल पहुंचा। इस अवसर पर पूरे नगर का उत्साह एवं उमंग देखने योग्य था । अनेक स्थानों पर आपके स्वागत में गवलियाँ की गई । इस प्रवेशोत्सव के अवसर पर पू. आचार्यश्री तथा मुनिमण्डल साध्वी मण्डल की अगवानी करने के लिये दक्षिण भारत के राज्यों से अनेक श्रीसंघ तथा कर्नाटक के मंत्रीगण आये थे। यह चल समारोह जैन आराधना भवन पहुंचकर धर्मसभा में परिवर्तित हो गया । यहां सर्वप्रथम भगवान श्री सुविधिनाथ व विश्वपूज्य गुरुदेव श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. को माल्यार्पण कर दीप प्रज्वलित किया गया । तत्पश्चात् श्री संघ के अध्यक्ष श्री भंवरलाल भण्डारी ने स्वागत भाषण दिया । पू. राष्ट्रसंत श्री के मंगलाचरण के पश्चात् श्री कोंकण केसरीजी म. का प्रेरक प्रवचन हुआ । स्वागत समारोह की औपचारिकता पूर्ण होने के पश्चात् चढावे बोले गये । पू. आचार्यश्री को काम्बली औढ़ाने का लाभ 2 लाख 51 हजार रुपयों में श्री चम्पालालजी श्री हुक्मीचंदजी, श्री सोहनलालजी बागरेचा, रायचन्द हुक्मीचंद एण्ड कम्पनी वालों ने लिया । गुरु पूजन का लाभ भीनमाल निवासी श्री पृथ्वीराज लकलचन्दजी परिवार मुम्बई वालों ने लिया । पू. राष्ट्रसंत श्री के प्रथम बार कर्नाटक में आगमन पर से रू. 101 की प्रभावना श्रीसंघ की ओर से हुई। इस अवसर पर बेंगलोर, चित्रदुर्ग, बीजापुर, मैसूर, दावणगिरि, चेन्नई, मुम्बई, पूना, बेल्लारी, शिमोगा, हुबली आदि विभिन्न ग्राम नगरों से श्री संघों का आगमन हुआ था । आपके यहां पधारते ही वर्षावास कालीन धार्मिक कार्यक्रम प्रारम्भ हो गये । इसके साथ ही यहां दर्शनार्थियों का भी सतत् आवगमन प्रारम्भ हो गया । राष्ट्रसंतश्री एवं मुनिमण्डल के दर्शनार्थ केन्द्रीय उड्डयन मंत्री श्री अनंतकुमार तथा कन्नड फिल्म जगत के प्रसिद्ध अभिनेता श्री श्रीनाथ जैन आराधना भवन पधारे । राजस्थान जैन श्री संघ की ओर से दोनों महानुभावों का राजस्थानी परम्परानुसार स्वागत सम्मान किया गया । राणीबेन्नूर वर्षावास काल में तीन दिन तक श्री शंखेश्वर भगवान का जाप अखण्ड रूप से चला । श्री नवकार महामंत्र की सामूहिक आराधना में 175 आराधकों न भाग लिया । इस वर्षावास में तपस्याओं की तो जैसे झड़ी ही लगगई थी । मासखमण, सोलह, पन्द्रह, ग्यारह दस, नौ की तपस्या के साथ अट्ठाइयों की तो लडी ही लग गई थी । शत्रुजय तप, आयंबिल तथा चंदनबाला अट्ठम तप भी खूब हुए । श्री नवकार महामंत्र की आराधना के समय सिद्धचक्र पूजन का भी आयोजन हुआ। यहाँ ज्ञान शिविर का आयोजन भी हुआ जिसका संचालन मुनिराज श्री लाभेशविजयजी म. ने किया । यहां और भी अनेक कार्यक्रम सम्पन्न हुए। इन कार्यक्रमों में सभी भक्तों ने पूर्ण उत्साह के साथ भाग लिया । यहां पू. राष्ट्रसंतश्री जी म. तथा कोंकण केसरीजी म.सा. तथा पू. साध्वी मण्डल के पावन सान्निध्य में प.पू. पन्यास प्रवर स्व. श्री लोकेन्द्रविजयजी म.सा. गणिवर्य की पुण्यतिथि भी धूमधाम से मनाई गई । गुणानुवाद सभा में विभिन्न वक्ताओं ने उनका स्मरण करते हुए अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किये । पूज्यश्री की स्मृति में गरीबों को भोजन भी करवाया गया । इस प्रकार राणीबेन्नूर का वर्षावास सभी दृष्टि से सफल रहा । दक्षिण भारत में निवास कर रहे गुरुभक्तों की धार्मिक भावना को आपके दक्षिण भारत की धरती पर वर्षावास करने से काफी सम्बल मिला । उनकी वर्षों की आस पूरी हो गई । वर्षावास समाप्त हुआ । राणीबेन्नूर से विहार का दिन आ गया । सभी गुरुभक्त आश्चर्यचकित रह गये । वर्षावास के चार माह इतनी जल्दी व्यतीत हो गये । किसी को कुछ पता ही नहीं चल पया । हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति 49 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Happ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ वर्षावास की समाप्ति के पश्चात पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यश्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. एवं पू. कोंकण केसरी मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. ने साधु-साध्वियों के साथ मैसूर की ओर विहार कर दिया । मार्गवर्ती विभिन्न ग्राम नगरों को पावन करते हुए और जिनवाणी की अमृतवर्ष करते हुए पू. राष्ट्रसंतश्री का मैसूर पदार्पण हुआ । जहां दि. 13-12-1999 को श्री सुविधिनाथ जिन मंदिर एवं दादा गुरुदेव श्रीमद विजय राजेन्द्र सूरिजी म. के गुरुमंदिर का शिलान्यास एवं गुरु सप्तमी पर्व के उपलक्ष्य में आपश्री के सान्निध्य में पंचान्हिका महोत्सव सम्पन्न हुआ । उल्लेखनीय बात यह रही कि उड़ीसा की तूफान पीडित जनता के लिये पू. आचार्यश्री के पावन सान्निध्य में दस लाख रुपयों की सामग्री का दान हुआ । यह दान श्री जैन युवा संगठन के द्वारा दिया गया । इस अवसर पर कर्नाटक सरकार के प्रमुख मंत्री, जिलाधिकारी मैसूर, मैसूर रियासत के पूर्व युवराज पूज्य आचार्यश्री के दर्शनार्थ पधारे । मैसूर के कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न कर पू. आचार्यश्री ने प्रतिष्ठा महोत्सव को ध्यान में रखते हुए पुनः राणीबेन्नूर की ओर विहार कर दिया । मार्गवर्ती ग्राम-नगरों को पावन करते हुए आपश्री राणीबेन्नूर पधारे और यहां प्रातः स्मरणीय श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा, का ऐतिहासिक एवं अलौकिक कलाकृतियों द्वारा निर्मित मंदिर का निर्माण हुआ । इसकी प्रतिष्ठा दिनांक 18-2-2000 को हर्षोल्लास मय वातावरण में सम्पन्न कर आपने यहां से विहार कर दिया ओर टिपटूर नगर में पधार कर गुरुदेव श्री राजेन्द्र सूरिजी के गुरुमंदिर की प्रतिष्ठा दिनांक 8-3-2000 को भव्यातिभव्य समारोह के साथ सानंद की । यही पर सं 2057 के वर्षावास हेतु मद्रास श्री संघ को स्वीकृति मिली । स्मरण रहे इसी बीच पू. आचार्यश्री के दर्शनार्थ राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु प्रांतों से श्रीसंघ राणीबेन्नूर पधारे थे । वर्षावास की अवधि में मद्रास, बेंगलोर बीजापुर, राजमहेन्द्री, यादगिरी, विजयवाडा जैसे अनेक स्थानों के श्रीसंघों ने पू. आर्चाश्री के समक्ष अपने यहां वि.सं. 2057 के वर्षावास की विनंती की थी। देशकाल परिस्थिति को देखकर पू. आचार्यश्री ने मद्रास श्रीसंघ को सं. 2057 के वर्षावास के लिये साधुभाषा में अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी थी । इस स्वीकृति से मद्रास श्रीसंघ में हर्षोल्लास का वातावरण छा गया था । टिपटूर नगर के कार्यक्रम की समाप्ति के पश्चात् पू. आचार्यश्री ने मैसूर होते हुए तमिलनाडु की ओर विहार किया। ऊंटी, कुन्नूर, मेहुपालयम होते हुए आचार्यश्री शाश्वत नवपद ओली की आराधना के लिये कोयम्बतूर नगर में पधारे । कोयम्बतूर में आपका समारोह पूर्वक नगर पवेश हुआ । यहां पर भव्य आयंबिल खाते का खात मुहूर्त पू. आचार्यश्री के कर कमलों द्वारा किया गया । नवपद ओली की आराधना एवं आचार्य श्री के प्रथम बार यहां आगमन पर पंचान्हिका महोत्सव सम्पन्न हुआ । यहां से विहार कर इरोड होते हुए पू. आचार्यश्री का पदार्पण मदुराई हुआ। भव्य रूप से आपका नगर प्रवेशोत्सव सम्पन्न करवाया तथा आपके प्रथमबार पदार्पण पर मुदराई में श्री सुपार्श्वनाथ श्रीसंघ द्वारा अष्टान्हिका महोत्सव एवं श्री सुमतिनाथ श्रीसंघ द्वारा त्रिदिवसीय महोत्सव का भव्य आयोजन किया गया । यहां आचार्यश्री के प्रथम पदार्पण पर काम्बली वहोराने का लाभ रेवतड़ा निवासी श्री राजस्थान ट्रेडिंग कम्पनी एवं नरता निवासी श्री नायलोन इलेक्ट्रीकल्स परिवार द्वारा लिया गया । मदुराई के कार्यक्रम सम्पन्न कर आपने यहां से विहार कर दिया और तिरूचि (तिरूचिनापल्ली) नगर में पधारे । यहां पर भी आपके प्रथमबार पदार्पण पर अष्टान्हिका महोत्सव हुआ । काम्बली वहोराने का लाभ चौराऊ निवासी श्री रेखा इलेक्ट्रीकल्स परिवार द्वारा लिया गया । यहां से विहार कर तन्जावुर, कुम्भाकोणम, मायावरम, सिरकाली, चिदम्बरम, पनरूटी, कुडलूर, पांडिचेरी होते हुए आपका पदापर्ण चेन्नई (मद्रास) हुआ । जहां दि. 7-7-2000 को वर्षावास हेतु आपका भव्यातिभव्य नगर प्रवेशोत्सव सम्पन्न हुआ । नगर के विभिन्न मार्गों से होता हुआ आपके नगर प्रवेश का चल समारोह एकाम्बरेश्वर अग्राहरम साहुकारपेठ स्थित श्री राजेन्द्र जैन भवन पहुंचकर धर्म सभा में परिवर्तित हो गया । इस ६ र्मसभा में विभिन्न गुरुभक्त वक्ताओं ने अपनी अपनी भावना को अभिव्यक्ति प्रदान की। धर्मसभा में सामयिक प्रवचन भी हुए इसके साथ ही चातुर्मासिक धर्म आराधनाएं भी प्रारम्भ हो गई। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द ज्योति 50 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति HaryaJEOD Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन पंथ प.पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यश्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. का चेन्नई वर्षावास विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों तथा आराधनाओं के साथ सानन्द सम्पन्न हुआ। श्रद्धालुगण परस्पर चर्चा करने लगे कि वर्षावास का समय इतनी जल्दी व्यतीत हो गया कि कुछ पता ही नहीं चल पाया। चेन्नई के श्रीराजेन्द्र जैन भवन से वर्षावास की समाप्ति के बाद आपने अपने मुनिमंडल के साथ विहार कर दिया और आप चिकबालपुर पधारे, जहां आपके सान्निध्य में प्रतिष्ठा की जाजम का शुभ मुहूर्त निश्चित हुआ। फिर यहां से विहार कर आपका पदार्पण राणी बेन्नूर हुआ, जहां आपके सान्निध्य में गुरु सप्तमी पर्व त्रिदिवसीय कार्यक्रम के साथ समारोहपूर्वक मनाया गया। इस अवसर पर 100 जोड़ों से गुरुपद महापूजन का विधान भी किया गया। यहां का कार्यक्रम सम्पन्न करने आपने यहां से विहार कर दिया और पुनः चिकबालपुर पधारे। चिकबालपुर में दिनांक 7-2-2001 बुधवार को श्री महावीरस्वामी की प्रतिमाओं की एवं गुरु प्रतिमा की पंचाहिका महोत्सव के साथ प्रतिष्ठा आपके सान्निध्य में सम्पन्न हुई। चिकबालपुर से विहार कर आपका पदार्पण बैंगलोर में हुआ। वहां आपकी लगभग एक माह तक स्थिरता रही। इस अवधि में यहां के विभिन्न क्षेत्रों में महापूजनों का व अन्य आयोजन हुआ। जितनी अवधि तक आप बैंगलोर में रहे धर्मध्यान की धूम मची रही। फिर यहां से विहार कर दिया। बैंगलोर से विहार कर आप तम्कुर पधारे, जहां त्रिदिवसीय धार्मिक कार्यक्रम सम्पन्न कर वहां से टिपटूर नगर में पधारे। टिपटूर में आपके सान्निध्य में महावीर जयंती का समारोहपूर्वक आयोजन सम्पन्न हुआ। फिर यहां से विहार कर हासन, मेंगलोर, धर्मस्थल, मूएवंडी आदि मार्गवर्ती ग्राम-नगरों में विचरण करते हुए आपने चित्रदुर्ग नगर में समारोहपूर्वक प्रवेश किया। यहां पंचाह्निका महोत्सवपूर्वक भव्य गुरु मंदिर में गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. की प्रतिमा की प्रतिष्ठा का कार्यक्रम आपके सान्निध्य में ज्येष्ठ कृष्णा 2 दिनांक 9-5-2001 बुधवार को सानन्द सपन्न हुआ। यहां से विहार कर आप हुबली नगर में पधारे। यहां ज्येष्ठ शुक्ला 5 दिनांक 27-5-2001 को आपके सान्निध्य में गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के गुरुमंदिर का प्रतिष्ठा महोत्सव पंचालिका महोत्सव के साथ सानन्द हुआ। यहां पर आगामी वर्षावास के लिये आपकी सेवायें बैंगलोर, चित्रदुर्ग, हुबली, राजमहेन्द्री, काकीनाड़ा, नेल्लूर, बीजापुर आदि नगरों के श्री संघों ने अपने-अपने यहां वर्षावास करने के लिये बिनतियां की। परिस्थिति को देखते हुए राष्ट्रसंत शिरोमणि ने वर्ष 2001 के वर्षावास के लिये श्रीसंघ राजमहेन्द्री को अपनी स्वीकृति प्रदान की। यहां से विहार कर आप होस्पेट पधारे, जहां आपके सान्निध्य में विशाल नूतन महावीर भवन का उद्घाटन समारोहपूर्वक सम्पन्न हुआ। यहां से विहार कर आप हम्पी, बल्लारी, आदोनी, करनूल, गुंटूर, विजयवाड़ा, एटूर आदि नगरों में विचरण करते हुए आपने दिनांक 18 जुलाई 2001 को शुभ मुहूर्त में भव्यातिभव्य समारोह के साथ वर्षावास के लिए राजमहेन्द्री में प्रवेश किया। इस अवसर पर राजमहेन्द्री तथा अन्य ग्राम-नगरों से हजारों की संख्या में गुरुभक्त यहां आकर प्रवेशोत्सव में सम्मिलित हुए। प्रवेशोत्सव का यह समारोह नगर के विभिन्न मार्गों से होता हुआ वर्षावास स्थल पर पहुंचकर धर्मसभा में परिवर्तित हो गया। इस धर्मसभा में वक्ताओं ने अपनी-अपनी भावना को भावपूर्ण शब्दों में अभिव्यक्त किया। मुनिराज श्री कोंकणकेसरीजी म. का सामयिक प्रवचन हुआ। प.पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के मंगलवचन के साथ कार्यक्रम समाप्त हुआ। आपके प्रवेश के साथ ही यहां कार्यक्रम एवं आराधनाएं प्रारम्भ हो गई। वर्षावास काल में श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ अट्ठम, नवकार आराधना, 15 मासखमण, 51 उपवास, 21, 11 उपवास के साथ लगभग 20 अट्ठाइयां हुई। श्री भूरमल प्रतापी तखतगढ़ वालों का जीवित महोत्सव अट्ठाई महोत्सव के साथ मनाया गया। इसी प्रकार पतासीदेवी जेरूपजी गुड़ावालों का जीवित महोत्सव भी अट्ठाई महोत्सव के साथ मनाया गया। भगवान महावीर के 2600वें जन्म कल्याणक वर्ष के उपलक्ष्य में पंचालिका महोत्सव निम्नांकित कार्यक्रमों के साथ मनाया गया। इसका नाम दिया गया था - चलो जिनालय चलें.... हेमेन्य ज्योति* हेमेन्य ज्योति 51 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द ज्योति Cowwjainelaray. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ गुफा मंदिर : जिसमें वन्य प्राणी जैसे शेर, चीता, हिरण, बारहसिंगा, खरगोश, रीछ जैसे हिंसक एवं अहिंसक प्राणी एवं ऐसे ही अन्य जीव जन्तु का प्रदर्शन किया गया। हिंसक, अहिंसक दोनों प्रकार के प्राणी एक साथ प्रदर्शन करने का कारण अहिंसा भगवती का प्रभाव प्रदर्शित करता है, जिसकी अनुकम्पा से हिंसक भी अहिंसक हो जाता है। इसके साथ जैन अहिंसा फेअर (मेला) भी लगाया गया। गुरुपद महाविधान : वर्तमाल काल में पूज्य दादा गुरुदेव श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की महिमा अपरम्पार है। दादा गुरुदेव जन-जन की श्रद्धा के केन्द्र बिन्दु है। दादा गुरुदेव के महाविधान से आराधना से मनोवांछित फल तत्काल प्राप्त होते हैं। इस महाविधान में साधक गण आत्मशांति का अपने जीवन में अनुभव करते हैं। 108 सजोड़ों द्वारा पांच घंटों तक एक स्थान पर बैठकर शास्त्रोक्त विधि विधान से सम्पन्न होता है। जो समस्त विघ्न बाधाओं को दूर करता है एवं कार्यों में सफलता प्रदान करता है। नवकार महामंत्र की अखण्ड धुन : यो तो मंत्र अनेक हैं किंतु महामंत्र केवल एक है। वह है महामंत्र नवकार। इसका कारण है कि महामंत्र नवकार अनादि अनन्त है, शाश्वत है। यह व्यक्ति वाचक न होकर गुण वाचक है। इस महामंत्र में किसी व्यक्ति की स्तुति न की जाकर पंच परमेष्ठि अर्थात् सिद्ध, अरिहंत, आचार्य, उपाध्याय और विश्व के समस्त साधुओं के गुणों के प्रति वंदन किया गया है। इस महामंत्र महान चमत्कारिक मंत्र भी है। इसके आराधक को उसकी इच्छानुसार फल की प्राप्ति भी हो जाती है। आवश्यकता इस बात की है कि इस महामंत्र की आराधना पूर्ण लगन निष्ठा एवं श्रद्धा भक्ति के साथ होनी चाहिये। महामंत्र नवकार की आराधना से अनेक चमत्कार घटित हुए हैं। आइये हम भी भव तारणहार इस महामंत्र की आराधना कर कुछ लाभान्वित होने का प्रयास करें। छप्पन दिक्कुमारिका : भगवान भव्य सिंहासन पर बिराजमान रहेंगे। उनके दरबार में उनके पदाधिकारी यथास्थान विराजमान रहेंगे और यहां छप्पन दिक्कुमारिका का अति मनमोहन नृत्य संगीत का कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया। चलो जिनालय चलें : आज के भौतिक युग में आदमी इतना व्यस्त रहता है कि वह जिनालय जाकर भगवान के दर्शन करना तो दूर अपने स्वयं के संबंध में भी सोच नहीं पाता है। जिनालय जाने से प्रभु दर्शन से असीम शांति का अनुभव होता है। आदमी तनावों से मुक्त हो जाता है। जिनालय जाने का विचार करने मात्र से उसके पापों का क्षय होना प्रारम्भ होकर पुण्यार्जन होने लगता है। जैसे-जैसे व्यक्ति जिनालय की ओर कदम बढ़ाता है वैसे-वैसे उसके पुण्य कर्म में वृद्धि होने लगती है। वह स्वतः असीम आनंद का अनुभव करता है। जिनालय पहुंचकर और प्रभु के दर्शन करके जिस आनन्द और तृप्ति का बोध मनुष्य को होता है वह शब्दातीत है। इसके साथ ही विश्व अहिंसा रैली का भी आयोजन किया गया है। उल्लेखनीय है कि यह वर्ष भारत सरकार द्वारा अहिंसा वर्ष के रूप में मनाने के लिये घोषित किया है। इसकी सार्थकता तभी सम्भव है जब सरकार स्वयं बूचड़खानों में हो रही असंख्य निरीह प्राणियों की हत्या बंद करवा दे। अहिंसा एक नकारात्मक शब्द है। हिंसा नहीं करना ही अहिंसा है। यह इतना व्यापक शब्द है जिसका वर्णन सीमित शब्दों में कर पाना असम्भव है। अहिंसा एक ऐसा अस्त्र है जिसके माध्यम से असम्भव को सम्भव किया जा सकता है। ऐसी अहिंसा भगवती की आराधना और पालना विश्व के प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। इस प्रकार रामहेन्द्री का वर्षावास भव्य कार्यक्रमों के साथ सानन्द सम्पन्न हुआ और वर्षावास समाप्त होने पर आपने अपने मुनिमंडल सहित यहां से विहार कर दिया। उधर के क्षेत्रों में विचरण कर जिनवाणी का प्रचार-प्रसार करते रहे तथा ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए पौष कृष्ण को आप गुम्लेक तीर्थ पधारे। यहां भगवान श्री पार्श्वनाथ के त्रिदिवसीय अट्ठम तप की आराधना का आयोजन श्री हस्तीमलजी सरेमलजी कुहाड़ की ओर से किया गया था। तीन दिन तक यहां मेला लगा रहा। आपके यहां पदार्पण से कार्यक्रम और भी भव्य हो गया। आयोजकों के उत्साह हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 52 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति Belib Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ में अधिक वृद्धि हुई। यहां से आपने विहार कर दिया और तणुकु, निरदवोलु में प्रतिष्ठा को जाजम का शुभमुहूर्त प्रदान किया। फिर विहार कर आपका पदार्पण पेदीमीरम तीर्थ पर हुआ। यहां आपके सान्निध्य में गुरु सप्तमीपर्व समारोहपूर्वक मनाया गया। साथ ही यहां आपके ही सान्निध्य में प्रतिष्ठा महोत्सव के चढ़ावे की जाजम भी हुई। यहां से विहार कर आप तणुकुनगर पधारे। आपके यहां पधारने से गुरुभक्तों की वर्षों की भावना साकार हुई । यहां आपके सान्निध्य में माघ शुक्ला 6 को भगवान श्री शांतिनाथ भगवान, श्री गौतमस्वामी एवं गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा अष्टाहिका महोत्सव सहित सानन्द सम्पन्न हुई। यहां से विहार कर आप निरदवोलु नगर पधारे जहां आपका 19वां आचार्य पाट महोत्सव माघ शुक्ला 9 को हजारों गुरुभक्तों की उपस्थिति में हर्षोल्लासमय वातावरण में मनाया गया। यहां पर आपके सान्निध्य में पंचाह्निका महोत्सव सहित भगवान श्री श्रेयांसनाथ जिनमंदिर एवं श्रीमद् राजेन्द्रसूरि, श्रीमद् विद्याचंद्रसूरि गुरुमंदिर की प्रतिष्ठा भी सानन्द सम्पन्न हुई। यहां से विहार कर आप राजमहेन्द्री पधारे। जहां माघ शुक्ला पूर्णिमा के दिन भगवान श्री सुमतिनाथ, गुरुदेव श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी, श्री शांतिसूरिजी के मंदिर का शिलान्यास भव्य समारोह के साथ सम्पन्न हुआ। यहीं पर फाल्गुन कृष्णा प्रतिपदा को भगवान श्री सुमतिनाथ के जिनमंदिर का भूमिपूजन भी करवाया गया। राजमहेन्द्री के कार्यक्रम सम्पन्न कर आपने यहां से विहार कर दिया। रामचंद्रपुरम, द्राक्षावरम, काकीनाड़ा, सामलकोटा, पीठापुर, पेदापुर आदि मार्गवर्ती ग्राम-नगरों में विचरण करते हुए आप विशाखापट्टनम पधारे, जहां आपकी पांच दिन तक स्थिरता रही। इस अवधि में यहां अच्छी धर्मप्रभावना हुई। फिर यहां से विहार कर आपका पदार्पण विजयनगरम हुआ, जहां भगवान श्री संभवनाथ आदि जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा पंचाह्निका महोत्सवपूर्वक चैत्र शुक्ला 9 को आपके सान्निध्य में सानन्द सम्पन्न हुई। यहीं पर आपकी सेवा में बीजापुर, हुबली, चित्रदुर्ग, विशाखापट्टनम, काकीनाड़ा, विजयनगरम आदि स्थानों के श्रीसंघों ने वर्षावास के लिये विनती की। सन् 2002 के वर्षावास के लिए देशकाल परिस्थिति को देखते हुए आपने काकीनाड़ा श्रीसंघ को साधु भाषा में स्वीकृति प्रदान कर दी। इस स्वीकृति से काकीनाड़ा श्रीसंघ में हर्ष की लहर व्याप्त हो गई। विजयनगर से विहार कर आप विशाखापट्टनम पधारे जहां शासनपति भगवान महावीर की 2600वीं जन्म जयंती आपके सान्निध्य में बड़े ही हर्षोल्लासमय वातावरण में भव्य रूप से मनाई गई। यहां से विहार कर ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए आप पेदीमीरम तीर्थ पधारे। यहां आपके सान्निध्य में अक्षय तृतीया के दिन वर्षी तप के पारणे हुए और यहीं पर ऐतिहासिक एवं भव्य गुरुमंदिर में प्रभुजी राजेन्द्रसूरिजी म. की प्रतिमा की प्रतिष्ठा वैशाख शुक्ला 13 को समारोहपूर्वक सम्पन्न हुई। यहां से विहार कर आप तणुकु, निदरवोलु, राजमहेन्द्री आदि मार्गवर्ती ग्राम-नगरों में धर्मजागृति करते हुए गुम्मीलेरू पधारे। यहां त्रिदिवसीय भक्ति महोत्सव का आयोजन आपके सान्निध्य में हुआ। यहीं पर गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का क्रियोद्धार दिवस एवं पू. तपस्वीरत्न मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. की पुण्यतिथि समारोहपूर्वक मनाई गई। श्रमण पूतपस्वीरत्न मुनिराज हमारे ग्रंथनायक राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के दीक्षा गुरु थे। यहां से आपका विहार मुनिमंडल सहित रामचंद्रपुरम् डाथावरम् आदि मार्गवर्ती ग्राम-नगरों में होते हुए • वर्षावास के लिए काकीनाड़ा की ओर हुआ । वर्षावास के लिये दिनांक 15 जुलाई 2002 को समारोहपूर्वक आपका प्रवेश हुआ और उसी के साथ यहां वर्षावास कालीन धर्माराधनाएं प्रारम्भ हो गई। पू. आचार्यश्री के काकीनाड़ा में प्रवेश के साथ ही यहां चातुर्मासिक आराधनाएं प्रारम्भ हो गई। इस चातुर्मास में सदैव ही भांति श्री नवकार महामंत्र की आराधना हुई। पर्युषण महापर्व के अवसर पर भी धर्माराधना हुई। इस वर्षावास का एक दुःखद पक्ष भी रहा। दिनांक 29-8-2002 को एकाएक पूज्य मुनिराजश्री प्रीतेशचंद्रविजयजी म.सा. का स्वर्गवास हो गया। मुनिराजश्री के एकाएक स्वर्गवास से न केवल काकीनाड़ा में वरन् देशभर में फैले गुरुभक्तों में शोक की लहर व्याप्त हो गई। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 53 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था जिस समय पूज्य मुनिराज का स्वर्गवास हुआ, उस समय वे पू. आचार्य भगवंत के प्रकाश्यमान अभिनंदन ग्रंथ को अंतिम रूप देने में लगे हुए थे। आपने ग्रंथ के सम्पादक उज्जैन निवासी डॉ.तेजसिंह गौड़ तथा मुद्रक नेहज प्रिंटिंग प्रेस, बम्बई के श्री जयेशभाई तथा श्री परेशभाई को बुला लिया था और पिछले दो-तीन दिन से अभिनंदन ग्रन्थ को अंतिम रूप देने में व्यस्त रहे। दिनांक 28-8-2002 की रात्रि लगभग दस बजे तक अभिनंदन ग्रंथ की विषयवस्तु को अंतिम रूप दे दिया गया था और प्रकाश्यमान चित्रों को भी लगभग अंतिम रूप दिया जा चुका था, केवल कुछ ही चित्रों के विषय में विचार करना था। अभिनंदन ग्रन्थ की विषय वस्तु तो प्रेसवालों को सौंप दी गई और वे रात्रि में बम्बई के लिये प्रस्थान कर गये। चित्रों को दिनांक 29-8-2002 को अंतिम रूप देना था किन्तु शायद नियति को कुछ और ही मंजूर था। दिनांक 29-8-2002 को पू. मुनिराजश्री प्रीतेशचंद्रविजयजी म.सा. का एकाएक निधन हो गया। उन्हें अस्वस्थावस्था में तत्काल चिकित्सालय भी ले जाया गया, किन्तु वहां पहुंचने तक पंछी उड़ गया था, पिंजरा रह गया था। चिकित्सालय में डॉक्टरों ने परीक्षणोपरांत उन्हें मृत घोषित कर दिया। दिनांक 29-8-2002 को अपरान्ह उनका काकीनाड़ा में ही अंतिम संस्कार कर दिया। वर्षावास समाप्त हुआ और पू. आचार्यश्री ने अपने मुनिमंडल के साथ काकीनाड़ा से विहार कर दिया और वे गुम्मीलेरु तीर्थ पधारे। यहां से विहार कर आप पेदीमीरम तीर्थ पधारे, जहां पौष कृष्णा दशमी को भगवान् पार्श्वनाथ का जन्म कल्याणक मनाया गया और पर्वाराधना की गई। पेदीमीरम में पू. आचार्यश्री के करकमलों से प्रतिष्ठित श्री राजेन्द्र सूरि जैन दादावाड़ी में प्रथम बार गुरु सप्तमी पर्व आपके सान्निध्य में समारोहपूर्वक मनाई गई। पेदीमीरम के कार्यक्रम समाप्त होने पर पू. आचार्यश्री ने यहां से विहार कर दिया और मार्गवर्ती ग्रामों में विचरण करते हुए आपका पदार्पण राजमहेन्द्री में हुआ, जहां माघ शुक्ला षष्ठी को पू. आचार्यश्री के करकमलों से भगवान् सुमतिनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा समारोहपूर्वक सानन्द सम्पन्न हुई। राजमहेन्द्री में ही पू. आचार्यश्री का 20वां आचार्य पद प्रदानोत्सव समारोहपूर्वक मनाया गया। इस अवसर पर गुरुभक्तों का उत्साह देखने योग्य था। राजमहेन्द्री के कार्यक्रम सम्पन्न हुए और पू. आचार्यश्री ने यहां से विहार कर दिया। मार्गवर्ती ग्राम-नगरों में धर्म ध्वजा लहराते हुए आप विजयवाड़ा पधारे। आपके यहां पदार्पण से गुरुभक्तों में हर्ष की लहर व्याप्त हो गई। चूंकि मालवा की ओर से बार-बार यह विनती आ रही थी कि अब आपश्री मालवा की ओर पधारे। मारवाड़ के गुरुभक्तों की भी विनती आपकी सेवा में निरंतर पहुंच रही थी। मारवाड़ में कुछ प्रतिष्ठादि कार्य सम्पन्न होना थे। अतः पू. आचार्यश्री ने विजयवाड़ा से अपना विहार मालवा की ओर कर दिया। विजयवाड़ा से मालवा तक का विहार काफी लम्बा रहा। अनेक मार्गवर्ती ग्रामी-नगरों में गुरुगच्छ का नाम उज्ज्वल करते हुए, जिनवाणी का प्रचार-प्रसार करते हुए पू. आचार्य भगवंत अपने मुनिमंडल के साथ दिनांक 9-3-2003 को श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पधारे। आपके श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पधारने के पूर्व ही आपके पधारने के समाचार प्राप्त हो गये थे। अतः दिनांक 9-3-2003 को बड़ी संख्या में गुरुभक्त आपकी अगवानी करने के लिये एक-दो दिन पूर्व ही श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पहुंच चुके थे। आपके यहां पदार्पण से गुरु भक्तों में उमंग एवं उत्साह का संचार होगया। लगभग एक माह तक पू. आचार्यश्री की श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पर स्थिरता रही। इस अवधि में दर्शनार्थियों का सतत् आवागमन बना रहा। दिनांक 10-4-2003 को पू. आचार्यश्री ने श्री मोहनखेड़ा तीर्थ से. राजस्थान-मारवाड़ की ओर विहार कर दिया। ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए आप नरता पधारे, जहां आपके कर-कमलों से भगवान् मुनि सुव्रतस्वामी आदि जिन बिम्बों की प्रतिष्ठा समारोहपूर्वक सानंद सम्पन्न हुई। इस अवसर पर आचार्यश्री प्रद्युम्नविमल सूरीश्वरजी म.सा. विशेष रूप से उपस्थित हुए थे। यह प्रतिष्ठोत्सव श्री हरण-उदाणी परिवार की ओर से आयोजित किया गया था। नरता के प्रतिष्ठोत्सव की समाप्ति के पश्चात आपने यहां से विहार कर दिया और विभिन्न ग्रामों में विचरण करते हुए आप भीनमाल पधारे। स्मरण रहे कि पू. आचार्यश्री का लगभग पांच वर्षों के पश्चात् भीनमाल पदार्पण हुआ था। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 54हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्ट ज्योति Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ .......................... यहां दीक्षोत्सव का आयोजन था। पू. आचार्यश्री के भीनमाल पदार्पण के साथ ही भीनमाल में दीक्षोत्सव की तैयारियाँ प्रारम्भ हो गई। दिनांक 12-5-2003, वैशाख शुक्ला एकादशी सं 2060 को भीनमाल में पू. आचार्यश्री ने शुभ मुहूर्त में कु.शीतल पृथ्वीराजजी कावेड़ी को दीक्षाव्रत प्रदान कर साध्वीश्री प्रद्यप्रभाश्रीजी म. के नाम से साध्वीजी श्री मणिप्रभाश्री जी म. की शिष्या घोषित किया। दिनांक 14-5-2003 वैशाख शुक्ला त्रयोदशी सं. 2060 को भीनमाल में ही कु. मिण्ट्र पनराजजी सेठ को दीक्षाव्रत प्रदानकर पू. आचार्यश्री ने साध्वीश्री तत्वरुचि श्रीजी म. के नाम से साध्वीजी श्री तत्वदर्शनाश्रीजी म. की शिष्या घोषित किया। दिनांक 15-5-2003 वैशाख शुक्ला चतुदर्शी सं. 2060 को भीनमाल में ही पू. आचार्यश्री ने कु.कांता भण्डारी सूरजमल भण्डारी को दीक्षाव्रत प्रदान कर साध्वीश्री रत्नत्रयाश्रीजीम. के नाम से साध्वीजी श्रीसंघवणश्रीजी म. की शिष्या घोषित किया। भीनमाल के दीक्षोत्सव की समाप्ति के पश्चात् पू. आचार्यश्री ने भीनमाल से विहार कर दिया और ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए आप दिनांक 22-5-2003 को आहोर पधारे, जहां दिनांक 25-5-2003 को शुभ मुहूर्त में आचार्यश्री ने तीन मुमुक्षु बहनों को दीक्षाव्रत प्रदान किया, जिनके नाम इस प्रकार हैंसांसारिक नाम दीक्षा के पश्चात् नाम एवं गुरुणीजी कु. आशा कांतिलालजी, आहोर 1. साध्वीश्री अर्हयंशा श्रीजी म. 2. कु. निकिता कांतिलालजी, आहोर 2. साध्वीश्री निवेदेयशाश्रीजी म. 3. कु. शोभा देवीचंदजी, आहोर 3. साध्वीश्री संवेगयशाश्रीजी म. तीनों नूतन दीक्षिता साध्वियांजी को गुरुणीजी साध्वीजी श्री मणिप्रभाजी म. की शिष्या घोषित किया गया। आहोर के कार्यक्रम समाप्त होने के पश्चात् पू. आचार्यश्री पुनः भीनमालकी ओर पधारे। मार्गवर्ती ग्राम-नगरों मे विचरण करते हुए आप दिनांक 4-6-2003 को भीनमाल पधारे और दिनांक 8-6-2003 को शुभ मुहूर्त में कु. कल्पना एवं कु.सुरेखा आत्मजा बाबूलालजी साकलचंदजी हरण को दीक्षाव्रत प्रदान कर उनका नाम क्रम से साध्वीश्री प्रमोदयशाश्रीजी म. एवं साध्वीश्री प्रशमरशाश्रीजी म. रखा और दोनों को गुरुणी साध्वीजीश्री मणिप्रभाश्रीजी म.सा. की शिष्या घोषित किया। इसके साथ ही पू. आचार्यश्री ने भीनमाल में ही बारह साध्वियांजी को बड़ी दीक्षा के लिये योग प्रवेश करवाया और तत्पश्चात् विहार कर दिया। ____ मार्गवर्ती ग्राम नगरों में विचरण करते हुए पू. आचार्यश्री का पदार्पण बागरा हुआ। बागरा में पंचालिका महोत्सव के साथ गुरुदेव श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. का क्रियोद्धार दिवस मनाया गया। यह आयोजन श्रीमान् कांतिलालजी भण्डारी परिवार की ओर से किया गया था। बागरा का कार्यक्रम समाप्त कर आपने आहोर की ओर विहार कर दिया। पू. आचार्यश्री का सन् 2003 का वर्षावास आहोर के लिये स्वीकृत हो चुका था। वर्षावास का समय भी निकट आ गया था। बागरा से विहार कर ग्रामानुग्राम विचरण कर आप आहोर पधारे, जहां दिनांक 6-7-2003 को समारोहपूर्वक आपका वर्षावास के लिये प्रवेश करवाया गया। इस वर्षावास में आपके साथ पू. पंन्यास प्रवरश्री रवीन्द्रविजयजी म., पू मुनिराजश्री हितेशचंद्रविजयजी म., पू. मुनिराजश्री चंद्रयशविजयजी म., पू. मनिराजश्री दिव्यचंद्रविजयजी म. आदि रहे। आषाढ़ शुक्ला दशम को पू. आचार्यश्री ने बारह साध्वियांजी को बड़ी दीक्षा प्रदान की। हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 55 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द ज्योति ucation Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Education Int श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ आहोर वर्षावास में श्री नवकार महामंत्र की सामूहिक आराधना, पर्युषण पर्व की आराधना आदि हुई। इस वर्षावास में तपश्चर्यायें भी अच्छी संख्या में हुई। विभिन्न धर्माराधनाओं के साथ आहोर वर्षावास उत्साह उमंग एवं उल्लास के साथ सानंद सम्पन्न हुआ और वर्षावास समाप्ति के पश्चात् पू. आचार्यश्री ने आहोर से विहार कर दिया। ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए आचार्यश्री भूति पधारे, जहां पंचाह्निका महोत्सव के साथ गुरु सप्तमी पर्व समारोहपूर्वक मनाया गया। भूति के कार्यक्रम की समाप्ति के पश्चात् आचार्यश्री ने अपने मुनिमंडल के साथ विहार कर दिया। आप भूति से पावानगर पधारे, जहां माह पौष 2060 में ही अठारह अभिषेक सहित त्रिदिवसीय भक्ति महोत्सव का आयोजन आपके पावन सान्निध्य में सानन्द सम्पन्न हुआ और फिर आचार्यश्री भगवंत के सान्निध्य में बारह दिवसीय (दिनांक 12-1-2004 से 23-1-2004) छ:रि पालित संघ का आयोजन प्रारम्भ हुआ। आचार्यश्री संघ सहित दिनांक 23-1-2004 को सुप्रसिद्ध जैन तीर्थ श्री नाकोड़ाजी पधारे। यहां संघपतियों के सम्मान में दिनांक 23-1-2004 को संघमाल का कार्यक्रम आचार्यश्री के सान्निध्य में सानंद सम्पन्न हुआ। तत्पश्चात् एक माह तक आपकी यहां स्थिरता रही। इस अवधि में आचार्यश्री ने श्री पार्श्वनाथ राजेन्द्र धाम तीर्थ के चल रहे निर्माण कार्यों का अवलोकन किया तथा आवश्यक मार्गदर्शन प्रदान किया। फिर आचार्यश्री ने यहां से विहार कर दिया और मारवाड़ के विभिन्न ग्रामों में विचरण कर जिनवाणी का प्रचार-प्रसार किया। विभिन्न ग्राम-नगरों में विचरण करने के पश्चात् आपश्री का श्री नाकोड़ा तीर्थ पर पुनः पदार्पण हुआ, जहां वैशाख शुक्ला पंचमी, सं. 2061 को श्री नाकोड़ा में श्री लब्धिदायक पार्श्वनाथ जिनमंदिर एवं गुरुमंदिर का शिलान्यास कार्यक्रम आपश्री के सान्निध्य में सानन्द सम्पन्न हुआ और फिर आपने यहां से विहार कर दिया। मार्गवर्ती ग्राम-नगरों को पावन करते हुए आपका पदार्पण अपनी जन्मभूमि बागरा में हुआ। बागरा में आपके सान्निध्य में गुरु मंदिर के ध्वज एवं कलशारोहण का कार्यक्रम पंचाह्निका महोत्सव के साथ उत्साहपूर्वक सम्पन्न हुआ । यहीं विभिन्न श्रीसंघों ने आपश्री से अपने-अपने यहां संवत् 2061 के चातुर्मास के लिये विनतियां की। देश काल परिस्थिति को देखते हुए एवं श्री नाकोड़ा में चल रहे श्री पार्श्वनाथ राजेन्द्र धाम तीर्थ के निर्माण कार्यों को ध्यान में रखते हुए आपने निम्नांकित महानुभावों की ओर से संवत् 2061, सन् 2004 का चातुर्मास नाकोड़ा में करने की स्वीकृति प्रदान कर दी। आपश्री की इस घोषणा से तत्काल जय जयकार के निनाद गूंज उठे। 1. शा. श्री धनराजजी चुन्नीलालजी तांतेड़, भीनमाल 2. शा. श्री रमेशकुमार पुखराजजी वाणीगोता, भीनमाल 3. शा. श्री महेन्द्रकुमार नरपतलालजी कोठारी, भैसवाड़ा 4. शा. श्री सम्पतराज हीराचंदजी जैन, बागरा 5. शा. श्री प्रकाशचंद्र हिम्मतलालजी जैन, बागरा 6. शा. श्री कल्याणचंद नथमलजी जैन, बागरा बागरा का कार्यक्रम समाप्त होने के पश्चात् आपने बागरा से विहार कर दिया और विभिन्न ग्राम-नगरों में धर्म प्रचार करते हुए आपश्री चातुर्मास के लिये श्री नाकोड़ा पधारे, जहां दिनांक 2,-6-2004 को आपका चातुर्मास प्रवेशोत्सव समारोहपूर्वक सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर विभिन्न ग्राम-नगरों के श्रीसंघ एवं गुरु भक्तों का आगमन हुआ । आचार्यश्री के प्रवेशोत्सव के साथ ही यहां चातुर्मासिक आराधनाएं प्रारम्भ हो गई। यथासमय श्री नवकार महामंत्र की आराधना एवं श्री पर्यूषण पर्व की आराधना सानन्द सम्पन्न हुई। विभिन्न कार्यक्रमों के साथ ही तीर्थ विकास की रूपरेखा भी तैयार की गई। विशेष कारणवश अभी आपकी यहीं स्थिरता बनी हुई है। दिसम्बर 2004 के प्रारम्भ में आचार्यश्री एकाएक अस्वस्थ हो गए। उपचारार्थ जोधपुर होते हुए आपका पदार्पण मुम्बई हुआ। योग्य उपचार के पश्चात् आपने कुछ दिन मुम्बई में ही विश्राम किया। तत्पश्चात् आपने मुम्बई से हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 56 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ अयोध्यापुरम् के लिये विहार किया। मार्गवर्ती ग्राम-नगरों को पावन करते हुए आप अयोध्यापुरम् पधारे, जहां से आपके सान्निध्य में छः रि पालित संघ का श्री सिद्धाचल तीर्थ के लिए प्रस्थान हुआ । पालीताणा में वैसाख शुक्ला तृतीया (अक्षय तृतीया) सं. 2062 को आपने चार वैरागन बहनों को दीक्षाव्रत प्रदान किया । 1. 2. 3. 4. ****** सांसारिक नाम कु. पिंकी, आहोर कु. डिम्पल, आहोर ducation 1. 2. 3. 4. दीक्षा नाम साध्वीश्री परार्थयशाश्रीजी म. साध्वीश्री सुव्रतयशाश्रीजी म. साध्वीश्री उपशमयशाश्रीजी म. साध्वीश्री संवरयशाश्रीजी म. कु. डिम्पल, मांडानी कु. कविता यहीं आपने साध्वीश्री मणिप्रभाश्रीजी आदि साध्वियों को वर्षीतप के पारणे भी करवाये। पालीताणा के कार्यक्रमों की समाप्ति के पश्चात् आपने श्री मोहनखेड़ा तीर्थ के लिए विहार कर दिया। ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए आप मेघनगर पधारे, जहां आपके द्वारा श्री गुरुमंदिर की प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई गई। यहां से विहार कर आप श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पधारे। कुछ दिन यहां आपकी स्थिरता रही। तत्पश्चात् आपने अपने धर्म परिवार के साथ चातुर्मास के लिए जावरा के लिये विहार किया। मार्गवर्ती ग्राम-नगरों में विचरण करते हुए जावरा में चातुर्मास सन् 2005 के लिये समारोहपूर्वक आपका प्रवेशोत्सव सम्पन्न हुआ। चातुर्मास की अवधि में आपश्री श्री राजेन्द्र सूरि जैन दादावाड़ी में विराजित रहे। इस चातुर्मास की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि यहां प्रत्येक रविवार को आपके सान्निध्य में पू. ज्योतिषसम्राट मुनिराजश्री ऋषभचंद्रविजयजी म.सा. द्वारा महामांगलिक प्रदान की जाती थी। इस अवसर का लाभ लेने के लिये हजारों की संख्या में गुरुभक्तों का आगमन होता था। इतना ही नहीं, इस विशेष अवसर पर देश के प्रख्यात नेतागण तथा मंत्रीगण समय-समय पर आए, जिनमें भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री लालकृष्ण आडवणी, विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष श्री अशोक सिंघल, विहिप के राष्ट्रीय महामंत्री श्री प्रवीण तोगड़िया, म.प्र. के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री बाबूलाल गौर, मंत्री सर्वश्री कैलाश चावला, हिम्मत कोठारी, पारस जैन, भाजपा के वर्तमान प्रदेशाध्यक्ष डॉ. सत्यनारायण जटिया, प्रदेश भाजपा के श्री कप्तालसिंह सोलंकी आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय है। इस चातुर्मास में नमस्कार महामंत्र की आराधना, पर्युषण पर्व की आराधना आदि अन्य धार्मिक कार्यक्रम भी समारोहपूर्वक सम्पन्न हुए। चातुर्मास की समाप्ति के पश्चात् आचार्यश्री ने जावरा से विहार कर दिया। जावरा से आपका पदार्पण चिरोलाकलां हुआ, जहां आपके सान्निध्य में श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा की प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। यहां से खरासौदकलां, बड़नगर, बदनावर आदि स्थानों को पावन करते हुए आप श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पधारे, जहां आपके सान्निध्य में गुरु सत्पमी पर्व समारोहपूर्वक मनाई गई। इसी अवसर पर आपने प.पू. गुरुदेवश्री राजेन्द्रसूरिजी म. की निर्वाण शताब्दी महोत्सव के कार्यक्रमों की भी घोषणा की । गुरु सप्तमी के पश्चात् आप विहार कर आहोर पधारे, जहां आपके सान्निध्य में दिनांक 8-2-2006 से 26–3–2006 तक उपधान तप का आयोजन हुआ। दिनांक 26-2-2006 को उपधान तप की माल होने के पश्चात् आप नाकोड़ा तीर्थ पधारे। वहां से विहार कर धाणसा पधारे, जहां सौ वर्ष में प्रथम बार दिनांक 22-4-2006 को कु.शिल्पा साहिबचंदजी परियात को दीक्षाव्रत प्रदान किया। वहां से आप कोशीलाव पधारे। वहां दिनांक 30-4-2006 को कु. मनीषा पारसमलजी को दीक्षाव्रत प्रदान कर विहार किया और तखतगढ़ पधारे, जहां दिनांक 3-5-2006 को कु. शर्मिला भीकमचंदजी को दीक्षाव्रत प्रदान कर श्री मोहनखेड़ा तीर्थ के लिये प्रस्थान किया। श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में भव्य समारोह के साथ सन् 2006 चातुर्मास के लिये दिनांक 2-7-2006 को आपका प्रवेश हुआ और इसके साथ ही चातुर्मासिक कार्यक्रम प्रारम्भ हो गए। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 57 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति www.jainelibrary.or Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ पू. आचार्यश्री ने कुछ साहित्य सृजन भी किया है। आपश्री द्वारा रचित साहित्य जीवनोपयोगी है। यथा : 1. परोपकार (उपन्यास) 2. भगवान, ऋषभ (जीवनी) 3. अलौकिक मोती (कहानी संग्रह) 4. प्रेरक प्रसंग (कहानी संग्रह) 5. भक्ति से हर्ष तरंगे (गीत संग्रह) 6. प्रभु के गीत मेरे मन के गीत (गीत संग्रह) 7. दीपावली दर्शन (मांगलिक पूजन) 8. प्रातः स्मरण सुमन (भक्तामर पूजन) 9. प्रभु भक्ति वाटिका (प्राचीन भक्तिगीत संग्रह) सम्पादित 10. गुरु राजेन्द्र वचनामृत सम्पादित । शिष्य परिवार :- पूज्य आचार्य भगवन के दो शिष्य हुए । जिनकी परिचय रेखा इस प्रकार हैं : 1. मुनि प्रीतेशचन्द्रविजय जन्म नाम माता पिता जन्म तिथि जन्म स्थान शिक्षा वैराग्य का कारण दीक्षा तिथि दीक्षा स्थान दीक्षा गुरु धार्मिक अध्ययन स्वर्गवास जन्म स्थान शिक्षा वैराग्य का कारण दीक्षा तिथि नरेशकुमार : श्रीमती भाग्यवंती बहन दीक्षा स्थान दीक्षा गुरु : : 2. मुनि श्री चन्द्रयशविजय जन्म नाम माता पिता जन्म तिथि पू. आचार्य भगवन की सेवा में रहकर आत्मकल्याण की भावना : फाल्गुन कृष्णा द्वितीया सं. 2051 दि. 27 फरवरी 1994 शंखेश्वर तीर्थ श्रीमान विजयकुमारजी मादरेचा 20 अक्टूबर 1977, कार्तिक कृष्णा नवमी सं. 2034 रतलाम (म. प्र. ) माध्यमिक स्तर तक : आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. समस्त श्रमण जीवन की क्रियायें जीव विचार, भाष्य, संस्कृत प्रथम बुक दशवैकालिक आदि । दिनांक 29-8-2002 काकीनाड़ा (आंध्रप्रदेष) : पवनकुमार : श्रीमती भाग्यवंती बहन : 8 26 अप्रेल 1981 : श्रीमान विजयकुमारजी मादरेचा रतलाम (म. प्र. ) हायर सेकण्डरी मुख्य ध्येय पू. राष्ट्रसंत की सेवा में रहते हुए आत्मकल्याण करने की भावना । माघ शुक्ला एकादशी सं. 2054 दि. 18 फरवरी 1997 जावरा (म. प्र. ) : पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. धार्मिक अध्ययन : समस्त श्रमण जीवन की क्रियायें और तत्वज्ञान, कर्मग्रन्थ, प्रकरण और दशवैकालिक आदि। विहार क्षेत्र :- प. श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि आचार्य श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का विहार विस्तृत क्षेत्रों में रहा है। यथा राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु एवं केरल, आन्ध्र प्रदेश आदि । : हमे ज्योति ल्योति 58 हगेर ज्योति मेजर ज्योति al Use On jainelibro org Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ गुरु के प्रति समर्पित मुनिश्री प्रीतेशचन्द्रविजयजी म.सा.) -मुनि चन्द्रयशविजय रतलाम नगर मध्यप्रदेश का एक महत्वपूर्ण नगर है। यातायात की दृष्टि से रेलवे का महत्वपूर्ण जंक्शन है और उत्तर भारत से दक्षिण को जोड़ता है। वैसे तो इस नगर में सभी जाति और धर्म के लोग निवास करते हैं, किंतु जैन मतावलम्बियों की दृष्टि से इस नगर का विशेष महत्व है। जैन मत के सभी वर्ग के लोग यहां निवास करते हैं और इस कारण सभी समुदायों के आचार्यों/मुनिराजों/साध्वियों का यहां सतत् आवागमन बना रहता है। इससे यहां जैन धर्म की अच्छी प्रभावना होती है। इसी रतलाम शहर में श्रीमान् विजयकुमारजी मादरेचा की धर्मपत्नी सौ. भाग्यवंती बहन की पावन कुक्षि से कार्तिक कृष्णा नवमी, संवत् 2034, दिनांक 20 अक्टूबर 1977 को एक सुन्दर सलोने पुत्ररत्न का जन्म हुआ। माता-पिता ने अपने इस सद्यप्रसूत पुत्ररत्न का नाम रखा नरेशकुमार। समय के प्रवाह के साथ बालक नरेशकुमार भी बढ़ने लगा और यथासमय अध्ययन के लिये माता-पिता ने अपने लाडले पुत्र नरेशकुमार को स्थानीय विद्यालय में भर्ती कराया। इस प्रकार नरेशकुमार की प्राथमिक शिक्षा प्रारम्भ हुई। चूंकि घर का वातावरण धार्मिक था, इस कारण व्यावहारिक शिक्षा के साथ-साथ धार्मिक शिक्षण भी प्रारम्भ हुआ। माता-पिता के साथ नरेशकुमार रतलाम में पधारने वाले मुनिराजों/साध्वियों के दर्शन करने और प्रवचन पीयूष का पान करने के लिये जाने लगा और इसका प्रभाव नरेशकुमार के जीवन पर भी पड़ने लगा। प्राथमिक शिक्षा की समाप्ति के पश्चात् माध्यमिक स्तर का अध्ययन समाप्त होने को था कि माता-पिता के साथ नरेशकुमार को परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के दर्शन-वंदन करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। प्रथम दर्शन में ही नेरशकुमार का मन आचार्यश्री के चरणों में समर्पित हो गया। नरेशकुमार को कुछ समय तक आचार्यश्री की सेवा में रहने पर मानव भव की महत्ता एवं उसकी क्षण भंगुरता का ज्ञान हुआ और साथ ही आत्म कल्याण करने की भावना भी जागृत हो गई। हृदय में वैराग्य भावना अंकुरित हो उठी। परिणामतः धार्मिक अध्ययन प्रारम्भ कर दिया और फिर एक दिन आचार्यश्री ने मुमुक्षु नरेशकुमार की वैराग्य भावना को परिपक्व जानकर श्री शंखेश्वर तीर्थ की पावन भूमि पर सं. 2051 फाल्गुन कृष्णा द्वितीया, दिनांक 27-2-1994 को दीक्षाव्रत प्रदान कर मुनि प्रीतेशचंद्रविजयजी म. के नाम से अपना शिष्य घोषित किया। दीक्षोपरांत मुनिराजश्री प्रीतेशचंद्रविजयजी म. का धार्मिक अध्ययन और बढ़ गया। साथ ही आप अपने गुरुदेव राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की सेवा में दत्तचित्त हो गए। दीक्षोपरांत दो-तीन वर्ष अध्ययन और गुरुदेव की सेवा में व्यतीत हो गए। फिर एक दिन एकाएक आपके मानस पटल पर अपने गुरुदेव की दीर्घ दीक्षा पर्याय के उपलक्ष्य में अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित कर उनके श्रीचरणों में समर्पित करने के विचार उत्पन्न हुए। वरिष्ठ मुनिराजों, विशेषकर ज्योतिषसम्राट मुनिराजश्री ऋषभचंद्रविजयजी म. से इस संबंध में मार्गदर्शन प्रदान करने के लिये आग्रह किया। अभिनंदन ग्रन्थ प्रकाशित करने का निर्णय हुआ और उस पर कार्य भी प्रारम्भ हो गया। अभिनंदन ग्रन्थ के लिये आवश्यक सामग्री का संकलन भी हो गया किन्तु इसी बीच आचार्यश्री का चातुर्मास राणी बेन्नूर (कर्नाटक) में हो जाने से अभिनंदन ग्रंथ की प्रगति अवरुद्ध हो गई। इसके बावजूद दक्षिण भारत के अपने प्रवास में मुनिराज इस दिशा में सक्रिय बने रहे और अभिनंदन ग्रन्थ की कमियों को पूरा भी करते रहे। अभिनंदन ग्रंथ के लिये आवश्यक चित्रों का संग्रह भी करते रहे। राणी बेन्नूर, चेन्नई, राजमहेन्द्री के वर्षावासों में अभिनंदन ग्रंथ की सम्पूर्ण सामग्री को आपने अंतिम रूप दे दिया और छपाई के लिये सामग्री प्रेस को सौंप दी। काकीनाड़ा (आ.प्र.) के वर्षावास के प्रारम्भ में प्रस्तुत अभिनंदन ग्रंथ को अंतिम रूप दिया जा चुका था। इस अभिनंदन ग्रंथ के लिये जिस श्रद्धा, लगन, निष्ठा और समर्पण भाव से कार्य किया, उसी का परिणाम था कि काकीनाड़ा में इसे अंतिम रूप देकर उसके लोकार्पण की तिथि भी निश्चित कर दी गई थी, किन्तु नियति को शायद यह स्वीकार नहीं था और उसी समय एकाएक दिनांक 29-8-2002 को मुनिराज श्री प्रीतेशचंद्रविजयजी म. का स्वर्गवास हो गया। सब कुछ धरा का धरा ही रह गया। सब किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। समझ ही नहीं पाये कि आगे क्या किया जाये? अब उनकी अनुपस्थिति में प्रस्तुत अभिनंदन ग्रंथ उनकी भावना के अनुरूप ही प्रकाशित करवाकर पू. आचार्यश्री के श्रीचरणों में समर्पित किया जा रहा है। हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 59 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्दा ज्योति Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ गुण तेरे अपार कैसे गायूँ मैं साध्वी रत्नरेखाश्री भारतवर्ष महापुरुषों का देश है । इस विषय में संसार का कोई भी देश या राष्ट्र भारत की समता नहीं कर सकता। यह अवतारों की जन्म भूमि हैं, संतों की पुण्य भूमि है, योगियों की योग भूमि है । वीरों की कर्म भूमि हैं और विचारकों की प्रचार भूमि हैं । इस भूमि पर ऐसे अनेक नवरत्न, समाज रत्न, राष्ट्ररत्न पैदा हुए है, जिन्होंने मानव मन की सूखी भूमि पर स्नेह की सरस सरिता प्रवाहित की । जन जीवन में अभिनव जागृति का संचार किया । भ. महावीर स्वामी के शासन में समय समय पर तेजस्वी वर्चस्वी ओजस्वी एवं साधना शील युग पुरुषों का जन्म होता रहा । भारत की शस्य -श्यामला वसुन्धरा पर एक ऐसे युग पुरुष का जन्म हुआ, जिनके व्यक्तित्व में अगाध सागर सा गांभीर्य है, देदीप्यमान दिवाकर की प्रकाशशीलता है, कलानिधि चन्द्र की सौम्यता है, उत्तुंग हिमाद्री की अचलता, धारित्री की क्षमाशीलता, वायु की सी प्रचण्ड गतिशीलता और अग्नि की सी तेजस्विता है । पू. गुरुदेव अपने हृदय की निर्मलता, मन की विराटता अन्तकरण की उदारता, बुद्धि की विवेकशीलता, बालक की सी सरलता करुणा की संवेदनशीलता के कारण जन जन के श्रद्धेय एवं आदरणीय बन गये । वे महापुरुष हैं राष्ट्रसंत शिरोमणि वर्तमान गच्छाधिपति आचार्य देवेश श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. | आपका जन्म बागरा (राज.) में हुआ । माता उज्जमबाई के हाथों आपका पालन पोषण हुआ । श्री ज्ञानचन्दजी को पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । माता पिता ने अपने बच्चे का नाम पूनमचन्द रखकर बहुत सपने संजोए थे और वे मन ही मन सोच रहे थे हमारे सुखों का खिलौना है । हमारे घर का चिराग है || हमारे बुढापे की बागडोर है | यह तो भ. की कृपा कोर है || पूनमचन्द बड़े लाड़ प्यार से बड़े हुए । सर्व गुण संपन्न थे । बागरा के ये पूनम बाल्यकाल से ही बुद्धि तथा प्रतिभा के धनी रहे हैं । गृहस्थ जीवन से श्रमण जीवन में प्रवेश ही आपका अपनी क्षमताओं का सही मूल्यांकन था। बाल्यकाल के जाते जाते किशोरावस्था ने ही वैराग्य का रंग ओढ़ लिया । दीक्षा के पश्चात आपने अपना सम्पूर्ण समय अध्ययन मनन एवं गुरु सेवा में लगाया । आपके चिंतन में गंभीरता, सरलता, नम्रता आदि गुणों का बहुत बड़ा भण्डार है । आपके ज्ञान की तेजस्विता साधनामयी पवित्र प्रभावशाली वाणी की मधुरता और सरलता की मन मोहक छवि लाखों लोगों की श्रद्धा का केन्द्र है । आपका जीवन उस महकते हुए पुष्प की तरह हैं जो स्वयं तो तीखे कांटो से घिरा रहता हैं परन्तु दूसरों को सुगंध बांटता रहता है । आज के युग में गुरुदेव जैसे महापुरुष मिलना मुश्किल है। "गुरुवर आप के चरणों में, जब मैं शीश झुकाती हैं | नही बता उस को सकती, जो परमानंद मैं पाती हूं' || 18 वर्ष तक गुरुदेव के संपर्क में साथ रहकर मुझे पूर्ण ज्ञात हुआ कि गुरुदेव ज्ञान ध्यान तप जप क्रिया अनुष्ठान, रात्रि 2 बजे उठकर जाप करते हैं । वृद्धावस्था होने के बावजूद भी अभी तक संपूर्ण क्रिया खडे खड़े करते है । अपनी क्रिया में जितने आप अटल हैं । उतने वर्तमान काल में मिलना कठिन है । । त्रिस्तुतिक संघ की खान से हीरा निकला जो कलाकार पू. मुनि प्रवर श्री हर्षविजय जी म.सा. के अमित वात्सल्य और पैनी दृष्टि रूप नजरों से तराशा गया । महानता का स्पर्श पाकर महान बन गया । और आज त्रिस्तुतिक संघ समाज के मुकुट पर समलंकृत हो गया । यह सच है कि प.पू. श्री हर्षविजयजी म. के सुदक्ष करों की कुशल तूलिका से निर्मित वह भव्यकृति अपने आप में विराट अनोखी, अमिट, अनुपम और अद्वितीय है । आप की दिव्यता और भव्यता की थाह पाना अगम्य है। हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 60 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 'आप जीयों हजारों साल साल के दिन हो पचास हजार || मेरी जड़ लेखनी गुरुदेव की अनंत गुणावली को शब्दों की सीमा में नहीं बांध सकती । मैं अपने आपको अत्यंत भाग्यशाली समझती हूं कि मुझे वात्सल्य निधि परम श्रद्धेय पू. गुरुदेव की प्रथम शिष्या होने का सुअवसर प्राप्त हुआ है । गुरुदेव की महिमा अपरिमित है । मेरी सीमित बुद्धि इन विशाल गुणों का अंकन करने में असमर्थ है । तो भी भक्ति भावना से निमज्जित होकर मंगल कामना करती हूं कि गुरुदेव आप दीर्घायु हो, अध्यात्म का आलोक प्रदान करके स्व-पर के हित साधक बनें और अपनी संकल्प शक्ति के चमत्कार से विश्व को सत्य का रास्ता दिखाते रहें। उसी मंगल कामना के साथ आपका अभिनंदन । हे शासन सम्राट 'रत्न' कहे शत-शत वंदन हो मेरा भू पर नाम अमर रहे, पूज्य हेमेन्द्र गुरू तेरा || अहिंसा प्राणिमात्र का माता के समान पालन-पोषण करती है, शरीररूपी मरुभूमि में अमृत-सरीता बहती है, दुःखरूपी दावानल को बुझाने में मेघ के समान है और भव-भ्रमणरूपी महारोगों के नाश करने में रामबाण औषधि के समान काम करती है। इसी प्रकार सुखमय दीर्घायु, आरोग्यता, सौंदर्यता और मनोवांछित वस्तुओं को प्रदान करती है। इसलिये अहिंसा-धम का सर्व प्रकार से पालन करना चाहिये; तभी देश, र्धम, समाज और आत्मा का वास्तविक उत्थान होगा। विषयभोग कर्मबन्ध के हेतु और विविध यातनाओं की प्राप्ति कराने के हेतु और विविध यातनाओं की प्राप्ति कराने के कारण है। विषयार्थी प्राणी प्रतिदिन मेरी माता, पिता, पुत्र, प्रपौत्र, भाई, मित्र, स्वजन, सम्बंधी, जायदाद, वस्त्रालंकार और खान-पान आदि सांसारिक सामग्री की खोज में ही अपना अमूल्य जीवन यों ही बिताते रहते हैं और सब को छोड़कर केवल पाप का बोझा उठाते हुए मरण के शिकार बन जाते हैं, पर अपना कल्याण कुछ नहीं कर सकते। विषयाभिलाषी मनुष्य अपने कुटुम्बियों के निमित्त क्षुधा, तृषा सहन करता हुआ धनोपार्जनार्थ अनेक जंगलों, सम-विषम स्थानों, नदी, नालों और पर्वतीय प्रदेशों में इधर-उधर दौड़ लगाता रहता है और यथाभाग्य धन लाकर कुटुम्बियों का यह जान कर पोषण करता है कि ये समय पर मेरे दुःख में सहयोग देंगे-भागीदार बनेंगे। यों करते-करते मनुष्य जब वृद्धावस्था से घिर जाता है, तब कुटुम्बी न कोई सहयोग देते हैं और न उसके दुःख में भागीदार बनते हैं। प्रत्युत सोचते हैं कि यह कब मरे और इससे छुटकारा मिले। बस, यह है रिश्तेदारों का स्त्रार्थमूलक प्रेमभाव; अतः इनके प्रपंचों को छोड़ कर जो धर्मसाधन करेगा वह सुखी होगा। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 61 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति on Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जिन शासन के चमकते सितारे - साध्वी शीतलगुणाश्री स्नेही साधकों की साधना भूमि कहलाने वाली इस भारतभूमि पर अनेकानेक धर्मवीर, कर्मवीर, महापुरुषों ने जन्म लेकर अपने कर्मक्षेत्र को उज्ज्वल समुज्ज्वल ही नहीं पर अत्युज्ज्वल किया है । उसी कड़ी में जुड़ने वाले जीवन के अंधियारे में प्रकाशवत् उज्ज्वल व्यक्तित्व के धनी स्वनाम धन्य प.पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गुरुदेवश्री । जिनके सुगंधमय व्यक्तित्व की सुरभि पृथ्वी की अंतिम सीमाओं तक फैली हुई है । जिनके व्यक्तित्व का आलोक हम सभी के अंधकारमय जीवन मार्गों को प्रकाशमान कर रहा है । जो स्वयं अपने जीवन के प्रति सतत प्रतिपल प्रतिक्षण जागृत हैं । अतः उनके सम्बन्ध में जिव्हा अनायास ही 'गुणिषु प्रमोदम' के नाते कह उठती है - तव गुण गरिमा गाने, अतुलित आनंद मिला मम मानस मधुकर को, सद्गुण मकरंद मिला प. पू. गुरुदेव श्री को अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित किया जा रहा है सुनकर अतीव आत्म प्रसन्नता हुई जैसे कि आम्रमंजरी खिलने पर कोयल गाती हैं, मेघ बरसने पर मयूर के पांव स्वतः थिरकने लगते हैं, अरुणोदय पर कमल खिल उठता है, वैसे ही मेरा हृदय कमल भी प्रसन्नता से प्रफुल्लित हो खिल उठा । इस पावन प्रसंग पर मेरे दिल के भाव उमड़-उमड़ कर बरसना चाहते हैं स्वाभाविक ही है । मराठी में कहावत हैं। सत्य तेथे अहिंसा, गुण तेथे प्रशंसा अतः संयम जीवन के सही बन, नित्य कराते जिनामृत पान शब्द कहां से लाऊं इतने, तब गुण गाथा है महान " गुणियों के प्रति मुखरित हुए बिना नहीं रह सकती आपकी जीवन महिमा को देखते हुए कहना चाहूंगी - "जीवन को मधुर बनाया आपने | मधुरता से जीवन को सजाया आपने || सहगुण गरिमा से मंडित होकर - शालीनता से संयमदीप जलाया आपने || दीपकवत् महापुरुष बोलते नहीं प्रकाशित होते हैं तथा बादलों में छिपी बिजली की तरह गरजते नहीं चमकते हैं । संत वसंतवत् प्रफुल्लित हो महकते रहते हैं । जब-जब भी देखा आपश्री हृदय के स्नेह को वचनों की मिठास से व्यक्त करते रहते हैं | आपके मुखारविंद पर शान्ति-समता के परागकण बिखरे नजर आते हैं । जीवन हिमाचल से निस्पृह पावनी प्रेमगंगा शुष्क जन जीवन में नव चेतना का संचार करती रही है । मंदिर के घंटे की तरह सभी में जागृति प्रदान करते रहे हैं । सेवा धर्म के मूलमंत्र को जीवन में पूर्णरूपेण अपनाकर गुरुगच्छ एवं संघसेवा के अगम्य दुर्गम पथ पर अविराम गति से चलते रहे हैं । आपके जीवनोद्यान में अनेकानेक बहुरंगी, बहुगुणी सद्भावों के कोमल किसलय खिले है, उसकी सौरभ पाकर मानव सहज ही प्रशंसा रूपी उपहार भेंट किये बिना नहीं रह सकते। आपने जीवन व संयम यात्रा के बीते वसंतों में संतत्व का ही विकास किया व संत भी वही है जो "वसंतवत् लोकहित चरन्त' वृक्ष का ऐश्वर्य वैभव वंसत से ही प्रकट होता है किंतु जीवन के पतझड़ में सद्भावों के अंकुर प्रस्फुटित करने प्रेम एवं स्नेह के नानाविधि पुष्पों को खिलाने का श्रेय आप जैसे सन्त महापुरुषों को जाता है । सरिता का किनारा हरा भरा रहता है । वैसे ही आपके सान्निध्य को पानेवाले का दिल-दिमाग सरसब्ज बना रहता है । आपके उज्ज्वल और पवित्र जीवन का यशोगीत आपकी यह सलोनी सूरत ही सुना रही है । एक खिलते हुए गुलाब हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 62 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति en Education intonal Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ की तरह ही सदा उन्हें देखने का, दर्शन का सौभाग्य मुझे मिला । यह सूरत ही प्रेरणा की मूरत है इनमें रहे अनेकानेक गुणों का प्रगटीकरण यह सूरत ही कर रही है । इसमें संयम की सुवास है, तो त्याग का आदर्श भी दृष्टिगोचर हो रहा है । सफल जीवन का संदेश इससे मिल रहा है, तो प्रेरणा का प्रकाश इसी से प्रगट हो रहा है । इनके चेहरे ने कितने ही के चेहरे बदल दिये हैं, कितने ही पतितों को पावन बना दिया हैं । अनेक लोगों के जीवन वन को उपवन बना दिया। इतना ही नहीं उन्होंने जैन शासन को बहुत कुछ अर्पण किया हैं । अनेक जीवन में तप-त्याग ज्ञान-ध्यान व्रत पचक्खाणादि के मोहरे मारें हैं । इनके रोम रोम में जैन शासन बसा है । इनके लहु की हर बूंद वैराग्य के पक्के रंग से रंगी हुई है । इनके हृदय की हर धड़कन में परमात्मा की पुकार है और शुद्ध-विशुद्ध संयम का पालन व अनुपालन इनका श्वास प्राण है । तप त्याग से उनको राग है तो ज्ञान ध्यान का का अनुराग भी कम नहीं है | ऐसे गुरुदेवश्री की छत्रछाया में रहने का शुभ अवसर मुझे भी अनेकबार मिला और मिल रहा है, जिसे मैं अपना सौभाग्य मानती हूं निश्चित ही पूर्वजन्म में कोई पुण्यकार्य किये होंगे जिस पुण्य के प्रभाव से आपश्री के शासन में जन्म मिला आपकी निश्रा मिली। जब-जब भी आपका सान्निध्य पाया अंतर आश्वस्त हुआ एक निखार पाया । एक प्रेरणा स्रोत का जन्म हुआ । दर असल में करोड़ो जनम करने पड़ते है ऐसे महामहिम विभूतियों को पाने के लिये और बड़े धन्यभागी होते हैं वे जो ऐसे पुण्यशाली पुरुषों की प्राप्ति कर लेते हैं । ऐसे महात्माओं के समागम में जो सौभाग्यशाली आत्माएं आती हैं । तो “संत संगति जन पावे जबहि आवागमन मिटावे तबहि" सच तब जनम-जनम के फेरे मिटने लगते हैं कारण कि पाप का विनाश और पुण्य का प्रकर्ष तब होने लगता है । सुख का सर्जन और दुःख का विसर्जन सब शुरू होता है । ऐसे ही संतपुरुष हर एक को जीवन जीने की कला सिखाते हैं । जैन शासन की भव्य प्रभावना में इनका योगदान यादगार रहा हैं और सदा रहेगा । आपश्री के इन्हीं वंदनीय अभिनंदनीय गुणों से मेरा हृदय सरोवर श्रद्धा से सराबोर है । सागर के अंतःस्थल में प्रविष्ठ हो उसकी गहराई को माप लेना कठिन है वैसे ही महान आत्माओं के जीवन को परखना कठिन है, फिर भी सद्गुणों का अभिनन्दन करते हुए कहूंगी - आप दीर्घायु-चिरायु व यशस्वी बनकर जिनशासन की प्रभावना करते रहें । युगों-युगों तक हमारा श्रीसंघ आपश्री की देखरेख में वृद्धि करता रहे तथा हम सभी पर आपकी छत्रछाया बनी रहे । आपकी यशोगाथा दिगदिगंत में प्रसारित हो । आपका जीवन गुलाब की तरह महकता रहे और उसकी सौरभ से जन-गण मन आनंदित होते रहें । सूर्य की तरह आपका व्यक्तित्व हमेशा प्रकाशमान रहे चांद की तरह अमृत किरणें बरसाते रहो । यही मेरे हृदय की शुभ कामना एवम् मंगल मनीषा है | जो अनेक गुणों से अलंकृत है ऐसे विशाल व्यक्तित्व के धनी पूज्य गुरुदेवश्री के चरणों में श्रद्धापूर्वक अपने भाव समर्पित कर अपने आप को धन्यभागी मानती हूं। “आपकी प्रतिभा तेज और वर्चस्व बढ़ता रहे | जीवन का हर पहलू नया इतिहास गढ़ता रहे || उस सुनहरे अवसर पर हम यह कामना करते हैं | युग-युग तक सभी आपकी यशगाथा पढ़ते रहे || और अभिनन्दन उन्हीं का है, जिनने सद्गुणों को विकसाया है | अभिनन्दन उन्हीं का है, जिनने त्याग तप का दीप जलाया है ।। चन्द्र सी शीतलता पाकर, साधना समन खिलाया है | मेरी श्रद्धा के वंदन मैंने, यो अभिनन्दन भाव सजाया है || हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 63हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति MARATO wwanganelibract Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ निष्काम आराधक भंवरसिंह पंवार, राजगढ़ वर्तमान आचार्य देवेश परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. सरल स्वभाव समदृष्टि परोपकारी एवं उदार व्यक्तित्व के स्वामी है । सदैव, जप, क्रिया तथा समाजहित, धर्मप्रचार के चिन्तन् में व्यस्त रहते हैं । क्रोध, अभिमान, झुंझलाहट तो कभी आपके निकट भी नहीं आ पाती । दर्शनार्थी, सेवा भावी एवं भक्तगणों को 'धर्मलाभ' का आशीष सदैव प्रसन्न मुद्रा में मिलता ही रहता है । ईश्वर की पूजा, ईश्वर के नाम का स्मरण आराधना जप, तप, माला, अलग-अलग माध्यम है । अपने आराध्य अपने ईष्ट की आराधना के, किन्तु उन माध्यमों में निमग्नता, तल्लीनता कितनी है यह विचारणीय प्रश्न है? सामान्यतः हम जब भी पूजा या आराधना करते हैं तब 'ध्यान' का केन्द्रीय होना बहुत जरूरी है, साथ ही हमारी आराधना निष्काम हो । आराधना से सम्बन्धित चर्चा करने का सौभाग्य मुझे आचार्य भगवन्त से मिला उस चर्चा को जितना मैं समझ पाया उसे अपने शब्दों में लिखने का प्रयास करता हूं | जीव संसार में बन्द मुट्ठी के आता है और हाथ पसारे बिदा होता हैं। जीव के प्रारब्ध सुकर्म, त्याग एवं साधना के प्रतिफल में मानव योनि प्राप्त होती हैं । कहा जाता है कि 'मानव' जन्म भाग्य से ही प्राप्त होता है । ऐसी दुर्लभ योनि प्राप्त करने के पश्चात भी जीव संसार चक्र में पड़कर भटकता रहा, अपने कर्तव्य को विस्मृत कर दिया तो फिर वर्तमान और भविष्य के उद्धार के लिये न तो समय मिलेगा न अवसर । अतः जीव जन्म के समय बन्द मुट्ठी से संसार में आया है अर्थात अपने साथ सुकर्म, साधना, तप, तेज रूपी सम्पति लाया है उसके द्वारा पुरुषार्थ साधना भजन व भक्ति में वृद्धि कर अपने ज्ञान का उपयोग परोपकार में करते हुए स्वयं को एवं अन्य को लाभ पहुंचावे वर्तमान एवं भविष्य को भव्य व उज्ज्वल बनावे, उस परमपिता परमात्मा का स्मरण प्रसंग रहे जिसकी कृपा से मानव जैसी दुर्लभ योनि प्राप्त हुई किन्तु होता इससे विपरीत है । संसार में आकर जीव काम, क्रोध, लोभ की ओर आकर्षित व लालायित होकर अपने कर्तव्य व धर्म को भूल जाता है और निरर्थक आडम्बर की ओर आकर्षित हो जाता है । परिणाम यह होता है कि जो प्रारब्ध एवं पूर्व जन्म जन्मान्तर की अर्जित पूंजी को बढ़ाने के स्थान पर समाप्त कर कर्म, पाप, निन्दा का बोझ ढोते ढोते पुनः चौरासी लाख योनियों में भटकते हुए संसार से बिदा होता है । उस समय उसके हाथ खुले रहते हैं जो कमाया था सब यही नष्ट व समाप्त हो गया, जो लाया था वह भी यहीं गुम हो गया । भूतधन भी गया और कर्म की गठरी तैयार हो गई। अब प्रश्न यह उठता है कि हम इन विषमताओं एवं विपरित परिस्थितियों से कैसे अपने आपको उभारे । इसके लिये 24घन्टे के समय में से कुछ समय निकाल कर ईश्वर आराधना भक्ति, भजन, नाम का स्मरण, धार्मिक ग्रन्थों का वांचन जो भी रुचिकर लगे करें । दिनचर्या में धार्मिक कार्य हेतु समय निश्चित कर लेवें एवं उसको दृढता से पालन करें । शनैः शनैः जब धार्मिक कार्य हमारी दिनचर्या का अंग बन जावेगा एक आदत बन जावेगी तब उसके सम्पादन में व्यतीत होने वाले समय में भी वृद्धि करते जावे... कुछ ही समय में यह आदत अनिवार्यता में परिवर्तित हो जावेगी, जैसे भोजन जल अनिवार्य है जीवित रहने हेतु ऐसे ही धार्मिक कार्य भी अनिवार्य हो जावेंगे तब हम इस साधना भक्ति या जो भी हम इसे नाम दें संज्ञा दें, को धीरे-धीरे सकाम से निष्काम ही ओर ले जावेंगा । प्रारम्भ में तो हमारे मन में, कहीं न कहीं ऐसे विचार भाव अथवा इच्छी होती है कि हम जो भी धार्मिक कार्य करें उसके प्रतिफल में हमें कुछ प्राप्त हो, जाने आथवा अनजाने में हम ऐसी अपेक्षा रखते हैं । किन्तु अभ्यास के द्वारा जब परिपक्वता आ जाती हैं । तब प्रतिफल की कामना या आशा हो त्याग कर भक्ति या आराधना कर पाना सम्भव हो जाता है । यद्यपि ईश्वर कभी भी अपने भक्तों हो न तो कष्ट ही देता है न वपित्ति। ईश्वर तो उदार सदभावी एवं भक्त वत्सल है । वह तो धर्मात्मा व पापी सभी का रक्षक एवं सभी का हितैषी है । ईश्वर को किसी को भी कष्ट देने का समय नहीं है वह तो समस्त जीवों के हित के कार्य में जुटा रहता है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 64हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्ट ज्योति Sam jiruspany Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन गंथ प्रयास यह होना चाहिये कि हम जब नियमित साधना, आराधना भक्ति करने लग जावें एवं उसमें मन रम, जावे तब त्याग प्रवृति का उपयोग कराते हुए 'निष्काम साधना आरम्भ करें । संसार असार है उसमें जितने लिप्त होगें उतने दल-दल में फंसते जावेंगे, इसका जितना त्याग करेंगे उतने ईश्वर की प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होते जावेंगे । संसार में साधना करने वाले तीन भावना, विचरने से साधना (तप) करते हैं वह तो वे जो कल की चाह से साधना करते हैं, दूसरे क्यों कर्म करते हैं यह सोचकर कि ईश्वर इसका प्रतिफल दे देंगे ही । तीसरे वे जो साधना कर्म, तप को कर्तव्य समझकर करते हैं फल की कामना नहीं होती । पहले गृहस्थ दूसरे भक्त व तीसरे ज्ञानी माने जाते हैं । अपने स्वयं के लिये मांगना याचना करना हैं (भीख मांगना) दूसरों के हित हेतु मांगना सेवा है । (परोपकार है) हम जो कार्य करते हैं, कर रहे हैं चाहे वह व्यापार हो, नौकरी हो, मजदूरी हो अथवा साधु (त्याग वृति हो) हो, हमारे सुपुर्द जो भी कार्य या दायित्व है उसका निर्वाह ईमानदारी से करना चाहिये एवं प्रयास यह होना चाहिये कि वह निष्काम हो । एक कर्मचारी जिसका वेतन नौ हजार रुपया प्रतिमाह है वह यदि कार्य नहीं की करता मात्र उपस्थित होकर उपस्थित के हस्ताक्षर ही करता है तो भी उसका वेतन जो 300 रू. प्रतिदिन होता है, चालू है | क्या वह अपने स्वयं के साथ मालिक (शासन) के साथ तथा दायित्व का निर्वाह सजगता व ईमानदारी से कर रहा हैं या न ही इसका मूल्यांकन सही-सही तो हम स्वयं ही कर सकते हैं । कोई यदि काम टालने या अकर्मण्यता बरतने का आदी हो तो उससे कार्य करवाना कठिन ही नहीं अपितु असम्भव जैसा हैं । ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक घोडे को पानी पीने के लिये जलाशय तक ले जाय जा सकता है, पानी पीने के लिये बाध्य नहीं किया सकता। निष्काम साधना या तप से तात्पर्य अपने दायित्व, कर्तव्य को पूर्ण निष्ठा से निर्वाह करना साथ ही यदि कोई अपने कर्तव्य से विमुख हो रहा है तो उसे भी कर्तव्य बोध का मार्ग प्रशस्त करना यह प्रकृति का नियम है कि क्रिया के बाद प्रतिक्रिया होती है । कार्य का निर्वाह होने पर फल या परिणाम तो सामने आवेगा ही फिर क्यों हम कार्य के सम्पादन के पूर्व ही प्रतिफल के सम्बन्ध में सोचे । प्राचीन ग्रन्थ हमें दिशा बोध देते हैं कि 'साधना' या 'तप' के द्वारा पूर्व में कितने ऋषि, मुनि व त्यागी लक्ष्य प्राप्त कर सके मोक्ष प्राप्त कर सके । लक्ष्य प्राप्ति या मोक्ष हेतु तपस्या, कामना का त्याग एक एकाग्रता से शान्त एवं एकांत स्थान पर सब ओर से चित को हटाकर साधना में लिप्त होवे, यह सब अभ्यास के द्वारा शनैः शनैः सम्भव हो सकता है । ऐसा कहा गया है कि कलयुग में ईश्वर प्राप्ति मोक्ष प्राप्ति अत्यधिक सहज व सरल है क्योंकि सतयुग में घोर तपस्या एवं साधना द्वारा कई वर्षों में ईश्वर ही कृपा प्राप्त हो पाती थी किन्तु कलयुग में मात्र ईश्वर के नाम के स्मरण मात्र से ही प्रभु प्रसन्न हो जाते हैं और कृपा करते हैं । कहा भी है - कलयुग केवल नाम अधारा कई वर्षों ही तपस्या के फल के तुल्य कलियुग में मात्र नाम स्मरण से ही प्राप्ति सम्भव है, और यदि नाम स्मरण निष्काम हो, एकाग्रता से हो तो सोने में सुहागा। साधन, तपस्या, नाम का स्मरण अथवा धार्मिक कार्य हमें सद्मार्ग की ओर ले जाते हैं साथ ही बुराइयों अज्ञानताओं दोषों एवं अपराध प्रवृतियों से विमुख करते हैं । तप से अन्य बल में वृद्धि होती है, ज्ञान का विकास होता है, ज्ञान से ध्यान ध्यान से चिन्तन और चिन्तन से प्रभु के प्रति चाह जागृत होती हैं । जब चाह का प्रादुर्भाव हो गया तो राह तो अपने आप दृष्टिगत हो जावेगी । कहा भी है जहां चाह है वहां राह है । जब राह दृष्टिगत हो गई तो लक्ष्य प्राप्ति में अधिक विलम्ब नहीं होगा। अन्त में हम इतना ही स्मरण रखे कि साधना, तप, नाम-स्मरण रागद्वेष रहित हो स्वार्थ एवं आकांक्षा से परे हो साथ ही अपने लिये कम दूसरों के हित हेतु अधिक हो । दीन, अभाव ग्रस्त एवं बीमार के कल्याण की कामना निहित हो । 'दरिद्र' में भी नारायण का वास होता है, अतः दरिद्र नारायण के सुख व कल्याण की भावना हम में विकसित हो, तभी हमारी साधना सच्चे अर्थों में 'निष्काम साधना के निकट पहुंच पावेगी । उक्त विचार धारा आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. से चर्चा के अन्तर्गत प्राप्त हुई । यदि सभी जन् निष्काम भाव से पूजा, आराधना करें व आचार्य भगवंत के विचारों को आत्मासात् कर जीवन में उतारें, तो समाज व राष्ट्र से अशान्ति, बैर-भाव व अराजकता समाप्त हो सकती है । वन्दन् नमन् । हेमेन्द्ध ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 65 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति For Pihar Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ X( निष्कपटता : श्रेष्ठता का प्रतीक कस्तूरचंद चौपड़ा परम पूज्य आचार्य श्री हेमेन्द्रसूरिजी की दीक्षा जब मैं करीब दस साल का था तब महान जैनाचार्य सिद्धर्षि की जन्म स्थली भीनमाल की पावन धरा पर, निर्मल हृदयी महान तपस्वी, एवं विश्ववंद्य राजेन्द्र सूरीश्वरजी के शिष्य रत्न श्रीहर्ष विजयजी म.सा. के सान्निध्य में हुई थी । दीक्षा ग्रहण करते ही श्री हेमेन्द्र विजयजी म. साहब, अपने गुरु की सेवा हेतु तत्पर रहते थे । उनकी रुचि, स्तवन, सज्झाय, स्तुति व चैत्यवंदन कंठस्थ करने की ओर थी । कंठ इतना मधुर है कि आज भी जब वयोवृद्ध अवस्था में है तब भी प्रतिक्रमण सभा में, स्तवन सज्झाय आदि गाते हैं तो श्रोतागण मंत्र मुग्ध हो जाते हैं । स्वयं आचार्यदेव को इतने स्तवन, सज्झाय स्तुति व चैत्यवंदन याद हैं कि ये इनके विशाल भंडार है । आपका हृदय सरल स्वभावी कपट रहित है । अहंकार छू भी नहीं सकता । तभी हम जब बालक थे तब बालकों के प्रति इनका विशेष स्नेह रहता था । अधिकांश समय बालकों से घिरे रहते थे उन्हें उपदेश देते, मधुर कंठ से स्तवन वगैरा सुनाकर, बच्चों की धर्म के प्रति प्रीति पैदा करते व सिखाते थे । जिससे काफी श्रावकों में धर्म के प्रति आकर्षण व बच्चों में सुसंस्कारों का प्रार्दुभाव हुआ | इन्होंने अपने जीवन में कई तपस्याएं की, एवं चुस्त चारित्रमय जीवन लगातार व्यतीत करते आ रहे हैं । आज लगभग अस्सी साल के लगभग आयु होने पर भी अपनी क्रियाओं में शारीरीक अशक्ति होने पर भी शिथिलता का प्रवेश नहीं हो पाया। भोले स्वभाव के महान योगी अपने गुरु श्रद्धेय श्री हर्षविजयजी की सेवाओं से अन्तर्मन से आशीर्वाद प्राप्त होता रहा। श्री हेमेन्द्र विजयजी म. साहब, गुरुसेवा तपस्या अखंड जाप व भजनों में तल्लीन होने से व्याख्यान बहुत कम देते थे । पद की लिप्सा नहीं था । परन्तु जब पूज्य दिवंगत आचार्य श्री विद्याचन्द्र सूरिजी देवलोक हो गये, तब हेमेन्द्र विजयजी की तपस्या सरल हृदयता व गुरुभक्ति से प्रभावित होकर श्री सकलसंघ ने आचार्य पद से विभूषित किया । निष्कपट सरल हृदयी पद की अभिलाषा नहीं रखते हैं, तो भी उन्हें श्रेष्ठ पदों पर आसीन होना पड़ता है। पूर्व में भी पूज्य श्री यतीन्द्र सूरिजी की अथक सेवा मुनिराज विद्याविजयजी ने की थी एवं सरल हृदयी भी थे, इनसे विद्वान पूज्य दावेदार भी थे परन्तु इनके, जाप तपस्या, निष्कपटता के परिणाम स्वरूप सकलसंघ ने इन्हें ही आचार्य पद प्रदान किया । जब श्री हेमेन्द्रसूरिजी ने आचार्य पद ग्रहण किया था तब कुछ लोगों की धारणा थी कि ये कम पढ़े लिखे है शासन नहीं संभाल सकेंगे । परन्तु आचार्य की समयावधि 17 साल में इन्होंने, अद्वितीय सफलता पूर्वक कई प्रतिष्ठाएं उपधान तप, छरिपालक संघ, नव्वाणु, सामूहिक चौमासे एवं पुण्य धार्मिक समारोह करवायें । श्री सुमेरमलजी लुंकड़ के पालीताणा में कराये गये लगभग 700 व्यक्तियों के चातुर्मास में श्री हेमेन्द्रसूरिजी ने अपनी अद्वितीय प्रतिभा का परिचय दिया । जिससे कई अन्य दिग्गज जैनाचार्य प्रभावित हुए एवं उन्होंने इनसे संपर्क साधा । लोगों में धारण हो गई कि इन्हें वचन सिद्धि हो गई । इस कारण लोग इनसे सम्पर्क करने व दर्शन करने हेतु लालायित रहते हैं । आचार्य बनने पर अमुक कार्य अपने हाथ से नहीं करना । बैठे बैठे प्रतिक्रमण करना आचार्य की शान में गिना जाता है । परन्तु श्री हेमेन्द्रसूरिजी अपना सम्पूर्ण कार्य अपने हाथ से करते है और अस्वस्थता नहीं हो तो प्रतिक्रमण की क्रियाएं खडे खड़े करेगे जो शिथिल मुनिराजों के सीखने के लिये एक आदर्श हैं । हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 66 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्ट ज्योति Ju liusepp Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था इन आचार्य महाराज की कोई बात गुप्त नहीं रहती । हमेशा, उपाश्रय के आम चौक में या व्याख्यान हॉल में ही इनका स्थायी बैठक का स्थान होता है |विद्युत के उपकरणों से, टेलीफोन से दूर रहते हैं । पंखों विद्युत रोशनी से विहीन स्थान का उपयोग करते हैं । ये सभी बातें इस आधुनिक समय में शिथिलाचार के कारण संभव नहीं होना कुछ अन्य साधुगण बताते हैं। परन्तु एक अत्यंत वृद्ध व असक्त व्यक्ति इनका पालन कर सकता है तो युवा साधु कैसे पालन नहीं कर सकते । कहा जाता है कि एक लाइन को मिटाकर, अपनी खुद की लाइन खींचता है वह तुच्छ व्यक्ति होता है जबकि खींची हुई लाइन से लम्बी लाइन बिना पूर्व लाईन को मिटाये खींचे तो वह महान गिना जायेगा व उसकी लाइन बडी गिनी जायेगी श्री हेमेन्द्र सूरिजी ने भी तीर्थों के विकास में चातुर्मास में इसी सिद्धान्त को अपनाया है । प्रतिष्ठाएं तीर्थ विकास धर्मशालाओं के निर्माण वगेरे करवाये तो विशाल हृदयता से सबके लिये खुले रखे हैं । दर्शन, उपयोग आदि हेतु किसी जैन अनुयायी वर्ग हेतु प्रतिबंध नहीं लगाये बल्कि यह निर्देश दिये गये हैं कि कोई गच्छ के साधु संत श्रावक आवे तो सम्मान व वैयावच्च में उनके पद के अनुसार अपने गच्छ के साधु सम बर्तावा किया जावे। पू. श्री विद्याचन्द्र सूरिजी के स्वर्गवास के बाद या उसके पूर्व कभी श्री हेमेन्द्र सूरिजी ने दीक्षा पर्याय की वरिष्ठता होते हुए, आचार्य पद का दावा नहीं किया न लालायित रहे परन्तु इनकी सरलता ने आचार्य पद रूपी वरमाला स्वतः समाज के आग्रह से उनके गले में पड़ी। राजनैतिक नेता पद व पदवियों के भूखे होते हैं तभी उनमें विवाद होकर भीषण परिणति होती है परन्तु साधु संतों में भी पद व पदवियों की तरफ आकर्षण हो गया है तभी गच्छों में विवाद होकर विभक्तिकरण होता है। अगर पद त्याग की भावना हो तो संग में फूट नहीं हो सकती । श्री हेमेन्द्रूसरिजी ऐसी लिप्साओं से मुक्त हैं । उन्होंने आचार्य पद ग्रहण करने से मना किया था, परन्तु वरिष्टता एवं परिस्थितयों के अनुसार भावभरा आग्रह सकलसंघ का होने से ही यह पद अंगीकार किया था । आचार्य श्री हेमेन्द्रसूरिजी के सान्निध्य में बम्बई से विशाल छरिपालक संघ श्री मोहनखेडा तीर्थ मध्य प्रदेश करीब 5-6 साल पूर्व । आया था आपकी आयु लगभग 75 साल की थी परन्तु सैकड़ों किलोमीटर पद विहार करके भी खुशी का अनुभव करते थे परन्तु आज कुछ क्षमता बाले संत भी लारी या व्हील चेअर पर बैठना अपनी शान समझते हैं । श्री हेमेन्द्रसूरिजी अब बयासी वर्ष के लगभग आयु के होने आये अस्वस्थ भी रहते हैं आज भी पद विहार करते हैं । इनसे प्रेरणा लेनी चाहिये । आचार्यदेव की आचार्य पदवी श्री राजेन्द्रसूरि के मुख्य मान्यता वाले नगर आहोर में होने के बाद भीनमाल, बागरा, राजेन्द्रसूरि के क्रियोद्धार स्थल जावरा, मुख्य तीर्थ श्री मोहनखेडा राजगढ़ वगैरह में ऐतिहासिक चौमासे अपार सम्मान सहित हुए परन्तु अभी तक कुछ लोग ऐसे भी शेष हैं जो राग दृष्टि से अथवा किसी सिखाने से इन्हें आचार्य के तौर पर मान्यता देने में संकोच करते हैं ताकि संत के रूप में इनका चारित्र सर्वोत्कृष्ट मानता है । ऐसी दुष्प्रेरणा अगर कोई संत देते हैं तो वह उनके अस्तित्व के लिये घातक है। जबकि श्री हेमेन्द्रसूरिजी ने किसी के पद या अस्तित्व को चेलेंज नहीं किया अपितु ऐसे प्रत्येक संत की उसके पद के अनुसार सम्मान प्रयत्न किया व निर्देश भी दिया । अगर ऐसी प्रकृति प्रत्येक सम्बन्धित व्यक्ति अपनायें तो, विघटन संगठन में परिवर्तित हो सकता है। अहंकार व पद लोलुप्ता से मुक्त होकर, एवं घृणा का त्याग कर समाज के प्रत्येक व्यक्ति को स्नेह से गले लगाने की भावना, सकल संघ में काया कल्प का काम कर कसती हैं । धक्का देकर आगे बढ़ने की भावना राजनीति से प्रेरित होती है जो स्वयं के सर्वनाश के साथ समाज के संगठन के लिये अकल्याणकारी होता है । ये विचार है आचार्यदेवश्री हेमेन्द्रसूरिजी के । अंत में कामना करता हूं कि दादा गुरुदेव ऐसी शक्ति आचार्यदेव को प्रदान करें कि वे सकल संघ में स्नेह की धारा प्रभावित कर इसे संघठित करने की ज्यादे अग्रसर हों । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्य ज्योति 67 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति POUND wiww.jainelibrary.orgi Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ SA PROTRAIT OF A GREAT SAINT M.L. Punmia, Rtd. Dy. Director Postal A lean and thin personality having bald-head with a white long hanging beard and whose bones are eagerly waiting to come out from the main body, is no one else, but a holy saint famed as Acharya Hamendra Suriswarji. A very sober, calm and simple saint having not attractive and beautiful face-cut and look, still attractive thousands of his followers by his sweet utterances and smiling look though he is having no ortory cult. He is having no rich ornameetal dress but clad in a small loin cloth (Chol Patta) upto knee level and utrasan on the upper body still having an attractive and rare spiritual glaze on his face cultivated by his soul out of his fasting and austere habits. When a follower touches his feat after traditional Vandana, he puts his cool and soothing hand on the head of his follower, giving all the religions and spritual blessing (Dharam Labh) which produces unbelievable immense comfort and ease in the mind of his disciple who forgets all this worries with resultant heart-beating becoming normal. He feels a sense of solace. This saint is in true sense, the follower of Lord Mahavir. He believes in non-violance, simplicity, austerity and Anekantwad. He never hurts the feelings of anybody by words, behaviour or otherwise. He never believes in show business. He never accumulates clothing more than it is required. Even in diet for more than 10 days in a month, he eats the food of Ayambil which is devoid of incodiments, spices and sweet and fatty elements. He is of the belief that by fasting habits, one can control the outer senses. He believes that by winning (18) eighteen Papsthans one can reach the stage of enlightenments, Born in a small town named Bagra in Jalore District of Rajasthan State in 1918 in a middle class family, he became saint in the early age of 24. He is not married and is Brahamchary. In the childhood, he was having no attraction towards wordly life and earthly pleasures. His learning was towards religions activities. He became disciple of a great saint named Harsha Vijaiji. From the very beginning of his saintly life, he devoted most of his time in learning jain philosophy and service to his Guru. He observed celebacy and performed fasts. he won the anger and never looses his patience even in extra ordinary exciting occasions. He never indeliges himself in wordly affairs. In true sense, he is an idol of sacrifice peace, self-command and continence. He is having no enimity or learning towards anybody and thus neutral in behaviour with all. Thus, his followers feel that he hailed from the masses and not from silver spoonfeds. That is why, after the death of Acharya Vidhyachandra Suriji, he was made his heir by his followers and thus on 10.2.83, he became the sixth Acharya of Swetamber Jain Tristutic legacy at Ahore a small town in Jalore District With his holy hands, he performed many religions rituals viz Anjansalakas of new temples, repairs and remodifications of old and dilapidated Jain temples, Jain poshadh shalas and Guru Mandirs. He also performed updhyans and Diksha Samaroh. He also headed many pilgrimages and chharipalak Sanghs. Some 5 years back, I had an occasion to stay for about 22 months in a holiest town of Palitana, where this saint was also halting for Chaturmas. In that year about half a dozen famous हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 68 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन गंथ Jain Acharyas were also performing Chaturmas at Palitana. It is a general practice that different saints staying at Palitana having no communication link with each other and remain indifferent with other sects or Gachha. However, his saint made experiment by establishing links and filling this gap of non communication specially for common religions activities to cultivate the sense of awakening of masses. Due to his indisputable image, he could be able to bring all the Acharyas with their saints and disciples on a common plateform and he was unnanimously made to chair the varius meetings irrespective of seniority. His two disciples viz Panyas Lokendra Vijaiji and Rishabh Vijaiji lead the masses staying at Palitana for performing the work of clearning Palitana. Both of them also used their good offices and influenced the political bosses of Gujarat Govt. to declare the city of PALITANA as HOLY CITY. Thus he became the centre of religious activities at Palitana at that time. This year too, he has completed Chaturmas at Rajgarh, a sub divisional town in Dhar District of M.P. This district is haunted by short rainfall in the beginning of rainy season followed by heavy and continuous rainfall in September and October which created the conditions of hunger due to crop-failure. He therefore, invited his followers to establish a fund so that food to the hungry people can be arranged. On his call, his followers levishly contributed to the fund. His this act of grace, has been praised very widely and contributed in making him a man of massed. He is completing the age of 82 years and 58 years of his saintly life. I humbly pray the vitrag for his long life to enable him to lead the Tristuitk Sangh for years to come. निन्दा को ही अपना कर्तव्य माननेवाले अज्ञानियों और मिथ्यादृष्टि लोगों की ओर से शिर काटने जैसे भी अपराधों में जो समभाव से उनके वचन-कंटकों को सह लेता है, परन्तु बदला लेने की तनिक भी कामना नहीं रखता। जो न लोलुप है और न इन्द्रजाली, न मायाचारी है और न चुगलखोर। जो अपनी किसी तरह की प्रशंसा की कामना नहीं रखता और न गृहस्थ सम्बंधी कायों की सराहना करता है। तरुण, बालक, वृद्ध आदि गृहस्थों का कभी तिरस्कार नहीं करता और स्वयं तिरस्कृत होने पर भी तिरस्कार को बड़ी शान्ति से सह लेता है उसका प्रतिकार नहीं करता। जो अपने कुल, वंश, जाति, ऐश्वर्य का अभिमान नहीं रखता और जो सदा स्वाध्याय-ध्यान में लीन रहता है। जो 'मा हणो मा हणो' सूत्र को जीवन में उतार कर कार्यरूप में परिणता करता है। जो स्वपर का कल्याण करने और ज्ञान, दर्शन, चारित्र के आध्यात्मिक मार्ग का परिपालन में सदा उद्यंत रहता है-संसार में ऐसा पुरुष ही पूज्य और समादरणीय माना जाता है। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 69 हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति। vidosinahrarya Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ . (आचार्यश्री हेमेन्द्र सूरिजी दक्षिणभारत में शा. घेवरचंद भण्डारी, सियाणा (चेन्नई) आचार्य श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी भारत देश के राष्ट्रसंत शिरोमणि आचार्य है । आज राजेन्द्र सूरीश्वरजी की पाट गादी पर बिराजमान है और त्रिस्तुतिक समाज के अग्रगण्य आचार्य है । आप सरल स्वभावी शान्तमूर्ति एवं समता के सागर हैं। आपकी वाणी में मधुरता हैं । आपका जीवन सादगी एवं सरलता से भरा हुआ हैं । आपके पास किसी भी बात के लिये कोई पकड़ या खींचातानी नहीं है । आप सभी भक्तों के साथ स्नेह का व्यवहार करते हैं । व छोटे बडे सभी को आशीर्वाद देते हैं । व सभी को अपना समझते हैं । साध्वाचार पालन में आप नियम के पक्के हैं । आपका जीवन नियमों से भरपूर हैं । कभी किसी भी प्रकार का आलस नहीं है । जैसे सुबह शीघ्र ही उठना, प्रतिक्रमण करना, देव दर्शन, स्वाध्याय, ध्यान आदि सभी प्रकार की क्रियाओं को इस 82 वर्ष की आयु में नियमपूर्वक करते हैं । किसी के भी इनके पास जाने के लिये आचार्यश्री के दरवाजे हर समय खुले रहते हैं । कोई भी व्यक्ति इनसे कभी भी मिल सकता हैं । जब भी चाहे मांगलिक व वासक्षेप ले सकता हैं | आचार्यश्री कहते हैं मैं श्रावकों के लिए व कभी भी किसी भी धार्मिक काम के लिये तैयार हूं। कभी कभी भक्त व श्रद्धालु लोग रात को भी आते हैं । आपकी वृद्ध अवस्था होते हुए भी आप कभी भी आलस्य या कष्ट महसूस नहीं करते हैं । और भक्तों को मांगलिक सुमाने को तैयार हो जाते हैं । और भक्तों को सन्तुष्ट करके भेजते हैं । इस वृद्धावस्था में भी आपकी स्मृति बहुत ही अच्छी है । इस उम्र में भी आपको दो प्रतिक्रमण पंच प्रतिक्रमण व कई पुरानी सज्झाय, स्तवन व स्तुतियाँ तो अनेक मुखाग्र हैं । पुरानी बातें व चुटकले भी काफी याद है । और हर बात को आप सत्यता पूर्वक बिना किसी प्रकार का छल कपट रखे साधारण भाषा में कहते हैं । जिसे सुनकर भक्त लोग गदगद हो जाते हैं । इस प्रकार की ये विशेषताएं आपकी विद्ववता के प्रमाण हैं । आपका जीवन सादगी एवं सरलता से भरा पड़ा है । आपको अपने पद का कोई गर्व नहीं है । आप तो समाज की सेवा व अपनी आत्मा का कल्याण करना चाहते हैं । अतः आप अपनी आत्मा को पहले व बाद में दूसरी चीजों को देखते हैं । आप कभी भी कोई भी चीज की मांग नहीं करते हैं । कम से कम आवश्यकता से अपना जीवन चलाते हैं | ज्यादा परिग्रह रखना ही नहीं चाहते हैं | आप के पास जब कभी श्रावक लोग कोई भी प्रकार का लाभ मांगते हैं तो वे कहते हैं मेरे पास है, जरुरत होने पर ले लूंगा । कभी भी बिना जरुरत के कोई भी चीज न लेते हैं न मांगते है । आडंबर में भी आपको विश्वास नहीं हैं । आप कहते हैं। ज्यादा आंडम्बर मत करो यह तो महापाप है । शान्त स्वरूपी, सरल स्वभावी, हेमेन्द्र सूरीश्वर नाम है, तेरी कृपा से गुरुवर, डूबती नैया पार है | दक्षिण देशे आये गुरुवर, धर्म का डंका बजाया है, राणीबेन्नूर, टीपटूर प्रतिष्ठा में नाम आपने खूब कमाया है | आचार्य श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी एक अलौकिक एवं भद्रिक संत महात्मा है । आप त्यागी तपस्वी, मधुर भाषी एवं सरल स्वभावी है । आपको देश के महान् पुरुषों ने राष्ट्रसंत शिरोमणि की उपाधि से अलंकृत किया है । ये एक महान आत्मा है । आपका जन्म राजस्थान प्रान्त के जालोर जिले के गांव बागरा में हुआ । पोरवाल कुल में जैन जाति में जन्म किया। आपके पिताजी का नाम ज्ञानचन्द्रजी था एवं माताजी का नाम उजमबाई था । आपका परिवार धार्मिक परिवार था । आपके माता पिता ने बचपन से ही धार्मिक शिक्षण देकर उन्हें धर्म की ओर अग्रसर किया । जिससे बचपन से ही आपकी भावना वीतरागता की ओर अग्रसर होती रही । और आपने जीवन को त्याग व ज्ञान ध्यान में लगाया । जिसमें संसार से आपको नफरत हो गई व आपने अपने आत्मा का कल्याण करने की मन में ठान ली । व माता पिता से संसार छोडकर दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की । माता पिता ने उन्हें कुछ समय के लिए ठहरने के लिए कहा । आखिर उनका मन संसार में नहीं जाता था। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 70 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ .. संसार असार है । ये समझने के बाद वे गुरुदेव श्री हर्षविजयजी की निश्रा में कुछ समय रहकर आपने धार्मिक अध्ययन प्राप्त किया व धार्मिक क्रिया व धार्मिक अध्ययन का आपको काफी ज्ञान हुआ । तब गुरुदेव ने आपको करीब 23 वर्ष की उम्र में श्री भीनमाल नगरी में बड़े धूमधाम से दीक्षा प्रदान की । दीक्षा लेकर आप गुरुदेव श्री हर्षविजयजी के साथ कई साल रहे । अनेक स्थानों पर आपने विहार करके चौमासे किये व धर्म का प्रचार किया। आप गुरुदेव श्री हर्षविजयजी के साथ व अचार्य श्री यतीन्द्र सूरीश्वरजी के साथ कई वर्षों तक रहे व आचार्यश्री की बहुत सेवा की । आचार्य श्री विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी की निश्रा में कई वर्षों तक रहे व आपने आचार्यश्री की भी बहुत सेवा की । आप अपने गुरुदेव श्री हर्षविजयजी के साथ कई वर्षों तक रहे व उनके वृद्धावस्था में भी आपने अपने गुरुदेव की बहुत सेवा की और उनके आशीर्वाद से ही आप आज राष्ट्रसंत शिरोमणि एवं आचार्य पद से सुशोभित हुए हैं । ये सभी गुरु सेवा एवं गुरु आशीर्वाद का ही परिणाम हैं । आपका आचार्य पद आहोर नगर में बड़ी धूमधाम से हुआ। आचार्य पद पाने के बाद आपने अनेक जगह चौमासे किये व जैन जाति में नाम कमाया व आपने जगह जगह घूमकर धर्म का प्रचार किया व गुरु गच्छ की गरिमा बढ़ाकर त्रिस्तुतिक मत का प्रचार किया व राजेन्द्र सूरीश्वरजी के नाम को दीपाया । आपने बागरा, भीनमाल, मोहनखेड़ा, राजगढ़, जावरा, राणीबेन्नूर आदि अनेक जगह पर चौमासा करके वहां की जनता को धर्म आराधना की ओर अग्रसर किया । नमस्कार महामंत्र एवं तप त्याग की महिमा बताकर लोगों के जीवन का कल्याण किया । इस समय आपकी उम्र करीब 82 वर्ष की है, मगर इस उम्र में भी आपमें बहुत हिम्मत है । शासन के कामों के लिए किसी की परवाह किये बगैर आप आगे बढ़ने के लिए तैयार रहते हैं । शासन का काम करना ही आप अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य समझते हैं | और अपने शरीर व जीवन की परवाह किये बगैर जिन शासन व गुरुदेव के धार्मिक कार्यों के लिए रात दिन का समय देखे बिना आप शासन के काम करने के लिए तत्पर रहते हैं । दक्षिण भारत की ओर विहार करके आना यह एक शासन सेवा का जीता जागता गुरुदेव श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी का एक चमत्कारिक व अनोखा उदाहरण हैं । कर्नाटक में हुबली के नजदीक राणीबेन्नूर नामक एक छोटा सा गांव हैं । वहां पर संघ ने गुरु भक्तों ने बहुत ही श्रद्धा पूर्वक बडी भक्ति से परिश्रम करके एक मंदिर आचार्यश्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी की दादावाडी बनाई जो वास्तव में देखने योगय हैं । उसमें दादा गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरिजी का सम्पूर्ण जीवन परिचय हैं । गुरुदेव की मूर्ति भी बहुत ही सुहावनी एवं चामत्कारिक है । यह मंदिर पुरे कांच का बना हुआ है । मंदिर बहुत सुन्दर बनाया है । व कारीगीरी भी बहुत अच्छी की हुई है । यह मंदिर अपने आप में अनोखा है । अनुपम है। अद्भुत है। इस मंदिर का काम पूर्ण होने के बाद वहां के संघ व गुरुभक्तों व विशेष श्री हुक्मीचंदजी लालचंदजी बागरेचा (सियाणा) वालों ने निश्चय किया कि इस गुरु मंदिर की प्रतिष्ठा गुरुदेव श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी के कर कमलों से करवाई जाए । उन्होंने गुरुदेव से सम्पर्क साधा व गुरुदेव से विनंती की श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी दादावाडी की प्रतिष्ठा करवाना है । व आपके ही हाथों से करवानी है । तब गुरुदेव सोचने लगे । मैं कभी दक्षिण भारत की तरफ गया नहीं । मेरी उम्र भी हो गई है, वृद्धावस्था है। मेरे शिष्य प्रीतेशचन्द्रविजयजी एवं चन्द्रयशविजयजी भी छोटे हैं । उनकी आने की तो इच्छा थी मगर सोचते थे साथ में कोई बड़ा साधु भी चाहिये । इसलिये उन्होंने राणीबेन्नूर से पधारे संघ एवं गुरुभक्तों को कहां मैं आज आपको पक्का जवाब कुछ नहीं देता हूं । और कहा आगे अवसर देलूँगा। राणीबेन्नूर से पधारे महानुभाव उस समय तो वापस चले गये । और मन मे विचार करने लगे कि महाराज साहब को सोचने दो । फिर दस दिन के बाद वे लोग वहां के संघ के साथ हुक्मीचंदजी के साथ सब लोग मोहनखेड़ा आये । व अड़ गये और उन्होंने वापस आचार्य श्री से विनंती की कि आप राणीबेन्नूर नहीं पधारे तो हम तो यही बैठे हैं । और हमें प्रतिष्ठा आपके हाथों से ही करवानी हैं । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 71 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ........................... तब आचार्यश्री ने विचार किया चौमासा नजदीक आ गया हैं । मैं बूढ़ा हूं । स्वास्थ्य भी बराबर नहीं रहता। उम्र भी पूरी है । उग्र विहार करके महीने भर में चौमासे के पहले पहुंचना है । बहुत मुश्किल है । मगर भक्तों की भाग्यता को ध्यान में रखकर सोचा जो होना होगा वो हो जायेगा । यह शरीर नहीं रहेगा तो कोई बात नहीं। शासन की सेवा व गुरुभक्ति का जो अवसर आया है, उसे नहीं छोड़ना है। और यह प्रतिष्ठा का काम मुझे ही करवाना है । यह सोचकर आचार्यश्री ने उसी वक्त कोंकण केसरी मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी को बुलाकर कहा मुझे राणीबेन्नूर प्रतिष्ठा कराने जाना है व तुमको तुम्हारे शिष्यों सहित व श्रमणी मंडल सहित मेरे साथ आना है । लाभेश व लवकेश को भी साथ लेना है । यह प्रतिष्ठा का काम अपने हाथों से करना है | कोंकण केसरी श्री लेखेन्द्र शेखर विजयजी ने बिना किसी विलम्ब के कहा जैसी आपकी आज्ञा | आपकी आज्ञा शिरोधार्य है । आपके आशीर्वाद से एवं श्री गुरुदेव श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी की कृपा से व उनकी शक्ति से हम जरुर जरुर प्रतिष्ठा करायेगे । हमें गुरुदेव मंदिर की प्रतिष्ठा कराने का जो अवसर मिला है । उसे अवश्य ही पूरा करना है । और राणीबेन्नूर संघ को वहां चातुर्मास करने की आज्ञा दी व मोहनखेड़ा में ही राणीबेन्नूर चौमासा करने एवं प्रतिष्ठा करने की जय बुलाई गई । सारा संघ खुश हुआ । और उन्हें कहा कि हम जल्दी से जल्दी विहार करके आ रहे हैं । दो चार दिन में विचार करके मोहनखेडद्या से 7 मुनि भगवंत एवं 10 साध्वीजी भगवंत राणीबेन्नूर प्रतिष्ठा कराने के लिये उग्र विहार करते हुए 2000 कि.मी पैदल यात्रा करते हुए करीब 50 दिन में आचार्य भगवंत एवं मुनिमंडल व साध्वी मंडल बड़े ही सुखशातापूर्वक राणीबेन्नूर की धन्य धरा पर आ गया और वहां का संघ हर्षविभोर हो उठा । लोगों में खुशियाँ छा गई । सारे गांव ने आनंद मंगल छा गया । लोगों का उल्लास बढ़ गया । लोग समझने लगे । हम धन्य है । हमारा जीवन सार्थक है । हमारे यहां गुरुदेव दादावाड़ी की प्रतिष्ठा का सुअवसर पर आया है । उस हेतु आचार्य श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी एवं कोंकण केसरी श्री लेखेन्द्रशेखरजी का यहां पधारना हमारे लिये परम सौभाग्य की बात है । हमारे भाग्य का उदय है व हमारे पूर्व की पुण्याई है। जिससे आचार्य श्री इस वृद्धावस्था में उग्रविहार करते हुए यहां पधारे हैं । और हमें दर्शन वंदन पूजन का लाभ दिया । यह हमारे व हमारे गांव के लिए खुशी का अवसर है | ऐसे अवसर बार बार नहीं आते हैं । ऐसे अवसर तो प्रभु की परम कृपा होती है, तभी मिलते हैं। गुरुदेव ने शुभ दिन देखकर राणीबेन्नूर नगर में प्रवेश किया । हजारों की संख्या में लोग प्रवेश प्रसंग पर आये। बड़े ही ठाठ पाट व धूमधाम व खुशियों के साथ वहां जैन श्वेताम्बर धर्मशाळा में गुरुदेव का प्रवेश कराया । गुरुदेव का अभिनंदन किया व कई लोगों ने सभा को सम्बोधन करते हुए अपने विचार प्रकट किये । व गुरुदेव को सुखशाता पूछते हुए अभिनंदन व स्वागत करते हुए आभार प्रकट किया । गुरुदेव ने भी अपने विचार प्रकट किये व अन्त में गुरुदेव ने मांगलिक सुनाया व सभा जयघोष के साथ विसर्जित हुई । उसके बाद में आचार्यश्री मुनिमण्डल श्रमणीमंडल का चौमासा राणीबेन्नूर ने बडी ही ठाठबाट से शुरू हुआ । चौमासे में अनेकों प्रकार की तपस्याएं हुई । महामंत्र की आराधना हुई । अनेक महापूजन हुए । चारों माह जाल जलाली रही । तप जप की ज्योति जलती रही । सभी लोगों में बहुत ही उत्साह व जोश था । लोग सब कुछ भूलकर हर समय गुरुसेवा व धर्म आराधना में लीन रहते थे । वहां के अनेक लोगों ने अनेक धर्म आराधानाएं की व अपने जीवन को सफल बनाया। चौमासे के बाद आप मैसूर पधारे वहां भी अनेक तप जप व महापूजन करवायें व शासन की शोभा बढाई गुरु सप्तमी आपने बड़े ही ठाठबाट से मैसूर में मनाई । जिसकी आज भी मुक्तकंठ से प्रशंसा हो रही है । उसके बाद वापस राणीबेन्नूर की तरफ विहार किया । गांव गांव घूमते हुए आचार्यश्री राणीबेन्नूर पहुंचे और गुरुदेव के मंदिर की प्रतिष्ठा की तैयारियों शुरू हो गई । लोगों में उमंग ही अलग थी, जोश भी अलग था । प्रतिष्ठा के चढ़ावे का समय आया । हर व्यक्ति ने दिल खोलकर चढ़ावे लेने का लाभ लिया, जिसमें करोड़ों रुपयों के चढ़ावे हुए । वहां बिना भेद भाव के सभी समुदाय वाले इस में आये व लाभ लिया । प्रतिष्ठा की धूमधाम थी । अनेक मंडल, हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 72 हेमेन्य ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Sain Education anál Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ गानेवाले, नृत्य करने वालों को बुलाकर शानदार प्रतिष्ठा करवाई। रसोई वाला भी बहुत होशियार था। भोजन व नाश्ते व उठने बैठने ठहरने की शानदार व्यवस्था थी । शायद ऐसी प्रतिष्ठा बहुत कम होती है । ये प्रतिष्ठा तो ऐसी थी जिसे इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा । ईश्वर की इतनी महर थी कि किसी को कोई भी तकलीफ नहीं हुई और प्रतिष्ठा शानदार से सम्पन्न हुई । उसके बाद आचार्यश्री व मुनि मण्डल, साध्वी मंडल के साथ टीपटूर गये। वहां के संघ की भी भाव भरी विनंती थी कि गुरुदेव श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी का मंदिर तैयार हो गया है और उसकी प्रतिष्ठा करवानी है। संघ ने आचार्यश्री को उस हेतु पहले विनंती की हुई थी और आचार्यश्री ने कहा हुआ था कि राणीबेन्नूर के बाद आपके वहां भी प्रतिष्ठा करवा देंगे। व गुरु महाराज ने प्रतिष्ठा का शुभ मुहूर्त निकाल कर दिया था । और कहा तुम प्रतिष्ठा की तैयारियां शुरू करदो । आचार्यश्री ने टीपटूर पधारकर प्रतिष्ठा का सभी काम शुरू करवाया । चढावे बुलवाए वहां भी लाखों रूपयों के चढ़ावे हुए । और प्रतिष्ठा बडे ही ठाटबाट व उल्लास के साथ सम्पन्न हुई । हजारों की संख्या में बाहर गांव से लोग आए । और प्रतिष्ठा बहुत ही ठाट बाट से हुई। घर घर बहुत खुशियाँ छाई । गांव में आनंद मंगल हुआ। और उसी दिन गुरुदेव ने अगले चातुर्मास की जय बोली । उसमें भाग्योदय से मद्रास श्री राजेन्द्रसूरि जैन ट्रस्ट को आचार्यश्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी का चातुर्मास कराने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । और चेन्नई में चातुर्मास करने की घोषणा की गई। जिससे मद्रास संघ हर्ष विभोर होगया व खुशियों का पार नहीं रहा और सभी लोग आचार्यश्री की जयजयकार करने लगे । टीपटूर से विहार करते करते सैकड़ों गांवों में घूमते हुए धर्म के प्रगट करते करते मद्रास की तरफ आपका विहार हुआ। मद्रास ट्रस्ट समय समय पर आपसे मिलने जाता रहा। आप मदुराई कोइम्बतूर पांडीचेरी, तीन्डीवनम, वन्डर चीन्गलपेट आदि अनेक गांवों में विहार करते हुए ता. 7-7-2000 के सुबह 8 बजे आप मद्रास पटनी प्लाजा (साहूकारपेट) पधारे। वहां से ठीक 9 बजे गुरुदेव के प्रवेश का एक जुलुस सामैया व गहुली करने के बाद प्रारंभ हुआ। जिसमें विशाल संख्या में भीड उमड़ पड़ी उस समय पटनी प्लाजा व्यापारी संघ ने श्रीसंघ का संघ पूजा से एवं उनकी साधर्मिक भक्ति मसाला दूध पिलाकर की । और वरघोड़ा वहां से शुरू हुआ । मद्रास के मार्गों से होता हुआ विशाल जन समुदाय के साथ वरघोड़ा करीब 10 बजे राजेन्द्र भवन पहुंचा । उस समय वर घोड़े के साथ आराधना भवन से आचार्य श्री नित्योदयसागर सूरीश्वरजी एवं श्री चन्द्राननसागर सूरीश्वरजी अपने मुनिमंडल सहित राजेन्द्र भवन पधारे । विशाल समुदाय के साथ वरघोडा राजेन्द्र भवन पहुंचा । कई महानुभावों ने मंगल प्रवेश पर गुरु गुण गान किया व गुरुदेव का अभिनंदन व स्वागत किया। आचार्य श्री नित्योदयसागर सूरीश्वरजी ने भी संघ को सम्बोधन किया व मंगलिक प्रवचन किया । बाद में कोंकण केसरी श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी ने प्रवचन देते हुए कहा कि इस चातुर्मास में आपको धर्म व जप तप करना चाहिये जिससे हम अपने जीवन को सफल बना सके अन्त में आचार्य श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी I ने मंगल प्रवचन दिया व गुरुगौतम स्वामी जी का रास सुनाया मंगल प्रवेश का कार्यक्रम बड़े ही उल्लास पूर्वक सम्पन्न हुआ आराधनाओं के साथ आरम्भ हुआ। आचार्यश्री ने चातुर्मास के आराधना करवाई । और चार्तुमास धूम धाम व ठाट बाट से सम्पन्न हुआ । यह एक ऐतिहासिक चार्तुमास हुआ । आचार्यश्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी एक महान् भद्रिक सरल स्वभावी एवं शान्तिदायक आत्मा है । आपकी प्रशंसा व आपके जीवन का उल्लेख जितना करें उतना कम है । इस अवसर पर हम सभी आपका अभिनंदन एवं स्वागत करते है व सुखशाता पूछते हैं और ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि आपका जीवन सुखतातापूर्वक व्यतीत हो । आप दीर्घायु हो, चिरंजीवी हो, आपको शारीरिक सुख सम्पदा प्राप्त हो । आप शासन की सेवा के कार्यों को करने में हमेशा सफल होते रहें। यही हमारी ईश्वर से प्रार्थना है । आप अपने मुनि मण्डल सहित सुखशाता में बिराजें। व शासन की सेवा करके अपने जीवन को धन्य बनाने सुखी बनायें आपके चरणों में कोटि कोटि वंदना । यही हार्दिक अभिलाषा है । जय जिनेन्द्र । aducation Intel हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 194 व सभी को शुभ आशीर्वाद दिया । इस ऐतिहासिक । चेन्नई का चातुर्मास जप तप ज्ञान ध्यान व अनेक दरम्यान अनेक तपश्चर्या महापूजन, नमस्कार मंत्र की 73 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति www.jamelibrary Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ( ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया -नरेन्द्रकुमार रायचंदजी, बागरा 'पूर्ण पुरुष, विकसित मानव, तुम जीवन सिद्ध अहिंसक | मुक्त हो तुम, अनुरक्त हो तुम, जन जग वंद्य महात्मन् ।। आस्था एवं निष्काम कर्म के नंदादीप - संत कबीर कहते हैं कि 'दास कबीर जतन से ओढ़ि ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया । जीवन के उतार चढ़ाव और झंझावतों को समभाव से झेलते हुए अपनी श्वेत-शुभ चादर को बेदाग जैसी थी वैसी छोड़ देना विरले मानव के ही बुते की बात है । ऐसे ही विरले व्यक्तित्व है राष्ट्रसंत शिरोमणि मानवता के पोषक, प्रचारक और उन्नयाक, विन्रमता और ज्योतिर्मयी प्रज्ञा का अद्भुत योग, सरल मना आचार्यभगवत श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. । हेमेन्द्रसूरि होने का अर्थ है निःस्पृहता, निखालिसपन और सत्य की साक्षात मूर्ति । पुरुष होना सामान्य बात है, महापुरुष होना विशिष्ट बात है । जीवन जीना एक बात है, कलापूर्ण उपयोगितापूर्ण एवं परोपकारी जीवन जीना विशिष्ट बात है । यह वैशिष्ट्य आचार्य हेमेन्द्रसूरिजी के जीवन में उभरता है इसलिये उनका जीवन जन जन के लिये प्रेरणा स्रोत है, दिशासूचक यंत्र है । आध्यात्मिक दुष्काल और आत्म शिथिलता के इस युग में भौतिक सुखों के पीछे भागते इस संसार में वे आशा एवं विश्वास की वह अनवरत ज्योति है जो ज्ञान-दर्शन चारित्र की उपासना का मार्ग प्रशस्त करते हैं। उदारता और निश्चलता से ओत-प्रोत हेमेन्द्रसूरिजी के भीतर एक सात्विक अग्नि है जो अपने चारों ओर फैली अनास्था आचरणहीनता अमानवीयता को भस्म कर देना चाहती है । "जिनकी आत्मा में जलता है दीपक सम्यक दर्शन का | जन्म-जन्म तक आलौकित होगा पथ उनके जीवन का |" महावीर के अनेकान्तवाद, तथागत के करूणा की प्रतिमूर्ति - जिस साधु या संत के पास जाने से कामना का जन्म हो, वासना को बल मिले वह सच्चा संत नहीं हो सकता । आत्मदर्शी न्द्र सूरिजी के पास जाने से सिर्फ वासना कम ही नहीं होती मर जाती है | उनकी उपस्थिति मात्र से ही अंहकारी वृत्तियाँ दब जाती है और शुद्ध प्रवृत्तियाँ क्रियाशील हो जाती है । परम कारुणिक इस महामानव के संस्पर्श से ही मनुष्य में परमात्मा जाग उठता है । हेमेन्द्रसूरिजी के आत्मजयी व्यक्तित्व में अर्हत् तत्व प्रकाशित होते ही समाज में उसकी वात्सल्यभावी पुण्य-प्रमा संचरित हुई । जगतवल्लभ अचार्य हेमेन्द्रसूरिजी मानव जाति को असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमृत की ओर अभिमुख करते है । आचार्यश्री के व्यक्तित्व में संवेदनशीलता, साहिष्णुता और उदारता की वृत्तियां मूल रूप से विद्यमान रही हैं जिसे अनेकान्त दृष्टि ने और भी गहनता एवं व्यापकता प्रदान की। उनके व्यक्तित्व की माखनी स्निग्धता, उज्ज्वलता भीतरी दुर्निवार आकांक्षा की प्रतिमूर्ति है | वे एक प्रयोग धर्मा अन्वेषक है, उनका जीवन एक चलती फिरती प्रयोगशाला है । उनकी दार्शनिकता तर्क से नहीं साक्षात्कार से आप्लावित है । वे अपने गुरु हर्षविजयजी म.सा. के कुशल हाथों की एक अनुपम कृति है। जीवन की परम ऊंचाइयों पर जो पुष्प खिलना संभव है, उन सबका दर्शन उनके व्यक्तित्व में सहज हो जाता है । "प्रेम-ममत्व भंडार अनोखा, बसा है आपके अंतर में | इसलिये तो स्नेहामृत बरसता, मनमोहक मधुर स्वर में | हेमेन्द्रज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 74 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Kaiserature Oo jainelt Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ विशाल सांस्कृतिक संस्था - राष्ट्रीय चेतना के प्रहरी, मानवता के मसीहा त्रिस्तुतिक समाज के वर्तमानाचार्यदेव हेमेन्द्र सूरीश्वरजी एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक विशाल सांस्कृतिक संस्था है । उनका ओजस्वी तेजस्वी व्यक्तित्व एक गौरवपूर्ण प्रतिष्ठान है, उनकी पदयात्राएं सिर्फ एक महान मानवीय आंदोलन ही नहीं सामाजिकता का सर्वश्रेष्ठ अभियान है । श्वेताम्बरधारी इस महामानव का उठा हुआ हाथ किसी के लिये समस्त रोग-शोक, दुःख-दारुण्य, ताप-संताप का निवारक है तो किसी के लिए सदाचार और सद्ज्ञान का प्रक्षेपक । नैतिक उत्थान के देवदूत गुरु हेमेन्द्र के बाजु उठते हैं। दूसरों को भलाई के लिए, उनकी वाणी मूर्तिमान होती है तो “वसुधैव कुटम्बम्" की भावना चरितार्थ करने के लिए उनके कदम उठते हैं दूसरों के कल्याण के लिए । पारस पुरुष सूरीश्वर के मस्तिष्क में प्रतिपल मानव कल्याण का चिंतन होता है । अखिल मानवता के प्रति भेद रहित न्योछावर हो जाना ही उनका ध्येय है । उनका जीवन सात्विक आचार-विचार के प्रचार-प्रसार और अहर्निश परोपकार के यज्ञ का अखण्ड सत्र रहा है । चंदन की भांति स्वयं को पिसकर दूसरों को सुगंध देना उनका स्वभाव है । समाज में मैत्री समता शांति प्रेम स्थापना करने के लिए किये हुआ अहर्निष प्रयत्नों से वे आज विश्वसंतों के पंक्ति में गिने जाते हैं । "इनहाथों ने आकाश को झुकाया है, इन स्रोतो ने हर प्यास को बुझाया है | असंभव पर भी उकेर दिया है संभव को, अंधेरे में भी प्रकाश को फैलाया है " निर्लोभ एवं निर्वेर की जीती जागती मिसाल : स्वभाव में मृदता, विनम्रता जब घुलते हैं तो मनुष्य का अस्तित्व मोहक बन जाता है । अध्यात्ममार्ग के भाव सृष्टा हेमेन्द्रसूरिजी के सरल और हंसमुख स्वभाव के साथ उनके व्यक्तित्व में सौम्यता, शीतलता के आकर्षण मिश्रण ने उन्हें सर्वत्र समान लोकप्रिय बनाया है । अजातशत्रु सूरिजी के जीवन और विचार दोनों में गहरी सादगी है और इसी सादगी में वे श्रेष्ठता की झलक देते हैं । प्रवंचनाओं से बचे रहने की बुद्धि और किसी को भी कष्ट नहीं देने की वृत्ति से वे अपनी साधरणता में भी असाधरण महसूस होते हैं । वे अपने नाम के आगे कोई विशेषण या पद नहीं चाहते । वे आलोचना से उत्तेजित नहीं होते । सहिष्णुता उनके लिए सहज है । इसलिये उद्विग्नता भी नहीं है । न दिखावा न छलावा, न पक्ष न विपक्ष, न प्रदर्शन न दर्शन, न सम्मान न अपमान, न पुरस्कार न तिरस्कार, न अनुरोध न विरोध युगवन्दनीय इस संत का मानस शिशु-सा कोमल, निर्मल, अबोध है । उनकी चितभूमि आसक्तियों से / लिप्साओं से मलिन नहीं बल्कि व्यवस्थित है, नियमित है, संतुलित्त है । वे त्याग और समर्पण निष्कामना और निश्चलता के प्रतीक है । साधना और संयम उनके जीवन के महत्वपूर्ण सूत्र है । वे इतने अप्रमत है कि शासन संचालन करते हुए भी स्वयं से ही जुड़े रहते हैं । आत्मीयता के सागर, समभाव के साधक, चारित्र चूड़ामणि इस युगप्रधान आचार्यश्री के कुशल अनुशासन में धर्मसंघ का बहुमुखी विकास हो, त्रिस्तुतिक संघ ज्योतिर्मय बने । सूरीश्वर की प्रज्ञारश्मियां जन-जन के जीवन पथ के प्रकाशित करें । श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. दिर्घायु हो, चिरायु हो, निरामय हो यही कामना । "मौन हो गये ग्रंथ जहां पर तमने दी फिर वाणी । गूंजेगी वही दिग्-दिगन्त में बनकर के कल्याणी || सेवा और समर्पण कोई सीखे पास तुम्हारे - कोटि कोटि वंदन ! अभिनंदन ! ओ जग के उजियारे" || हेमेन्द ज्योति* हेमेन्त ज्योति 75 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति For Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ DXXYOGY आचार्य श्री के आहोर में किये हुए कार्यों का स्मरण एवं कुछ ऐतिहासिक बातें -मुथा शान्तिलाल, आहोर प्रथम बार सम्वत् 2000 की साल में मुनिराज श्री हेमेन्द्रविजयजी का चार्तुमास उपाध्याय मुनिराज श्री गुलाबविजयजी हंसविजयजी आदि के साथ में हुआ । उस चार्तुमास में आपने मासक्षमणा की तपश्चर्या की । सम्वत् 2039 का आपका चार्तुमास चतुर्विध श्रीसंघ के अग्रगण्य रूप में स्वतन्त्र चार्तुमास हुआ । सम्वत् 2040 गुरु सप्तमी के दिन गुरुगादी के देवो अधिष्ठाता के आदेशानुसार आपके नाम की आचार्य पद हेतु की घोषणा की गई । उस दिन गांव के सब लोगों का उत्साह बहुत ही चिरस्मरणीय रहा और सब गांवों के आये हुए सब संघों ने हर्ष ध्वनि के साथ बधाया । बाद में आचार्य पद के पाटोत्सव की तैयारियाँ श्री संघने शुरू की और 2040 माहसुदि 9 के दिन का नवाहिन्का महोत्सव के साथ आपके आचार्य श्री विद्याचंद्र सूरीश्वरजी के पाट पर आचार्यपद से अलंकृत किया गया। सम्वत् 2043 जेठ सुद 6 के दिन श्री गोडी पार्श्वनाथ बावन जिनालय के प्रांगण में शा. शान्तिलालजी. मांगीलालजी, लक्ष्मणाजी द्वारा निर्मित त्रिशिखरी मंदिर में श्री सीमंधर स्वामी श्री पद्मनाथस्वामी और श्री वारिषेण स्वामीजी 71 इंच की प्रतिमाजी एवं अन्य 150 प्रतिमाजी की अंजनशलाका एवं प्रतिष्ठामहोत्सव शिखर ऊपर कलशदंड ध्वजा महोत्सव पूर्वक चढ़ाये गये । सम्वत् 2043 जेठ सुद 11 के दिन श्रीमती ओटिबाई द्वारा संस्थापित श्री फूलचन्द जैन मेमोरियम ट्रस्ट नव निर्मित विद्याविहार में श्री सहस्रफणा पार्श्वनाथ आदि बिम्ब प्रवेश व साम्वरण पर कलश दंड ध्वजा पंचान्हिका महोत्सव सहित चढ़ाये गये। सम्वत् 2050 वैशाख सुद 10 दिन महोत्सव पूर्वक तीन वैरागिनीजी स्व. प्रकाशचन्द गादिया की धर्मपत्नी सेवंतिबाई गादिया श्रीमान् मांगीलालजी ताराचन्दजी तिलेसराजी की दो पुत्रियां निर्मलाकुमारी, कान्ताकुमारी तीनों को दीक्षा प्रदान की गई। सम्वत् 2053 के जेठ सुद 10 के शा फोला मुथा हिराचंदजी भगवान जो द्वारा गोडीजी बगीची में नव निर्मित श्री प्रमोदसूरि सभामण्डल का उद्घाटन एवं दोपहर को महापूजन का आयोजन आपकी निश्रा में हुआ । सम्वत् 2055 को फाल्गुण वद 5 के दिन श्री गोडी पार्श्वनाथ बावन जिनालय के शताब्दी महा महोत्सव ग्यारह दिवसीय महोत्सव सहित अपकी ही निश्रा में मनाया गया । आहोर वह शहर है जहां पर सम्वत् 1924 को वैशाख सुदि 5 के दिन शुभ मुहूर्त में मुनिराज श्री रत्नविजयजी महाराज को आचार्य श्री प्रमोद सूरीश्वरजी महाराज ने अपने पट्टधर के रूप में आचार्य पद सूरिमंत्र देकर श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी के नाम की घोषणा की थी । सम्वत् 2033 चैत्र वदि 11 के दिन आचार्य श्री प्रमोदसूरिजी महाराज का स्वर्गवास यहां ही हुआ, जिसकी समाधि की छत्री आज भी ग्राम पंचायत कार्यालय के सामने स्थित हैं। सम्वत् 1936 को महासुदि 10 के दिन चंद्रावती नगरी से आई हुई अलौकिक श्री गोडी पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा मंदिरजी में प्रतिष्ठा एवं देववाणी अनुसार मंदिरजी के इर्द गिर्द 54 छोटी देवकुलिका व 3 बडे मंदिरजी का निर्माण हुआ । जिसमें भगवान का प्रवेश 57 शिखरों पर ध्वजा कलश चढाये गये । हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 761 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति AND H eaddaloprimernama Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ....... सम्वत् 1955 फाल्गुण वद 5 दिन के 951 जिन बिम्बों की अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव एक अलौकिक था। अंजनशलाका एवं फलेचुनरी का लाभ बाफना मुथा जसरूपजी जीतमलजी परिवार वालों ने लिया था । ऐसा अलौकिक अंजनशलाका महोत्सव आज दिन तक नहीं हुआ, जिसका श्रेय परम श्रेष्ठ परम पूज्य योगीन्द्राचार्य कलिकाल कल्पतरु आचार्यदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के चारित्रबल के ही प्रताप को था । सम्वत् 1996 महासुद 7 के दिन आचार्य श्री भूपेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का स्वर्गवास यहीं हुआ, जिनका समाधि मंदिर आज भी गोडीजी के मंदिरजी के पीछे बगीचे में है । सम्वत् 1995 वैशाख सुद 10 को परम पूज्य आचार्यदेव श्री यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज को आचार्यपद व उपाध यायजी श्री गुलाबविजयजी महाराज को अष्टान्हिका महोत्सव सहित पदवियाँ प्रदान की गई । यहां पर और भी मुनिराजों व साध्वी भगवंतों का दीक्षोत्सव एवं स्वर्गगमन हुआ । मुझे परम पूज्य आचार्यदेव श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का सेवा में पालीताणा राजेन्द्र विहार में अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव, राजेन्द्र जैन भवन में प्रतिष्ठा महोत्सव श्री मोहनखेडा में श्री विद्याचंद्र सूरीश्वरजी महाराज के समाधि मन्दिर की प्रतिष्ठा एवं भगवान की प्रतिमाओं की अंजनशलाका श्री शंखेश्वरजी में पार्श्वपद्मावती पीठ की अंजनशलाका में व राजेन्द्र भवन पालीताणा में चार्तुमास में उनके निकट रहकर सेवा करने का बहुत अवसर मिला हैं । उनकी मृदुता व सरल स्वभाव चारित्र पालन में बहुत ही क्रियाशीलता देखी है । उनको भगवान शतायु प्रदान करावे । उनको मेरी कोटि कोटि वंदना । उत्तम विवेकमय मार्ग सहज ही प्राप्त नहीं हो सकता। इसके लिये सर्व प्रथम इन्द्रियविकारों, स्वार्थपूर्ण भावनाओं और संसारियों के स्नेहबन्धनों का परित्याग करना पड़गा, तब कहीं विवेक की साधना में सफलता मिल सकेगी। कईएक साधक समझदार हो करके भी इन्द्रियों और पाखंडियों की जाल में फंसे रह कर अपने आत्म-विवेक को खो बैठते हैं, और वे पाप कर्मो से छूटकारा नहीं पाते। प्राणीमात्र लोभ और मोह में सपड़ाये हुए, साथ-साथ धर्म और ज्ञान को भी मलिन कर डालते हैं। इसलिये आत्मविवेक उन्हीं व्यक्तियों को मिलेगा जो इन दोनों पिशाचों को अच्छी तरह विजय कर लेंगे। जो व्यक्ति क्रोधी होता है अथवा जिसका क्रोध कभी शान्त नहीं होता, जो सज्जन और मित्रों का तिरस्कार करता है, जो विद्वान् हो कर के भी अभिमान रखता है, जो दूसरों के मर्म प्रकट करता है और अपने कुटुम्बी वचन बोलकर संताप पहुंचाता है और जो सबका अप्रिय है वही पुरुष अविनीत, दुर्गति और अनादरपात्र कहाता है। ऐसे व्यक्ति को आत्म-तारक मार्ग नहीं मिल सकता; अतः ऐसा कुव्यवहार सर्वथा छोड़ देना चाहिये। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेगेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 77 हेगेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति auriganted Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ मार्गदर्शन मिलता रहे ) परम पूज्य कविरत्न आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के देवलोक गमन के पश्चात् श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर पेढ़ी (ट्रस्ट), श्री मोहनखेडा तीर्थ, राजगढ़ जिला धार (म.प्र.) के अध्यक्ष का पद रिक्त हो गया । उस समय संघ ने वरिष्ठतम मुनिराज श्री हेमेन्द्रविजयजी म.सा. के नेतृत्व में कार्य करने का निर्णय लिया। यह स्थिति उस समय तक बनी रही जब तक कि पू. मुनिराज श्री हेमेन्द्र विजयजी म.सा. को सूरिपद पर अलंकृत कर आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित नहीं किया गया । संघ समाज और तीर्थ के सभी कार्य आपश्री के तथा अन्य मुनिराजों के मार्गदर्शन में चलता रहा । आचार्य जैसे महत्वपूर्ण पद को अधिक समय तक रिक्त नहीं रखा जा सकता। इस बात को ध्यान में रखते हुए संघ ने दिनांक 10-2-1983 के शुभ दिन पू. मुनिराज श्री हेमेन्द्रविजयजीम.सा. को भव्यातिभव्य समारोह पूर्वक आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया और उसी समय से पू. आचार्य श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर पेढ़ी (ट्रस्ट) श्री मोहनखेडा तीर्थ, राजगढ के अध्यक्ष के पद पर भी आसीन हुए । यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक प्रतीत होता है कि श्री मोहनखेडा तीर्थ ट्रस्ट के नियमानुसार आचार्यश्री ही ट्रस्ट मण्डल के अध्यक्ष होते हैं । वैसे तो तीर्थ विकास के कार्य कभी अवरूद्ध नहीं हुए फिर भी पू. आचार्य श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के अध्यक्ष पद पर पदारूढ़ होने के पश्चात् तीर्थ के विकास के कार्यों में तेजी आ गई । पू. आचार्य भगवन के पावन सान्निध्य एवं मार्गदर्शन में जब से आपश्री ने अध्यक्ष का पद सम्हाला तब से अभी तक तीर्थ विकास की दृष्टि से निम्नांकित महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न हुए । 1. पूर्व की भोजनशाला का स्थान कुछ सीमित था । यात्रियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही थी । अधिक यात्रियों के आजाने के कारण व्यवस्था में कठिनाई उत्पन्न हो जाती थी । इस बात को ध्यान में रखते हुए नई भोजन शाला के निर्माण की आवश्यकता का अनुभव हुआ । पू. आचार्यश्री ने ट्रस्ट मण्डल के सदस्यों के साथ इस समस्या पर विचार विमर्श किया और तत्पश्चात् भीनमाल निवासी गुरुभक्त नाहर बाबूलाल को प्रेरणा प्रदान की। परिणाम स्वरूप शीघ्र ही सर्व सुविधायुक्त नवीन भोजनशाला बनकर तैयार हो गई । नई भोजनशाला के बन जाने से एक बहुत बड़ी आवश्यकता की पूर्ति हो गई । 2. श्री विद्या विहार धर्मशाला :- यात्रियों की बढ़ती हुई संख्या को देखते हुए नवीन धर्मशाला की आवश्यकता प्रतीत होने लगी । तब पू. आचार्य भगवन के मार्गदर्शन में श्री विद्या विहार धर्मशाला के निर्माण का कार्य शुरू हुआ और आज इस धर्मशाला में सर्व सुविधा युक्त दो सौ कमरे हैं । 3. श्री यतीन्द्र विहार धर्मशाला :- इस धर्मशाला में 50 कमरें हैं । 4. श्री मोहन विहार धर्मशाला :- इसमें लगभग 50-60 कमरें है । उल्लेखनीय है कि इस धर्मशाला में हाईस्कूल तक की कक्षायें लगती है । यह हाईस्कूल माध्यमिक शिक्षा मण्डल म. प्र., भोपाल द्वारा मान्यता प्राप्त है। 5. श्री राजेन्द्रविहार धर्मशाला :- यह धर्मशाला तीन खण्डों में बनी हुई है । इसमें 50 कमरें हैं । इस प्रकार श्री मोहनखेडा तीर्थ पर यात्रियों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए धर्मशालाओं का निर्माण करवाया गया । 6. पेढ़ी कार्यालय :- जैसे जैसे तीर्थ क्षेत्र का विकास होता जा रहा है । वैसे वैसे पेढी के कार्य में भी अभिवृद्धि हो रही हैं । जिस कक्ष में पेढ़ी का कार्यालय था, वहां स्थानाभाव का अनुभव होने लगा । तब पू. आचार्य भगवन के मार्गदर्शन एवं सान्निध्य में पेढ़ी के नवीन कार्यालय के निर्माण की योजना बनी । पू. आचार्य भगवन की प्रेरणा से पेढ़ी कार्यालय के निर्माण का कार्य करवाना श्री पारसमलजी सांवलचंदजी निवासी भेंसवाड़ा जिला जालोर ने स्वीकार कर निर्माण कार्य प्रारम्भ करवाया और आज पेढ़ी कार्यालय इसी स्थान पर है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 78 हेमेन्ट ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Education intern al pajamalia Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन गंथ । 7. पेयजल की उपलब्धता की दृष्टि से यात्रियों तथा आने जाने वाले व्यक्तियों को पीने का पानी सुगमता से मिलता रहे इस बात को ध्यान में रखते हुए पू. आचार्य भगवन ने एक गुरुभक्त को प्रेरणा प्रदान कर प्याऊ का निर्माण करवाया। इस प्याऊ के निर्माण होने से मंदिर परिसर के बाहर पेयजल की उपलब्धता सुगम हो गई । 8. पू. कविरत्न आचार्य श्रीमद विजय विद्याचन्द्र सूरि गुरू मंदिर :- पू. आचार्य भगवन ने गुरुमंदिर की श्रृंखला में स्व. कविरत्न आचार्य श्रीमद विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के गुरुमंदिर का निर्माण गुरुभक्तों को प्रेरणा प्रदान कर बनवाया। 9. श्री राजेन्द्र यतीन्द्र विद्या उद्यान :- मुख्य मंदिरजी से कुछ दूरी पर इस उद्यान का निर्माण आपश्री कार्यकाल में हुआ । इस उद्यान में विभिन्न प्रजाति के फल, फूलदार वृक्ष पौधे है । वनस्पति संरक्षण की दृष्टि से इस उद्यान के निर्माण का महत्व है । 10. श्री यतीन्द्र सूरि क्रिया भवन :- धार्मिक क्रियाओं को सम्पन्न करने के लिये अलग से एक भवन की आवश्यकता का अनुभव किया जा रहा था । श्री यतीन्द्रसूरि क्रिया भवन का निर्माण हो जाने से इस कभी की पूर्ति हो गई। 11. गोशाला :- जीवदया की दृष्टि से पू. आचार्य भगवन सदैव जागरूक रहे हैं । आपश्री के सान्निध्य में गौवंश संरक्षण के लिए यहां एक विशाल गौशाला अभी निर्माणाधीन है । 12. मानव सेवा की दृष्टि से भी पू. आचार्य भगवन के सान्निध्य में उल्लेखनीय कार्य हुए हैं । स्मरण रहे कि सेवा पू. आचार्य भगवन का प्रारम्भ से ही लक्ष्य रहा है । इस दृष्टि से आपश्री के सान्निध्य में श्री राजेन्द्र सूरि नेत्र चिकित्सालय का निर्माण हुआ और नयनतारा नेत्र चिकित्सा शिविर का विशाल स्तर पर आयोजन भी हुआ । इस नेत्र शिविर में लगभग चार हाजर व्यक्तियो की आंखों के आपरेशन हुए जो अपने आप में एक रेकार्ड है | श्री राजेन्द्र सूरि जैन चिकित्सालय श्री नोपाजी लखमाजी निवासी सियाणा जिला जालोर द्वारा बनवाया गया । 13. गुरू सप्तमी समारोह हाल :- यहां पौष शुक्ला सप्तमी पू. गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. का जन्म एवं पुण्यतिथि दिवस विशाल स्तर पर प्रतिवर्ष मनाया जाता है । इस अवसर पर देश भर से हजारों की संख्या में गुरुभक्तों का यहां आगमन होता है । यह समारोह एक पर्व के रूप में मनाया जाता है । गुरु सप्तमी पर्व सुव्यवस्थित रूप से सम्पन्न हो, इस दृष्टि से आपश्री की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन में एक विशाल गुरु सप्तमी हाल का निर्माण करवाया गया । __14. हाई वे पर मुख्य द्वार :- अहमदाबाद की ओर जाने वाले हाई वे पर श्री मोहनखेडा तीर्थ की ओर जाने वाले मार्ग पर एक विशाल एक भव्य द्वार का निर्माण करवाया गया । 15. श्री मोहनखेडा तीर्थ आदिवासी क्षेत्र में स्थित है । आदिवासी प्रायः व्यसनों में लिप्त रहते हैं । आदिवासियों को व्यसन मुक्त जीवन व्यतीत करने की दृष्टि से पू. आचार्य भगवन के सान्निध्य में दो तीन बार आदिवासियों के सम्मेलन भी यहां आयोजित किये गये हैं । इन सम्मेलनों में हजारो की संख्या में आदिवासि लोग सम्मिलित होते हैं । उन्हें इस अवसर पर व्यसनों के दुष्परिणामों से अवगत कराया जाता है और व्यसन त्यागने की प्रेरणा दी जाती है । परिणाम सुखद रूप से सामने आये । हजारों की संख्या में आदिवासियों ने व्यसनों का त्याग किया है । उनके आचरण में भी परिवर्तन देखा जा सकता है । हेगेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 79 हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द ज्योति Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ इस अवसर परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के सान्निध्य एवं मार्गदर्शन में तीर्थ निरन्तर विकास की ओर अग्रसर है। जब यह बात ज्ञात हुई कि पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि म. सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन हो रहा है तो प्रसन्नता असीम हो गई । पू. आचार्य भगवन अनेक गुणों से सम्पन्न है । वे सेवाभावी, समताभावी है। दया और करुणा का निर्झर उनके हृदय में सतत बहता रहता है । वे सरल, निर्मल हृदयी है । निरभिमानी है। कभी भी अपनी बात दूसरों पर थोपते नहीं है । चाहे छोटा हो चाहे बडा, वे सबकी बात सुनते हैं और आवश्यकतानुसार उसे स्वीकार भी करते हैं । आज ऐसे राष्ट्रसंतश्री के सम्मान में अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित करते हुए हम स्वयं गौरव का अनुभव कर रहे हैं पू. आचार्यश्री दीर्घायु हो, स्वस्थ रहते हुए हमें, संघ, समाज को अपना मार्गदर्शन देते रहे, यही शासनदेव से अन्तरमन से प्रार्थना करते हैं । । मानव की मानवता का प्रकाश सत्य, शौर्य, उदारता, संयमितता आदि सद्गुणों से ही होता है। जिस में गुण नहीं, उसमें मानवता नहीं, अन्धकार है। अन्धकार ही मानवता का संहारक है और प्राणीमात्र को यही संसार में ढकेलता है। अतएव प्राणीमात्र को दुर्भावनारूप अंधकार को अपने हृदय से निकाल कर सद्भावनामय प्रकाश उच्चत्तर पर ले जाकर मानवजीवन को सफल बना कर शिवधाम में पहुंचाता है। समस्त ट्रस्टी श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर पेढ़ी (ट्रस्ट) श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, राजगढ़, जिला धार (म. प्र. ) जिनेश्वर वाणी अनेकान्त है वह संयममार्ग की समर्थक है वह सर्व प्रकारेण तीनों काल में सत्य है और अज्ञानतिमिर की नाशक है। इस में एकान्त दुराग्रह और असत् तर्कवितकों को किंचिन्मात्र भी स्थान नहीं है। जो लोग इस में विपरीत श्रद्धा रखते और संदिग्ध रहते हैं, वे मतिमंद और मिथ्यावासना से ग्रसित हैं। जिस प्रकार सघन मेघ घटाओं ये सूर्यतेज दब नहीं सकता, उसी प्रकार मिथ्याप्रलापों से सत्य आच्छादित नहीं हो सकता। अतः किसी प्रकार का सन्देह न रख कर जिनेश्वर वाणी का आराधन करो, जिस से भवभ्रमण का रोग सर्वथा नष्ट हो जाय। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 80 श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेन्द्र ज्योति ज्योति Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दन ग्रन्थ बिभाग संत मिलन को जाइए, तज क्रोध मोह अभिमान | ये तीन साथ ले जाइए, कभी न आवे ज्ञान ]] Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CERU Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य गच्छाधिपति द्वारा अनेकविध शासनप्रभावना के कार्य धन-जन वैभव को ठुकराकर संयम पंथ अपनाया ओजस्वी मृदुवाणी में सब को सन्मार्ग दिखाया दीक्षा हीरक जयन्ती की बेला में तन मन हर्षित हैं। सूरि हेमेन्द्र के चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित हैं। wwww.jainellbrary.org Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य आचार्य श्री ग्रंथनायक का वर्तमान मुनि मण्डल श्री सौभाग्य विजय श्री लेखेन्द्रशेखर विजय श्री लाभेश विजय श्री चंद्रयश विजय श्री रवीन्द्र विजय श्री जयशेखर विजय श्री जिनेन्द्र विजय श्री पीयूषचंद्र विजय श्री लवकेश विजय श्री ललितेश विजय श्री नरेन्द्र विजय श्री ऋषभचंद्र विजय श्री हितेशचंद्र विजय श्री दिव्यचंद्र विजय श्री रजतचंद्र विजय श्री पुष्पेन्द्र विजय Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अखेळला नाही ਉਕਢਲਣਾ ਵੈਰਦੁਖਦ ਹੋ मुलाकातों का एक नजारा आचार्यदेव श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के पास में पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय लब्धिचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. (आहोर राज.) जैनाचार्यों के साथ में यादगार मुलाकात के विहंगम दृश्य पालीताणा तीर्थ में पूज्यश्री के साथ है। श्री यशोदेवसूरीश्वरजी एवं श्री वाचस्पतिजी म.सा. प.पू.आ.श्री के साथ बायें से श्री किर्तीसेनसूरि म.सा., श्री यशोवर्मसूरि म.सा. श्री जयशेखरसूरि म.सा., गच्छाधिपति श्री सुबोधसागरसूरि म.सा. STPRESS STORE Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो गच्छाधिपति एक पाट पर पू. ग्रंथनायक एवं श्री सुबोधसागरसागरसूरिजी म.सा. आ. विद्युतप्रभसूरिजी म.सा. आ. मनोहरकीर्तिसागरसूरि म.सा. श्री हेमचन्द्रसूरिजी म.सा. WORY बेंगलोर में पू.आ. हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के साथ श्री नित्योदयसागरसूरीश्वरजी एवं बायी ओर श्री चन्द्राननसागरसूरीश्वरजी म.सा. I पूज्य ग्रंथ नायक एवं श्री दानसूरिजी म.सा. श्री नित्योदयसागरसूरि. पालीताणा में पूज्यश्री के साथ श्री प्रद्युम्नविमलसूरीश्वरजी म.सा. एवं मुनि मण्डल Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनौरवा मिलन हुआ, संघ और नेता का आशीर्वचन पाया, सब में गुरुवर का... सघनेता और राजनेता कारखा मिलन भा.ज.पा. के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री लालकृष्ण आडवाणी को आशीर्वाद प्रदान करते हुए पू. आचार्यश्री । गौ हत्या पर रोक के लिए प.पू. आचार्यश्री श्री आडवाणी को प्रेरणा देते हुए Jain Education memorial For Prate Pational Untu winneaay.org Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प.पू. आचार्यश्री के चरणों में मेरा भावभरा वंदन... मुख पर सदैव आशीर्वाद बनाए रखना -आडवाणी । प.पू. आचार्यश्नी के सान्निध्य में पू. मुनिराज श्री चन्द्रयशविजयजी म. श्री आडवाणी को रक्षा सूत्र बांधते हुए 5 For Private www.janorang Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं धन्य हो गया आपके दर्शन पाकर ऐसी सरल विभूति पहलीबार देखी -प्रवीण तोगड़िया (राष्ट्रीय महामंत्री वि.हि.प.) प.पू. आचार्यश्री से चर्चा करते हुए म.प्र. के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री बाबूलाल गौर, मंत्री श्री कैलास चावडा, श्री हिम्मत कोठारी एवं श्री कप्तानसिंह सोलंकी भा.ज.प. संगठन मंत्री Education International For Private & Personal Us मैं भी आपके साथ चलकर पुण्य प्राप्त करूं - म.प्र. के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री बाबूलाल गौर Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ.पू.उप. प्रधान मंत्री श्री देवीलाल पू. श्री से मांगलिक श्रवण करते हए (१९९५) मोहनखेड़ा कन्नड़ फिल्म अभिनेता श्रीनाथ पू. आचार्य से शुभाशीर्वाद ग्रहण करते हुए (२०००) रानीबेन्नूर कर्नाटक केन्द्रीयमंत्री श्री अनन्तकुमार पू. आचार्य से शुभाशीर्वाद प्राप्त करते हुए (२०००) रानीबेन्नूर कर्नाटक म.प्र. के मुख्यमंत्री श्री दिग्विजयसिंह प.पू.आ.श्री से चर्चा करते हुए साथ में है मु. प्रीतेशचंद्र वि.जी. (१९९९) मोहनखेड़ा उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री श्री जगदम्बिकापाल आशीर्वाद प्राप्त करते हुए पू. आचार्य श्री चिमनभाई पटेल (मुख्य मंत्री गुज.) को आशीर्वाद देते हुए Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुन्दरमलजी पटवा (भूतपूर्व केन्द्रीयमंत्री) पू.आ.से विचारविमर्श करते हुए (१९९०) मोहनखेड़ा म.प्र.की उपमुख्य मंत्री श्री जमुनादेवी पू. आचार्यश्री एवं मुनि श्री ऋषभचन्द्रविजयजी से चर्चा करते हुए (१९९९) मोहनखेड़ा पू.आचार्य से आशीर्वाद प्राप्त करते हुए गुजरात राज्य के पूर्व सिंचाई मंत्री श्री भाईलाल भाई (१९९५) पालीताणा पू.आ.श्री से आशीर्वाद प्राप्त करते रतलाम ग्रामिण क्षेत्रीय विधायक श्री मोतीलाल दवे (१९९७) रतलाम पू.श्री से आशीर्वाद लेते श्री लक्ष्मीणनारायणजी पांडे (१९९३) मोहनखेड़ा केन्द्रीय मंत्री श्री विक्रम वर्मा पू.श्री से आशीर्वाद प्राप्त करते हुए (१९९८) मोहनखेड़ा M O HAMALAMIC Shalulaiary.org Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किर टोसते । फरवरी ee भगवान श्री महावीरस्वामी जन्म जयन्ती के अवसर पर मुख्यमंत्री श्री दिनविजयसिंहजी (म.प्र.शासन) मोहनखेड़ा तीर्थ पर auranववालिया सरिजेतवारवाही वहारजि.जावरा शिक्षा मंत्री श्री महेन्द्र सिंहजी कालूखेडा (म.प्र. शासन) (१९९७) जावरा TD-STOPPERIF २०फरवरी ee Cी क्तिमताहिर श्री राजेन्द्रसुरिजैन दादावा पू.आ.श्री के नगरप्रवेश पर पू. गृहमंत्री श्री भरतसिंहजी (म.प्र.शासन) (१९९७) जावरा स्व(रजि,जावरा पू. मुख्यमंत्री श्री सुभाष यादव (१९९७) जावरा भगवान श्री ऋषभदेव की पुस्तक का विमोचन (१९९९) मोहनखेड़ा पू. मुख्यमंत्री श्री दिगविजयसिंहजी दीपावली दर्शन का विमोचन (१९९९) मोहनखेड़ा Jain d ari For PIVE Personal use only www.aimalibrary.org Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ प्रवचन कणिकाएं 1. जीवन श्रेष्ठ बनाने का उपाय जब तक हम स्वयं अच्छे नहीं होंगे, तब तक हमें सब कुछ खराब ही लगेगा। इसलिये आवश्यक है कि हम अपनी दृष्टि साफ सुथरी रखें । हर चीज में बुराई खोजने के बजाय अच्छाइयों की तलाश करें तभी हमारे आसपास का वातावरण ठीक होगा। जब तक हम आपस का वैर भाव एवं भेदभाव समाप्त नहीं करते, तब तक समाज या देश के विकास की कल्पना करना भी व्यर्थ है। आज हमने परस्पर भेद भाव की दिवारें इतनी ऊंची खड़ी कर रखी है कि जब हमें एक देश से दूसरे देश में जाना होता है तो उसके लिये पासपोर्ट और विजा की आवश्यकता होती है, उसके अभाव में हम जा ही नहीं सकते। ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य पर से मनुष्य का विश्वास समाप्त हो गया है। मनुष्य जाति अपने आपको समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ समझती है और वास्तव में वह श्रेष्ठ है भी किंतु वैर भाव एवं अविश्वास के वातावरण में क्या वह श्रेष्ठ हो सकता है? आप सभी जानते हैं कि आत्मा के रहने पर ही शरीर का अस्तित्व है। आत्मा श्रेष्ठ है, अजर अमर है । उसी प्रकार यदि मनुष्य अपनी श्रेष्ठता बनाये रखना चाहता है तो उसे धर्म का पालन करना होगा । धर्म का पालन करने से ही जीवन श्रेष्ठ बन सकता है । आज तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मनुष्य पशु-पक्षियों से भी गया बीता हो गया है । पशु-पक्षी आपस में सहयोग करते हैं किंतु विवेक सम्पन्न मनुष्य एक दूसरे की टांग खीचने से नहीं चूकता है, उसमें सद्भावना का अभाव है । यदि सब मनुष्य, हम सब एक हो जावें तो दुनिया की कोई शक्ति हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती । अस्तु श्रेष्ठ जीवन के लिए सद्भाव व एकता जो कि धर्म के ही अंग है, का पालन करना अनिवार्य है । धर्म को जीवन का अंग बनाने में ही श्रेष्ठता है, सबका कल्याण है । 2. परहित की सोचें हम जब भी कोई कार्य करें, पहले उसके विषय में अच्छी प्रकार सोच विचार कर लें । कार्य अच्छा है या बुरा? उसके करने से हानि है अथवा लाभ? कहीं अपने द्वारा किये जा रहे कार्य का दुष्प्रभाव दूसरों पर तो नहीं पड़ेगा? कारण कि एकाएक बिना विचारे जो कार्य किये जाते हैं वे हानि के कारण बन जाते हैं । इसलिये अच्छा यही है कि कार्य करने के पूर्व सभी दृष्टि से उस पर विचार कर लिया जावे । जो मूर्ख होते हैं वे पहले कार्य करते हैं और फिर उस पर विचार करते हैं । एक अच्छा लेखक वही होता है जो पहले अच्छी प्रकार सोच-विचार कर, चिंतन कर लिखता है । ऐसा लेखक उच्च कोटि का विचारक/लेखक होता है । जब हम अपने हित की बात करते हैं अथवा सोचते हैं तो उस समय परहित की बात पर भी विचार करना चाहिये, क्योंकि कहा गया है कि परहित सरिस धरम नहीं भाई । उसका लाभ यह होगा कि आपके हृदय में से राग-द्वेष, मोह, माया कम होती जायेगी, स्वार्थ भावना छूटेगी और परमार्थ की भावना का विकास होगा । आपके जीवन में सद्गुणों की बहार आने लग जायेगी। 3. धर्म के स्थायित्व के लिये आज मनुष्य के जीवन में धर्म की अत्यन्त आवश्यकता है । मनुष्य भौतिकता की चकाचौंध में धर्म से दूर होता जा रहा है । धर्म स्थायी तभी तक रह सकता है, जब तक गृहस्थ और साधु का सम्बन्ध है । यदि इन दोनों का सम्बन्ध विच्छेद हो जाय, समाप्त हो जाय तो समाज में अधर्म का बोलबोला हो जायगा । अतः धर्म के स्थायित्व के लिये साधु-संतों को आश्रय देना चाहिये । आप जानते हैं कि सूर्य केवल दिन में ही प्रकाश दे सकता है और चन्द्रमा केवल रात्रि में प्रकाश दे सकता है । इसके विपरीत साधु-संत अपना ज्ञान रूपी प्रकाश दिन और रात्रि दोनों में ही देते हैं । यही कारण है कि आज देश को साधु-संतों की अत्यन्त आवश्यकता है जो देश-समाज को सही मार्ग दर्शन दे सके । हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 1 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति For Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 4. धर्म सबका है । हमारे देश में दो परम्पराएं चली आ रही है । एक मुनि परम्परा और दूसरी ऋषि परम्परा । ये दोनों परम्पराएं गंगा और सिंधु के समान है। ये दोनों परम्पराएं मोक्ष रूपी समुद्र में मिल जाती है। जिस प्रकार लाठी मनुष्य को गिरने से बचाती है, उसी प्रकार समाज को बचाने के लिये साधु परम्परा है। आत्म धर्म और लोक धर्म ये धर्म रूपी गाड़ी के दो पहियें हैं । यदि इनमें से किसी भी एक को अलग कर दिया जाय तो वह धर्म रह नहीं सकता है। जब तक आप मुक्त नहीं होते तब तक आत्म धर्म और लोक धर्म चलते रहेंगे । धर्म किसी जाति, वर्ग अथवा सम्प्रदाय विशेष का नहीं होता है । सच्चा धर्म तो वही है जो प्रत्येक आत्मा का कल्याण करें । धर्म को किसी परिधि में कैद करके नहीं रखा जा सकता, धर्म पर सबका समान रूप से अधिकार है, धर्म सबका है और सब धर्म के है । आप यह भी जानते हैं कि देशकाल के अनुसार मनुष्य का खान-पान, रहन-सहन, कानून कायदे आदि परिवर्तित होते रहते हैं किंतु वस्तु का स्वभाव नहीं बदलता है और धर्म भी नहीं बदलता है । 5. क्लेश का कारण 77 जीव की जब तक विषयों में आसक्ति है, तब तक उस जीव का धर्म में प्रवेश सम्भव नहीं है। जिस प्रकार काले रंग के कपड़े पर दूसरा कोई रंग नहीं चढ़ता उसी प्रकार रागादि भावों के रहते मुक्ति का मार्ग मिलना सम्भव नहीं है । हमारे शासन में (जैन धर्म में) अल्पज्ञानी अथवा बहुज्ञानी का महत्व नहीं है । महत्व तो उस बात का है। कि जीव ने संसार के प्रति आसक्ति भाव का कितना त्याग किया? यदि अल्प ज्ञानी व्यक्ति निर्मोही है तो वह मोक्षमार्गी हो सकता है । वैदिक धर्म ग्रन्थों में भी बताया गया है कि जब तक जीव को घर-जमीन-जायदाद, परिवार आदि के प्रति मोह है, राग है तब तक वह जीव मोक्ष नहीं पा सकता। पदार्थ के प्रति राग की भावना ही क्लेश का कारण है । जिस दिन राग-भावना समाप्त हो जायेगी, क्लेश स्वतः समाप्त हो जायेगा । रावण की मृत्यु का कारण सीता के प्रति आसक्ति का होना है, सीता का अपहरण स्वर्णमृग के प्रति उसकी आसक्ति का होना है । इसलिये रागी नहीं वीतरागी बनें, अथवा बनने का प्रयास करें। प्रयास या अभ्यास करेंगे तभी तो आसक्ति समाप्त होगी । आसक्ति समाप्त होगी तो दुःखों से छुटकारा मिलेगा । अतः वीतराग वाणी का अनुसरण करें और इस संसार रूपी कैद से मुक्त होने का मार्ग प्रशस्त करें । 6. श्रद्धा का पात्र बनने का उपाय आपको बड़ा अजीब लगेगा जब यह कहा जाय कि स्वाध्याय करना, ग्रंथ पढ़ना भी बंध का कारण है, मुक्ति का नहीं । ग्रंथ पढ़ने के आदी मत बनो । कारण मनुष्य जिस बात का, पदार्थ का आदी होता है उसके विकल्प उसे सताते रहते हैं। 77 77 17 शास्त्र भी एक प्रकार के शस्त्र के समान है । जब व्यक्ति अधिक प्रकार के शास्त्रों का अध्ययन कर लेता है तो फिर वह विवाद करता है और विवाद प्रपंच में फंसाने वाला है, इस हेतु से शास्त्र भी प्रपंच में फंसाने वाले हुए । यही कारण है कि जैन साधुओं को निग्रन्थी कहा है । वे ग्रन्थों के परे हैं । ग्रन्थों का त्याग किये बिना निर्विकल्प दशा नहीं आ सकती। आप यदि भगवान् अरिहंत के उपासक हैं तो वैभव को छोड़कर निर्लेप बने रहें । मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने कुर्सी का मोह त्याग दिया क्योंकि वे वीतरागी थे । उस कारण वे सब की श्रद्धा के पात्र बन गये । यदि आप सब की श्रद्धा के पात्र बनना चाहते हैं तो वीतरागी बनें । वीतरागी बने बिना आप किसी की श्रद्धा के पात्र नहीं बन सकते । 7. सच्चा ध्यान मन, वचन और काया की एकाग्रता के अभाव में ध्यान सम्भव नहीं है। आंखें बन्द कर बैठ गए और मन में तरह तरह के विचार उत्पन्न हो रहे हों, विकल्प उठ रहे हों तो उसे ध्यान नहीं कहा जा सकता । सुई में धागा पिरोने के लिये एकाग्र होना पड़ता है शरीर को स्थिर करना पड़ता है, तभी धागा पिरोया जाता है। यदि बातचीत हमे ज्योति ज्योति 2 होमेन्द्र ज्योति के हेमेजर ज्योति ry.org Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ करते रहे, हिलते-डुलते रहे तो सुई में धागा नहीं पिरोया जा सकता । एकाग्र होने पर ही यह सम्भव है । ठीक यही बात ध्यान के सम्बन्ध में कही जा सकती है । ध्यान करते समय आलम्बन की भी आवश्यकता होती है क्योंकि आलम्बन के बिना ध्यान-धर्म ध्यान सम्भव नहीं होता । जिस प्रकार मनुष्य को एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने के लिए वाहन का आलम्बन लिया जाता है, ठीक उसी प्रकार धर्म-ध्यान के लिये भी आलम्बन अनिवार्य होता है। ध्यान के सम्बन्ध में दूसरी बात यह कि जब तक पांचों इन्द्रियों से विरक्ति नहीं होती तब तक भी ध्यान सम्भव नहीं है, जो विरक्त है उसके लिये ध्यान सम्भव है । जब तक एक इन्द्रियजन्य विकल्प भी विद्यमान है, तब तक धर्म ध्यान सम्भव नहीं है । धर्म ध्यान करते समय हमें आत्मा का चिंतन करना चाहिये । इन बातों का ध्यान रखने पर ही सच्चा ध्यान - धर्म ध्यान संभव है । 8. संयम की आवश्यकता मनुष्य को सदैव शुभ चिंतन करना चाहिये और अशुभ चिंतन का त्याग करना चाहिये । प्रतिदिन चिंतन के लिये कुछ समय अवश्य निकालना चाहिये । आजकल प्रायः लोग समयाभाव का बहाना बहुत बनाते हैं । वे अक्सर कहते हैं कि क्या करें - समय ही नहीं मिल पाता है, काम का बोझ बहुत हैं । ऐसे में चिंतन के लिये समय कहां से लावें? आपसे अथवा ऐसे लोगों से पूछा जा सकता है कि खाने-पीने के लिये, मनोरंजन आदि के लिये आपके पास समय है। अपना व्यापार व्यवसाय करने के लिये समय हैं किंतु आत्म-ध्यान करने के लिये समयाभाव है । समय बहुत कीमती है । जो समय निकल गया, वह वापस नहीं मिल सकता । जो समय आपके पास है, वही आपका है । उस हर क्षण का आपको सदुपयोग करना है । अतः समय तो आपको निकालना होगा - ध्यान के लिये - चिंतन के लिये । ध्यान के लिये कायोत्सर्ग पहली शर्त है । यह बात स्वीकार की जा सकती है कि कायोत्सर्ग करना कठिन कार्य है किंतु निरन्तर अभ्यास से सम्भव हो सकता है । जब एक कोमल रस्सी के निरन्तर सम्पर्क से पत्थर घिस सकता है तो क्या मनुष्य अभ्यास द्वारा कायोत्सर्ग नहीं कर सकता? अवश्य कर सकता है । उसके लिये अभ्यास, दृढ़ मनोबल और संयम की आवश्यकता है । मनुष्य के जीवन में संयम की आवश्यकता ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार एक गाड़ी के लिये ब्रेक आवश्यक है । मनुष्य के जीवन में संयम के आ जाने से कठिन से कठिन कार्य भी सरलता पूर्वक सम्पन्न हो जाते हैं । 9. युवा वर्ग और धर्म संसार में दो प्रकार के मार्ग बताये गये हैं । एक है प्रवृत्ति मार्ग और दूसरा है निवृत्ति मार्ग । पहला प्रवृत्ति मार्ग संसार का कारण है । उसका लक्ष्य संसार में फंसते चला जाना है । उसके विपरीत निवृत्ति मार्ग संसार से निवृत्त कराता है । जैन धर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है । आत्म विशुद्धि के लिये निवृत्ति मार्ग अपनाना पड़ता है । यही मार्ग सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय की प्राप्ति करवाने वाला है | निवृत्ति मार्ग शाश्वत है। संसार में अनेक प्रकार के प्रपंच है उन प्रपंचों के मध्य धर्म सम्भव नहीं है । आप संसार में रहिये पर निर्लिप्त रहें और अपना ध्येय संसार से हटाने का प्रयास करते रहिये । ऐसा करने से आप निवृत्ति की ओर अग्रसर होते जायेंगे । जीवन में जब तक धर्म है तब तक शांति है यदि धर्म नहीं है तो आपके पास सभी प्रकार का वैभव होने पर भी शांति नहीं मिलेगी । एक बार आचरण अपवित्र हो गया तो फिर सुधारना सरल नहीं है । व्यसनों में फंस गये तो सुधार सम्भव नहीं है । आज प्रायः यह कहा जा रहा है कि आज का युवक धर्म को नहीं मानता । यह सत्य नहीं है । वास्तव में युवक धर्म को मानते हैं । अपने जीवन में उतारने का प्रयास भी करते हैं किंतु हमने उनके सामने धर्म का सही स्वरूप नहीं रखा है | आज का युवक अंध श्रद्धा नहीं रखता । वह व्यावहारिकता की कसौटी पर कस कर प्रत्येक वस्तु को अपनाता है । यही बात धर्म के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। आज का युवक आडम्बर पसंद नहीं करता । सही बात तो यह है कि जब हमने अपना आचरण ही अपवित्र बना लिया है तो युवकों को पवित्र आचरण की शिक्षा किस मुंह से दें? यदि आज के युवकों के हृदय में धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं होती तो आज जितने युवक सेवा धर्म करते दिखाई दे रहे हैं, वे दिखाई नहीं देते । अस्तु कहा जा सकता है कि आज का युवक धर्म के प्रति अधिक श्रद्धावान है । हेमेन्य ज्योति हेमेन्द ज्योति 3 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्ट ज्योति Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 10. राग-द्वेष का त्याग करें मोह के दो पुत्र हैं एक राग और दूसरा द्वेष । जब मनुष्य मोह के वशीभूत हो जाता है तो वह उसके दो पुत्रों के भी वश में हो जाता है । मनुष्य राग वश और द्वेष वश जो भी करता है उसमें वह औचित्य अनौचित्य का ध्यान नहीं रखता, अपने द्वारा किये जा रहे, समस्त कार्यों को वह उचित ही ठहराता है । इस प्रकार वह राग-द्वेष के द्वार कर्म बंध करता चला जाता है । किसी के प्रति राग अथवा द्वेष के कारण मनुष्य के सद्गुणों का भी विनाश हो जाता है । राग-द्वेष धारक व्यक्ति का आचरण भी निन्दनीय हो जाता है । समाज में उसकी प्रतिष्ठा भी समाप्त हो जाती है । अतः यदि समाज में प्रतिष्ठा चाहते हैं, मानव सम्मान चाहते हो तो समता धारणकर राग-द्वेष का त्याग करो। 11. आकुल मत बनो सूत्रकारों ने आत्मा के दो प्रकार बताये हैं । एक संसारी आत्मा और दूसरी मुक्तात्मा । जिस प्रकार किसी वस्तु को तैयार करने के लिये कच्चे माल की आवश्यकता होती है तभी वस्तु का निर्माण होता है । उसी प्रकार आत्मा को मुक्तात्मा बनाने के लिए संसारी आत्मा है । यही संसारी आत्मा आगे चलकर अपनी साधना के द्वारा मुक्तात्मा बनती है। आप सभी जानते हैं कि कोई भी व्यक्ति जन्म से साधु नहीं होता । जन्म तो गृहस्थावस्था में ही होता है फिर गृहस्थ से साधु बनता है । यदि गृहस्थों के आचार विचार शुद्ध होंगे तो साधु भी शुद्ध व्यक्ति ही बनेगा । शुद्ध आचार-विचार के लिये व्यक्ति को व्यसनों से बचना होगा, धर्म के नियमों का पालन करना होगा । धर्मपालन में व्रत उपवास भी हैं, ये हमें शक्ति प्रदान करते हैं । यदि धर्म का पालन नहीं करे तो व्यक्ति को हानि ही होगी । धर्म पालन भी अपनी सामर्थ्यानुसार करना चाहिये । अपनी समार्थ्य से अधिक पालन किया तो आकुलता होगी । निराकुल होकर धर्म का पालन करना चाहिये। आकुलता के आ जाने पर धर्म-अधर्म में अन्तर नहीं रह पायेगा । अतः धर्म का पालन करते समय आकुल व्याकुल नहीं बनना चाहिये । उसी में सबका हित है । 12. माता _भारतीय धर्म दर्शन में नारी को जितना सम्मान दिया गया है, उतना सम्मान अन्य धर्म दर्शनों में नहीं दिया गया है। हमारे यहां तो दीक्षा, जिनवाणी मुक्ति, लक्ष्मी जैसे नाम नारी वाचक है । उसी से नारी के प्रति हमारी सम्मान भावना विदित हो जाती है । फिर तीर्थकर भगवान हो या अन्य, उनकी जन्मदात्री तो नारी ही होती है । मनुष्य ही नहीं देवताओं के द्वारा भी विविध प्रकार से नारी का गुणगान किया गया है । नारी का दूसरा नाम माता है । जो घर में रहती है और अपनी संतान को संस्कारित करती है, विश्व की पहचान देती है | पिता तो घर के बाहर रहकर अपने व्यापार-व्यवसाय में व्यस्त रहता है, उसे अपनी संतान की ओर ध्यान देने का समय ही नहीं मिल पाता है । वह तो माता ही है जो अपने बच्चों को धर्म का बोध कराती है, बच्चों को मन्दिर ले जाकर मंदिर में प्रवेश करने की विधि, दर्शन-विधि, पूजन-विधि आदि सिखाती है। नवकार मंत्र भी माता ही अपने बच्चों को सिखाती है । माता ही बच्चों को घर-परिवार के बड़े-बूढ़ों का आदर सम्मान करना सिखाती हैं । वही बच्चों को सबके साथ उनके सम्बन्ध और सम्बोधन सिखाती है । माता द्वारा जो संस्कार बाल्यकाल में बच्चों में डाले जाते हैं, उनके द्वारा ही बच्चा भविष्य में महापुरुष बनता है । यदि माता बच्चों में संस्कार नहीं डाले और कुसंस्कारों को प्रोत्साहित करे तो वही बालक आगे चलकर, बड़ा होने पर चोर या डाकू बन जाता है । शराबी, जुआरी बन सकता है । कोई भी माता अपने पुत्र को चोर-डाकू, अथवा जुआरी शराबी बनाना नहीं चाहती । माता द्वारा डाले गये संस्कारों के कारण ही देश में आदर्श गर्मपालक नागरिक होते हैं । वर्तमान काल में युवकों में शराब पीने की प्रवृत्ति बढ़ रही हैं । इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है अन्यथा विनाश हो जायेगा । माताओं को चाहिये कि वे सावधान हो जाय और उस ओर अपना ध्यान केन्द्रित करें । कारण कि माता ही अपने बच्चों को सत्यमार्ग का अनुसरण करने के लिये प्रेरित कर सकती है। हेमेन्या ज्योति हेमोन्य ज्योति4हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Pra d ipolice Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 13. क्रोध का त्याग करें क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं । कषाय आत्मा के गुणों का घात करते हैं । क्रोध की स्थिति में बुद्धिमान व्यक्ति भी अपना विवेक खोकर विवेक शून्य हो जाता है और उस स्थिति में कुछ ऐसे कार्य कर बैठता है जिसकी वह स्वयं भी कल्पना नहीं करता अथवा बाद में उसे उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है । क्रोध की समाप्ति के पश्चात् जब वह कृत कार्यों पर चिंतन करता है तो उसे पश्चाताप होता हैं, किंतु वह कर कुछ नहीं सकता । यही कारण है कि विद्वानों ने क्रोध को अर्ध पागलपन की संज्ञा दी है । क्रोध क्यों उत्पन्न होता है? उसका उत्तर यह है कि जब व्यक्ति की इच्छा के अनुकूल काम नहीं होता है, बात नहीं बनती है, आज्ञा का पालन नहीं होता है तब क्रोध उत्पन्न होता है । स्थानांग सूत्र के अनुसार क्रोध नरक गति की ओर ले जाने वाला है । क्रोधान्ध व्यक्ति सत्य, शील और विनय का विनाश कर डालता है । क्रोध मन के दीपक को बुझा देता है । क्रोध मनुष्य की आयु को कम करता है । मनुष्य को मानसिक पीड़ा पहुंचाता है । क्रोध मनुष्य के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालता है। क्रोध मनुष्य के सौन्दर्य को नष्ट करता है । सौम्यता को नष्ट करता है, मनुष्य के चेहरे को विकृत करता है । क्रोध से मन मलिन होता है और पाचन शक्ति मन्द पड़ जाती है । क्रोध से वैर का बंध होता है । उनके अतिरिक्त भी क्रोध के अनेक दुष्परिणाम है । क्रोध के दुष्परिणाम को देखते हुए मनुष्य को क्रोध से बचना चाहिये । क्रोध का सदा सदा के लिये त्याग कर देना चाहिये । क्रोध के त्याग से जीवन में सद्गुण आते हैं । 14. मायाचार पतन का मार्ग नारकीय जीवों में क्रोध अधिक होता है । तिर्यंचों में मायाचार होता है, मान मनुष्यों में अधिक होता है । आचार्यों के अनुसार क्रोध को जीतने के लिये क्षमा को उत्तम माना है । मान को जीतने के लिये मार्दव और मायाचार को जीतने के लिये उत्तम आर्जव धर्म पालन करने का मार्ग बताया है । क्रोध मान, माया और लोभ इन चारों कषायों का त्याग करने के लिये मनुष्य को किसी प्रकार के व्रत-उपवास की आवश्यकता नहीं होती है । इन चारों को श्री कृष्ण ने पर-धर्म बताया है और कहा है कि मनुष्य तू पर-धर्म को छोड़कर स्वधर्म पर मिट जा । जो व्यक्ति मन, वचन और कर्म से एक समान होगा वही श्रेष्ठ है । यदि साधु भी है और मन, वचन और क्रिया से अलग है तो वह मायाचारी है । पापात्मा है । मायाचारी जीव तिर्यच होता है । यदि तिर्यंच बनने से बचना है तो उत्तम आर्जव धर्म का पालन करो । मायाचार मनुष्य को पतन की ओर ले जाता है । व्यसन मायाचार के लक्षण है । एक ओर मायाचारी करें और दूसरी ओर मंदिर में जाकर उत्तम आर्जव धर्म का पालन करें,यह नहीं चल सकता । मायाचार तो पतन का मार्ग है । उसका त्याग करना ही उत्तम है । 15. माता-पिता की सेवा आचार्य हेमचन्द्र ने सद् गृहस्थ के पालनीय धर्मों का विवेचन करते हुए लिखा है- माता-पितोश्चपूजक । इसके स्पष्टीकरण में कहा जा सकता है कि सद्गृहस्थ अपने माता-पिता की भक्ति और सेवा करता है । उनका आदर-सत्कार करता है । माता-पिता की इच्छाओं का ध्यान रखकर उनकी आज्ञा का पालन करने वाला होता है । मनुष्य के जीवन में आज जो संस्कार, जो शिक्षा और बौद्धिक विकास के पुष्प खिले हुए हैं । उनको विकसित करने वाली माता है । इस कारण माता को सबसे बड़ा शिक्षक माना गया है । माता-पिता की सेवा भक्ति के अनेक उदाहरण हमारे धर्म ग्रंथों में उपलब्ध होते हैं । माता-पिता को तीर्थ रूप बताया गया है । जो अपने माता-पिता की सेवा पूर्ण श्रद्धा भक्ति के साथ करता है, उसे तीर्थ यात्रा का लाभ/पुण्य मिलता है । सद्गृहस्थ चाहे सामान्य हो, विशिष्ट महापुरुष हो अथवा तीर्थकर हो, माता-पिता की भक्ति उसकी नसनस में, रोम-रोम में बसी रही है । माता-पिता का आदर, सेवा और उनके प्रति सदा कृतज्ञ रहना – यह उनके जीवन आदर्शों का मुख्य स्रोत रहा है । अस्तु माता-पिता की सेवा–आदर सत्कार को अपने जीवन का लक्ष्य रखना चाहिये । वर्तमान काल में यह देखने में आ रहा है कि आज का युवक पुत्र अपने माता-पिता की सेवा करने में हिचकिचाता है, यह उचित नहीं है । अपनी इस प्रवृत्ति को त्यागना होगा । जिन्होंने आपके जीवन को संवारा आपको जीवन जीने की कला सिखाई उनके प्रति सेवा व्यवहार कृतज्ञता है । उनके उपकार को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। हेगेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 5 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति ind a n international Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 16. जीवन की क्षणभंगुरता मानव भव मिलना दुर्लभ है । मानव भव में जन्म लेने के लिये देवता भी तरसते रहते हैं । इसका कारण यह है कि यही वह भव है जिसमें साधना करके आत्मा को परमात्मा बनाकर मुक्ति रमणी का वरण किया जा सकता है किंतु दुःख है कि आज मानव अपने इस जीवन का महत्व नहीं समझ रहा है और अपने इस जीवन को भौतिकता की चकाचौंध में विनाश की ओर ले जा रहा है । वह यह नहीं समझ रहा है कि उसके हाथ मानवजीवन रूपी चिंतामणि रत्न प्राप्त हुआ है । इस चिंतामणि रत्न का समय रहते सदुपयोग कर लेना चाहिये । क्षण क्षण को वह कोढ़ियों के मोल नष्ट कर रहा है जो अनमोल है । समय अनमोल है । क्षण भर के लिये भी प्रमाद नहीं करना चाहिए । धर्म आराधना करके उसका उपयोग करना चाहिये। कोई नहीं जानता है कि कब काल का पंजा उसे जकड़कर समाप्त कर देगा । यह जीवन क्षणभंगुर है | किसी भी क्षण यह समाप्त हो सकता है । इसलिये आवश्यकता इस बात की है कि जो समय मिला है उसका उपयोग सद्कार्यो में किया जाय । स्मरण रहे जो समय व्यतीत हो गया है, वह फिर लौटकर वापस आने वाला नहीं है । इसलिये सावधान हो जाओ, चेत जाओ और जो अमूल्य जीवन मिला है उसका सदुपयोग करो । धर्माराधना के द्वारा, तपश्चर्या के द्वारा, सेवा और त्याग के द्वारा कर्म निर्जरा करने की ओर अग्रसर हो जाओ । जीवन की क्षणभंगुरता को जानो / पहचानो और उसके अनुरूप अपने आपको ढालो । इसी में आपका हित है, कल्याण है । 17. मन को पवित्र रखें धर्म और तत्वज्ञान तथा उसका चिंतन और प्रतिपादन उत्तरोत्तर कठिन है । धर्म के दस अंगों में से शौच अभंग, अखण्ड है । सत्य को प्रकट करने के लिये अंतरंग की मलिनता को निकालना आवश्यक है । कायिक शौच मात्र नहीं है । चर्म धुलने से कर्म नहीं धुलते हैं । बहिरंग से तो सारी दुनिया साफ सुथरी बन सकती है किंतु अंतरंग का स्वच्छ निर्मल होना जरूरी है । पानी से अंतरंग की शुद्धि नहीं हो सकती है । जो भव्यात्मा के जन्म-जरा रहित होने के लिये वीतराग परमात्मा द्वारा बताये गये मार्ग से शुद्धि करता है, वह श्रेष्ठ है । यदि परमाणु प्रमाण कषाय भी मन में हो तो वह जीव को सम्यग दृष्टि नहीं होने देता । अतः उत्तम शौचधर्म के पालन में थोड़ी सी भी कमी नहीं होनी चाहिये । ज्ञान को विनयपूर्वक जानना, उसको आत्मसात करना पड़ेगा, वही उपयोगी है । तभी मन की शुद्धि होगी । जब मन ऊंचा होगा । मन पवित्र होगा । जिसका मन अपवित्र होगा, उसका जीवन नीचे की ओर उतरता जायेगा । समस्त दोषों का, बुराइयों का भण्डार मन ही है । अंतरंग बहिरंग से, सबसे जो उत्तम है, वही साधु उत्तम है । कोल्हू के बैल के समान जो एक स्थान पर बंधे हुए हैं, उन्हें महान नहीं कहा जा सकता । अस्तु ऊंचा उठना चाहते हैं तो मन को पवित्र रखें । 18. वैभव से आत्म कल्याण नहीं मनुष्य को चाहिये कि वह अपनी सामर्थ्यानुसार त्याग करें । त्याग से अवगुण समूह परास्त होता है और निर्मल कीर्ति की प्राप्ति होती है | त्याग-धर्म सर्वश्रेष्ठ है । मनुष्य को वैभव के प्रति आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। वैभव आत्म कल्याण का कारण नहीं है । वैभव से आत्म कल्याण सम्भव भी नहीं है । वैभव से तो आत्मा और मलिन होता है । दान धर्म का परामर्शदाता है । दान चार प्रकार का बताया गया है । अभयदान, ज्ञानदान, औषधदान और आहारदान। उनमें ज्ञान दान श्रेष्ठ है जिसका प्रभाव इस भव से उस भव तक चलता है । ज्ञान को दान का मार्ग बतलाया है । त्याग का अत्यधिक महत्व है । ऐसा कहा गया कि जो जोड़ते गये वे डूबते गये और जो छोडते गये वे तिरते गये | त्याग धर्म से ही हमारी संस्कृति की रक्षा हो सकती है । इसलिये वैभव के बीच रहते हुए त्याग करना सीखो । वैभव में लिप्त मत रहो । हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 6 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति Sunil Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 19. ईश्वर को दोष मत दो ईश्वर, परमात्मा, भगवान तो वीतराग हैं । वे किसी को भी सुख अथवा दुःख नहीं देते हैं । फिर भी कुछ लोग अज्ञानतावश दुःख के लिये ईश्वर को दोष देते हैं, जो गलत है । लोग यह भी कहते हैं कि जैन मतावलम्बी ईश्वर को नहीं मानते हैं । जैन धर्म में ईश्वर के सम्बन्ध में अलग और स्पष्ट धारणा है । जैनधर्म ईश्वर को सृष्टि का कर्त्ता नहीं मानता। बस उसी बात को लेकर कुछ लोग यह कहने लगे कि जैन धर्म में ईश्वर को नहीं माना जाता । प्रत्येक सम्प्रदाय या धर्म में ईश्वर के विषय में अलग अलग मान्यता है । अपनी अपनी मान्यता के अनुसार वे ईश्वर का अस्तित्व मानते हैं । मान्यता में भेद हो सकता है किंतु मूल सिद्धांतों में कोई अन्तर नहीं है । पानी शीतल होता है । अग्नि का गुण ऊष्णत्व है । इससे कोई इंकार नहीं कर सकता । इसी प्रकार ईश्वर को जो जिस रूप में देखें, उसे उसी रूप में दिखाई देता है । किंतु इतना निश्चित है कि आदमी को जो सुख और दुःख मिलते हैं, वे उसके अपने कर्मों के अनुसार ही मिलते हैं । जैसा कि गीता में भी कहा गया है कि जो जैसा कर्म करेंगा वैसा उसे फल मिलेगा । आप कर्म तो बुरे करो और अच्छे फल की आकांक्षा करो, यह कैसे सम्भव है । बबूल का पेड़ लगाने से आम खाने को नहीं मिल सकते । आम खाना हो तो आम का पेड़ ही लगाना होगा । अतः यह निश्चित है कि ईश्वर कभी किसी को सुख अथवा दुःख नहीं देता है । 20. सामर्थ्यानुसार तप करो तपश्चर्या से निर्जरा होती है, कर्मों का क्षय होता है । तप के अंतरंग और बहिरंग भेद हैं और इनके भी छ: छ: भेद हैं जो कुल बारह भेद हैं । स्वरूपाचरण चरित्र भी शास्त्रों में तभी माना है जब बारह तप और रत्नत्रय आदि के साथ चलेंगे। साथ ही तीन गुप्ति को जिन्होंने प्राप्त कर लिया है उससे ही कर्म क्षय होंगे । कर्मों का आश्रव जहाँ रूक जाए वहीं से स्वरूपाचरण का प्रारम्भ होगा । हमारे ऋषि मुनियों ने संयम के साथ चिंतन किया है । इसलिये उन्होंने प्रामाणिक ज्ञान दिया है । मनःपर्यय के साथ जानना ही श्रेष्ठ है । मन, वचन, काय से छानो, फिर जानो वही आपके काम आयेगा । विवेक के बिना तत्वज्ञान में प्रवेश नहीं कर सकते । जब बाजार में मिट्टी का एक घड़ा खरीदने जाते है तो उसे अच्छी प्रकार ठोक बजाकर लेते हैं । तब फिर ज्ञान लेते समय ठोक बजाकर क्यों नहीं लेते? तप-त्याग आदि शास्त्रों में अपनी अपनी शक्ति / सामर्थ्यानुसार बताये गये हैं । सभी व्यक्तियों की शक्ति समान नहीं है, सबकी शक्ति या सामर्थ्य में अंतर हैं । सभी उपवास नहीं कर सकते । इसलिये तप-उपवास आदि जो भी करना है आप अपनी सामर्थ्य के अनुसार करें । किसी से उस सम्बन्ध में प्रतियोगिता नहीं करें । किंतु स्मरण रहे तप अवश्य करें । जितना कर सकते हैं करे । उपवास नहीं कर सकते तो एकासना करें । उसी प्रकार मन्दिर अवश्य जावे | जितना समय आप मन्दिर में रहें उतने समय के लिये घर परिवार के मोह को नहीं रखें । अपने ध्यान में केवल प्रभु और मन्दिर ही रखना चाहिये । 21. मौन अधिक बोलने से शक्ति का हास होता है और मौन रहने से शक्ति का संग्रह होता है । मौन से समस्त अर्थों की सिद्धि भी हो जाती है । मौन उस अवस्था को कहते हैं जो वाक्य और विचार से परे शून्य ध्यानावस्था हो । मनुष्य मौन का महत्व नहीं समझता जबकि मानव जीवन में मौन का बहुत बड़ा महत्व है । मौन धारण करने से मस्तिष्क की शक्ति बढ़ती है और उस शक्ति को बल मिलता है । यही कारण है कि मौन के विषय में यह कहा जाता है कि मौन अनंत शक्तिधारक है । एक विचारक ने कहा है -“बोलना सोना है किन्तु मौन सुवर्णनिर्मित सुन्दर आभूषण है ।" ज्यादा बोलने से स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, स्वास्थ्य को हानि होती है, साथ ही जितने समय तक बोला जाता है, वह समय व्यर्थ चला जाता है । यदि कम बोलते हुए अधिक से अधिक मौन रहा जाय तो उससे मनुष्य की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है । व्यक्ति अपने समय का अधिक से अधिक सदुपयोग कर सकता है । महात्मा कबीरदासजी ने कहा है : हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 7 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Educational Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ वाद विवादे विषघना, बोले बहुत उपाध | मौन गहै सबकी सहै, सुमिरै नाम अगाध || इसका तात्पर्य यह है कि वाद-विवाद करने से मनुष्यों में परस्पर कलह उत्पन्न होता है, कटुता बढ़ती है तथा अनेक उपाधियां परेशान करती है । अगर सबकी बातों को सहन करता हुआ मनुष्य मौन रहे तो वह निश्चित प्रभु का नाम स्मरण कर सकता है । प्रकृति मौन रहती है । उसमें भांति भांति के चित्र उभरते रहते हैं । आप प्रकृति से प्रकृति की भाषा में बात कीजिये। आपको जितनी आनन्दानुभूति होगी, उसे आप शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर पायेंगे । कारण कि प्रकृति की भाषा मौन है । मौन से मौन रहकर ही बात की जा सकती है और जब आप प्रकृति से मौन रहकर बात करेंगे तो उसमें स्वयं ही खो जायेंगे, डूब जायेंगे । प्रकृति मौन रहकर भी सत्य का दिग्दर्शन करा देती है । यहां एक बात और यह कहनी है कि मौन का अर्थ केवल होंठों को सी लेना नहीं है, जबान को बंद कर लेना नहीं है । केवल वचन से मौन रहना मौन नहीं है । मनुष्य बोले नहीं और मन ही मन दूसरों का अहित चिंतन करता रहे, क्रोधावेग में निर्दोष प्राणियों का वध करता रहे तो ऐसे मौन का कोई महत्व नहीं है । उस मौन को मौन नहीं कहा जा सकता। इसी बात को ध्यान में रख कर मौन के चार प्रकार बताये गये हैं । यथा 1. मन, 2. वचन, 3. काय और 4. आत्मा का मौन। __ अतः प्रत्येक मनुष्य को कम से कम बोलना चाहिये और अधिक से अधिक मौन रहना चाहिये । मौन रखने के लिये अभ्यास की आवश्यकता होती है । अभ्यास द्वारा सब कुछ सम्भव होता है । अपनी शक्ति बढ़ाना हो, ऊर्जावान रखना हो तो मौन धारण करें । 22. मृत्यु जब किसी का जन्म होता है तो अपार प्रसन्नता की अनूभूति होती है । धूमधाम से जन्मोत्सव मनाया जाता है किंतु जब किसी की मृत्यु होती है तो परिवार में शोक की लहर छा जाती है । परिवार का प्रत्येक सदस्य आंसू बहाता हुआ दिखाई देता है । उतना ही नहीं अन्य रिश्तेदार तथा आस पड़ोस के व्यक्ति भी शोकमग्न हो जाते हैं । विचार कीजिये, क्या यह शोक उचित है । मृत्यु किसकी हुई? मरा तो शरीर है, आत्मा तो अजर अमर है । इस बात को भी छोड़ दें । तो भी यह बात तो प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु एक न एक दिन निश्चित ही होगी । जब मृत्यु निश्चित है तो फिर शोक अथवा दुःख क्यों? जितने दिन का साथ रहा, आनन्द रहा और जब विदाई का अवसर आया तो दुःख नहीं होना चाहिये । जाने वाले को उत्सव के साथ बिदा करना चाहिये । जिस प्रकार जन्मोत्सव मनाया उसी प्रकार मृत्यु-महोत्सव भी मनाना चाहिये । मृत्यु तो एक स्वाभाविक और साधारण क्रिया है । मृत्यु क्या है? उस प्रश्न का उत्तर गीता में इस प्रकार दिया गया है : वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गहणाति नरोऽपराणि | तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।। 2-221 इसका तात्पर्य यह है कि जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त करते हैं । जब ऐसे विचार ज्ञानी पुरुषों के मानस पटल पर तैरते हैं तो वे मृत्यु की भयानकता पर विजय प्राप्त कर लेते हैं और मृत्यु का अवसर आने पर अविचलित रहते हैं । उन्हें किसी भी प्रकार का भय अथवा दुःख नहीं होता है। वे ज्ञानी पुरुष ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप से सुसज्जित होकर मृत्यु का स्वागत-सामना करते हैं जो व्यक्ति इस प्रकार शांत रहकर स्थिर भाव से मृत्यु का आलिंगन करता है उसे पंडित मरण की संज्ञा दी गई है । पंडितमरण के विपरीत जो विवेकहीन होकर हाय हाय करते हुए, खेद, पश्चाताप, दुःख, शोक और विकलता से आर्त्तध्यान करते हुए मृत्यु को प्राप्त होते हैं, उसे बाल मरण कहते हैं जो अज्ञानी जीव होते हैं, वे बालमरण को प्राप्त होते हैं । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 8 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति CIDEducatantnternama Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ - - बाल मरण को अकाममरण या असमाधिमरण भी कहा गया है । बाल मरण के निम्नानुसार बारह प्रकार बताये गये हैं : 1. बलयमरण - भूख प्यास से तड़फते हुए मरण । 2. वशार्तमरण - पराधीनतापूर्वक मरना । 3. अन्तःशल्यमरण- शरीर में कोई तीखा शस्त्रादि घुस जाने से मर जाना । 4. तद्भवमरण - मरकर उसी भव में पुनः उत्पन्न होकर मरना । 5. गिरिपतन पहाड़ से नीचे गिरने से मृत्यु होना । 6. तरूपतन - पेड़ से गिरकर मरना । 7. जल प्रवेश पानी में डूबकर मरना । 8. ज्वलनप्रवेश अग्नि में जलकर मरना । 9. विष भक्षण - विष खाकर मरना । 10. शस्त्रावपाटन - शस्त्राघात से मरना । 11. वैवहानसमरण - फाँसी लगाकर मरना । 12. गिद्ध आंदि पक्षियों द्वारा पीठ आदि शरीराववयों का मांस खाये जाने से मरना । पंडित मरण दो प्रकार का है1. पादपोपगमन - वृक्ष की कटी हुई शाखा की भांति स्थिर होकर मरना । 2. भक्त-प्रत्याख्यान - यावज्जीवन तीन या चार आहारों का त्याग करके शरीर की सारसंभाल करते हुए प्राप्त होने वाला मरण । बालमरणों से मरता हुआ जीव अनन्त बार नरक भवों को प्राप्त करता हैं तथा नारक, तीर्यंच, मनुष्य और देव, इस अनादि अनन्त चातुर्गतिक संसार रूप वन में बार बार परिभ्रमण करता है । पण्डितमरणों से मरता हुआ जीवन नारकादि अनन्त भवों को प्राप्त नहीं करता । वह उस अनादि अनन्त चातुर्गतिक संसार रूपी अटवी को पार कर जाता है । पंडित मरणों से मरते हुए जीव का संसार घटता है । कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक मनुष्य को मृत्यु से घबराना नहीं चाहिये । उसे महोत्सव के रूप में स्वीकार करना चाहिये । दूसरी बात यह है कि अन्त समय में जैसी मति होती है, वैसी ही गति भी मिलती है - “अन्ते मतिः सा गतिः । अतः अन्तकाल आने पर स्थिर एवं निर्भय होकर मृत्यु का स्वागत करना चाहिये । उस समय ये विचार रहना चाहिये "मैं अजर हूँ, मैं अमर हूँ, मैं तेजस और ज्योतिष्मान हूँ।" तभी अंत में पण्डित मरण प्राप्त होगा । 23. विनय असम्भव को सम्भव बनाने वाला है विनय । विश्व में जितने भी धर्म है, वे सभी विनय की महत्ता को स्वीकार करते हैं । विनय को धर्म का आवश्यक अंग ही नहीं वरन्-धर्म का मूल भी कहते हैं । जैनधर्म में विनय को विराट स्वरूप प्रदान किया गया है । विनय को जैनधर्म में आचार विचार को भी विनय के अन्तर्गत बताया गया है । तात्पर्य यह कि विनय के अभाव में कोई आचार विचार टिक नहीं सकता । साधक के हृदय में भी जब तक विनय नहीं होता तब तक उसके हृदय में धर्म भी अपना स्थान नहीं बना पाता । विनय के विषय में जैन शास्त्र में कहा गया हैं - हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्य ज्योति हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Prina ntermedia Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मुक्खे । जेण कित्ति सुअं सिग्धं, नीसेसं चाभिगच्छइ || तात्पर्य यह है कि विनय धर्म का मूल है और मोक्ष उसका सर्वोत्तम फल है । विनय से कीर्ति बढ़ती है तथा प्रशस्त श्रुतज्ञान का लाभ होता है । एक पाश्चात्य विचारक ने विनय को ही ईश्वर प्राप्ति का एक मात्र साधन मानते हुए कहा है - "विनय ही एक ऐसा मार्ग है जो हमें ईश्वर तक पहुंचाता है । अन्य समस्त मार्ग चाहे वे दूसरे अनेक गुणों से युक्त हों, हमें पथभ्रष्ट कर देंगे।" सच्ची साधना और तप वहीं कहलाता है जो गर्वरहित होकर विनयपूर्वक किया जाए - विनयेन विना चीर्णमः अभिमानेन संयुतम | महच्चापि तपो व्यर्थम, इव्येतदवधार्यताम || तात्पर्य यह है कि यह समझ लेना चाहिए कि विनय के बिना और अभिमान के साथ किया हुआ महान तप भी व्यर्थ हो जाता है । जैन शास्त्रों में विनय के माहात्म्य को तथा उसके प्रभाव को विस्तार से वर्णित किया गया है । यहां इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि मनुष्य को अपने आचार विचार में विनय गुण को अपनाना चाहिये । विनय से प्रगति के सब द्वार स्वतः खुल जाते हैं । 24. वाणी एक कहावत है - "करे कौन और भरे कौन ।" जीभ का काम अभिव्यक्ति है । जीभ वाणी के रूप में विचारों को अभिव्यक्ति प्रदान करती है । यदि जीभ द्वारा उल्टी-सीधी बातें कह दी जाती है तो उसका परिणाम सिर को भुगतना पड़ता है । इसलिये कभी भी ऐसी वाणी नहीं बोलना चाहिये जिसका परिणाम दुःखद हो । सदैव मधुरवाणी का प्रयोग करना चाहिये। कहा भी है : ऐसी वाणी बोलिये मनका आपा खोय । औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय || कठिन से कठिन कार्य भी मधुर वाणी से सम्भव हो जाते हैं । मधुरवाणी वशीकरण मंत्र का काम करती है। कटु वचनों के द्वारा ईर्ष्या, द्वेष, वैर-विरोध तथा क्रोध उत्पन्न होता है । उसके विपरीत मधुरवाणी से सर्वत्र मैत्री भाव उत्पन्न होता है, अमृत-सी वर्षा होती है । मृदु-वाणी का चमत्कारिक प्रभाव होता है । इससे प्रेम, अपनत्व शांति और संतोष की प्राप्ति होती है । मनुष्य का सच्चा आभूषण वाणी है । मृदु-वाणी ही मनुष्य को सौन्दर्य प्रदान करने वाला सच्चा आभूषण है । वाणी में अद्भुत शक्ति होती है । अतः मनुष्यों को चाहिये कि ऐसी वाणी बोले जिससे सबको सुख मिले । मधुरवचनों से बोलने वाले का सम्मान बढ़ता है । कर्कश और कटु वचनों से आदमी का मान-सम्मान घटता है | कौआ और कोयल दोनों एक समान है किंतु कोयल अपनी मीठी वाणी के लिये सबको प्रिय है । आपको कोयल के समान बनना है | 25. दया क्रौंच पक्षी को बहेलिये का तीर लगा और वह आहत होकर तड़फने लगा । उसे देखकर वाल्मीकि का हृदय दयार्द्र हो गया और कविता के बोल फूट पड़े । किसी के दुःख को देखकर यदि आपके हृदय में उसके प्रति सहानुभूति उत्पन्न हो और आप उसके दुःख को दूर करने का प्रयास करते हैं तो यह दया है । महात्मा तुलसीदास ने दया को धर्म का मूल कहा है - हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 10 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति Homandu now.jainelion Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान | एक अन्य आचार्य ने कहा है – दयानदी महातीरे सर्वे धर्मो द्रुमायिताः | अर्थात् धर्मों के जितने वृक्ष हैं, वे सब दया रूपी नदी के किनारे पर टिके हुए हैं । दूसरे के दुःख को देखकर यदि किसी के हृदय में दया उत्पन्न नहीं होती है तो समझ लेना चाहिये कि उस व्यक्ति के पास इन्सान का दिल नहीं है । वह इन्सान के रूप में शैतान है । इसी बात को ध्यान में रखकर उर्दू के एक शायर ने लिखा है - वह आंख, आंख नहीं, वह दिल दिल नहीं, जिसे किसी की मुसीबत नजर आती नहीं | यदि किसी के मन में दया-करुणा नहीं है तो कोई भी धर्म, उसके, कोई भी सत्कर्म पनप नहीं सकता | दया के सम्बन्ध में इतना ही कहना है कि प्रत्येक मनुष्य के हृदय में दया का सागर लहराता रहना चाहिये । 26. विनय विनय को धर्म का मूल कहा गया है "विणय मूले धम्मे " जीवन रूपी भव्य महल का निर्माण विनय की नींव पर होता है । विनय को सब गुणों का अलंकार भी कहा गया है । विनय के सम्बन्ध में इसी बातको ध्यान में रखकर कहा गया है नभो भूषा पूषा कमलवनभूषा मधुकरो | वचो भूषा सतयं वरविभवभूषा वितरणम् || मनोभूषा मैत्री मधुसमयभूषा मनसिजः । सदो भूषा सूक्तिः सकलगुणभूषा च विनय || इसका तात्पर्य यह है कि आकाश की शोभा सूर्य है, कमलवन की शोभा भवंरों से है, वचन की शोभा सत्यवाणी से है, धन की शोभा दान से है, मन की शोभा मैत्री से है, बसन्त की शोभा कामदेव से है, सभा की शोभा वाक्चातुर्य से है किंतु समस्त गुणों की शोभा विनय से है । विनय इतना महत्वपूर्ण है तो हमारे लिये यह आवश्यक है कि उसका अर्थ - परिभाषा को भी समझें । प्रवचन सारोद्धार में विनय की परिभाषा इस प्रकार की गई है -"विनयति क्लेश कारकमष्ट प्रकारं कर्म इति विनयः "| जो क्लेशकारी आठ कर्मों को दूर करता है, वह विनय है । स्थानांग सूत्र की टीका में कुछ उस प्रकार कहा गया है - जम्हा विणयइ कम्मं अट्ठविह चाउरंत मोक्खाय | तम्हा उ वयंति विऊ विणयं ति विलीणसंसारा || इसका तात्पर्य यह है कि विनय आठ कर्मों को दूर करता है । उससे चार गति के अन्त रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है इसलिये सर्वज्ञ भगवान इसको विनय कहते हैं । व्रत, विद्या और वय में बड़ों के प्रति विनम्र आचरण करना विनय हैं : व्रत-विद्या वयोऽधिकेषु नीचैराचरणं विनयः । विनय के सम्बन्ध में गांधी जी ने भी कहा कि विनय का अर्थ है अहंभाव का आत्यन्तिक क्षय । दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि सदैव सद्गुणों के समक्ष विनम्र बने रहना चाहिये । आप सभी यह बात भलीभांति जानते हैं कि जो वृक्ष फलों के भार से लदे रहते हैं वे सदैव झुके रहते हैं । इस सम्बन्ध में नीतिकार का कहना है - नमन्ति फलिताः वृक्षाः नमन्ति बिबुधा नराः । शुष्कं काष्ठं च मूर्खश्च न नमन्ति त्रुटन्ति च ।। हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 11 ) हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द ज्योति SANJ www.lainelibrary org Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन गया इसका तात्पर्य यह है कि फलों के भार से लदे हुए वृक्ष नमते हैं, विद्वान मनुष्य नमते हैं । लेकिन सूखा काष्ठ और मूर्ख मनुष्य कभी नहीं नमते, पर टूट जाते हैं । विनय असम्भव कार्य को भी सम्भव बना देता है। विनयी व्यक्ति सब जगह आदर का एवं प्रशंसा का पात्र बनता है । आप सबको विनयी बनने का प्रयास करना चाहिये । क्योंकि लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर । अतः अपने जीवन में विनय गुण अपनाना चाहिये । 27. परोपकार परोपकार दो शब्दों से मिल कर बना है । पर + उपकार = परोपकार । जिसका अर्थ होता है दूसरों पर उपकार करना । दूसरे कौन? वे जो दीन-हीन असहाय-अभावग्रस्त हैं । उनके अभावों को दूर करना, उनकी सहायता करना परोपकार है | महाकवि तुलसीदास ने कहा है । परहित सरिस धरम नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहि अघभाई । परहित से बढ़कर कोई धर्म नहीं है और पर पीड़ा से बढ़कर कोई अधर्म या पाप नहीं है । उसी बात को महर्षि व्यास ने इस प्रकार कहा है - परोपकारः पुण्याय, पापाय परपडिनम् । अर्थात् दूसरों का उपकार करना पुण्य है और दूसरों को पीड़ा पहुंचाना पाप है। यदि हम प्रकृति की ओर देखें तो हमें प्रतीत होता है कि वहां चारों ओर परोपकार की फसल लहलहा रही है । देखिये नदियां स्वयं अपना पानी नहीं पीती, वृक्ष अपने फल नहीं खाते, खेत उगे हुए अन्न को नहीं खाते, मेघ सिंचाई करता है पर अन्न ग्रहण नहीं करता । ये सब परोपकार ही करते हैं । कवि भर्तृहरि ने परोपकार को करुणाशील पुरुषों के शरीर की शोभा परोपकार बताया है । सन्तों, सत्पुरुषों एवं महान विभूतियों का जीवन परोपकार के लिये होता है । इस बात को ध्यान में रखते हुए कहा गया है - परोपकाराय संता विभूतयः ।। यदि हम गहराई से देखें तो परोपकार एक प्रकार से अपना स्वयं का उपकार है । जो व्यक्ति परोपकार करता है वह अपने हृदय में चुभे हुए दुःख के कांटे को निकालता है । जो व्यक्ति अपना विकास करना चाहता है, उसे अन्य लोगों की भलाई का मार्ग अपनाना पड़ता है । परोपकार किसी पर अहसान नहीं है वरन् अपनी आत्मा के विकास के लिये है । परोपकार के अभाव में उदारता, विशालता आदि सद्गुणों का विकास नहीं होता है । सही पछा जाय तो मानव जीवन की सार्थकता ही परोपकार में है । जो व्यक्ति सज्जन होते हैं । वे परोपकार के लिये ही देह धारण करते हैं - सरवर, तरूवर, संतजन, चौथा बरसै मेह | परोपकार के कारणे, चारों धारी देह || जब आप किसी पर उपकार करें तो एक बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिये कि परोपकार करके कभी प्रतिफल की कामना / इच्छा नहीं करनी चाहिये । सबसे अच्छा तो यह है कि जो भी उपकार किया है, उसे भूल जाओ। परोपकार केवल धन से ही सम्भव नहीं है । आप सेवा द्वारा, बुद्धि द्वारा, वाणी द्वारा अथवा अन्य साधनों के द्वारा भी परोपकार कर सकते हैं । अतः परोपकार कीजिये और अपने मानव जीवन को सार्थक बनाइये । 28. वाणी विवेक आपने अपने जीवन में अनुभव किया होगा कि कुछ व्यक्ति कुछ इस प्रकार बोलते हैं, मानो उन्होंने आपके सिर पर पत्थर मार दिया है । ऐसे व्यक्ति से आप बात करना भी पसंद नहीं करेंगे । कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जो अपनी बात बहुत ही मधुर वचनों में कहते हैं आप चाहते हैं कि ऐसे व्यक्ति का सत्संग सदैव बना रहे । कुछ व्यक्ति कड़वी बात भी कुछ इस प्रकार कहते हैं कि वह बुरी अथवा अपमानजनक नहीं लगती । उसके विपरीत कुछ व्यक्ति हितकारी वचन भी कुछ इस प्रकार कहते हैं कि उससे सामने वाला अपना अपमान समझने लगता है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 12 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति ForpirawaarDEO nary. Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ अंधे को अंधा कहोगे तो बात सत्य होते हुए भी वह बुरा मान जायेगा । इसके विपरीत यदि आप उसे सूरदासजी कह देंगे तो वह बुरा नहीं मानेगा । मूर्ख को मूर्ख मत कहो । उससे कहो कि वह अपनी बुद्धि से बात समझने का प्रयास करे कहने का तात्पर्य यह है कि किसी से भी बोलते समय, बातचीत करते समय सदैव वाणी विवेक का ध्यान रखना चाहिये। यदि वाणी विवेक का ध्यान नहीं रखा तो जीव्हा तो बोलकर रह जावेगी किंतु बेचारे सिर को जूते खाने पड़ेंगे। I यह वाणी विवेक ही है जो बोलने वालेका मान अथवा अपमान करवाती है । वाणी हमारे व्यवहार का प्रमुख अंग है। वाणी के माध्यम से व्यक्ति के व्यवहार को सहज ही पहचाना जा सकता है । मधुर वाणी व्यक्ति को सर्वजन वल्लभ बनाने के साथ ही उसकी कुलीनता एवं शालीनता को व्यक्त करती है। दूसरी बात यह कि मधुर वचन बोलने वाले व्यक्ति का मन भी अत्यन्त कोमल होता है, दया और करुणा से ओतप्रोत होता है । उसकी वाणी ही नहीं दृष्टि और कार्यों में भी मधुरता रहती है । मीठे वचन शोक संतुष्ट व्यक्ति को भी धैर्य प्रदान करते है । रोगी व्यक्ति के लिये मीठे वचन औषधि का काम करते हैं। मीठे - मधुर वचनों के सम्बन्ध में कहा गया है। ऐसी बानी बोलिये मन का आपा खोय । औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होय || कौआ और कोयल दोनों लगभग एक समान होते हैं किंतु कौए की वाणी को कोई पसंद नहीं करता और कोयल को हर व्यक्ति सुनना चाहता है । कहा भी है - काणा किसका धन हरे, कोयल किसको देत । मीठे वचन सुनाय के, जग अपनो कर लेत || कहने का तात्पर्य यह है कि आप सदैव बोलते समय मधुर वचनों का प्रयोग करें। कभी भी कटु वचन नहीं बोले । कारण कि तलवार का घाव तो भर जाता है किन्तु शब्द का घाव जीवन भर सताता रहता है । अपनी वाणी का विवेक के साथ उपयोग करने में ही सार्थकता है। 29. सुख-दुख प्रत्येक मास में दो पक्ष होते हैं - एक शुक्ल पक्ष और दूसरा कृष्ण पक्ष । शुक्ल पक्ष उज्ज्वल होता है और कृष्ण पक्ष अंधकार से भरा हुआ होता है । उसी प्रकार मानव जीवन में भी दो पक्षों का अस्तित्व बना रहता है । एक पक्ष है सुख और दूसरा पक्ष है दुःख सुख मानव जीवन का उज्ज्वल पक्ष है तो दुःख मानव जीवन का अंधकरमय पक्ष है । मनुष्य ही नहीं संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है, दुःख कोई नहीं चाहता । इसलिये सुख सबको प्रिय लगता हैं और दुःख सबको प्रतिकूल लगता है । आचारांग सूत्र में कहा गया है - सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया दुक्ख पडिकूला । ucation इसका तात्पर्य यह है कि सभी प्राणी जीना चाहते हैं सुख सबको प्रिय है और दुःख सबको प्रतिकूल लगता है। सही बात तो यह है कि मानव मात्र का लक्ष्य सुख है। मनुष्य अपने जीवन में जो कुछ भी करता है, सुख की आकांक्षा से करता है। वह न केवल अपने सुख के लिये प्रयत्नशील बना रहता है, वरन् अपने परिवार के सदस्यों सुख के लिये भी वह दिन-रात एक करता रहता है। मनुष्य सुख के दूसरे पक्ष दुःख की तो कल्पना तक नहीं करता । वह तो सुख की स्थिति में इतना तल्लीन हो जाता है कि धर्माराधना करना तक भूल जाता है । के हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 13 हेमेल ज्योति ज्योति Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ इसके विपरीत मनुष्य अपने आपको और परिवार के किसी भी सदस्य को दुःखद स्थिति में देखना नहीं चाहता । मनुष्य कितना भी बड़ा क्यों न हों, कितना भी धनाढ्य क्यों न हो । उस पर दुःख के बादल मंडराते अवश्य है । यह बात अलग है कि उन पर आये दुःख का प्रकार क्या है? कैसा है? प्रायः ऐसा होता है कि मनुष्य दुःख की घड़ी आने पर घबरा जाता है । दुःख अथवा संकट आने पर धर्म के प्रति उसकी श्रद्धा-भक्ति बढ़ जाती है । वह देव दर्शन के लिये प्रतिदिन मंदिर में जाने लगता है । अपने गुरु भगवंतों की सेवा में पहुंचकर दुःख निवारण के उपाय पूछता है । मनुष्य को दुःख की स्थिति में घबराना नहीं चाहिये । अपनी बुद्धि और विवेक का उपयोग करते हुए आए हुए संकट के निवारण का उपाय करते रहना चाहिये । धैर्य धारण कर समय के व्यतीत होने की प्रतीक्षा करना चाहिये । इस दुःखद स्थिति में धर्म के प्रति श्रद्धा - भक्ति जागृत हुई । इससे श्रेष्ठ यह है कि हर स्थिति में धर्माराधना करते रहना चाहिये । धर्माराधना करने से दुःख या संकट भले ही टले नहीं किंतु उनके प्रभाव में कमी अवश्य आ जाती है । अतः मनुष्य मात्र को यह मानकर चलना चाहिये कि जीवन में सुख-दुःख का आना एक स्वाभाविक क्रिया है । ऐसे समय धैर्य धारण करे घबराये नहीं और धर्माराधना, सतत् करते रहें । सुख की स्थिति में इठलायें नहीं, अभिमान न करे, सबके साथ समानता का व्यवहार रखें । विनम्र बने रहें और नियमित धर्माराधना करते रहे । 30. परिग्रह से बचो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य ये पांच साधुओं के लिये महाव्रत है और गृहस्थों के लिये अणुव्रत । अपरिग्रह का मतलब है संग्रह मत करो । अर्थात किसी भी वस्तु को अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह मत करो | संग्रह करने से उन वस्तुओं का बाजार में अभाव उत्पन्न हो जाता है जिससे जिन व्यक्तियों को उन वस्तुओं की आवश्यकता होती है, उन वस्तुओं के अभाव में असुविधा का सामना करना पड़ता है । मनुष्य की अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह करने की प्रवृत्ति को किसी भी स्थिति में उचित नहीं कहा जाता है । आपने साल-दो साल के लिये सामग्री एकत्र कर रखी है, किंतु क्या आप जानते हैं कि आप कितने दिन जीवित रहेगे? इसी बात को ध्यान में रखकर किसी ने कहा है - सामान सौ बरस का कल की खबर नहीं । यह बात तो सत्य है कि यमराज का दूत कब लेने आ जाएगा, कोई निश्चित नहीं है । जब जीवन ही निश्चित नहीं है तो फिर आवश्यकता से अधिक संग्रह करने से क्या लाभ | आप अपनी आवश्यकता के अनुसार सामग्री आदि रखिये। यदि आपने अपनी आवश्यकता से अधिक सामग्री का संग्रह कर रखा है और जितने भी सक्षम व्यक्ति हैं, उन्होंने भी संग्रह कर रखा है तो बाजार में सामग्री का अभाव हो जायेगा । ऐसी स्थिति में उन लोगों का क्या होगा जो प्रतिदिन कमाते हैं और प्रतिदिन अपनी आवश्यकता के अनुरूप सामान खरीदते हैं । उसके अतिरक्ति काला बाजार करने वालों का भी बोलबाला हो जायगा । वे लालच में आकर अपनी वस्तु दुगुने तिगुने दाम में बेचेंगे । स्मरण रहे लोभ पाप का बाप है । जो लोभ करेंगे उन्हें पाप में डूबना पड़ेगा । अस्तु पाप से बचने के लिये और पुण्य प्राप्त करने के लिये भी आवश्यकता से अधिक संग्रह नहीं करना चाहिये । किसी ने कितना सुन्दर कहा है - साई इतना दीजिये, जामे कुटुम्ब समाय | मैं भी भूखा ना रहू, साधु न भूखा जाय || स्पष्ट है कि यहां याचक केवल यह इच्छा रखता हैं कि उसे केवल उतना मिलना चाहिये कि उसका और उसके परिवार का उदर पोषण हो जावे तथा उसके यहां आनेवाले साधु-महात्मा अथवा अतिथि भी भूखे नहीं रहे। उससे अधिक की उसे चाह नहीं है । इसके अतिरिक्त एक बात और यह कि आपके पास आवश्यकता से कई गुना धन है, सामग्री है तो उसे सुरक्षित रखने की चिंता भी आपको रहेगी । कहीं आपका धन या सामग्री चोरी न हो जावे, यह चिंता भी आपको सदैव बनी रहेगी । चिंता को चिता समान बताया गया है । अतः सबसे श्रेष्ठ उपाय तो यही है कि आवश्यकता से अधिक संग्रह न करें और परिग्रह से बचें एवं निश्चित रहें । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 14 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति in Education internal Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 31. आत्म - निरीक्षण प्रायः व्यक्ति दूसरों के दोषों का उल्लेख अधिक करता है । कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जिन्हें किसी में भी अच्छाई दिखाई नहीं देती। इसके विपरीत कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते है जिन्हें किसी भी व्यक्ति में बुराई दिखाई नहीं देती । जैसा कि किसी कविने कहा है - बुरा जो देखन में चला, बुरा न मिलिया कोय | जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय || वास्तव में बुरा तो वही व्यक्ति है जो अन्य व्यक्तियों में बुराई देखता है । अन्य व्यक्तियों की निन्दा करते समय अथवा उनकी बुराई का उल्लेख करते समय व्यक्ति को चाहिये कि वह अपने स्वयं के हृदय में भी झांक कर देख ले कि वह स्वयं क्या है? सत्य तो यह है कि यदि देखना ही हो तो दूसरों के गुण देखो और अपने दोष देखो । दूसरों के दुर्गुणों से तो हम अपनी आत्मा को ही कलुषित करते हैं, जैसा कि कहा गया है क्वचित कवायैः क्वचन प्रमादः कदाग्रहैः क्वापि च मत्सरारी । आत्मानमात्मन् । कलुषो कटोषि विभेषिधि जो नरकादधर्मा || इसका तात्पर्य यह है कि तू अपनी आत्मा को कभी कषायों से, कभी प्रमाद से, कभी कदाग्रह से और मात्सर्य से कलुषित कर रहा है । तुझे धिक्कार है कि तू नरक से नहीं डरता । उत्तराध्ययन सूत्र में उल्लेखानुसार आलोचना करने से मोक्षमार्ग में विघ्न डालनेवाले और अनंत संसार की वृद्धि करने वाले माया - मिथ्यात्व तथा निदान रूप तीन शल्यों को हृदय से निकाल देता है और इस कारण उसका हृदय सरल बन जाता है । जब हृदय सरल बन जाता है तो कपट नष्ट हो जाता है। कपट नष्ट हो जाने से वह जीव सभी वेद और नपुंसक वेद को नहीं बांधता है । यदि इन दोनों वेदों का बंध हो चुका हो तो उसकी निर्जरा कर देता है । एक विदेशी विद्वान का कथन है कि अपने दोषों और पापों को स्वीकार करो, प्रकट करो, इससे तुम्हें प्रकाश की प्राप्ति होगी । अपने अन्तर में झांकते अर्थात आत्म निरीक्षण के संदर्भ में किसी हिन्दी कवि ने कहा है - मत रूप निहारो दर्पण में, दर्पण गन्दा हो जायेगा । निज रूप निहारो अन्तर में, आत्मा उज्ज्वल हो जावेगा || I कहने का तात्पर्य यह है कि आत्म निरीक्षण करने से आत्मा उज्ज्वल होता है । कर्म मलों का विनाश होता है । इसलिये बन्धुओ ! आप सदैव आत्म निरीक्षण की प्रवृत्ति बनाये रखें। यदि देखना ही चाहे तो दूसरों के गुणों को देखें उनके दोषों की ओर दृष्टिपात न करें । आत्म निरीक्षण से और भी अनेक लाभ हैं । आप तो यह प्रयोग करके देखें स्वयं ही अनुभव कर लेंगे । 32. माताओं से माता को प्रथम शिक्षिका कहा गया है । माता ही अपनी संतान को परिजनों, मित्रों और समाज से परिचित कराती है। माता ही अपनी संतान को उठना-बैठना, चलना-फिरना और बोलना सिखाती है। माता ही अपनी संतान को संस्कार देती है । यदि माता शिक्षित और सुसंस्कारित हो तो संतान भी महान बन जाती है। माता जीजाबाई का उदाहरण हमारे सामने हैं। उन्होंने अपने पुत्र शिवाजी को महान बनाया । यह तथ्य आज किसी से छिपा हुआ नहीं है । माता चाहे तो अपने पुत्र-पुत्रियों का भविष्य उज्ज्वल बना सकती है और चाहे तो उन्हें पतन के गर्त के ढकेल सकती है। अपनी संतान का भविष्य उज्ज्वल बनाने के लिये स्वयं माता का पढ़ा लिखा और हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 15 हेमेजर ज्योति ज्योति Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सुसंस्कारित होना अनिवार्य है । माता के महत्व को स्वीकारते हुए नेपालियन ने कहा था कि तुम मुझे बीस श्रेष्ठ मातायें दे दो । मैं तुम्हें विश्व का साम्राज्य दे दूंगा । ऐसी अनेक माताओं के उदाहरण इतिहास की पुस्तकों में मिल जायेंगे जिनके प्रयासों से उनकी संतान महान बनी । उन पर हम यहां चर्चा करना उचित नहीं समझते । हम तो यहां यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि माताओं को चाहिये कि वे बाल्यावस्था से ही अपने बच्चों में सुसंस्कार वपन करने का कार्य करे । कारण कि जिस प्रकार पक्के घड़े पर मिट्टी नहीं चढ़ती उसी प्रकार बड़े होने पर युवक पर वातावरण का प्रभाव अधिक पड़ता है, इस कारण वह सुसंस्कार ग्रहण करने में या तो संकोच करता है अथवा उनसे दूर भागता है । अतः संस्कार वपन का कार्य तो बचपन में ही उचित रहता है । बच्चा जब कुछ कुछ समझने लगे तब से ही उसे अपने माता पिता तथा बुजर्गो के चरण स्पर्श करना सिखाया जाना चाहिये । आप जब नियमित रूप से देव दर्शन करने जाती है तो अपने साथ अपने बच्चों को भी ले जावें और उन्हें देव वंदन विधि पूर्वक सिखाये । अपने बच्चों को सत्य, अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य का महत्व बतावें । उनका पालन करने का निर्देश दें। आपके यहां जब कोई अतिथि अथवा मिलने वाले आवे तो उनका सम्मान करना सिखावें । अपनी संतान को दया, दान, क्षमा का महत्व समझाते हुए उन्हें अपने जीवन में उतारने की शिक्षा प्रदान करें । उतना ही नहीं आप अपनी संतान को स्वावलम्बी बनने का पाठ पढ़ावे और दीन-हीन लोगों की सहायता करने तथा वरिष्ठजनों की सेवा सुश्रुषा अग्लानभाव से करना भी सिखावें । सेवा जिसे वैयावच्च भी कहा जाता है, एक तप है, आप अपनी संतान को तप, व्रत, उपवास का भी महत्व समझावें। साथ ही इन्हें अपने जीवन में उतारने के लिये भी कहें । अपनी संतान को व्यसनों से दूर रखने का पूरा प्रयास करें । उन्हें इनकी बुराइयाँ बतावें और इसी प्रकार जो जीवन की अहितकारी बातें हैं उनके दोष बताते हुए उनसे बचने की शिक्षा प्रदान करें । संक्षिप्त में यह कि आप अपनी संतान को आदर्श नागरिक बनाने का प्रयास करें । उससे न केवल आपकी संतान का वरन आपका, समाज का व देश का भविष्य उज्ज्वल होगा । 33. पर्यावरण की रक्षा करें पहले तो संक्षेप में हम यह जानने का प्रयास करें कि पर्यावरण किसे कहते हैं? आज पर्यावरण की चर्चा तो बहुत होती है किंतु हमारे विचार से पर्यावरण के अर्थ से कई लोग आज भी अनभिज्ञ है । पृथ्वी, आकाश, हवा, पानी, वन और हमारे आस पास का जो परिवेश हैं, संक्षेप में यही पर्यावरण है । पृथ्वी में मैदान, पठार, पहाड़ आदि आकाश में समूचा आकाश, तारामंडल, ग्रह आदि हवा में आंधी तूफान, ठण्डी, गरम हवा आदि, पानी में नदी, समुद्र, तालाब कुएं आदि, वन में सभी प्रकार के वन और वनस्पति, वन्य प्राणी आदि हमारे आसपास के परिसर से आशय यह है कि जिस स्थान पर हम रहते हैं, वह साफ सुथरा हो । उसके आसपास गंदगी न हो । पानी रुका हुआ न हो । आज इस वैज्ञानिक युग ने पर्यावरण को काफी क्षति पहंचाई है । माना कि विज्ञान की प्रगति से मानव समाज ने विकास की ऊँचाइयों को छुआ है । जीवन रक्षक औषधियों का निर्माण कर जीवन बचाने के लिये महत्वपूर्ण योगदान दिया है । इसी प्रकार उत्पादन के क्षेत्र में, यातायात और दूर संचार के क्षेत्र में तथा अनुसंधान के क्षेत्र में अनुपम योगदान दिया है और आगे भी कार्य चल रहा है । इन सबके परिणाम स्वरूप आज विश्व सिमट गया है। अंतरिक्ष की खोज में भी महत्वपूर्ण कार्य हुए हैं तथा आगे भी हो रहे हैं । उन सबके महत्व को नकारा नहीं जा सकता । इसके विपरीत इनका दुष्प्रभाव भी हमारे सामने आया है । कल-कारखानों से निकलने वाला विषैला धुआं, अपने आसपास के तथा कुछ दूरस्थ क्षेत्र के वातावरण को दूषित कर रहा है । कारखानों से निकलने वाला विषैला पानी नदियों के पानी को विषैला बना रहा है । परिणाम स्वरूप वह पानी पीने योग्य तो रहता नहीं, उलटे असंख्य जलचर उसके प्रभाव से मौत के मुँह में चले जाते हैं । विश्व की बड़ी शक्तियां घातक हथियारों का निर्माण करती हैं, उनका परीक्षण करती है जिसके फलस्वरूप उनकी विषैली गैस से वायुमंडल दूषित हो जाता है । विषैला हो जाता है । घातक हथियारों की होड़ में आज विश्व बारूद के ढेर पर बैठा है । एक चिनगारी लगी कि विश्व का विनाश हो सकता है । क्या इस विनाशशील प्रगति को विकास कहा जा सकता है? जहां आज आदमी सांस लेता है तो उसे घुटन का अनुभव होता है । क्या उसे विकास कहा जा सकता है? हेगेन्च ज्योति * हेगेन्द्र ज्योति 16 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति FOLengueensuse only: Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ आज वनों की अंधाधुंध कटाई हो रही है । इसके दुष्प्रभाव भी हमारे सामने आ रहे है । जैसा हम करेंगे, वैसा हमें भुगतना भी पड़ेगा । जहां पहले हरियाली लहराया करती थी, अब वहां हमें रेगिस्तान जैसा दृश्य दिखाई देने लगा है । अवर्षा के आसार अधिक दिखाई देने लगे है । हम वृक्ष लगाने के स्थान पर उनका विनाश करने पर तुले हुए हैं । स्मरण रहे वृक्ष हमारे मित्र है । इनसे ही हमें प्राणवायु ऑक्सीजन मिलती है । हमें इनकी रक्षा करना चाहिये । जल और वृक्ष है तो हमारा जीवन है । हम अपने परिवेश के प्रति भी सावधान नहीं है । अपना परिवेश हम स्वच्छ नहीं रखते । घर का आंगन तो साफ कर लिया किंतु उसके सामने गंदगी के साम्राज्य के प्रति हम अपना कर्तव्य निर्वाह करना नहीं जानते । उस गंदगी को दूर करने का भी हमें प्रयास करना चाहिये । आज पोलिथीन की थैलियों का चलन बहुत बढ़ गया है। हम इन पोलिथीन की थैलियों को कचरा फेंकने के काम में भी लेने लगे हैं । नालियों में फेंकने से नालियों का पानी रुक जाता है । इनमें रही हुई वस्तुएं सड़ जाती है और समूचे वातावरण को दूषित कर देती है । इतना ही नहीं यदि इन थैलियों में रखी खाद्य वस्तु खाने के लालच में यदि कोई पशु उन्हें खाले तो उसकी मृत्यु हो जाती है । अतः इन थैलियों के उपयोग से बचना चाहिये या उनका उपयोग सावधानी पूर्वक करना चाहिये । पर्यावरण के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा जा सकता है । फिर भी इतना कहना आवश्यक समझते हैं कि हमें पर्यावरण संरक्षण का कार्य करना चाहिये । पर्यावरण को दूषित, विषैला बनाने से बचना चाहिये । वैज्ञानिकों को चाहिये कि विषैली गैस एवं धूएं से संरक्षण के उपायों पर भी शोध करें । आप सब जानते हैंकि आज से 50-60 वर्ष पूर्व जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर बम वर्षा हुई थी, जिसके परिणाम वहां के निवासी आज तक भुगत रहे हैं । कहीं ऐसे अवसर पुनः न उपस्थित हो । इसलिये हमें सचेत रहना चाहिये और पर्यावरण संरक्षण का भी ध्यान रखना चाहिये । 34. व्यसन से बचें व्यसन रहित जीवन ही अच्छा, श्रेष्ठ जीवन होता है । जो व्यक्ति व्यसन में लिप्त रहते हैं । वे जीवन में अनेक बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं । कारण कि व्यसनी व्यक्ति अपने सम्पूर्ण जीवन में कष्ट ही पाता रहता है । व्यसनी व्यक्ति मृत्यु के उपरांत नरक में जाकर कष्ट भोगता है । जिन प्रवृत्तियों के करने से मनुष्य को कष्ट होता है, उसे व्यसन कहते हैं | जब हम व्यसनों के बारे में विचार करते हैं तो हमारे सामने अनेक प्रकार के व्यसन आते हैं। कुछ व्यसनों का सम्बन्ध हमारे काम से होता है और कुछ व्यसनों का सम्बन्ध क्रोध से होता है । कहने का तात्पर्य यह है कि कुछ व्यसन ऐसे होते हैं, जो हमारे काम से उत्पन्न होते हैं अथवा सम्बंधित होते हैं और कुछ व्यसनों का संबन्ध क्रोध से होता है । यदि हम जैन साहित्य का अनुशीलन करें तो पाते हैं कि वहां सात प्रकार के व्यसन बताये गये हैं - जो इस प्रकार है- 1. जुआ, 2. मांसाहार, 3. मद्यपान, 4. वेश्यागमन, 5. शिकार, 6. चोरी और 7. परस्त्री गमन । हमारा मानना है कि आपको इन सप्त व्यसनों के सम्बन्ध में अच्छी जानकारी है । इसलिये यहां उनके विषय में अधिक बताने की जरूरत नहीं है । हम यह भी मानते/जानते हैं कि आपमें से कई इनमें से किसी न किसी व्यसन में लिप्त हो सकते हैं । आप कहेंगे कि नहीं । पर भाई क्या आप गुटखा आदि का सेवन नहीं करते? जी हां, धूम्रपान, तम्बाखू गुटखा आदि भी व्यसन ही है । उपर्युक्त व्यसनों में न केवल शारीरिक हानि है, वरन् आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक और पारिवारिक क्षति भी है । उन व्यसनों में आपका रुपया पैसा तो बरबाद होता ही है आपको ये व्यसन धर्मच्युत भी करते हैं । समाज में आपकी प्रतिष्ठा को भी नष्ट करते हैं और परिवार की सुख-शांति भी समाप्त करते हैं । अतः यदि आप समाज में आदर और सम्मान से रहना चाहते हैं । परिवार की सुख शांति चाहते हैं, अपनी संतान का भविष्य उज्ज्वल बनाना चाहते हैं तो व्यसनों से बचकर रहें । किसी भी स्थिति में व्यसन सेवन नहीं करें । उनका दुष्प्रभाव आपकी संतानों पर भी पड़ता है । अतः व्यसनों से सदैव दूर ही रहें, इसी में आपका आपके परिवार का हित है। 35. रात्रि भोजन का त्याग करें प्रायः यह देखा जाता है कि आज का मानव देर रात को भोजन करना अच्छा समझता है और उसके अनुसार वह भोजन करता भी है किंतु ऐसा करते समय मनुष्य यह भूल जाता है कि देर रात में भोजन करना उसके लिये अस्वास्थ्य कारक है । इस सम्बन्ध में संक्षेप में बताने का प्रयास करते हैं । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 17 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ देर रात में भोजन करने के पश्चात् व्यक्ति सो जाता है । भोजन करने के पश्चात् पानी पीना चाहिये, जो वह नहीं पी पाता जिससे भोजन के पाचन पर प्रभाव पड़ता है । भोजन पच नहीं पाता है । देर रात में भोजन करने के पश्चात् व्यक्ति सो जाता है । जबकि भोजन करने के पश्चात् उसे कुछ चहल कदमी करनी चाहिये जिससे भोजन पचने में सुगमता रहे । भोजन करने के बाद सो जाने से भोजन वैसा का वैसा ही पेट में पड़ा रहता है । जिसके परिणाम स्वरूप भारीपन का अनुभव तो होता ही है, साथ ही अपच के कारण उदररोग होने के भी अवसर अधिक रहते हैं और एक बार उदर रोगों ने घर देख लिया तो फिर जीवन भर पीछा नहीं छोड़ते हैं । देर रात को भोजन करने पर उसमें पड़े हुए क्षुद्र जीव जंतु कृत्रिम प्रकाश में दिखाई नहीं देते हैं और वे भी उदरस्थ हो जाते हैं । जो रोग उत्पत्ति के कारण बनते हैं । इसी प्रकार कभी कभी और विशेषकर वर्षा ऋतु में भोजन पर फफूंद उत्पन्न हो जाती है जो स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होती है । यह फफूंद रात के कृत्रिम प्रकाश में दिखाई नहीं देती हैं । मनुष्य भोजन के साथ उसका भी सेवन कर लेता है और बाद में बीमार पड़ जाता है । वह अपनी रुग्णता का कारण नहीं जान पाता है । देर रात को भोजन करने वाले व्यक्तियों का पेट प्रायः भारी रहता है और दिन भर आलस बना रहता है । उसमें जैसी चाहिये वैसी स्फूर्ति भी नहीं रह पाती हैं । इसके विपरीत जो व्यक्ति सूर्यास्त से पहले ही भोजन कर लेता है वह सदैव चुस्त, दुरूस्त और स्फूर्तिवान बना रहता है । उसका स्वास्थ्य भी प्रायः ठीक ही रहता है । उसमें कार्यक्षमता भी अधिक रहती है । सूर्य के प्रकाश में भोजन करने से भोजन में पड़े हुए क्षुद्र जीव अथवा फफूंद आदि स्पष्ट दिखाई दे जाती है जिससे मनुष्य के स्वास्थ्य को हानि नहीं पहुंचती है । अनेक पाश्चात्य विचारकों ने भी रात्रि भोजन का निषेध करते हुए सूर्यास्त से पूर्व भोजन करने को मानव हित में बताया है । अस्तु बंधुओ ! रात्रि भोजन का त्याग करें । अपने और अपने परिवार के स्वास्थ्य का ध्यान रखते से पहले भोजन करने की आदत अपनाये व अपने स्वयं का हित साधन करें । 36. युवकों से वर्तमान समय में यह आम शिकायत मिल रही है कि आज का युवक अनुशासनहीन और उच्छृखल होता जा रहा है । घर पर वह अपने माता-पिता की आज्ञा नहीं मानता और विद्यालय में अपने गुरुजनों की । उसका दोष सब युवकों को देते हैं । इसके मूल कारण की ओर किसी का भी ध्यान नहीं जाता है । अनुशासनहीनता, उच्छृखलता और धर्म विमुखता का मूल कारण युवकों को बाल्यकाल से संस्कारों का नहीं मिलना है । यदि माता-पिता प्रारम्भ से ही अपनी संतान का जीवन संस्कारित करे तो उन्हें इस प्रकार की शिकायत करने का अवसर ही नहीं मिलेगा। युवकों में अनेक शक्तियां होती हैं । उनमें तेजस्विता है, तत्परता है, तन्मयता है, उत्साह और उमंग है । नया कुछ करने की अद्भुत क्षमता भी है । युवकों की शक्तियों का उपयोग उनके स्वयं के विकास के लिये करना चाहिये, जिससे समाज और राष्ट्र का उत्थान हो सके । आज का युवक ही कल का नागरिक है । इसलिये समय रहते उन्हें अपने कर्तव्य निश्चित करना चाहिये । व्यर्थ के वितंडावाद में उन्हें नहीं उलझना चाहिये । सबसे पहली बात तो यह है कि युवकों को चाहिये कि वे अपने माता-पिता और गुरुजनों की अवहेलना करना बन्द कर उनकी आज्ञा का पालन करे । अनुशासन में रहना सीखे और उच्छृखलता का त्याग करें । ऐसा करने से उन्हें अपने भविष्य का निर्धारण करने के लिये सोच विचार करने का पर्याप्त समय मिलेगा । जब युवक अपने भविष्य के लिये अपना लक्ष्य निर्धारित कर ले तो फिर उसके अनुरूप कार्य करने का दृढ़ संकल्प लेकर उसमें जुट जाये । दृढ़ संकल्पी व्यक्ति के सामने कितनी ही समस्यायें क्यों न आये वे सब शनैः शनैः दूर होती चली जाती है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 18 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति PineareraruRE ON Hary.org Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था आज के युवकों के बारे में यह भी कहा जाता है कि उन्हें धर्म के नाम से चिढ़ है । परन्तु हमें ऐसा नहीं लगता । यदि ऐसा होता तो विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों में आज जो भागीदारी होती है, वह नहीं होती । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि धार्मिक ममालों में युवकों की भावना को समझने में हम कहीं न कहीं कोई भूल कर रहे हैं । हमारे विचार से युवक अंध भक्ति को स्वीकार नहीं करता है । वह तथ्यान्वेषी दृष्टिकोण अपनाता है । वह धार्मिक बातों को भी अन्य बातों की भांति अर्थपूर्ण दृष्टि से देखता है । इसलिये युवकों को धर्म के मामले में आधुनिक दृष्टि से समझाने की आवश्यकता है । उन्हें यह समझाने की आवश्यकता है कि धर्म का क्षेत्र श्रद्धा और भक्ति का क्षेत्र है । श्रद्धा-भक्ति में तर्क को कोई स्थान नहीं है । युवकों से हमारा कहना है कि अनुशासनहीनता उच्छंखलता, अक्खड़पन, झूठ, फरेब, हड़ताल आदि से आपका कल्याण होने वाला नहीं है । नकल करके परीक्षा उत्तीर्ण करने से आपके ज्ञान में वृद्धि होने वाली नहीं है । आप अपने अन्दर रही हुई शक्तियों का सदुपयोग करें, विनय गुण अपना कर गुण के ग्राहक बनें, अच्छी उच्चशिक्षा प्राप्तकर अपने जीवन का विकास करें और इन सब में धर्म को नहीं भूले । कारण कि सब कामों में कर्म बंध होता है । केवल धर्माराधना ही आपके मानव जीवन को सार्थक करने में सहायक है । अस्तु स्वयं सोचे विचारे अपने लक्ष्य निर्धारित करें और उसके अनुरूप अपना आचरण रखें। श्रद्धेय आचार्यश्री द्वारा रचित कथा साहित्य ईमानदारी एक गाँव में एक सन्त ग्रामवासियों को उपदेश दे रहे थे । एक सुनार भी उपदेश सुन रहा था । सन्त ने उपदेश दिया कि मनुष्य को कम से कम तीन बातों से अवश्य बचना चाहिये । ये तीन बाते हैं - 1. झूठ न बोलना 2. चोरी न करना और 3. पर स्त्री को न देखना । स्वर्णकार को सन्त का उपदेश बहुत अच्छा लगा । उसने सोचा बातें तीनों ही अच्छी है और मुझे तीनों का पालन करना चाहिये । उसने प्रतिज्ञा कर ली । अब वह दुकान पर बैठ कर अपना धंध करता तो अपने द्वारा ली गई प्रतिज्ञाओं का बराबर ध्यान रखता । किन्तु उसके सामने एक कठिनाई आने लगी । दूसरे स्वर्णकार बनवाई कम लेते और सोने-चाँदी में से कुछ भाग चुरा कर पूर्ति कर लेते थे, पर प्रतिज्ञाबद्ध स्वर्णकार चोरी नहीं कर सकता था । इसलिये वह बनवाई मजदूरी ज्यादा लेने लगा। परिणाम यह हुआ कि उसके पास कोई आभूषण बनवाने नहीं आता । अतः गाँव छोड़कर नगर में आ बसा जो गाँव से ज्यादा दूर नहीं था। स्वर्णकार अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ था । कठिनाइयों को झेलते हुये भी उसने प्रतिज्ञा को तोड़ने का विचार नहीं किया। यही नहीं एक दिन उसने अपने लड़के को भी समझा बुझा कर तीनों प्रतिज्ञाएं दिला दी । लड़के ने भी प्रसन्नतापूर्वक प्रतिज्ञाएँ ग्रहण करली | माता-पिता दोनों का देहान्त हो गया । लड़का अनाथ हो गया, पर अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ था । स्वर्णकारी का धंधा नहीं चला तो उसने बर्तन-थाली-लोटा आदि बेचना शुरू किया । वह बालिग था । किन्तु उसे बुरी तरह गरीबी ने सताया और वह फटे-पुराने कपड़े पहन कर जीवन व्यतीत करने लगा | उसकी दयनीय स्थिति देखकर दूसरे स्वर्णकार कहने लगे - भाई ! प्रतिज्ञाओं का पालन अवश्य करो, मगर दुकानदारी तो दुकानदारी के तरीके से ही करना चाहिये, पर लड़का पक्का था । उसने उत्तर दिया - “पर चोरी नहीं करूँगा । मानव जन्म बार-बार नहीं मिलता। मैं तो प्रतिज्ञाओं पर दृढ़ रहूँगा । इस प्रकार गरीबी के दुःख देखते-देखते बहुत दिन व्यतीत हो गये । उस नगर का राजा एक रात गहरी नींद में सो रहा था कि अचानक पिछली रात में उसकी नींद खुल गई । राजा ने विचार किया- मेरी रानियाँ अच्छी है, राजकुमार भी चरित्रवान, आज्ञा का पालन कर्ता है, परिवार के अन्य सदस्य तथा शासकीय व्यवस्था भी संतोषजनक हैं । यह सब बातें तो ठीक हैं, परन्तु मुझे यह नहीं मालूम हैं कि खजाने में कितना धन है ? उसे देख लेना चाहिये । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्रज्योति 19 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Epayahanyelionyias Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ । 1 प्रातः काल होने पर राजा खजाना देखने गया । देखते-देखते सारा दिन व्यतीत हो गया और रात्रि भी हो गयी पर खजाना पूरा नहीं देख सका । दो-तीन दिनों में उसने पूरा खजाना देखा देखकर वह सोचने लगाभण्डार में बहुत द्रव्य हैं। अब प्रजा पर कोई नया कर नहीं लगाऊँगा और जनहित के कार्य स्कूल, धर्मशालाएँ बनवाऊँगा तथा रोगियों के लिये नए चिकित्सालय खुलवाऊँगा, जिसमें असाध्य बीमारियों का भी उपचार हो सके। गरीबों से उपचार का, दवाओं का पैसा नहीं लिया जाएगा । | इस तरह राजा ने अपने नीति नियम बना लिये वह नित्य-नये वस्त्र धारण करता, बहुमूल्य आभूषण बनवाता जिस स्वर्णकार से राजा आभूषण बनवाता था, वह राजा का बहुमूल्य मोती आदि अपने पास रख लेता और नकली मोती जड़ देता था । ऐसा करते-करते कई दिन हो गये । एक दिन भंडा फूट गया । स्वर्णकार के घर की तलाशी हुई और माल बरामद हो गया । राजा ने उसे देश से निकालने की सजा दे दी । राजा ने दूसरे स्वर्णकार की खोज करवाई पर कोई ईमानदार स्वर्णकार न मिला । तब राजा ने अपने दीवान से कहा • "दीवानजी! मेरे शौक पर पत्थर पड़ गए । नगर में एक भी स्वर्णकार ईमानदार नहीं है। दीवान ने कहा"राजन् ! सब धान बाईस पंसेरी नहीं तुलते । सब बेईमान नहीं है । मैं ईमानदार स्वर्णकार खोज लाऊँगा ।” दीवान ने खोजबीन की तो वही लड़का जिसका नाम सुशीलचन्द्र था, दीवान को ईमानदार लगा । वह उसे राजा के पास ले गया। राजा ने पूछा " लड़के ईमानदारी से काम करेगा?" लड़के ने अपने द्वारा ली हुई प्रतिज्ञाएं दोहरा दी। राजा उसकी बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ । उसने इस लड़के से आभूषण बनवाने का काम शुरू किया, और सौ के बदले दो सौ और दो सौ की जगह चार सौ पारिश्रमिक देने लगा । लड़के की आर्थिक स्थिति एकदम स्तरीय होने लगी । दूसरे स्वर्णकारों ने देखा कि लड़का राज स्वर्णकार हो गया है, और शीघ्र ही धनी बन जाएगा । अतएव वे उसे अपनी लड़की देने की सोचने लगे । राजा को मालूम हुआ तो उसने स्वयं आगे रह कर खानदानी सुशील कन्या देख कर उसकी सगाई कर राजा की देखरेख में विवाह कर दिया । लड़के की तीन प्रतिज्ञाओं ने उसे सांसारिक दृष्टि से भी पूर्ण सुखी बना दिया । 3 गुरु की शिक्षा एक युवक को अपने पूर्व उपार्जित पुण्य से अपने अनुकूल परिवार का समागम प्राप्त हुआ था। उसके ऊपर उसका अत्यन्त प्रेम था। परिवार का उसके ऊपर अपार प्रेम था । यदि उस युवक के सिर में दर्द होता, तो संपूर्ण परिवार दुःखी हो जाता । वह युवक एक दिन गुरु के दर्शन करने गया और दर्शन करके जब गुरु के समक्ष बैठा तो गुरु ने पूछा - " वत्स! बहुत दिनों से तू यहाँ नहीं आया, कहाँ गया था? युवक ने कहा - "गुरुदेव ! क्या करूँ? मेरे माता-पिता पत्नी का मुझ पर इतना प्रेम है कि वे मुझे बाहर नहीं जाने देते ।' गुरु ने कहा तू पहले नित्य आता था, पर अब क्या हो गया? युवक ने उत्तर दिया कि मेरा पुत्र, पत्नी आदि मेरे साथ बहुत प्रेम रखते हैं । यदि मैं कहीं बाहर जाता हूँ, तो लौटने तक मेरी चिन्ता करते हैं, मैं समय पर घर नहीं पहुँचता हूँ तो दुःखी होते हैं । अतः गुरुदेव ! मैं आपके पास नहीं आ सका । यह मेरा दुर्भाग्य है । युवक की बात सुनकर गुरु ने कहा- तुझे जब दुःख होता है तो क्या तेरा परिवार दुःखी होता है । यदि तुझे पीड़ा हो तो उस दर्द में भी कोई भागीदार हो सकता है । यह भी तूने कभी विचार किया? उसमें भाग लेने के लिये कोई भी तैयार नहीं होगा। सभी स्वार्थ के साथी हैं । तुम अपने माता-पिता, पत्नी, बच्चे आदि का पालन करते हो, पर गुरु जो बात कहे उसका पालन अवश्य करना । हमेला ज्योति ज्योति 20 हेमेन्द्र ज्योति ज्योति ainelibr Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ । युवक ने कहा – गुरुदेव ! मैं परिवार के प्रेम के कारण आने में असमर्थ हूँ। गुरु ने कहा – यह तेरी भूल है । युवक ने कहा – गुरुदेव ! मुझे समय नहीं मिलता । गुरु ने कहा - परिवार का तू पालन पोषण करता है, उससे तुझे क्या लाभ है? जब तेरे ऊपर विपत्ति आएगी तो उसमें कोई भी साथ न देगा । युवक ने कहा - मेरे परिवार के सदस्य मेरे लिये अपने प्राण देने को तैयार हैं, इसलिये मैं उनके प्रेम को त्याग नहीं सकता । यदि मुझे कोई बीमारी होती हैं, तो वे बहुत चिंतित होते हैं । गुरु ने कहा- ठीक है, तेरा यह कहना या मानना मोह अथवा प्रेम के कारण है । यदि तुझे उनकी परीक्षा करनी है तो मैं एक उपाय बताता हूँ उससे उनकी परीक्षा करना । गुरु की बात सुनकर युवक परीक्षा करने को तैयार हो गया। गुरु ने कहा - अच्छा कुछ दिन मेरे पास प्रतिदिन आया करो, मैं तुम्हें प्राणायाम का अभ्यास कराऊँगा । उस युवक ने गुरु की बात मान ली और उनके पास प्रतिदिन जाता रहा । गुरु ने उसे प्राणायाम का अभ्यास कराया। इस प्रकार करते-करते उसके मस्तिष्क में श्वास चार पाँच घण्टे तक रूकने लगा । इस तरह प्राणायाम का अभ्यास करा करके उसे घर भेज दिया । तथा गुरु ने कहा - वत्स! अब जा करके प्राणायाम का प्रयोग करो । गुरु के कथनानुसार वह युवक अपने घर जाकर दर्द का बहाना करके लेट गया । सोते ही परिवार के सदस्यों ने आकर उससे पूछा - "क्या हो गया?" किन्तु वह चुपचाप पड़ा रहा । तो वे बहुत चिन्ता करने लगे । अनेक उपचार किये पर वह मृत की भाँति पड़ा रहा । वे लोग दुःखी हो गये । गुरु ने आकर पूछा - "तुम उदास क्यों हो?" कुटुम्बियों ने कहा - यह बोलता ही नहीं, उपचार भी व्यर्थ गये । तब गुरु ने कहा - "भाई ! मैं गिलास भर पानी देता हूँ। एक गिलास लाओ । हमारे मंत्र के प्रभाव से वह जीवित हो जाएगा । मंत्र पढ़कर मैं जो पानी दूंगा, वह तुममें से कोई भी पीलेना । जो पीएगा उसकी मृत्यु हो जाएगी और यह जीवित हो जाएगा ।" तुम में से ऐसा करने को कौन तैयार है? मृत्यु के भय से कोई तैयार नहीं हुआ । गुरु ने माता-पिता, पत्नी और पुत्र से पानी पी लेने को कहा, किन्तु सभी ने पानी पीने से इंकार कर दिया । सभी जीवित रहना चाहते थे। वह युवक पड़ा पड़ा सब सुनता रहा । मैं भूल से इस संसार में भटक रहा हूँ । अब मैं गुरु के निकट जा करके उनके चरणों में अपना कल्याण करूँगा । गुरु ने कहा- तुम तो कोई भी पीने को तैयार नहीं मैं, ही पी लेता हूँ? सभी ने कहा – हाँ, गुरुजी! आप पी लीजिये । आपके आगे पीछे कोई है भी नहीं । आप बड़े दयालु हैं, बड़े उपकारी हैं । तब गुरु ने पानी पी लिया और युवक से कहा - बेटा ! उठ देख लिया न संसार को । युवक तत्काल उठकर बैठ गया और बोला – मैं आज तक इस संसार के मोह में फँस करके आत्म-कल्याण से वंचित रहा । इसलिये मुझे संसार में परिवार आदि का जो स्वार्थ, अभी तक मालूम नहीं हुआ था,वह अब मालमू हो गया । अन्त समय में मेरा कोई भी साथ नहीं देगा । यह सोच कर वह एकदम संसार से विरक्त होकर गुरु के साथ चला गया और अपने आत्म कल्याण में लग गया। ३ फूलों की मुस्कान वर्षों पूर्व की बात है । एक अति दयालु और परोपकारी राजा था । उसे बच्चों से बड़ा स्नेह था । अपने महल से लगे हुये बगीचे में उसने बच्चों को खेलने, कूदने, मौज मनाने की छूट दे रखी थी । सभी बच्चे राजा के बगीचें में आकर खूब खेलते । राजा भी बच्चों को प्यार करता कभी उसका मन होता तो बच्चों की भाँति खेलने-कूदने लगता। ऐसे राजा को पाकर बच्चे अति प्रसन्न थे । एक बार पड़ोसी राजा ने इस राजा पर आक्रमण कर दिया । राजा युद्ध पर चला गया । उसके राज्य से बाहर रहने के कारण मंत्री ने बगीचे में खेलने पर बच्चों को मनाकर दिया, अर्थात् बच्चों पर प्रतिबंध लगा दिया । उसने बगीचे का द्वार बन्द करवा दिया । बच्चे उदास हो गये और राजप्रसाद की ओर जाना बन्द कर दिया । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 21 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Grdanasunly Dildarmalam Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ । एक दीर्घ अवधि के पश्चात् राजा युद्ध से लौटा । निरन्तर लड़ते रहने के कारण उसका मन बदल गया था । अब बच्चों के साथ मिलने-जुलने, खेलने-कूदने की बात भी उसके ध्यान में नहीं आती थी, वह सारे समय राज्य के कार्यों में व्यस्त रहता था । एक दिन वह टहलते हुये अपने बगीचे की ओर चला गया । वहाँ जाकर उसने देखा संपूर्ण बगीचा वीरान हो गया है । हरियाली का नामों निशान तक नहीं रहा । बगीचे की दुर्दशा देखकर राजा आग बबूला हो गया । उसे मालियों पर बड़ा क्रोध आया । उसे इतना क्रोधित देखकर सारे माली भय से काँपते हुये खड़े हो गये । मालियों ने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुये कहा – महाराज! जाने क्या बात हुई कि आपके जाने के पश्चात् से ही यह बगीचा सूखने लगा । हम लोगों के सारे प्रयत्न व्यर्थ हो गये, और जितना परिश्रम करते हैं यह बगीचा उतना ही सूखता जा रहा है । मालियों की बात सुनकर राजा चिंतित हो गया । दूसरे दिन से उसने स्वयं बगीचे की देखभाल प्रारंभ कर दी । पर उससे कोई लाभ नहीं हुआ और जो दो चार हरे भरे वृक्ष थे वे भी सूख गये । यह सब देखकर राजा की चिन्ता दुगुनी-तिगुनी बढ़ गई, आँखों से नींद गायब हो गई । वह रात भर जागता रहता उसके मन में कई प्रकार के अशुभ-विचार उत्पन्न होते । परिणाम यह हुआ कि वह बीमार पड़ गया । राजा के बीमार होने से सभी चिंतित हो गए । मंत्री से लेकर राजवैद्य तक परेशान थे । कोई उपाय काम नहीं कर रहा था । बगीचे को पुनः हरा-भरा करने के जो भी प्रयत्न किये जाते वे व्यर्थ सिद्ध हो रहे थे। एक दिन अकस्मात थोड़े समय के लिये राजा को नींद आ गई । उसने स्वप्न में एक मुरझाया हुआ गुलाब का फूल देखा । फूल ने राजा को सादर अभिवादन किया और चुपचाप खड़ा हो गया । राजा ने फूल से पूछा तुम लोग मेरे बगीचे में नहीं दिखते । बगीचे में खिलना क्यों बन्द कर दिया? कोई कष्ट है क्या? कोई कष्ट हो तो बताओं मैं न्याय करूँगा। गुलाब के फूल ने मस्तक झुकाकर कहा - राजन् ! बात तो है, जिस बाग की शोभा बच्चों से थी, वे ही अब यहाँ नहीं आते तो हम किसके लिये खिलें । आपके मंत्री ने आपके यहाँ न रहने पर जब बच्चों को बगीचे में प्रवेश नहीं करने दिया, तब से हम मुरझा गये हैं । राजा की आँख खुल गई । राजा को अब बगीचे को सूखने का वास्तविक कारण ज्ञात हुआ । उसने तत्काल मंत्री को बुलवाया । मंत्री के आने पर राजा ने कहा - मंत्रीजी ! आपको किसने कहा था कि हमारे बगीचे में बच्चों के खेलने पर प्रतिबन्ध लगा दें? बताइये मैं आपको क्या दण्ड दूँ? मंत्री भय के मारे काँपने लगा । राजा ने कहा- आपका दंड यही है कि आप स्वयं ढिंढोरा लेकर पूरे नगर में बच्चों को एकत्र करें, तथा उन्हें अपने साथ बगीचे में ले जायें। आज का दिन मैं बच्चों के साथ बगीचे में व्यतीत करूँगा। _ मंत्री ने सादर प्रणाम कर कहा – जो आज्ञा महाराज! प्रत्येक गली चौराहे पर मंत्री ने ढिंढोरा पीटकर बालकों को बगीचे में आने के लिये निमंत्रण दिया । बच्चों की भीड़ हो हल्ला और शोर मचाती हुई मंत्री के पीछे पीछे चलने लगी । बगीचे में राजा नंगे पैर उनके स्वागत के लिये खड़ा था । जैसे ही बच्चे बगीचे के द्वार के भीतर घुसे राजा को अपने पैरों तले गुदगुदी सी महसूस हुई । उसने चौंक कर देखा तो पाया कि हरी हरी दूब का गुच्छा उसके पैरों के नीचे उगा हुआ है । राजा प्रसन्न होकर पागलों की तरह नाचने लगा । उसने दोनों हाथों से एक बच्चे को गोद में लिया, कि पूरे बगीचे की काया ही पलट गई । चारों ओर हरियाली ही हरियाली दृष्टिगोचर होने लगी। वृक्ष और लताओं पर फूल खिलगये। वातावरण एकदम मोहक हो गया, मानों वसन्त आ गया हो । आकाश रंग-बिरंगी चिड़ियों से भर गया । उन्हें देखकर बच्चे प्रसन्नता से उछलने लगे । राजा उस बच्चे को गोद में लिये कुछ आगे बढ़ा ही था, कि एक गुलाब का फूल राजा के गालों की ओर स्नेह से झुक गया । राजा ने स्वप्न में आने वाले गुलाब को शीघ्र पहचान लिया । वह ठगा सा उस गुलाब के सम्मुख खड़ा रह गया । फूल हवा की ताल पर इस तरह धीमें धीमें झूम रहा था, मानों वह राजा को देखकर हँस रहा हो । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 22 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द ज्योति HE R amal use only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन थ ग्रंथ पीपल का भूत & गाँव के बाहर आधा, पौन किलोमीटर की दूरी पर तालाब के किनारे आम इमली और वटवृक्ष के साथ एक पीपल का वृक्ष भी खड़ा था अन्य वृक्षों में वह ऊँचाई की दृष्टि से सबसे ज्यादा लम्बा था। उसकी लंबी-लंबी शाखाएँ ऐसी लगती मानों उसके हाथ हों। सभी शाखाओं में हरे हरे नवीन कोमल पत्ते होने से वह बड़ा शोभायमान लगता था। गाँव के ग्वाले अपने पशुओं को पानी की सुविधा होने से वृक्षों के नीचे विश्राम देते । गाँव के बालक-बालिकाएँ गोबर बीनकर पीपल के मूल के आसपास डाल देते युवा ग्वाले उस पर चढ़ कर दूर तक अपनी दृष्टि दौड़ा कर पशुओं की निगरानी करते । जब जोरों की हवा चलती और उसके पत्ते परस्पर मिलकर ताली बजा कर आवाज करते तो ऐसा जान पड़ता मानों कोई वीणा का मधुर स्वर छेड़कर वातावरण को संगीतमय बना रहा हो । तालाब और वृक्षों के कारण वह स्थान बड़ा ही रम्य बन गया था । दिन भर वहाँ चहल-पहल रहती थी । एक दिन अचानक यह चहल-पहल बन्द हो गई । पीपल के पत्ते पीले पड़ने लगे, जिससे उनका दुःख प्रकट हो रहा था । रम्य वातावरण अनयास ही भयानक हो गया । ग्वालों का तो क्या ग्रामीणों का भी वहाँ जाने का साहस नहीं होता था । एब बार अंधेरी रात में गाँव के दो-चार व्यक्ति अपने खेतों की रखवाली के लिये हाथ में लकड़ी लेकर चले। पीपल के वृक्ष के पास आते ही एक उभरती हुई डरावनी सी आकृति दृष्टिगोचर हुई । उनके पैर वहीं ठिठक गये । इतने में उस आकृति ने विकराल रूप धारण कर लिया और उनके मार्ग में आकर खड़ी हो गयी । उन व्यक्तियों ने साहस करके पूछा कौन हो तुम? हमारा रास्ता क्यों रोका? उसने कहा कि मैं इस पीपल पर रहने वाला भूत हूँ। कितने ही दिनों से मुझे भोजन नहीं मिला है। आज मेरा भाग्य अच्छा है, जो घर बैठे ही भोजन आ गया। भूत की बात सुनकर उन व्यक्तियों के रोगटे खड़े हो गये। उन्हें न आगे बढ़ने का साहस हो रहा था और न पीछे पलट कर गाँव में जाने का, फिर भी जैसे-तैसे उसकी दृष्टि बचाकर वे गाँव में आगये । सुबह सारे गाँव में बात फैल गई कि पीपल के वृक्ष पर भूत ने आकर निवास कर लिया है। कोई भी अपने बच्चों को उधर न जाने दें । फिर भी बच्चे खेलते-खेलते चले ही जाते । दिन में तो वह किसी को नहीं सताता, पर ज्यों ही सूर्यास्त होता, उसका आतंक शुरू हो जाता । भूल से यदि कोई पुरुष या औरत को खेत से आने में देरी हो जाती थी, तो वह जीवित घर नहीं पहुँचते । एक रात ग्रामवासियों ने चौपाल पर बैठकर विचार-विमर्श किया कि किसी भी तरह पीपल के भूत को वहाँ से भगाना है । यदि उसकी व्यवस्था नहीं की तो गाँव का शान्त वातावरण अशांत हो जाएगा । यदि कोई प्राणी रात में भूले भटके शौच के लिये चला जाता है तो उसको वह अपना भोजन बना लेता है । । गाँव के अनुभवी वृद्ध व्यक्तियों ने अपनी राय देते हुये बताया कि अमुक गाँव में एक जानकार रहता है उसे जाकर ले आयें वह जो माँगेगा, हम सब मिलकर देंगे, पर किसी भी तरह पीपल के भूत को भगाना है, ताकि छोटे छोटे बच्चे स्वतन्त्रता पूर्वक खेल तो सकें। वे जानकार को लेने-जाने वाले ही थे कि एकाएक पाँच साधुओं ने आकर पीपल के पास खड़े आम के वृक्ष के नीचे अपना आसन जमाया । भूत साधुओं को देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ कि पाँच दिन का भोजन तो स्वतः ही आ गया है । साधु संध्या पूजा एवं भोजन से निवृत हो गाँजे की चिलम पीकर भगवत भजन में इतने लीन हो गये कि कौन आया, कौन गया इसकी भी सुध न रही । भगवत भजन सुनने में भूत भी इतना तल्लीन होगया कि उसकी भूख ucation inter हेमेजर ज्योति के मेजर ज्योति 23 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ समाप्त हो गयी। इस तरह जब तक संत मंडल वहाँ रहा वह प्रतिदिन आकर भजन सुनता एक दिन उसका विवेक जागृत हुआ और एक रात उसने पुरुष वेष में आकर साधुओं को साष्टांग प्रणाम किया तथा बड़ी नम्रतापूर्वक उनसे प्रश्न किया-प्रभु मैं एक अपवित्र व्यक्ति हूँ, मेरा निवास पीपल के इस वृक्ष पर है में नित्य दो-चार बच्चों को अपना भोजन बना लेता हूँ । कभी भूले भटके कोई पथिक इधर आ जाये तो वह भी मेरा भोजन बन जाता है। जब आप यहाँ आये तो मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई थी कि दो-चार दिन का भोजन तो स्वतः ही आ गया है, पर प्रतिदिन आपके मुखारविन्द से प्रभु नाम को सुनकर मेरे विचारों में परिवर्तन आने लगा है। देव मुझे यह योनि क्यों मिली ? बताने की कृपा करें। उन साधुओं ने उसे उनके गुरु के पास भेज दिया । गुरुवर उसके पूर्व भव को जान चुके थे और सारा वृतान्त भी उन्होंने सुन लिया था । भूत ने गुरु के चरणों में जाकर अपना शीश रख दिया और सिसकते हुये निवेदन किया गुरुवर! बतायें, मुझे यह योनि क्यों मिली? गुरु ने तो पहले ही ज्ञान के द्वारा उसका पूर्वभव मालूम कर लिया था। फिर भी समाधिस्थ होकर चिंतन किया। तत्पश्चात् आँखें खोलकर बोले सुनो तुम पूर्वभव में बड़े क्रोधी थे। बात बात में किसी को मार देना तुम्हारे लिये आसान बात थी । एक बार तुमने क्रोध में आकर दुधारू गाय को मार दिया । उसके बच्चे दूध के लिये तरसने लगे । भूखे मरते हुये उन्होंने तुम्हें शाप देकर दमतोड़ दिया । फलस्वरूप तुम्हें यह नरक योनि प्राप्त हुई । क्रोध राक्षस के समान है क्रोधी मनुष्य कभी सुखी नहीं रहता । संत की वाणी सुनकर उसकी आँखों में आँसू आ गये । पुनः वह बोला- प्रभु, इस योनि से मुक्ति का उपाय बताइये | लोगों को सताना छोड़कर सबके साथ सद्व्यवहार करों । जिन बच्चों को तुम अपना भोजन बनाते हो, उन्हें प्यार दो, बच्चे भगवान का रूप होते हैं। गोमाता की पूजा करो। सत्कर्म से दुष्ट से दुष्ट आत्मा की भी मुक्ति हो जाती है । इतना कहकर गुरु महाराज समाधि में लीन हो गये । संत प्रवर के बताये मार्ग को अपना कर भूत को भूत योनि से मुक्ति मिल गई । 3 करनी का फल एक समय दो मित्र धन कमाने की इच्छा से अन्य नगर में गये। दोनों में घनिष्ठ मित्रता थी और प्रेम के साथ रहते थे । दोनों ने खूब धन कमाया । दोनों ने परस्पर विचार किया धन कमाने की इच्छा लेकर हम दोनों घर से निकले थे । यह इच्छा पूरी हो गई है। अब लौट कर अपने घर चलना चाहिये और बाल बच्चों की देख-रेख करनी चाहिये । इस प्रकार विचार कर दोनों ने अपनी पूंजी से जवाहारात खरीदे और एक ऊँट खरीदकर अपने नगर की ओर प्रस्थान किया । होनहार बलवान होती है । मार्ग में उनमें से एक की बुद्धि बिगड़ गई । उसने सोचा-नगर में कोई धनवान नहीं हैं। अतः हम दोनों लखपति कहलायेंगे। दोनों के पास बराबर धन है, अतः दोनों का एक जैसा मान सम्मान होगा ऐसा होने पर मेरी क्या विशेषता रहेगी? यदि मैं अपने साथी को मार डालूँ तो इसका धन भी मुझे मिल जाएगा और नगर में मैं अकेला ही लखपति होने की प्रतिष्ठा भी प्राप्त कर लूँगा । ऐसा दुष्ट विचार आने पर उसने अपने साथी से कहा - भाई मुझे तो प्यास लगी है पानी चाहिये । दूसरे ने कहा यहाँ चोरों का ठिकाना है । इस स्थान को शीघ्र ही लाँघ जाने में कल्याण है । चले चलो, आगे पानी पी लेना । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 24 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति sanely Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ किन्तु कपटी ने कहा – मेरा जी मचला जा रहा है । मैं यहीं पानी पीऊँगा । प्यास अब नहीं सही जाती। विवश होकर ऊँट को रोकना पड़ा । व्यक्ति जलाशय के पास गया और पानी पी आया । आकर कहने लगा मेराजी घबरा रहा है । थोड़ी देर आराम करके फिर आगे चलेंगे । यह कहकर वह लेट गया और झूठ मूठ ही खर्राटे लेने लगा। उसे सोता देख दूसरा भी सो गया और उसे भी नींद आ गई । उसे गहरी नींद में देख कपटी उठा और छुरा लेकर उसकी छाती पर सवार हो गया । ___ज्यों ही छाती पर वह सवार हुआ कि उसकी निद्रा भंग हो गई । उसने कपटी से कहा -अरे भाई, करता क्या है? उसे कपटी का आशय समझने में देर नहीं लगी । अतएव वह बोला - भाई, मेरी सारी पूँजी ले ले, पर प्राण मत ले। कपटी ने कहा – नहीं, मैं कतई नहीं छोडूंगा, कत्ल ही करूँगा । उसके हाथ में छुरा था, विवश होकर उसने कहा – अच्छा ! कत्ल किये बिना नहीं मानता तो तेरी इच्छा, मगर मेरी पत्नी से चार अक्षर का संदेश कह देना। कपटी-याद रहा तो कह दूँगा । बता दे चार अक्षर ! उसने कहा - बस यही चार अक्षर - 'बारूघोला' इसके पश्चात् कपटी ने अपने साथी की छाती में छुरा धोंप दिया और मृत शरीर को उठाकर कुएँ में फेंक दिया । अब वह निश्चिन्त होकर अपने नगर की ओर चल दिया । जब वह नगर में पहुँचा तो नगर निवासियों को अतिप्रसन्नता हुई। थोड़े दिन पश्चात् उसके साथी की पत्नी अपने बाल बच्चों सहित आई । उसने तीव्र उत्कंठा से पूछा - आप दोनों साथ गये थे, फिर अकेले कैसे आये? आपके साथी कहाँ रह गये? कपटी-क्या कहूँ । हम दोनों ने व्यापार किया, पर उसे हर बार घाटा ही घाटा हुआ । घाटे से घबरा कर वह एक बार अफीम खाकर मरने लगा, तो मैंने पाँच सौ रुपये दिये । उसने व्यापार किया फिर घाटा हुआ । इस अर्थ चिन्ता में उसकी छाती दुःखने लगी । सर्दी बैठ गई । ठंडे पानी से स्नान कर लिया तो निमोनिया हो गया। मैंने भर सक उपचार कराया, पर कोई दवा कामयाब नहीं हुई । साथी की पत्नी ने विचार किया, रोना तो जीवन भर है ही, पूछ तो लूँ कि अन्तिम समय कुछ कह गए या नहीं? औरत के प्रश्न करने पर कपटी बोला – हाँ चार अक्षर कह गये हैं - "बा - रू - घो - ला ।" औरत ने कागज के एक टुकड़े पर चारों अक्षर लिखवा लिये । टुकड़ा लेकर वह सीधे महल में पहुँची । रानी के पास जाकर कर फूट-फूट कर रोने लगी। मुँह से शब्द न निकल सके । रानी जी दयालु थी । उन्होंने उसे सांत्वना देकर समझाया और रोने का कारण पूछा । तब उसने कहा मेरे पास कागज का एक टुकड़ा है । इसमें चार अक्षर लिखें है । इसका अर्थ पूछना चाहती हूँ। रानी ने पर्चा हाथ में ले लिया, पर उनकी समझ में कुछ नहीं आया । तब उन्होंने वह पर्चा राजा को दे दिया । राजा उस पर्चे को देखकर बोला - मेरे राज्य में बड़े बड़े पंडित हैं | आसानी से इसका अर्थ निकाल कर बता देंगे। राजा वह पर्चा लेकर राज्य सभा में आया । सब पंडितों को बुलवाकर बोला - तीन दिन के भीतर इसका सही सही अर्थ बतलाना अन्यथा तुम्हारी जागीरें जप्त कर तुम्हें कोल्हूं में पिलवा दिया जाएगा। उन पंडितों में एक पंडित कम पढ़ा लिखा था । किसी तरह वह वहाँ से भाग निकला और जंगली पशुओं के डर से एक वृक्ष पर चढ़ गया । थोड़ी देर बाद उस वृक्ष पर एक राक्षस प्रकट हुआ और दूसरा सामने के वृक्ष से प्रकट हुआ । दोनों आपस में बातचीत करने लगे । एक राक्षस बोला – कल पास के नगर में पंडित लोग कोल्हू में पेले जायेंगे । हम लोग भी तमाशा देखने चलेंगे। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 25 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति www.jamelibrary Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ दूसरे ने पूछा – क्यों क्या बात है? पंडित लोग बारूघोला का अर्थ नहीं बता सके । पहले ने पछा - तम्हें आता है। हाँ आता है । दसरे ने कहा । तब बताओ - बा – बालचन्द को रू - रूपचन्द ने घो - घोर नींद में सोते समय ला - लाख रुपयों के लिये मार डाला । वृक्ष पर बैठा हुआ पंडित अर्थ सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ । प्रातः होते ही वह सीधा राजा के सम्मुख उपस्थित हुआ। जब किसी पंडित को अर्थ नहीं आया तो उसने उसका अर्थ बता दिया । जाँच के पश्चात् रूपचन्द को बुलवाया गया । सख्ती से पूछताछ करने पर उसने सारी सत्यता कह दी । राजा ने उसे मृत्यु दण्ड की सजा देकर उसकी संपूर्ण सम्पत्ति जप्त कर बालचन्द की विधवा को दे दी । पश्चाताप एक समय की बात है कि कोई राजा किसी समय शिकार खेलने के लिये चल पड़ा । जब वह बियावान जंगल में पहुँचा तो मार्ग भूल जाने से घबराने लगा । गर्मी का मौसम था । गर्मी तेज पड़ रही थी । आसपास कोई तालाब भी नहीं दिखाई देने के कारण राजा का गला प्यास के मारे सूखने लगा । वह दुःखी हो कर एक वृक्ष की छाया में आकर बैठ गया। उस बीहड़ वन में कोई मनुष्य भी आता जाता हुआ दृष्टिगोचर नहीं होने के कारण राजा का भय और भी बढ़ता जा रहा था । अकस्मात भाग्यवशात एक व्यक्ति उधर से आ निकला । उसने राजा के पास आकर उसकी परेशानी का कारण पूछा। राजा ने सारी घटना कह सुनाई, तब उस व्यक्ति ने मानवता के नाते उस राजा को पानी पिलाया और नगर का मार्ग सही रूप में बता दिया । राजा ने पानी को अमृत समझ कर पिया । जब पानी पीने से राजा के शरीर में चेतना आ गई तो उस दयालु व्यक्ति का आभार माना और एहसान भरे शब्दों में कहा कि तुमने मुझे ऐसे विकट समय में प्राणदान दिया है, जिसे मैं जीवन पर्यन्त नहीं भूल सकता । मैं निकटवर्ती नगर का राजा हूँ । मैं तो उम्र भर राज करूँगा ही, परन्तु मैं तेरी असीम सेवा के बदले तुझे एक पत्र लिखकर देता हूँ । आवश्यकता पड़ने पर तेरे काम आएगा। राजा ने पत्र में लिख दिया कि जब कभी तू मेरे पास आएगा तो तुझे दो पहर का राज्य दे दिया जाएगा । राजा उसे पत्र देकर अपने नगर को चला गया । वह व्यक्ति भी खुश होता हुआ अपने गाँव में गया और जो कोई भी उसे रास्ते में मिला उसे राजा के द्वारा लिखा गया पत्र बताते हुये अपने घर पहुँचा । जब वह अपने घर पहुंचा तो उसकी पत्नी ने उससे देरी से आने का कारण पूछा । उसने अपनी पत्नी को राजा के द्वारा दिया हुआ पत्र बताते हुये कहा कि भाग्यवान आज मैं बड़ा भाग्शाली हूँ । आज मेरे थोड़ा-सा उपकार करने के बदले राजा ने मुझे दो पहर राज करने का पत्र लिखकर दे दिया है । अब हमारे ये गरीबी के दिन नहीं रहेंगे । मैं केवल दो पहर का राजा बनकर जीवन भर सुखी बन जाऊँगा। पत्नी ने कहा - जब तुम राजा बनोगे तब देखा जाएगा । अभी से इतने खुशी के क्यों गीत गा रहे हो । पहले खाने-पीने की व्यवस्था तो करो । इतनी बात सुनते ही वह व्यक्ति बाजार में गया और कई दुकानों में आवश्यक वस्तुएँ खरीद लाया । पत्नी भी इतनी वस्तुएँ देखकर मन में बड़ी प्रसन्न हुई । दोनों पति पत्नी ने आनन्द पूर्वक विभिन्न प्रकार के व्यंजन बना कर खाए। कुछ दिन व्यतीत होने के बाद जब सभी दुकानदारों के तकाजे आने लगे तो उसकी पत्नी ने कहा कि अब राजा के पास जाकर दो पहर का राज्य लेने का समय आ गया है । इसलिये तुम राजा के पास जाओ और राज्य प्राप्त कर विपुल धनराशि लेकर आओ ताकि भविष्य में सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकें । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 26 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. श्री राष्टसंत शिरमणि अभिनंदन गंथ वह व्यक्ति पत्र लेकर राज्यसभा में पहुँचा । राजा को उसने पत्र प्रस्तुत किया । राजा ने उस पत्र को पढते ही उसे दो पहर का राजा घोषित करके राजसिंहासन पर बैठा दिया । राजा ने उसके द्वारा की गई सेवा की सबके सामने भूरि-भूरि प्रशंसा की । जब वह राजा के रूप में राज्य सिंहासन पर बैठ गया तो राजा अपने महल में चला गया । उस नवीन बने हुये राजा को सभी राज्य कर्मचारियों ने खड़े होकर अभिवादन किया । उसने सबसे पहले दीवान से पूछा कि तुम्हें क्या वेतन मिलता है? दीवान ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया - अन्नदाता ! मुझे बहुत कम वेतन मिलता है । यह सुनते ही राजा ने कहा कि इतना वेतन तो तुम्हारे कार्य को देखते हुये बहुत अधिक है । और तुम कहते हो कि मुझे बहुत कम वेतन मिलता है । अतएव आज से तुम्हारे वेतन में से सौ रुपये कम किये जाते हैं । इस प्रकार कोतवाल, सिपाही आदि सभी राज्य कर्मचारियों के वेतन में से कटौती करके सबको नाराज कर दिया । इतने में ही गाँव के सभी दुकानदार व्यक्ति भी अवसर का लाभ उठाने की दृष्टि से राज्य सभा में उपस्थित हो गए। उन्होंने सोचा कि आज राजा हम सब दुकानदानों को मालामल कर देगा । परन्तु जब उन्होंने अपने-अपने बिल राजा की सेवा में प्रस्तुत किये तो नवीन राजा ने आदेश दिया कि आप सब अभी यहीं बैठो । मैं भोजन करने के बाद सबके बिलों पर गौर करूँगा । राजा भोजन करने के लिये अलग कमरे में चला गया । राजा भोजन सामग्री देखकर, उसके मुँह में पानी आ गया। उसने स्वप्न में भी इन चीजों के दर्शन नहीं किये थे । वह भोजन करने में इतना तल्लीन हो गया कि अपने समय का भी ध्यान नहीं रख सका और एक-एक चीज का स्वाद लेकर खाने लगा । खा पी चुकने के बाद वह फिर राज्य सभा में पहुँचा। जब उसका ध्यान समय की ओर गया तो वह बड़े ही असमंजस में पड़ गया । अतः सभा बर्खास्त करके वह सीधा खजाने की ओर पहुँचा । खजांची अपने घर गया हुआ था । राजा ने नौकर को उसे बुलाने के लिये घर भेजा । खजांची आया और उसने ज्यों ही खजाने का ताला खोला कि दो पहर समाप्त हो जाने की घंटी बज उठी । निराश होकर सबके द्वारा तिरस्कृत होते हुय खाली हाथ लौटना पड़ा । वह अपने मन में पश्चाताप करने लगा कि दो पहर के राज्य से भी मैं लाभ नहीं उठा सका और निर्धनता भी दूर नहीं कर सका । लालच का फल एक लकड़हारा प्रतिदिन लकड़ियां काटने के लिये जंगल में जाया करता था । दिन भर वह लकड़ी काटता और सांयकाल के समय जब भारी बोझ लेकर लौटता तो उसे दो चार आने उन्हें बेच कर प्राप्त होते थे । परिवार में पत्नी और छोटे-छोटे बच्चे थे । अतः उन इन गिने पैसों से सबकी उदरपूर्ति होना कठिन हो जाता था और इसी कारण लकड़हारा काफी दुःखी रहता था । लकड़हारा जिस मार्ग से प्रतिदिन जाता था उसी मार्ग पर एक वृक्ष के नीचे एक संत तपस्या करते थे । वे उस दुःखी लकड़हारे को प्रतिदिन उधर से जाते हुये तथा दिन भर के परिश्रम स्वरूप एक गट्ठा लकड़ी को लाते हुयें देखा करते थे। एक दिन उनहोंने लकड़हारे से उसके विषय में पूछा- लकड़हारे ने अपना पूर्ण दुःखद वृतान्त उन्हें बताया । संत को दया आई और उन्होंने यह सोच कर कि दो-चार आने से इसका परिवार सदा भूखा रह जाता है, उन्होंने लकड़हारे की हथेली पर एक अंक लिख दिया और कहा - "आज से तुम्हें प्रतिदिन एक रुपया अपनी लकड़ी का मूल्य मिल जाया करेगा।" लकड़हारा बड़ा प्रसन्न हुआ और खुशी के मारे दौडता हुआ ही अपने घर लौटता और अपनी पत्नी से उसने समस्त घटना कह सुनाई । पत्नी बड़ी चतुर थी बोली - अरे ! जब संत ने दया करके तुम्हारी हथेली पर एक का अंक लिखा था तो तुमने उस पर एक बिन्दी क्यों न लगवाली? क्या तुम्हें इतना भी नहीं सूझा?" हेमेन्द्र ज्योति * हेगेन्द्र ज्योति 27 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ बेचारा लकड़हारा पत्नी की बात सुनकर अपनी भूल पर दुःखी हुआ और बोला - "भाग्यवान! अभी इस एक के अंक की परीक्षा तो हो जाने दे । यदि यह सचमुच ही मुझे एक रुपया प्रतिदिन दिलाएगा तो बाद में देख लूँगा । संत मेरे मार्ग में ही रहते हैं ।" इस घटना के बाद दो चार दिन निकल गये और प्रतिदिन लकड़हारे को अपनी लकड़ी का एक रुपया प्रतिदिन मिलने लगा । यह देखकर तो लकड़हारा लालच में आ गया और उसने एक दिन पुनः जाकर संत से कहा - "महाराज! आपकी कृपा से मुझे अब एक रुपया प्रतिदिन मिल जाता है और किसी तरह मैं बाल-बच्चों सहित पेट भर लेता हूँ । किन्तु हम में से किसी के तन पर पूरे वस्त्र नहीं है तथा शीत ऋतु आ रही हैं, अतः आप मेरी हथेली पर एक अंक के आगे एक बिन्दी और लगा दें तो हमें पहनने को वस्त्र और ओढ़ने बिछाने के लिये विस्तर मिल जायेंगे । आपकी बड़ी कृपा होगी यदि आप ऐसा कर दें ।" महात्माजी ने दया करके एक के आगे बिन्दी लगाकर वहाँ दस बना दिये । अब लकड़हारा को प्रतिदिन दस रुपये प्राप्त होने लग गये । पर लकड़हारे और उसकी पत्नी का लोभ बढ़ता ही गया । लोभ के वशीभूत होकर लकड़हारा कई बार महात्माजी के पास पहुँचा तथा सुन्दर मकान तथा पत्नी के लिये आभूषण आदि की आवश्यकताएं बताकर एक के अंक पर कई बिन्दियां लगवाता चला गया । परिणाम यह हुआ कि वह अपने नगर का धनाढ्य बन गया और अत्यन्त विलासिता पूर्वक सुख से जीवन व्यतीत करने लगा । अतुल वैभव प्राप्त करके भी लकड़हारे को संतोष नहीं हुआ और वह फिर एक दिन संत के पास जा पहुँचा । सन्त उसे देखकर चकित हये और बोले - "भाई ! अब तो तुम इतने बड़े सेठ होगये हो, अपार दौलत तुम्हारे पास है अब क्या चाहते हो?" वह बोला - "भगवन् ! आपकी कृपा जब मेरे ऊपर हो गई है तो एक छोटा-मोटा राज्य भी मिल जाए तो क्या बड़ी बात है? इतनी कृपा और हो जाए आपकी तो जीवन पर्यन्त आपका एहसान नहीं भूलूँगा ।" _संत उसकी बात सुनकर बड़े चकित हुए और मन में क्रोध आया, सोचने लगे – “इस व्यक्ति को मैंने एक लकड़हारे से इतना बड़ा सेठ बना दिया तब भी इसकी तृष्णा समाप्त नहीं हुई?" सन्त ने उसका हाथ पकड़कर हथेली पर अंकित सभी अंक मिटा दिये । लालच के कारण वह पुनः पूर्व की स्थिति में आ गया । भाग्य का चक्कर एक सेठ था उसके पास अपार सम्पत्ति थी । सम्पत्ति के मद में वह आय से ज्यादा धन खर्च करने लगा । परिणाम यह हुआ कि वह थोड़े ही दिनों में ऋणी हो गया । ऋण चुकाने के लिये उसने मकान भी बेच दिया । वह दर-दर की ठोकरे खाता हुआ एक रात घर से निकल पड़ा । वह नंगे पैर था और माथे पर टोपी या पगडी भी नहीं थी। राह चलते चलते वह थक कर चूर हो गया । भूख के मारे चक्कर आने लगे । जैसे-तैसे वह बहिन के घर जा पहुंचा। जब द्वार पर पहुँचा तो दासी ने भीतर जाकर सूचना दी मालकिन आपके भाई आए हैं । बहिन बाहर आई और ज्यों ही उसने अपने भाई की दयनीय दशा देखी तो उसे ध्यान आया इसे भाई कहने से मेरा अपमान होगा । यह सोच कर उसने सहसा कह दिया - "मेरे तो कोई भाई नहीं है ।" बहिन ने अपमान के साथ उसे निकाल दिया । उसकी आशा पर तुषारापात हो गया । जब वह अपनी बहिन के घर से तिरस्कृत होकर निकला तो उसके हृदय पर गहरा आघात लगा । उसने सोचा अन्यत्र कहीं जाकर ठोकरे खाने की अपेक्षा इस अभिशप्त जीवन का अन्त कर देना ही अच्छा है । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द ज्योति 28 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्च ज्योति SUE OS Forg Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MA श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था वह थका हुआ था और भूख के कारण पेट की आंते कुड़मुड़ा रही थी तथा निराशा और खेद का उसके मन पर गहरा प्रभाव था । वह उसी समय वहाँ से चल दिया और नगर के बाहर आ गया । वहाँ एक सरकारी बगीचे में वृक्ष की छाया में बैठ गया और अपने भाग्य को कोसने लगा । पर पेट में चूहे दौड़ रहे थे । पास में फूटी कोढ़ी भी नहीं थी कि चने लेकर खा ले । अकस्मात उसकी दृष्टि एक बेर के वृक्ष की ओर आकर्षित हुई । उसमें पके हये बहुत से बेर के फल लगे थे । वह उठा और उसने बेर गिराने के लिये पत्थर फेंका तो कुछ दूरी पर बैठे हये राजा को जा लगा । राजा आराम से बैठा हुआ वायु सेवन कर रहा था । सेठ को यह पता नहीं था । पत्थर लगते ही रंग में भंग हो गया । नौकर चाकर यह देखने के लिये दौड़े कि महाराज को पत्थर मारने वाला कौन है? राजा के नौकरों ने सेठ को पकड़ कर राजा के सामने उपस्थित कर कहा- अन्नदाता! इस परदेशी ने पत्थर फेंका था । राजा की दृष्टि पड़ते ही वह सेठ थर-थर काँपने लगा । राजा ने पूछा - परदेशी ! तुमने मेरे ऊपर पत्थर क्यों फेंका? सेठ ने कहा - अन्नदाता! मेरी बात ध्यान से सुन लीजिए और फिर जो इच्छा हो दण्ड दे दीजिये । राजा ने उसे अपनी बात कहने की स्वीकृति दे दी और सेठ ने आदि से अन्त तक की कहानी सुनाकर कहा - अन्नदाता ! मैंने आपको लक्ष्य करके पत्थर नहीं मारा था । आप यहाँ हैं, यह भी मुझे ज्ञात नहीं था । ऐसी शरारत करने का कोई प्रयोजन भी नहीं था । यह मेरी सत्यता है | अब महाराज श्री की जो इच्छा हो वही करें । सेठ की बात सुनकर राजा के हृदय में सहानुभूति जाग्रत हुई । उसने मन ही मन विचार किया - इसका फेंका हुआ पत्थर यदि वृक्ष को लगा होता तो इसे फलों की प्राप्ति होती और इसकी भूख मिट जाती मगर वृक्ष के बदले पत्थर मुझे लगा है । मैं राजा हूँ, क्या वृक्ष से गया बीता सिद्ध होऊँ इसे दण्ड दूं? नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिये, इसने जान बूझ कर तो मुझे मारा नहीं अचानक मेरे ऊपर आ गिरा है, इसे अच्छा ही फल मिलना चाहिये । इस प्रकार सोचकर राजा ने उससे कहा - अच्छा परदेशी मैं समझ गया कि तुम निर्दोष हो और तुम्हारी स्थिति अत्यन्त दयनीय हैं । जाओ मैं तुम्हें दस हजार रुपये देता हूँ । इनसे अपनी आजीविका चलाना और आराम से रहना । सेठ पुरस्कार की राशि लेकर जब पुनः नगर में आया और यह घटना जब उसके बहिन बहनोई को मालूम हुई तो वे उसके पास आए और बोले - वाह! आप जरासी बात पर नाराज होकर घर से चले आए ऐसा भी कभी होता है? आपको घर चलना ही पड़ेगा, वह घर आपका ही तो है । बहिन और बहनोई के आग्रह को वह टाल न सका । उनके घर गया, उसे स्नान करवाया गया, बढ़िया वस्त्र पहनने को दिये गये और उत्तम भोजन करवाया गया । पर सेठ के कलेजे में बहिन के व्यवहार से जो आघात लगा था, वह ठीक न हो पाया, सेठ सोचने लगा - यह सत्कार मेरा नहीं, सम्पदा का है । स्वार्थी संसार में मनुष्य का नहीं, सम्पत्ति का मूल्य हैं । मैं वही का वही हूँ मुझमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, किन्तु इन रुपयों ने कितना परिवर्तन कर दिया । आशय यह है कि पुण्य का उदय होने पर शत्रु भी मित्र बन जाता है । ॐ पुण्य का खेल किसी नगर में एक सेठ रहता था । उसके एक ही लडका था, पर वह पुण्यशाली था । पन्द्रह बीस वर्ष की आयु तक कभी उसका सिर भी नहीं दुःखा । लड़का अपनी दुकान पर बैठा हुआ सोचा करता दुनिया के कितने ही लोग मेरी दुकान पर आकर बैठते हैं । कोई कान का दर्द बतलाता है, कोई सिर दर्द का रोना रोता है तो कोई पेट की कहानी सुनाता है । पर मुझे तो अपने जीवन में किसी भी बीमारी का मुंह नहीं देखना पड़ा । देखना चाहिये कि रोग की पीड़ा का स्वाद कैसा होता है? लड़के ने अपने मुनीम से कहा मुनीमजी ! ऐसा कोई उपाय बताओ कि मुझे भी कोई दुःख उत्पन्न हो । मुनीम ने कहा - बाबू साहब ! आप को दुःख देखने की इच्छा क्यों हुई? आप तो पुण्य लेकर आए हैं, इसलिये सुख का आनन्द लीजिए । हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 29 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति ducation Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ पाने का लड़का बोला - देखो मुनीमजी, आप वेतन पाते हैं, तो आपको मेरी बात माननी ही पड़ेगी । मुझे दुःख उपाय बताना ही पड़ेगा । विवश हो मुनीम ने कहा | कुछ दिन पश्चात् विशेष त्योहार आया और इस अवसर पर राजा की शोभा यात्रा निकली, नगर के हजारों नर-नारी शोभा यात्रा का दृश्य देखने के लिये उमड़ पड़े सेठ का लड़का और मुनीम अपनी दुकान से ही यात्रा का दृश्य देख रहे थे । सहसा मुनीम को लडके की बात याद आ गई । उसने कहा बाबू साहब ! क्या वास्तव में ही आपकी इच्छा दुःख का स्वाद लेने की है? अवसर आने पर दुःख का उपाय बता दूंगा । आप निश्चित रहिये । । लड़के ने कहा- क्या झूठ कहता हूँ। मैं वास्तव में दुःख देखना चाहता हूँ । नहीं जी, इच्छित वस्तु की प्राप्ति होती है तो तुम्हें दोष क्यों दूंगा ? मुनीम ने कहा मुनीम बोला तो देखिए, राजा की शोभा यात्रा आ रही है। उन्हें पीने के लिये शरबत का गिलास दिया जा रहा है। आप दूसरा गिलास हाथ में लेकर ऐसा निशाना साधकर मारो कि आपका गिलास उस गिलास से टकरा जाए और वह गिलास राजा के हाथ से छूट कर गिर जाए ऐसा होने पर रक्षक आपको पकड़ लेंगे और आपकी इच्छा पूरी हो जायेगी। लड़का तो दुःख चाहता ही था, उसने मुनीम के कहे अनुसार ही गिलास को फेंका और राजा के हाथ का गिलास टकरा कर नीचे गिर गया । शोभा यात्रा में भगदड़ मच गई । सब उसी ओर देखने लगे जिस ओर से गिलास आया था । रक्षक दौड़े और उसे पकड़ लिया। वे उसे राजा के पास ले गए, बोले- महाराज! इस नासमझ लड़के ने आपके ऊपर गिलास फेंका है। राजा यद्यपि राज पथ से जा रहा था, तो भी जिस स्थान पर गिलास फेंका गया, उस स्थान पर मार्ग के एक ओर कोई भवन था । उसकी छत में एक खुले मुँह का सर्प था। जिसके मुँह से विष की बूँदे टपक रही थी । यह देखकर राजा ने कहा- सिपाहियो ! इसे क्यों पकड़ कर लाए हो? इसने गिलास फेंक कर मेरे प्राणों की रक्षा की है । यदि यह गिलास न फेंकता और मैं शरबत पी लेता तो बेमौत मर जाता । वास्तव में यह लड़का मेरा प्राण रक्षक है। राजा ने धन्यवाद दिया और पुरस्कार देकर लड़के को छुड़वा दिया। लड़का मुनीम के पास पहुँचा और बोला -मुनीमजी ! आपने दुःख प्राप्त करने का अच्छा उपाय नहीं बतलाया । मुनीम ने कहा अच्छा पुनः अवसर आने दीजिए, दूसरा कोई उपाय बतलाऊँगा । कुछ दिन पश्चात् की घटना है। राजा महल के में बैठे थे । मुनीम लड़के को लेकर वहां गया और बोला टोक उनके पास जा सकते हो । वहाँ चले जाओ जाते ही तुम्हें दुःख प्राप्त हो जाएगा । cain Education Ional झरोखे में बैठा था। दूसरे सैकड़ों व्यक्ति महाराज की सेवा राजा साहब! तुम्हारे ऊपर प्रसन्न है। तुम बिना रोक राजा को धक्का देकर नीचे गिरा देना । ऐसा करने से • । लड़का भीड़ में से होता हुआ राजा के पास पहुँच गया। उसने आव देखा न ताव और अचानक राजा को हाथ से खींचकर और धक्का देकर नीचे गिरा दिया। राजा के नीचे गिरते ही वह झरोखा भी उसी समय गिर पड़ा । जब सिपाही पकड़कर उसे राजा के पास ले गए तो राजा ने कहा- यह लड़का तो बड़ा ज्ञानी है। यदि यह हाथ से खींचकर मुझे न गिराता तो में गवाक्ष के नीचे दबकर मर जाता, क्योंकि गवाक्ष तो गिरनेवाला ही था । इसने सही अवसर पर आकर मेरे प्राण बचा लिये । इसके इस कार्य से मैं बहुत प्रसन्न हूँ । I राजा ने उसे पुनः पुरस्कृत किया और आदर के साथ घर के लिये विदा किया । हेमे ज्योति ज्योति 30 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Mainelary.df Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन चोरी की आदत गोविन्द कक्षा पांचवीं का छात्र था । उसके माता-पिता अत्यन्त गरीब थे । सुबह से दोनों मजदूरी करने जाते तो शाम को ही लौटते इस बीच गोविन्द स्कूल में रहता । उसके पास पढ़ने के लिये पुस्तकें नहीं थी । इस कारण प्रतिदिन अध्यापक सब छात्रों के सामने उसे डाँटकर अपमानित करते, जिससे उसके बालमन पर गहरा आघात लगता । पर करता क्या? घर की स्थति उससे छिपी नहीं थी । माता-पिता को जो मजदूरी मिलती वह सुबह शाम के खाने पर ही खर्च हो जाती । एक पैसा नहीं बचता क्योंकि छः प्राणियों का परिवार था । चार भाई-बहिनों में गोविन्द सबसे बड़ा था। ग्रंथ एक दिन गोविन्द ने रात्रि में बिस्तर पर लेटे लेटे विचार किया कि मेरे माता-पिता मेरा व अन्य छोटे भाई-बहिनों का पेट भरने के लिये मेहनत मजदूरी करते हैं। मजदूरी भी कभी मिलती, कभी नहीं भी मिलती क्यों न मैं अध्यापक जी की डाँट व अपमान से बचने के लिये दोपहर की छुट्टी में एक दो छात्रों की कॉपी, किताबें पार कर दूँ। 1 इस विचार को मूर्त रूप देने के लिये वह दूसरे दिन से ही सतर्क हो कर स्कूल गया । दोपहर की छुट्टी में सब छात्र बस्ते कक्षा में छोड़कर चल दिये। सबके बाद गोविन्द निकला। उसने जो किताबें कापियां खुली पड़ी थी, छात्रों की नजर बचा कर अपने बस्ते में रखकर घर ले गया । दोपहर की छुट्टी समाप्त होने के पश्चात् जब सभी छात्र कक्षा में आए, गोविन्द भी आया जिन छात्रों की पुस्तकें और गृहकार्य की कापियां चोरी गई थी। उन्होंने अध्यापक जी से शिकायत की। अध्यापकजी ने सभी छात्रों से पूछा पर किसी ने चोरी करना या बस्ते में से निकालना स्वीकार नहीं किया। अन्त में सबके वस्तों की तलाशी ली गई, किसी के बस्ते में नहीं मिली । छात्रों ने अध्यपापक जी से कहा सर ! गोविन्द सबके पीछे था, हो न हो इसी ने चोरी की है । गोविन्द अन्य छात्रों से हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ था, कितनी ही बार शाला द्वारा आयोजित कुश्ती प्रतियोगिता में उसने पुरस्कार जीते थे । ग्रामवासी उसे गांव की नाक समझते थे । जब छात्रों ने गोविन्द के ऊपर चोरी का आरोप लगाया तो उसने घूर कर उन छात्रों की ओर देखा जिसने उसका नाम लिया था । गोविन्द ने कड़कदार आवाज में कहा सोच समझकर मेरे ऊपर चोरी का आरोप लगाना, वरना स्कूल आना भूल जाओगे । रोबीली आवाज सुनकर वे छात्र बगलें झांकने लगे। धीरे-धीरे गोविन्द का प्रभाव देखकर दो चार छात्र उसके साथ हो गये । शाम के समय जब उसके माता-पिता मजदूरी से आए तो उन छात्रों ने जाकर गोविन्द की शिकायत कर कहा गोविन्द ने हमारी कॉपी किताबें चुरा ली। क्योंकि दोपहर की छुट्टी के समय वह सब छात्रों के पीछे था। हमने उससे कहा तो हमें आँखें बता कर डराने लगा । माता-पिता ने उसे बुलाकर पूछा तो स्पष्ट इंकार कर दिया । और कहा हमारा घर छोटा सा है यदि तुम्हें विश्वास न हो तो घर में आकर ढूँढ लो। घर का कोना-कोना छान मारा पर कापी किताबें नहीं मिली । छात्र छोटा-सा मुँह लेकर चले गये । अब वह समय पर गृहकार्य करने लगा, अभ्यास करता और अनुशासन में रहता । अध्यापकजी जितने उससे नाराज थे उतने ही उसकी प्रशंसा करने लगे । वार्षिक परीक्षा सम्पन्न हो गई, परिणाम आया तो पूरी कक्षा में वह प्रथम आया । पर उसकी चोरी की प्रवृत्ति छूटी नहीं । धीरे-धीरे उसने अपना एक दल बना लिया, जिसमें गाँव के अतिरिक्त आसपास के गाँवों के व्यक्ति भी सम्मिलित थे। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 31 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ इस दल का मुखिया गोविन्द था, जो वह कहता सदस्य वही करते । प्रारंभ में इस दल ने आसपास के गाँवों में चोरियाँ करना शुरु किया । लोगों ने पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराई पर परिणाम कुछ नहीं निकला । जिन लोगों ने उसके विरूद्ध शिकायत दर्ज कराई थी, उन्हें खाने-पीने से मोहताज कर दिया गया । एक दिन इस दल ने सलाह मशविरा कर पास के नगर के सबसे घनाढय सेठ, जो हीरे जवाहारात का व्यापार करता था, उसके यहाँ चोरी करने की सोची । भेद लेने के लिये दल के दो व्यक्ति ग्राहक बनकर उसकी दुकान पर गये । सेठ उस दिन किसी काम से बाहर गया हुआ था । उसकी जगह उसका लड़का बैठा था, साथ में मुनीम भी था । उसके निर्देशन पर ही वह ग्राहकों को हीरे व जवाहरात विक्रय करता था । दल के दोनों सदस्यों ने मुनीम से कहकर कीमती हीरे निकलवाए, उनका मूल्य पूछकर वे हीरे ले लिये और उनका मूल्य भुगतान कर दिया । थोड़ी देर मुनीम से इधर-उधर की बातें कर भवन के विषय में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करली । दस दिन के अन्तराल के बाद कृष्ण पक्ष की आधी रात को भवन के पीछे बने द्वार को खोलकर भीतर प्रवेश कर गये। उस समय भवन में मां-बेटे के अतिरिक्त कोई नहीं था । नौकर छुट्टी पर गया हुआ था । चुपचाप कमरे में जाकर सेठ पुत्र को जगाकर पकड़ कर उससे खजाने की चाबियां मांगी । दो चोर सेठ पत्नी के कमरे में जाकर उसके हाथ पाँव बाँध दिये और मुँह में कपड़ा ठूस दिया जिससे वह चिल्ला न सके । सेठ पुत्र ने आनाकानी की तो उसे बुरी तरह मारा पीटा । विवश होकर उसने चाबियां दे दी और साथ में जाकर वह कमरा भी बता दिया जिसमें जीवनभर की कमाई रखी हुई थी। उसके भी हाथ पैर बाँधकर मुँह में कपड़ा लूंस दिया । सेठ की कमाई पर हाथ साफ करके चोर चम्पत हो गये । सुबह हुई मुनीम ने आकर घर की दशा देखी तो दंग रह गया । तत्पश्चात् मां-बेटे के बन्धन खोलकर मुक्त किया लड़के ने मुनीम के साथ जाकर अज्ञात व्यक्तियों के विरूद्ध पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई। पुलिस ने चोरों को पकड़ने के लिये कोई कसर नहीं छोड़ी, खोजी कुत्ता भी छोड़ा गया पर कोई परिणाम नहीं ने केस फाइल कर दिया । फिर भी इतनी बड़ी चोरी होने पर उसकी नींद हराम हो गई थी। उसने मुखविर लगा रखे थे । एक दिन अचानक मुखविर ने सूचना दी कि चोरों का सरदार गोविन्द घर आया हुआ है? फिर क्या था पुलिस ने जाकर उसके घर को घेरकर गोविन्द को ललकारा । गोविन्द ने भी अपने आपको बचाने के लिये या भागने के लिये बहुत कोशिश की पर कोई परिणाम नहीं निकला । अन्त में वह गिरफ्तार कर लिया गया । उसके सभी साथी भी उसकी निशान - देही पर गिरफ्तार कर लिये । सभी घरों की तलाशी ली गई । पर चोरी का माल बरामद नहीं हुआ । चोरी का माल न मिलने एवं साक्ष्य के अभाव में न्यायाधीश ने उसे व उसके साथियों को ससम्मान बरी कर दिया । माता-पिता ने उसका विवाह कर दिया जिससे वह खेती-बाड़ी करके वृद्ध माता-पिता की सेवा एवं परिवार का पालन-पोषण करने लगा । उसे चोरी जैसे पाप कर्म से घृणा हो गई । एक बार उसके गाँव में एक सिद्ध सन्त आए और आकर मन्दिर में ठहर गये । दूसरे दिन अपने व्याख्यान में कहा कि अनीति द्वारा कमाये या चोरी किये धन को गरीबों में बाँट देना चाहिये, अथवा जिसके यहाँ चोरी की उससे हाथ जोड़ क्षमा मांग कर उसकी सम्पति वापस कर देना चोहिये । गाविन्द ने चोरी किये धन को वापस तो नहीं किया, पर वह दीन-दुखी की सेवा सहायता, अभाव ग्रस्त लोगों के अभाव को दूर करके शांति व सुख से जीवन व्यतीत करने लग गया । चारों ओर गाविन्द की प्रशंसा होने लगी । वह गरीबों का मसीहा कहलाने लगा । हेमेन्ट ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Ja 32 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति u nlods Maineliara Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ चतुर राहगीर ब्राह्मण किसी गाँव में एक ब्राह्मण रहता था । वह दोनों समय गाँव में से भिक्षा मांग कर लाता और अपनी उदरपूर्ति करता था । वह पढ़ा लिखा भी ज्यादा नहीं था । इस कारण उसे ज्योतिष का ज्ञान भी पूरी तरह नहीं था । फिर भी ग्रामवासी ब्राह्मण के नाते उसे भिक्षा देते थे । एक दिन अचानक उस गाँव में एक विद्वान ब्राह्मण आकर रहने लगा । वह ज्योतिष में पारंगत था । धीरेधीरे उसने ग्रामवासियों पर अपना प्रभाव जमा लिया । पहले वाले ब्राह्मण की रोजी रोटी बन्द हो गई । घर में जो कुछ जमा था वह भी समाप्त हो चला । नाजुक स्थिति देखकर एक दिन वह गाँव छोड़कर दूसरे गाँव को चल दिया। मार्ग में उसने भोजन बनाकर खा लेने का विचार किया । सोचा इससे विश्राम भी मिल जाएगा और मध्यान्ह का समय भी टल जाएगा । वह पास के एक गाँव में गया और दुकानदार से आटा, दाल, घी आदि भोजन सामग्री क्रय कर लाया। उसने बेर के एक वृक्ष के नीचे दाल बाटी बनाई । बाटियां सिक गई तो घी में तर करके थाली में रख दी । उसी समय एक दूसरा पथिक उधर से आ निकला । उसने ब्राह्मण देवता को देखकर मन में विचार किया चलो, इसका साथ हो जाएगा तो मार्ग अच्छा तरह कट जायेगा । वह भी उसी वट वृक्ष के नीचे बैठ गया। वह भी भूखा था और उसके पास भूख शांत करने का कोई साधन नहीं था । घी से तर बाटियों पर उसकी दृष्टि पड़ी तो मुँह में पानी आ गया । उसने विचार किया इसके पास बहुत बाटियां है । अकेला थोड़े ही खा जाएगा। कुछ तो मुझे देगा ही। इस प्रकार सोचकर उसने ब्राह्मण के हृदय को जीतने का विचार किया । इसका दिल जीत लंगा तो क बाटियां मुझे भी दे देगा । वह ब्राह्मण के पास गया और बोला - जोशीजी ! आपने बाटियां ऐसी बनाई है मानों बिना खम्बे की छतरी हो । ब्राह्मण ने अपनी बाटियों की प्रशंसा तो सुन ली पर उसका दिल नहीं पसीजा । उत्तर में ब्राह्मण ने एक शब्द भी नहीं कहा, मौन ही रहा । तब दूसरे राहगीर ने विचार किया, इसकी इतनी खुशामद की, मक्खन लगाया पर यह तो पसीजा ही नहीं। यहां मिठास से काम चलने वाला नहीं, कड़वेपन से ही काम लेना चाहिये । यह सोचकर उसने पुनः कहा । पंडितजी ! इस भोजन पर मेरी दृष्टि लग चुकी है । इसलिये यदि मुझे खिलाए बिना खा लिया तो तुम्हारे पेट में ऐसा दर्द उठेगा कि मर जाओगे। ब्राह्मण भी बड़ा पक्का था । उसने कच्ची गोलियां नहीं खाई थी । अतः उसने उत्तर दिया - हे राहगीर ! मैं तो डाकी हूँ । यदि इससे दुगुना और चौगुना भी खा जाऊँ तो भी डकार आने वाली नहीं । तू मेरी चिन्ता मत कर। इतना सुनते ही राहगीर ने सोचा इन तिलों में से तेल निकलने वाला नहीं है । मुझे यहां से चल देना चाहिये और दूसरी जगह भोजन का उपाय करना चाहिये । यह सोच कर वह वहां से चल दिया । ईमानदार सेठ एक युवक अपने घर से एक हजार रुपया लेकर धन कमाने की दृष्टि से निकला । वह अपने परिजनों से कह गया कि खूब कमाई कर लूंगा । तब आनन्द के साथ वापिस आऊँगा । यह कहकर वह चल दिया । चलते-चलते वह युवक उस देश में जा पहुँचा जहाँ बसरा खाड़ी है और जहाँ मोती उत्पन्न होते हैं । वहाँ मोती निकालने वाले गोता खोर रहते हैं । उस युवक ने वहाँ पहुँच कर गोता खोरों से कहा - अच्छा एक गोता मेरी ओर से लगाओ । मैं अपना भाग्य आज माना चाहता हूँ । सौ रुपये लेकर गोता खोर, पानी की तह में गया और मुट्टी भरकर सीप लेकर तैरता हुआ किनारे आ गया । पानी में निकल कर उसने उस युवक के सामने मुट्ठी खोली । मगर भाग्य की बात कि उनमें से एक में भी मोती' नहीं निकला। हेमेऊन ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 33 हेमेन्च ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ उस युवक ने विचार किया - सौ रुपये और लगाऊँगा । शायद इस बार भाग्य खुल जाय और कुछ मिल जाय। दूसरी बार गोता खोर ने गोता लगाया और मुट्ठी में सीपें फिर दी पर भाग्य से कुछ नहीं निकला । वह युवक निराश नहीं हुआ । उसने तीसरा गोता लगवाया, फिर भी कुछ हाथ न लगा । चौथे और पांचवें गोते में भी कोई सफलता न मिली। छठा गोता भी व्यर्थ गया । सातवाँ और आठवां गोता भी खाली गया । अन्त में उसने विचार किया कि आठ सौ रुपया समुद्र में फेंक चुका सौ और सहीं संभव है, इस बार भाग्य देवता प्रसन्न हो जाय ! यह सोचकर उसने नौंवा गोता लगवाया, वह भी खाली गया । फिर भी वह निराश नहीं हुआ | उसने सोचा घर से एक हजार रुपया लेकर चला था उसमें से एक सौ रुपये शेष रहे है कहीं यह भी चले गये तो क्या होगा? पर जब नौ सौ चले गये तो एक सौ रखकर क्या करूँगा । जो होगा देखा जायेगा । इस प्रकार निश्चय करके उसने शेष सौ रुपये भी दाव पर लगा दिये । गोताखोर सागर की असीम जलराशि में प्रविष्ठ हुआ और उसे चीरिता हुआ तल तक जा पहुँचा । इस बार उसने दूर तक टटोला बड़ा परिश्रम किया और एक जुड़ी हुई सीप लेकर ऊपर आया । बोला - यह लो भाई, अपना भाग्य आजमाओ । सीप को चीरा गया तो उसमें से एक ऐसा सुन्दर मोती निकला कि वह सर्वोत्कृष्ट जाति का प्रमाणित हुआ। उसे देखकर गोता खोर ने कहा - भाई, मुझे गोता लगाते बहुत वर्ष व्यतीत हो गये, मगर इतना बढ़िया मोती मैंने कभी निकला नहीं देखा । ज्ञात होता है कि तेरा भाग्य खुल गया । हम कहते हैं कि यह बहुत ऊँची जाति का मोती है पर ठीक से मूल्य नहीं जानते । इस पर तेरा भविष्य निर्भर है । इस मोती को किसी ईमानदार व्यक्ति को दिखलाना। किसी बेईमान व्यक्ति के हाथ पड़ गया तो वह बड़ी सफाई के साथ बदल लेगा । उस युवक के हर्ष का पार न था । वह मोती को लेकर एक बड़े नगर में पहुँचा । बाजार में चक्कर काटते-काटते उसे एक बड़ी दुकान दिखाई दी । गद्दे बिछे हुये थे उस पर एक तकिये के सहारे सेठ आराम से बैठे थे। उसने सोचा यदि यह सेठ जौहरी होगा तो मेरे मोती की परीक्षा हो जायेगी । यह विचार कर वह दुकान पर गया और दोनों हाथ जोड़ प्रणाम कर बैठ गया । सेठ के पूछने पर उसने घर से निकलने से लेकर अपनी यात्रा का पूरा वृतान्त सुनाकर मोती दिखलाया । सेठ जौहरी था । मोती को देखकर बोला- यह मोती बहुत उच्च कोटि का है । मैं दूसरे के धन को मिट्टी के समान समझता हूँ । अनीति का एक पैसा भी लेना नहीं चाहता । आप इस मोती को संभालकर रखना । शरद् पूर्णिमा के दिन इसकी परीक्षा करना । इतने दिन ठहरना तो पड़ेगा और आपका ठहरना ही उचित हैं । आप मेरे भवन में ठहर सकते हैं। भोजन भी वहीं करना ।। सेठ ने मन में सोचा - यह मोती बड़ा ही मूल्यवान है । मेरी सारी सम्पति और भवन का मूल्य भी इस मोती के बराबर नहीं । यह कैसा भाग्यशाली प्राणी है कि ऐसा बहुमूल्य मोती उसके हाथ लगा । उस जौहरी को सत्संगति के प्रभाव से विवेक प्राप्त हो गया था । इसी कारण वह उस मोती को देखकर और उसके महत्व को समझ कर भी नीति के मार्ग से नहीं गिरा । उसने मोती वाले उस युवक से कहा – भाई, इसे बड़े यत्न से संभाल कर रखना । शरद पूर्णिमा के दिन इसकी परीक्षा करना । युवक के कहने पर जौहरी ने ही उस मोती को संभाल कर रख लिया । यह बात उन दोनों के अतिरिक्त किसी तीसरे को मालूम नहीं थी । यथा समय शरद पूर्णिमा आ गई । सेठ ने बीस मन लोहा एकत्र किया और उसे सोच विचार कर एक विशेष ढंग से छत पर जमा दिया । सबके ऊपर वह मोती रखा । दोनों वही बैठ गये। । इतने में पूर्व दिशा से चन्द्रमा का उदय हुआ और मोती पर उसका प्रतिबिम्ब पड़ा । मोती पर चन्द्र का प्रतिबिम्ब पड़ते ही मोती की परछाई पश्चिम की ओर पड़ी । पश्चिम की ओर जितना लोहा था वह सब सोना बन गया। इस प्रकार जिधर जिधर मोती की परछाई पड़ती गई, उधर-उधर का लोहा सोना बनता गया । रात भर में वह बीस मन लोहा सब सोना बन गया । सोना भी ऐसा कि पीला जर्द । शरद स्वर्ण के बराबरी की धातु ही कौन सी है। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द ज्योति 34 हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति TUBE Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गष्टसंत शिरोमणि अभिनंदन था सेठ ने उस मोती के स्वामी से कहा- देख लिया अपने मोती का चमत्कार ! यह भेद किसी को न देना और लाख मन लोहे का भी सोना बनाना हो तो इसी प्रकार बना लेना । युवक ने अतीव कृतज्ञता के साथ कहा - आपने मेरा बड़ा उपकार किया है । परन्तु मैं इस सोने का क्या करूँ? सेठ ने कहा - यह आपका है । जो आपकी इच्छा हो वही करो । युवक बोला - मैं इसे लेकर नहीं जा सकता । जाऊँगा तो मार्ग में ही लूट लिया जाऊँगा । सेठ ने कहा, बीस मन सोने को छिपा भी नहीं सकते और न छिपाया जा सकता है । इसके पीछे तो जीवन से ही हाथ धोने का अवसर आ सकता है । उस युवक ने कहा - सेठजी ! आपने मेरा जो उपकार किया है, उसे जीवन पर्यन्त नहीं भूल सकता । कोई लफंगा मिल जाता तो मेरा मोती ही ठग लेता । पर आपने मेरे प्रति असीम उदारता प्रदर्शित की । आप न मिलते तो यह मोती कोड़ियों में चला जाता । मैं इसका मूल्य और महत्व नहीं समझ सकता था । मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ । पर यह भी थोड़ा है और यह आपकी ही बुद्धि का प्रताप है । सेठ ने कहा - नहीं, नहीं ऐसा करना योग्य नहीं । तब युवक ने कह दिया - यदि आप मुझे जीवित रखना चाहते हैं तो इसे स्वीकार कर लीजिये और यदि मृत्यु के मुँह में झोंकना चाहते हैं तो मुझे दे दीजिए । क्या मैं उसे लेकर जा सकता हूँ? नहीं, यह मेरे प्राणों का ग्राहक हो जायेगा। यह कहकर और सेठ को वह सब सोना सौंपकर वह चल दिया । जब उसे सोने की आवश्यकता पड़ती मोती से पूरी कर लेता । उस मोती का नाम चन्द्रकान्ति है । ३ सच्चा अपराध देश के एक उच्च न्यायालय में ऐसा अपराध प्रस्तुत हुआ जो एकदम सच्चा था, पर वकील ने अपनी बहस से उसे झूठा सिद्ध कर दिया । बात इस प्रकार है - एक सेठ संध्या समय अपनी बग्गी में बैठकर भ्रमण या वायु सेवन को निकला और स्वयं ही घोड़ों को तेजी से हांक रहा था । वह घोड़ों को सरपट दौड़ाता जा रहा था । एक वृद्धा अपने पुत्र को साथ लेकर सामने की ओर से आ रही थी । किसी कारण से अचानक घोड़े भड़क उठे और बहुत प्रयत्न करने पर भी सेठ के अधिकार में नहीं रहे, नियंत्रण से बाहर हो गये । बग्गी लडके के ऊपर से निकल गयी। लड़का घायल हो कर वही गिर पड़ा । उसके किसी कोमल स्थान पर से पहिया निकला था इसलिये थोड़ी देर पीड़ा से छटपटाते हुये उसकी मृत्यु हो गई। लडके के गिरते ही वहां लोगों की भीड़ जमा हो गई पुलिस भी घटना स्थल पर पहुँच गई । वृद्धा से सारी बातें मालूम करके पुलिस ने सेठ को बन्दी बना लिया । यथा समय अभियोग लगाया गया, वृद्धा की ओर से शासकीय अभिभाषक बहस कर रहा था और सेठ ने अपना निजी वकील किया था। पेशियां पर पेशियां पड़ने लगी अन्त में एकबार बहस के लिये एक तिथि निश्चित हो गई । सेठ को मालूम था कि मेरे द्वारा ही लड़के की हत्या हुई है और मैं किसी प्रकार भी बेदाग मुक्त नहीं हो सकता । मेरी जीत होना असंभव है । यह सोचकर वह चिन्तित हो रहा था, तभी एक व्यक्ति उसके पास पहुंचा। उसने कहा सेठ जी मेरी बात मानो तो बहस के लिये नगर के प्रसिद्ध वकील को नियुक्त करलो, वरना आप जेल जाने से बच नहीं सकते। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 35 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति www.ainebracy Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सेठ ने उस वकील को बुलाया और उसके पैर पकड़कर रोना शुरू कर दिया । वकील के पूछने पर उसने मुकदमे का पूरा वृतान्त कह सुनाया और कहा – आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप मेरी लाज बचा लीजिये । वकील ने कहा यह तो स्पष्ट है कि आपके द्वारा ही बच्चे की मृत्यु हुई है । फिर उसके उत्तरदायित्व से कैसे बचा जा सकता है? सेठ ने कहा - आपके लिये यह कठिन काम नहीं है । कानून में अत्यधिक गुन्जाइश होती है और इस बात को आप भलीभांति मुझसे अधिक जानते हैं । आप इस प्रकरण को अपने हाथ में ले लीजिये । वकील ने कहा – मैं अपनी ओर से पूरा प्रयत्न करूँगा और आशा करता हूँ कि आप बच भी जायेंगे, मगर मेरा पारिश्रमिक पांच हजार रुपया होगा । पांच हजार की बात सुनकर सेठ की छाती पर सांप लौट गया, परन्तु मरता क्या न करता, सेठने वकील की मांग स्वीकार कर ली । वकील ने सेठ से कहा- सेठजी आपके बचने का एक ही उपाय है और वह यह कि जब न्यायालय में बहस हो रही हो, आप एक भी शब्द न बोलें । फिर सारे प्रकरण को मैं संभाल लूंगा | सेठ ने वकील के परामर्श को स्वीकार किया । दूसरे दिन पेशी हुई । वृद्धा और सेठ भी आकर खड़े हुये। दर्शकों की अपार भीड़ थी । न्यायाधीश ने सेठ से पूछा- क्या तुम्हारे घोड़ों से इसके बालक की मृत्यु हुई है? परन्तु अभिभाषक की सीख के अनुसार सेठ ने कोई उत्तर नहीं दिया, कई बार प्रश्न करने पर भी जब सेठ चुप ही रहा तो वृद्धा से नहीं रहा गया। वह तुनक कर बोली - जज साहब ! आज तो यह गूंगा बनने का ढोंग कर रहा है, पर उस दिन जोर से चिल्ला रहा था - हटो-हटो उसी समय सेठ के वकील ने कहा - महोदय आप इन शब्दों को लिख लीजिये । न्यायाधीश ने वे शब्द लिख लिये और अन्त में उन्हीं के आधार पर सेठ के विरूद्ध अभियोग समाप्त कर दिया गया। सेठ को ससम्मान बरी कर दिया गया । मेहनती किसान, किसी गाँव में एक किसान रहता था । उसके दो पुत्र थे । एक का नाम प्रकाश और दूसरे का कैलाश था। किसान बड़ा मेहनती था । इसलिये थोड़ी सी भूमि में भी इतनी फसल उत्पन्न करता कि वर्ष भर आराम से खाते उसकी पत्नी व दोनों लड़के भी उसे खेती के काम में सहायता करते । किसान को किसी प्रकार का व्यसन नहीं था, न वह बीड़ी पीता और न ही चिलम | सुबह शाम दाल रोटी खाकर सन्तुष्ट होता था । रात को दोनों पुत्रों व पत्नी को पास बैठा कर उन्हें घण्टे दो घण्टे ज्ञान की बातें कहता था । और यह भी कहता था कि जीवन में अनीति से कमाया धन कभी घर में टिकता नहीं है । ईमानदारी और मेहनत से कमाये धन में बरकत होती है । मेहनत की सूखी रोटी मीठी लगती है । जहाँ तक हो सके कुसंगति से बचना और जीवन में ध्येय लेकर चलना । किसी भी वस्तु के व्यापार में हानि होने पर अथवा फसलें नष्ट होने पर हिम्मत मत हारना, धैर्य रखना । पराये धन पर कभी दृष्टि मत डालना, चोरी मत करना । मेरी इन बातों पर ध्यान देकर चलोगे तो जीवन में कभी दुःख नहीं उठाओगे सदा सुखी रहोगे ।। आयु पूर्ण होने पर एक दिन अचानक माता-पिता की मृत्यु हो गई । दोनों बालकों ने सूझबूझ और साहस से काम लेते हुये माता-पिता का अन्तिम क्रिया कर्म बड़े ठाट से किया । ब्राह्मणों को भोजन कराया । माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् दोनों भाइयों का मन उचट गया, किसी काम में मन नहीं लगता था । अतः मकान और खेत बेच कर जीवन निर्वाह के लिये गांव छोड़कर अन्यत्र चल दिए और एक बड़े नगर में जा पहुंचे और एक कमरा किराये पर लेकर रहने लगे । दिन भर नौकरी की तलाश में भटकते और शाम को थके हारे कमरे पर लौट आते । इस तरह दो माह हो गए । पास की जमा पूंजी समाप्त होने को आ रही थी । हेमेन्द्रज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 36 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्य ज्योति C i nelitara Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RA श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ एक दिन किसी दयालु वृद्ध व्यक्ति ने उन दोनों को नगर के धर्मात्मा सेठ धर्मचन्द के पास भेज दिया । दोनों ने नम्रतापूर्वक सेठ को प्रणाम किया और फिर उनको अपनी दुःख कथा सुनाई । सेठ ने दया करके उन दोनों को अपनी विशाल अहाते में बनी जिनिंग फेक्टरी की चौकीदारी करने के लिये रखा लिया और रहने के लिये फेक्टरी क्षेत्र में बने क्वार्टरों में से एक क्वार्टर उन दोनों को दे दिया । सेठ के यहाँ रहते हुये पिता की शिक्षा को ध्यान में रखते थे । धर्मचन्द सेठ ने एक दिन उनमें से एक को कहा – देखो अपने यहाँ पशु बहुत है । तुम इन्हें प्रातःकाल जंगल में चराने ले जाया करो और सन्ध्या के समय वापिस ले आया करो । वह सेठ के आदेशानुसार पशुओं को चराने ले जाता और शाम को ले आता । दोपहर को खाने के लिये उसके साथ रोटी बाँध दी जाती थी । सेठ ने दूसरे भाई से कहा - देखो, तुम्हारा काम यह होगा कि मैं या घर के अन्य सदस्य जो भी काम बतायें उसे प्रसन्नतापूर्वक करना । भोजन भी वहीं कर लिया करना । इस तरह दोनों भाइयों की रहने और खाने पीने की समस्या हल हो गई । इस प्रकार दूसरा भाई भी तन मन से आज्ञा पालन करता हुआ समय व्यतीत करने लगा । वह प्रसन्नतापूर्वक सबका काम करता था, अतएव घर के सभी लोग उससे प्रसन्न रहने लगे । वह अपने शरीर को शरीर न समझता हुआ, प्रत्येक के प्रत्येक आदेश का तत्काल पालन करता और दौड़-दौड़ कर शीघ्र उसे बुद्धिमता के साथ पूरा करता था । इस तरह एक भाई दिन में पशु, दूसरा भाई घर के सदस्यों के आदेश का पालन करता और रात दोनों भाई फेक्टरी के सामान की निगरानी करते । धर्मचन्द सेठ बड़ा धर्मात्मा था । उसका हृदय करुणा से ओतप्रोत रहता, अनीति पूर्वक व्यापार नहीं करता, दीन दुखियों की सहायता करता और अपने कर्तव्यों का पालन करता था । उस नगर में सन्त महात्माओं का आवागमन लगा रहता था । सेठ प्रतिदिन उनके प्रवचन सुनने जाया करता था । एक दिन वह सेठ उन दोनों बालकों को भी अपने साथ ले गया । दोनों संत प्रवर के उपदेश का मनन करते रहे । दोनों भाइयों ने आपस में कहा -"संत प्रवर का उपदेश तो आत्मा के लिये कितना कल्याणकारी है । हम लोगों को इतना सुन्दर उपदेश पहले कभी सुनने को नहीं मिला । ज्ञात होता है, हम लोगों ने पूर्व जन्म में परमात्मा की भक्ति, तपस्या नहीं की, इसी कारण इस जन्म में इतने दुःख भुगतने पड़ रहे हैं, देखो, जैसे अपने माता-पिता चले गये, उसी प्रकार हम लोग भी चले जायेंगे । इस जीवन का क्या विश्वास है? अभी है और अभी नहीं है । कौन कह सकता है कि यह जीवन कल तक रहेगा भी या नहीं ।" प्रकाश और कैलाश ने विचार किया - "इस जीवन का कोई विश्वास नहीं, किसी भी समय मृत्यु आकर इस जीवन को समाप्त कर सकती है । सेठ ने अपने विश्वसनीय व्यक्ति को उनके गाँव भेजकर उनके व्यवहार, चरित्र और खान-पान की जानकारी मंगाई। ग्रामवासियों को जब यह पता चला कि आगन्तुक मेहनती और ईमानदार किसान के बालकों के रहन सहन चरित्र की जानकारी लेने आया है तो वे बड़े प्रसन्न होकर बोले- "प्रकाश और कैलाश के माता-पिता शुद्ध सात्विक भोजन करते थे । सादा रहन-सहन था । बीड़ी तम्बाकू को स्पर्श नहीं करते थे । वैसे ही उनके लड़के हैं । घर के वातावरण का प्रभाव संतान पर पड़े बिना नहीं रहता ।" आगन्तुक व्यक्ति जानकारी लेकर चला गया, और जाकर सेठ को सारी बातों से अवगत करा दिया । सुनकर सेठ भी बड़ा प्रसन्न हुआ । उसके दो पुत्रियां थी, दोनों सुशील और गृहस्थी के कामकाज में दक्ष । दोनों का चारित्रिक गुण प्रशंसनीय था । एक दिन सेठ ने भोजनोपरान्त अपने कमरे में पत्नी को बुलाकर सलाह-मशविरा किया और कहा- तुम्हारा क्या विचार है? यदि दोनों पुत्रियों का विवाह दोनों भाइयों के साथ कर दिया जाए तो तुम्हें कोई आपत्ति तो नहीं है। पत्नी ने अपनी सहमति देते हुए कहा- इनसे अच्छे लड़के कहाँ मिलेंगे? सब तरह से योग्य हैं । गाँव से जानकारी भी मंगवाली । पत्नी की सहमति होते ही दोनों लड़को की सहमति लेकर शुभ मुहूर्त में विवाह सम्पन्न हो गया। एक भाई के नाम फेक्ट्ररी कर दी । दूसरे को रहने के लिये सुविधाजनक मकान बनवाकर दुकान खुलवा दी। दोनों भाई अपनी-अपनी पत्नी के साथ सुख से जीवन व्यतीत करने लगे । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 37 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Forpilometale Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ लोभ का परिणाम | एक राज्य के राजा का नाम कनकप्रिय था । असंयम के कारण वह अक्सर बीमार रहता था । उसकी लालसा कभी भी शान्त न होती थी। संपदा और विलास में तो लगी रहती थी सोना उसे बहुत प्रिय था जब वह सिहासनारूढ़ हुआ तब उसके मन में सम्पूर्ण विश्व का सोना समेट लेने की एक अतृप्त लालसा जागी । लालसा पूर्ण करने के लिये वह अन्याय करने लगा, जुल्म ढाने लगा । क्या धनवान, क्या गरीब सब उसके अत्याचार से त्राहिमाम त्राहिमाम करने लगे। चारों ओर हाहाकार मच गया। व्यापार ठप्प हो गया, खेत सूखने लगे । कनकप्रिय पर स्वर्ण का भूत सवार था । उसने स्वर्ण के लिये एक विशिष्ट कक्ष बनवाया, सुदृढ़ अलमारियां रखी और नित्य देखने लगा कि कमरा कितना भरा है, खाली स्थान कैसे भरा जाय। इसकी चिन्ता उसे सताने लगी । वह येनकेन प्रकारेण सोना एकत्र करने में लग गया । सोने के लिये वह जनता पर अत्याचार करने लगा कि कोई भी उसका मुँह देखना पसन्द नहीं करता था । जो भी उसे देखता उसके मुँह से यही निकलता कि तेरा सर्वनाश हो, तू निःसन्तान हो कांटों की सेज पर तेरे प्राण निकले। इस तरह स्वर्ण जैसे जड़ निष्प्राण पदार्थ के लिये कनकप्रिय ने प्रजा का प्रेम खोया और अस्वास्थ्य तथा असाध्य बीमारियों के कारण अपने जीवन का सहज उपलब्ध सात्विक आनन्द भी गंवा दिया । एक दिन जब कनकप्रिय अपने स्वर्ण प्रकोष्ठ का निरीक्षण कर रहा था, तब एक कोने में उसे एक प्रभापुंज दिखाई दिया। जैसे ही उसने कदम बढ़ाये उसे एक दिव्य पुरुष अपनी ओर आता दृष्टिगोचर हुआ । पुरुष बोला राजन्, तेरा कल्याण हो । मैं तुझे अभयदान देता हूँ कि तू इतना अवश्य बता कि तूने आज तक क्या कमाया है। कनकप्रिय इस प्रश्न का उत्तर देते समय गर्व से फूल उठा । उसने अभिमान पूर्वक वह सारा भण्डार उस दिव्य पुरुष को बता दिया । सोने का कभी समाप्त न होनेवाला कोष देखकर उस पुरुष ने कहा राजन् ! तुम्हारा स्वर्ण प्रेम देखकर मुझे संतोष हुआ है। मैं तुम्हें वरदान देना चाहता हूँ। राजा की खुशी का ठिकाना न रहा । उसने तत्काल कहा आप मुझे ऐसा वरदान दे कि मैं जिस वस्तु को स्पर्श कर लूं वह सोना बन जाए । दिव्य विभूति ने कहा ऐसा ही होगा । कल प्रातः की पहली किरण के साथ तुम्हें वह शक्ति मिल जाएगी। राजा अति प्रसन्न हुआ । रात उसकी बड़ी बेचैनी में व्यतीत हुई । पलकों पर ही प्रातः हो गया । बिस्तर छोड़ते ही सबसे पहले उसने निसैनी मंगवाई और उसे स्पर्श किया वह स्वर्ण की हो गई । वह बावला हो उठा उसने नौकर को बुलाया और रथ मंगवाया। रथ में बैठकर वह बगीचे में सैर के लिये गया । बगीचे में सुन्दर-सुन्दर वृक्ष पत्तियां और फूल खिले हुये थे । किन्तु राजा का ध्यान केवल सोने पर था । उस पर पागलपन सवार था । उसकी आंखों पर लोभ का चश्मा चढ़ा था । उसने एक वृक्ष को स्पर्श किया और उसका तना सोने का हो गया। फूल-फल, पत्तियाँ सभी सोने की होगयी । फिर उसने आव देखा न ताव सारा बगीचा उसकी पत्ती-पत्ती छू डाली । सारा बगीचा सोने का हो गया । बावडी सोने की, कुँआ सोने का, हौज कुंड सोने के, चारों ओर सोना ही सोना । ऐसे में राजा के आनन्द की सीमा न रही। राजा घर आया । वह बहका हुआ था । पसीने में ऐड़ी से चोटी तक डूबा था । भूख के मारे बुरा हाल था, अधर प्यास से सूख रहे थे । सेवक आया और उसने कहा पधारिये । राजा ने पानी मंगाया । गिलास लाया गया, किन्तु जैसे ही राजा ने उसे स्पर्श किया गिलास पानी सहित सोने का हो गया । दूसरा गिलास मंगाया गया । उसका भी वही हाल हुआ । तब राजा ने दूध मंगाया । किन्तु उसकी भी वही हालत हुई । भोजन का थाल आया उसका भी वही परिणाम हुआ। सब कुछ सोने का हो गया । सोने की भूख ने गजब ढा दिया । राजा भूख-प्यास से छटपटाने लगा । उसकी भूख-प्यास को शान्त करने वाला कोई सामान ही नहीं रहा । सब सोना हो गया । राजा की पुत्री बगीचे में गई । उसे रंग-बिरंगे पुष्पों का बड़ा शौक था । जब वहां उसे फूल नहीं दिखे तब वह माली पर बिगड़कर बोली किस दुष्ट ने इस बगीचे की दुर्दशा की है? उसे मैं अपने पिता राजा से कड़ा से कड़ा दण्ड दिलाऊँगी । राजकुमारी को ज्ञात नहीं था कि यह सारी करतूत उसके पिता की है। घर लौटकर वह हेमेल्डर ज्योति हमे ज्योति 38 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Use Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सीधे अपने पिता के पास पहुंची । कनकप्रिय अपनी पुत्री पर विशेष स्नेह रखता था। वह उसकी लाड़ली इकलौती बेटी थी किन्तु रोती हुई अपनी बेटी के माथे पर जैसे ही उसने हाथ रखा वह भी सोने की हो गई । राजकुमारी एक जड़ पुतली हो गई । स्वर्ण की इस पीली भूख में जब उसकी प्रिय पुत्री ही चली गई तब उसकी आंखें खुली और वह वरदान के अभिशाप पक्ष पर पछताने लगा । उसके मुँह से अकस्मात निकल पड़ा - वरदान मुझे अभिशाप हुआ । कनकप्रिय की आंखों से लगातार आंसू बरसने लगे | वह व्यथित हो उठा किन्तु जैसे ही अपनी मनोव्यथा से छुटकारा पाने के लिये शैया पर लेटा वह शैया सोने की हो गई । मृदुता, सुकोमलता, कर्कशता और कठोरता में बदल गई । उसका आराम हराम हो गया । रानी आई, राजा ने उससे कहा मुझसे दूर रहो । मैं अभिशप्त हूँ। राजा रोने लगा, पछताने लगा, और हाय-हाय करने लगा । जैसे-तैसे प्रातः हुआ । दिव्य पुरुष अचानक दिखाई दिया । उसने पूछा - राजन् ! वरदान फलीभूत हुआ या नहीं? सुख से तो हैं? कनकप्रिय बोला आप कृपा करें । वास्तव में मैं दया का पात्र हूँ । जलती हुई आग में ईंधन न डालें । इस पर दिव्य पुरुष ने कहा - राजन् ! इसमें मेरा दोष कहां है? आपने जो चाहा मैंने वह दिया । राजा ने कहा - मैं दुःखी हूँ । भूखा प्यासा हूँ | तनिक भी आराम नहीं है । पुत्री सोने की हो गई इस निगोड़े वरदान के कारण तो मैं स्वजनों के उपयोग का भी नहीं रहा हूँ । आप मुझ पर दया करके इस दुःख और विपदा से मुक्त करें । दिव्य पुरुषने कहा राजन् !" आपने सोने के पीछे सर्वस्व नष्ट कर दिया है । धन के पीछे इतने बावले हुये कि अपना कर्तव्य भी भूल बैठे । मानवता को तिलाजंलि दे डाली । प्रजा पर अत्याचार किये । सोने के लिये आपने क्या नहीं किया? यह सोना नहीं है, हजारों हजार गरीबों का जीवन्त अभिशाप है । राजन् ! वह भाग्यशाली क्षण सामने है जब स्वयं को बदला जा सकता है लोभ छोड़िये और संयमी बनिये । सोना आपको निगल जायेगा, संयम आपकी रक्षा करेगा। शाश्वत सुख और अक्षुण्ण प्रेम का शुभाशीष लेना हो तो संयमी बनो। दिव्य पुरुष की अमृतोपम वाणी सुनकर राजा का हृदय बिलकुल बदल गया । राजा ने आदेश दिया इस स्वर्ण को प्रजा में लोक कल्याण कार्यों के लिये बांट दिया जाए ताकि राज्य में दानशालाएं, पाठशालाएं, अनाथालय, औषधालय इत्यादि खोले जा सकें । इसे निर्धन प्रजाजनों को मुक्त हस्त से बांट दिया जाए । इस तरह राजा ने संयम की सुखद जीवन शैली को अपनाया और प्रजा के प्रेम को प्राप्त किया । उसे प्रजा का आशीर्वाद मिला । वह स्वस्थ हो गया । उसकी सारी चिन्ताएं मिट गई । सारे रोग नष्ट हो गये । उसके आनन्द का ओर छोर नहीं रहा । एक माह पश्चात् जब नगर परिक्रमा के लिये वह निकला तब सारी प्रजा दर्शनाथ उमड़ पड़ी । प्रजा ने चिरायु होने की मंगल कामनाएं की । ३ पटेल की घोषणा : एक पटेल था । एक बार उसके मन में आया कि ग्रामवासी कमाने-खाने में ही लगे रहते हैं उन्हें थोड़ा आराम भी करना चाहिये । यह सोचकर उसने वन मोहत्सव करने का निश्चय किया । वन महोत्सव की तैयारियां पटेल के बाग में की गई। न्याय पंचायत का सरपंच और गांव मुखिया से मिलकर अपनी योजना उनको बतलाई । दोनों बहुत प्रसन्न हुये । और गांव में घोषणा करवा दी कि गांव के सब लोग दो दिन तक बाग में ही रहें, खाएं-पीएं आनन्द और मौज करें । कोई भी व्यक्ति ग्राम में न रहें । जो इस आज्ञा का उल्लंघन करेगा वह दण्ड का भागी होगा । इस घोषणा को सुनकर कतिपय व्यक्ति तो अफसोस करने लगे और जो आमोद प्रमोद के शौकीन थे, वे खुशी मनाने लगे । उस गांव में एक साहूकार भी रहता था । वह बड़ा धनवान था और न्याय सरपंच का घनिष्ठ मित्र था । न्याय सरपंच की उस पर बड़ी कृपा थी । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 39 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति ducationment Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सरपंच का कृपापात्र होने से उस साहूकार ने विचार किया आज नहीं कल बगीचे में जायेंगे । यह सोचकर वह गांव में ही रह गया । सायंकाल के समय न्याय सरपंच और पटेल ने चौकीदार और अपने कर्मचारियों को आदेश दिया कि घर-घर जाकर तलाश करो कि हमारी आज्ञा के विरूद्ध कोई गांव में रह तो नहीं गया है । कर्मचारी गांव भर में घूमें । उन्होंने देखा गांव के सब घरों में तो अंधेरा है, केवल साहूकार के घर में प्रकाश है । कर्मचारियों ने जाकर सरपंच से निवेदन किया कि सरपंच साहब, गांव में सेठजी रह गये हैं, अन्य कोई नहीं रहा। सरपंच ने तत्काल आदेश दिया कि उसे बन्दी बना कर इसी समय मेरे समक्ष उपस्थित करो । सेठ करोड़ों की सम्पति का स्वामी और सरपंच का चहेता था । लेकिन कर्मचारियों ने जाकर उसके भवन की सांकल खटखटाई । सेठजी घर में अकेले ही थे । भीतर से ही बोले - कल प्रातः आ जाऊँगा । कर्मचारियों ने कहा- अब आपकी इच्छा काम नहीं आ सकती । आपको अभी चलना होगा । सरपंच साहब का आदेश है । और यह हथकड़ियाँ भी पहननी होगी। सेठजी के पैरों तले की जमीन खिसक गई । उन्हें स्वप्न में भी ऐसे व्यवहार की आशा नहीं थी । उन्हें बाहर आना पड़ा । हाथों मे हथकड़ियाँ पहना दी गई । तथा सरपंच के सामने उपस्थित किया गया । सेठजी को पूरा विश्वास था कि सरपंच साहब मुझे क्षमा कर देंगे । परन्तु वहां भी आशा के विपरीत हुआ । सरपंच ने सेठजी को हिरासत में ले लेने का आदेश दे दिया । वह जेल में बन्द कर दिया गया । प्रातःकाल होने पर कर्मचारियों ने पूछा - सरपंच साहब ! सेठजी का क्या किया जाय? सरपंच ने आदेश दिया - उसे टोप और चड्डी पहना कर अंधेरे कुए में डाल दो । तत्काल आदेश का पालन हुआ । सेठजी की आंखों में आंसू आ गये । सेठजी का बुरा हाल देख सेठानी दहाड़े मार रोने लगी । उसने अपने पति के तोल का सोना देना स्वीकार किया और फिर जवाहारात भी देना मंजूर किया, पर सरपंच ने स्पष्ट कह दिया - इस सेठ ने मेरे आदेश का पालन नहीं किया है । जिस दिन से सेठजी कुएँ में उतारे गये उसी दिन से सेठ पत्नी एक बार भोजन करती, एक ही स्थान पर बैठी रहती तथा वस्त्र भी फटे पुराने ही पहनती थी । एक महीना, दो महीना व्यतीत हुये और धीरे-धीरे बारह महीने भी समाप्त हो गये। सेठानी बहुत दुःखी हो गई । उसका एक लड़का था । वह पढ़ने लिखने जाता और सारे नगर के लोग एक स्वर से कहते - सेठ क्या, नगर गांव की नाक था । जाती वाले कहते - हमारा एक रत्न चला गया । सुख-दुःख में सबके काम आते थे । किसी के घर कोई काम आ जाता तो सेठजी आगेवान बन जाते थे । न मान था, न गुमान था । कितने भले आदमी थे । अपार सम्पति होने पर भी कभी अभिमान नहीं करते थे । भंग जैसी नशीली वस्तु तक का कभी सेवन नहीं किया । पर नारी को सदा माता-बहिन के समान समझा । चंदे का काम पड़ता तो सबसे पहले और सबसे अधिक देने वाले वही थे। इस प्रकार जब नागरिक लोगों को सेठजी का अभाव बहुत खटकने लगा तो दस बीस व्यक्ति मिल कर राज्य के राजा के पास पहुँचे और बोले-अन्नदाता ! सेठजी का अपराध क्षमा हो जाना चाहिये । उन्होंने अत्यधिक दण्ड भोग लिया है। सरपंच ने आकर पहले ही घटनाक्रम से राजा को अवगत करा दिया था । अतः राजा ने क्रोध में आकर कहा - उसकी सिफारिश करोगे तो तुम सबको भी कुएँ में उतरवा दूंगा, क्योंकि सरपंच का आदेश मेरा ही आदेश होता है । व्यवस्था की दृष्टि से वह मेरा ही प्रतिनिधि है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 40 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्य ज्योति in Edukati o ner imlly Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ I समय व्यतीत होता गया और सेठ पुत्र पढ़ लिख कर होशियार हो गया । सगाई करने के लिये कई लोग उसके घर आने लगे । सेठानी रोती- रोती कहती मेरे पति ऐसे कष्ट में है । मैं क्या सगाई करूं । लोगों ने कहा सगाई होने दो । विवाह के समय दौड़ धूप करके छुड़ाने का प्रयत्न करेंगे । सेठ को दण्ड मिलने के थोड़े दिन पश्चात् ही उसका परिवार नगर में रहने आ गया था । सगाई हो गई । लग्न का समय आया तो नगर के पच्चीस सम्मानित सदस्य जिनका राजा पर प्रभाव था, एकत्र हुये। सबने विचार किया - कोई अमूल्य उपहार लेकर राजा के पास चलना चाहिये और सेठजी को बन्धन मुक्त कराना चाहिये । वे लोग गये और सम्मान काम से आये हैं। पंचों ने कहा । • नहीं नहीं, कोई काम हो तो कहो । मैं प्रजा का सेवक हूं । कोई बात हो तो बेहिचक कहो । राजा ने कहा पंचों ने कहा महाराज! प्रार्थना स्वीकार करें तो एक निवेदन करना है । राजा ने कहा अवश्य करो । आप लोगों के सब अपराध क्षमा करता हूँ । स्पष्ट कहो । राजा से आश्वासन पाकर सदस्यों ने निवेदन किया अन्नदाता हम पंचगण यह प्रार्थना करने आये हैं कि सेठ जो कुएँ में है उनकी पत्नी सेठानी बहुत रोती है । उनके पुत्र का विवाह होने वाला है । प्रार्थना है कि केवल एक माह के लिये सेठ को कुएं से बाहर निकालने के लिये न्याय सरपंच को आदेश दे दें या बुलाकर कह दें। - सहित प्रणाम करके बैठ गये। तत्पश्चात् राजा ने दीवान से पूछा पंच लोग किस अन्नदाता के दर्शन के लिये । पंचों की बात सुनकर राजा ने मुँह फेर लिया। फिर कहा- तुम्हारी दूसरी हजार बातें मानने को तैयार हूँ, पर तुमने यह माँग क्यों की? किन्तु मैंने वचन दे दिया है, उसे पूरा करूंगा । राजा ने एक माह के लिये सेठ को सरपंच को कह कर कुएं से बाहर निकलवा दिया। सेठजी के बाल बनवाये गये, स्नान-मंजन करवाया गया और सुन्दर वस्त्र पहनने को दिये गये और फिर कार में बिठलाकर आवास तक 1 भेजा गया। जब वह भवन में पहुंचे तो दूर से देखते ही उनकी पत्नी खड़ी हो गई और रोने लगी । कहने लगी भला हो उन लोगों का जिन्होंने प्रयत्न करके आपके दर्शन करवाये । सेठ की पत्नी अपने हाथ से नित्य नये व्यंजन बना कर पति को खिलाने लगी । दो चार दिन में ही सेठ के चेहरे पर चमक आ गई । वह पगड़ी बाँधकर दुकान पर गये तो हजारों व्यक्ति उनसे मिलने पहुँचे । तरह-तरह से लोग खुशी मनाने लगे । सेठजी ने देखा कि और तो सभी लोग प्रसन्न हैं, पर मुनीम के चेहरे पर कोई प्रसन्नता दिखाई नहीं देती । इसका कोई विशेष कारण होना चाहिये। सेठजी ने मुनीम से पूछा तो वह कहने लगा - इसमें खुशी की बात क्या है । एक माह बाद पुनः वही स्थिति आ जाएगी । यही सोचकर मैं दुःखी हूँ । विवाह का सब काम तो हम कर लेंगे। आप एक काम कीजिये । राजा और रानियों को किसी प्रकार उपहार आदि देकर ऐसा आदेश प्राप्त कीजिये पुनः कुएँ में न उतरना पड़े । कि ducation Interio सेठ ने कहा- मुनीमजी पुत्र के विवाह की यह खुशी फिर कब मनाने को मिलेगी? वह काम तो अन्तिम दस दिनों में भी कर लूंगा । सेठ की बात सुनकर मुनीम बोला नहीं सेठजी मेरा कहना मानो, नहीं तो पछताना पड़ेगा । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 41 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति www.jbinelibracy Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सेठजी ने मुनीम की सलाह पर ध्यान नहीं दिया । समय अपना काम बराबर करता रहा । अट्ठाईस दिन व्यतीत हो गये और केवल दो दिन शेष रह गये । फिर भी सेठजी खाने-पीने और ऐश-आराम में ही व्यस्त रहे। अन्त में वे दिन भी समाप्त हो गये । राजा की गाड़ी लेने आ पहुँची । आरक्षकों ने कहा - चलिये सेठजी, शीघ्रता कीजिये। सेठजी को वही टोपा और वहीं जांघिया पहना कर उसी अन्ध कूप में उतार दिया गया । सेठजी कुएँ में पड़े पड़े सोचने लगे- हाय, कितनी बड़ी भूल मुझसे हुई । मैंने प्रमाद में सुअवसर खो दिया । मुक्त होने के लिये प्रयत्न करने का जो अवसर मिला था, उसका मैंने सदुपयोग नहीं किया और राग-रंग में ही वह दुर्लभ समय खो दिया। वास्तविक हित की बात कहने वाला तो एक मुनीम था । मैंने उसका कहना न माना तो पुनः यह दिन देखना पड़ा। न जाने किस पुण्य के योग से कुएँ से बाहर निकलने का अवसर मिला था । अब वह अवसर फिर नहीं मिल सकता हैं? मैंने मूर्खता करके अवसर गंवा दिया, वह वापिस नहीं आ सकता । अब तो मरने के पश्चात् ही बाहर निकल सकूँगा । इस तरह पश्चाताप करते-करते ही सेठजी का जीवन कुएँ में पूरा हो गया । परिवर्तन एक किसान ने दूसरे किसान से भूमि क्रय की । किसान क्रय की गई भूमि पर जब मकान बनवाने लगा तो नींव खोदते समय उसमें से मोहरों से भरा एक चरू निकल पड़ा । श्रमिकों ने किसान को धन निकलने की सूचना भेजी । तब उस किसान ने दूसरे किसान को जिससे वह भूमि खरीदी थी, बुलाकर कहा- यह मोहरें आपकी हैं। इन्हें आप ले जाइये। दूसरे किसान ने उत्तर दिया - भूमि आपको बेची जा चुकी हैं । इसमें जो भी निकले वह आपका ही है । यह मोहरें आपके भाग्य से निकली है । इन पर आपका अधिकार है । भू-स्वामी किसान मानता था कि मैं केवल भूमि का स्वामी हूँ । मैंने भूमि का मूल्य दिया धन का नहीं । इसलिये मैं इन मोहरों का अधिकारी नहीं हूँ । इनका अधिकारी भूमि का पहला स्वामी है । परन्तु जब पहले स्वामी ने उस सम्पत्ति को स्वीकार नहीं किया, तब उसने राजा को सूचना दी और कहा - आप भू-स्वामी हैं । आप उन मोहरों को अपने भंडार गृह में मंगवा लीजिये । राजा ने कहा - मैं जो राजस्व प्राप्त करता हूँ । उसके अतिरिक्त धन का अधिकारी नहीं। यह मोहरें मेरी नहीं है। मुझे दूसरे की सम्पत्ति की आवश्यकता नहीं है । राजा से भी निराश होकर किसान पंचों के पास गया और उन मोहरों को संभाल लेने की बात कहीं । कहा यह मोहरें किसी व्यक्ति की नहीं, सार्वजानिक है, इसलिये पंच इन्हें संभाल लें । परन्तु पंचों ने भी उन्हें संभाल लेने से मनाकर दिया । उन्होंने कहा -किसी सार्वजनिक कार्य के लिये अभी धन की आवश्यकता नहीं है | बिना आवश्यकता यह भार क्यों वहन किया जाय? इस तरह किसी ने भी उन मोहरों को स्वीकार नहीं किया और वे अनाथ की तरह पड़ी रही । उन्हें सबने ठुकरा दिया। आधी रात्रि व्यतीत हो गई । भू-क्रय करने वाले ने विचार किया - मैं कितना मूर्ख हूँ कि अपनी भूमि में निकली मोहरों को संभालने के लिये इधर-उधर भटकता रहा । मेरी भूमि में निकली मोहरें मेरी ही है, किसी और की नहीं हो सकती। भूमि विक्रय करने वाले का भी मस्तिष्क बदल गया और वह उन मोहरों को लेने के लिये आ धमका । उसने दावा किया कि यह मोहरें मेरी है तेरी नहीं । तूने केवल भूमि का मूल्य दिया है, इन मोहरों का नहीं । समयानुसार यह परिवर्तन सर्व व्यापी था, अतएव राजा ने भी अपने कर्मचारियों को मोहरें ले आने के लिये भेज दिये और उधर पंच भी आ गये । सब लोग परस्पर विवाद करने लगे और उन मोहरों पर अपना अपना अधिकार स्थापित करने लगे । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 42 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ लकड़हारा और राजा एक लकड़हारा लकड़ियां बेचकर चार आने प्रतिदिन कमाया करता था । जिनमें से एक आना वह किसी पुण्य कार्य में लगा देता और शेष तीन आनों में अपने घर का काम चलाया करता । एकरात को लकड़हारे की पत्नी ने पति से कहा कि तुम केवल चार आने प्रतिदिन कमाते हो जिसमें से भी एक आना दान कर देते हो । इससे सबको बड़ा कष्ट होता है, अतः तुम नित्य एक आने का दान करना बन्द कर दो । एक चौथाई दान तो राजा भी नहीं करता। इस पर लकड़हारे ने उत्तर दिया की राजा की अपनी करनी, मेरी अपनी करनी, मैं दान देना कदापि बन्द नहीं करूंगा, लकड़हारे की कुटिया के बाहर खड़ा राजा इन दोनों की बातें सुन रहा था । उसने प्रातःकाल होते ही लकड़हारे को दरबार में बुलवा लिया । राजा ने उससे पूछा कि रात को तुम अपनी कुटिया में क्या बातें कर रहे थे? लकड़हारे ने उत्तर दिया कि महाराज यद्यपि आप राजा हैं लेकिन मेरी कुटिया में मैं जो चाहूँ बात करूँ, इसे पूछने का आपको कोई अधिकार नहीं है । लकड़हारे की बात सुनकर राजा नाराज हुआ और उसने उसे जेल में डाल दिया । लकड़हारे के लिये नित्य रात को स्वर्ग से विमान आया करता और वह उसमें बैठकर प्रतिदिन स्वर्ग जाया करता। उसी बन्दी गृह में एक सेठ भी था | उसने एक दिन लकड़हारे से पूछा कि तुम रात को कहां जाया करते हो? लकड़हारे ने सारी बात सेठ को सच-सच बतला दी । सेठ ने कहा कि एक रात मुझे भी स्वर्ग ले चलो । लकड़हारा बोला कि विमान में तो तुम बैठ नहीं सकोगे, लेकिन तुम विमान का पाया पकड़ लेना । रात्रि को विमान आया तो सेठ भी पाया पकड़ कर स्वर्ग में पहुंच गया । सेठ ने स्वर्ग के दूतों से पूछो कि वह सुन्दर महल किसका है तो दूतों ने कहा कि यह लकड़हारे के लिये हैं। फिर सेठ ने पूछा कि ये विविध प्रकार के भोजन किसके लिये है तो उत्तर मिला कि ये सब लकड़हारे के लिये है। सेठ ने फिर पूछा कि सब वस्तुएं लकड़हारे के लिये ही है तो भला मेरे लिये क्या है? देव दूतों ने उत्तर दिया कि तुम्हारे लिये क्या होता? तुमने कभी किसी को एक पैसा भी दिया नहीं, अतः तुम्हारे लिये यहां कुछ भी नहीं है। सेठ ने देवदूतों से पुनः पूछा कि मेरे लिये कुछ नहीं है तो हमारे राजा के लिये तो कुछ होगा ही । इस पर दूतों ने सेठ को लहू और मवाद की बहती हुई नदी दिखला दी और कहा कि तुम्हारा राजा बड़ा अन्यायी है इसलिये उसके लिये यह नदी तैयार है । सेठ ने पूछा कि राजा के पापों का क्या प्रायश्चित है तो दूतों ने कहा कि यदि राजा नंगे पैरों फिर कर गायों की बारह वर्ष तक सेवा करे तो उसके पाप धुल सकते हैं । स्वर्ग में घूम-फिर कर जब वे लौटने लगे तो वहाँ एक मोची आया । मोची ने सेठ से कहा कि सेठ, मैं तुम से एक चवन्नी मांगता हूँ सो मेरी चवन्नी दे जाओ | सेठ ने कहा कि मेरे पास इस समय कुछ भी नहीं है । इस पर मोची ने सेठ के शरीर से चार आने के मूल्य का चर्म काट लिया । अनन्तर लकड़हारा और सेठ विमान में बैठकर जेल में आ गए। प्रातःकाल होते ही सेठ ने राजा से मिलने की इच्छा प्रकट की । राजा ने सेठ को बुलवा लिया । सेठ ने रात की सारी बात राजा को कह सुनाई और साथ ही उसने अपने शरीर का वह भाग भी दिखलाया जहाँ से मोची ने सेठ की चमड़ी काटी थी । राजा पर सेठ की बात का बड़ा प्रभाव पड़ा । उसने लकड़हारे सहित सारे कैदियों को मुक्त दिया और स्वयं नंगे पैरों गायें चराने चला गया । नदी के किनारे गायें चराते-चराते जब राजा को बारह वर्ष पूरे हो गये तो एक एकदिन तत्काल प्रसूति हुई एक गाय का बछड़ा नदी में बह गया । राजा को बड़ा दुःख हुआ कि बछड़े की हत्या और सिर लगी । राजा उदास होकर वही बैठ गया । एक घण्टे पश्चात् बछड़ा नदी में से स्वयं ही निकल कर गाय के पास आ गया । गाय ने बछड़े से पूछा कि बेटा, जन्म लेते ही मुझे छोड़कर तू कहाँ चला गया? इस पर बछड़ा बोला कि मां इस अन्यायी राजा को तेरी सेवा करते-करते आज बारह वर्ष हो गये, अतः इसके पाप धोने गया था । अब इसके लिये लहू और मवाद की जो नदी थी, वह दूध-दही की नदी वन गयी है । राजा ने बछड़े की बात सुनी तो उसे सांसारिक कार्यों से वैराग्य हो गया और वह अपने मंत्रियों को राज-काज सुपुर्द कर स्वयं तपस्या करने के लिये वन में चला गया। हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति 43हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति ForRemogalisong Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था लालची साधु ___ गांव का किसान मांगू अपने खेत के किनारे बने मचान पर बैठा हुआ बीड़ी पीता जाता और फसल की निगरानी भी करता जाता था । इतने में उसके कानों में खन खन की आवाज आई । आवाज की दिशा में मांगू ने मचान पर खडे होकर देखा तो उसके मुंह में पानी आ गया । वह मचान से उतरकर उस ओर गया देखा । एक साधु बड़ी होशियारी से रुपये गिनकर एक कपड़े में बाँध रहा था । लगभग एक सौ रुपये थे, उन्हें देखकर मांगू का मन तो बहुत ललचाया, पर विवश था । विवश होकर मुँह लटकाए, दबे पांव अपने मचान पर आकर बैठ गया। मांगू अपने मचान पर बैठा हुआ साधु के ध्यान में निमग्न था कि जय शिव शंकर की आवाज सुनकर चौंक पड़ा। देखा तो वही साधु कुछ मांगने की दृष्टि से हाथ फैलाए उसके सामने खड़ा था । मांगू उसकी आदत से चिढ़ गया। उसने विचार किया - खड़ी फसल को जंगली जानवर चट कर गये, शेष को टिड्डी चाट गई, साहूकार ने ऋण में बैल खुलवा लिये, शेष बचे हुए अनाज को लगानवाले उठा ले गये, बहन को मामेरा पुत्री को गोना देना है और पास में फूटी कौड़ी नहीं है, फिर भी संतोष किये बैठा हूँ । और एक यह हट्टा कट्टा है कि इसे किसी बात की चिन्ता नहीं, सौ रुपये गांठ में लिये फिरता है फिर भी मांगने की लालसा बनी हुई है । इसे कुछ शिक्षा देना चाहिये ।" उसे एक उपाय सूझा ।। मांगू मचान से उतर कर बहुत नम्रतापूर्वक प्रणाम करते हुये बोला - "सन्त प्रवर ! धन्य भाग जो तुम आये, मेरे ऐसे भाग्य कहां? दो दिन से पत्नी भूखी बैठी है, उसकी हठ है कि जब तक किसी सिद्ध महात्मा को भोजन न करा ,, मैं भी भोजन नहीं करूँगी । गांव के आसपास पांच-पांच कोस तक ढूँढते फिरे पर कोई महात्मा न मिला। मेरे पूर्व जन्म के पुण्य से ही परमात्मा ने तुम्हें भेजा है । साधु ने अपनी असाधारण खातिरदारी देखी तो फूले नहीं समाये । अपने चंगुल में साधु को फंसता हुआ देख मांगू ने कहा - "तो महाराज! आज का निमंत्रण स्वीकार करो, बड़ी कृपा होगी ।" साधु को भोजन की इच्छा तो थी नहीं, भोजन तो वह पूर्व में ही कहीं कर आये थे । वह तो दक्षिणा के इच्छुक थे। बोले – “बेटा ! भोजन तो सप्ताह में हम एक बार ही करते हैं यदि कुछ नशे पत्ते का प्रबन्ध कर सको तो ..?" मांगू साधू के मनोभाव जान गया, बीच ही में बात काटकर बोला - "भगवन् ! भोजन के साथ एक रुपया दक्षिणा भी हाथ जोड़कर दूंगा । आप मुझे निराश न करें । साधु ने दक्षिणा का नाम सुना तो चेहरे पर प्रसन्नता के भाव आ गये । बोले - "भक्त! आज तक तो हमने कभी किसी के यहाँ भोजन करना स्वीकार किया नहीं, पर आज तेरे कारण हम अपनी प्रतिज्ञा तोड़ते हैं, क्या करे विवशता हैं, भगवान भक्त के वश में होते आये हैं ।" साधु ने दूध, रबड़ी, खीर और हलुवा उदरस्थ कर लेने के पश्चात् मांगू और उसकी पत्नी को अनेक आशीष दिये । आशीर्वाद ले चुकने के पश्चात् मांगू अपनी पत्नी से बोला - "जो, रुपया नारियल साधु बापजी के चरणों में भेंटकर अपने जन्म को सार्थक कर लें ।" मांगू की पत्नी खुशी खुशी भीतर गई और फिर बाहर आकर बोली – "भीतर घड़े में तो रुपये नहीं है ।" मांगू आंखें तरेर कर बोला - "हें, रुपये नहीं है, कहाँ गये, अभी-अभी तो एक सौ रूपये गिन कर मैंने घड़े में रखे थे।" उसकी पत्नी ने सरल स्वभाव से कहा – “तो मैं क्या जानूं? जहां तुमने रखें हों, वहाँ देख लो मुझे तो मिले नहीं । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 44 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति स्वासanslaruser-onics org Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्टसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ मांगू लपककर भीतर गया और थोड़े समय इधर-उधर देखकर सिर पकड़े हुये बाहर आया और --"हाय मैं लूट गया, बर्बाद हो गया " - कहकर जोर-जोर से रोने लगा । रोने की आवाज सुनकर पड़ोसी एकत्र होकर रोने का कारण पूछने लगे । बमुश्किल उसने बतलाया कि साहूकारसे अपने बैल वापिस लाने के लिये कुछ समय पूर्व घड़े में एक सौ रुपये गिनकर रखे थे । अब जो बाबाजी को एक रुपया दक्षिणा देने के लिये रखा था, जाकर देखा तो उसमें फूटी कौड़ी भी नहीं। पड़ोसी मांगू की गरीबी के कारण सहानुभूति रखते थे । सुनकर दंग रह गये । सबके सबने एक स्वर में कहा - "क्या कोई बाहर का व्यक्ति घर में गया था ।" मांगू ने उसी तरह मुँह लटकाये कहा – “बाहर का व्यक्ति कौन आता? बाबाजी, पत्नी और मेरे अतिरिक्त आज यहाँ प्रातः से चिड़िया तक नहीं फटकी ।" पड़ौसी बोले - "तो बन्धु ! घबराओ मत । तनिक इस साधु की तलाशी तो लो । इस भेष में सैकड़ों उठाई गिरे चोर-उचक्के फिरा करते हैं ।" मांगू गिड़ागिड़ाकर बोला – “भाई ! ऐसा मत कहो, पाप लगता है । ये साधु तो बड़े भारी महात्मा हैं । मेरे बहुत आग्रह करने पर भोजन करने का तैयार हुये थे ।" पड़ौसी तुनककर कहने लगे - "ऐसे सैकड़ों महात्मा जूतियां चटकाते फिरते हैं । दिन में ये भिक्षा मांगते हैं और रात्रि को चोरी करते हैं । अच्छा तुम न लो तलाशी हम ले लेते हैं । पाप भी लगेगा तो कोई चिन्ता नहीं । दो-चार दिन नरक में रह लेंगे।" इतना कहकर पड़ोसियों ने साधु की जेब, भीतर पहनी बण्डी की जेब आदि सब देख डाली, पर रुपये न मिले। मांगू ने देखा कि सिर के साफे को किसी ने नहीं देखा । अतः सिर पर हाथ मारकर कहा - बस बस, जो होना था सो हो गया, अब साधु के साफे को तो न उतारो । मांगू बात पूरी कह भी न पाया कि एक व्यक्ति ने साधु के साफे में जो झटका दिया तो कपड़े में बंधे रुपये खन-खन बिखर गये । पड़ोसियों ने जल्दी जल्दी सब रुपये घड़े में भर दिये । लालची साधु अपना सा मुँह ले कर जब जाने लगा तो मांगू ने चरण रज अपने मस्तक पर लगाते हुए कहा - "तो महाराज, अब कब दर्शन देंगे ।” लालची साधु बिना उत्तर दिये, नीची दृष्टि किये हुये चुपचाप चला गया । दो साधु दो साधु थे । एक का नाम आशादास और दूसरे का नाम रामशरण था । दोनों का स्वभाव दो तरह का था। रामशरण भगवान पर विश्वास रखने वाला था । वह किसी भी देवी-देवता अथवा राजा, सेठ आदि से अपनी आवश्यकता की पूर्ति की आशा नहीं रखता था। वह जो मिल जाता, उसी में सन्तोष मानकर उसे ही प्रभु की कृ पा समझ कर खा लेता । नगर का राजा उस समय गंगाराम था। रामशरण साधु नगर में यह कहता हुआ चक्कर लगाता फिरता - "जिसको दे राम उसको क्या देगा गंगाराम ।" दूसरा साधु आशादास ठीक इसके विपरीत था। वह ईश्वर को नहीं मानता था । चापलूस था । राजा, सेठ या किसी भी धनिक की चापलूसी करके उससे अपनी आशाओं की पूर्ति करने में उसका विश्वास था । परमात्मा का नाम कभी उसने जिहा पर नहीं आने दिया । आजकल वह राजा से आशा लगाये बैठा था कि किसी दिन राजा की कृपा हो जाएगी तो वह मुझे मालामाल कर देगा । इसलिये नगर में घूमता हुआ गाया करता - "जिसको देवें गंगाराम उसे क्या देगा राम ।" एक दिन वे दोनों साधु राजमहल के आसपास चक्कर लगा रहे थे । दोनों अपना-अपना गीत गा रहे थे । राजा गंगाराम उस समय अपने महल की छत पर हवा खा रहा था । उसने दोनों साधु की बातें सुनी । वह रामशरण पर बहुत ही क्रोधित हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 45 हेमेह ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति ironicatiohiblemotional Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ हुआ । परन्तु आशादास का गीत सुनकर उसे बहुत प्रसन्नता हुई । संतरी को बुलाकर उसने कहा - "वह जो साधु मेरी प्रशंसा कर रहा है, उसे अभी दरबार में बुला लाओ । संतरी आशादास को बुला लाया । वह मन ही मन खुश हो रहा था । सोच रहा था - आज तो राजा प्रसन्न होकर मुझे मालामाल कर देगा । राजा ने शीघ्र ही बाजार से एक तरबूज मंगाया और उसे कटवा कर उसमें ढूंस ढूंस कर अशर्फियां भर दी । और एक कपड़े में लपेटकर उसे रख दिया । आशादास तरबूज लेकर बाहर निकला | उसे गंगाराम राजा पर बड़ा क्रोध आ रहा था । और राजा के नाम की रट लगा रहा था। आज उसकी आशा पर पानी फिर गया, जब उसे तरबूज दिया गया । वह मनमें क्षुब्ध भी हुआ । तरबूज को फेंक देना चाहता था । पर फेंक न पाया । तभी एक कुंजडिन से उसकी भेंट हो गई । वह बोली - "बाबा !यदि आप तरबूज को देना चाहें तो मैं चार आने दे सकती हूं । मेरे पास इतने ही पैसे हैं ।" साधु ने सोचा फेंक देने से तो चार आने मिले वही अच्छे । उसने उस कुंजडिन को तरबूज देकर चार आने ले लिये । कुंजडिन तरबूज लेकर आगे चल पड़ी। रामशरण साधु दिन भर राम की रट लगता घूमता रहा पर मुश्किल से पेट भरने योग्य पैसे पा सका। पर वह उतने पैसो में खुश था । वह उसी तरह राम की रट लगाये घूमता रहा । घूमते-घूमते उसे भूख लग आई । उसने सोचा - जितने पैसे मिले हैं, उनसे कुछ खरीद कर पेट भर लेना चाहिये । यह सोच रहा था कि इतने में वहीं कुंजडिन मिल गई। बोली - "बाबा! तुम्हें तरबूज चाहिये तो ले लो । बहुत मीठा है ।" शाम हो आई थी । इसलिये कुंजडिन चाहती थी जो दाम मिले उतने में इस तरबूज को बेच दूं, नहीं तो कल तक यह सड़ जाएगा । साधु ने अपने झोले में हाथ डाला । कुल छ: आने निकले। उसे संकोच हो रहा था कि छ: आने में यह इतना बड़ा तरबूज कैसे दे देगी?" फिर भी साहस करके बोला – “माई! मेरे पास तो कुल छह आने हैं ।" कुंजडिन ने कहा - "ले जाओ बाबा !" कुंजडिन ने देखा कुछ तो लाभ हुआ । दो आने बचे वे भी ठीक है । रामशरण साधु ने तरबूज को खुशी से ले लिया । और चल पड़ा । उसे तो भर पेट खाना सस्ता पड़ा। उसने नगर के बाहर तरबूज काटने का विचार किया । अतः नगर के बाहर जाकर एक एक वृक्ष के नीचे अपना थैला उतारा और चाकू निकाल कर तरबूज काटने लगा । तरबूज के भीतर अशर्फियां भरी हुई थी । उसने तत्काल परमात्मा को स्मरण किया । उनकी अपार कृपा को याद किया । उसके मुंह से सहसा यह वाक्य निकल पड़ा जिसको देवे राम, उसे क्या देगा गंगाराम?" दूसरे दिन आशादास साधु नित्य की भांति राजमहल के आगे से होकर रट लगाये जा रहा था -"जिसको देवे गंगाराम उसको क्या देगा राम?" यह आवाज राजा गंगाराम के कानों में पड़ी । उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने आशादास साधु को बुलाकर पूछा - "क्यों महाराज! कल का तरबूज कैसा था?" आशादास को राजा का यह वाक्य तीर की तरह चुभ गया । उसे व्यंग्य समझ कर वह मन ही मन बड़ा रूष्ट हुआ अतः बोला - साधु से मजाक नहीं की जाती राजन् । मैंने उस तरबूज को चखा तक नहीं । एक कुंजडिन को चार आने में बेच दिया।" राजा अब क्या कहे । वह बड़ा आश्चर्य चकित था । उसने आशादास साधु को मालामाल करना चाहा था, लेकिन उसका भाग्य ही उल्टा था । उसे आश्चर्य हुआ । सोचा - वह तरबूज किसके हाथ लगा, पता लगाना चाहिये । अतः राजा ने उस साधु से पूछा - "क्या उस कुंजडिन को आप जानते हैं?" साधु ने कहा क्यों नहीं? वह प्रतिदिन चौराहे पर बैठा करती है । राजा ने उस कुंजडिन को बुलाने के लिये सिपाही भेजा । कुछ ही देर में वह डरती डरती राजा के सामने उपस्थित हुई । राजा ने पूछा- क्या इस साधु से तुमने तरबूज क्रय किया था? वह बोली - "हां महाराज!" राजा फिर उसका क्या हुआ? उसने कहा - "मैंने एक साधु को वह छ: आने में बेच दिया था।" राजा ने पूछा - क्या तुम उस साधु को पहचानती हो?" कुंजडिन ने कहा हाँ महाराज, पहचानती क्यों नहीं? अभी तो फाटक के बाहर वह आवाज लगा रहा था - जिसको दे राम उसे क्या देगा गंगाराम। यह सुनते ही राजा ने अपने घुड़सवार दौडाए और उनसे कहा कि - जो साधु जिसको दे राम उसे क्या देगा गंगाराम कहता हुआ जा रहा हो, उसे मेरे पास बुला लाओ । यह सुनते ही घुड़सवार दौड़ पड़े और खोजते-खोजते वहां पहुंच गए, जिस वृक्ष की छाया में साधु रामशरण विश्राम कर रहा था । उसे देखते ही एक सिपाही ने घुडक कर कहा- 'ऐ बाबाजी ! हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 46 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्य ज्योति Plain Educationational Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ष्टसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ तुम्हें राजा साहब दरबार में बुला रहे हैं । इस पर साधु मुस्करा कर बोला - "अपने महाराज से कहना कि मैं राम के दरबार को छोड़कर गंगाराम, के दरबार में नही जा सकता ।" घुड़सवारों ने राजा से जाकर कहा तो राजा की आंखों खुल गई।" वह सोचने लगा - "भगवान कितने दयालु है, जो मेरी आशा लगाकर बैठा था, उस चापलूस साधु को मैंने देना चाहा, पर उसका पुण्य प्रबल न था, इसलिये उसकी आशा फलित नहीं हुई और जो साधु हम में से सांसारिक लोगों की आशा न रखकर एक मात्र भगवान् की शरण में गया और उनकी कृपा का विश्वास रखा। उसे न देने पर भी अशर्फियाँ उसी के हाथ लगी । राजा ने तत्काल उस चापलूस साधु आशादास को बुलाकर कहा - सन्त प्रवर ! अब से मेरा नाम फिर कभी न लेना और न मुझसे कुछ पाने की आशा रखना । देने वाला तो ऊपर बैठा हैं। मैंने तुम्हारे द्वारा की गई प्रशंसा से अहं में आकर तुम्हें मालामाल कर देना चाहा था, पर भगवान को वह स्वीकार नहीं था ।" उस दिन से आशादास साधु को भी शिक्षा मिल गयी कि सांसारिक लोगों से आशा रखना ठीक नहीं । विश्वास तो भगवान पर ही होना चाहिये । यह है दोनों साधु की आदत का अन्तर । भाग्य का खेल किसी नगर में मदनलाल नाम का एक धनिक सेठ रहता था, जो स्वभाव से बड़ा दयालु था । गरीबों के दुःख दर्द को दूर करने में सदा तत्पर रहता था । याचकगण उसके द्वार से कभी खाली हाथ नहीं लौटते थे । उसके एक पुत्र था जिसका नाम चन्दन था । चंदन भी पिता की तरह दयालु स्वभाव का था । उसकी दया की सुगन्ध चन्दन की सुगन्ध की तरह चारों ओर फैल रही थी । माता-पिता उस सुगन्ध में सरोबार हो रहे थे । परिवार सुख से जीवन व्यतीत कर रहा था। एक रात्रि में चन्दन ने भयानक स्वप्न देखा तो देखते ही घबरा गया, उसके मुँह से चीख निकल गई । उसकी चीख सुनकर उसके पिता ने धैर्य बंधाते हुए पूछा - आज तुम्हारे मुँह से चीख क्यों निकल पड़ी, क्या बात हुई। "पिताजी ! मैंने आज बहुत बुरा स्वप्न देखा - इसी कारण मैं चीख पड़ा ।" कौनसा भयानक स्वप्न देखा है । मुझे भी तो बताओ । चन्दन ने बताया - आपकी मृत्यु हो गयी और जितनी भी सम्पत्ति थी वह नष्ट हो गयी, अल्प समय में ही मेरी स्थिति दयनीय हो गई । इस प्रकार के भयावह स्वप्न हो देखकर मेरा मन कराह उठा । पिता ने धैर्य बँधाते हुये कहा- "बेटा! कैसी भी परिस्थिति हो अथवा सामने आ जाए तो भी तू धैर्य मत खोना, सफलता तेरे चरणों में लौटेगी ।" पिता के साहसयुक्त बातों को सुनकर चन्दन उस समय तो आवश्स्त हो गया पर मन की धडकन कम नहीं हुई । एक दिन अचानक सेठ मदनलाल का स्वर्गवास हो गया । चन्दन पिता की मृत्यु के गम से ऊबर भी न पाया था कि एक दिन प्रातःकाल ज्यों ही वह बिस्तर छोड़ कर उठा तो उसकी दृष्टि भीतर के कमरे में गई, उसी समय चिल्ला उठा माँ! भीतर के कमरे में आग लग गई, न मालूम कब से लगी है । माल जलकर राख हो गया है आग बुझा दी गई । व्यापार में हानि होने लगी। वर्षों से काम कर रहे मुनिमों और नौकरों ने विश्वासघात कर सारा धन हड़प लिया । चन्दन के उदास चेहरे को देखकर मां ने धैर्य बँधाते हुये कहा - "बेटा ! घबराओ मत । कसौटी सोने की होती है, कथीर की नहीं । मानव जीवन संघर्षों के बीच ही व्यतीत होता रहता है । अपने शुभदिन समाप्त हो चुके हैं । इसलिये प्रत्येक कार्य भी सफल नहीं हो पा रहे हैं । तुम अपने पुरुषार्थ में लगे रहो । एक दिन ये दुर्दिन भी नहीं रहेंगे। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 47 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ पर मां ! किसी भी कार्य को करने के लिये रुपया भी तो चाहिये, धन के अभाव में कोई भी कार्य नहीं हो सकता। मां ने कहा - तल मंजिल ने जो भंडार बने हुये है। उनमें से कुछ स्वर्ण मोहरें तथा सोने चांदी के आभूषण निकाल कर ले आ । उन्हें बेचकर धंधा करो, ताकि दोनों का जीवन सुख से व्यतीत हो । चन्दन ने जब भण्डार खोले तो वह यह देखकर दंग रह गया, बोला – मां! यहां तो सब कोयला और कंकर ही कंकर है । न तो मोहरें हैं और न कोई सोने, चाँदी के आभूषण । अब क्या होगा माँ । चन्दन की बात सुनकर मां कि कर्तव्यविमूढ सी बन गई और दहाड़े मार रोने लगी । चन्दन भवन पर एक व्यापारी ने अपना अधिकार जमा लिया । माँ-बेटे को भवन से निकाल दिया । नगर के बाहर एक झोपड़ी बनाकर माँ-बेटे अपने दिन व्यतीत करने लगे । मां ने चन्दन को रास्ता सुझाया कि वन से लकड़ी लाकर बाजार में बेचो । उससे जो मूल्य प्राप्त हो उसी में संतोष कर जीवन व्यतीत करो । तथा सुबह शाम जगत पिता परमात्मा पर विश्वास रखकर उनका स्मरण करो । ताकि आत्मा को शांति मिले । चन्दन मां के बताये मार्ग पर चलने लगा । सुबह अपने आराध्य को स्मरण कर जंगल जाता और लकड़ियां काट कर लाता, उन्हें बाजार में बेचकर मूल्य मां को देता । भोजन से निवृत्त हो प्रभु के चित्र के समक्ष दीपक अगरबती जला कर प्रभु और इष्ट का एकाग्रता के साथ स्मरण करते । एक दिन सेठ के पुराने मित्र ने उनकी दुर्दशा देखी तो उसने झोपड़ी में पहुँच कर उन्हें पच्चीस मोहरें दी । उनसे माँ बेटे ने कपड़े बनवाये, वन से लकड़ियां लाने के लिये एक बैल क्रय कर लिया । चन्दन प्रतिदिन वन में जाता और बैल की शक्तिनुसार लकड़ियां लादकर लाता और उन्हें नगर में बेच देता। उनसे जो कुछ रुपये पैसे मिलते माँ को लाकर सौंप देता । इस तरह खाते-पीते एक महीने में पच्चीस स्वर्ण मोहरों का ऋण भी चुका दिया । दिन पर दिन व्यतीत होते गये पर परिस्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया । एक दिन उस नगर में महाज्ञानी महामुनि का अपने शिष्यों सहित आगमन हुआ । जनता उनके दर्शन और अमृत वाणी का लाभ लेने के लिये प्रतिदिन जाने लगी, चन्दन भी उनके दर्शनार्थ गया और पूछा-महामुनि ! मेरा भाग्य कब बदलेगा? क्या इसी तरह मारे-मारे फिरते रहने में ही जीवन व्यतीत कर देंगे या परिस्थिति में सुधार होगा? मुनिवर ने चन्दन के उच्च ललाट को देख कर कहा - चिन्ता न करो । परिस्थिति कभी एक-सी नहीं रहती है । उसमें परिवर्तन अवश्य आता ही है । पुरुषार्थ से मुँह मत मोड़ना, पुरुषार्थ ही परिस्थिति में परिवर्तन लाएगा। इससे दूर मत भागना । चन्दन ने घर आकर अपनी माँ को सारी बात बतायी तो वह प्रसन्नता पूर्वक बोली - पुत्र अब अपने अच्छे दिन आने वाले हैं । घर में आनन्द मंगल होगा । चन्दन प्रतिदिन की भाांति लकड़ियां बैल पर लादकर बाजार में बेचने गया, उस दिन उसे इष्ट की कृपा से अन्य दिनों की तुलना में लकड़ी का मूल्य अधिक मिला । उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था । इतने में उसे जोर की ठोकर लगी वह गिर पड़ा और बेहोश हो गया । कुल देवता जो वृद्ध के रूप में उसके पीछे-पीछे आ रहे थे, उसे सहारा देकर घर तक पहुँचाया । जब चन्दन ने अपनी माँ को मार्ग में घटित घटना से अवगत कराया और कहा एक वृद्ध सहारा देकर यहां छोड़ गया तो, माँ ने कहा - जरा जल्दी दौड़ तो जो वृद्ध तुझे यहां छोड़ गया क्या वह बाहर खड़ा है? उसे भीतर बुला ला, जा देख देर मत कर । चन्दन ने बाहर जाकर चारों ओर देखा, वह जा चुका था । वह मां के पास जाकर बोला - माँ वह तो बाहर कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुआ । तुम क्यों बुलाना चाह रही हो उसे? हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 48 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति Pagal use only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गष्टसंत शिगमणि अभिनंदन पंथ "बेटा ! तूने उसे नहीं पहचाना है । वह कोई वृद्ध या निर्धन ब्राह्मण नहीं था । वह तो अपना कुल देवता था। इतने में चन्दन ने देखा, जिस खूटे से बैल बंधा था उसे उखाड़ कर भागने का प्रयास कर रहा था । चन्दन दौड़ कर पहुँचा, पर जब तक बैल खूटा उखाड़ चुका था । अन्धकार की काली छाया हट गई, उसकी आंखें फटी की फटी रह गई । पुण्य का उज्ज्वल प्रकाश झोंपड़ी में चारों ओर फैल गया । उसने मां को आवाज लगाई मां देखो तो यहां तो बड़ा-सा गड्ढा हो गया है और कुछ कलश जैसा भी नजर आ रहा है । पास आकर देखो तो सही यह क्या है? माँ ने देखकर कहा - बस बेटा ! आज से अपने शुभ दिन आ गये, ये कोरे घड़े नहीं है, इसमें हीरे जवाहरात के आभूषण हैं । स्वर्ण मोहरों का भंडार है । अब सब कुछ ठीक हो जायेगा । सबसे पहले चन्दन ने पिता के हाथ की निशानी भवन मुक्त कराया । जिन नौकरों ने विश्वासघात किया था। स्वयं आ आकर क्षमा मांगने लगे । जैसा पूर्व में कारोबार चलता था पुनः चलने लगा । माँ-बेटे का जीवन सुख से व्यतीत होने लगा । चन्दन युवा हो गया था, अतः माँ ने संभान्त परिवार की सुशील कन्या देखकर विवाह कर दिया । सेठ की चतुराई एक सेठ अकेला ही व्यापार करने के उद्देश्य से विदेश के लिये चल पड़ा । उसने अपने साथ में किसी को नहीं लिया। मार्ग लम्बा और विकट था, फिर भी उसके मन में इसकी चिन्ता नहीं थी । उसे अपने आप पर विश्वास था । उसे अपनी बुद्धि और अपने विवेक पर विश्वास था । वह सदा अपनी स्वयं की बुद्धि और विवेक पर चलता था । मार्ग में जब वह चला जा रहा था, तब उसे एक व्यक्ति मिला । दोनों आपस में साथी बन गये । सेठ ने भी विचारा, चलो एक से दो भले । दूसरा साथी एक ठग था । राहगिरों को ठगना ही उसका काम था । ठग पहले दूसरे का साथी बनता और फिर विश्वास प्राप्त कर धीरे-धीरे उसे ठगता । उसने कुछ दूर चलने पर सेठ पर भी अपना हाथ साफ करने का विचार किया । चलते-चलते संध्या हो जाने पर एक गांव के बाहर रात्रि निवास के लिये वे ठहरें। रात्रि को सोने से पहले उस ठग ने सेठ से कहा – यह गांव ठीक नहीं है, अपनी सम्पत्ति को संभालकर ठीक से रखना । सेठ ने अपना बटुआ दिखाकर उस ठग साथी से कहा – यदि यह मेरा है तो कहीं जा नहीं सकता और यदि यह मेरा नहीं है तो, फिर इसकी रक्षा किसी तरह की नहीं जा सकती । उस ठग ने समझ लिया कि यह सेठ पूरा बुद्धू है । इस पर हाथ साफ करना आसान है । रात्रि में सेठ सो गया । वह ठग भी सोया तो नहीं किन्तु सोने का नाटक करने लगा । जब उसने देखा कि सेठ को गहरी नींद आ गई है, तब वह उठा और सेठ के वस्त्रों की तलाशी लेने लगा । बहुत देर तक तलाश करने पर भी उसके हाथ वह बटुआ नहीं लगा । आखिर थक कर और परेशान होकर वह ठग भी सो गया । प्रातःकाल जब दोनों उठे, तब उस ठग साथी ने सेठ से कहा कि अपनी पूंजी को संभाल लो, वह सुरक्षित है या नहीं । सेठ ने सहजभाव से कहा – क्या संभाल लें, सब ठीक है । देखो यह बटुआ मेरे पास ही है । वह ठग जिस बटुए को तलाश करता रहा । प्रातःकाल उसे सेठ के पास देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ । दूसरे और तीसरे दिन भी इसी प्रकार घटना घटी । वह ठग विचार करने लगा - आखिर बात क्या है? इसके पास ऐसा कौनसा जादू है, जिससे वह रात में इस बटुए को गायब कर देता है । आखिर उसने सेठ से पूछा - सेठ! मैं तुम्हारे साथ तुम्हें ठगने के लिये रहा, परन्तु उसमें मैं सफल नहीं हो सका । मैं इस रहस्य को जानना चाहता हूँ कि दिन में वह बटुआ आपके पास रहता है, किन्तु रात्रि में कहां चला जाता है? सेठ ने हँसकर कहा - जिस दिन पहली बार तुम मुझे मिले, उसी दिन तुम्हारे मुंह की आकृति देखकर मैं यह समझ गया था, कि तुम एक ठग हो । बात यह है कि बटुआ कहीं आता जाता नहीं था, अन्तर इतना ही था कि दिन में वह मेरी जेब में रहता था और रात्रि को वह तुम्हारी जेब में हेमेन्व ज्योति * हेमेन ज्योति 49 हेमेठद ज्योति* हेमेन्त ज्योति For Paolo Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ रहता था । मैंने सोच लिया था कि ठग सदा दूसरे की जेब ही तलाश किया करता है, वह कभी अपनी जेब नहीं देखता । इसी विश्वास के आधार पर मैं यह अदला-बदली किया करता था । यह परम सत्य है कि अपनी तलाश करना ठग का काम नहीं साहूकार का काम है । ठग को सदा अपनी जेब खाली लगती है तथा दूसरों की जेब भरी हुई लगती हैं, क्योंकि उसकी दृष्टि दूसरों पर रहती है । बुद्धि का महत्व एब बार एक सन्त घूमते फिरते गंगा किनारे जा पहुंचे । वहां सन्त ने देखा कि एक श्रद्धाशील भक्त गंगा के निर्मल प्रवाह में से एक लौटे में जल भरता है, उसे अपने दोनों हाथों में ऊँचा उठाकर सूर्य की ओर अपना मस्तक झुकाता है और जलधारा छोड़ देता है । सन्त ने पूछा -" यह क्या हो रहा है?" गंगा तट के पास खड़े पंडितों ने कहा कि आपको पता नहीं? सूर्य को जल चढ़ाया जा रहा है । पंडितों की बात सुनकर वह सन्त गंगा की धारा में गया और कमण्डल में जल भर सूर्य से विपरीत दिशा की ओर फेंकने लगे । तट पर उपस्थित पण्डितों ने और उनके श्रद्धाशील अनेक भक्तों ने इस अजीबों गरीब नजारे को देखा तो हँसने लगे। दो चार पंडित आगे बढ़े और मुस्कराकर सन्त से पूछने लगे - महाराज! आप यह क्या कर रहे हैं? सूर्य को गंगा जल अर्पण न करके इधर कहाँ और किसे जल चढ़ा रहे हो? बहुत देर से हम आपके इस अनोखे कार्य को देख रहे हैं, पर कुछ समझ में नहीं आ रहा कि आपका क्या तात्पर्य है? अनुभवी एवं ज्ञानी सन्त ने गंभीर होकर पण्डितों की बातों को सुना और मुस्कराकर बोले – मैं बहुत दूर से आया हूँ । मेरे देश में बहुत सूखा है, जल का अभाव है । अतः मैंने विचारा कि गंगा का जल बड़ा ही स्वच्छ एवं पवित्र है, इस जल को अपने देश के सुदूर खेतों में पहुँचा दूं? मुझे सूर्य को जल नहीं चढ़ाना है । मुझे तो अपने देश के खेतों को जल पहुँचाना है। अतः अपने देश की ओर ही जल अर्पण कर रहा हूँ । ताकि मेरे देश के सूखे खेत हरे भरे हो उठे । यह सुनकर सब के सब भक्त और पंडित हंस पड़े और बोले- मालूम होता है आपका मस्तिष्क ठिकाने पर नहीं है। भला यहाँ दिया गया जल आपके सुदूर देश के खेतों में कैसे पहुंच जाएगा? यहाँ की गंगा का जल आपके देश के खेतों को हरा-भरा कैसे कर देगा? आपके देश के खेतों के लिये तो आपके देश का जल ही काम आ सकता है । आप यहाँ इतनी दूर बैठे, इस प्रकार गंगाजल अपने देश के खेतों में कैसे पहुँचा सकते हैं? संत स्वर में माधुर्य भरते हुये बोले- जब आपका किया हुआ जल दान इस मृत्यु लोक से सूर्य लोक में पहुँच सकता है और वहाँ स्थित अतृप्त सूर्यदेव परितृप्त हो सकते हैं, अथवा सूर्य के माध्यम से पितृलोक में पितरों को जल मिल सकता है, तब मेरा वह जल दान मेरे देश के खेतों में क्यों नहीं पहुँच सकता? मेरा देश तो आपके सूर्य लोक एवं पितृलोक से बहुत निकट है । मैं समझता हूं जब यहाँ का जलदान एक लोक से दूसरे लोक में पहुंच सकता है अथवा पहुंचाया जा सकता है तब इसी धरती का जल इसी धरती के दूसरे देश में क्यों नहीं पहुंच सकता या क्यों नहीं पहुंचाया जा सकता? संत की तर्क पूर्ण बात को सुनकर सब सकपका कर रह गए । किसी से कोई उत्तर देते नहीं बना। सब सन्त के मुंह की ओर देखने लगे । सबने देखा कि सन्त के मुख मण्डल पर और उनके सतेज नेत्रों में ज्ञान की आभा चमक रही है । सबको मौन देखकर संत ने गंभीरता के साथ कहा - मेरी बात आप लोगों की समझ में आई या नहीं? मनुष्य जो भी कार्य अपनाए पहले उसे बुद्धि और विवेक से छान लेना चाहिये? हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 50 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति S a carpratUse Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था एक वयोवृद्ध पण्डित ने कहा - महाराज! आपकी बात समझ में तो आती है । परन्तु हमारे पास शास्त्र का आधार है | जब कि आपके पास वह आधार नहीं है । शास्त्र एवं पुराणों में सूर्य को जलदान का विधान हैं, इसलिये हम लोग हजारों पीढ़ी से इस कार्य को कर रहे हैं । भला शास्त्र की बात से कौन इन्कार कर सकता है? शास्त्रों के प्राचीन विधान से इन्कार कैसे किया जा सकता है? सन्त ने गंभीर होकर कहा- शास्त्र जो कुछ कहता है वह अल्पसमय के लिये अलग रख दीजिये । मैं आपसे केवल यही पूछता हूँ कि इस विषय में आपकी अपनी बुद्धि क्या कहती है और वह क्या निर्णय करती है? क्या आपकी बुद्धि में यह तर्क संगत है? सबसे बड़ा शास्त्र तो आपकी बुद्धि का है । पहले देखो और सोचो कि इस विषय में तुम्हारी बुद्धि का क्या निर्णय है? शास्त्र के नाम पर जो कुछ चल रहा है उसके अच्छे और बुरे परिणामों को तौलने की तुला हमारी बुद्धि ही है । मानव जीवन का सबसे बड़ा शास्त्र चिन्तन और अनुभव है । जिसे आज शास्त्र कहा जाता है आखिर वह भी तो किसी पुत्र के व्यक्ति विशेष का चिन्तन और अनुभव ही है । बुद्धि के बिना तो शास्त्र के मर्म को भी नहीं समझा जा सकता। इसलिये जीवन और जगत के प्रत्येक व्यवहार में बुद्धि की बड़ी आवश्यकता है । यह माना कि शास्त्र बड़ा हैं और उसकी शिक्षा देने वाला गुरु भी बड़ा है । यदि शास्त्र भी हो और गुरु भी हो, पर शास्त्र के गंभीर रहस्य को और गुरु के उपदेश के मर्म को समझने के लिये बुद्धि न हो तो क्या प्राप्त हो सकता है? शास्त्र और गुरु केवल मार्ग दर्शक हैं । सत्य एवं असत्य का निर्णय अच्छे और बुरे का निश्चय आखिर बुद्धि को ही करना है । एक ही शास्त्र के एक ही वचन का अर्थ करने में विचार भेद हो जाने पर उसका निर्णय भी अन्ततोगत्वा बुद्धि ही करती है । उपयोगिता अनुपयोगिता का निर्णय हजारों वर्षों पश्चात् कौन करता है? पाठक की विवेकशील बुद्धि ही उक्त निर्णय करने की क्षमता रखती है। _ज्ञानी और अनुभवी संत की इस तथ्यपूर्ण बात को सुनकर वे सब भक्त और पण्डित बड़े प्रसन्न हुए । सन्त के अनुभव से अनुप्राणित तर्क के समक्ष वे सब नतमस्तक हो गये । संत के समझाने का ढंग इतना मधुर था कि संत की बात उन सभी के हृदय में आसानी से उतर गई और उन लोगों ने यह समझ लिया कि जीवन में शास्त्र और गुरु का महत्व होते हुए भी अन्त में सत्य एवं तथ्य का निर्णय बुद्धि ही को करना पड़ता है । सन्त के कहने का अभिप्राय था कि जल यहाँ है । और सूर्य दूर है, भला यहाँ का जल सुदूर सूर्य लोक में कैसे तृप्ति का साधन हो सकता है? जल यहाँ है और खेत सुदूर प्रदेश में है । यहाँ का गंगा जल उन खेतों की इतनी दूर कैसे सिंचाई कर सकता है? जहाँ कारण है, वही उसका कार्य भी हो सकता है। सुख का मंत्र किसी नगर में रामलाल नामक एक सेठ रहता था । उसकी दुकान बहुत छोटी था । उसमें केवल आवश्यकता का सामान ही रहता था । कभी-कभी वह एक थैली में सामान भरकर आसपास के ग्रामों में भी सामान बेचने जाया करता था। दिन भर में जो कमाई करता उसी में परिवार का पालन पोषण करता था । उसके परिवार में पति-पत्नी के अतिरिक्त दो पुत्र और दो पुत्रियां थी । इस तरह कुल छ: प्राणी का परिवार था । धन के नाम उनके पास बाप दादा का बनाया कच्चा मकान था । नकद पूंजी नहीं थी । परिवार के सभी सदस्य जो समय पर मिल जाता खाकर संतोष के साथ जीवन व्यतीत करते थे । नगर में उसकी सादगी व रहन सहन की बड़ी चर्चा होती थी । जब कि नगर के अन्य व्यापारी गण लालची व अव्यवहार कुशल थे । सुखी होते हुये भी सुखी नहीं थे। एक बार उस नगर में एक दुःखी इधर-उधर भटकता हुआ आया और किराने की बड़ी दुकान देखकर उसके मालिक के पास गया और कहने लगा - "ओ सेठ साहब ! ओ सुखी भाई ! मुझे सुख का कोई मंत्र दीजिये, कोई उपाय बताइये, जिसे अपनाकर मैं भी सुखी हो जाऊँ ।" हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 51 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति jathaluraryal Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सेठ अव्यवहारिक अभिमानी था, अपने आगे किसी को कुछ समझता नहीं था तथा लालची था । दुःखी मनुष्य को उसने डाट कर भगा दिया । इस तरह वह नगर के सभी धनी लोगों के पास गया, पर उसकी दयानीय दशा देखकर किसी सेठ ने उससे बात तक नहीं की । अन्त में किसी दयालु व्यक्ति ने उस दुःखी मनुष्य को रामलाल का मकान बता कर कहा वह व्यक्ति तुम्हें सुख का कोई मंत्र बता देगा । रामलाल गरीब अवश्य था, किन्तु तत्वचिन्तक, विचारशील तथा निर्णायक बुद्धि का धनी होने के साथ वह व्यवहार कुशल भी था । अपने मान्य धर्म पर उसे अटूट विश्वास था | धर्म ही उसका सबसे बड़ा मददगार था । जब दुःखी मनुष्य उसके पास गया तो उसने उसकी बात धैर्य के साथ सुनी । उसे फिर चटाई पर बिठाया तथा एक गिलास शीतल जल पिलाया । जिससे आगन्तुक की शांति मिली । पश्चात् रामलाल ने कहा - "बन्धु ! मेरे पास सुख का कोई मंत्र नहीं है । परन्तु आगन्तुक किसी तरह मानने को तैयार नहीं था । कहने लगा - नगर निवासी आपका ही कहते हैं । इसलिये मैं सुख का मंत्र लिये बिना यहाँ से नहीं जाऊँगा ।" रामलाल ने उससे कहा - "तुम किसी सुखी मनुष्य का कमीज ले आओ, फिर मैं तुम्हें सुख का मंत्र दे दूंगा ।" आगन्तुक ने कहा – “जी, यह हुई न बात । एक कमीज ही तो लाना है? मैं कई सुखियों के कमीज ला सकता हूँ । अच्छा नमस्ते ।। दुःखी मनुष्य देश के सबसे बड़े शहर में गया और वहाँ एक विशाल भवन, उसके नीचे लम्बी-चौड़ी हीरे-जवाहरात दुकान, वहाँ सैकड़ों ग्राहक बैठे थे । उसने जाकर सेठ को आवाज लगाई । सेठ बोला-कौन? " मैं हूँ एक दुःखी मनुष्य। मुझे फला नगर के निवासी सेठ रामलाल ने आपका एक कमीज लेने के लिये भेजा है ।" सेठ ने कहा - "किसलिये? मेरा कमीज क्यों चाहते हो?" वह बोला – रामलालजी ने कहा है कि तुम किसी सुखी मनुष्य का कमीज ले आओ तो मैं तुम्हें सुख का मंत्र दे दूंगा ।" सेठ बोला - "भाई ! कमीज तो भले ही तुम एक के बदले दो ले जाओ, परन्तु मैं सुखी नहीं हूँ।" आगन्तुक ने कहा - "भाई! क्यों मेरी हंसी उड़ाते हो? आपके पास इतना बड़ा भवन है चार-चार कारें हैं। नौकर चाकर हैं, फिर भी आप कहते हैं कि मैं सुखी नहीं हूँ, मैं मान नहीं सकता ।" सेठ - "अच्छा ! तुम चार दिन मेरे यहाँ रहकर देख लो कि मैं दुखी हूँ कि सुखी हूँ ।” आगन्तुक ने रहना स्वीकार कर लिया । सेठ ने अपने नौकर से कहकर अपने विशेष शयन कक्ष के पास ही अतिथि गृह में आगन्तुक के रहने और खाने-पीने का प्रबन्ध करा दिया । दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही सेठ की अपने पुत्र के साथ बोला चाली हो रही थी । लड़का कह रहा था - "मेरी भी अपनी इच्छाएं हैं । मैं भी उस दुनिया में आया हूँ, तो जगत् का आनन्द लूट लूं । आप मुझे किसी भी बात से रोक नहीं सकते ।" सेठ कह रहा था - "परन्तु तू मेरी भी कुछ माना कर । मेरे नाम पर कालिख भी मत पुतवा । यदि इस पर भी तू नहीं मानता तो मेरे घर से निकल जा ।" लड़का कहने लगा - " मैं आपका दास नहीं हूँ। मैं हर जगह जाने के लिये स्वतंत्र हूँ । आप जैसे कंजूस और क्रोधी पिता के पास रहना मुझे बिलकुल पसन्द नहीं है ।" पिता ने कहा - "नालायक ! कमीने । निकल जा, अभी का अभी ।" इस प्रकार पिता-पुत्र का कलह सुनकर आगन्तुक ने विचार किया मैं तो समझता था यह सेठ बड़ा सुखी है परन्तु यह तो मुझसे भी ज्यादा दुःखी है । मेरा पुत्र कम से कम मेरी आज्ञा का तो पालन करता है । उसने सेठ से कहा – “नमस्ते सेठजी! मैं जा रहा हूँ । वास्तव में आप सुखी नहीं है, यह मैंने देख लिया । हेमेन्द्रज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 52 हेलेन्द्र ज्योति* हेमेन्ट ज्योति R EMEDY p aluse only areltool Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सेठ से विदा लेकर वह एक बड़े जमींदार के यहां पहुंचा और उनसे अपना कमीज देने को कहा । जमींदार ने पूछा तो उसने कारण बता दिया। जमीदार ने भी कहा - "तुम मुझे सुखी मानते हो, पर मैं सुखी नहीं हूँ ।" आगन्तुक ने कहा ने कहा - "वाह ! आपके यहाँ रईसी ठाटवाट है, फिर भी आप कहते हैं कि मैं सुखी नहीं हूँ, मैं मान नहीं सकता " जमीदार ने भी उसे कुछ दिन रहकर देखने को कहा। तीसरे ही दिन जमीदार का उसकी पत्नी के साथ झगड़ा देखा तो आगन्तुक दंग रह गया। वह मन ही मन सोचने लगा-"इस जमीदार से तो मैं अधिक सुखी हूँ।” जमीदार के यहाँ से चलकर एक बड़े दुकानदार के यहाँ पहुँचा उसने वहाँ ग्राहकों की भीड़ लगी देखी । जब सभी ग्राहक सामान लेकर चले गये तो उसने दुकानदार से नमस्ते करके अपना कमीज देने के लिये कहा । दुकानदार बोला - "भाई! तुम मुझे जैसा सुखी समझते हो, वैसा मैं सुखी नहीं हूँ ।" आगन्तुक कहा "आपको क्या दुःख है इतना धन बरस रहा है फिर भी आपको दुःख " दुकानदार बोला - "भाई ! इतना सब होते हुए भी मुझे तो सुख से भोजन करने का भी समय नहीं मिलता । ग्राहकों की इतनी भीड़ रहती है कि न तो मैं समय पर खा-पी सकता हूँ, न सो सकता हूँ न ही अपने परिवार से सुख-दुःख की बातकर सकता हूँ मनोरंजन के लिये भी मुझे समय नहीं मिल पाता। फिर मैं अपने आपको कैसे सुखी मानूँ?" | दुकानदार के यहाँ से चलकर वह छोटे व्यापारी, किसान, श्रमिक, ग्रामीण, नागरिक आदि कई प्रकार के लोगों के पास पहुँचा, परन्तु कोई भी सुखी मनुष्य उसे नहीं मिला । तात्पर्य यह है कि उस दुःखी को बहुत घूमने पर भी कोई व्यक्ति ऐसा नहीं मिल जो स्वयं को सुखी कहता हो । अन्त में वह रामलाल के पास पहुँचा और कहने लगा - "बहुत भटकने पर भी मुझे कोई सुखी नहीं मिला । अतः आप ही सुख का कोई मंत्र देना चाहते हों तो दे दीजिये ।" रामलाल ने उसे समझाया - "जब तक तुम्हारे मन में इस जड़ शरीर और शरीर से सम्बन्धित स्वजन आदि के प्रति ममत्व और मोह रहेगा तब तक तुमसे सुख और शांति कोसों दूर रहेगी ।" यह सुनकर दुःखी मनुष्य सुख के इस मूल मंत्र को पाकर प्रसन्नता से चल दिया । 3 दौलत का सदुपयोग किसी नगर के सेठ के यहां शान्तिलाल नामक एक लोभी प्रकृति का व्यक्ति नौकर था। शासकीय सेवा से अधिक मात्रा में धन उपार्जित करने के बाद भी उसकी धन कमाने की इच्छा अथवा धन से मोह कम नहीं हुआ । वह धन जोड़-जोड़कर रखता जाता, और साधारण भोजन करके जीवन व्यतीत करता था । दौलत के लालची शान्तिलाल ने एक दिन अपनी पत्नी पार्वती से कहा- "तुम बाजार में जाओ और दीन एवं करुण स्वर में पुकार कर कहो "मेरे पति को सेठ ने बन्दी गृह में बन्द करवा दिया है।" ऐसा करने से जनता तुम्हारे प्रति सहानुभूति बताएगी, तुम्हें रोटी कपड़े की सहायता कर देंगे और करवा भी देंगे। मैं रात्रि को घर आ जाया करूँगा ।" पार्वती ने इस उपाय से धन बटोरना प्रारंभ कर दिया । धन बढ़ने के साथ-साथ शान्तिलाल में कंजूसी भी बढ़ती गई। वह अपनी संग्रहवृत्ति की इच्छा को पूरी करने के लिये सेठ के मकान से प्रतिदिन एक सोने का सिक्का चुरा कर लाने लगा। एक दिन शान्तिलाल से उसकी पत्नी ने पूछा “इतने सिक्कों का क्या करोगे?" शान्तिलाल ने कहा - "हम इन सिक्कों को तुड़वाकर माला बनवा लेंगे और नगर से बहुत दूर चले जायेंगे। फिर शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करेंगे।" परन्तु एक दिन नौकर शांतिलाल को चोरी करते हुये रंगे हाथों पकड़ लिया । उसे बन्दी बना कर न्यायालय में न्यायाधीश के सामने उपस्थित किया गया । न्यायाधीश ने निर्णय सुनाते हुए कहा "शांतिलाल बाजार में हेमेन्द्र ज्योति के ज्योति 53 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था तुम्हारी पत्नी सेठ के मकान से चुराया हुआ सोने का सिक्का बेचते हुए पकड़ी गई । तुम भी चोरी करते हुये पकड़े गये। इससे स्पष्ट मालूम पड़ता है कि तुम चोर हो । तुम्हारे पास धन का अभाव नहीं है । परन्तु तुमने धन का दुरुपयोग किया। व्यापारियों सम्बन्धियों और मुझे ठगने के अपराध का दण्ड यह है कि तुम्हें सिर से पैर तक पीटा जाए तथा सेठ के भवन में चोरी करने के अपराध में तुम दोनों को फांसी पर चढा दिया जाए ।" दण्ड सुनकर शांतिलाल और उसकी पत्नी पार्वती दोनों गिड़गिड़ाने लगे । इस पर न्यायाधीश और सेठ को उन पर दया आ गई । उन्होंने आदेश दिया कि बेईमानी और धोखेबाजी से कमाये हुये धन को इन दोनों के गले में बांधकर इन्हें बाजार मे घूमाते हुये इनके घर पहुँचाया जाए ।" इसके बाद सेठ ने नगर के राजा से मिल कर सारे नगर में यह घोषणा करवा दी कि कोई भी व्यापारी इन दोनों को धन के बदले खाने-पीने का और पहनने का सामान न दे । जो व्यापारी इस आदेश का पालन नहीं करेगा, उसे फांसी का दण्ड दिया जाएगा ।" घर आने पर शांतिलाल और उसकी पत्नी बहुत ही प्रसन्न थे कि धन भी मिला और प्राण भी बचे पर पांच छ: दिनों में उन्होंने सोने के कुछ सिक्के देकर खाने-पीने का सामान क्रय करना चाहा । परन्तु सभी व्यापारियों ने उन्हें सामान देने से स्पष्ट मना कर दिया । जब उन्हें कुछ भी सामान नहीं मिला तो परेशान होकर वे पुनः राजा के दरबार में उपस्थित हुये। उन्होंने सारी सम्पति राजा के चरणों में रखकर उनसे विनम्र प्रार्थना की- "अन्नदाता! हमारी यह सम्पत्ति लेकर, जिन्हें आवश्यकता हो उनमें बांट दीजिये, सेठ भी वहीं था, उसने भी यही कहा - जनता को यह ज्ञात हो जाए कि दौलत को दबाकर रखने से नहीं किन्तु सदुपयोग करने से सुख मिलता है ।" 3 सच्चा उपदेश एक संत यत्र-तत्र विचरण करते हुए किसी ऐसे प्रदेश में पहुँच गए, जहाँ के व्यक्ति बड़े क्रूर और निर्दयी थे। पशुओं को मारकर खाना तो उनके लिये साधारण बात थी, वे मनुष्यों को मारने में भी नहीं हिचकिचाते थे । संत ने जब यह सब देखा तो उनके हृदय में बड़ी पीड़ा हुई और वे लोगों को अहिंसा धर्म है और हिंसा घोर पाप है, उन्हें नाना प्रकार से अपने उपदेशों के द्वारा समझाने का प्रयत्न करने लगे । फलस्वरूप अनेक व्यक्तियों के हृदय पर उनके उपदेशों का मार्मिक प्रभाव पड़ा और उन्होंने हत्या करना त्याग दिया । उनमें ऐसे व्यक्ति भी थे जो धर्म के मर्म को अपने पास भी नहीं फटकने देते । जब उन्होंने देखा कि हमारी जाति के अनेक व्यक्ति संत की बातों में आकर अपने जन्म जात व्यवसाय हिंसा को छोड़ रहे हैं तो उन्हें बड़ा क्रोध आया और अवसर पाकर उन्होने संत को बहुत पीटा तथा उनके वस्त्र, पात्र आदि सब छीन लिये । संत लहूलुहान होने पर भी पूर्ण शांति एवं समभाव पूर्वक ध्यान में बैठे रहे । जब उनके कुछ अनुयायी उधर आये और संत की ऐसी दशा देखी तो चकित और अत्यन्त दुःखी होकर बोले - भगवन् ! दुष्टों ने आपकी ऐसी दुर्दशा की और सब कुछ छीन लिया, तब भी आपने आवाज लगा कर हमें क्यों नहीं अवगत कराया । आपकी आवाज सुनकर हम में से कोई न कोई तो आ ही जाता और उनको अपने किये का मजा चखा देता । संत अपने भक्तों की यह बात सुनकर अपनी स्वभाविक शांत मुद्रा और मुस्काराहट के साथ बोले - भाइयो ! क्या कहते हो तुम? मेरी दुर्दशा करने वाला और मुझसे अपना सब कुछ छिनने की शक्ति रखने वाला इस संसार में हैं ही कौन? संत की बात सुनकर वे हितैषी व्यक्ति बहुत चकराये और आश्चर्य से बोले- हम स्वयं देख रहे हैं कि उन लोगों ने आपके शरीर को लहूलुहान कर दिया है और आपकी सब वस्तुएं छीन कर ले गये हैं । आंखों देखी भी क्या गलत हो सकती है भगवन् ? हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 54 हेमेन्ट ज्योति* हेमेन्ट ज्योति thaparesamarueche Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्टसंत शिरामीण अभिनंदन गंथा संत ने उत्तर दिया - बन्धुओ ! तुम जो कुछ देख रहे हो वह असत्य नहीं है । पर यह शरीर तो मैं नहीं हूं। मैं जो कुछ हूँ वह अपनी आत्मा से हूँ । भला बताओ । मेरी आत्मा को कहां चोट लगी है? उसका तो कुछ भी नहीं बिगड़ा, वह जैसी की तैसी है । रही बात वस्त्र-पात्र छीन ले जाने की । उसके लिये भी तुम किसलिये दुःख करते हो? वे वस्तुएं मेरा धन नहीं थी । मेरा धन मेरी आत्मा के गुण हैं और वे सब सुरक्षित है । एक भी उनमें से छिना नहीं गया । कोई उन्हें छीन भी कैसे सकता है? संत की बात सुनकर लोगों की आंखें खुल गई और वे सोचने लगे - महाराज श्री का उपदेश अभी तक हमने अधूरा सुना था, आज ही सच्चा उपदेश सुन सके हैं । अन्यत्व कहने का अभिप्राय यह है कि यही यथार्थ और भावना का सच्चा उदाहरण हैं । समाधि भाव की महत्ता : एक बार अनेक यात्री एक बड़े जहाज में बैठकर यात्रा कर रहे थे । वहां कुछ कार्य न होने से कुछ यात्री तत्त्वचर्चा में लगे हुए थे और समाधिभाव की महत्ता पर विशद चर्चा कर रहे थे। ठीक उसी समय समुद्र में अचानक ही भीषण तूफान आ गया और वह जहाज पत्ते के समान डगमगाने लगा। यात्री यह देखकर बहुत घबराने लगे और बढ़-बढ़कर समाधिभाव की महत्ता को प्रमाणित करनेवाले यात्री व्याकुल होकर इधर से उधर दौड़ भाग करने लगे । किन्तु एक व्यक्ति जो शुरू से ही चुपचाप बैठा था और वाद-विवाद में तनिक भी भाग नहीं ले रहा था । वह तूफान से जहाज के डोलते ही आंखें बन्द कर समाधि में लीन हो गया । न उसके चेहरे पर भय का भाव था और न ही व्याकुलता का । आत्मिक शांति की दिव्य आभा उसके मुख मुण्डल को और भी तेजस्वी बनाये हुये थी। कुछ देर पश्चात् तूफान शांत हुआ और जहाज पुनः पूर्ववत् चलने लगा । यह देखकर यात्री शांत हुए तथा अपनी घबराहट पर अधिकार पाते हुये सुस्थिर होकर बैठ गये । उन्होंने देखा कि तूफान के रूक जाने पर ही समाधिस्थ व्यक्ति ने भी अपनी आंखें खोली हैं | और ध्यान समाप्त किया है । सभी व्यक्ति आश्चर्य से उसे देखने लगे और बोले - भाई ! तूफान के कारण हमारे तो प्राण सूख गये थे पर तुम हो कि और भी आत्म-समाधि में लीन हो गये थे । क्या तुम्हें जहाज के डगमगाने से प्राण जाने का भय नहीं हुआ था। वह व्यक्ति तनिक हंस कर बोला - बन्धुओ ! जब तक मैंने धर्म का मर्म और समाधि भाव का अर्थ नहीं समझा था, तब तक मैं भी तूफान से बहुत डरता था । किन्तु तुम लोगों की समाधि पर की गई तत्वचर्चा से मैंने उसका महत्व समझ लिया और समुद्र में तूफान के आते ही मैं समाधि पूर्वक अपने भीतर के विशाल धर्म द्वीप पर जा बैठा। मैंने समझ लिया था कि इस द्वीप तक तूफान से उठी हुई कोई भी लहर नहीं आ सकती । उस ज्ञानी पुरुष की यह बात सुनते ही प्रश्न करने वाले सभी बड़े लज्जित हुए और समझ गये कि खूब तर्क-वितर्क कने से और धर्म के मर्म को शब्दों के द्वारा समझ लेने से ही कोई लाभ नहीं होता । लाभ तभी होता है, जबकि थोड़े कहे गये या सुने हुए को जीवन में उतारा जाय । कहने का तात्पर्य यही है कि जो प्राणी धर्म की शरण लेता है, धर्म उसकी रक्षा अवश्य करता है । ज्ञान की अमर ज्योति एक आचार्य थे, उनके पास अनेक शिष्य अध्ययन करते थे । उनमें से कुछ ज्ञानी और कुछ परिश्रमी थे । उन सब शिष्यों में एक मन्द बुद्धि शिष्य भी था । उसकी अवस्था परिपक्व थी । आचार्य उसे पढ़ाने का बहुत कुछ प्रयत्न करते थे, पर उसे कुछ भी समझ में नहीं आता था । अपनी बुद्धि की मन्दता पर उसे बहुत दुःख होता था और इसलिये वह बड़ा खिन्न रहता था । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 55 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति ducation-inteinal Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ............ एक दिने उसे खिन्न एवं उदासीन देख कर गुरु ने पूछा - "वत्स! तू इतना खिन्न और उदास क्यों रहता है ? तू गृहस्थ की ममता छोड़कर पढ़ने के लिये एवं साधना के क्षेत्र में यहां आया है । यहां आकर तुझे सर्वथा स्वस्थ एवं प्रसन्न रहना चाहिये । विद्यार्थी जीवन के साथ खिन्नता और उदासीनता का मेल नहीं बैठता है । शिष्य ने कहा – “गुरुदेव! आपका कथन सत्य है । मुझे खिन्न और उदास नहीं रहना चाहिये । आपके श्री चरणों में मुझे किसी भी प्रकार का अभाव नहीं है । आपका असीम अनुग्रह ही मेरे जीवन की सबसे बड़ी थाती है। परन्तु क्या करूं अपनी मन्द बुद्धि पर मुझे बड़ा दुःख होता है । मैं अधिक शास्त्राध्ययन नहीं कर सकता । मुझे तो थोड़े से में बहुत कुछ आ जाये, आपकी ऐसी कृपा चाहिये ।" _ आचार्य ने कहा - "चिन्ता मत कर । मैं तुझे ऐसा ही छोटा सा एक सूत्र बतला देता हूँ, उसका तू चिन्तन मनन कर, अवश्य ही तेरी आत्मा का कल्याण होगा । सभी धर्म और दर्शन की चर्चा का सार इस एक सूत्र में आ जाता है । आचार्य ने अपने उस मन्द बुद्धि शिष्य को यह सूत्र बतलाया - न किसी के प्रति द्वेष कर और न किसी के प्रति राग कर । मोह ममता का भी त्याग कर तथा सदा एक ही बात का ध्यान करके उस पर गंभीरता पूर्वक विचार कर कि जो कुछ हूँ मैं ही हूँ । इस संसार सागर में रहकर मुझे पार उतरने का प्रयत्न करना चाहिये । साधना का सार इसीमें है । आचार्य ने अनुग्रह करके बहुत ही सारगर्भित अर्थपूर्ण वाक्य बतला दिया और कहा - वत्स! ब्रह्ममुहूर्त में स्नानादि से निवृत्त होकर एकाग्रचित हो बगुले की तरह ध्यान मग्न होकर शान्ति पूर्वक चिन्ता मुक्त होकर चिन्तन मनन करना । मेरा आशीर्वाद है कि थोड़े ही दिनों में तुम्हारी बुद्धि में तेजस्विता आ जाएगी। उस मन्द बुद्धि शिष्य को अपने गुरु के वचनों पर अटल आस्था थी, इसलिये उसने गुरु के निर्देशानुसार, ब्रह्ममुहूर्त में उठकर गुरु द्वारा बताये वाक्य को मन ही मन स्मरण कर उस पर चिन्तन करता । अर्थ से सत्य उस वाक्य का भावात्मक ध्यान करते हुये एक दिन उस मन्द बुद्धि शिष्य को ज्ञान की वह अमर ज्योति प्राप्त हो गई जो एक बार प्रज्वलित होकर फिर कभी बुझती नहीं है, जो एक बार प्रकट होकर फिर कभी नष्ट नहीं होती है । आचार्य के दूसरे शिष्य जो बड़े बड़े ज्ञानी और पण्डित थे, इस मन्द बुद्धि शिष्य के समक्ष हतप्रभ हो गए । ज्ञान की महाप्रभा के समक्ष उनके ज्ञान की प्रभा उसी प्रकार फीकी पड़ गई, जैसे कि सूर्योदय होने पर तारा मण्डल की प्रभा फीकी पड़ जाती है । गुरु को तथा अन्य शिष्यों को जब उक्त तथ्य का पता चला, तब वे सब आश्चर्य चकित हो गए । गुरु के हृदय में इस बात की परम प्रसन्नता थी, कि मेरे शिष्य का अज्ञान सर्वथा दूर हो गया और ज्ञान की वह अमर ज्योति उसे प्राप्त हो गई जो अभी तक मुझे और अन्य शिष्यों को भी प्राप्त नहीं हो सकी है । इससे बढ़कर गुरु को और क्या प्रसन्नता हो सकती थी । बुद्धि बिकाऊ है, मदन नित्य मित्रों के साथ रहकर व्यर्थ खर्च किया करता था । जिसके कारण उसकी पत्नी यशोदा बहुत परेशान थी । घर में भुनी भांग नहीं पर मदन के यहाँ एक न एक अतिथि बना ही रहता था । मदन स्वयं इस परेशानी से मुक्त होना चाहता था पर करता क्या? आदत से लाचार था । पत्नी यशोदा की दिन-रात जली कटी बातें सुनते-सुनते मदन के नाकोदम आ गया । तब कहीं राम-राम करके उसने दस रुपये कमाकर अपनी पत्नी को दिये । दस रुपये पाकर यशोदा फूली न समाई । मारे खुशी के उसके भूमि पर पांव नहीं पड़ते थे । क्योंकि पहले उसका पति जो कुछ कमाता था उसका आधा भाग मित्रों के साथ खर्च कर देता । यशोदा इस शुभ दिन के लिये परमात्मा को लाख-लाख धन्यवाद दे रही थी कि मदन पण्डित बाहर से हांफता हुआ आया और बोला- जल्दी कर वह रुपये कहां है? शीघ्र निकाल, मैं बाजार से सामान लाऊँ और तू ... " हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 56 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Main Education meatonal PERStseep Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था। रुपयों के देने का आदेश सुनते ही यशोदा के शरीर पर मानों किसी ने घड़ों पानी डाल दिया हो । वह बीच में ही बात काट कर बोली – आखिर इस बौखलाहट का कुछ कारण भी?" "अरे वाह ! मेरे गुरु आये हैं और तुझे बौखलाहट दिखाई देती है" मदन तनिक आंखें तरेरकर बोला । "गुरु आये हैं तो क्या हुआ? कोई नई बात तो हैं नहीं , यहां तो नित्य ही एक न एक भुखमरा पड़ा रहता है।" यशोदा पुनः तनिक आंखें मटका कर बोली - "दुतकार क्यों नहीं देते? भूखों मरकर कब तक अतिथि-सत्कार करोगे ! कुछ गांठ की भी बुद्धि है या उम्र भर जो दूसरा कहेगा वैसा ही करते रहोगे?" मदन तनिक मुस्कराकर बोला - "मर्सिये गाना हम जानते, मैं हरकाम में उस्ताद हूँ फिर भी कहती है - क्या उम्र भर दूसरों के ऊपर निर्भर रहोगे? अरे हमने तो वह वह संगति की है कि परमात्मा के दूत भी आकर बुद्धि की शिक्षा ले।" यशोदा हंसी को दबाते हुए कहने लगी - बेशक! मुझसे गलती हुई । आखिर मैं भी तो सुनूं आज कौन साहब पधारे हैं जिनके लिये..." पण्डित मदन बीच में ही बात काटकर कहने लगे - "अरे क्या, तू आज भी ऐसा - वैसा अतिथि आया हुआ समझती है? आज मेरे गुरु आये हैं, गुरु ! इन्हीं की कृपा से पतंगबाजी का ज्ञान हुआ है । ईश्वर की सौगन्ध अपने फन में ये पक्के हैं बहुत होशियार हैं । भारत के अतिरिक्त विदेशों में भी नाम है । इनकी कोई बराबरी नहीं कर सकता ।" यशोदा पति की इन शेख चिल्ली वाली बातों से रही-सही और भी जल-भुन गई । तुनककर बोली - "तभी तो सासजी कहा करती थी" मेरे बेटे के तीन चार मित्र है ।" तीन चार मित्र गुरुओं के गुरु हैं । मदन घर में तो पड़ा नहीं रहता था, जो चुपचाप पत्नी के ताने सुनता । आज उसने दस रुपये कमा कर पत्नी यशोदा को दिये थे । फिर क्यों किसी की जली-कटी बातें सुनने लगा । वह दांत-पीसकर बोला - "रुपये देती है या नहीं,नहीं तो कपडे की तरह कूट दूंगा । यशोदा मार खाने की आदी बन चुकी थी, पर न मालूम उसे क्या सूझा । मटक कर बोली- तुम तो नाराज हो गये, मैंने तो हंसते हुए तुम्हें छेड़ दिया था, लो यह एक पैसा इसका पान खा लेना, इतना कहकर वह रुपये लेने चौके में चली जाती है। मदन इठलाता हुआ पान खाने चला जाता है । गरीबी में रही-सही गांठ की बुद्धि भी चली जाती है, पर व्यापार में बुद्धू होते हुए भी बुद्धि हाथ जोड़े खड़ी रहती है। यशोदा के पास आज दस रुपये थे, जिसकी उसे गर्मी थी, तत्काल उसे भी उपाय सूझ गया । वह किवाड़ की ओट से मदन (पति) के गुरु से बनावटी रोनी आवाज में बोली ईश्वर के लिये तुम अपने शिष्य को उत्तम मार्ग पर लाओ, मुझ पर बड़ी कृपा होगी, यदि आपने उन्हें सही राह दिखायी । "ऐसी क्या बात है? आखिर कुछ बात भी तो सुनूं । गुरु तनिक गौरवान्वित होकर बोले । मदन की पत्नी तनिक गिड़गिड़ाकर बोली – “कोई बात भी तो हो । कहूँ तो घर की इज्जत का सवाल है, न कहूं तो चैन नहीं, मेरी तो सब तरह से फजीहत ।" गुरुजी तनिक अपनी हवा में लहराती सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बोले - "नहीं बेटी! हमसे क्या छिपाना, हम तो घर के व्यक्ति है । अपने ससुर की तरह और पिता की तरह मुझे भी समझो ।" ससुर और बाप तो समझाते-समझाते हार गये, पर इनको कोई असर नहीं हुआ । ईश्वर जाने किस मूर्ख से यह बुरी आदतें सीखें हैं ।" यशोदा तनिक उदास होकर बोली । हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति 57 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ। "बेटी तू मेरा मरे हुए का ही मुँह देखे, जो मुझसे न कहे ।" गुरुजी ने तनिक प्रौढ़ावस्था के शब्दों में कहा। यशोदा निशाना ठीक लगते देखकर बोली - लो, जब सौगन्ध दिलादी तो विवश होकर कहना ही पड़ा कि तनिक अपने शिष्य से सतर्क रहना । ये पहले तो आने-जानेवालों का खूब आदर सत्कार करते हैं और न मालूम फिर क्यों चाहे जिसके नाक कान काट लेते हैं । ईश्वर रक्षा करे, न जाने यह बीमारी इन्हें न जाने कहां से लग गयी? मैं तो सारे सम्बन्धियों में बदनाम हो गई । गुरुजी! कोई किसी की छाया तो नहीं है । तनिक देखना मैं तुम्हारे पांव पड़ती हूँ।" इतना कहकर वह किंवाड़ की ओट से गुरूजी के पास से खिसक आई । उधर गुरुजी के पेट में चूहे कबड्डी खेलने लगे। अजीब परिस्थिति में घिरे हुए थे । रहें या चल दें ? चल क्यों दे? आखिर अपना शिष्य है, क्या मुझसे भी यह बदतमीजी करेगा? कर भी दे तो क्या आश्चर्य? पागल कुत्ता अपना-पराया नहीं देखता है, उसकी थोड़ी सी बात होगी और यहां जीवन पर्यन्त नकटे बूचे हो जायेंगे । ऐसी मेहमानबाजी किस काम की? इसी प्रकार न जाने क्या-क्या ऊँच नीच विचारते हुए खूटे से बंधी अपनी घोड़ी खोलकर चलते बने । मदन बडे खूबसूरत हुक्के को लखनवी खुशबूदार तम्बाकू से भर करके लाया तो गुरुजी को न पाकर पत्नी से पूछा - गुरुजी कहां गये?" यशोदा मुंह बिगाड़ कर बोली – “अच्छे गुरुजी को लाये, न लाज, न शरम, कहते भी न लजाया ।" मदन घबरा कर बोला - "आखिर हुआ क्या?" यशोदा ने मटक कर कहा -"होता क्या कहने लगा तनिक पेटी में से चाकू तो निकाल कर दो | मैंने हाथ के संकेत से मनाकर दिया । बस इतनी सी बात पर मुझे और तुम्हें गालियां बकता हुआ घोडे पर सवार होकर चल दिया । मदन दांत किचकिचा कर कहने लगा - "अरे नालायक की औलाद ! इसमें लाज और शर्म की क्या बात थी? दे क्यों नहीं दिया? एक चाकू क्या, उनके ऊपर सैकड़ों चाकू न्यौछावर कर दूं ।" इतना बोलकर मदन ने पेटी में से चमचमाता चाकू निकालकर तथा उसे खोलकर गुरुजी को मनाने चल दिया । गुरुजी ने मुड़कर देखा कि मदन चाकू लिये हुए आ रहा है तो उसे यशोदा की बात का पूरा विश्वास हो गया । उन्होंने अपना घोड़ा और भी तेज कर दिया । गुरुजी का घोड़ा दौडते देख मदन चाकू दिखाकर चिल्लाने लगा - "गुरुजी, बात तो सुनो" पर गुरुजी के तो होश उड़ रहे थे । उन्हें अपने नाक-कान की चिन्ता लगी हुई थी । अन्त में मदन विवश हो मुंह लटकाये घर आ गया । मदन उदास था और यशोदा प्रसन्न नाक-कान काटने की बात ऐसी फैली कि फिर किसी मेहमान का मदन के यहां आने का साहस न हुआ । वचन का पालन एक बार एक राजकुमार सांयकाल के समय वायु सेवन के निमित्त राजमहल से निकला । राजकुमार अकेला ही महल से निकला था । उसने किसी भी रक्षक को साथ नहीं लिया था । जब वह घने जंगल के बीच से अपनी मस्ती में जा रहा था तब अचानक एक भयनाक और क्रूर राक्षस ने वृक्ष से उतर कर उसे पकड़ लिया और मारने की तैयारी करने लगा । उस समय उसके नेत्रों में अश्रु आ गये । यह देखकर राक्षस अट्टहास करता हुआ बोला "अरे वाह! क्षत्रिय पुत्र होकर भी मृत्यु से डर रहा है?" यह व्यंगात्मक वचन सुनकर राजकुमार ने निर्भयता पूर्वक कहा - "मैं मृत्यु से कभी भी नहीं डरता । मुझे केवल इस बात का दुःख है कि मैंने एक ब्राह्मण को सहायता देने का वचन दिया था और उसे ही देने जा रहा था। पर तुम्हारे द्वारा पकड़ लिये जाने से मेरा वचन भंग हो जाएगा और ब्राह्मण बेचारा अभावग्रस्त बना रहेगा । अतः यदि तुम मुझे थोड़े समय के लिये छोड दो, तो मैं अपने वचनानुसार ब्राह्मण को सहायता रूप कुछ धन दे आऊँ।" हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 58 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Pagesonal uses Tery.org Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था राक्षस ने कहा - "मुझे मूर्ख समझते हो? एक बार छोड देने पर तो पुनः तुम्हारी छाया भी मुझे कभी दृष्टिगोचर न होगी ।" "मैं क्षत्रिय पुत्र हूँ । कभी वचन भंग नहीं कर सकता । चाहो तो एक बार परीक्षा करके देख लो ।" उस राक्षस को राजकुमार के दृढ़ वचन सुनकर आश्चर्य हुआ और उसने सोचा क्या हानि है? एक बार इसकी परीक्षा ही कर लूं । शायद यह लौटकर नहीं भी आया तो मेरा क्या नुकसान हो जाएगा । इस वन में लोग भूले-भटके आते ही रहते हैं । एक के बदले चार को मृत्यु के घाट उतार दूंगा । यह विचार कर उसने राजकुमार को अपना कार्य करके लौट आने तक के लिये जाने दिया । कुछ दिन पश्चात् राक्षस ने देखा कि वही राजकुमार उसे ढूढता हुआ उसके सामने आ खड़ा हुआ है । साथ ही राक्षस ने देखा कि राजकुमार का चेहरा उस दिन की अपेक्षा आज अधिक तेजोमय एवं प्रसन्न है । और उस पर अपार तृप्ति तथा संतुष्टि के चिन्ह दृष्टिगोचर हो रहे हैं । आश्चर्य के साथ उसने पूछा- राजकुमार ! मुझे तुम्हारे वापस आने की तनिक भी आशा न थी । क्या तुम्हें मृत्यु का भय नहीं है । मैं तो सदा मनुष्यों को मृत्यु के समय रोते-चीखते ही देखता हूँ । ___राजकुमार ने अपनी उसी प्रसन्नता तथा शांतिपूर्ण स्निग्धता से कहा - "बन्धु ! मैं मृत्यु से नहीं डरता, क्योंकि अपने अब तक के जीवन में मैंने कोई भी बुरा काम नहीं किया है, जिसके फलस्वरूप मरने पर परलोक में किसी प्रकार का कष्ट उठाना पड़े । मेरा अब तक का पूरा जीवन संयम एवं सदाचार पूर्वक व्यतीत हुआ है। ऐसी स्थिति में भला मरने से मैं क्यों डरूंगा? मृत्यु का भय तो उन्हीं लोगों को होता है जो पाप पुण्य और परलोक में विश्वास न रखने के कारण जीवन में सदा पापाचरण करते हैं तथा क्रूरता के कारण भयंकर से भयंकर कृत्य करने में भी पीछे नहीं हटते । फल यही होता है कि उन मनुष्यों को मरते समय अपने पापों के लिये पश्चाताप तो होता ही है । साथ ही यह भय बना रहता है कि जीवन भर किये हुए पापों के कारण परलोक में मुझे न जाने कैसे घोर कष्ट भोगने पड़ेंगे? राक्षस ने जब राजकुमार की बातें सुनी तो उसकी आंखें खुल गई और उसे ज्ञात होने लगा कि मैंने तो न जाने कितने लोगों के प्राण लिये हैं तथा असंख्य पाप संचय कर लिये हैं । पर अब भी यदि नहीं चेता तो पुनः मेरी परलोक में क्या दशा होंगी । यह विचार आते ही उसने राजकुमार को अनेकानेक धन्यवाद देते हुये उसे छोड़ दिया, साथ ही अपने जीवन को भी बदल डाला और किये हुये पापों के लिये भी घोर पश्चाताप करते हुये तप एवं त्याग-मय-जीवन व्यतीत करना शुरूकर दिया । साधु की चार शिक्षाएं ग्रीष्मऋतु और वैसाख–जेठ का महीना, ऊपर से सूर्य देवता की प्रखर किरणें ऋतु को और भी भयानक बनाने का प्रयत्न कर रही थी । पक्षीगण चहचहाते हुये समूह में गर्मी से निजात पाने के लिये अपने नीड़ों में जाकर विश्राम कर रहे थे। सूर्य धीरे-धीरे पश्चिम दिशा की ओर सरक रहा था पर अभी भी उमस कम नहीं हुई थी । थोड़ा विश्राम करने के पश्चात् एक सन्त एकाग्रता के साथ मंथर गति से अपनी मंजिल की ओर चले जा रहे थे । साधु प्रकाण्ड विद्वान थे । उनके अमृत तुल्य उपदेश का श्रोताओं पर आश्चर्य जनक प्रभाव पड़ता था । मार्ग में थोड़ी दूरी पर भीतर की ओर चोरों का सरदार अपने साथियों के साथ रहता था । जेठ का महीना जाने की तैयारी कर रहा था और आषाढ़ मास आने को उतावला हो रहा था । इतने में आकाश में काली-काली घटाएं उमड़-उमड़कर आने लगी । और गर्जन करके वरसने लगी । संत ने आगे बढ़ना उचित न समझ कर जहाँ चोरों का सरदार निवास करता था उस स्थान के निकट पहुंचे ही थे कि इतने में दो चार चोर आये और संत को हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 59 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति maintelligat Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ देखकर परस्पर कानाफूसी करने लगे "क्या यह कोई गुप्तचर है?" एक ने साहस कर पूछा - "तुम कौन हो बाबा?" यहां भयावने जंगल में किसलिये आये हो?" "तुम्हारी इस गठड़ी में क्या माल है?" तुम बोलते हो कि नहीं महाराज?" "देवानुप्रिय ! मैं साधु हूँ । वर्षा के कारण यहां आ गया हूं । मार्ग में हरियाली पर्याप्त मात्रा में हो चुकी है। इसलिये अब मैं आगे न जाकर तुम्हारे आसपास ही वर्षा के चार माह व्यतीत करूंगा ।" "अच्छा साधु महाराज! हम साधु- वाधु कुछ नहीं जानते । हमारे सरदार के पास चलो ।" बीच में सन्त और आगे-पीछे चोर चल रहे थे। उनके कंधों पर वस्त्र में बंधे शास्त्र लटक रहे थे । द्वार पर साधु को खड़ाकर दिया । उनकी निगरानी करने के लिये एक चोर वहीं खड़ा रहा । सिर झुका कर चोर बोला सरदार ! एक साधु बाबा मार्ग भूलकर द्वार पर खड़ा है। चार माह तक यहीं गुफा में रहना चाहता है। कौन जाने कहीं कोई गुप्तचर तो नहीं है । वरना बड़ी मुश्किल हो जाएगी । आप वहीं जाकर पूछताछ कर लें । सम्मान पूर्वक सरदार ने कहा- मुनिवर ! इस भयावने विकट वन में चार मास तो क्या एक दिन भी नहीं रह सकते हैं । यहां जंगली जन्तु जहरीले कीड़े अधिक मात्रा में है तथा चोर डाकुओं की भी अधिकता है। आपको तंग करेंगे । इसलिये यहाँ रहना उचित नहीं है । "संत की विवशता जानकर सरदार ने इस शर्त पर रहने की अनुमति दे दी कि चार मास पर्यन्त किसी भी मेरे साथी को उपदेश देना नहीं, किसीको किसी प्रकार का त्याग करवाना नहीं और किसीसे भी मेरे निवास से संबंधित जानकारी पूछना नहीं ।" सन्त ने चार मास पूर्णकर वहां से प्रस्थान किया। मुनि की सत्यता सहिष्णुता समता व अखण्ड तपोमय साधना जीवन में प्रत्यक्ष देखकर सरदार अत्याधिक प्रभावित हुआ । सरदार ने कहा - "कृपालु ! सहर्ष आप मेरे योग्य शिक्षा प्रदान करें । मैं यथाशक्ति उस पर चलने का प्रयत्न करूंगा।" “देवानुप्रिय ! ज्ञान और विज्ञान तो अनन्त है। किन्तु तुम तो मेरी चार बातें याद रखना अवश्य तुम्हारा कल्याण होगा । वे चार बातें इस प्रकार हैं : 1. बिना नाम जाने फल नहीं खाना | 2. सावधान किये बिना किसी को मारना नहीं । 3. अन्य राजा-रानी व दूसरे की बहिन बेटी अर्थात् पराई स्त्री को माता व बहिन समझना । 4. कौए का मांस कभी भी खाना नहीं । चारों शिक्षाओं को सुनकर सरदार सउल्लास प्रतिज्ञा स्वीकार कर अपने आवास की ओर लौट गया । एक बार वह अपने साथियों के साथ एक नगर के राज्य कोष को लूटने चल दिया । मार्ग में सबको भूख लगने लगी राह में आये फलों को तोड़ने के लिये जैसे ही हाथ बढाये सरदार ने उन्हें मना करते हुए कहा "साथियो ! क्या तुम्हें इन फलों के नाम याद है । किसी ने जवाब नहीं दिया । मगर कतिपय साथियों ने चुपके से फल तोड़ कर खा लिये। जैसे ही फल खाये उन्हें बेहोशी आने लगी, देखते-देखते सभी साथी मौत की गोद में सदा के लिये सो गये । सरदार को सन्त की पहली शिक्षा पर विश्वास हो गया । एक बार सरदार गुप्त मार्ग के द्वारा अपने घर पहुंचा, उसने देखा उसकी पत्नी पर पुरुष के साथ एक ही बिस्तर पर सोई हुई है। उसका चेहरा क्रोध से लाल हो गया, उसने दोनों को मौत के घाट उतारने के लिये म्यान से तलवार बाहर निकाली ही थी कि मुनि की दूसरी शिक्षा याद आगई । "बिना सावधान किये किसी को नहीं मारना ।" हेमेार ज्योति ज्योति 60 - हेमेन्द्र ज्योति मेजर ज्योति ainelibra Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गष्टसंत शिशमणि अभिनंदन गंथा आहट पाकर उसकी बहिन जो पुरुष वेश में अपनी भाभी के पास सोयी थी, चौंककर उठ बैठी और बोली - "आओ भाई ! इस अंधेरी रात में इस समय कहां से आ रहे हो?" क्या बहिन तू? पुरुष वेश में ! ऐसा क्यों किया? शंका में मैं तुम दोनों को मौत के घाट उतार रहा था । सरदार ने कहा । "भाई ! आप तो उधर गये और पीछे एक शत्रुदल यहां आ गया था । मैंने तुम्हारी वेशभूषा पहनकर सामना किया। वे इस वेश के बहाने तुम्हें समझ कर भाग गये । कहीं फिर न आ जाय इस कारण मैंने वेश नहीं बदला।" अनाज की कमी आ जाने के कारण सम्पूर्ण उत्तरदायित्व बहिन और पत्नी को सौंप कर सरदार अकेला ही चोरी करने निकल पड़ा । वह सोचने लगा - कहीं बड़े खजाने में डाका डालूं ताकि जीवन पर्यन्त आराम से बैठकर खाऊँ। वह शीघ्रता से शहर के निकट आ पहंचा । रात का समय था । नगरवासी गहरी नींद में थे । वह राजमहल के पास जा पहुंचा । पहरेदार सभी निद्रादेवी की गोद में आराम की नींद सो रहे थे । चोर सरदार ने महल के पीछे से प्रवेश किया । रात्रि के शान्त वातावरण में सरदार के प्रवेश करने की आहट से रानी की नींद उचट गई । वह समझ गई कि कोई महल में घुस आया है । वह डरी नहीं वरन् उसके रंग रूप गठीला बदन एवं यौवन को देखकर मोहित हो गई । चोर इधर-उधर छिपना चाह रहा था पर - "कौन?" धीमें स्वर में रानी ने पूछा । मैं चोर हूं।" धैर्यपूर्वक चोर सरदार ने उत्तर दिया । मैं तुम्हें अपार धन राशि दे सकती हं पर शर्त यह है कि तुम मेरे साथ प्यार भरी बातें करो । "अन्य रानियों, नारियों को मैं माता व बहिन समान मानता हूं । तुम भी बहिन के समान हो ।” चोर सरदार ने उत्तर दिया । यदि तुमने मेरा उपभोग किया तो मैं तुम्हें अपने हृदय के ताज पर ही नहीं अपितु अवसर मिला तो सारे देश का ताज भी प्रदान करवा सकती हूं । तनिक सोचो, और मेरे अनुरोध को स्वीकार कर लो । मैं पक्का चोर हं. मैं अपनी मर्यादा व सत्य धर्म को बेच कर नहीं आया हूं । तेरे अनुरोध को सौ बार ठुकराता हूं और धिक्कारता हूं । मैं हर्गिज तेरे जाल में आने वाला नहीं हूं। राजा, चोर और रानी के बीच हो रही बातचीत को छिपकर सुन रहा था । उसने निष्कर्ष निकाला कि चोर तो है पर रानी ही चरित्रहीन है । रानी ने पुनः कहा - "देखो ! तुम्हारा जीवन मौत के मुंह में चला जायेगा, तुम्हें अभी सोचने का अवसर देती हूं।" "मेरे प्राण भले ही चले जायें, किन्तु मैं तेरे साथ बैठ नहीं सकता हूं । चोर ने कहा । जब रानी की स्वार्थ पूर्ण हीं हुई तो वह जोर जोर से चिल्लाने लगी - "आओ ! आओ ! चोर ! चोर ! पकड़ो! पकड़ो !" चोर को पकड़ लिया गया और दूसरे दिन उसे प्रातः राजा के सामने उपिस्थत किया गया । चोर व रानी के बीच हुई बातचीत को प्रारंभ से अन्त तक राजा ने सुन लिया था । अतः चोर की विजय हुई, रानी को दण्ड दिया गया। राजा ने कहा – “मैं तुम्हारी सत्यता पर अत्याधिक प्रसन्न हूं, तथा प्रभावित हुआ हूं । अतः निर्भय होकर अपना परिचय दो ।" चोर ने अपना परिचय दे दिया, जिसे सुनकर राजा बहुत प्रभावित हुआ । और बोला - "मेरे कोई सन्तान नहीं है। तुम मेरे धर्म पुत्र हो, मैं तुम्हें अपना युवराज बनाना चाहता हूं । तुम्हारी कौशलता और ईमानदारी से मैं सन्तुष्ट हूं । तुम्हारे परिवार में और कौन-कौन है?" हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति cation Nandicrary.ory Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ "मेरी बहिन और मेरी धर्मपत्नी है ।" "जाओ बेटा ! अति शीघ्र सभी को यहां ले आओ । डाकू का जंगली जीवन व्यतीत करना तुम्हारे जैसे शूरवीर को शोभा नहीं देता ।" सरदार बहिन और पत्नी को ले आया । वह सरकारी काम करते हुए जीवन व्यतीत करने लगा । अपनी कार्य शैली के कारण थोड़े दिन में ही लोकप्रियता प्राप्त करली और प्रजा भी गुणगान करने लगी। साधु द्वारा दी गई तीसरी शिक्षा पर सरदार को असीम श्रद्धा हो गई । वह सन्त के आने की प्रतीक्षा करने लगा । राजा की मृत्यु के पश्चात् बह राजा बनाया गया । जनता पूर्व की तरह सुख से जीवन व्यतीत करने लगी। उसने राज्य में सर्वत्र हिंसा बन्द करवा दी और प्रत्येक जीव को अभय कर दिया । एक बार वह बीमार हुआ, किसी अनाड़ी वैद्य ने सलाह दी कि राजा को कौए का माँस खिलाने पर बीमारी मिट जाएगी। पर राजा ने जनता के दबाव के बावजूद भी इस उपचार को स्वीकार नहीं किया । अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहते हुए साधु की चौथी शिक्षा का दृढ़ता से पालन किया । बीमारी बढती गई, खूब उपचार किया, अन्त में मृत्यु को प्राप्त हुआ । जनता ने रोते हुये दुःखी हृदय से राजा का मृत शरीर अग्नि देव को समर्पित कर दिया । ३ परिश्रम का फल ललित के पिता तीन-चार रुपये मासिक वेतन पर एक कपड़ा मील में चौकीदारी करते थे । आर्थिक, सामाजिक चिन्ताओं से भरा हुआ जीवन था । बमुश्किल भर पेट भोजन मिल पाता था । कपड़े पहनने को मिल गये तो भाग्य समझो, नहीं तो फटे वस्त्रों में ही दिन व्यतीत करना पड़ते थे । जूते, टोपी की बात तो स्वप्न के समान थी । बालक ललित धीरे- धीरे उस दमघोट वातावरण में बड़ा होने लगा । निर्धनता के कारण पिता ललित को शिक्षित करने की बात ही कैसे सोच सकते थे । इच्छा अवश्य होती थी कि मेरा पुत्र भी पढ़ लिखकर योग्य, धर्मात्मा, संस्कारी और समाज में प्रतिष्ठित विद्वान बने । परन्तु आर्थिक विवशता थी । उनका पुत्र पुस्तकों, वस्त्रों का व्यय और फिर चाय पानी का तथा धनवानों के बच्चों की भांति जेब खर्च मांगेगा तो कहां से लाऊँगा? यही चिन्ता पिता को थी । जब कभी ललित अपने पिता से पढ़ने-लिखने को कहता तो पिता की आंखें डबडबा आती । केवल इतना उत्साहप्रद वाक्य अवश्य कहते - "बेटा ! तेरा मन ज्ञान पाने को ललचाता है । ये बड़प्पन के लक्षण हैं । भगवान चाहेगा तो तब यह सब होगा । पिता की विवशता भरी बातें सुनकर भी ललित के मन में पढ़ लिखकर विद्वान बनने, परोपकार के कार्य करने की गुप्त अभिलाषा बनी हुई थी । वह उपयुक्त अवसर प्रतीक्षा में था । लगन के साथ ही उसमें शिष्टता, विनयशीलता आदि गुण कूट-कूट कर भरे थे । सबसे मृदुभाषण और कोमल व्यवहार ने उसके अनेक मित्र बना दिये । उसने ऐसे सज्जन छात्रों से मित्रता की जो अवकाश के समय अपनी पुस्तकें उसे पढ़ने देते थे । यही नहीं जो बड़ी-बड़ी शुल्क देकर विद्यालय में अध्ययन कर आते थे, वे इस दीन बालक को भी कुछ-कुछ पढ़ा देते थे । जब दूसरे धनवानों के बालक खेलते तो यह नगर पालिका के लेम्प के धीमे प्रकाश में पढ़ा करता । किसी ने दया करके पेन्सिल दे दी तो सड़क पर पड़े हुए कागज के रद्दी टुकड़ों पर लिख-लिख अक्षर सीखने लगा । उसे पाठय-पुस्तक के कई पाठ और कहानियां कण्ठस्थ हो गई।" बालक ललित की तेज बुद्धि, कठोर श्रम और लगन देखकर उसके गरीब पिता ने अधिक कमाई के लिये एक योजना बनाई । वह पुत्र को लेकर पास के बड़े नगर बम्बई के लिये पैदल चल दिया । मार्ग में एक जगह विश्राम लेने के लिये रूके तो पिता ने कहा - "न जाने हम कितनी दूर चलकर आये हैं ।” बालक ने तत्काल कहा - "नौ मील, पिताजी।" हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 62 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति in Edalen Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ "तुम्हें कैसे मालूम हुआ ?" पिता ने पूछा । "पास के मील के पत्थर पर नौ का अंक लिखा हुआ है, पिता जी ।" बालक का उत्तर सुनकर व उसकी कुशाग्र बुद्धि देख पिता हर्ष विभोर हो गया । बालक ललित ने पिताजी के साथ चलते-चलते अंग्रेजी के अंकों का ज्ञान कर लिया पुत्र की तीव्र बुद्धि के कारण पिता उसे लेकर वापिस गांव को लौट पड़े और संकल्प किया - "मैं एक समय भोजन करूंगा, सारे घर को आधे पेट रखूगा, पर ललित को शाला अवश्य भेजूंगा ।" बस यही संकल्प बालक ललित की उन्नति का आधार बन गया । घर आकर पिता ने उसे गांव की पाठशाला में प्रवेश करा दिया । बालक खूब मनोयोग पूर्वक अध्ययन करने लगा। पुस्तकों के सहारे उसने उच्चतम ज्ञान प्राप्त कर लिया। गांव की पाठशाला में वह सर्वोत्तम छात्र निकला । शिक्षक उससे सन्तुष्ट रहते और उसकी प्रशंसा किया करते थे । गांव के स्कूल की पढ़ाई समाप्त होने के पश्चात् आगे पढ़ाना पिता के लिये असंभव था । अतः इंकार करना पड़ा । इस पर ललित ने पिता से विनती की कि उसे विद्यालय में भर्ती करा दें, शुल्क और पढाई का व्यय वह स्वयं परिश्रम करके चला लेगा । वह नगर में स्वयं काम की तलाश कर लेगा पिता ने उसे बम्बई के एक संस्कृत विद्यालय में भर्ती करा दिया । महाविद्यालय में उसकी लगन सेवा भावना, विनम्रता ने शिक्षकों को इतना प्रभावित कर दिया कि ललितप्रसाद को शुल्क मुक्त कर दिया । पुस्तकों के लिये वह अपने सहपाठियों को साझीदार हो गया था। अपने पुरुषार्थ और प्रबन्ध से उत्तरोत्तर वह अपनी योग्यता बढ़ाता गया । लगातार प्रगति करता गया । उन्नीस साल की आयु तक पहुंचते-पहुंचते उसने व्याकरण, साहित्य अलंकार, स्मृति तथा वेदान्त शास्त्रों में अगाध पांडित्य प्राप्त क लिया। वह गांव का बालक महान विद्वान बन गया। उसकी असंदिग्ध विद्वता तथा धर्मसंस्कारों से युक्त उच्च आचरण से प्रभावित होकर विद्वानों की सभा ने उसे मान पत्र देकर सम्मानित किया और उसके मूल्यांकन में अनुरोध पूर्वक बम्बई के एक महाविद्यालय में संस्कृत विषय का प्राध्यापक नियुक्त किया गया । शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य को ऐसे ही दृढ़ निश्चयी व्यक्ति प्राप्त कर सकते हैं । कुसंगति का प्रभाव किसी नगर में एक सेठ रहता था । वह करोड़ों की सम्पत्ति का स्वामी था । स्वभाव से सरल, दयालु, करुणाशील और दीन-दुःखी प्राणियों के प्रति सहानुभूति रखने वाला था । आवश्यकता पड़ने पर धन के द्वारा उनकी सहायता भी करता था । वह धर्माचार्यों के प्रति असीम श्रद्धा भक्ति रखता था । वह धर्म को हृदय में धारण किये रहता था । व्यापार में भी उसकी प्रमाणिकता प्रसिद्ध थी । वह अपने ग्राहकों के साथ सद्व्यवहार करता था। इसी कारण उसकी दुकान पर सदा ग्राहकों की भीड़ लगी रहती थी । सेठ की पत्नी ने विवाह के पश्चात् एक पुत्र रत्न को जन्म दिया था । एक मात्र पुत्र होने के कारण वह लाड़ प्यार में पलने लगा | इकलौता पुत्र होने तथा लाड़ प्यार में पलने के कारण बड़ा होकर आवारा लड़कों की कुसंगति में पड़ गया और धीरे-धीरे उसने सातों कुव्यसनों को गले लगा लिया । सेठ अपने पुत्र की विगड़ती दशा से व्यथित होकर उसे दिन-रात समझाया करता पर पिता की शिक्षा से ओतप्रोत बातों का कोई प्रभाव नहीं होता । सेठ बड़ा दुःखी रहता था । वह दिन-रात सोचता रहता कि मेरे बाप-दादा की प्रतिष्ठा, खानदान की साख को मैं बनाये रख रहा हूँ । पर यह बेटा जमी जमायी इज्जत को मटियामेट कर रहा है । यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जो बड़ा परिश्रम करके कमाई गई दौलत बरबाद कर देगा । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 63 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द ज्योति Jais i nternational Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ एक दिन उस नगर में किसी सन्त का आगमन हुआ। सेठ उनके दर्शनार्थ गया। मुनि का प्रवचन सुनकर सेठ को विश्वास हो गया कि सन्त प्रवर के अमृत तुल्य उपदेश से मेरा पुत्र अवश्य सुधर सकता है। इनकी वाणी में । अद्भुत जादू है जो किसी भी भटके प्राणी को राह पर ला सकता है। सेठ ने मुनिवर से हाथजोड़ निवेदन किया “भगवन्! आपकी कृपा हो जाये तो मेरा पुत्र सुधर सकता है। वह आवारा लड़कों के साथ रह कर पथ भ्रष्ट हो गया है ।" मुनिवर बोले- "तुम्हारे पुत्र को मेरे पास लाओ, सम्पर्क से संस्कार भी परिवर्तित किये जा सकते हैं ।" सेठ पिता की प्रेरणा से पुत्र मुनिश्री की सेवा में पहुंचा । मुनिश्री ने उसे समझाया, नित्य प्रवचन सुनने के लिये आने को कहा। लड़के ने कहा- "महाराज जी ! प्रवचन सुनने को तो अवश्य आऊँगा पर मेरा एक निवेदन है ।" सन्त ने प्रश्न किया - "क्या निवेदन है?" क्या शर्त है? - "मैं व्यसन का आदी हो चुका हूँ। आप कभी भी व्यसन त्यागने की बात मत कहना। यदि आपने त्याग करने की बात की तो मैं उसी दिन से आना बन्द कर दूंगा " सन्त प्रवर ने कहा- "बन्धु! ठीक है " अब सेठ पुत्र प्रतिदिन सन्त के पास आने लगा। घंटा दो घंटा बैठता वार्तालाप करता । धीरे-धीरे उसके मन में खानदानी संस्कार अंकुरित होने लगे । सन्त के प्रति आदर व श्रद्धाभाव बढ़ने लगा । एक दिन अवसर देखकर सन्त ने कहा "तू चोरी करता, परस्त्रीगमन करता तो मुझे कुछ नहीं कहना है। मांस खाता, मद्य पीता है, वेश्यागनम करता, जुआ खेलता, शिकार के लिये जाता है इन सबके विषय में मुझे कुछ नहीं कहना । मुझे तो तुझे केवल एक बात कहना है, यदि तू माने तो?" सेठ पुत्र ने आश्चर्य से कहा "जब इन व्यसनों के विषय में आपको कुछ नहीं कहना है तो फिर किस विषय में कहना है?" मुनिवर बोले "झूठ बोलने का प्रयत्न मत करना ।" सेठ पुत्र कुछ समय विचारता रहा - "झूठ कभी मत बोलना । अत्यन्त साधारण बात है? इससे मेरी आदतों पर कोई प्रभाव पड़ने वाला नहीं है । जीवन में एक प्रतिज्ञा तो ली ।" तथा सन्त प्रवर से कहा- "अच्छा मुनिवर ! आपकी बात मेरे मन में उतर गई बात मानने योगय है इसलिये मानूंगा ।" सन्त प्रवर ने जीवन पर्यन्त झूठ न बोलने की प्रतिज्ञा एवं संकल्प करवा दिया । सेठ के कानों तक जब यह बात पहुंची तो उसे अत्यन्त प्रसन्नता हुई । उसने विचार किया "अब पुत्र सही रास्ते पर आ जाएगा जो त्याग के नाम से दूर भागता था मन में आता जो बोलता था, आज मुनि भगवन्त की असीम कृपा से झूठ न बोलने की प्रतिज्ञा तो ले ली। इससे बढ़कर और क्या शुभ हो सकता है?" I 1 झूठ न बोलने की प्रतिज्ञा लेकर सेठ पुत्र जब अपने घर आया। थोड़ी देर पश्चात् जुआं खेलने का समय हुआ तो घर से निकलकर जुआं घर की ओर चरण बढाये तो उधर से लड़के के ताऊजी मिल गये । उन्होंने पूछ लिया। "बेटा! इधर किधर जा रहे हो?" लड़के का चेहरा उतर गया, विचार करने लगा मैंने आज ही तो झूठ न बोलने की प्रतिज्ञा कर झूठ का त्याग किया । तथा अब सत्य कैसे कहूं कि जुआं खेलने जा रहा हूँ । पिताजी के बड़े भाई हैं, मेरे बड़े पिता हैं इनसे क्या हूं। सेठ पुत्र कुछ नहीं बोला और चुपचाप ताऊजी के साथ वापिस घर आ गया। आज पहली मर्तबा चाहते हुए भी जुआं खेलने न जा सका । ** 1 संध्या के समय वेश्या के घर की ओर जाने के लिये तैयार होकर घर से निकला थोड़ी दूर जाने पर उसके स्वयं के बड़े भाई मिल गये । पूछा - "बाबू ! इधर-किधर?" वह लज्जित होकर खड़ा हो गया । असमंजस की स्थिति उसके सामने खड़ी हो गई । सोचने लगा- भाई साहब को क्या उत्तर दूंगा? यदि झूठ बोलता हूं तो प्रतिज्ञा भंग होती है । वेश्या के घर जा रहा हूँ, यह कहने में लज्जा आती है बड़े भाई साहब हैं। बड़े भाई का सम्मान हेमेन्द्र ज्योति र ज्योति 64 हमे ज्योति *ज्य ज्योति Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ भी होता है, वह आगे न जाकर चुपचाप भाई के साथ घर आ गया । पर घर में उसका मन नहीं लग रहा था । थोड़ी देर बाद उसे मद्यपान की याद सताने लगी उसने मदिरालय जाने का विचार किया और विचार को मूर्तरूप देने के लिये तैयारी करके घर से निकला ही था कि पिताजी ने पूछ ही लिया "पुत्र ! किधर जाने की तैयारी है?" वह असमंजस में पड़ गया, पिताजी से कैसे कहूँ कि मदिरालय जा रहा हूँ । उसने अपने विचार बदल कर अपने शयन कक्ष में आकर सो गया ।" परिवार के सदस्य आज बड़े प्रसन्न थे कि पहली बार आज छोटे भैया ने घर में रहकर समय पर भोजन किया है। अब जीवन में प्रतिज्ञा का चमत्कार साकार होने लगा है। उसके जीवन में धीरे-धीरे परिवर्तन आने लगा परिवार के सदस्य देखकर आश्चर्य चकित थे । अब वह घर में ही रहने लगा । परिणाम यह हुआ कि सारी बुरी आदतें छूटती गयी । एक दिन ऐसा भी आया कि वह सबकी आंखों का तारा बन गया । मणि कांचन की तरह उसका जीवन उज्ज्वल बन गया । सेठ रोशनलाल सेठ रोशनलाल बहुत ही धनवान था । सम्पन्न परिवार में उसने जन्म लिया था, फिर भी वह धन के पीछे पागल बना हुआ था । पुण्य प्रबल था, इसलिये व्यापार में खूब लाभ होता था । वह यही सोचा करता था - जितना कमाया जा सके उतना धन कमालूं । जीवन को वह चिरस्थायी समझता था। इसलिये उससे कोई धर्म की बात करता तो उसे सुहाती नहीं थी । जो इन्द्रियों के विषय, स्वजन-परिजन, देह-सुख, अस्थिर और नाशवान है, उसमें और चंचल लक्ष्मी को उपार्जित करने में ही वह दिन-रात लगा रहता था । सेठानी बहुत धर्मात्मा थी। उसे सेठजी की धर्म विमुखता अच्छी नहीं लगती थी। वह बार-बार कहती थी "थोड़े से जीवन के लिये क्यों इतना धन कमाने में लगे रहते हो? क्यों सांसारिक सुखों में लुब्ध हो रहे हो? न धन टिकेगा, न ये भोग-सुख टिकेंगे, न शरीर टिकेगा । सेठानी कहते-कहते थक गई, मगर सेठ बिलकुल नहीं सुनता था। वह अपने पति को बहुत समझाती और धर्माचरण करने को कहती । सांसारिक विषयों के मोह में मुग्ध, लक्ष्मी के मद में मत्त सेठ कह देता "तू व्यर्थ ही चिन्ता करती है। मैं धर्म स्थानक में जाऊँगा तो तुम्हें हीरों एवं सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित कौन करेगा?" किन्तु सेठानी के तो रग-रग में धर्म रमा हुआ था, वह बोली- मुझे न तो हीरों के आभूषण चाहिये और न सुन्दर वस्त्रों की इच्छा, मैं चाहती हूं कि आप दुकान खोलने से पूर्व स्नानादि से निवृत होकर उपाश्रय में जाकर मुनिश्री के प्रवचन सुन आया करो । मन को शान्ति तो मिलेगी ही, आत्मा का कल्याण भी होगा । समाज के लोग भी तो सुबह-शाम उपाश्रय में जाते । सुबह सामायिक भी करते और उपदेश भी सुनते। प्रतिक्रमण और धर्म चर्चा भी करते हैं । जिसने धर्म का आश्रय लिया धर्म ने मुसीबत में उसकी रक्षा की । इसलिये कहती हूँ कि बड़ी मुश्किल से मानव-योनि मिलती है। आगे भी मिले कि नहीं कह नहीं सकती । पूर्व जन्म में किये पुण्य कर्मों के कारण ही मानव-जन्म की प्राप्ति होती है। सब जन्मों में मानव-जन्म श्रेष्ठ माना गया है । | कितने ही पामर प्राणियों को धर्म ने डूबने से बचाया है धर्म जीवन के लिये दीपक के समान है। जो मानव के लिये मार्ग-दर्शक का काम करता है । विवेकवान् व्यक्ति धर्म का अनुयायी बनकर अपनी आत्मा को उज्ज्वल बना सकता है । धर्म एक नैय्या है जिसमें बैठकर मानव भवसागर पार कर लेता है । "जिसने धर्म का सच्चा स्वरूप जान कर उसे अपना लिया समझो उसका जीवन सफल हो गया ।" पत्नी की बात सुनकर सेठ रोशनलाल बोला अरी पगली ! अभी तो आयु बहुत शेष हैं । जो आज है वह कल नहीं रहेगा । अभी अच्छी कमाई हो रही है । जब मेरे हाथ-पांव अशक्त हो जायेंगे वृद्धावस्था आ जाऐगी, तब प्रतिदिन उपाश्रय में जाकर धर्मचर्चा में भाग लूंगा । सन्तों के अमृत तुल्य प्रवचन सुनूंगा । धर्म को अंगीकार करूंगा। Educat Unter हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 65 हेमेन्द्र ज्योति हेमेल ज्योति www.jalnelibrary Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ - पत्नी ने कहा • वृद्धावस्था आयेगी तब तक किसने देखा? अभी जो समय हाथ में है, उसका लाभ तो उठा लो । वही वास्तविक जीवन होगा और समय होगा । पति-पत्नी की बातचीत चल ही रही थी कि इतने में एक मुनि गोचरी के लिये पधारे । मुनि को देख कर दोनों सामान्य हो गये । पर मुनि से कोई बात छिपी न रह सकी। किन्तु बोले कुछ नहीं आकर चुपचाप खड़े रहे । सेठानी ने नम्रवाणी में कहा भगवन्! मैं इनसे कह रही थी कि आप स्नानादि से निवृत होकर उपाश्रय जाकर मुनि भगवन्तों के अमृत तुल्य उपदेश सुना करो, जिससे आत्मा का कल्याण एवं आत्मिक शांतिप्राप्त हो । साधुओं की संगति पुण्यवान को ही मिलती है । वह भी बड़ी मुश्किल से । पर यह है कि मेरी बात पर ध्यान हीं नहीं देते? कहते- अभी क्या जल्दी है? बुढापे में देखूंगा। मैं इनसे कहती - जीवन का कोई भरोसा नहीं, जो आज है वह कल नहीं रहेगा । इसी बात पर हम दोनों में नित्य बोल चाल होती है । मेरी बात सुनी अनसुनी कर देते । मुनि बोले "बन्धु ! आपकी पत्नी ठीक ही तो कहती है । धर्म सबसे प्रथम पुरुषार्थ हैं, जीवन के अभ्युदय एवं निश्रेयस का मूल आधार है। धर्म जिससे जीवन का भौतिक नैतिक और आध्यात्मिक विकास हो वह धर्म है। अर्थ से जीवन के व्यावहारिक कार्य सिद्ध होते हैं । अर्थ गृहस्थ जीवन को संचालित करने की धुरा है, इसीके आधार पर सब व्यवहार बनते हैं और चलते हैं ।" आगे मुनि ने कहा- “जीवन में अर्थ का महत्व तो है, किन्तु अर्थ ही सब कुछ नहीं है । अर्थ वही सफल है जो धर्म से प्राप्त हो, जो न्याय नीति एवं मर्यादा के अनुसार प्राप्त हो सके वही अर्थ जीवन में सुख एवं आनन्द दे सकता है। धर्म से विमुख होकर कोई भी प्राणी सुखी नहीं रह सकता, धर्म जीवन का कवच है ।" - सेठ "मुनिवर ! आपका कथन सत्य है। व्यापार में लाभ हानि तेजी-मंदी चलती रहती है। घाटे की पूर्ति करना भी आवश्यक है । फिर मुझे धर्म स्थानक में आने का समय भी तो मिलना चाहिये । गृहस्थ जीवन में अनेक कार्य रहते हैं, उन्हें भी करना पड़ता है ।" मुनि बोले "सेठ समय तो निकालना पड़ता है । जो मनुष्य अपने व्यस्त जीवन में से एक घन्टा या आध घंटा-धर्म श्रवण के लिये निकालते हैं उनका जीवन धन्य है । जैन साहित्य को पढ़ने से तुम्हें ज्ञात हो जाएगा कि धर्म श्रवण का क्या महत्व है ?" यदि तुम्हें समय नहीं मिलता तो 24 घण्टे में से पांच मिनिट तो निकाल सकते हो । उन पांच मिनिट में पांच बार एकाग्रचित होकर प्रभु का स्मरण कर लिया करो । धर्म ध्यान से जीवन आनन्दमय व्यतीत होता है । अरणक श्रावक का नाम तो आपने सुना ही होगा । वे भगवान् मल्ली के शासनकाल के श्रावक थे । धर्म उनके रग-रग में बसा हुआ था । इन्द्र द्वारा की गई प्रशंसा को सुनकर दो देवों ने उनकी धर्म परीक्षा ली जिसमें वे खरे उतरे । रोहिणेय चोर ने अपने कानों में उंगलियां लगा ली फिर भी उसके कानों में प्रभु महावीर के दो शब्द उसके कानों में पड़ गये । जिससे उसका समूचा जीवन ही बदल गया । अन्त में मुनि ने कहा मैंने तुम्हें धर्म का महत्व उदाहरण देकर समझाया । अब भी यदि तुम जीवन को नहीं सुधारो तो मनुष्य जन्म पाना व्यर्थ है । यह कहकर मुनिवर उपाश्रय की ओर चल दिये । मुनि के जाने के पश्चात् सेठ रोशनलाल मुनि के द्वारा कही गयी बातों पर गंभीरतापूर्वक चिन्तन करता रहा। परिणाम यह हुआ कि दूसरे दिन से ही वह उपाश्रय में जाकन मुनिवरों के अमृत तुल्य प्रवचन सुनने लगा । जिससे उसका जीवन ही बदल गया और परोपकार करने लग गया । ज्योति ज्योति 66 हेमेन्द्र ज्योति र ज्योति nal Use Onl panell y.org Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ मुख किसी नगर में दो घनिष्ठ मित्र रहते थे । दोनों ही स्वजाति के थे। दोनों साथ साथ मन्दिर जाकर महाज्ञानी मुनिवरों के उपदेशों, प्रवचनों को सुनते और उन पर चिन्तन मनन भी करते और आशीर्वाद ले, मांगलिक सुनकर घर आ जाते । धर्म पर उन दोनों ही दृढ़ आस्था थी । दोनों के पास अपार सम्पति थी । दोनों मित्रों में से एक का नाम नेमीचन्द तथा दूसरे का शांतिलाल था । नेमीचन्द के एक पुत्र तथा दो पुत्रियों थी तथा शांतिलाल के एक ही पुत्र था । नेमीचन्द ने पुत्र और एक पुत्री का विवाह कर दिया था । सबसे छोटी पुत्री के लिये वर की तलाश कर रहा था कि एकाएक उसकी अपने परममित्र शांतिलाल के पुत्र पर दृष्टि गई, उसने सम्बन्ध के विषय में पत्नी से चर्चा कर उसकी राय जाननी चाही। सेठ पत्नी ने प्रसन्न मुद्रा में कहा- "नेकी और पूछ पूछ । इससे अच्छा घर और वर कहां मिलेगा? आंख मीच कर सम्बन्ध कर लो।" पत्नी की बात मानकर वह सेठ शांतिलाल के घर गया और उससे बात करके सम्बन्ध निश्चित कर सगाई का दस्तूर भी कर दिया । शांतिलाल ने भी दूसरे दिन परिवार सहित जाकर लड़की को कपड़े पहना दिये । दोनों परिवार में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। पर होनी को कोई टाल नहीं सकता । एक दिन शांतिलाल की अचानक तबियत खराब हो गई । खूब उपचार कराया, परन्तु रोग बढ़ता गया। मगर कोई लाभ नहीं हुआ । चिकित्सकों ने कह दिया- "हमने हमारी योग्यता और अनुभव के आधार पर जितनी भी दवाइयां इस रोग से मुक्त होने के लिये थी सब दे दी। अब तो परमात्मा का स्मरण ही एक मात्र सहारा है ।" ज्यों-ज्यों चिकित्सक उपचार करते रोग समाप्त होने के स्थान पर बढ़ता जाता । अन्त में एक दिन शांतिलाल हमेशा-हमेशा के लिये सुख की नींद सो गया । घर में कोहराम मच गया । अर्जित सम्पति शांतिलाल के साथ चली गई । थोड़ी बहुत जो सम्पति शेष थी उससे मां बेटे अपना जीवन व्यतीत करने लगे । पुत्र को व्यापार का अनुभव न होने से दुकान बन्द कर दी गई नौकरों- मुनीमों की छुटी कर दी गई। रात्रि में माँ-पुत्र को व्यापार के नियम व भाव-ताव तथा बाजार की हवा देख चलना सिखाने लगी । एक साल में ही लडका इतना चतुर हो गया कि व्यापारी वर्ग उससे राय लेने आने लगे । I जिस दिन शांतिलाल की मृत्यु हुई, उसी दिन से सेठ नेमीचन्द के विचार बदल गये । उसने विचार किया "सेठ शांतिलाल तो रहा नहीं, धन भी सब बरबाद हो गया। ऐसे घर में पुत्री का विवाह करना उचित नहीं जान पड़ता। दूसरे लड़के की तलाश करना चाहिये । मेरी पुत्री अति सुन्दर व सुशील तथा गृह कार्य में दक्ष है । लक्ष्मी की भी मेरे ऊपर असीम कृपा है, किसी लखपति के पुत्र के साथ विवाह कर दूंगा तो पुत्री का जीवन सुख से व्यतीत होगा। मगर बात जाति में फैल जाएगी कि "पहले शांतिलाल सेठ के पुत्र के साथ सगाई हो चुकी हैं, अब सम्बन्ध छोड़ दिया ।" जाति समाजवालों को तो धन से चुप भी कर सकता हूँ पर समाज के मुखिया के पास जो समाज के सिर मोर हैं, यह शिकायत पहुंच गई तो ? मुखिया बडा न्यायी है, वह सदा न्याय की बातकर समाज के लोगों को सन्मार्ग पर चलने की कहता है। उन्हें ज्ञात होते ही वे उसी लड़के के साथ विवाह करने का आदेश देंगे। अब कुछ ऐसा करना चाहिये कि न रहे बांस न बजे बाँसुरी! न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी । तो इसका उपाय यह है कि पुत्री का विवाह मुखिया पुत्र के साथ कर दिया जाए। सम्पत्ति नहीं है तो क्या हुआ? समाज में नगर में इज्जत तो है । फिर किसका साहस जो वहां तक पहुंचे?" 79 सेठ ऐसा विचार कर मुखिया से जाकर उनके पुत्र के लिये बात की । पुत्री को पुत्र के लिये स्वीकार करने हेतु अत्यधिक आग्रह किया । सेठ नेमीचन्द के आग्रह पर मुखिया ने स्वीकृति दे दी और बडी धूमधाम से मुखिया के विवाह की तैयारियां होने लगी । पुत्र हेमेन्द्र ज्योति हमे ज्योति 67 हमे ज्योति हमे ज्योति Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ लड़के की मां ने यह सुना तो उसका कलेजा टूक-टूक हो गया । विचार किया "मैं इसी आधार पर पुत्र के भविष्य के स्वप्न देख रही थी, पर वह स्वप्न ही भंग हो गया । अन्य किसी स्वजाति के घर यह सम्बन्ध होता तो मैं स्वयं मुखिया के पास जाती और उन्हें सारी बातों से अवगत करा कर न्याय मांगती । पर बागड़ ही खेत को खा रही है, तब किसके पास जाकर अपना दुःख सुनाऊ । मैं आज असहाय हूं विवश हूं पड़ौसी सम्पन्न है सशक्त है, उसकी मेरी बराबरी कैसे हो सकती है । इसलिये अब तो चुप रहना ही अच्छा है इसी में मेरी भलाई है ।" इधर मुखिया पुत्र के विवाह की तिथि निश्चित हो गई । घर रोशनी से जगमगा उठा। मुखिया पुत्र की बारात में नगर व आसपास के गावों के सैकड़ों व्यक्ति सम्मिलित थे। मंगल गीतों से नगर मोहल्ला गूंज रहा था । नगर के नर-नारी अपने -अपने घरों की खिडकियों में बैठकर बारात देख रहे थे । बारात चलते-चलते उसी सेठ शांतिलाल के घर के सम्मुख आई सेठानी ने बारात देखी तो अपने फूटे भाग्य पर उसे रोना आ गया, हृदय में दुःख का ज्वार उमड़ पड़ा वह फूट-फूट कर रोने लगी । मुखिया ने खुशियों और मंगल गीतों के बीच इस घर से रोने की आवाज सुनी मुखिया स्तब्ध रह गया। इस खुशी के अवसर पर आज कोई रो रहा है, तथा उसके रोने में बड़ा दर्द हैं, बड़ी छटपटाहट है । मुखिया ने संकेत करके बारात को आगे बढ़ने से रोक दिया । मुखिया ने ध्यान देकर सुना तो एक महिला और एक बालक के रोने की आवाज आ रही थी । मैं समाज का मुखिया हूँ मेरा कर्तव्य है कि उसके दुःख दर्द व रोने का कारण जानूं, उसके आंसू पोछू और आज के दिन कोई रो रहा है तो वह अवश्य ही बहुत दुःखी होगा, मेरी खुशी तभी है जब समाज और सर्व हारा वर्ग में खुशी हो।" मुखिया ने यह सोचा और बिना विलंब किये सीधे ही उस घर में पहुंच गया । मां रो रही है, पुत्र उसके आंचल में मुंह छिपाये सिसकियां ले रहा हैं । मां अपने अश्रुओं से उसे नहला रही है। मुखिया को अपने सामने खड़ा देखकर मां बेटे चकित होकर खड़े हो गये । मुखिया ने कहा "माताजी! आज खुशी के अवसर पर आप रो रही है? क्या बात है?" लड़के के सिर पर हाथ फिराते हुए मुखिया ने कहा "बेटा ! देखो! मेरे पुत्र का विवाह हो रहा है और तुम रो रहे हो?" सेठानी ने साहस करके मुखिया को जय- जिनेन्द्र करके कहा हैं, आपकी बात समाज के अतिरिक्त अन्य समाज के लोग भी मानते हैं सुनने को पधारे हैं, पर आप उसे दूर नहीं कर सकते ।" मुखिया ने उसे आश्वासन दिया उसे अवश्य दूर किया जायेगा ।" "मुखिया जी ! आप समाज के मुखिया आपका न्याय प्रसिद्ध है मेरा दुःख आप I "माताजी ! आपका जो भी दुःख है बे हिचक कहिये, मैं वचन देता हूँ "मुखियाजी ! आप जैसे न्यायप्रिय मुखिया आज जिस कन्या सेठानी ने मुखिया से आश्वासन पाकर कहा के साथ आपका पुत्र विवाह करने जा रहा है, वह कन्या किसकी मांग है आपको ज्ञात है? उस कन्या की सगाई किसी के साथ हो चुकी है, उसका पिता वाग्दान कर चुका है, क्या यह आपकी जानकारी में है?" सेठानी की बात सुनकर मुखिया असमंजस में पड़ गया । उसने कहा- "सच ! मुझे कुछ मालूम नहीं था, मैंने इस विषय में पूछा भी नहीं । आप बतलाइये किसकी मांग है वह ?" सेठानी ने कहा – “मुखियाजी ! वह इस लडके की मांग है । इसके पिता के साथ लड़की के पिता की घनिष्ठ मित्रता थी, और हम दोनों ही समृद्धिशाली थे। भगवान ने उन्हें हमसे छिन लिया। धन भी छाया की तरह लुप्त हो गया। हम गरीब हो गये, अनाथ हो गए। अनाथ और गरीब को कौन अपनी कन्या दे, इसलिये उस गरीब की मांग आज आपके पुत्र के साथ विवाह किया जा रहा है। आपके लिये खुशी का दिन है हमारे लिये रोने का।" मुखिया ने सेठानी से क्षमा मांगते हुए कहा - "माताजी ! आप निश्चित रहें, यह सगाई या सम्बन्ध जिसके साथ हुआ है उसके साथ ही विवाह होगा । चलो बेटा ! तैयार हो जाओ !" मुखिया को विलंब लगते देख समाज हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 68 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति ary.org Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ के प्रतिष्ठित व्यक्ति भी सेठ के घर में चले गये । सबने स्थिति को देखकर मुखिया से तत्काल निर्णय करने को कहा। मुखिया ने सेठ को बुलाकर पूछा - तो उसने धीमी आवाज में सब बातें स्वीकार कर ली, लोगों ने भी कहा - हां मुखिया जी ! सगाई तो इसी लड़के के साथ हुई थी, मगर पिता की मृत्यु और धन चले जाने से इसका संबंध लड़की के पिता ने समाप्त कर दिया।" पंचो ने सेठकों डांटते हुए कहा - "इसके पिता की मृत्यु होने से तुम इसकी मांग मुखिया पुत्र को देने को तैयार हो गये? लो, इसके संरक्षक हम हैं और इस कन्या के साथ इसी का विवाह होगा।' तथा खूब धूमधाम से सेठ पुत्र का विवाह हुआ। जो दहेज मुखिया पुत्र को दिया जाने वाला था वह सब उसे दिया गया । समाज व अन्य समाज के लोगों ने मुखिया के न्याय की भूरि-भूरि प्रशंसा की ।" ___पंचों ने मिलकर मुखिया से कहा - "समाज में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये कि प्रत्येक समाज अपने ही समाज में विवाह सम्बन्ध करे, अपनी जाति के अतिरिक्त दूसरी जाति में विवाह आदि होने से मर्यादा भंग हो जाएगी तथा अनेक प्रकार के अन्याय होने लगेंगे ।" समाज के पंचों एवं मुखिया ने मिलकर ऐसा नियम बनाया कि चारों वर्ण अपने वर्ण में ही कन्या का सम्बन्ध करें । इस नियम का पालन किया गया । धर्मात्मा सेठ एक छोटे से नगर में एक सेठ रहता था । उस नगर के राजा ने उसे नगर सेठ की पदवी दे रखी थी । सेठ बड़ा दयालु था याचकगण उसके द्वार से कभी खाली हाथ नहीं लौटते थे । उसने दीन, अनाथ और पीड़ितों के लिये नगर में एक चिकित्सालय खुलवा दिया था, जहां गरीबों का निशुल्क उपचार किया जाता | रोगियों को रात्रि विश्राम हेतु चिकित्सालय के समीप ही धर्मशाला का निर्माण करवाया था । पीने के पानी की व्यवस्था उसने प्याऊ द्वारा की थी । जहां रोगियों के अतिरिक्त आने जाने वाले भी शुद्ध व सुगन्धित जल पीकर तृप्त होते थे । अपने देव, गुरु और धर्म के प्रति उसके हृदय में असीम आस्था थी । इतना धर्मात्मा और दयालु होने के उपरान्त भी वह सन्तान विहीन था । संतान प्राप्ति के लिये उसने मनोतियां भी मान रखी थी । फिर भी प्रभु की उस पर कृपा नहीं हो रही थी जिसके फलस्वरूप सेठ-सेठानी दुःखी रहते थे । सब सुख होते हुये भी वे सुखी नहीं थे। सेठ-सेठानी को दिन-रात रह-रहकर यह चिन्ता सताती रहती कि हमारे पश्चात् हमारे कारोबार का क्या होगा? कौन इसे संभालेगा? एक दिन सेठ निश्चय करके सघन वन में निकल गया, और ध्यान मग्न होकर अपने इष्टदेव से पुत्र प्राप्ति की प्रार्थना करने लगा । सेठ एकाग्रचित होकर ध्यान में बैठ गया । एक घण्टे के पश्चात् ज्यों ही उसने आंखें खोली, सामने एक वृक्ष के नीचे एक छोटे से शिशु को लेटा हुआ देखा । सेठ पहले तो आश्चर्य चकित हो गया । इतने में उसके कानों से आवाज टकरायी, भक्त ! तेरी भक्ति से प्रसन्न होकर तेरे दुःख को दूर किया है । इस शिशु को गोद में उठा ले । और अपने घर ले जाकर इसका प्रेम से पालन-पोषण कर ।। सेठ ने उस बालक को गोद में ले लिया और मन ही मन यह संकल्प किया कि मैं चुपचाप इस बालक को घर में जाकर पत्नी को सौंप दूंगा, इसे अपने जन्म दिये पुत्र की तरह इसका पालन पोषण करने के लिये कहूंगा। जब यह कुछ बड़ा हो जाएगा तो इसे राजकुमारों की तरह समस्त शिक्षाएं दिलाऊँगा । जब विवाह योग्य हो जाएगा तो किसी योग्य कन्या के साथ इसका विवाह कर दूंगा । फिर सारा कारोबार उसे सौंपकर आत्म-कल्याण का मार्ग अंगीकार कर दोनों प्रभु भक्ति अर्थात् जिनेन्द्र भक्ति में लीन रहने लगेंगे । सेठ उस बालक को लेकर सीधा अपने घर पहुंचा और पत्नी को सौंपते हुये कहा-प्रिये ! लो, तुम्हारे लिये यह बालक लाया हूं, यह जिनेन्द्र प्रभु का दिया हुआ है, इसका पुत्रवत् पालन करना । सेठ ने अपना मनोरथ भी दोहरा दिया । सेठानी भी पति के मनोरथ से सहमत होकर उस बालक का पुत्रवत् पालन करने लगी। वह बालक भी स्वयं को सेठ पुत्र तथा सेठ-सेठानी को माता-पिता मानने लगा । वह लडका समझदार होकर जिनधर्म की शिक्षा प्राप्त करने लगा तो सेठ कभी, कभी उसके सामने अपने मनोरथ को दोहराता था । लड़का भी उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता था । हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 69 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति duration intempoto TO Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सेठ के नौकर चाकर और प्रधान मुनीम को पता लगा कि सेठ किसी अज्ञात कुल के लड़के को गोद लेकर आये हैं तथा उसी को अपना उत्तराधिकारी बनाकर अतुल सम्पत्ति का वारिस घोषित करेंगे । उन इर्ष्यालु कर्मचारियों को यह बात सहन नहीं हुई । सबने मिलकर निश्चय किया कि इस लडके को किसी तरह से सेठ से विमुख कर देना चाहिये । एक दिन कर्मचारियों ने परस्पर विचार विमर्श कर सेठ पुत्र से मिलने गये । सेठ पुत्र को वे एकान्त में ले गए और कहा - " हम आपके हित की कुछ बातें आपसे कहने आये हैं ।" तत्पश्चात् उन्होंने उससे पूछा - "आप कौन है?" "मैं कौन हूँ? क्या आपको पता नहीं है? मैं सेठ पुत्र हूँ । सेठ-सेठानी मुझे अपना पुत्र मानते हैं ।" सेठ पुत्र ने कहा। कर्मचारीगण - "यह ठीक है कि सेठ-सेठानी आपको अपना पुत्र मानते हैं । परन्तु आप सेठ के वास्तविक पुत्र तो नहीं है ।" सेठ पुत्र - इससे क्या अन्तर पड़ता है ? मैं सेठ का वास्तविक पुत्र हूँ या नहीं? इससे उनके मन में भेदभाव की कोई बात नहीं है । कर्मचारीगण - अन्तर क्यों नहीं पड़ता? आपको यही तो अनुभव नहीं है । सेठ जब तक आप पर प्रसन्न हैं, तब तक आपको सब तरह से प्यार मिलेगा, परन्तु जिस दिन सेठ आपसे नाराज हो जायेगे, उस दिन आपको यहां से निकाल भी सकते हैं । यदि सेठ ने नाराज होकर आपको निकाल दिया तो आप कहाँ जायेंगे । क्या आपने अपना कोई ठिकाना बना रखा है, जहाँ स्वतंत्र रूप से रह सकें | क्या अपने जीवन निर्वाह के लिये भी आपके पास कुछ धन है, जिससे स्वतंत्र रूप से जीवन व्यतीत कर सकें और फिर आपका विवाह नहीं होगा तो क्या आप जीवन पर्यन्त अकेले ही जीवन व्यतीत कर सकेंगे। सेठ पुत्र - "हां आपकी बात में कुछ सत्यता लगती है । तनिक स्पष्ट कहो कि मुझे क्या करना चाहिये? आप तो मेरे हित की बात कहने आये हैं । कर्मचारियों ने विचारा कि तीर ठीक निशाने पर लगा है। अतः अब इसे सेठ-सेठानी से विमुख करने का अच्छा अवसर है । अतः उन्होंने कहा - हम तो आपके हितैषी बनकर आये हैं । हमारी बात माने, न माने, यह आपकी इच्छा। हमें इससे कोई लेना-देना नहीं है । सोचिये - सेठ जब तक आप पर प्रसन्न है उनसे स्वतंत्र रूप से रहने के लिये एक भवन मांग लें । यद्यपि सेठ ने समय-समय पर अपनी इच्छाएं उस लड़के के सामने दोहरायी थी, परन्तु उसके मन में आज पिता सेठ के प्रति अविश्वास उत्पन्न हो गया । पता नहीं, सेठ कब अपनी संपूर्ण सम्पतिं मेरे नाम करेगा? और कब कुलीन कन्या के साथ मेरा विवाह करेगा । लड़के ने उन कर्मचारियों की बात मानते हुए कहा – ठीक है मैं सेठ पिता से यही मांगूगा । कर्मचारी अपना काम करके चले गये । एक दिन तथा-कथित पुत्र मुंह लटकाये उदास हो कर सेठ के पास पहुंचा । सेठ ने पूछा - "पुत्र ! आज क्या बात है? उदास क्यों हो? क्या किसी ने तुम्हें कुछ कह दिया?" पुत्र - नहीं पिताजी! आप की और माताजी की मुझ पर असीम कृपा है । आपके प्यार का कोई मूल्य नहीं, आप दोनों इतना प्यार देते हैं कि मैं उसमें सराबोर हो जाता हूं । फिर मुझे कौन कुछ कह सकता है? किन्तु मैं अब तक आपके आश्रित जीवन व्यतीत करता था, अब मैं स्वतंत्र रूप से जीवन व्यतीत करना चाहता हूं, ताकि अपने भाग्य का मैं परीक्षण कर सकू। सेठ - "बोलो क्या चाहते हो?" हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 70 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति in Education int e Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ पुत्र- मुझे एक छोटा-सा मकान चाहिये, जिसमें मैं स्वतन्त्र व आराम से रह सकू । बीस-पच्चीस हजार रूपसे दे दो, जिससे मैं जीवन निर्वाह कर सकू । अथवा कोई आजीविका का साधन कर सकू । किसी कुलीन वंश की कन्या से मेरा विवाह कर दीजिये ताकि मैं अकेलेपन से मुक्ति पाकर निश्चितता से गृहस्थ जीवन व्यतीत कर सकू।" सेठ पुत्र की बात सुनकर सब कुछ समझ गया कि जो यह कहा रहा है, इसके मस्तिष्क की उपज नहीं है। इसके पीछे अवश्य किसी का हाथ होना चाहिये । क्योंकि अभी तक तो इसने कभी ऐसी बातें नहीं की आज ही क्यों कर रहा है?" मैं तो इसे पूरी सम्पत्ति देना चाहता था पर यह तो बीस-पच्चीस हाजर ही चाहता है । इसे मुझ पर विश्वास नहीं है । अब यह मेरे काम का नहीं । इसने अपना क्षेत्र छोटा-सा बना लिया है । फिर एक न एक दिन अवश्य घर आएगा, अभी यह नादान है, बच्चा है । सेठ ने उससे कहा – “जो कुछ तुमने मांगा, वह मुझे स्वीकार है ।" सेठ ने उसकी इच्छानुसार अपने भवन के पास मकान बनवा कर उसका विवाह भी कर दिया । बड़ा और समझदार होने पर उसने कर्मचारियों के आचरण पर गंभीरता पूर्वक चिन्तन किया, तो उसे ज्ञात हुआ कि कर्मचारी किसी को सुखी देखना नहीं चाहते । और स्वयं सम्पत्ति का उपभोग करना चाहते । अतः लडके ने एक दिन पिता के पास आकर क्षमा मांगी तथा सब बातों से अवगत कराया । अन्त में पिता से कह कर उन नौकरों को नौकरी से अलग कर दिया । पुत्र माता-पिता के पास आकर रहने तथा सुख से जीवन व्यतीत करने लगा । संत की सीख किसी नगर पर प्रशान्तकुमार नामक ब्राह्मण जागीरदार राज करता था । वह बड़ा ही प्रजापालक दयालु और न्यायप्रिय था । उसके राज्य क्षेत्र में सर्वत्र शान्ति का साम्राज्य था । प्रजा निर्भय होकर जीवन व्यतीत करती थी। वह भगवान विष्णु का अनन्य भक्त था । एक बार वह गंभीर रूप से रूग्ण हुआ । उसने अपने व्यक्तिगत सलाहकार सिद्धार्थ को अपने पास बुलवाया और कहा - "सिद्धार्थजी! मेरे जीवन का अन्त होने वाला है । पता नहीं कब प्राण मखेरू उड़ जाए । राजकुमार भूपेन्द्र की अभी आयु बहुत छोटी है । मेरे पश्चात् तुम ही उसके संरक्षक होंगे । राजकुमार के बड़े होने तक तुम ही राज-काज चलाना और राज्य की व्यवस्थाएं देखना । प्रजाहित का विशेष ध्यान रखना । राजकुमारको अस्त्र-शस्त्र चलाना, घुड़सवारी करना तथा राजनीति शिक्षा देना और जब वह सब तरह से योग्य हो जाये तो उसे सिंहासनारूढ करके राज्य सौंप देना । कुछ दिन बाद ही जागीरदार प्रशान्त कुमार का निधन हो गया । राजकुमार भूपेन्द्र की आयु उस समय मात्र दस वर्ष की थी । सिद्धार्थ ने प्रशान्तकुमार की इच्छानुसार राज्य की व्यवस्थाएं संभाल ली और राजकुमार की सभी तरह की शिक्षा दिलाने के लिये योग्य शिक्षक की नियुक्ति कर दी । धीरे-धीरे समय व्यतीत होता गया । सिद्धार्थ अपने कर्तव्य पर अडिग रहा । पर यह स्थिति अधिक दिन न चल सकी। सत्ता और पद का लोभ सिद्धार्थ की निष्ठा कर्तव्य और राजभक्ति पर प्रभाव जमाने लगा । मन में पाप उपजा तो सिद्धार्थ में अनेक बुराइयां पैदा हो गई । सिद्धार्थ ने राजकुमार भूपेन्द्र पर तरह-तरह के आरोप लगाना प्रारंभ कर दिया । राजकुमार अभी छोटा था। क्या जवाब देता? अंततः एक दिन उसे राज्य छोड अन्यत्र जाने के लिये आदेश दे दिया गया । जब उसे यह आदेश प्राप्त हुआ तो उसकी आंखों से आंसू बहने लगे । उसे अपने पिता की याद आने लगी, पर अब क्या हो सकता था? सिद्धार्थ की निरंकुशता के आगे राज्य की जनता की भी एक न चली । अन्त में राजकुमार भूपेन्द्र को राज्य छोड़कर सीमा से बाहर जाना पड़ा । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 71 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ राजकुमार दूर जंगलों में निकल गया और एक संत महात्मा की शरण में जा पहुंचा । राजकुमार अब उसी महात्मा के साथ कुटिया में रहता और रात्रि को अध्ययन करवाता तथा राजनीति के गूढ़ रहस्यों को संत से समझता। राजकुमार को राज्य से बाहर निकालकर भी सिद्धार्थ को चैन न आया । उसके मन में बार-बार एक ही विचार आता कि किसी भी दिन, कभी भी आकर मेरे विरूद्ध षड्यंत्र रच सकता है । जागीरदार प्रशान्तकुमार का उत्तराधिकारी होने के कारण राज्य की प्रजा भी उसका साथ दे सकती है । मन में यह विचार आते ही सिद्धार्थ ने अपने विश्वस्थ साथी राजेन्द्र को बुलाया और कहा राजेन्द्रसिंह किसी भी तरह राजकुमार को ढूंढों और उसका मस्तक काटकर मेरे सामने प्रस्तुत करो । तभी हम बिना विघ्न के राज्य का सुख भोग सकेंगे । वह मेरे लिये कभी भी खतरा पैदा कर सकता है। धीरे-धीरे यह बात मंत्रियों सभासदों तथा राज्य की जनता के कानों तक भी पहुँच गई। क्योंकि ऐसी बात कभी छिपी नहीं रह सकती । सभी ने सिद्धार्थ की बुराई की यह बात सभी को ज्ञात थी कि राजकुमार निर्दोष है और उस पर लगाये गए आरोप निराधार हैं। सब धूर्त सिद्धार्थ की चाल मान रहे थे, मगर सत्य बात कहने का साहस कोई कर नहीं पा रहा था । राजेन्द्रसिंह, राजकुमार भूपेन्द्र की खोज में जंगलों में भटकने लगा महीने दो महीने की भाग-दौड़ के पश्चात् राजकुमार को उसने अन्तःपुर के जंगलों में खोज निकाला । राजकुमार के चेहरे की सरलता को देखकर राजेन्द्रसिंह असमंजस में पड़ गया। जैसे-तैसे उसने सिद्धार्थ का आदेश राजकुमार को सुनाया । तब विलंब क्यों कर रहे हो राजेन्द्रसिंह ? राजकुमार भूपेन्द्र ने कहा अपने स्वामी 1 के आदेश का शीघ्र पालन करो मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूं। राजकुमार ने सहजभाव से कहा उसके चेहरे पर भय के कोई चिन्ह नहीं थे। राजकुमार का उत्तर सुनना था कि राजेन्द्रसिंह के हाथ से तलवार छूट कर गिर पड़ी। मन में हलचल मच गई । वह राजकुमार से लिपट गया और बोला- "मैं बुरा आदमी नहीं हूँ, राजकुमार ! पर क्या करूँ ? सिद्धार्थ के आदेश के आगे विवश हूँ उसका आदेश ही ऐसा है ।" इतने में महात्मा भी वहाँ आ गया । सपूर्ण बात को समझने में विलंब न लगा । राजकुमार उसकी शरण में था अतः उसका हितैषी तो था ही। उसने सिद्धार्थ के नाम एक पत्र लिखा और राजेन्द्रसिंह को देते हुए बोला - आप इस पत्र को सिद्धार्थ तक पहुंचा दें । राजेन्द्रसिंह ने संत का पत्र अपने पास रख लिया और दोनों को आदर के साथ प्रणाम कर लौट गया । राजेन्द्रसिंह के पहुंचते ही सिद्धार्थ ने प्रश्न किया, "जो कार्य तुम्हें सौंपा गया था, क्या उसे तुमने पूर्ण किया" राजेन्द्रसिंह ने स्वीकृति में धीरे से गर्दन हिलाई और संत द्वारा दिया गया पत्र सिद्धार्थ के सामने रख दिया। उसमें लिखा था, इस धरा पर एक से एक दानी पराक्रमी और न्यायप्रिय शासक आए और चले गये । पर यह धरा किसी के साथ नहीं गई। उनके द्वारा किये गये जनहितैषी कर्मों की गूंज ही उनके साथ गई, लेकिन अब लगता है कि यह धरा निश्चित ही तुम्हारे साथ जाएगी । पर विचारों यह जाएगी क्या? सिद्धार्थ ने पत्र पढ़ा तो आत्माग्लानि से भर उठा। संत की बातों का रहस्य वह समझ गया । वह जोर-जोर से रोने लगा और सिंहासन पर ही बेहोश हो गया। चेतना लौटी तो राजेन्द्रसिंह से कहा यह तुमने क्या किया राजेन्द्र ? अब मैं जागीरदार साहब प्रशान्तकुमार जी को क्या उत्तर दूंगा । क्षणिक सुख और वैभव ने मेरे आदर्शों को मिट्टी में मिला दिया। साहस धारण कर राजेन्द्रसिंह ने सिद्धार्थ को वास्तविकता से अवगत कराया, वह प्रसन्नता से झूम उठा । जैसे डूबते हुए को तिनके का सहारा मिल गया हो। उसने कहा - "जाओ राजकुमार को बुलाकर लाओ । राज्य का स्वामी तो वही है। साथ में महात्मा जी को लाना न भूलना ।" राजकुमार को बड़े ठाट बाट से राजतिलक कर मंत्रोच्चार के साथ सिहासनारूढ़ करवाया । सिंहासन पर बैठने से पूर्व उसने अपने आश्रय दाता संत प्रवर के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद प्राप्त किया। सिद्धार्थ भी महात्मा जी से अपनी गलती की बार-बार क्षमा मांगने लगा । राजकुमार से राजा बने भूपेन्द्र ने संत गुरु से थोड़े दिन उसके साथ रहने की प्रार्थना की। जिसे संत ने स्वीकार कर लिया । मेजर ज्योति ज्योति 72 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाब्दसंत शिरोमि अभिनन्दन ग्रन्थ विभाग જ यह दुनिया दो रोज की, मत कर या से हेत । गुरुचरण चित्त लाइए, जी पूरन सुख देत !! Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interational www.hainelibrary.one Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासनभावना आचार्यपदवी पाकर, शासन प्रभावना को दर्शाया । भांति भांति के शिष्य बनाकर, सकल संघ हर्षाया। चातुर्मास हेतु प्रान्त प्रान्त में आये। जैन संघ ने स्वागत में पियूष बहुत बरसाये। श्रावक गण दूर दूर से दर्शन हेतु आते हैं। व्याख्यान सुन सुन, जीवन धन्य बनाते हैं। प्रभु महावीर का सन्देश घर घर जाएगा। सत्य अहिंसा को हर मानव जिन्हें अपनाएगा। धर्मध्वजा नगर नगर में जब लहराएगी। प्रभुदर्शन पाकर, जीवन धन्य बनाएगी। P e rsonal Use Only jainelibrary.org Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पदवी के पश्चात् ପ୍ରଥମ नगर प्रवेश आचार्यपद ग्रहण कर किया सकल संघ उत्थान... नगर नगर उपदेश दे पाया लाभ महान... आचार्य पद के पश्चात् प्रथम नगर प्रवेश जावरा (म.प्र.) १९८४ आचार्य पदवी के पश्चात् प्रथम नगर प्रवेश रतलाम १९८४ आचार्य पदवी के पश्चात् गुरू परंपरा पाट पर ग्रंथनायक श्री राजेन्द्र भवन राजगढ़ १९८४ । जावरा से मोहनखेड़ा तीर्थ के छ'रिपालक संघ की माला १९८४ आचार्य पद के पश्चात् श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में प्रथम प्रवेश १९८४ श्री ॐकारलालजी आदि औरा (संघपति) को शुभाशीर्वाद Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालीताणा श्री राजेन्द्र भवन मध्ये साहित्य सम्मेलन का अनोरवा दृश्य समकामाग सायराएका नभवन गुजरात के मुख्यमंत्री श्री चीमनभाई पटेल को किशोरचंदजी एम. वर्धन साहित्य समर्पण करते हुए भारतजिन गु. मंत्री श्री दलसुखभाई पटेल को भेट साहित्य अर्पण कर रहे हैं श्री के.एम. वर्धन स्थापनाः श्रीराजेन्द्र जैन भवन उपक्रमे अखिलभार डापा बहन-श्रीशा जो Nav SuTubal FAMIL BILABOLI पालीताना सिसमारोह शुषAIMealeel श्री किशोरचंदजी वर्धन "साहित्य समाज की धरोदर है" (K.M.V.) मMADLALBANJAL मास.GLEcs सAN AUTHO ARouTeamPANLINE MALSAIN AGAIB 4G - શ્રી ચીમનભાઈ પટેલ દિવસો ૪ વર્ષની ગુજરાત રાજય) - साहित्य सम्मेलन में डॉ. रमणभाई वी. शाह अपने विचार व्यक्त करते हुए श्री दीपचंद गार्डी अपने विचार व्यक्त करते हुए गुरु को किया मुख्यमंत्री ने वन्दन पालीताणा में हुआ साहित्य सम्मेलन Jain Edurindinfemaliorial Jainelibrary.org Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयेशसे जिनेन्द्र बनने चले गुरसेदीक्षा पाकर मानवजीवन धन्य हुआ। आशीषोंकाअमृतपीकर शिष्य अमर हुआ। आशीर्वाद देते हुए यंथनायक श्री दीक्षा पश्चात मुनि जिनेन्द्रविजयजी सारंगी (नि.)जयेशकुमार को ओधा प्रदान कर दीक्षा देते हुए भव्यातिभव्य दीक्षा महोत्सव दीक्षा विधि का एक विहंगम द्रश्य ओघा पाने पश्चात आनंदित निलेशकुमार नूतन मुनि श्री पीयूषविजयजी का मंडप में प्रवेशा चलारे भाई दीक्षा के पथ पर मोहनखेड़ातीर्थ मेंदीक्षार्थी श्रीनीलेशकुमार भण्डारीकी पावनकारी दीक्षा की एक झलक For Private & reruse Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंखेश्वर तीर्थ में दीक्षार्थी सुनीलकुमार गुगलिया (मु. लाभेशविजय) एवं दीक्षार्थी श्री नरेशकुमार मादरेचा (मु. प्रीतेशविजय) की दीक्षा की एक झलकी दो छोटे राजा आचार्यदेव के समक्ष चले दीक्षा के पथ पर दीक्षा के पश्चात् मुनि लाभेशविजयजी ग्रंथनायक के साथ न होगा फिर M&G रजोहरण ग्रहण करते हैं सुनीलकुमार रजोहरण पाकर हर्षित हुए नरेशकुमार के भीतर इतनी खुशीं ऐसा दीक्षा महोत्सव संयम यात्रा का प्रथम वासक्षोप मुनि प्रीतेशविजयजी को Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षीदान का भव्यातिभव्य वरघोड़ा संयम यात्रा के उपकरणों को मंत्रित करते हुए ग्रंथनायकश्री रएसंदल यमसेमा MAHASARASNA कमाल S DANCE AWAL बडी दीक्षा विधि के दौरान पू.आ. श्री हितेश वि. रजोहरण पाने की खुशी से झूम उठा हैं रोमा रोम भीनमाल में मुमुक्ष श्री मनीषकमार भण्डारी (म. रजतचन्द्रविजय) की दीक्षा के कुछ अंश Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू. आचार्यश्री के प्रिय शिष्य पू. आ. श्री दीक्षा के पश्चात गुरुवंदन करते हुए जावरा जावरा श्री संघ धारा बहुमान दीक्षार्थी पवनकुमार का जावरा में दीक्षा के बाद साध्वी श्री दर्शनरेखाश्रीजी मुनिराज श्री चन्द्रयशविजयजी ( दी. पवनकुमार) की दीक्षा जावरा (१९९७) श्री शंखेश्वर जैन मित्र मण्डल आपका हार्दिक अभिनन्दन उपस्थित मुनि भगवंत जावरा दीक्षार्थी कु बिन्दु के परिवार जन पू. आ. श्री को रजोहरण वोहराते हुए (भिनमाल, राज.) &P Use Only दीक्षा के पश्चात् सा. श्री दर्शनरेखाश्रीजी पू. श्री को वन्दना करते हुए iry.ora Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूति नगरमें उड़े रे गुलाल... दीक्षा से जवाब नहीं... साध्वी श्री हर्षवर्धनाश्रीजी की दीक्षा विधि कराते हुए आचार्यश्री एवं मुनिराज श्री ऋषभचन्द्रविजयजी म.सा. भूति (राज.) दीक्षार्थी कुमार भारती को आशीर्वाद प्रदान करते हुए पू. आचार्य श्री भूति (राज.) बडी दीक्षा विधि के दौरान पूज्य आचार्य श्री दिनेश विजयजी महाराज राजस्थान भूतिनगर के प्रवेश के शुभ अवसर पर आचार्यदेव श्री भूति (राज.) EMASABSEDOSA Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनखेड़ा कु. अरविन्दा को रजोहरण प्रदान करते हुए दीक्षार्थी कु. कान्ता रजोहरण ग्रहण करती हुई दीक्षार्थी श्री सेवन्ती को वासक्षेप करते हुए पू. आ. श्री (आहोर) * दीक्षा महोत्सवमें उपस्थित आ. श्री चिदानन्दसूरि (आहोर) अ 38 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छाधिपति जैनाचार्य श्री हेमेन्द्रसूरीजी म.सा. द्वारा मुनिगण एवं साध्वीजी भगवंतों की बड़ी दीक्षा की एक झलक जान और क्रिया 0 मिटता हे व्यव बेंगलोर में पू.आ.श्री हेमेन्द्र सू.म.सा. के साथ श्री नित्योदयसागर सू. एवं बायें श्री चन्द्राननसागरसू.म. मुनि श्री प्रीतेशविजयजी को बासक्षेप करते हुए पू. आचार्य श्री पूज्य आचार्यश्री के वरदहस्तों द्वारा एक साथ १२ बड़ी दीक्षायें सूत्रों का बांचन करते हुए मुनि श्री दिव्यचंद्र विजयजी महाराज १६वें पाट महोत्सव पर जावरा श्री संघ द्वारा आ. हेमेन्द्र सू.म. को अभिनन्दन पत्र अर्पण करते हुए (१९९७) Daiso nmoninternational For Prates Para Use Only www.jainelibratord Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० साल के इतिहास में पहली बार पंन्यासपद समारोह की झलकियाँ (१९९६ पालीताणा) meन्यास पद मुनिराज श्री रविन्द्रविजयजी एवं मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी को १०० वर्षों के (त्रि.मे.) इतिहास में पहली बार पंन्यास पद प्रदान करते हुए ग्रंथनायक १९९६ पालीताणा पंन्यास पद का वासक्षेप करते हुए पूज्य आचार्यदेव श्री प्रथम दत्ती को जाते हुवे मुनि मण्डल विशाल जनसमूह में पूज्यश्री वरघोडा का एक दृश्य विशाल गुरुभगवंतों के मध्य प.आ.श्री ग्रंथनायक in Education Interational Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू. आ. श्री की आज्ञानुवर्तीनी साध्वी संघ प्रमुखा साध्वी श्री मुक्ति श्रीजी को प्रवर्तिनी पदप्रदान समारोह (१९९२) श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पू. गच्छाधिपति श्री प्रवर्तिनीश्रीजी को प्रवर्तीनी पद श्रवण कराते हुए पूज्य आचार्य श्री सूत्र का उच्चारण करते हुए विचारमग्न पूज्य आचार्यश्री प्रवर्तिनी पद के पश्चात के. एम. वर्धन प्रवर्तिनी पद की क्रिया करते हुए www.jaihelibrary.org Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदप्रदाना पू. गच्छाधिपति समीप बिराजित श्री सौभाग्य विजयजी, श्री जयपभ विजयजी उपस्थित मुनिमण्डल पू. गच्छनायक श्री प्रवर्तनी पद की घोषणा करते हुए पास में है संयमवय स्थविर मुनिराज श्री सौभाग्यविजयजी म.सा. श्री विद्याचंद्रसूरि स्मृतिग्रंथ अर्पण करते हुए श्री अभयजी छजलानी - इन्दौर ducation Interational For Private & Personal Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ:रि पालक संघ साधु-साध्वीजी आये मोहनरखेडा के हर मानव में साधुगण समायें। चले रे सब संघ यात्रा में पावन निमा प.प.१०० गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्रीमद्विजयश्रीहमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. सयामस्थिवीर मुनिराज श्री सीमाग्यविजयजी म.सा. ज्योतिषाचार्य प. श्री जयप्रभवि जी म.सा. सेव .नीहिमाजीम.सा. केन्द्रीय मंत्री श्री विक्रम वर्मा पू. श्री को काम्बली अर्पण करते हुए साथ में श्री सुजानमलजी सेठ पू.श्री की शुभ निश्रा में सन् १९९१ में मुंबई से मोहनखेड़ा तीर्थ छरि पालित संघ की विहंगम झलकियाँ श्री सुंदरलालजी पटवा (मुख्यमंत्री म.प्र.) BHREETEE LATES Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू. शासनसम्राट् श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के वरदहस्तों द्वारा शिलान्यास की झलकियाँ भीनमाल नगर में ७२ जिनालय का भव्य शिलान्यास भीनमाल नगरमें ७२ जिनालय शिलान्यास के अवसर पर पू.आ. सह मुनिमंडल का नगर प्रवेश ७२ जिनालय की मुख्य कुर्मशिला पर वासक्षेप करते। हुए पू. आचार्यश्री साथ हैं दि. पवनकुमार (चंद्रयश वि.) राजेन्द्र विद्याधाम में शंखेश्वर पार्श्वनाथ जिनालय शिलान्यास श्री विद्याधाम तीर्थ में मंदिर शिलान्यास के अवसर पर उपस्थित पू. आचार्य सह मुनि मण्डल पू.श्री के साथ श्री भाईलालभाई एवं चम्पालालजी चौपड़ा आदि सुश्रावक गण श्वेश्वरपार्श्वनाथ अजिनालयका शिल बादी में श्रीशंखे । जावरादादावाडी जावरा में मुख्या मुख्य शिला पर विविध मुद्रा कर उद्रा करते हर प. आचार्यत्र For P e rsonal use only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिलाओं के लाभार्थी पूजन विधि करते-राजमहेन्द्री जावरा में मुख्य शिला पर वासक्षेप पू.आ.श्री द्वारा शिला पर विधि मुद्रा करते आचार्य श्री। राजमहेन्द्री में मुख्यकुर्मशिला का वासक्षेप पू. गच्छनायक द्वारा राजमहेन्द्री તો ગર | (દેશથી ટી जावरा पाट गादी पर बिराजमान पू.आ.श्री Jain Edation International www.jainelibraorg Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शgणय समोतीरथ नहीं-लवायु पू. गच्छनायकश्री की पावन निश्रा में भव्य नवाणु यात्रा * आयोजक* प्रथम यात्रा : पुरवराजजी केशरीमलजी कंकुचौपडा, द्वितीया यात्रा : हस्तीमलजी केशरीमलजी बागारेचा-आहोर, तृतीय यात्रा : वालचंदजी सरेमलजी रामाणी-गुड़ाबालोतान पालीताणामें तलेटीपरदर्शन वंदन करते हुए आचार्यदेवश्री एवं आराधक मंडल आचार्यश्रीसे आशीर्वाद लेते हुए आयोजक श्री मुन्नीलालजी कंकुचौपडा भक्ति से हर्ष तरंगे का विमोचन करते श्रीवालचंदनी रामाणी पालीताणा तीर्थ में नल्वाणुयात्रा में जाजम का मुहूर्त करते हुए आचार्यदेवश्री आचार्यश्रीसे आशीर्वाद लेते हुए आयोजक श्री हस्तीमलजीबागरेचा काम्बली ओढाते हुए श्रीरामाणी परिवार माला विधिकरतेरामाणी परिवार Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पधारे हुए श्री संघों का स्वागत करते संघवी श्री सुमेरमलजी ऐतिहासिक नगर प्रवेश पूज्यश्री का व किशोरचंदजी लुक्कड 'मासक्षमण के दौरान श्रीमती सुआदेवी पूज्य आचार्य श्री वासक्षेप ग्रहण करती हुई का पहली बारचा सं.१९९५ में पू. गच्छाधिपतिश्री की पावन निश्रा में ८00 आराधको सहित पालीताणा में अहिंसा, पवित्रता पालीताणा सम्मेलन ऐतिहासिक चातुर्मास आराधना की झलकियाँ आयोजक : संधवी शा.सुमेरमलजी हंजारीमलजीलुक्कड -भीनमाल (राज.) प्रति दिन राजेन्द्र विहार | तलेटी यात्रा दौरान पूज्यश्री पू. गच्छाधिपतिश्री को बारसासूत्र अर्पण करते हुए लुक्कड परिवार चातुर्मास समापन समारोह में विराजित गुरू भगवंत Jain Boja fon International Der Private & Personal us www.jaingan Lorg Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यासप्रवर श्री रवीन्द्रविजयजी गणि के ४५ उपवास निमिते वरघोड़े में पू. आचार्यदेव उपस्थित पूज्य साध्वीजी भगवंत तीर्थ में चल रही गतिविधियों पर प्रकाश डालते हुए जयप्रकाश जैन प्रथम मंगलाचरण करते हुए पूज्यश्री PONS पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि श्री का गुरुपूजन करते हुए श्री रमेशकुमार एस. लुक्कड कुमारपाल महाआरती के दौरान गुरु भगवंत एवं आयोजक श्री लुक्कडजी पू. ग्रंथनायक श्रीसे पंन्यास श्री रवीन्द्र वि. चर्चा करते हुए Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतीस्नात्र के साथ में, अहाई उत्सव महान, अंजनशलाका शुभ दिया प्रतिष्ठा कीधी प्रधान - गणाधीश एवं मुनि जीवन में हुई प्रतिष्ठा लाबरिया एवं पालीवागा. मु.श्री हेमेन्द्र वि. द्वारा प्रथम प्रतिष्ठा लाबरिया (म.प्र.-१९८२) लाबरिया नगर के मूलनायक परमात्मा मूलनायक आदिनाथ प्रभु प्रतिष्ठा जिन मंदिर १९८३ में पालीताणा राजेन्द्र विहार दादावाडी अंजनशलाका प्रतिष्ठा में प्रतिष्ठित गुरुमंदिर १९८३ में पालीताणा राजेन्द्र विहार दादावाडी अंजनशलाका प्रतिष्ठा में भव्य गुरुमूर्ति tralehvaleBPremies www.jainelibrary Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहपूर राष्ट्रसंत शिरोमणीशीकीनिया प्रतिष्ठा भीनमाल (राज.) श्री मनमोहन पार्श्वप्रभु की अंजनशलाका प्रतिष्ठा के यादगारचित्र आयोजक : सुमेरमलजी हजारीमलजी लुक्कड पू.गच्छाधिपतिकोवन्दना करत पू.श्री के चरणों में गुरुभक्त श्रीरागमत वाणीगीता-जीनमाल चमुखानिनमंदिर की प्रदक्षिणा के दौरान पू. गुरुदी For Private & Pars Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DRO009 ਬੰ ਦਰੁਕੇ ਹੀਰੇ पावपदमावतीशक्तिपीठधर्मशाला में प्रतिष्ठामहोत्सवकीझलकियाँ PROGRAC ILY प्रभु दर्शन करते हुए पू.आ.श्री एवं श्री मुक्तिश्रीजी म.सा. प्रभ प्रतिमा के दर्शन वंदन करते हए महात्मा K6HONIONVSTRONIONVGAONIAN VOINDIVITIVYIVITY PAH099999 SoSRODE LONORMONIONV6OJIONV6URNAVY 6WOOVo पू. गच्छाधिपतिश्री प्रभु के ध्यान में एकाकार हर मुद्रा के संदर्भ में चर्चा रत पू.आ.श्री एवं मुनिश्री ऋषभचंद्रविजयजी म.सा. अंजनविधि दौरान मूर्तियों पर वासक्षेप ( करते हुए पूज्यश्री Jally Education International wiETrendra Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासक्षेप करते हुए पू.श्री मोहनखेड़ा तीर्थ (म.प्र.) प.पू.श्री विद्याचंद्रसूरिजी समाधि मंदिर व अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव के दौरान स्मरणीय चित्रमय झलकियाँ १९९२ -0G प्रतिष्ठा के दौरान पू.आ.श्री पू.आचार्यश्री वार्तालाप करते । उपस्थित मुनिगण एवं ट्रस्टमंडल मंत्राक्षर लिखते श्री रविन्द्र वि.म. पू.आचार्य से मुनिगण चर्चा करते पू.आ.श्री एवं ट्रस्टी किशोरजी वर्धन प्रतिष्ठा के दौरान पू.आ.श्री गरुड मुद्रा में पूज्य आचार्यश्री Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम गुरूभक्त श्री हुकमीचन्दजी आशीर्वाद प्राप्त करते हुए पू. आचार्यश्री से चर्चा करते हुए मुनिश्री ऋषभचन्द्रविजयजी म.सा. मोहनखेड़ापाट गादी का एक अलौकिक चित्र (यह वह पाट है जिस पर पू. यतीन्द्रसूरिजी एवं विद्याचन्द्रसूरिजी बैठते थे और आज आप बैठते हैं।) Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -पू. भाई म.सा. एवं श्री कीर्तिसेन म. से विचार विमर्श करते पू.श्री - ट्रस्ट मंडल पू. श्री को काम्बली ओढाते हुए मायावर १एदारोत्रविवंबहतवाददाता प्रसंग शांतिस्व सहित अष्टारिकमहोत्सव तभार आ मेन्दसरी म AREENASEE REVIELTS प्रतिष्ठा पालीताणा राजेन्द्र भवन मध्ये जिनमंदिर प्रतिष्ठा प्रतिष्ठा महोत्सव की स्मरणीय झलकियाँ (१९८९) ATTEACOCAL: BACTITANICIPATETASHA STERS मंत्रोच्चार के द्वारा विभिन्न मुद्राएँ करते हुए। पूज्यश्री एवं अन्य साधु गण in Education International Far Private & Personal Use Only (www.jaine Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा | पू. श्री चर्चा करते हुए बालमुनि श्री प्रीतेश वि. एवं मुनिगण सं. १९९३ में पावा (राज.) श्री संभवनाथ अंजनशलाका प्रतिष्ठा की यादगार स्मृि चले समारोह बैं Jain Edrich International विचारमग्न ग्न पूज्य श्री पू.श्री की सेवा में मुनि पीयूषचंद्र, प्रीतेशचंद्र जिनमंदिर में विराजित परमात्मा अंजनविधि दौरान परमेष्ठि मुद्रा में पूज्यश्री परमात्मा की स्तुति करते हुए पू, गच्छाधिपति श्री पास है. दीक्षार्थी श्री पवनकुमार वर्तमान में मुनि चन्द्रयशविजयजी म.सा. www.j ary.org Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमाठीपुरा नेमिनाथ जिनमंदिर नमिनाथ भ. पर मंत्रोद्वारा वासक्षेप करते हुए पू.श्री प्रतिष्ठाकेबाद आनंदित भक्तगण नमिनाथ भ. बिराजित करते एवं पंचकल्याणक देख रहे मुनि मण्डल प्रतिष्ठा की शुभवेलाका एकविहंगम द्रश्य अंजनशलाका प्रतिष्ठाके विहंगम द्रश्य (१९९६) se Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा १९९६ में मुंबई भायखला सुमेरटावर प्रतिष्ठा की यादगार स्मृतियाँ मुंबई के भायखला स्थित सुमेर टावर में प्राण प्रतिष्ठा करते हुए पूज्य आचार्य श्री प्रतिष्ठा पश्चात् जिन मंदिर निर्माता आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं। क्रमशः बाएं से श्री सुमेरमलजी लुक्कड़, श्री किशोरमजी लूक्कड़, एवं श्री समेरमलजी बाफना प्रतिष्ठा की चादर... जो दर्शाती है आपका आदर... Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा सं. १९९८ में सिमलावदा [म.प्र. में जिन मंदिर प्रतिष्ठा की स्मृति की यादगार झलकीयाँ प्रतिष्ठा के शुभमुहर्त में मंत्रोच्चारण करते भक्तवर्ग सारगर्भित प्रवचन मुद्रा में ग्रंथनायक आओ भक्ति करें-विमोचन, जमुनादेवी (उ.मु.मं.) पू.मं. मोतीलालजी (विधायक रतलाम म.प्र.) परमेष्ठि मुद्रा में पू.आ.श्री Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा (१९९७) प्रभु पाव और आचार्यदेवेश नगर प्रवेश की एक झाँकी ।। • मंत्राक्षर लिखते पू.आ.श्री एवं हितेश वि.म. NARA RANEN प्रतिष्ठा के पश्चात गुरूदेवश्री प्रवर्तिनीजी एवं उपस्थित पू. मुनि मण्डल उपस्थित विशाल श्रमणी मण्डल खाचरोद (म.प्र.) दादावाडी प्रतिष्ठा महोत्सव की झलकियाँ। an Edication International www.jambre Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागदा ज. में संपन्न हुई गुरुमन्दिर प्रतिष्ठा की यादें नागदा (म.प्र.) नगर में एतिहासिक गुरु मंदिर एवं शंखेश्वर मंदिर प्रतिष्ठा की झलकियाँ सं. १९९८ नमा उपस्थित गुरू भक्तवर्ग Private & Personal Useji गुरुमंदिर प्रतिष्ठा में ध्वजा पर वासक्षेप करते हुवे पू. ग्रंथनायक श्री प्रतिष्ठ सं. १९९८ में हुई गुरुमंदिर प्रतिष्ठा पर पू. आ. श्री एवं श्री लोकेन्द्र विजयजी सं. १९९९ में हुई प्रतिष्ठा में उपस्थित मुनि मण्डल www.jainmelibrary.org Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भैसवाडा (राज.) में पू. गच्छाधिपति के पावन सान्निध्य में | श्री शीतलनाथ प्रभु की भव्यातिभव्य अंजनशलाका प्राण प्रतिष्ठा की झलकियाँ (१९९९) नगर प्रवेश की एक नजर श्री शांतिप्रभु को मंदिर में प्रवेश के दौरान Education International पंच कल्याणक की एक नजर.... विराजमान के समय पूज्य आचार्यदेव श्री MPORA POP! Pop Pop go अंजनशलाका के लिये विराजित प्रतिमाएँ पूज्यश्री के साथ श्री कुशराजजी मुथा, श्री महेन्द्र कोठारी, श्री शांतिलालजी जन्म अमृत एवं दीक्षा हीरक जयंति के पावन प्रसंग पर श्री भैंसवाडा सकल संघ की पू. रा. संत शिरोमणि के चरणों में कोटी कोटी वंदना... e Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04. शंखेश्वर तीर्थ में रचा इतिहास... पू.आ.श्री के आशीर्वाद प्राप्त करते चातुर्मास मंचाल प्रवेश तप की आराधना प्रारंभ करते पू.श्री हविभोर तातेड़ परिवार पूज्यों के साथ विचार विमर्श आशीवाद देते हुए पू.आ.श्री सन १९९६ में शंखेश्वर तीर्थ प्रस्तुति परम्परा में सर्व प्रथम बार ऐतिहासिक चातुर्मास एवं पू. गच्छाधिपतिश्री की निश्रा में आयोजक : साकलचंद चुन्नीलाल श्री तातेड़ - भीनमाल उपधान तप की आराधना Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शताब्दी सं. १९९९ आहोर नगर में श्री गोडी पार्श्वनाथ ५२ जिनालय का शताब्दी महोत्सव की झलकियाँ जिनकी कृपा गंथनायक पर हरपल बरसती है ___ऐसे गोड़ी पार्श्वनाथ दादा आहोर १७वें पाट महोत्सव पर श्री संघ अध्यक्ष सुमेरमलजी काम्बली ओढाते हुए नगर प्रवेश के दौरान पूज्य ग्रंथनायक श्री उपस्थित मुनि मण्डल मु. पीयूषविजयजी संघ को सम्बोधित करते हुवे |५२ जिनालय के शताब्दी समारोह में ध्वजा कलश रोहण के दौरान ग्रंथनायक आहोर १९९९ महापूजन के दौरान वासक्षेप करते हुवे पू.आ.श्री Jan d ation International Prvale & Personal Use Only www.jainetassoral Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था .............. मूर्ति पूजा की सार्थकता : ज्योतिषचार्य मनिश्री जयप्रभविजय, 'श्रमण मानव जीवन से मूर्ति का उतना ही पुराना संबंध है जितना मानव जाति के इतिहास का। मूर्तियां-प्रतिकृतियां निर्माण करना उनमें कुछ खोजना-प्रस्थापित करना अभिव्यक्त करना मानव स्वभाव की एक प्रकृति प्रदत्त विद्या है। आदि युग में बनाये गये शिला चित्र, गुफाओं के चित्र, मनुष्य के मूर्ति-प्रतिकृति संबंधी प्रेम के परिचायक है। प्रतीकों, चित्रों, प्रतिकृतियों आदि के माध्यम से मनुष्य अपनी भावाभिव्यक्ति करता आया है। कालांतर में इसी आधार पर प्रतीक-पूजा, मूर्ति-पूजा आदि का प्रसार-प्रचार हुआ। आदिम कबीलों से लेकर आज के सभ्य समाज में मूर्ति-पूजा का कोई न कोई रूप बन रहा है। जिन्होंने मूर्ति-पूजा का विरोध किया वहां भी परिवर्तित रूप में प्रतीक-पूजा का आश्रय लिया गया। इसके विस्तार में न जाकर हम यहाँ मूर्ति-पूजा के मूलाधार को समझाने का प्रयत्न करेंगें। मूर्ति-पूजा संबंधित महापुरुष, देव, तीर्थकर आदि के स्मरण करने का एक सहज माध्यम है। अनेक प्रवृत्तियों में बिखरे मन को अपने इष्ट, पूज्य के प्रति केंद्रीभूत करने में मूर्ति का माध्यम एक सरल आधार है। मूर्ति ध्यान के लिए श्रेष्ठ अवलंबन है। अपने इष्ट की मूर्ति के प्रति जितनी गहरी तादात्म्यता होगी, उतनी ही ध्यान की प्रगाढ़ता उपलब्ध होती चली जायेगी। ध्यान-मन की एकाग्रता के लिए मूर्ति सहज व्यक्त आधार है। यद्यपि निर्गुण उपासना, भाव-आराधना उच्चस्तरीय उपासना है। किंतु यह साधना प्रौढ़ की अवस्था है। उत्तर स्थिति है। प्रारम्भिक अवस्था के साधक, उपासक मूर्ति रूप में प्रतीकोपासना का आधार लेकर ही कालान्तर में उच्च स्थिति प्राप्त कर सकते हैं। मूर्ति-पूजा की सार्थकता तभी है जब हम संबंधित महापुरुष, देव, तीर्थंकर आदि के गुणों का स्मरण करें, उनके दिव्य जीवन चरित्र संबंधी प्रसंगों का स्मरण करें। कम से कम जितने समय तक हम पूजा निमित्त अथवा दर्शन-वंदन हेतु अपने इश्ट की मूर्ति के पास रहें तब तक तो उनके गुणों का स्मरण होता रहे। यह स्मरण जितना प्रगाढ़ होगा उतना ही उपासक का अन्तर्बाह्य जीवन संस्कारित होता चला जायेगा। अपने इष्ट के सूक्ष्म परमाणु साधक के व्यक्तित्व में ओत-प्रोत होने लगेंगे। मूर्ति-पूजा के लिए लंबा चौड़ा कर्मकाण्ड अथवा बहुत सारी महंगी पूजा सामग्री कोई खास महत्व नहीं रखती है। मनुष्य की भावना, उसका चिंतन स्मरण आदि मुख्य आधार हैं मूर्ति-पूजा के लिए। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि पूजा सामग्री या विधि-विधान का कोई महत्व नहीं हैं। लेकिन केवल कर्मकाण्ड या सामग्रियों से ही पूजा पूर्ण नहीं होती इनके साथ-साथ भावना, श्रद्धा, समर्पण, गुणानुवाद आदि मुख्य आधार हैं। जिन पर मूर्ति-पूजा की सार्थकता टिकी हुई है। इसी लिए तो आगमवाणी में निर्देश है : मेस्स्स सरिसवस्स य जत्तियमितंपि अंतरं गत्यं। दव्वत्थयभावत्थय अंतरं तत्तिअं नेयं ।। जिस प्रकार मेरु पर्वत और सरसों में बहुत बड़ा अंतर है उसी प्रकार का अंतर द्रव्य-पूजा और भाव-पूजा में जानना चाहिए। अर्थात भाव-पूजा का स्तर मेरु पर्वत की तरह महान् और द्रव्य पूजा मेरु पर्वत के समक्ष एक सूक्ष्म सरसों के दाने के समान क्षुद्र है। बिना भावना के पूजा एक लकीर पीटना, यंत्र-चालित क्रिया जैसी है। चाहे उसका कितना ही बड़ा कर्म-काण्ड हो और कितनी ही विविधतापूर्ण सामग्री हो लेकिन भावना नहीं है, भक्ति नहीं है, प्रभु के गुणानुवाद नहीं हैं, तो ऐसी पूजा का कोई महत्व नहीं है। द्रव्य पूजा और भाव पूजा की फलश्रुति बताते हुए जिनवाणी में कहा गया है : उक्कोसं दव्वत्थय आराहओ जाव अच्चुअं जाई। भावत्थएण पावइ अंतोमहत्तेण निव्वाणं|| हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्च ज्योति CALFornama Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ। द्रव्य पूजा का आराधक अधिकतम अच्युत नामक बारहवें देवलोक में जाता है तथा भाव-पूजा का आराधक अंतर्मुहूर्त में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। मोक्ष मार्ग के साधक को जिज्ञासु को, अपनी पूजा भावमय बनानी चाहिए। बिना भाव के तो सब व्यर्थ है। भाव पूजा तो सामग्रियों के कम रहने पर या कर्मकाण्ड न जानने पर भी मनुष्य का उद्धार कर देती है। फिर वीतराग भगवान की पूजा तो उच्चस्तरीय भावना, चारित्र, सम्यक् जीवन प्रणाली पर आधारित है। समय के साथ-साथ, जीवन के बदलते मूल्य और प्रतिमानों के साथ-साथ मूर्ति पूजा, देव पूजा आदि का भी स्वरूप बदल गया है। भक्तगण मूर्ति मात्र को ही भगवान मानकर पूजा की औपचारिकता पूरी करते हैं। मूर्ति के साथ अपने इष्ट का व्यापक भाव, उनका गुणानुवाद, चिंतन-मनन तो विस्मृत जैसा होता जा रहा है। पूजा के नाम पर कर्मकाण्ड दिखाऊ आडम्बर साधना सामग्री आदि तो बहुत बढ़ गये हैं लेकिन उसकी मूल भावना तिरोहित होती चली जा रही है। परिणाम सामने है भारत देश में विभिन्न सम्प्रदायों के हजारों-लाखों मंदिर और करोड़ों में ही उनके मानने वाले, पूजने वाले फिर भी धर्म, अध्यात्म, चारित्र आदि के क्षेत्र में जो गिरावट आ रही है वह हमारी भावहीन पूजा प्रणाली की निरर्थकता का ही परिणाम है। पूजा के उपक्रम आज धर्म-भीरुताजन्य औपचारिकता मात्र बनकर रह गये हैं। कई लोग तो अपने आपको समाज में धार्मिक, भक्त के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए ही मूर्ति पूजा का आडम्बर ओढ़ते देखे गये हैं। कई लोग देखा-देखी ही इस ओर आगे बढ़ते हैं। कई भक्तगण खा-पीकर आराम से असमय ही पूजा का दिखावा करते हुए अपने धर्म की पालना समझ लेते हैं। यह सब अपने आपको भ्रान्त करने या दूसरों को दिखाने को प्रयत्न तो हो सकता है किंतु पूजा की मूल भावना से इनका कोई खास संबंध नहीं है। अस्तुः हमें अपनी पूजा पद्धति में सुधार करके भावपूजा को प्रमुख स्थान देना चाहिए। इसके साथ ही दैनन्दिन जीवन की पवित्रता नियमितता और धर्मानुशासन की अनुपालना करनी आवश्यक है। मूर्ति-मंदिर-पूजा, पूजक इन सबके लिए एक व्यवस्थित आचार संहिता शास्त्रकारों ने निर्धारित की है। उसे समझकर आदर्श पूजा आराधना का अवलम्बन लेना चाहिए तभी हमारी पूजा की सार्थकता सिद्ध हो सकेगी। दुनियां में निशिपलायन करके भी कुछ साधु आगमप्रज्ञ कहा कर अपनी प्रतिष्ठा को जमाये रखने के लिये अपनी कल्पित कलम के द्वारा पुस्तक, पैम्पलेट या लेखों में मीयांमिठू बनने की बहादुरी दिखाया करते हैं, पर दुनियां के लोगों ये जो बात जग-जाहिर होती है वह कभी छिपी नहीं रह सकती। अफसोस है कि इस प्रकार करने से क्या द्वितीय महाव्रत का भंग नहीं होता? होता ही है। फिर भी वे लोग आगम-प्रज्ञता का शींग लगाना ही पसंद करते हैं। वस्तुतः इसी का नाम अप्रशस्ता है। जन-मन-रंजन कारी प्रज्ञा को आत्मप्रगतिरोधक ही समझना चाहिये। जिस प्रज्ञा में उत्सूत्र, मायाचारी, असत्य भाषण भरा रहता है वह दुर्गति-प्रदायक है। अतः मियांमिळू बनने का प्रयत्न असलियत का प्रबोधक नहीं, किन्तु अधमता का द्योतक है। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेन्द ज्योति* हेमेन्र ज्योति 2 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्ट ज्योति Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ मंदिर जाने से पहले WRITTENORROR प्रकाशक जैनधर्म दिवाकर मुनि नरेन्द्रविजय नवल' शास्त्री जब हम मंदिर जाते हैं तो हमारे मस्तिष्क में कभी भी यह विचार उत्पन्न नहीं हुआ कि हम मंदिर क्यों जाते हैं ? आप सहज ही कह सकते हैं कि इसमें विचार करने की बात ही क्या है ? मंदिर भगवान के या प्रभु के दर्शन करने के लिए जाते हैं। आप का ऐसा कहना स्वाभाविक ही है, कारण कि उससे आगे कभी आपने सोचा ही नहीं। न ही आपने मंदिर में दर्शन/वंदन करने के अतिरिक्त कुछ ध्यान दिया। हो सकता है आप पूजा, अर्चना भी करतें हों। किंतु हमारा कहना अपने स्थान पर सत्य है। अब आप विचार कीजिये, जिस समय आप अपने घर से अथवा कहीं से भी मंदिर जाने के लिए रवाना होतें हैं तो आप के मन-मस्तिष्क में कौन-कौन से विचार रहते हैं ? निश्चय ही उस समय आप प्रभु के दर्शन/वंदन की बात ही सोचते हैं। आप के मस्तिष्क में उस समय अन्य किसी प्रकार के भी विचार नहीं रहते हैं। उस समय जैसे-जैसे आप मंदिर की ओर बढ़ते जाते हैं आप के विचारों की निर्मलता/पवित्रता में वृद्धि होती जाती है। जिस समय आप मंदिर में प्रवेश करते हैं उस समय प्रभु दर्शन में आप लीन हो जाना चाहते हैं और जिस समय आप प्रभु के समक्ष खड़े होकर कर बद्ध कर उनमें परम पावन दर्शन करते हैं तब आपका मन मस्तिष्क वैचारिक दृष्टि से एकदम निर्मल हो जाता है। आपके अंदर रहे हुए समस्त विकार वहाँ समाप्त हो जाते हैं और आप एक ऐसे अवर्णनीय आनंद की अनुभूति करते है जिसे आप स्वयं ही महसूस कर सकते हैं। उस आनंदानुभूति को आप शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर सकते। उस समय आप समस्त सांसारिक चिंताओं से भी अपने आप को मुक्त समझते है। ऐसी आनंदानुभूति, विचारों की निर्मलता, निश्चिंतता आपको कहीं दूसरे स्थान पर नहीं मिल सकती। यह मंदिर का और वहाँ के शासन देवता अर्थात मूलनायकजी के पुण्य प्रभाव का परिणाम होता है। किंतु दुख की बात यह है कि ऐसे परम पवित्र स्थान पर जाने से आज का युवा वर्ग संकोच करता है, वह मंदिर जाने से अपना जी चुराता है। उस संबंध में जब युवाओं से बात करते हैं तो उनका एक सीधा उत्तर यही होता है कि समय नहीं मिल पाता। वास्तव में मंदिर नहीं जाने का उनका यह सबसे सरल बहाना है, जहां तक समय का प्रश्न है, यदि मंदिर जाने का संकल्प हो, प्रभु-दर्शन करने की भावना हो तो समय तो सरलता से निकाला जा सकता है। यह सभी अच्छी प्रकार से जानते हैं कि मित्रों से गप-शप करने में, सिनेमा जाने में, होटल और पान की दुकान पर जाने में जब समय मिल जाता है तो फिर थोड़ा सा समय मंदिर जाने के लिए क्यों नहीं मिल सकता। हम यहाँ उस विषय पर अधिक और कुछ कहना नहीं चाहते। बस यही कहेंगे कि यदि भावना हो, इच्छा शक्ति हो तो सब कुछ संभव है, अन्यथा कुछ भी संभव नहीं है। हम इतना अवश्य कहना चाहेंगें कि दिन में एक बार और वह भी हो सके तो अपने दैनिक कार्य में लगने से पूर्व अर्थात प्रातःकाल मंदिर जाकर प्रभु के दर्शन कर अपने विचारों को, भावना को सभी प्रकार के विकारों से मुक्त कर निर्मलता पवित्रता प्राप्त कर लेना चाहिए। यदि आपमें से कोई अभी तक ऐसा नहीं कर रहा है तो एक बार ऐसा करके देखिये और फिर देखिये आपको अपने कार्य में कैसा आनंद प्राप्त होता है। प्रभु के दर्शन करने मात्र से पूरे दिन आपका मन आल्हाद से भरा रहेगा। मंदिर जाने से पहले : अब हम उस बात पर विचार प्रकट करेंगे कि मंदिर जाने से पहले हमें क्या करना है मंदिर जाने के लिए। प्रभु के दर्शन करने से पूर्व कुछ तैयारी करनी आवश्यक होती है। उसी संबंध में हम यहां आपको बताने जा रहें हैं। कारण कि जब हम अपने प्रत्येक कार्य को प्रारंभ करने के लिए पूर्व तैयारी करते है, तो मंदिर जाने के लिए पूर्व तैयारी क्यों नहीं? मंदिर एक परम पवित्र स्थान है। इसलिए वहां मन माने ढंग से नहीं जा सकते। मंदिर जाते समय निम्न लिखित सावधानियां रखनी चाहिए: 1. सचित्तक का परित्याग :- मंदिर में प्रवेश करने से पूर्व समस्त सचित्तक अर्थात स्वयं के उपयोग की वस्तुएं और जैसे फूल माला, वेणी, साफा, कलंगी, राज चिन्ह, जूते-मोजे, तंबाकू और उससे संबंधित सामान, पान - मसाले, सिगरेट, औषध-इत्र आदि ऐसी अन्य समस्त वस्तुएं मंदिर के बाहर किसी सुरक्षित स्थान पर रख देनी चाहिए हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति 3 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Private Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77 77 श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन व ग्रंथ 77 अथवा बाहर खड़े किसी परिचित व्यक्ति के सुपुर्द कर देनी चाहिए। कारण कि यदि ऐसे पदार्थ भूल वश हमारे पास रह जाते हैं तो फिर वे उपयोग करने योग्य नहीं रहते हैं । 2. अचित्त का त्याग :- प्रभु की पूजा के लिए धूप-दीप, अक्षत, नैवेद्य आदि अचित वस्तुऐं लेकर मंदिर में प्रवेश करना चाहिए। रिक्त हाथ कभी भी प्रभु के दर्शन करने के लिए नही जाना चाहिए। अर्थात अपने उपयोग की वस्तुओं का त्याग कर, प्रभुजी की पूजा की वस्तुऐं लेकर मंदिर में जाना चाहिए । 3. उत्तरासन:- मंदिर में प्रवेश करने के पूर्व उत्तरासन करना चाहिए अर्थात चदरे से अपने शरीर को अलंकृ त करना चाहिए। कंधे पर चदरा डाले बिना मंदिर में प्रवेश करना उचित नहीं कहा जा सकता। 4. अंजलि :- मंदिर में प्रवेश करते ही जब सर्व प्रथम प्रभु की प्रशांत मुखाकृति के दर्शन हो वैसे ही अपने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर 'नमो जिणाणं' कहना चाहिए। कारण कि उस समय दर्शनार्थी का रोम-रोम प्रभु के दर्शन कर फुलरित हो जाता है। हृदय में भावोल्लाद की लहरें तरंगित होने लगती है। ऐसे उत्कृष्ट भावों के साथ "नमी जिणाणं" पद का उच्चार कर ही मंदिर में प्रवेश करना चाहिए। 5. प्राणिधान :- मंदिर में प्रवेश करने से लेकर बाहर निकलने तक मन, वचन, माया को प्रभु की शक्ति में एकाकार कर देना ही प्राणिधान है दूसरे भाब्दो में यह भी कह सकते हैं कि प्रभु दर्शन में अपने आप को तल्लीन का देना चाहिए। ऊपर जिन पाँच बातों की हमने चर्चा की उन्हें शास्त्रीय भाषा में पाँच अभिगम कहतें हैं। जो पाँच प्रकार का विनय कहा जाता है। मंदिर जाना : जब मंदिर जाने से पहले कुछ सावधानियाँ आवश्यक होती है कारण कि हम अन्यत्र कहीं जाते हैं तो उसके पूर्व कुछ तैयारियाँ करते हैं तो फिर मंदिर जैसे परम पावन स्थान पर जाते समय तैयारी क्यों नहीं ? किंतु उसका अर्थ यह भी नहीं कि मंदिर जाने के लिए कोई विशेष तैयारियां करनी पडती है। मंदिर जाने के पूर्व अपनी-अपनी सामर्थ्यानुसार वस्त्राभूषण धारण कर पूजन सामग्री थाली में सजा कर याचकों को यथाशक्ति दान देते हुए मंदिर जाना चाहिए। यदि दान देने की सामर्थ्य न हो तो उसमें विचार करने जैसी कोई बात नहीं है। परमात्मा की भक्ति के गीत गाते हुए मंदिर जाना चाहिए। मंदिर जाते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अपने स्पर्श से किसी झुंड जीव की हत्याएं न हो। 77 यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना आवश्यक प्रतीत होता है वह यह कि प्रायः यह देखा गया है कि समृद्ध परिवार के लोग अपनी कार आदि में बैठ कर मंदिर जाते है। यह उचित नहीं ठहराया जा सकता ऐसे मंदिर जाने से शासन की प्रभावना नहीं होती है। यदि आपके निवास से मंदिर अधिक दूरी पर है और आप वहाँ प्रतिदिन नहीं जा सकते हैं तो कम से कम सप्ताह में एक बार ही मंदिर जाकर सविधि पूजा आदि करना चाहिए। सायंकाल स्कूटर से मंदिर जाना भी उचित नहीं है। उससे दुर्घटना आदि का भी भय बना रहता है मंदिर जाने या मंदिर जाने मात्र की इच्छा का जो फल बताया जाता है वह इस प्रकार है। : * मंदिर जाने की इच्छा मात्र करने पर एक उपवास का फल ! * मंदिर जाने के लिए खड़ा होने पर दो उपवास का फल ! ** मंदिर जाने हेतु पैर उठाने पर तीन उपवास का फल ! * मंदिर जाने के लिए चलना आरंभ करने पर चार उपवास का फल ! * मंदिर जाने के लिए थोड़ा चलने पर पाँच उपवास का फल ! * मंदिर दिखने पर एक मास के उपवास का फल ! * मंदिर पहुँचने पर छः मास के उपवास का फल ! * मंदिर के द्वार के पास पहुँचने पर एक वर्ष के उपवास का फल ! * प्रदक्षिणा करते समय एक सौ वर्ष के उपवास का फल ! * देवाधि की पूजन करने पर एक हजार वर्ष के उपवास का फल ! * प्रभु की स्तुति-स्तवनादि करने पर अनंत पुण्य की प्राप्ति होती है। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 4 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ त्रिकाल पूजन का समय: प्रातःकालीन पूजा:- प्रातःकालीन पूजा के लिए यह आवश्यक है कि श्रावक सूर्योदय से डेढ़ घंटे पूर्व शैया त्याग दे। फिर एक सामायिक और रायी प्रतिक्रमण पूर्ण कर हाथ, पैर, मुख आदि साफ कर शुद्ध वस्त्र धारण कर जिस समय श्रावक मंदिर जाने के लिए अपने पैर उठाता है, उस समय सूर्योदय हो जाता है। मार्ग में सूर्य प्रकाश से अंधकार नष्ट हो जाता है और प्रकाश हो जाता है। श्रावक मार्ग में चलते समय जीवों की रक्षा करते हुए मंदिर में प्रवेश करे। मंदिर प्रवेश कर पूजन सामग्री से पूर्ण श्रद्धा भक्ति के साथ प्रभु का पूजन करे। फिर यथाशक्ति पच्चक्खाण ग्रहण करें। मध्यान्ह की पूजा : मध्यान्ह के समय भोजन के पूर्व श्रावक को अहिंसा पूर्वक स्नान करके पूजन के वस्त्र धारण कर अष्ट प्रकार की पूजन के द्रव्य लेकर मंदिर जाकर सविधि पूजन करना चाहिए। सांध्य कालीन पूजा : सूर्यास्त के पौन घंटे पूर्व भोजन पानी से निवृत्त होकर श्रावक को मंदिर में जाकर प्रदक्षिणा स्तुति करना चाहिए। धूप दीप जलाना चाहिए। उसके पश्चात चैत्यवंदन पच्चक्खाण करके उपाश्रय में जाकर देवसि प्रतिक्रमण करना चाहिए। वर्तमान काल : वर्तमान काल जीवन के लिए संर्घष काल है। आज मनुष्य को अपना तथा अपने परिवार के भरण पोषण के लिए कठिन संर्घष करना पड़ रहा है। आज मनुष्य सूर्योदय से पूर्व ही अपने घर से काम के लिए निकल पड़ता है और सूर्यास्त के बाद घर जाता है। ऐसी विषम परिस्तिथि में वह किस प्रकार तीनों समय की पूजा कर सकता है। यहां यह स्पष्ट किया जाता है कि मन में प्रभु भक्ति की भावना बनी रहनी चाहिए और यथाशक्ति अवसर निकाल कर पूजन आदि करने का प्रयास करना चाहिए। स्नानविधि : जब हम आपके सन्मुख स्नान विधि की चर्चा कर रहें हैं, तो आप विचार कर रहें होंगे कि उसमें बताने जैसा क्या हो सकता है? स्नान करना तो सामान्य क्रिया है। इसमें समझाने की आवश्यकता ही क्या है? आपका ऐसा विचार करना अपने स्थान पर सही हो सकता है, फिर भी इसमें समझाने के लिए बहुत कुछ है। ___सबसे पहले तो सही स्पष्ट किया जाता है कि जब आप शुद्ध जल से स्नान करते हैं, तो उसे द्रव्य स्नान कहते हैं। जो जीव हिंसा रहित नहीं होता। तथापि पूजा भक्ति आदि में सद्भाव जागृत करने का हेतु और निमित्त अवश्य बन जाता है। जिससे संपर्क दर्शन की प्राप्ति और प्राप्त संर्पक दर्शन की निर्मलता में भी स्नान निमित्त बनता है। शुद्ध ध्यान द्वारा किया गया स्नान भाव स्नान कहलाता है। स्नान का जल: जैसा पानी मिला, वैसे ही पानी से स्नान नहीं किया जा सकता। स्नान का पानी मोटे कपडे से छाना हुआ होना चाहिए। कुऐं, बावडी, नदी, तालाब आदि में उतरकर स्नान करना उचित नहीं माना जाता है। छाने हुए पानी से स्नान करना चाहिए अर्थात पानी को किसी बड़े पात्र-बालटी आदि में लेकर, छान कर स्नान कीजिए। यदि गरम करना हो तो इस प्रकार गरम करें कि उसमें ठंडा पानी मिलाने की आवश्यकता ही न पड़ें। गरम पानी में ठंडा पानी नहीं मिलाना चाहिए। ऐसा करने से बहुत जीवों की विराधना होती है। हेमेन्द ज्योति हेमेन्द ज्योति5 हेमेन्द ज्योति हेमेन्द्र ज्योति । Erisandra Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ बाथरूम में : आजकल प्रायः यह देखा गया है कि श्रावक बाथरूम में स्नान करते वक्त गाने गाया करते हैं। बाथरूम सिंगर होना ठीक नहीं है। इसके अतिरिक्त बाथरूम में स्नान करने से पानी के लिए बनी नाली से जब पानी बाहर आता है और किसी कारणवश एक स्थान पर एकत्र हो जाता है तो वहाँ जीव उत्पत्ति हो जाती है और वे पल-पल मरते हैं। जब तक यह मैला पानी जिसमें मलमूत्र, थूक, पसीना, बलगम आदि मिला हुआ रहता है सूखता नहीं तब तक असंख्य जीवों का जन्म मरण सतत् चलता रहता है। इसलिए जहाँ तक संभव हो, ऐसे स्थान पर स्नान करना चाहिए जहाँ पानी फैलकर कुछ ही समय में सूख जायें। स्नान करते समय रखी जाने वाली सावधनियां : 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. लौकिक व्यवहार शास्त्र की दृष्टि से निम्नांकित सावधनियां रखना आवश्यक है : - पूर्ण रूप से नग्न होकर कभी भी स्नान नहीं करना चाहिए। शरीर पर एक वस्त्र तो कम से कम रहना चाहिए। सभी वस्त्र पहन कर भी स्नान नहीं करना चाहिए। स्नान करते समय मौन रहना चाहिए। उल्टी के बाद, शमशान के धुआं स्पर्श के बाद, कुस्वप्न आने के बाद, बाल कटवाने के बाद, मैथून सेवन के बाद स्नान करना ही चाहिए हां भोजन करने के बाद स्नान नहीं करना चाहिए। स्नान के लिए गरम एवं ठंडे पानी का मिश्रण नहीं करना चाहिए । कम से कम पानी से स्नान करना चाहिए। स्नान में चर्बीयुक्त साबुन का उपयोग नहीं करना चाहिए । एकान्त में स्नान नहीं करना चाहिए। न ही बाथरूम की खिड़कियां आदि बंद कर स्नान करना चाहिए। जहाँ प्राण भय हो वहाँ स्नान नहीं करना चाहिए। अर्थात अनजाने कुऐं, बावड़ी, तालाब, नदी आदि स्थानों पर स्नान नहीं करना चाहिए। 10. इसके साथ ही एक बात यह स्पष्ट की जाती है कि यदि शरीर के किसी अंग पर घाव हो और उसमें पस/मवाद आता हो तो पूजन नहीं करना चाहिए। उसके अतिरिक्त यदि किसी धारदार हथियार से लग जाये, दाड़ी बनाते समय ब्लेड आदि की लग जायें और खून आदि न बहता रहे तो पूजन बंद करने की आवश्यकता नहीं। इसी प्रकार यदि मवाद बहता न हो तो भी पूजन को जा सकते हैं। मुख शुद्धि : परमात्मा की पूजा करने से पहले मुख शुद्धि आवश्यक है। दस अंगुलि लंबा कनिष्टिका अंगुली के समान मोटा गांठ रहित शुद्ध और अच्छे भूमि में उगे हुए वृक्ष का दातुन लेकर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर बैठकर मुख शुद्धि करनी चाहिए। आजकल टूथपेस्ट का चलन हो गया है। ये टूथपेस्ट हानिकारक होते हैं उनमें मिठास होती है, जिससे दाँत सड़ने का एक कारण बनता है और उनसे जीवोत्पत्ति होती है फिर भी आजकल इनका चलन अत्यधिक हो गया है किसी भी रीति से मुख शुद्ध कीजिये किंतु यह ध्यान रखें कि मुख से निकली हुई चिकनाहट 5 मिनट में सूख जानी चाहिए। कितने ही श्रावक प्रातः मुख शुद्धि के पूर्व ही प्रभु की पूजा करते हैं। यह उचित नहीं है। नवकारसी के पच्चक्खाण आने के पश्चात् ही मुख शुद्धि करना चाहिए। नवकारसी करने वाले को मुख शुद्धि करने के बाद ही पूजा करनी चाहिए । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 6 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ वस्त्र धारण: स्नान करने के पश्चात् तौलिए से शरीर को पौछना, शरीर को सुखा देना चाहिए। फिर दूसरे साफ तौलिए से शरीर पौंछकर पूर्व में उपयोग में लाये गये तौलिए को बदलना चाहिए। ऐसा नहीं करने से गीले तौलिये पर पूजा के वस्त्र पहनने से वे अशुद्ध हो जायेंगे और आशातना के हेतु बनेंगें। इसलिए दूसरे साफ और सूखे तौलिए की बात बताई गयी है। पूजा के वस्त्रों की संख्या : पूजा के लिए श्रावक को धोती और दुपट्टा ये दो वस्त्र धारण करना चाहिए और श्राविकाओं को तीन वस्त्र धारण करना चाहिए। इनके अतिरिक्त और कोई वस्त्र जैसे बनियान, जांघिया आदि प्रयोग में नहीं लाना चाहिए। पूजा के वस्त्र कैसे हों : शास्त्रों में सफेद रेशमी वस्त्रों का विधान पूजा के लिए बताया गया है। उसका कारण यह है कि रेशमी वस्त्र अशुद्धि छोड़ने वाले होते हैं जबकि सूति वस्त्र अशुद्धि ग्रहण करने वाले होते हैं। इसलिए जहाँ तक हो सके रेश्मी वस्त्रों का ही उपयोग करना चाहिए। कतिपय कारणों से कुछ लोग इनका भी निरोध करते हैं। वे इसमें हिंसा का दोष बताते हैं। सावधानियाँ : रेशमी वस्त्र चिकने होने से अधिक फिसलते हैं। इसलिए गाँठ ठीक प्रकार से लगानी चाहिए। दुपट्टा इस प्रकार ओढ़ें कि दाहिना कंधा खुला रहे। 3. धोती व्यवस्थित ढंग से पहनें। पूजा के वस्त्र शुद्ध रहना चाहिए। इसलिए उन्हें प्रतिदिन साबुन से साफ करना चाहिए। पूजा के वस्त्र प्रतिदिन पहनने के कपड़ों से अलग ही रखना चाहिए। पूजा के कपड़े पहनने से पूर्व कुछ देर तक धूप में सुखा लेना चाहिए। पूजा के वस्त्र पहनने के पश्चात् ऐसे व्यक्ति का स्पर्श नहीं करना चाहिए जिसने स्नान न किया हो। 8. पूजा के लिए जाते समय यह सावधानी रखें कि मार्ग में किसी मानव का स्पर्श न हों। मंदिर में रखे पूजा के वस्त्र उपयोग में न हों। पूजा के वस्त्रों का उपयोग सामायिक/प्रतिक्रमण के समय न रहें। 11. पूजन के वस्त्र अधिक समय तक पहन कर न रहें। 12. जब पूजन के वस्त्र पहन रखें हों तब जल पान, भोजन या अन्य कोई वस्तु न खायें। 13. साधारण वस्त्रों के साथ पूजा के वस्त्र न धोंयें। 14. पूजा के वस्त्र पहनने के पश्चात्, जूता, चप्पल आदि नहीं पहनना चाहिए। 15. मंदिर में प्रवेश करने के पूर्व पैर धोना चाहिए। 16. पूजा के वस्त्रों में लघु शंका आदि लग जाये तो उनका उपयोग नहीं करना चाहिए। 17. किसी के उपयोग किये हुए, फटे हुए, जमे हुए या जुडे हुए वस्त्रों का पूजा के लिए उपयोग नहीं करना चाहिए। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 7 हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Maliniduatantanslated Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ मुख कोश : मनुष्य जब श्वास लेता है तो शुद्ध वायु उसके अंदर जाती है और अशुद्ध वायु बाहर निकलती है। बाहर निकलने वाली गर्म उच्चवास अशुद्ध होती है व दुर्गन्ध युक्त भी होती है। यह अशुद्ध और दुर्गंध युक्त श्वास जब भगवान की प्रतिमा को स्पर्श करती है तो आशातना होती है। इससे बचने के लिए आठ तहाँ वाले वस्त्र से मुख और नाक को पूर्णतः ढंक लेना चाहिए जिससे बाहर निकलती श्वास प्रभु की प्रतिमा का स्पर्श नहीं कर सके। सावधानियाँ : I 1. छोटे रंगीन रूमालों का उपयोग मुखकोश के लिए नहीं करना चाहिए ये छोटे रूमाल नाक और मुख की श्वास रोकने में समर्थ नहीं होते। इसलिए मुख कोश दुपट्टे का बनाना चाहिए। यदि दुपट्टे से मुख बांधना असुविधाजनक लगता हो तो कोई बड़ा वस्त्र खण्ड उपयोग में लाना चाहिए । मुखकोश इस प्रकार बांधना चाहिए कि जिससे श्वास लेने में कठिनाई न आये। 2. 3. कपाल तिलक : जिनाज्ञा को प्रमुख मानने वाला श्रावक जब मंदिर जाता है और पूजा करने के पूर्व वह अपने कपाल पर तिलक लगाता है। उसके द्वारा वह यह भाव प्रकट करता है कि हे प्रभु! मैं आपकी उपासना के लिए उपस्थित हुआ हूँ । यह उपासना आपकी आज्ञानुसार विधि पूर्वक करूँगा। मेरी इच्छा को इसमें कोई स्थान नहीं है। मंदिर से घर जाऊँगा तब भी आपकी आज्ञा का तिलक धारण कर अपने सांसारिक कार्य में संलग्न होऊँगा । आपकी आज्ञा के अतिरिक्त इस पाप पूर्ण संसार में डूब मरने की मेरी लेश मात्र भी भावना नहीं है। मैं जिनेश्वर देव का सेवक हूँ। इस प्रकार की घोषणा का प्रतीक है ललाट पर लगाया गया तिलक और ऐसी घोषणा करके ही तिलक लगाना चाहिए। तिलक प्रभु के सामने नहीं लगाना चाहिए। इसके लिए अलग कक्ष होता है। वहीं पद्मासन मुद्रा में बैठकर केसर से चंदन मिश्रित दीपक की लौ की भांति तिलक पुरुषों को और चंद्रमा के समान गोल तिलक महिलाओं को लगाना चाहिए। कपाल के तिलक के बाद दोनों कानों के किनारे कंठ हृदय और नाभि पर भी तिलक करना चाहिए। हाथों में जहाँ आभूषण धारण किये जाते है, वहाँ भी तिलक रूप आभूषण बनाकर धारण करना चाहिए। बातें तो और भी कहनी है, बतानी है किंतु यदि सूक्ष्म में उन पर विचार किया जावे तो यह एक लेख न रहकर पुस्तक बन जायेगी। प्रत्येक पूजा की विधि, उसमें रखनेवाली सावधानियाँ आदि अनेक बातें हैं, जिनका सूक्ष्म विवेचन आवश्यक है। जब कभी अवकाश होगा, तब उन पर विस्तार से लिखा जा सकेगा। अभी इतना ही। अंत में एक बात और कहकर अपना कथन समाप्त करता हूँ। जब भी प्रभु दर्शनार्थ मंदिर में प्रवेश करें तब अपने साथ किसी भी प्रकार की खाद्य सामग्री नहीं ले जायें। यहाँ तक कि यदि जेब में सुपारी, लोंग, इलायची जैसी वस्तुऐं भी हों तो उन्हें बाहर ही रख दें। साथ ही यदि मौजे पहन रखें हों तो उन्हें भी खोलकर जावें। आजकल लोग मौजे पहनकर ही प्रभु के दर्शनार्थ चले जाते हैं जो उचित नहीं है। Jain Education international हेमेन्द्र ज्योति हेमेजर ज्योति 8 हमे ज्योति ज्योति What wo Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ भारतीय दर्शनों की मान्यतायें -कोंकण केसरी मुनि लेखेन्द्रशेखर विजय मानवीय मनीषा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि का नाम दर्शन है। सत्य का साक्षात्कार करना उसका उद्देश्य है और वह सत्य भी तथ्य पूर्ण हो, कपोल कल्पनाओं से अभिभूत न हो एवं अनुभूति की कसौटी पर परीक्षा किये जाने पर प्रमाणित सिद्ध हो। यह तो निश्चित है कि समस्त प्राणधारियों में मानव का स्थान सर्वोपरि है। उसे महामानव बनने का अवसर प्राप्त है। जब कि अन्य प्राणधारी प्राप्त का भोग करने तक सीमित है। इसीलिए मानव सदैव यह विचार करता आया है कि मैं कौन हूँ? अतीत में मेरा रूप क्या था और भविष्य में क्या होगा? मेरा प्राप्तव्य क्या है ? दृश्यमान विश्व का क्या स्वरूप है और उसके साथ मेरा क्या संबंध है ? आदि आदि। साहित्य इन जिज्ञासाओं का समाधान नहीं कर सकता है। वह तो विचारों के प्रकार को लिपिबद्ध करने का आधार है। जिससे यह ज्ञात होता है कि विचार प्रणालियों का रूप क्या रहा और क्या हो सकता है। किन्तु चिन्तन का क्षेत्र व्यापक है। व्यक्ति अपने चिन्तन द्वारा स्व से प्रारंभ कर विश्व के समग्र जड़-चेतन पदार्थों के मूल रूप को प्राप्त करने परखने का प्रयत्न करता है। भारतीय साहित्य के दो प्रकार हैं - वैदिक और अवैदिक। वैदिक साहित्य के उपनिषद विभाग में चिन्तन का स्पष्ट रूप दिखाई देता है और अवैदिक साहित्य आगम और पिटक चिन्तन के कोष ही हैं। उनमें स्व से लेकर विश्व के मूल रूप और मौलिक उपादानों का स्वतंत्र रूप से वर्णन किया है। उनमें व्यक्ति के स्वतंत्र अस्तित्व का बोध कराया गया है कि वह नर से नारायण भी बन सकता है और नारक भी बन सकता है। वह अपनी प्रत्येक क्रिया का कर्त्ता है और क्रिया फल का भोक्ता है। जैसा करेगा वैसा भरेगा का स्पष्ट उदघोश किया गया है। भारतीय दर्शनों के सामान्य विचारणीय विषय : उपर्युक्त भूमिका के आधार से यह कहा जा सकता है कि भारतीय दर्शनों के सामान्य रूप में विचारणीय बिन्दु चार हैं :- 1. आत्मवाद, 2. कर्मवाद, 3. पुनर्जन्मवाद, 4. मोक्षवाद। यह तो स्पष्ट है कि विश्व जड़ और चेतन पदार्थों का आस्पद है। इनमें मुख्य चेतन है। चेतन न हो तो इस विश्व का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। क्योंकि चेतन ज्ञाता, कर्त्ता, भोक्ता है और सदैव अपनी अभिव्यक्ति अहम् मैं सर्वनाम द्वारा करता है। इस अहम् शब्द के द्वारा जिस द्रव्य तत्व का बोध होता है उसके लिये सभी दार्शनिकों ने आत्मा शब्द का प्रयोग किया है। यह आत्मा ही चिन्तन की आद्य इकाई है। इसीलिये दर्शन के क्षेत्र में आत्मवाद को सर्वमान्य सिद्धान्त के रूप में स्वीकार किया गया है। आत्मा एक नहीं अनेक है। मनुष्य पशु, पक्षी आदि योनियों तथा शरीरों में विद्यमान है। इन योनियों तथा शरीरों की प्राप्ति पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म माने बिना संभव नहीं है। पुनर्जन्म के अनेक प्रसंग समाचार पत्रों में प्रकाशित भी होते रहते है। अतः यह पुनर्जन्मवाद दर्शन का सामान्य सिद्धांत है। इस पुनर्जन्म के सिद्धान्त के साथ मुक्ति के सिद्धान्त का संबंध जुड़ा हुआ है। सभी आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करने वालों को मुक्ति अभीष्ट है। उपनिषदों में देवमान के प्रसंग में यह संकेत किया गया है कि वे पुनर्जन्म के प्रपंच से मुक्त होकर ब्रह्म में लीन अर्थात ब्रह्म रूप हो जाते है। यह ब्रह्म रूप होना ही मुक्ति या मोक्ष कहा है। मुक्ति मनुष्य की वह अपार्थिव अवस्था है जब वह शुद्ध ज्ञान प्राप्त कर ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है और पुनर्जन्म के संबंध में कहा है कि यह उनके लिये है जो ज्ञानी नहीं है। वे सांसारिक कामनाओं से उपरत नहीं होने के कारण ब्रह्मरूपता को प्राप्त नहीं करते है। हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति 9 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति । or Private Javanelbrary Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ मुक्ति अर्थात बंधन से मुक्त होना और पुनर्जन्म अर्थात बंधन के कारणों से संबद्ध रहना । संबद्ध होने के निमित्त का नाम कर्म है। इस संक्षेप का फलितार्थ यह हुआ कि मुक्ति और पुनर्जन्म का कारण कर्म वियोग और संयोग है। पुनर्जन्म, पुण्य-पाप, शुभ-अशुभ, शुक्ल-कृष्ण कर्म के फल रहित आत्मा की शुद्ध अवस्था की प्ररूपक है। बौद्धिक विश्वास ऐसा है कि वेदविहित विधान से यज्ञ को संपूर्ण करने के पश्चात उस कर्म से एक ऐसे रहस्यमय गुण की प्राप्ति होती है जिसे अपूर्व या अदृष्ट कहते हैं। उसके द्वारा मनोवांछित फल की प्राप्ति हो जाती हैं। अवैदिकों की धारणा ऐसी है कि आत्मा की भावनानुसार ऐसी पौदगलिक वर्गणाओं का संयोग होता है जो आत्मा के मूल स्वभाव को प्रकट नहीं होने देता है और जन्म मरण के क्रम को गतिमान रखता है। इस प्रकार कर्मवाद का सिद्धान्त सभी भारतीय दर्शनों को मान्य है। उपर्युक्त सामान्य रूपरेखा को सभी भारतीय दर्शनों ने अपने अपने चिन्तन का विषय बनाया है। चिन्तन की प्रणालियों के भिन्न-भिन्न होने से निर्णय में भिन्नता है। किन्तु यहां यह जान लेना चाहिये कि वैदिक मान्यतानुसार यह दृश्यमान जगत-विश्व ईश्वर द्वारा कृत माना गया है कि इस जगत के उत्पन्न होने के पूर्व न असत् था न सत् था परम् आकाश था। जो दृश्यमान आकाश से परे है। उस समय न मृत्यु थी न अमृत था । अर्थात जीवन की सत्ता और असत्ता नहीं थी । सृष्टि के पूर्व सर्वप्रथम कामना का उदय हुआ जो इस जगत की प्रारम्भिक बीज थी। इसी बीज का विकास यह विश्व है। लेकिन अवैदिक विचारधारा विश्व को अनादि अनन्त मानती है। वह ईश्वर या ब्रह्म आदि कृत नहीं मानती है। इसीलिये आत्मा आदि पूर्वोक्त चार को भारतीय दर्शनों का मूल सिद्धांत माना है। प्रस्तुत लेख में इन्हीं चार के लिये दार्शनिक मान्यताओं का संकेत किया जायेगा। प्रमुख भारतीय दर्शन मूल सैद्धान्तिक मान्यताओं पर दार्शनिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि वे कितनी है ? भारत की दार्शनिक परंपराओं की निश्चित संख्या नहीं बताई जा सकती है। इसलिये आचार्य सिद्धसेन को कहना पड़ा कि जितनी जितनी प्रणालियाँ हैं उतने ही चिन्तन के भेद हैं। फिर भी विद्वानों ने वर्णीकरण करने का प्रयास किया है। आगमों में क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद ये चार मूलभेद और उनके तीन सौ तिरसठ अवान्तर भेद माने हैं। आचार्य हरिभद्र आचार्य माधव तथा आचार्य शंकर ने अपने अपने दृष्टिकोण से दर्शनों का वर्गीकरण किया है। पाश्चात्य विद्वानों ने भी वर्गीकरण की जो पद्धति अपनायी वह भी अनेक प्रकार की है। आस्तिक और नास्तिक इन दोनों प्रकारों में भी वर्णीकरण किया है और आस्तिक दर्शन सांख्या, योग, न्याय, वैशिक, मीमांसा और वेदान्त तथा नास्तिक दर्शन चार्वाक, जैन, बौद्ध माने हैं। किन्तु वास्तव में भारतीय दर्शनों का वर्णीकरण दो प्रकारों में किया जा सकता है :- 1. वैदिक, 2. अवैदिक । वैदिक दर्शन अर्थात वेद, वेदांगों के समर्थक दर्शन। वे छह हैं जिनके नाम सांख्य आदि पूर्व में कहे गये हैं और चार्वाक, जैन, बौद्ध ये अवैदिक दर्शन हैं। इनके चिन्तन मनन का आधार वेद वेदांग से भिन्न स्वतंत्र तर्क पूर्ण दृष्टिकोण है। कुछ विद्वानों ने वैदिक दर्शनों की तरह अवैदिक दर्शन भी छः माने है। चार्वाक, जैन, सौत्रांतिक, वैभाशिक, योगाचार और माध्यमिक । भारतीय दर्शनों का मन्तव्य : भारतीय दर्शनों (वैदिक अवैदिक दोनों) के सामान्य सिद्धांतों का नामोल्लेख पूर्व में किया गया है। इनके लिए दर्शनों का मन्तव्य इस प्रकार है :- न्याय और वैोषिक आत्मा को अविनश्वर और नित्य पदार्थ मानते हैं। इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख-दुख और ज्ञान को उसका गुण मानते है। आत्मा ज्ञाता, कर्त्ता और भोक्ता है। चैतन्य आत्मा का स्वरूप है। मीमांसा का मत भी यही है। आत्मा नित्य विभु है, ज्ञान आगंतुक धर्म है। मोक्ष में आत्मा चैतन्य गुणों से रहित रहती है। सांख्य ने पुरुष (आत्मा) को नित्य विभु और चैतन्य स्वरूप माना है। पुरुष अकर्ता और सुख-दुख की अनुभूति से रहित है। शुद्ध चैतन्य स्वरूप है। सांख्य अनेक पुरुषों को मानता है। ईश्वर को नहीं मानता है। वेदांत ने आत्मा को सत् चित्त आनन्द स्वरूप माना है। केवल एक ही (अद्वैत) आत्मा सत्य है। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 10 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति www.jainelib Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ चार्वाक चैतन्य विशिष्ट शरीर को ही आत्मा मानता है। आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। बौद्ध प्रत्येक क्षण में ज्ञान, अनुभूति और संकल्पों को परिवर्तनशील संतान मानता है। जैन आत्मा को अजर, अमर, परिणामी, नित्य मानता है। आत्मा अनन्त ज्ञान दर्शन सुख शक्ति का स्वभाव वाली है। कर्मवाद को सभी दर्शनों ने माना है। सामान्य रूप रेखा का पूर्व में संकेत किया जा चुका है इसलिये पुनरावृत्ति करने की आवश्यकता नहीं रह जाती है। यहां इतना स्वीकार करना पर्याप्त है कि उन्होंने कर्म के संबंध में विचार किया है। लेकिन जितना गंभीर और विस्तृत विवेचन जैन दर्शन में है उतना अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। अब परलोकवाद का विचार करते है। परलोक-पुनर्जन्म-जन्मांतर ये समानार्थक है कि मृत्यु के बाद आत्मा का दूसरा शरीर धारण करना। परलोकवाद कर्मवाद के सिद्धांत का फलित रूप है। वर्तमान में जिस रूप में हैं और उसकी क्या स्थिति होती है इसका उत्तर परलोकवाद से मिलता है। कर्मवाद यह तो कहता है कि शुभ कर्मों का फल शुभ और अशुभ कर्मों का फल अशुभ मिलता है। लेकिन यह तो संभव नहीं है कि सभी कर्मों का फल इसी जीवन में मिलें। जिससे कर्म फल भोगने के लिए दूसरा जन्म आवश्यक है। चार्वाक दर्शन शरीर, प्राण या मन से भिन्न आत्मा जैसी नित्य वस्तु नहीं मानता है। अतः उसको पुनर्जन्म मान्य नहीं है। परन्तु आत्मा की अमरता में विश्वास करने वाले सभी दर्शनों का मत है कि शरीर के साथ आत्मा का नाश नहीं होता है और वर्तमान शरीर के नष्ट होने पर भी कृत कर्मों का फल भोगने के लिए आत्मा को दूसरा जन्म लेना पड़ता है। यह दूसरा जन्म धारण करना ही पुनर्जन्म है। बौद्ध दर्शन क्षणिकवादी है। आत्मा को क्षणिक विज्ञानों की संतति मानता है। उसके मत से आत्मा क्षण-क्षण बदलती रहती है। किन्तु आत्मा की संतति निरन्तर प्रवहमान रहती है। इस मान्यता के अनुसार आत्मा का जन्मान्तर या पुनर्जन्म होता है। जैन दर्शन तो आत्मा को परिणामी, नित्य अजर अमर मानता है। इसलिये उसके मत में जन्मांतर पुनर्जन्म के लिये कोई विवाद नहीं है। पुनर्जन्म की तरह सभी आस्तिक दर्शनों ने मोक्ष की स्थिति को स्वीकार किया है। सांख्य मोक्ष को प्रकृति और पुरुष का विवेक मानता है। विवेक अर्थात एक प्रकार का ज्ञान विशेष। मोक्ष पुरुष की स्वाभाविक अवस्था की प्राप्ति रूप है। योग मोक्ष को आत्मा का कैवल्य मानता है। कैवल्य आत्मा को प्रकृति के जाल से छूट जाने की अवस्था विशेष है। मोक्ष दशा में पुरूष सुख दुख से सर्वथा अतीत हो जाता है। सुख दुख प्रकृति के विकार बुद्धि की वृत्तियां है। न्याय-वैशेषिक मोक्ष को आत्मा की उस अवस्था को मानते है जिसमें वह मन और शरीर से अत्यन्त विमुक्त हो सत्ता मात्र रह जाती है। चैतन्य आगंतुक धर्म है। शरीर और मन से संयोग होने पर आत्मा में चैतन्य का उदय होता है। मीमांसा मोक्ष को आत्मा की स्वाभाविक अवस्था की प्राप्ति मानता है। उसके सुख दुख का सर्वथा विनाश हो जाता है। आनन्द की अनुभूति नहीं होती है। ज्ञान शक्ति तो रहती है किन्तु ज्ञान नहीं रहता है। अद्वैत वेदांत मोक्ष को जीवात्मा और ब्रह्म के एकीभाव की उपलब्धि मानता है। क्योंकि वास्तव में आत्मा ब्रह्म ही है और सत् चित्त आनन्द रूप है। जैन दर्शन में आत्मा की स्वाभाविक अवस्था ही मोक्ष है। अनन्त ज्ञान दर्शन सुख शक्ति का प्रकट होना ही मोक्ष है। स्वभाव को स्वभाव रूप में और पर भाव को पर भाव में जानकर परभावों से सर्वथा मुक्त हो जाना ही आत्मा की मुक्त दशा है। बौद्ध दर्शन में आत्मा की मुक्त अवस्था को मोक्ष न कहकर निर्वाण कहा है। वहां निर्वाण का अर्थ सब गुणों के आत्यन्तिक उच्छेद की अवस्था किया है। उच्छेद दुख का होता है। आत्म संतति का नहीं। बौद्ध दर्शन में निर्वाण को विशुद्ध आनन्द की अवस्था भी माना जाता है। हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 11 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति FORPrivatelnod Intes Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ इस प्रकार सभी आस्तिकवादी दर्शनों ने मोक्ष अपने अपने दृष्टिकोण के अनुसार स्वीकार किया है। चार्वाक दर्शन भौतिकवादी दर्शन है इसलिये उसके अनुसार आत्मा का अस्तित्व नहीं तो फिर परलोक मोक्ष आदि की चर्चा का अवकाश ही नहीं है। मोक्ष संसार का अभाव रूप है और संसार जन्म मरण की अनादि श्रृंखला रूप है। अतः यहाँ संसार और मोक्ष के कारणों का संक्षेप में संकेत करते है सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति और पुरुष का भेद ज्ञान न होना संसार 1 का और भेद ज्ञान होना, विवेक होना मोक्ष का कारण है। न्याय वैशेषिक ने अविद्या अथवा माया को संसार का कारण कहा है। बौद्ध दर्शन के अनुसार वासना के कारण जन्म मरण का चक्र चलता रहता है। जैन दर्शन के अनुसार मिथ्यात्व, अविरति प्रमाद, कषाय और योग संसार के कारण है। उपर्युक्त समग्र कथन का सारांश यह है कि संसार जन्म मरण का मुख्य कारण अज्ञान है अज्ञान के विपरीत तत्वज्ञान मोक्ष का कारण है तत्वज्ञान हो जाने पर संसार का अन्त हो जाता है। दर्शन का संबंध बुद्धि के साथ हृदय और क्रिया से भी हैं। इसीलिये भारतीय दर्शनों ने श्रद्धान, ज्ञान और आचरण पर बल दिया है। वैदिक दर्शनों में ज्ञान योग, कर्मयोग और भक्ति योग नाम है। जैन दर्शन में सम्यग् दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र तथा बौद्ध दर्शन में प्रज्ञाशील समाधि कहा है। यह भारतीय दर्शनों के मन्तव्यों की संक्षिप्त रूपरेखा है और पृष्ठ मर्यादा को देखते हुए पर्याप्त है। प्रसंगोपात यह भी ज्ञातव्य है कि भारतीय दर्शनों के ग्रन्थ प्रायः खंडन मंडन या पूर्वापेक्ष उत्तर पक्ष के रूप में लिखे गये है। लेखक अपने अनुभव से विपक्ष के प्रश्नों की कल्पना कर पूर्व पक्ष के रूप में प्रस्तुत कर उत्तर पक्ष में अपना अभिमत सिद्ध करने के साथ पूर्वपक्ष का खंडन करता है। कहीं कहीं विपक्षी की शंकाओं का इतने संक्षेप में संकेत किया गया मिलता है कि वे ही समस्त पूर्वपक्ष को स्पष्ट रूप से जान सकते हैं जो विरोधियों के मत से पूर्णतया अवगत हैं। भाषा की दृष्टि से परिष्कृत और कठिन विद्वद योग्य संस्कृत का प्रयोग होने से सर्व साधारण के लिये भारतीय दर्शन ग्रन्थ श्रद्धा के आस्पद तो है लेकिन इनके पठन पाठन के प्रति किसी की रुचि नहीं दिखती है। इस कारण भारतीय दर्शनों के महत्व से स्वयं भारतीय अपरिचित हैं। विशेषु किमधिकम् । | कर्मों की गति बड़ी विचित्र है इसकी लीला का कोई भी पार नहीं पा सकता शास्त्रकार कहते हैं कि जीव कर्मों के प्रभाव से कभी देव और मनुष्य, कभी नारक और कभी पशु, कभी क्षत्रिय और कभी शूद्र हो जाता है। इस प्रकार नाना योनियों और विविध जातियों में उत्पन्न हो भिन्न-भिन्न वेश धारण करता है और सुकृत तथा दुष्कृत कर्मोदय से संसार में उत्तम, मध्यम, जघन्य, अधम अथवा अधमाधम अवस्थाओं का अनुभव करता रहता है। इस लिये कर्मों के वेग को हटाने के लिये प्रयेक व्यक्ति को क्षमासूर बन कर यथार्थ सत्यधर्म का अवलम्बन और उसके अनुसार आचरणों का परिपालन करना चाहिये, जिससे आत्मा की आशातीत प्रगति हो सके। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 12 श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति orgs Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ कर्म अस्तित्व के मूलाधार : पूर्वजन्म और पुनर्जन्म पुनर्जन्म को माने बिना वर्तमान जीवन की यथार्थ व्याख्या सम्भव नहीं जीवन का जो स्वरूप वर्तमान में दिखाई पड़ रहा है, वह उतने ही तक सीमित नहीं हैं, अपितु उसका सम्बन्ध अनन्त भूतकाल और अनन्त भविष्य के साथ जुड़ा हुआ है। वर्तमान जीवन तो उस अनन्त श्रृखंला की एक कड़ी है। भारत के जितने भी आस्तिक दर्शन हैं, वे सब पुनर्जन्म और पूर्वजन्म की विशद चर्चा करते हैं। पुनर्जन्म को माने बिना वर्तमान जीवन की यथार्थ व्याख्या नहीं हो सकती। पुनर्जन्म और पूर्वजन्म को न माना जाए तो इस जन्म और पिछले जन्मों में किये हुए शुभ-अशुभ कर्मों के फल की व्याख्या भी नहीं हो सकती । प्रत्यक्षज्ञानियों और भारतीय मनीषियों द्वारा पुनर्जन्म की सिद्धि प्रत्यक्ष ज्ञानियों ने तो पुनर्जन्म और पूर्वजन्म के विषय में स्पष्ट उद्घोषणा की है। उनको माने बिना न तो आत्मा का अविनाशित्व सिद्ध होता है और न ही संसारी जीवों के साथ कर्म का अनादित्व । भारतीय मनीषियों ने | तो हजारों वर्श पूर्व अपनी अन्तर्दृष्टि से इस तथ्य को जान लिया था और आगमों, वेदों, धर्मग्रन्थों, पुराणों, उपनिषदों, स्मृतियों आदि में इसका स्पष्ट रूप से प्रतिपादन भी कर दिया था । आचार्य देवेन्द्र मुनि म.सा. वैदिक धर्म के मूर्धन्य ग्रन्थ गीता में स्थान-स्थान पर पुनर्जन्म के सिद्धान्त का प्ररूपण किया गया है। अर्जुन ने कर्मयोगी श्रीकृष्ण से पूछा - "देव! योगभ्रष्ट व्यक्ति की क्या स्थिति होती है ?" इसके उत्तर में श्रीकृष्ण कहते हैं - "वह योगभ्रष्ट साधक पवित्र और साधन-सम्पन्न मनुष्य के घर जन्म लेगा, अथवा बुद्धिमान योगियों के कुल में पैदा होगा।" इसके अर्थ यह हुआ कि पिछले जन्म की विशेषताओं एवं संस्कारों की प्राप्ति दूसरे जन्म में होती है। जन्म के साथ दिखाई पड़ने वाली आकस्मिक विशेषताओं का कारण पूर्वजन्म के कर्म होते हैं। उसका प्रमाण गीता के अगले श्लोक में अंकित है - "वह अपने पूर्वजन्म के बौद्धिक संयोगों तथा संस्कारों को प्राप्त करके पुनः मोक्षसिद्धि के लिये प्रयत्न करता है।" दुष्कर्मों के फलस्वरूप अगले जन्म में प्राणी निम्नगति और योनि को पाता है, इसके लिए गीता कहती है-"निकृष्ट कर्म करनेवाले क्रूर, द्वेषी और दुष्ट नराधर्मों को निरन्तर आसुरी योनियों में फेंकता रहता है।" जो लोग भौतिक शरीर की मृत्यु के साथ ही जीवन की इतिश्री समझ लेते हैं, उन्हें पौर्वात्य और पाश्चात्य दार्शनिकों, धर्मशास्त्रियों, स्मृतिकारों, आगमकारों और विचारकों ने तर्कों, प्रमाणों, युक्तियों, प्रयोगों और अनुभवों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया कि पुनर्जन्म का सिद्धान्त काल्पनिक उड़ान नहीं है। विभिन्न दर्शनों और धर्मग्रन्थों में कर्म और पुनर्जन्म का निरूपण ऋग्वेद में कर्म और पुनर्जन्म का संकेत - 'ऋग्वेद' वैदिक साहित्य में सबसे प्राचीन धर्म शास्त्र माना जाता है। उसकी एक ऋचा में बताया गया है कि "मृत मनुष्य की आँख सूर्य के पास और आत्मा वायु के पास जाती है, तथा यह आत्मा अपने धर्म (अर्थात कर्म) के अनुसार पृथ्वी मे, स्वर्ग में, जल में और वनस्पति में जाती है। इस प्रकार कर्म और पुनर्जन्म के संबंध का सर्वाधिक प्राचीन संकेत प्राप्त होता है।" Educa on inte 'उपनिषदों में कर्म और पुनर्जन्म का उल्लेख - कठोपनिषद् में नचिकेता के उद्गार है। जैसे अन्नकण पकते हैं और विनष्ट हो जाते हैं, फिर वे पुनः उत्पन्न होते हैं, वैसे ही मनुष्य भी जीता है, मरता है और लेता है। पुनः जन्म हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 13 Private हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन थ ग्रंथ वृहदारण्यक उपनिषद में स्पष्ट कहा है- "मृत्युकाल में आत्मा नेत्र, मस्तिष्क अथवा अन्य शरीर- प्रदेश में से उत्क्रमण करती है उस समय विद्या (ज्ञान), कर्म और पूर्वप्रज्ञा उस आत्मा का अनुसरण करती है इसी उपनिषद में कर्म का सरल और सारभूत उपदेश दिया गया है कि "जो आत्मा जैसा कर्म करता है, जैसा आचरण करता है। वैसा ही वह बनता है। सत्कर्म करता है तो अच्छा बनता है, पाप कर्म करने से पापी बनता है, पुण्य कर्म करने से पुण्यशाली बनता है मनुष्य जैसी इच्छा करता है, तदनुसार उसका संकल्प होता है और जैसा संकल्प करता है, तदनुसार उसका कर्म होता और जैसा कर्म करता है, तदनुसार वह (इस जन्म में या अगले जन्म में) बनता है।" इसी उपनिषद में एक स्थल पर कहा गया है जिस प्रकार तृण जलायुका मूल तृण के सिरे पर जाकर जब अन्य तृण को पकड़ लेती है, तब मूल तृण को छोड़ देती है, वैसे ही आत्मा वर्तमान शरीर के अन्त तक पहुँचने के पश्चात् अन्य आधार (शरीर) को पकड़ कर उसमें चली जाती है।" कठोपनिषद में भी बताया गया है कि "आत्माऐं अपने-अपने कर्म और श्रुत के अनुसार भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेती है।" T छान्दोग्य उपनिषद में भी कहा है कि जिसका आचरण रमणीय है, वह मरकर शुभ-योनि में जन्म लेता है, और जिसका आचरण दुष्ट होता है, वह कूकर, शूकर, चाण्डाल आदि अशुभ योनियों में जन्म लेता है कौषीतकी उपनिषद में कहा गया है कि 'आत्मा अपने कर्म और विद्या के अनुसार कीट पतंगा, मत्स्य, पक्षी, बाघ, सिंह, सर्प, मानव या अन्य किसी प्राणी के रूप में जन्म लेता है।" भगवद्गीता में कर्म और पुनर्जन्म का संकेत : 1 भगवद्गीता में कर्मानुसार पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के अस्तित्व को सिद्ध करने वाले अनेक प्रमाण मिलते है। गीता में बताया है कि "आत्मा की इस देह में कौमार्य, युवा एवं वृद्धावस्था होती है, वैसे ही मरने के बाद अन्य देह की प्राप्ति होती है। उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता। आगे कहा गया है कि जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र जीर्ण हो जाने पर नये वस्त्र धारण करता है, वैसे ही जीवात्मा यह शरीर जीर्ण हो जाने पर पुराने शरीर को त्याग कर नये शरीर को पाता है। जिसने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु निश्चित है, जो मर गया है, उसका पुनः जन्म होना भी निश्चित है अतः इस अपरिहार्य विषय में शोक करना उचित नहीं है। इसी प्रकार श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सम्बोधित करते हुए कहा है-"हे अर्जुन! मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म व्यतीत हो चुके हैं, परन्तु हे परतप! मैं उन सब (जन्मों) को जानता हूँ, तुम नहीं जानते।" एक जगह गीता में कहा गया है-"जो ज्ञानवान् होता है, वही बहुत से जन्मों के अन्त में (अन्तिम जन्म में) मुझे प्राप्त करता है। हे अर्जुन! जिस काल में शरीर त्याग कर गये हुए योगीजन वापस न आने वाली गति को तथा वापस आने वाली गति को भी प्राप्त होते हैं, उस काल (मार्ग) को मैं कहूँगा।" पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को सिद्ध करते हुए गीता में कहा है-"वे उस विशाल स्वर्गलोक का उपभोग कर पुण्य क्षीण होने पर पुनः मृत्युलोक में प्रवेश पाते हैं। इसी प्रकार तीन वेदों में कथित धर्म (सकाम कर्म) की शरण में आए हुए और काम भागों की कामना करने वाले पुरुष इसी प्रकार बार-बार विभिन्न लोगों (गतियों) में गमनागमन करते रहते हैं।" बौद्ध-धर्म-दर्शन में कर्म और पुनर्जन्म अनात्मवादी दर्शन होते हुए भी बौद्ध दर्शन ने कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्त का समर्थन किया है। पालित्रिपिटक में बताया गया है- "कर्म से विपाक (कर्मफल) प्राप्त होता है, फिर विपाक (फल भोग) से कर्म समुद्रभूत होते हैं, कमसे पुनर्जन्म होता है इस प्रकार यह संसार (लोक) चलता ( प्रवृत्त होता रहता है। मज्झिमनिकाय में कहा गया हैकुशल (शुभ) कर्म सुगति का और अकुशल (अशुभ) कर्म दुर्गति का कारण होता है। बोधि प्राप्त करने के पश्चात तथागत बुद्ध को अपने पूर्वजन्मों का स्मरण हुआ था। एक बार उनके पैर में कांटा चुभ जाने पर उन्होंने अपने शिष्यों से कहा“भिक्षुओ! इस जन्म से इकानवे जन्म-पूर्व मेरी शक्ति (शस्त्र विशेष ) से एक पुरुष की हत्या हो गई थी। उसी कर्म के कारण मेरा पैर कांटे से बिध गया है।" इस प्रकार बोधि के पश्चात उन्होंने अपने-अपने कर्म से प्रेरित प्राणियों को विविध योनियों में गमनागमन (गति - आगति) करते हुए प्रत्यक्ष देखा था उन्हें यह ज्ञान हो गया था कि अमुक प्राणी के अपने कर्मानुसार किस योनि में जन्मेगा ? इस प्रकार का ज्ञान उनके लिए स्वसंवेध अनुभव था हेमेलर ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 14 हेमेन्द्र ज्योति *मेन्द्र ज्योति Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ थेरीगाथा में यह बताया गया है कि "तथागत बुद्ध के कई शिष्य-शिष्याओं को अपने-अपने पूर्वजन्मों और पुनर्जन्मों का ज्ञान था। ऋषिदासी भिक्षुणी ने थेरीगाथा में अपने पूर्वजन्मों और पुनर्जन्मों का मार्मिक वर्णन किया है। “दीघ निकाय" में तथागत बुद्ध अपने शिष्यों से पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का रहस्योद्घाटन करते हुए कहते हैं - "भिक्षुओ! इस प्रकार दीर्घकाल से मेरा और तुम्हारा यह आवागमन-संसरण चार आर्य सत्यों के प्रतिवेद्य न होने से हो रहा है। बौद्धदर्शन के अनुसार इसका फलितार्थ यह है कि पुनर्जन्म का मूल कारण अविद्या (जैन दृष्टि से भावकर्म) है। अविद्या के कारण संस्कार (मानसिक वासना), संस्कार से विज्ञान उत्पन्न होता है। विज्ञान चित्त की वह भावधारा है जो पूर्वजन्म में कृत कुशल-अकुशल कर्मों के कारण होती है, जिसके कारण मनुश्य को आँख, कान आदि से सम्बन्धित अनुभूति होती है। इस प्रकार बौद्ध-धर्म-दर्शन में भी कर्म और पुनर्जन्म का अटूट सम्बन्ध बताया गया है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में कर्म और पुनर्जन्म नैयायिक और वैशेषिक दोनों आत्मा को नित्य मानते हैं। “मिथ्याज्ञान से राग (इच्छा) द्वेष आदि दोश उत्पन्न होते हैं। राग और द्वेष आदि से धर्म और अधर्म (पुण्य और पाप कर्म) की प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार की प्रवृत्ति सुख दुख को उत्पन्न करती है। फिर वे सुख दुख जीव में मिथ्याज्ञानवश राग-द्वेषादि उत्पन्न करते हैं।” न्यायसूत्र में इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है कि "मिथ्याज्ञान से राग द्वेषादि, रागद्वेषाधि दोषों से प्रवृत्ति (धर्माधर्म, पुण्य-पाप की) तथा प्रवृत्ति से जन्म और जन्म से दुख होता है। जब तक धर्माधर्म प्रवृत्तिजन्य संस्कार बने रहेंगे, तब तक शुभ-अशुभ कर्मफल भोगने के लिए जन्म-मरण का चक्र चलता रहेगा, जीव नये-नये शरीर ग्रहण करता रहेगा। शरीरग्रहण करने में प्रतिकूल वेदनीय होने के कारण दुख का होना अनिवार्य है। इस प्रकार मिथ्याज्ञान से दुखपर्यन्त उत्तरोत्तर निरन्तर अनुवर्तन होता रहता है। षड्दर्शन रहस्य में बताया है कि, घड़ी की तरह सतत् इनका अनुवर्तन होता रहता है । प्रवृति ही पुनः आवृत्ति का कारण होती है। पूर्वजन्म में अनुभूत विषयों की स्मृति से पुनर्जन्म सिद्धि पुनर्जन्म की सिद्धि के लिए दोनों दर्शनों का मुख्य तर्क इस प्रकार है - नवजात शिशु के मुख पर हास्य देखकर उसको हुए हर्ष का अनुभव होता है। इष्ट विषय की प्राप्ति होने पर जो सुख उत्पन्न होता है, वह हर्ष कहलाता है। नवजात शिशु किसी भी विषय को इष्ट तभी मानता है, जब उसे ऐसा स्मरण होता है कि तज्जातीय विषय से पहले उसे सुखानुभव हुआ हो, उस अनुभव के संस्कार पड़े हों, तथा वे संस्कार वर्तमान में उक्त विषय के उपस्थित होते ही जागृत हुए हों। नवजात शिशु को इस जन्म में तज्जातीय विषय का न तो पहले कभी अनुभव हुआ है, न ही वैसे संस्कार पड़े हैं। फिर भी उक्त विषय से सुखानुभव होने की स्मृति उसे होती है और वह उक्त विषय को वर्तमान में इष्ट एवं सुखकर मानता है। इसलिए यह मानना ही पड़ेगा कि नवजात शिशु को तज्जातीय विषय से सुखानुभव हुआ तथा उस अनुभव के जो संस्कार पूर्वजन्म में पडें, वे ही इस जन्म में शिशु की आत्मा में है। इस प्रकार पूर्वजन्म सिद्ध हो जाता है। पूर्वजन्म सिद्ध होते ही मरणोत्तर पुनर्जन्म सिद्ध होता है। ___ "सिद्धिविनिश्चय' की टीका में इसी प्रकार पुनर्जन्म की सिद्धि की गई है - जिस प्रकार एक युवक का शरीर शिशु की उत्तर्वर्ती अवस्था है, इसी प्रकार नवजात शिशु का भारीर भी पूर्वजन्म के पश्चात होने वाली अवस्था है। यदि ऐसा न माना जाएगा तो पूर्वजन्म में अनुभूत विषय का स्मरण और तदनुसार प्रवृत्तियां नवजात शिशु में कदापि ही हो सकती है, किन्तु होती है, इसलिए पुनर्जन्म को और उससे सम्बद्ध पूर्वजन्म को माने बिना चारा नहीं। पूर्वजन्म के वैर - विरोध की स्मृति से पूर्वजन्म की सिद्धिः जैन सिद्धान्तानुसार नारक जीवों को अवधिज्ञान (मिथ्या हो या सम्यक) जन्म से ही होता है। उसके प्रभाव से उन्हें पूर्वजन्म की स्मृति होती है। नारकीय जीव पूर्वभवीय वैर - विरोध आदि का स्मरण करके एक दूसरे नारक को देखते ही कुत्तो की तरह परस्पर लड़ते हैं, एक दूसरे पर झपटते और प्रहार करते हैं। एक दूसरे को काटते और नोचते हैं। इस प्रकार वे एक दूसरे को दुखित करते रहते हैं। इस प्रकार पूर्वभव में हुए वैर आदि का स्मरण करने से उनका वैर दृढ़तर हो जाता है। हेमेन्द ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 15 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्च ज्योति J a tion pumptional o Private Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था नारकीय जीवों की पूर्वजन्म की स्मृति से पुनर्जन्म का अस्तित्व सिद्ध होता है। रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति से पूर्वजन्म सिद्धि - प्रायः जीवों में पहले किसी के सिखाये बिना ही सांसारिक पदार्थों के प्रति स्वतः राग-द्वेष, मोह-द्रोह, आसक्ति-घृणा आदि प्रवृत्तियाँ पाई जाती है। ये प्रवृत्तियां पूर्वजन्म में अभ्यस्त या प्रशिक्षित होगी, तभी इस जन्म में उनके संस्कार या स्मरण इस जन्म में छोटे से बच्चे में परिलक्षित होते हैं। वात्स्यायन भाष्य में इस विषय पर विशद प्रकाश डाला गया है। आत्मा की नित्यता से पूर्वजन्म और पुनर्जन्म सिद्ध शरीर की उत्पत्ति और विनाश के साथ आत्मा उत्पन्न और विनष्ट नहीं होती। आत्मा (कर्मवशात्) तो एक शरीर को छोड़कर दूसरे नये शरीर को धारण करती है। यही पुनर्जन्म है। पूर्व शरीर का त्याग मृत्यु है और नये शरीर का धारण करना जन्म है। अगर वर्तमान शरीर के नाश एवं नये शरीर की उत्पत्ति के साथ साथ नित्य आत्मा का नाश और उत्पत्ति मानी जाए तो कृतहान (किये हुए कर्मों की फल प्राप्ति का नाश) और अकृताभ्युपगम (नहीं किये हुए कर्मों का फल भोग) दोष आऐंगें। साथ ही उस आत्मा के द्वारा की गई अहिंसादि की साधना व्यर्थ जाएगी। आत्मा की नित्यता के इस सिद्धान्त पर से पूर्वजन्म और पुनर्जन्म सिद्ध हो ही जाते हैं। जैन दर्शन तो आत्मा को ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अविनाशी, अक्षय, अव्यय एवं त्रिकाल स्थायी मानता है। जन्म (जाति- देहोत्पत्ति) का कारण क्या है ? इसके उत्तर में दोनों दर्शनों ने बताया कि पूर्व शरीर में किये हुए कर्मों का फल - धर्माधर्म जो आत्मा में समवाय सम्बन्ध से रहा हुआ है, वही जन्म का देहोत्पत्ति का कारण है। धर्माधर्म रूप अदृष्ट से प्रेरित पंचभूतों से देह उत्पन्न होता है, पंचभूत स्वतः देह को उत्पन्न नहीं करते। देहोत्पत्ति में पंचभूत संयोग नहीं, पूर्वकर्म ही निरपेक्ष निमित्त है पंच भत वादियों का कथन है कि पथ्वी जल आदि पंचभतों के संयोग से ही शरीर बन जाता है, तब देहोत्पत्ति के निमित्त कारण के रूप में पूर्वकर्म मानने की क्या आवश्यक्ता है? जैसे पुरुषार्थ करके व्यक्ति भूतों से घट आदि बना लेता है, वैसे ही स्त्री-पुरुष-युगल पुरुषार्थ करके भूतों से शरीर उत्पन्न करता है। अर्थात स्त्री-पुरुष युगल के पुरूषार्थ से शुक्र-शोणित-संयोग होता है, फलतः उससे शरीर उत्पन्न होता है, तब फिर शरीरोत्पत्ति में पूर्वकर्म को निमित्त मानने की जरूरत ही कहाँ रहती है ? कर्मनिरपेक्ष भूतों से जैसे घट आदि उत्पन्न होते हैं, वैसे ही कर्मनिरपेक्ष भूतों से ही देह उत्पन्न हो जाता है। इसके उत्तर में न्याय-वैशेषिक कहते हैं - घट आदि कर्म-निरपेक्ष उत्पन्न होते हैं, यह दृष्टान्त विषय होने से हमें स्वीकार नहीं है, क्योंकि घट आदि की उत्पत्ति में बीज और आहार निमित्त नहीं हैं जबकि शरीर उत्पत्ति में ये दोनों निमित्त है। इसके अतिरिक्त शुक्र-शोणित के संयोग से शरीरोत्पत्ति (गर्भाधान) सदैव नहीं होती। इसलिए एकमात्र शुक्र-शोणित संयोग ही शरीरोत्पत्ति का निरपेक्ष कारण नहीं है, किसी दूसरी वस्तु की भी इसमें अपेक्षा रहती है, वह है-पूर्वकर्म। पूर्वकर्म के बिना केवल शुक्र-शोणित संयोग शरीरोत्पत्ति करने में समर्थ नहीं है। अतः भौतिक तत्वों को शरीरोत्पत्ति का निरपेक्ष कारण न मानकर पूर्वकर्म सापेक्ष कारण मानना चाहिए। पूर्वकर्मानुसार ही शरीरोत्पत्ति होती है। जीव के पूर्वकर्मों को नहीं माना जाएगा तो विविध आत्माओं को जो विविध प्रकार का शरीर प्राप्त होता है, इस व्यवस्था का समाधान नहीं हो सकेगा। अतः शरीरादि को विभिन्नता के कारण के रूप में पूर्वकर्मों को मानना अनिवार्य है। अदृष्ट (कर्म) के साथ ही पूर्वजन्म-पुनर्जन्म का अटूट सम्बन्ध : वैशेषिक दर्शन के इस सिद्धान्त के विषय में प्रश्न होता है कि इच्छा द्वेषपूर्वक की जाने वाली अच्छी-बुरी प्रवृत्ति (क्रिया) तो क्षणिक है, वह तो नष्ट हो जाती है, फिर सभी क्रियाओं का फल इस जन्म में नहीं मिलता, प्रायः उनका हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 16 हेमेन्द्र ज्योति * हेगेन्द ज्योति J a nindmeriorials Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था फल जन्मान्तर में मिलता है, अतः क्षणिक क्रिया अपना फल जन्मान्तर में कैसे दे सकती है ? इसका समाधान 'अदृष्ट' की कल्पना करके किया गया है, उस क्रिया और फल के बीच में दोनों को जोड़ने वाला अदृष्ट रहता है। क्रिया को लेकर जन्मा हुआ वह अदृष्ट आत्मा में रहता है और सुख रूप या दुख रूप फल आत्मा में उत्पन्न करके, उसके द्वारा पूरा भोग लिये जाने के बाद ही वह (अदृष्ट) निवृत्त होता है। शुभ प्रवृत्तिजन्य अदृष्ट को धर्म और अशुभ प्रवृत्तिजन्य अदृष्ट को अधर्म कहा जाता है। धर्मरूप अदृष्ट आत्मा में सुख पैदा करता है और अधर्मरूप अदृष्ट दुख। वस्तुतः अदृष्ट का कारण क्रिया (प्रवृत्ति) को नहीं, इच्छा द्वेष को ही माना गया है। इच्छा द्वेष सापेक्ष क्रिया ही अदृष्ट की उत्पादिका है। इन सब युक्तियों से नित्य आत्मा के साथ कर्म और पुनर्जन्म - पूर्वजन्म का अविच्छिन्न प्रवाह सिद्ध होता है। सांख्यदर्शन में कर्म और पुनर्जन्म - सांख्यदर्शन का भी यह मत है कि पुरुष (आत्मा) अपने शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप नाना योनियों में परिभ्रमण करता है। परन्तु सांख्यदर्शन की यह मान्यता है कि “यद्यपि शुभाशुभ कर्म स्थूलशरीर के द्वारा किये जाते हैं, किन्तु वह (स्थूल शरीर) कर्मों के संस्कारों का अधिष्ठाता नहीं है, उनका अधिष्ठाता है - स्थूल शरीर से भिन्न सूक्ष्म भारीर। सूक्ष्म शरीर का निर्माण पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच तन्मात्राओं, महत्वत्व (बुद्धि) और अहंकार से होता है। मृत्यु होने पर स्थूल भारीर नष्ट हो जाता है, सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहता है। प्रत्येक संसारी आत्मा (पुरुष) के साथ यह सूक्ष्म शरीर रहता है, इसे आत्मा का लिंग भी कहते हैं। यही पुनर्जन्म का आधार है।" सांख्यकारिका में बताया गया है - लिंग (सूक्ष्म) शरीर बार-बार स्थूल शरीर को ग्रहण करता है और पूर्वगृहीत शरीरों को छोड़ता रहता है, इसी का नाम संसरण (संसार) है। मृत्यु होने पर सूक्ष्म शरीर नष्ट नहीं होता, किन्तु पुरुष (आत्मा) सूक्ष्म शरीर के सहारे से पुराने स्थूल शरीर को छोड़कर नये स्थूल शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। संसार की अनेक योनियों में पुरुष (आत्मा) का परिभ्रमण करने का कारण सूक्ष्म शरीर ही है। जब तक उसका सूक्ष्म शरीर नष्ट नहीं हो जाता, तब तक संसार में आवागमन होता रहता है। पूर्वजन्म के अनुभव और कर्मो के संस्कार इस लिंग (सूक्ष्म) शरीर में निहीत रहते हैं । चूंकि सांख्यदर्शन पुरुष (आत्मा) को कूटस्थ - नित्य मानता है, इसलिए उसका स्थानपरिवर्तन (विभिन्न योनियों में गमनागमन) या पुनर्जन्म शक्य नहीं है, इसलिये उसने इस लिंग शरीर की कल्पना की । कर्म फल भोग का एकमात्र साधन यही लिंग शरीर है। पुनर्जन्म भी लिंग शरीर का ही होता है, आत्मा (पुरुष) का नहीं। लिंग शरीर के निमित्त से पुरुष का प्रकृति के साथ सम्पर्क होने पर जन्म-मरण का चक्र प्रारंभ हो जाता है। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है - जैसे रंगमंच पर एक ही व्यक्ति कभी अजातशत्रु कभी परशुराम और कभी राम के रूप में दर्शकों को दिखाई देता है, उसी प्रकार लिंग शरीर विभिन्न शरीर ग्रहण करके मनुष्य, देव, तिर्यंच (पशु-पक्षी या वनस्पति) आदि नाना रूपों में परिलक्षित होता है। इस प्रकार सांख्यदर्शन में भी पुनर्जन्म एवं पूर्वजन्म का अस्तित्व सिद्ध होता है। मीमांसा दर्शन में कर्म और पुनर्जन्म - मीमांसा दर्शन आत्मा को नित्य मानता है, इसलिए वह पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को मानता है। मीमांसा दर्शन में चार प्रकार के वेद-प्रतिपाद्य कर्म बताये गए है। 1. काम्य कर्म, 2. निषिद्ध कर्म, 3. नित्यकर्म और 4. नैमित्तिक कर्म। कामना विशेष की सिद्धि के लिए किया गया कर्म काम्यकर्म है। निषिद्ध कर्म अनर्थोत्पादक होने से निषिद्ध है। जो कर्म फलाकांक्षा के बिना किया जाता है, वह नित्यकर्म है। जैसे सन्ध्या वन्दन आदि। जो किसी अवसर विशेष पर किया जाता है, उसे नैमित्तिक कर्म कहा जाता है। जैसे श्राद्ध आदि कर्म। हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 17 हेगेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Free Marat Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था कर्म और कर्मफलरूप पुनर्जन्मादि का संयोग कराने वाला : अपूर्व यज्ञादि का अनुष्ठान (कम) करने पर तुरन्त फल की निष्पत्ति नहीं होती। परन्तु कालान्तर में होती है। इस विषय में प्रश्न यह है कि कर्म के अभाव में कर्मफलोत्पादक कैसे बन सकता है ? मीमांसक इसका समाधान यों करते है। - अपूर्व द्वारा यह व्यवस्था बन सकती है। प्रत्येक कर्म में अपूर्व (पुण्य-पाप) को उत्पन्न करने की शक्ति होती है। अर्थात कर्म से अपूर्व उत्पन्न होता है और अपूर्व से उत्पन्न होता है फल। कर्म और कर्म फल को जोड़ने वाला अपूर्व ही है। इसीलिए शंकराचार्य अपूर्व को कर्म की सूक्ष्म उत्तरावस्था या फल की पूर्वावस्था मानते हैं। योगदर्शन में कर्म और पुनर्जन्म: 'योगदर्शन' व्यास भाष्य में पुनर्जन्म की सिद्धि करते हुए कहा गया है “नवजात शिशु को भयंकर पदार्थ को देखकर भय और त्रास उत्पन्न होता है, इस जन्म में तो उसके कोई संस्कार अभी तक पड़े ही नहीं, इसीलिए पूर्वजन्म के कर्मरूप संस्कारों का मानना आवश्यक है। इससे पूर्वजन्म का अस्तित्व सिद्ध होता है। पातंजल योगदर्शन में कहा गया है - "जीव जो कुछ प्रवृत्ति करता है, उसके संस्कार चित्त पर पड़ते हैं। इन संस्कारों को कर्म संस्कार, कर्माशय या केवल कर्म कहा जाता है। संस्कारों में संयम (धारणा, ध्यान और समाधि) करने से पूर्वजन्म का ज्ञान होता है।" यों पूर्व जन्मसिद्ध होने से पुनर्जन्म तो स्वतः सिद्ध हो जाता है। योगदर्शन का अभिमत है कि जो कर्म अदृष्टजन्य वेदनीय होते हैं, वे अपना फल इस जन्म में नहीं देते, उनका फल आगामी जन्म या जन्मों में मिलता है। नारकों और देवों के कर्म अदृष्टजन्म वेदनीय होते हैं। इस पर से भी पुनर्जन्म फलित होता है। जैनदर्शन में कर्म और पूर्वजन्म - पुनर्जन्म :-d जैनदर्शन आत्मा की परिणामोनित्य और कथंचित् मूर्त कहकर उसे शुभाशुभ कर्मों का कर्ता भोक्ता मानता है। उसका मन्तव्य है कि अनादिकाल से आत्मा का प्रवाहरूप से कर्म के साथ संयोग होने से, वह अशुभ है। इस अशुभ दशा के कारण ही आत्मा विभिन्न शुभाशुभ गतियों और योनियों में भटकता रहता है। आत्मा (जीव) जो भी कर्म करता है, उसका फल उसे ही इस जन्म में या अगले जन्म या जन्मों में भोगना पड़ता है, क्योंकि बंधे हुए कर्म बिना फल दिये नष्ट नहीं होते। वे आत्मा का तब तक अनुसरण करते रहते हैं, जब तक अपना फल भोग न करा दें। महाभारत में पूर्वजन्म और पुनर्जन्म - 'महाभारत' में बताया गया है कि "किसी भी आत्मा के द्वारा किया हुआ पूर्वकृत कर्म निष्फल नहीं जाता, न ही वह उसी जन्म में समाप्त हो जाता है, किन्तु जिस प्रकार हजारों गायों में से बछड़ा अपनी माँ को जान लेता है, उसके पास पहुँच जाता है, उसी प्रकार पूर्वकृत कर्म भी अपने कर्त्ता का अनुगमन करके आगामी जन्म में उसके पास पहुँच जाता है।" और उस वर्तमान जन्म में किये हुए कर्म अपना फल देने के रूप में आगामी जन्म (पुनर्जन्म) में उसी आत्मा का अनुगमन करते हैं। इस प्रकार पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का सिलसिला तब तक चलता है, जब तक वह आत्मा कर्मों का सर्वधा क्षय न कर डाले। मनुस्मृति से भी पुनर्जन्म की अस्तित्व सिद्धि : मनुस्मृति में बताया गया है कि नव (सद्यः) जात शिशु में जो भय, हर्श, शोक, माता के स्तनपान, रूदन आदि की क्रियाएँ होती है, उनका इस जन्म में तो उसने बिल्कुल ही अनुभव नहीं किया। अतः मानना होगा कि ये सब क्रियाएँ उस शिशु के पूर्वजन्मकृत अभ्यास या अनुभव से ही सम्भव है। अतः उक्त पूर्वजन्मकृत अभ्यास की स्मृति से पुनर्जन्म की सिद्धि होती है। पुनर्जन्मवाद-खण्डन, एक जन्मवाद - मण्डन : दो वर्ग पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को न मानने वाले दो वर्ग मुख्य है- (1) एक है - चार्वाक आदि नास्तिक, जो आत्मा को (स्वतंत्र तत्व) ही नहीं मानते। वे त्रैकालिक चेतना को स्वीकार नहीं करते। उनका मन्तव्य है - चार या पाँच महाभूतों के विशिष्ट संयोग से शरीर में एक विशेष प्रकार की चेतना (शक्ति) उत्पन्न होती है। इस विशिष्ट प्रकार के संयोजन का विघटन होते ही वह चेतना शक्ति समाप्त हो जाती है। जब तक जीवन, तभी तक चेतना। जीवन हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 18 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति mausEO meryo Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ (शरीर) समाप्त होते ही चेतना भी समाप्त। चेतना (स्वतंत्र) पहले भी नहीं थी, पीछे भी नहीं रहती। इसलिए न तो पुनर्जन्म है और न ही पूर्वजन्म। जो कुछ है, वह वर्तमान में है, न ही अतीत में है और न भविष्य में। यह वर्ग प्रत्यक्षवादी तथा इहजन्मवादी है। पुनर्जन्म का निषेध करने वाला द्वितीय वर्ग भी प्रकारान्तर से उसका समर्थक : दूसरा - पुनर्जन्म – पूर्वजन्म का निषेध करने वाला वर्ग आत्मा को स्वतंत्र तत्व के रूप में मानता है, कर्म और कर्मफल को भी मानता है। इस वर्ग में यहूदी, ईसाई और इस्लामधर्मी (मुसलमान) आदि एक - जन्मवादी आते हैं। इनकी मान्यता यह है कि मृत्यु के बाद आत्मा (रूह) नष्ट नहीं होती। वह कयामत (प्रलय) या न्याय के दिन तत्सम्बन्धी देव, खुदा या गॉड के समक्ष उपस्थित होती है और वे उसे उसके कर्मानुसार जन्नत बहिश्त (स्वर्ग या हेवन) अथवा दोजख (नरक या हेल) में भेज देते हैं। सामान्यतया यह कहा जाता है कि ईसाई और मुस्लिम धर्मों में पुनर्जन्म की मान्यता नहीं हैं, परन्तु उनके धर्मग्रन्थों एवं मान्यताओं पर बारीक दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि प्रकारान्तर से वे भी पुनर्जन्म की वास्तविकता को मान्यता देते हैं और परोक्ष रूप से उसे स्वीकार करते हैं। वैसे देखा जाए तो इस्लाम धर्म और ईसाई धर्म में भी प्रकारान्तर से प्रलय के उपरान्त जीवों के पुनः जागृत एवं सक्रिय होने की बात कही जाती है, जो पुनर्जन्म का ही एक विचित्र और विलम्बित रूप है। "विजडम ऑफ सोलेमन” ग्रन्थ में ईसाह मसीह के वे कथन उद्धृत हैं, जिनमें उन्होंने पुनर्जन्म का प्रतिपादन किया था। उन्होंने अपने शिष्यों से एक दिन कहा था - "पिछले जन्म का एलिजा ही अब जॉन बैपटिस्ट के रूप में जन्मा था।" बाईबिल के चेप्टर 3 पैरा 3-7 में ईसा कहते हैं – “मेरे इस कथन पर आश्चर्य मत करो कि तुम्हें निश्चित रूप से पुनर्जन्म लेना पड़ेगा।" ईसाई धर्म के प्राचीन आचार्य "फादर औरिजिन" कहते थे- “प्रत्येक मनुष्य को अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार अगला जन्म धारण करना पड़ता है। प्रो. मैक्समूलर ने अपने ग्रन्थ “सिक्स सिस्टम्स ऑफ इण्डियन फिलॉसॉफी" में ऐसे अनेक आधार एवं उद्धरण प्रस्तुत किये हैं, जो बताते हैं कि ईसाई धर्म पुनर्जन्म की आस्था से सर्वथा मुक्त नहीं है। ‘प्लेटो' और 'पाइथगोरस' के दार्शनिक ग्रन्थों में इस मान्यता को स्वीकार गया है। 'जोजेक्स' ने अपनी पुस्तक में उन यहूदी सेनापतियों का हवाला दिया है, जो अपने सैनिकों को मरने के बाद फिर पृथ्वी पर जन्म पाने का आश्वासन देकर लड़ने के लिए उभारते थे। सूफी संत “मौलाना रूम” ने लिखा है – “मैं पेड़-पौधे, कीट-पतंग, पशु-पक्षी-योनियों में होकर मनुष्य वर्ग में प्रविष्ट हुआ हूँ और अब देववर्ग में स्थान पाने की तैयारी कर रहा हूँ।" अंग्रेज दार्शनिक हयूम तो प्रत्येक दार्शनिक की तात्विक दृष्टि को इस बात से परख लेते थे कि “वह पुनर्जन्म की मान्यता देता है या नहीं?" ह्यूम कहता है - "आत्मा की अमरता के विषय में पुनर्जन्म ही एक सिद्धान्त है, जिसका समर्थन प्रायः सभी दर्शन शास्त्री करते है। "इन्साइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एण्ड एथिक्स" के बारहवें खण्ड में अफ्रीका, आस्ट्रेलिया और अमेरिका के आदिवासियों के संबंध में अभिलेख है कि वे सभी समान रूपसे पुनर्जन्म को मानते हैं। मरने से लेकर जन्मने तक की विधि व्यवस्था में मतभेद होने पर भी यह कहा जा सकता है कि "इन महाद्वीपों के आदिवासी आत्मा की सत्ता को मानते हैं और पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं।" ऐसा कहा जाता है कि ईसा मसीह तो तीन दिन बाद ही पुनः जीवित हो उठे थे। कुछ निष्ठावान ईसाइयों को ईसा मसीह प्रकाश रूप में दीखे, तो यहूदी लोगों ने दिव्य प्रकाशयुक्त देवदूत को देखा। पश्चिम जर्मनी के एक वैज्ञानिक डॉ. लोथर विद्जल ने लिखा है कि मृत्यु से पूर्व मनुश्य की अन्त चेतना इतनी संवेदनशील हो जाती है कि वह तरह तरह के चित्र-विचित्र दृश्य देखने लगता है। ये दृश्य उसको धार्मिक आस्थाओं के अनुरूप होते हैं। अर्थात जिस व्यक्ति का जिस धर्म से लगाव होता है, उसे उस धर्म, “मत या पंथ की मान्यतानुसार हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 19 Ram Amineray Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ मरणोत्तर जीवन में या मृत्यु से पूर्व वैसी ही आकृति एवं ज्योतिर्मय प्रकाश दिखाई देता है। उदाहरणार्थ - हिन्दुओं को यमदूत या देवदूत दिखाई देते हैं। मुसलमानों को अपने धर्मशास्त्रों में उल्लिखित प्रकार की झांकियाँ दीख पड़ती है। ईसाइयों को भी उसी प्रकार बाइबिल में वर्णित पवित्र आत्माओं या दिव्यलोकों के दर्शन या अनुभव होते हैं।" "पाश्चात्य देशों के कई लोग, जिन्हें व्यक्तिगत रूप से किसी धर्म या मत विशेष के प्रति आकर्षण या लगाव नहीं था, ऐसे अनुभवों से गुजरे, मानों एक दिव्य-ज्योतिर्मय आकृति उनके समक्ष प्रकट हुई हो।" पाश्चात्य दार्शनिक गेटे, फिश, शोलिंग, लेसिंग आदि ने अपने ग्रन्थों में पुनर्जन्म का प्रतिपादन किया है। - "प्लेटो" ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है। "जीवात्माओं की संख्या निश्चित है, उनमें घट बढ़ नहीं होती ) " (मृत्यु के बाद नये) जन्म के समय (किसी नये) जीवात्मा का सृजन नहीं होता, वरन् एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रत्यावर्तन होता रहता है।" "लिवनीज" ने अपनी पुस्तक "दी आयडियल फिलॉसॉफी ऑफ लिबर्टीज" में लिखा है - मेरा विश्वास है कि मनुष्य इस जीवन से पहले भी रहा है।" प्रसिद्ध विचारक 'लेस्सिंग' अपनी प्रख्यात पुस्तक "दी डिवाइन एज्युकेशन ऑफ दि ह्युमन रेस" में लिखते हैं "विकास का उच्चतम लक्ष्य एक ही जीवन में पूरा नहीं हो जाता, वरन् कई जन्मों के क्रम में पूर्ण होता है। मनुष्य ने कई बार इस पृथ्वी पर जन्म लिया है और अनेक बार लेगा ।" - ईसा मसीह ने एक बार अपने शिष्यों से कहा था - "मैं जीवन हूँ, और पुनर्जीवन भी। जो मेरा विश्वास करता है, सदा जीवित रहेगा, भले ही वह शरीर से मर चुका ही क्यों न हो।" यह कथन पुनर्जन्म के अस्तित्व को ध्वनित करता है। 'बाइबिल' की एक कथा में भी जीवन का अन्त है। वस्तुतः कोई मरता नहीं, जीवन शाश्वत है। " यहूदी विद्वान 'सोलमन' ने लिखा है। "इस जीवन के बाद भी एक जीवन है। देह मिट्टी में मिलकर एक दिन समाप्त हो जाएगी, फिर भी जीवन अनन्तकाल तक यथावत बना रहेगा ।" 16 दार्शनिक 'नशादृसंश' ने कहा है - आत्मा की अमरता को माने बिना मनुष्य को निराश और उच्छृंखलता से नहीं बचाया जा सकता। यदि मनुष्य को आदर्शवादी बनाना हो तो अविनाशी जीवन (जीव - आत्मा) और (पुनर्जन्म तथा) कर्मफल की अनिवार्यता के सिद्धान्त उसके गले उतारने ही पड़ेगें। " - प्रसिद्ध साहित्यकार "विक्टर ह्यूगो" ने लिखा है "मैं सदा विश्वास करता रहा - शरीर को तो नष्ट होना ही है, पर आत्मा को कोई भी घेरा कैद नहीं कर सकता। उसे उन्मुक्त विचरण करने (एक जन्म से दूसरे जन्म में जाने) का अवसर सदैव मिलता रहेगा।" एक बार 'प्लेटो' ने 'सुकरात' से पूछा - "आप सभी विद्यार्थियों ने पहले (पूर्वजन्म में) अभ्यास किया है, वे उस पाठ को शीघ्र समझ-सीख लेते हैं, जिन्होने कम अभ्यास किया है, वे जरा देर से समझ-सीख पाते हैं, • और जिन्होंने अभी (इस जन्म में) सीखना प्रारंभ किया है, वे बहुत अधिक समय के बाद सीख - समझ पाते हैं ।" सुकरात ने सामाधान किया - "जिन विद्यार्थियों को एक सरीखा पाठ देते हैं, परन्तु कोई विद्यार्थी उसे एक बार में, कोई दो बार में और तीन बार में सीख पाता है, इसका क्या कारण है ?" इस संवाद में पूर्व का न्यूनाधिक अभ्यास पूर्वजन्म को सिद्ध करता है। प्रसिद्ध दार्शनिक 'गेटे ने एक बार अपनी एक मित्र श्रीमती वी.स्टेन" को पत्र लिखा था - "इस संसार से चले जाने की मेरी प्रबल इच्छा है। प्राचीन समय की भावनाएँ मुझे यहाँ एक घड़ी भी सुख में बिताने नहीं देती। यह कितनी अच्छी बात है कि मनुष्य मर जाता है और जीवन में अंकित घटनाओं के चिन्ह मिट जाते हैं। वह पुनः परिष्कृ त संस्कारों के साथ वापस आता है।" इस पत्र के लिखने का उद्देश्य चाहे जो हो, परन्तु 'गेटे' के उपर्युक्त कथन में पूर्वजन्म में विश्वास होने का दृढ़ प्रमाण मिलता है। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 20 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति www.gamebo Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ अमरीका के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. रैमण्ड ए. मूडी जूनियर ने कई वर्षों तक मरणोत्तर जीवन की दिशा में शोध-प्रयास किया है। अपने अध्ययन निष्कर्ष उन्होंने "लाइफ ऑफ्टर लाइफ” नामक पुस्तक में प्रस्तुत किये हैं। डॉ. लिट्जर, डॉ. मूडी और डॉ. श्मिट आदि जिन-जिन पाश्चात्य वैज्ञानिकों (थेनेटालोजिस्ट) ने जितनी भी मृत्युपूर्व तथा मरणोत्तर घटनाओं के देश - विदेश के विवरण संकलित किये हैं, उन सबका सार यह था कि “मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है। मृत्यु के समय केवल आत्मचेतना ही शरीर से पृथक् होती है। इससे भारतीय मनीषियों की इस विचारधारा की पुष्टि होती है कि मृत्यु का अर्थ जीवन के अस्तित्व का अन्त नहीं है। जीवन (जीव) तो एक शाश्वत सत्य है, उसके अस्तित्व का न तो आदि है, न अन्त । भगवद्गीता के अनुसार - "न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था अथवा ये (राजा) लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि हम सब लोग इससे आगे नहीं रहेंगे।" वास्तव में जन्म न तो जीवन (जीव या आत्मा) का आदि है और न ही मृत्यु उसका अन्त। अतः मृत्यु के बाद होने वाले ये अनुभव दृश्यों की बारीकियों के हिसाब से भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं, यह स्वाभाविक है। क्योंकि व्यक्ति का मन भी अपने सूक्ष्म संस्कारों को लेकर वही रहता है, उसकी मनः स्थिति दृश्य जगत् को अपने चश्में से देखती है। परन्तु सबकी अनुभूतियों में जो समान तत्व है, वही वैचारिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्व है। वह है - मरणोत्तर पुनः जीवन का अनुभव। इन सभी अनुभूतियों से यही स्पष्ट होता है कि मरणोत्तर जीवन भी है। देह नाश के साथ ही वह जीवन समाप्त नहीं हो जाता, वह तो निरन्तर तब तक प्रवाहित होता रहता है, जब तक जन्म-मरण से और कर्मों से प्राणी सर्वथा मुक्त न हो जाए। अतः संसारी-जीव के जीवन का अविच्छिन्न प्रवाह आरोह-अवरोह के विभिन्न क्रम संघातों के साथ निरन्तर गतिशील रहता है। साथ ही मृत्यु के बाद के जीवन अनुभूतिक्रम का वर्तमान अनुभूतियों के साथ एक प्रकार का सातत्य रहता है। पूर्वजन्म-पुनर्जन्म-सिदान्त पर कुछ आक्षेप और उनका परिहार : पूर्वोक्त दोनों पुनर्जन्म विरोधी वर्गों के द्वारा इस सिद्धान्त पर कुछ लोग यह तर्क देते हैं, जिनका निराकरण भारतीय दार्शनिक, पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों एवं परामनोवैज्ञानिकों द्वारा अकाट्य तर्को, युक्तियों तथा प्रत्यक्ष अनुभूतियों के आधार पर दिया गया है। 1. प्रथम आक्षेप : विस्मृति क्यों ? - पुनर्जन्म के विरूद्ध कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि “यदि जीवन का अस्तित्व भूतकाल में था तो उस समय की स्मृति वर्तमान में क्यों नहीं रहती?" इस संबंध में विचारणीय यह है कि घटनाओं की विस्मृति - मात्र से पुनर्जन्म का खण्डन नहीं हो जाता। इस जन्म के प्रतिदिन की घटनाओं को भी हम कहाँ याद रख पाते हैं ? प्रतिदिन की भी अधिकांश घटनाऐं विस्मृत हो जाती हैं। सिर्फ स्मरण न होना ही घटना को अप्रमाणित नहीं कर देता। स्मृति तो अपने जन्म की भी नहीं रहती। इस आधार पर यदि कहा जाए कि जन्म की घटना असत्य है, तो इसे अविवेकपूर्ण ही कहा जाएगा। इसका समाधान “शास्त्रवार्तासमुच्चय' में भी इस प्रकार दिया गया है कि पूर्वजन्म की स्मृति का कारण पूर्वकृत कर्म होते हैं। सभी जीवों के कर्म एक से नहीं होते। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय-क्षयोपशम में भी तारतम्य होता है। इसलिए सभी जीवों को पूर्वजन्म की स्मृति एक सरीखी नहीं होती और किसी-किसी को होती भी नहीं है। कुछ आक्षेपक इस प्रकार का आक्षेप भी करते हैं - "यदि पुनर्जन्म का सिद्धान्त सत्य है तो पूर्वजन्म की अनुभूतियों की स्मृति सबकी उसी प्रकार होनी चाहिए। जिस प्रकार बाल्यावस्था और युवावस्था की स्मृति वृद्धावस्था में होती है।" इस आक्षेप का परिहार हीरेन्द्रनाथदत्त' ने इस प्रकार किया है कि स्मरण शक्ति का सम्बन्ध प्राणी के मस्तिष्क से होता है। वह (पूर्वजन्मगत मस्तिष्क) नष्ट हो चुका होता है। इसलिए सबकी एक सी स्मृति नहीं होती। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 21 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति aanta maru Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ लोक व्यवहार में भी देखा जाता है कि एक ही स्थल पर एक ही घटना के बहुत से दर्शक होते हैं पर उन सभी दर्शकों और श्रोताओं की स्मृति एक सरीखी नहीं होती। इसी प्रकार सभी को पूर्वजन्म की स्मृति एक सी नहीं रहती, किन्हीं को पूर्वजन्म की स्मृति नहीं भी होती, किसी किसी की होती है। इसका समाधान "शास्त्रवार्तासमुच्चय" में किया गया है कि पूर्वजन्म के संस्कार तो आत्मा में कार्मण शरीर के साथ पड़े रहते हैं। वे अवसर और निमित्त पाकर जागृत होते है। इसलिए यद्यपि पूर्वजन्म की पूरी स्मृति एक साथ नहीं होती, किन्तु उस प्रकार का कोई प्रबल निमित्त मिलने पर तथा मतिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम प्रबल होने पर एवं तथारूप ऊहापोह करने पर किसी किसी को पूर्वजन्म की स्मृति (जाति स्मरण ज्ञान) हो भी जाती है। में पूर्वजन्म को न मानने वालों का एक तर्क यह भी है "यदि पूर्वजन्म है, तो पूर्वजन्म में अनुभूत सभी विषयों का स्मरण क्यों नहीं होता ? कुछ ही विषयों का स्मरण क्यों होता है ? अर्थात् पूर्वजन्म में मैं कौन था, कहाँ था, कैसा था ? इत्यादि सभी विषयों का स्मरण क्यों नहीं होता ?" इसके उत्तर में न्यायिक वैशेषिकों का कहना है कि आत्मगत जो पूर्व संस्कार इस जन्म में उद्बुद्ध (जागृत) होते है, वे संस्कार ही स्मृति को पैदा करते है । उदबुद्ध संस्कार ही स्मृति के कारण है, अभिभूत संस्कार स्मृति को जन्म नहीं देते। संस्कार हों, वहां स्मृति हो ही, ऐसा नियम नहीं है। स्मृति होने के लिए पहले उस संस्कार का जागृत होना आवश्यक है। इस जन्म में जिन बातों का बचपन अनुभव किया था, क्या उन सभी बातों का वृद्धावस्था में स्मरण होता है ? नहीं होता। बचपन में अनुभूत विषयों के संस्कार तो वृद्धावस्था में भी विद्यमान रहते हैं, पर वे सभी जागृत नहीं होते। हम जानते हैं कि उत्कृष्ट दुख के कारण कई व्यक्ति परिचित व्यक्तियों को भी भूल जाते है, क्योंकि दुख ने उन परिचित व्यक्तियों के संबंध में पड़े हुए संस्कारों को अभिभूत कर दिया है। इसी प्रकार जीव की मृत्यु होने पर वह उसके अनेक सुदृढ़ संस्कारों को अभिभूत कर देती है । परन्तु पुनर्जन्म या देहांतर प्राप्ति होने पर उसके अनेक पूर्व संस्कार जागृत हो जाते है। ऐसे संस्कार उद्बोधक (निमित्त) अनेक प्रकार के होते है, जो विशिष्ट प्रकार के संस्कारों को जागृत करते है। उनमें से एक उद्बोधक है - जाति (जन्म) । जीव जिस प्रकार का जन्म प्राप्त करता है, उसके अनुरूप संस्कारों का उद्बोधक है - वह जन्म । (जाति)। जाति के अतिरिक्त धर्माधर्म (पुण्य-पाप-कर्म) भी अमुख प्रकार के संस्कारों के उद्बोधक हैं। पूर्व जन्म के जाति-विषयक जो संस्कार जिस में उबुध होते है, उसी को जाति स्मरण ज्ञान होता है - मैं कौन, कहाँ और कैसा था ? " जैन आगमों में जन्म मरण को इसलिए दुख रूप बताया है कि प्राणी को जन्म और मृत्यु के समय असहय दुखानुभव होता है। नये जगत में प्रवेश कितना यातना पूर्ण होता है कि पूर्व जन्म की स्मृतियां प्रायः लुप्त हो जाती है। हम देखते हैं कि किसी व्यक्ति को गहरा आघात, सद्मा, भयंकर चोट, उत्कट भय, असह्य शारीरिक पीड़ा या कोई विशेष संकट आदि होने पर वह मूर्च्छित (बेहोश हो जाता है, उस समय उसकी स्मृति प्रायः नष्ट सी हो जाती है। प्रसिद्ध विचारक 'कान्चूग' ने स्मृति का विशलेषण करते हुए कहा - - "जन्म से पूर्व शिशु में पूर्व जन्म की स्मृति होती है, लेकिन जन्म के समय उसे इतने भयंकर कष्टों के दौर से गुजरना पड़ता है कि उसकी सारी स्मरण शक्ति लुप्त हो जाती है।" इसी प्रकार गहरा आघात लगने पर भी स्मृति नष्ट हो जाती है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इस पर सोचा जाए तो यह अच्छा ही है। यदि पहले (पूर्वजन्म) की ढ़ेर सारी स्मृतियां बनी रहें तो इतनी विपुल स्मृतियों के ढ़ेर वाला उसका दिमाग पागल सा हो जाएगा। पूर्व के सारे घटना चित्र मस्तिष्क में उभरते रहें तो वह उसी में तल्लीन होकर जगत् के व्यवहारों से उदासीन हो सकता है। असह्य संकटग्रस्त अवस्था में व्यक्ति मूर्च्छित न हो तो उसका जीवित रहना कठिन है। इसलिए उस समय काम के लायक स्मृति का ही रहना अभिष्ट है। इस पर पुनः प्रश्न उठता है कि दुर्घटना या आघात की स्थिति में मरने के बाद नये जीवन में कतिपय व्यक्तियों को उसकी स्मृति क्यों होती है ? हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 22 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति For Priva Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ इसके उत्तर में यही कहा गया है कि यह आपवादिक स्थिति है। किसी को बड़ी भारी दुर्घटना हो गई, तीव्र आघात लगा, हत्या कर दी गई या स्वयं ने आवेश में आकर आत्म हत्या कर ली। इन और ऐसी स्थितियों में यदि किसी की मृत्यु होती है, तो उसका आर्त्त-रौद्र ध्यान जन्य संस्कार इतना प्रगाढ़ होता है कि भयंकर कष्ट होने पर भी उसकी स्मृति नष्ट नहीं होती। उस निमित्त के मिलते ही वह सहसा उभर जाती है। अर्थात किसी व्यक्ति या परिस्थिति का निमित्त मिलते ही वह उबुद्ध हो जाती है। अतः पूर्वजन्म को जानने-मानने का प्रबल साधन है - पूर्वजन्म स्मरण अर्थात जाति स्मृतिज्ञान जो यहां नया जन्म लेने वाले शिशु को प्रायः होता है। इससे सिद्ध हो जाता है कि इससे पूर्व भी वह कहीं था । इसलिए पूर्वजन्म की स्मृति न होने का आक्षेप निराधार है। दूसरा आक्षेप :- आनुवांशिकता का विरोधी सिद्धान्त - कई पुनर्जन्म - विरोधी कहते हैं कि "पुनर्जन्म का यह सिद्धान्त आनुवांशिक परम्परा का विरोधी है, क्योंकि वंश परम्परा के सिद्धान्तानुसार जीवों का शरीर और मन स्वभाव और गुण, आदतें और चेष्टाऐं, बुद्धि और प्रकृति आदि सभी अपने माता-पिता के अनुरूप होने चाहिए।" परन्तु ये सभी गुण सभी संतानों में माता-पिता के अनुरूप प्रायः नहीं पाये जाते । वंश परम्परागत गुण और स्वभाव मानने पर जो गुण पूर्वजों में नहीं थे, वे गुण अगर सन्तान में हैं तो भी उनका अभाव मानना पड़ेगा, जो प्रत्यक्ष विरूद्ध है । प्रायः यह देखा जाता है कि जो गुण पूर्वजों में नहीं थे, वे उनकी संतान में होते हैं। हेमचन्द्राचार्य में जो बौद्धिक प्रतिभा आदि गुण थे, वे उनके माता-पिता में नहीं थे। महाराणा प्रताप में जो शारीरिक शक्ति एवं स्वातन्त्र्य प्रेम था, वह उनके पिता एवं पितामाह में नहीं था। कई पिता बहुत ही उच्चकोटि के विद्वान होते हैं, परन्तु उनके लड़के अशिक्षित और बौद्धिक दृष्टि से पिछड़े होते हैं। अतः पुनर्जन्म में वंश परम्परा का सिद्धान्त न मानकर पूर्वजन्म के कर्मों के फल के अनुसार मनुष्य में गुण दोषों की व्याख्या करना उचित होगा। अतः पुनर्जन्म के संबंध में यह आक्षेप भी समीचीन नहीं है। 3. तीसरा आक्षेप :- इहलौकिक जगतहित के प्रति उदासीनता - एक आक्षेप यह भी किया जाता है कि पुनर्जन्म की मान्यता से मनुष्य पारलौकिक जगत् की चिन्ता करने लगता है । इहलौकिक जगत् के प्रति उदासीनता और उपेक्षा धारण करने लगता है। किन्तु यह आक्षेप भी निराधार है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त आगमी लोक की चिन्ता या आसक्ति करना नहीं सिखाता अपितु यह इस जन्म को सफल और सुन्दर बनाने की प्रेरणा देता है ताकि आगामी जन्म अच्छा बन सके। पुनर्जन्म से परोक्ष प्रेरणा भी मिलती है, कि मनुष्य ऐसा अनासक्त और विवेक (यतना) युक्त जीवन बिताए, जिससे पापकर्मों का बन्ध न हो या शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों का क्षय हो । पुनः पुनः जन्म-मरण के चक्कर में फंसना अच्छी बात नहीं है। शंकराचार्य ने भी पुनः पुनः जन्म-मरण को मनुष्य के लिए अनुचित बताया है। अतः यह आक्षेप भी व्यर्थ ही किया गया है। 4. चौथा आक्षेप :- पुनर्जन्म का मानना अनावश्यक - - कई नास्तिकता से प्रभावित लोग यह आक्षेप करते हैं लोगों की काल्पनिक उड़ान है। इन्हें मानने से क्या लाभ है • जो लोग पुनर्जन्म का अस्तित्व नहीं मानते, मनुष्य को एक चलता-फिरता खिलौना मात्र समझते हैं, शरीर के साथ चेतना का उद्भव और मृत्यु के साथ ही उसका अन्त मानते हैं, ऐसे लोग, जो जीवन की इतिश्री भौतिक शरीर की मृत्यु के साथ ही समझकर अपनी मान्यता ऐसी बना लेते हैं कि जीवन वर्तमान तक ही सीमित है, तो उसका उपभोग जैसे भी बन पड़े करना चाहिए। नीति-अनीति, धर्म-अधर्म या कर्तव्य-अकर्तव्य का विचार किये बिना ही on International "पूर्वजन्म और पुनर्जन्म, यह सब बकवास है, बौद्धिक और न माने तो कौन-सी हानि है ?" हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 23 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जो लोग ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् वाली चार्वाकी नीति अपनाते है वे भयंकर भूल करते है ये सामाजिक दण्ड के | भागी तो बनते ही है, अपना और अपने परिवार का अगला जीवन भी अन्धकारमय बना लेते हैं, क्योंकि पुनर्जन्म एक सुनिश्चित सिद्धान्त है, वह कर्म और कर्मफल के अस्तित्व को सिद्ध करने वाला मूल आधार है, इसे अधिकांश विचारशील मानव स्वीकार करते है शुभकर्मों का फल शुभ और अशुभ कर्मों का फल अशुभ मिलना भी सुनिश्चित है किन्हीं कारणों से यदि इस जीवन में किन्हीं कर्मों का फल नहीं मिलता, तो अगले जन्म (जीवन) या जन्मों में मिलना निश्चित है। फल ही नहीं, कर्मों के संस्कार भी सूक्ष्म रूप से कार्मण (सूक्ष्मता) शरीर के माध्यम से अगले जन्म या जन्मों में साथ साथ जाते हैं और आगामी (नये) जीवन (जन्म) की पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। बालकों में ये विशिष्ट प्रतिभाएँ पूर्वजन्म को माने बिना कहीं से आती १ इसी कारण कई बालकों में जन्मजात विषिष्ट प्रतिभा, योग्यता, असाधारण गुण, विलक्षण स्वभाव आदि किसी पैतृक या आनुवांशिक गुण, पारिपार्श्विक वातावरण, शिक्षण आदि के बिना भी दिखाई देते हैं। इन्हें पूर्वजन्म-कृत कर्म, या ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय-क्षयोपशम आदि को माने बिना कोई चारा नहीं है। विख्यात फ्रांसीसी बालक 'जान लुइ कार्दियेक जब तीन महीने का था, तभी अंग्रेजी वर्णमाला का उच्चारण करने लगा था। तीन वर्ष का होते होते वह लेटिन बोलने और पढ़ने लगा था। पांच वर्ष की आयु में पहुँचने तक उसने फ्रेंच, हिब्रू और ग्रीक भाषाऐं भी अच्छी तरह सीख ली। छह वर्ष की आयु में उसने गणित, भूगोल और इतिहास पर भी आश्चर्यजनक अधिकार प्राप्त कर लिया। सातवें वर्ष में वह इस दुनिया को छोड़कर चला गया। जर्मनी में बाल प्रतिभा कीर्तिमान स्थापित करने वाले "जान फिलिप वेरटियम ने दो वर्ष की आयु में पढ़ना-लिखना सीख लिया था। छह वर्ष की आयु में वह फ्रेंच और लेटिन में धाराप्रवाह बोल लेता था। सात वर्ष की आयु में उसने अपने इतिहास, भूगोल और गणित संबंधी ज्ञान से तत्कालीन अध्यापकों को अवाक् कर दिया। साथ ही इसी उम्र में उसने बाइबिल का ग्रीक भाषा में अनुवाद भी किया। सातवें वर्ष में ही वह बर्लिन की रॉयल एकेडेमी का सदस्य चुना गया और "डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी" की उपाधि से विभूषित किया गया। किशोरावस्था में प्रवेष करते करते वह इस संसार से विदा हो गया। अत्यन्त अल्प आयु में विलक्षण प्रतिभा का परिचय देकर समस्त विश्व को आश्चर्य में डालने वाला 'लुवेक' (जर्मनी) में उत्पन्न बालक 'फ्रेडरिक हीनकेन सन् 1731 में जन्मा था पैदा होने के कुछ ही घण्टे बाद वह बातचीत करने लगा। दो वर्ष की आयु में वह बाइबिल के संबंध में पूछी गई उत्तर देता था और बता देता था कि यह प्रकरण किस अध्याय का है भी बेजोड़ था। डेन्मार्क के राजा ने उसे राजमहल में बुलाकर सम्मानित किया था तीन वर्ष की आयु में उसने भविष्यवाणी की थी कि अब मुझे एक वर्ष और जीना है। उसका कथन अक्षरशः सत्य निकला, 4 वर्ष की आयु में वह परलोकगामी हो गया। "विलियम जेम्स सिदिस" ने अपनी विलक्षणता से सारे अमेरिका में तहलका मचा दिया। दो वर्ष की आयु में वह धड़ल्ले से अंग्रेजी बोलता, पढ़ता और लिखता था। आठ वर्ष की आयु में उसने ग्रीक, रूसी आदि छः भाषाओं का ज्ञान अर्जित कर लिया। ग्यारह वर्ष की आयु में उसने देश के मूर्धन्य विद्वानों की सभा में उस समय तक प्रचलित "तीसरे आयाम' की बात से हटकर 'चौथे आयाम' की सम्भावना पर विलक्षण व्याख्यान दिया। "लार्ड मैकाले" भी दो वर्ष की आयु में पढ़ने लगे थे। 7 वर्ष की आयु में "विश्व इतिहास" लिखना प्रारंभ किया और कितने ही अन्य शोधपूर्ण ग्रन्थ लिखे। उन्हें उस युग में बिना किसी सहायक ग्रन्थ के स्वयं की स्मरणशक्ति के आधार पर "विश्व इतिहास' लिखने के कारण 'चलती फिरती विद्या कहा जाता था। किसी भी बात का युक्तिसंगत विस्तृत उसका इतिहास और भूगोल का ज्ञान बहुत छोटी उम्र में असाधारण प्रतिमाओं का उदय होना, पुनर्जन्म का प्रामाणिक आधार है। मनुष्य का स्वाभाविक विकास एक आयु क्रम के साथ जुड़ा हुआ है। कितना ही तीव्र मस्तिष्क क्यों न हो, उसे सामान्यता क्रमबद्ध प्रशिक्षण की आवश्यकता रहती है। यदि बिना किसी प्रशिक्षण या उपयुक्त वातावरण के छोटे बालकों में हेमेन्द्र ज्योति ज्योति 24 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ असाधारण विशेषताएं देखी जाए तो पूर्वजन्म के उनके संग्रहित ज्ञान को, विशेषतः ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम को ही कारण मानना पड़ेगा। भगवान् महावीर ने भी भगवती सूत्र में यही बताया है कि "ज्ञान इहभविक है, परभविक भी है और इस जन्म, पर जन्म तथा आगामी जन्मों में भी साथ जाने वाला है। अतः पूर्वजन्म या जन्मों में अर्जित किये हुए ज्ञान और ज्ञानावरणीय - कर्मक्षयोपशम के संस्कार उन-उन जीवों के साथ इस जन्म में भी साथ चले आते हैं। इस जन्म में उन बालकों में असमय में उदीयमान प्रतिभा-विलक्षण का समाधान पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को माने बिना कथापि नहीं हो सकता। पूर्वी जर्मनी का तीन वर्ष का विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न बालक "होमेन केन" "मस्तिष्क विज्ञान” के शोधकर्ता विद्वानों के लिए आकर्षण केन्द्र रहा है। वह इतनी छोटी उम्र में जर्मन भाषा के ग्रन्थ पढ़ने लग गया था तथा गणित के सामान्य प्रश्नों को हल करने लगा था। उसने फ्रेंच भाषा भी अच्छी तरह सीख ली थी। संसार के इतिहास में ऐसी जन्मजात प्रतिभा लेकर उत्पन्न हुए बालकों की संख्या बहुत बड़ी है। साइबरनैटिक्स विज्ञान का आविष्कारक "वीनर' अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय 5 वर्ष की आयु से ही देने लगा था। उस समय भी उसका मस्तिष्क प्रौढ़ों जैसा विकसित था। वह युवा वैज्ञानिकों की पंक्ति में बैठकर उसी स्तर के विचार व्यक्त करता था। उसने 14 वर्ष की आयु में स्नातकोत्तर (एम.ए.) परीक्षा पास कर ली थी। इसी तरह का एक बालक 'पास्काल' 15 वर्ष की आयु में एक प्रामाणिक ग्रन्थ लिख चुका था। मोजार्ता सात वर्ष की आयु में संगीताचार्य बन गया था। गेटे ने 9 वर्ष की आयु में यूनानी, लेटिन और जर्मन भाषाओं में कविता लिखना प्रारंभ कर दिया था। पूर्वजन्म पुनर्जन्म का स्वीकार : मानव जाति के लिए आध्यात्मिक उपहार इस प्रकार के अनेकानेक प्रमाण आए दिन हमारे पढ़ने-देखने में आते है। इनसे पूर्वजन्म और पुनर्जन्म की मान्यता की पुष्टि होती है। मरणोत्तर जीवन के अस्तित्व का अस्वीकार करने वाले तथा नास्तिक लोगों के पास पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म को माने बिना इसका कोई समाधान नहीं है। बल्कि आज पुनर्जन्म और पूर्वजन्म का स्वीकार करना मानव जाति की अनिवार्य आवश्यकता है। इसके बिना परिवार, समाज एवं राष्ट्र में नैतिक-आध्यात्मिक मूल्यों को स्थिर नहीं किया जा सकता। अतः इस तथ्य सत्य को जानकर कि आत्मा का अस्तित्व शरीर त्याग के बाद भी बना रहेगा, वह जन्म जन्मांतर में संचित शुभ अशुभ कर्मों को साथ लेकर अगले जन्म में जाता है, उससे जुड़े हुए ज्ञानादि के संस्कार समूह भी जन्म जन्मांतर तक धारावाहिक रूप में चलते रहते हैं। अतः इस जन्म में आध यात्मिक विकास में पलभर भी प्रमाद न करके श्रेष्ठता की दिषा में सम्यग्दर्शन रत्नत्रय के पथ पर कदम बढ़ाना चाहिए। पुनर्जन्मवादी इस जीवन का उत्तम ढंग से निर्माण करते हैं जिससे उनका अगला जीवन भी उत्तरोत्तर आध यात्मिक विकास के सोपान पार करके उत्तमोत्तम बनता है। उत्तराध्ययन सूत्र के नमि प्रव्रज्या अध्ययन में इसी तथ्य को प्रस्तुत किया गया है। पुनर्जन्म में दृढविश्वासी नमि राजर्षि ने जब उत्तम जीवन निर्माण में बाधक राग-द्वेष-काम-क्रोधादि तथा तज्जनित अशुभ कर्ममल आदि अंतरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली, तब इन्द्र ने उनकी विभिन्न प्रकार से परीक्षा की, उसमें उत्तीर्ण होने पर प्रशंसात्मक स्वर में इन्द्र ने कहा- "भगवन! आप इस लोक में भी उत्तम हैं और आगामी अर्थात परलोक में भी उत्तम होगें और फिर कर्ममल से रहित होकर आप लोक के सर्वोत्तम स्थान सिद्धि (मुक्ति मोक्ष) को प्राप्त करेंगे।" पूर्वजन्म - पुनर्जन्म की मान्यता से आध्यात्मिक आदि अनेक लाभ पूर्वजन्म और पुनर्जन्म की मान्यता का इससे बढ़कर सर्वोत्तम लाभ और क्या हो सकता है ? फिर भी इस आदर्शवादी आस्था से इहलौकिक जीवन में मनुष्यता, नैतिकता, सदाचारपरायणता, परमार्थवृत्ति, स्वाध्यायशीलता, व्यवहारकुशलता, प्रसन्नता, सात्विकता, निरहंकारिता, अन्तर्दृष्टि, दीर्घदर्षिता, भावनात्मक श्रेष्ठता, सूझबूझ, धैर्य, साहस, शौर्य, चारित्र-पराक्रम, प्रखरधारणाशक्ति, सहयोगवृत्ति आदि सैकड़ों मानवीय विशेषताएं उपलब्ध हो सकती है, जिनका आध्यात्मिक लाभ कम नहीं है तथा दीर्घायुश्कता, स्वस्थता, सुख शांति और सुव्यवस्था के रूप में व्यावहारिक और सामाजिक लाभ भी पुष्कल है। पारलौकिक जीवन में उसका मूल्य, महत्व और अधिक सिद्ध होता है। इस प्रकार चतुर्थ आक्षेप का समाधन हो जाता है। हेगेन्द ज्योति* हेगेज्न ज्योति 25 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Private worjanelibrary and Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ पंचम आक्षेपः पुनर्जन्म की मान्यता अवैज्ञानिक : यह भी एक आक्षेप है – पुनर्जन्म को न मानने वालों का। इस विषय में उनका तर्क है कि "इस जन्म में कृत कर्मों का फल अगले जन्म में भोगना पड़ता है। इसका अर्थ यह हुआ कि “देवदत्त के वर्तमान कर्मों का फल यज्ञदत्त को अगले जन्म में भोगना पडेगा। परन्तु यह आक्षेप भी निराधार है और जैन कर्म विज्ञान के रहस्य को न समझने के कारण किया गया है। जैन कर्म विज्ञान के अनुसार जिस जीव (आत्मा) ने इस जन्म में कर्म किये हैं, वही आत्मा जन्मान्तर में उन कर्मों का फल भोगती है, दूसरी नहीं। यह आक्षेप तभी यथार्थ समझा जाता, जब इस जन्म की, अगले जन्म की और जन्मान्तर की आत्मा अलग अलग हो। किन्तु आत्मा कभी विनष्ट नहीं होती। इस जन्म की और जन्मान्तर की आत्मा एक ही रहती है। कृत कर्मानुसार उसकी पर्याय बदलती है। अतः इस अयथार्थ आक्षेप का निराकरण हो जाता है। पुनर्जन्म सिद्धान्त स्वकृत कर्म और पुरुषार्थ का प्रतिपादक : पूर्वजन्म के संबंध में भी आज कुछ भ्रान्तियाँ, अन्धविश्वास और मिथ्या धारणाऐं लोगों के दिल-दिमाग में जमी हुई हैं। जो पुनर्जन्म का सिद्धान्त स्वकृत कर्म और पुरुषार्थ की महत्ता का प्रतिपादक था, वह आज अन्धनियतिवाद, निष्क्रियवाद एवं चमत्कारवाद का प्रतीक बन गया है। पुनर्जन्म को न मानने वाले अधिकांश लोग प्रारब्ध या आकस्मिक विशेषता को पूर्वकृत कर्मफल न मानकर अकारण या व्यवस्थाविहीन चामत्कारिक मानते हैं। यों देखा जाए तो पुनर्जन्म सिद्धान्त में प्रारब्ध (पूर्वकृत) कर्म का अपना विशेष महत्व है। परन्तु प्रारब्ध किसी चमत्कार का परिणाम नहीं, और न ही उसके फल में परिवर्तन सर्वथा असम्भव है। इन विलक्षणताओं का कारण पूर्वजन्मकृत कर्म ही है : निःसन्देह ऐसे लोगों की कमी नहीं, जिन्हें जन्म से ही अनेक विलक्षणताऐं प्राप्त होती है, या जो प्रचलित लोकप्रवाह से अप्रभावित तथा अपनी ही विशेषता से प्रतिभासित देखे जा सकते हैं। इन और ऐसी ही विशेषताओं का कारण भी देवी चमत्कार नहीं, अपितु पिछले जन्म या जन्मों में वैसे विकास हेतु उनके स्वयं के द्वारा कृत कर्म क्षय का या शुभ कर्म आयोजन का पुरुषार्थ होता है। पुनर्जन्म सिद्धांत का आधार : वस्तुतः पूर्वजन्म में कृतकर्मक्षय या शुभ कर्म के फलस्वरूप उपलब्ध शुभ या शुद्ध परिणाम संस्कार और स्वभाव ही कार्मण शरीर के रूप में परिणत होकर अगले जन्म में संस्कार रूप में साथ रहते हैं, साधन सामग्रियों या सुविधाएं नहीं। कर्मयोगी श्रीकृष्ण के विकास में जन्म काल और बाल्यकाल में कई विघ्न बाधाएं, विपत्तियां, संकट की घनघटाएं घिरी हुई थीं, किन्तु पूर्व जन्म कृत शुभकर्मों की प्रबलता के कारण उनमें साहस, शौर्य, उत्साह, कर्मयोग आदि गुणों का स्वतः विकास होने लगा और वे अपने पुरुषार्थ के बल पर आगे बढ़ते गए। अयोध्या की राजकीय सुख सुविधाएं श्रीराम को रावण विजय में रंचमात्र भी सहयोग न दे सकीं। भगवान महावीर या तथागत बुद्ध के विकास में उनका राजकीय ऐश्वर्य या धन कोई भी सहायता नहीं कर सका। इन सब महान् आत्माओं के व्यक्तित्व की वास्तविक विशेषताएं पूर्वजन्मकृत ही थीं। यही कारण है कि उन्होंने इस जीवन में कठोर से कठोर अप्रत्याशित विपत्ति, संकट, एवं विघ्नबाधा को पूर्वजन्मकृत कर्मफल (प्रारब्ध का भोग) मानकर धैर्यपूर्वक समभाव से सहन की। पुनर्जन्म का सिद्धान्त इन्हें भावी उत्कर्ष हेतु पूर्ण विश्वास के साथ आगे बढ़ते रहने की प्ररणा देता था। अतः पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के अस्तित्व की सिद्धि कर्म के अस्तित्व को सिद्ध करती है, दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 26 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ पुनर्जन्म सम्बन्धी मिथ्या मान्यता और धान्ति : पूर्वजन्म के प्रति यह विवेकमूढ़ता और मिथ्या मान्यता है कि लोग दुखग्रस्त या आर्थिक दृष्टि से स्वेच्छा से निर्धन को पिछले जन्म का पापी और वर्तमान में सुविधासज्जित, आडम्बरपरायण, धनकुबेरों या सत्ताधीशों को विगत जन्म का पुण्यात्मा मान बैठते हैं। ये मापदण्ड मिथ्या है। इन मापदण्डों से तो श्रीराम, भगवान महावीर तथागत बुद्ध, त्यागी साधु साध्वी, सन्यासी, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गांधी, सन्त विनोबा आदि अत्याचारी, भोगी-विलासी, धनपति या सत्ताधीश महान् पुण्यात्मा सिद्ध होंगे। परन्तु कोई भी धर्म, दर्शन या विचारशील मत इसे मानने को तैयार न होगा। पुनर्जन्म के सिद्धान्त की दार्शनिक पृष्ठभूमि : अतः पुनर्जन्म के सिद्धान्त की उपयोगिता और अनिवार्यता को तथा जन्म-जन्मान्तर से चले आने वाले कर्मप्रवाह को तथा कर्मफल के अटूट क्रम को समझने की आवश्यकता है। इसे भलीभांति हृदयंगम करने पर ही जीवन की दिशा धारा निर्धारित करने और मोड़ने में सफलता मिल सकती है। अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं और विकृतियों को अपनी ही शूल से चुभे कांटे समझकर धैर्यपूर्वक निकालना और घावों को भरना चाहिए। अपने जीवन में त्याग, तप, संयम, संवर, तथा क्षमादि दस धर्मों को अपनी अमूल्य उपलब्धि मानकर उन्हें संरक्षित ही नहीं, परिवर्द्धित करने का अभ्यास सतत जारी रखना चाहिए। रत्नत्रय की साधना के पथ पर बढ़ते रहा जाए तो उसके सुपरिणाम इस जन्म में नहीं तो अगले जीवन में भी मिलते हैं, इस तथ्य को मन-मस्तिष्क में जमा लिया जाए तो आत्मिक विकास में कदापि आलस्य प्रमाद की मनोवृत्ति पनप नहीं पाएगी। विलम्ब से भी श्रेष्ठता की दिशा में उठाया गया कदम कभी निराशोत्पादक नहीं होगा। कर्ममुक्ति की साधना में रत्तीभर भी लापरवाही, हानिकारक सिद्ध होगी। अशुद्धि और गलती को तुरन्त सुधारना आवश्यक होगा। पुनर्जन्म के विश्वासी में यह भावना कदापि नहीं आनी चाहिए कि इतना तो सत्कर्म कर लिया, अब शेष जीवन में मनमानी मौज कर लें, सांसारिक सुखभोग कर लें। पुनर्जन्म की वास्तविकता को समझने वाला अन्तिम क्षण तक श्रेयस्पथ पर चलता रहेगा। अब तो थोड़े दिनों का जीना है, या चाहे जैसे दिन काटने हैं, स्वाध्याय-साधना, संयम-उपासना, ज्ञानादि साधना एवं सेवा का पथ अपनाकर क्या होगा? ऐसी भावना पुनर्जन्म पर सच्ची आस्था रखने वाले में नहीं आ सकती। उसके लिए तो जीवन का प्रत्येक क्षण एवं प्रत्येक सत्कार्य महत्वपूर्ण है, क्योंकि कर्म और कर्मफल में उसकी अटूट आस्था रहती है। सच्चा पुनर्जन्म विश्वासी अपने भीतर विराजमान आत्मदेव को मानने और उसी का सम्यक् विकास करने में दत्तचित्त रहता है, कर्मों के बन्धन से आत्मा को मुक्त करने का चिन्तन करता है। यही पुनर्जन्म सिद्धान्त की दार्शनिक पृष्ठभूमि और नैतिक आध यात्मिक प्रेरणा है। उन्नति पथ पर चढ़ने की आशा अमीर और गरीब सब को रहती है। जो व्यक्ति सशक्त हो देवांशी गुणों को अपने हृदय में धारण करके शनैः शनैः चढ़ने के लिये कटिबद्ध रहता है वह उस पर जा बैठता है और जो खाली विचारग्रस्त रहता है वह पीछे ही रह जाता है। आगे बढ़ना यह पुरुषार्थ पर निर्भर है। पुरुषार्थ वही व्यक्ति कर सकता है जो आत्मबल पर खड़ा रहना जानता है। दूसरों के भरोसे कार्य करनेवाला पुरुष उन्नति पथ पर चढ़ने का अधिकारी नहीं है। उसे तो अंत में गिरना ही पड़ता है। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेन्द ज्योति हेमेन्ह ज्योति 27 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति FOLPrinteritamat DEThankhala Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ धर्म और जीवन मूल्य पं. रत्न मुनि नेमिचन्द्र, अहमदनगर विश्व के नाना प्राणियों का जीवन विचार छोड़कर मानव जीवन का विचार करना अभीष्ट जब हम आँखें खेलकर चारों ओर इस जगत् पर दृष्टिपात करते हैं तो हमारे सामने विविध प्रकार के प्राणियों का जीवन हलचल करता हुआ दिखाई देता है। यद्यपि हमें इन चर्म चक्षुओं से प्रत्यक्ष रूप से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन ऐकेन्द्रिय जीवों का जीवन चलता फिरता दृष्टिगोचर नहीं होता, किन्तु वर्तमान वैज्ञानिकों तथा सर्वज्ञ तीर्थंकर महर्षियों ने इन में भी जीवन का अस्तित्व सिद्ध किया है। द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों का जीवन तो हम अपनी आँखों से देख सकते है, देखते है, परन्तु एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के जीवों के जीवन में चेतना होने के बावजूद उनकी चेतना इतनी विकसित नहीं होती कि वे अपने हित अहित का, कर्तव्य अकर्तव्य का, धर्म अधर्म का, पुण्य पाप का, पूर्वजन्म पुनर्जन्म का, जीवन के विकास हास का विचार एवं विवेक कर सकें। उनमें चेतना तो है, किन्तु मूर्च्छित चेतना है, ज्ञान तो है किन्तु क्रमशः विकास प्राप्त होते हुए भी केवल अमुक-अमुक इन्द्रिय विषयक ज्ञान है, उनकी दृष्टि आत्म लक्षी न होने से सम्यक नहीं है, मिथ्या है, अतएव उनका ज्ञान भी सम्यग्दर्शन रहित होने से सम्यक् नहीं मिथ्या है। इसलिए चतुरिन्द्रिय प्राणियों तक के जीवन में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप धर्म न होने से उनके जीवन मूल्यों के विषय में यहां विचार नहीं करना है। पंचेन्द्रिय प्राणी चार प्रकार के है - नारक, देव, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य । इनमें से नारक और देव पंचेन्द्रिय होने से उनकी चेतना विकसित होते हुए भी तथा प्रत्येक व्यक्ति को चर्म चक्षुओं से दृष्टिोचर न होने से एवं कतिपय नारकी और देवों में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होते हुए भी सम्यक् - संवर – निर्जरा रूप चारित्र धर्म न होने से उनके जीवन मूल्यों का भी विचार करना यहां अपेक्षित नहीं है। अब रहे तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव। उनकी चेतना विकसित होते हुए भी उनके जीवन में पूर्ण चारित्र धर्म (संवर-निर्जरा रूप धर्म) का अवकाश न होने से उनके जीवन मूल्यों के संबंध में विचार करना अभीष्ट नहीं है। हमें यहाँ मानव जाति के जीवन मूल्यों का विचार करना ही अभीष्ट है। अतः जीवन मूल्य का अर्थ यहाँ मानव जीवन का मूल्य समझना चाहिए। मानव जीवन प्राप्ति का वास्तविक प्रयोजन : सर्वप्रथम हमें जीवन का उद्देश्य या प्रयोजन क्या है ? यह समझ लेना चाहिए। इसीलिए एक विचारक ने कहा है - जीवन का क्या अर्थ यहाँ है, क्यों नर भूतल पर आया है ? चूंकि अन्य प्राणियों के जीवन की अपेक्षा मानव जीवन विशेष महत्वपूर्ण है। संसार में जितने भी प्राणी है, उनमें मनुष्य के सिवाय किसी भी प्राणी को सर्वकर्म मुक्ति रूप मोक्ष पाने का अधिकार नहीं है। एक मात्र मनुष्य ही वह विशिष्ट प्राणी है, जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र और सम्यग्तप का यथा विधि आचरण करके केवलज्ञान, केवलदर्शन तथा एकांत सुख रूप जन्म मरणादि तथा समस्त कर्मों से सर्वथा मुक्त परमात्म पद को प्राप्त कर सकता है। देव जीवन में स्वर्ग के वैषयिक सुख प्राप्त हो सकते है, किन्तु मोक्ष सुख नहीं। और नारकीय जीवन में नाना दुखों की प्रचुरता है। मनुष्य जीवन ही ऐसा जीवन है, जिसमें पूर्वकृत कर्मों के उदय से प्राप्त होने वाले दुखों को सम भाव से सहकर उन्हें क्षय कर सकता है तथा कर्मों को काटने के लिए तथा नये आते हुए कर्मों का निरोध करने के लिए व्रत, नियम, त्याग, तप करके वह परीषह, उपसर्ग आदि पर विजय प्राप्त करके आत्मा को उज्ज्वल, समुज्ज्वल बना सकता है। मानव जीवन में मानव अपने द्वारा निर्धारित तथा ऋषि मुनियों द्वारा प्ररूपित-निर्दिष्ट जीवन मूल्यों पर चलकर अपने मनुष्यत्त्व को सार्थक कर सकता है, जीवन मूल्यों में वृद्धि करके आराधक होकर उत्तम देवलोकों को प्राप्त करके आगामी भव या भवों में मनुष्य जन्म प्राप्त करके उत्तम करणी द्वारा सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बन सकता है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द ज्योति 28 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Edit ational Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ यही कारण है कि देवों को भी दुर्लभ मनुष्य जीवन प्राप्त करके मनुष्य को यह विचार करने के लिए सभी महान पुरुष प्रेरित करते है कि तू यह विचार कर कि मनुष्य जीवन किस लिए मिला है ? क्या मनुष्य जीवन खाने-पीने, ऐशो आराम करने, और इन्द्रिय विषयों तथा पर पदार्थों का आसक्ति पूर्वक उपभोग करने के लिए ही मिला है, अथवा हिंसा, झूठ, चोरी, बेईमानी, व्यभिचार, अन्याय, अत्याचार, शोषण आदि पाप कर्म करके दुनिया को संत्रस्त करने और अपनी आत्मा को पतन की खाई में गिरा देने के लिए मिला है ? अथवा विवेक विचार पूर्वक मानवता के उत्तमोत्तम गुणों अथवा सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय से आत्मा को सुसज्जित करने के लिए मानव जीवन मिला है। चार्वाक दर्शन में शरीर को ही जीवन माना गया :___भारतवर्ष में एक चार्वाक दर्शन हुआ है, जिसका दूसरा नाम लोकायतिक है। इसे नास्तिक दर्शन भी कहते है। वह आत्मा के पृथक अस्तित्व को न मान कर शरीर को ही सब कुछ मानता है। वह कहता है - शरीर ही जीव है, आत्मा है, उसे ही आत्मा मानना है तो भले ही मानो। चार्वाक की दृष्टि केवल शरीर पर ही है। वर्तमान कालिक शरीर ही सब कुछ है, उसी को सजावो, संवारो, इन्द्रिय सुखों का जी भरकर उपयोग करो। शरीर छूटने के बाद सब कुछ यहीं समाप्त हो जायेगा, आगे न तो कोई परलोक है, न स्वर्ग-नरक है, न ही कोई मोक्ष है। इसी आश्रय को लेकर उसने धृष्टता पूर्वक कहा यावज्जीवेत् सुखं जीवेत, ऋणकृत्वा घृतं पिबेत् । भस्मी भूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः।। जब तक जीवो, सुख से जीवो, कर्ज करके भी घी पीओ। यानि खूब अच्छे पदार्थ खाओ पीयो और मौज करो, परलोक नाम की कोई भी चीज नहीं है। यह पंच भौतिक शरीर के छुटते ही यहीं भस्म हो जाता है, फिर न कहीं जाना है और न कहीं से आना है। मतलब यह है कि चार्वाक की दृष्टि में शरीर, इन्द्रियों और अंगोंपांग ही जीवन है। शरीर के सिवाय मानव जीवन कोई अलग वस्तु नहीं है। शरीर को जीवन मानकर उसने भोगवाद या केवल भौतिकवाद का ही पोषण किया। इस दृष्टि से जीवन का उसने मूल्य कुछ भी नहीं माना, न ही मूल्य वृद्धि के लिए उसने तप, संयम, अहिंसा आदि को माना। कतिपय विचारकों की दृष्टि में शरीर रूपी रथ ही जीवन है : विश्व के कतिपय विचारक जिन्हें भौतिक सिद्धियों की प्राप्ति में ही ज्यादा रस है, वे सहसा कह देते हैं - जीवन का अर्थ है - शरीर रूपी रथ। यह कितना संकुचित अर्थ है जीवन का? वे शरीर को रथ मानकर जिन्दगी भर शरीर को सजाने और संवारने, पुष्ट करने, शरीर के लिए सारी सुख सुविधाएं जुटाने, शरीर को प्रतिक्षण आराम देने के लिए विविध भौतिक सुख साधनों को अपनाने को ही जीवन का उद्देश्य मानते है। इससे भी आगे बढ़कर शरीरार्थी व्यक्ति शरीर रूपी जीवन के लिए पद, सत्ता, प्रतिष्ठा या प्रशंसा पाने तथा लौकिक सुखाकांक्षा की दौड़ में जिन्दगी भर दौड धूप करता है। ऐसे विचारकों की दृष्टि में शरीर रूपी रथ से आगे जीवन का कोई अर्थ नहीं है, उनकी दृष्टि में शरीर रूपी रथ में बैठने वाले (आत्मा या जीव) के अस्तित्व का कोई भान ही नहीं है। यह जीवन का संकुचित अर्थ है। विषय सुखों में मस्त रहना ही जीवन का अर्थ : जिन्हे खा पी कर मौज मस्ती में पड़े रहना था, उन्होंने मानव जीवन के अर्थ किये हैं - 1. जीवन यानी मृत्यु पर्यन्त तन मन की रंग लीला। 2. जीवन यानी सुख यानी सुख सुविधाओं में जीने का खुल्ला मैदान। अथवा जीवन का अर्थ है - सुख का सरोवर अथवा जीवन एक स्वर्गीय प्रवास है। ऐसे लोग विषय सुखों का आनन्द लूटने में मस्त रहना ही जीवन का अर्थ समझते है। हेगेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 29 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति aantar Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सच्चे माने में जीवन जीना : जीवन का अर्थ है - जीवन का महान कलाकार जर्मन कवि गेटे जीवन को पवित्रतम तत्व मानता था। एक बार गेटे बीमार पड़ा तो वह अपनी तमाम प्रवृतियां बंद करके शरीर की चिकित्सा करने लगा। इस पर एक आलोचक ने कहा – “क्यों कवि! तुम्हें भी शरीर का मोह जगा न? आत्मा के गीत गाना एक बात है और शरीर की आल-पंपाल छोड़ना दूसरी बात है। यह अब तुम्हें समझ में आ गया न ?" कवि - "अर्थात तुम्हारे मत से शरीर की सार संभाल रखना अनुचित कार्य है यही न?" वह बोला “आत्मा की बातें करने वाले को शरीर के प्रपंच में नहीं पड़ना चाहिए।" ___कवि ने कहा – “यह प्रपंच नहीं है, अपितु आत्मा की और जीवन की पूजा है। इसका सर्वोत्तम उपयोग होना चाहिए। शरीर महत्वपूर्ण माध्यम है, जीवन पूजा का। इस कारण इसे स्वस्थ और सुदृढ़ रखना ही चाहिए।" वह बोला - "यह तो समझ में आये ऐसा है।" कवि - "शरीर स्वस्थ और सुदृढ़ होगा तो योग्य कार्य होगा। जीवित हों और जीवन की चेतना को प्रकट करने वाले सत्कार्य न करें तो जीवन और मरण में क्या अन्तर है ?" हम देखते है कि मनुष्य जीवन को सार्थक करने के बजाय निरर्थक बातों और कार्यों में, दूसरों की निंदा, चुगली करने, कलह-क्लेश करने में समय, शक्ति और धन की बरबादी करते है। यह जीवन का प्रयोजन नहीं है। अत: समय, शक्ति और आत्म धन को व्यर्थ न खोकर जो इनका सदुपयोग करता है, वही सच्चे माने में जीवन जीता है। जीवन में बाह्य और आन्तरिक आय का संतुलन ही जीवन का अर्थ है : केवल श्वासोच्छवास ले लेना ही जीवन का लक्षण नहीं है। इससे कुछ विशेष है - जीवन का सही अर्थ। मान लो, दो मित्र काफी अरसे बाद मिले। उनमें से एक धनाढ्य हो गया था, दूसरा निर्धन था। धनाढ्य मित्र ने पूछा"आय कैसी है कितनी है ?" गरीब मित्र ने कहा - "अंदर की आय अच्छी है, बाहर की आय साधारण है।" "अरे! यह क्या कहते हो ? आय तो आय है। इसमें बाहर की कैसी और अन्दर की कैसी ?" वह बोला – "क्यों नहीं? शरीर को टिकाने और जीवन को इस धरती पर चलाने के लिए जो साधन, सामग्री और सुविधाएं चाहिए, इन सबको प्राप्त करने के लिए काम में आये, वह बाह्य आय (आवक) कहलाती है। ये सब साधन सुविधाएं प्राप्त करने के बावजूद भी दूसरों को सुख पहुँचाने और दुखी व्यक्ति की समस्या हल करने से कोई भी परोपकार न करें तो लुहार की धौंकनी के समान उसका जीवन व्यर्थ है। अतएव यह सब बाह्य आय है। इसके विपरीत जो अन्तरात्मा को शांति और समाधि दे, मन को शांति प्रदान करे, आत्मा का उत्थान करे और बुद्धि को संतृप्त करे ऐसा जीवन पाना आंतरिक आय है। मेरे बाहर की आय तो अपार है, मगर आंतरिक आय कम है।" जीवन की सार्थकता का मापदंड: अतः मानव जीवन को दुनियादारी से, सांसारिक आशाओं, आकांक्षाओं, लालसाओं, अस्मिताओं और उपलब्धियों से नहीं मापा जा सकता। जीवन के अंत में अपने पीछे कितना धन, साधन, संतान आदि छोड़कर गया? इस पर से भी जीवन की सार्थकता या जीवन के वास्तविक उद्देश्य का पता नहीं लगता। जीवन की सार्थकता का, सदुद्देश्य का पता लगता है, जीवन में मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, और माध्यस्थ भावों द्वारा। आत्मावत् सर्व भूतेषु या विश्व मैत्री के भावों को क्रियांवित करके जीने से जीवन में सच्चे आनंद की उपलब्धि होना ही जीवन की सार्थकता का मापदंड है। उत्तम जीवन वहीं कहलाता है, जो जीवन प्रभु भक्ति में, परमात्मा या शुद्ध आत्मा के ध्यान में, स्व-भाव रमणता में व्यतीत हो, वहीं सफल जीवन है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 30 हेगेन्द ज्योति* हेमेन्द ज्योति Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जीवन के एकांगी और संकुचित अर्थ : कई स्थूल हार्द वाले लोग जीवन का संकुचित अर्थ पकड़कर उसी राह पर चलते हैं। ऐसे लोगों ने अपने अपने ढंग से, अपनी अपनी सुविधा के अनुसार जीवन का अर्थ समझा है। कुछ लोग कहते हैं - जीवन सुख का सरोवर है, इसके विपरीत कुछ लोगों को जीवन दुख का सागर प्रतीत होता है। कुछ लोग कहते हैं - जिन्दगी कर्तव्य की पगडंडी है। परन्तु यह विचार भी एकांगी है। कई लोग जिन्दगी को एक खेल समझते हैं। जैसे नाटक में विविध पात्र अपना अपना पार्ट अदा करके चले जाते हैं। ऐसे लोग जीवन को एक नाटक समझते है। कुछ लोग जीवन को मधुर संगीत समझते हैं और मस्ती के, बेफिक्री के जीवन को जीवन समझते हैं। कुछ लोग संघर्ष को और कुछ लोग परस्पर सहयोग को जीवन का अर्थ समझते है। कुछ चोरी, डकैती, व्यभिचार, बेईमानी, भ्रष्टाचार आदि में रचेपचे रहने वाले लोग दुःसाहस को ही जीवन का लक्ष्य समझते हैं। कुछ लोग जीने के एक अवसर को जीवन समझते हैं। जीवन क्या है, क्या नहीं ? केवल जन्म लेना ही जीवन का अर्थ नहीं है, कि जो पैदा हो गया उसने जीवन पा लिया। न ही जीवन का अर्थ जन्म लेना, बूढ़ा होना और मर जाना है। जीवन का अर्थ संतानोतपत्ति भी नहीं है, न ही संतान और परिवार के पीछे स्वयं को कुरबान कर देना जीवन है। कोई सौ साल पहले जन्मा और सौ साल बाद मर गया यह भी जीवन नहीं है। जीवन का अर्थ परिवार के लिए जीना नहीं है। अपनी जवानी में उखाड़-पछाड़ करना, बहुत पढ़ लिख जाना, डिगरियां पा लेना या दस बीस लाख रूपये कमा लेना या लंबा चौड़ा व्यवसाय कर लेना, प्रसिद्धि, प्रशंसा या प्रतिभा पा लेना, किसी प्रकार का साहस करके नाम कमा लेना भी जीवन नहीं है। जीवन वह है जो ज्योतिर्मय हो, सुगन्धमय हो - जीवन वह है, जो जन्म लेने से पूर्व भी जीवित था, मरने के बाद भी जीवित रहेगा। तथा वर्तमान में ज्योतिर्मय - प्रकाशमय होकर रहता है वह जीवन है। केवल बल्ब सम हो जाना जीवन नहीं है किन्तु बल्ब का रोशनी से भर जाना जीवन है। ज्योति से युक्त बल्ब के समान ज्ञानादि से या विवेक की ज्योति से युक्त जीवन ज्योतिर्मय है। माटी के दीये तो कुम्हार के यहां लाखों की संख्या में पड़े रहते हैं, लेकिन दीये का ज्योतिर्मय होना महान है, तथैव जीवन रूपी दीप का ज्योतिर्मय होना सच्चे माने में जीवन है। फुलवारी में फूल तो बहुत से खिलते हैं, इसका महत्व नहीं परन्तु फूल का सुगंधमय होना जरूरी है, इसी प्रकार जीवन उसी का नाम है जो सत्य, अहिंसा आदि की सुगंध से ओतप्रोत हो। आध्यात्मिक समृद्धि पा लेना जीवन है : जीवन केवल भौतिकता का पर्याय नहीं है अपितु उससे पार आध्यात्मिक समृद्धि पा लेना जीवन है। अन्तर्जगत को दरिद्र रखकर बाह्य जगत को समृद्ध कर लेने से जीवन सच्चे माने में समृद्ध नहीं होगा। जीवन मंदिर का बाह्य रूप : क्या आंकते ? कुछ विचारकों का कहना है कि जीवन एक मंदिर है। जैसे सिमेंट, लोहे के गर्डर, सरिया, लकड़ी के दरवाजे - खिडकियां, मिट्टी पानी आदि सब मिलकर मंदिर बनता है। उसको लोग मंदिर कहते हैं। वैसे ही केवल शरीर को जीवन नहीं कह सकते। जीवन रूपी मंदिर बना है- शरीर के साथ साथ मन, इन्द्रियां, प्राण, अंगोपांग, मस्तिष्क, हृदय, हाथ-पैर आदि सब मिलकर यह जीवन मंदिर बनता है। जैन दर्शन की भाषा में कहूँ तो आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वासोच्छवास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति, इन 6 पर्याप्तियों से मानव जीवन पर्याप्त बनता है, मगर स्थूल दृष्टि से देखें तो यह जीवन का बाह्य रूप है, जो जीवन मूल्य से अनभिज्ञ व्यक्ति के जीवन में भी पाया जाता है। जीवन का अंतरंग रूप क्या और कैसा ? जीवन का अंतरंग रूप तब बनता है जब मन, बुद्धि, चित्त, हृदय, प्राण, इन्द्रियां, वचन और काया आदि शरीर से संबद्ध अंगोपांग सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रय के रंग से रंगे हो, अथवा ये आत्मविश्वास और शुभाशा से ओतप्रोत होकर वात्सल्य, श्रद्धा और समर्पणता के रंगों से जीवन-प्रासाद रंगा हो। वस्तुतः अंतरंग रूप ही जीवन का वास्तविक एवं मौलिक रूप है। हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 31 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Con.intaisional Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ । मानव जीवन का मूल भूत लक्षण - दोष रहित जीवन ऐसे वास्तविक जीवन का मूलभूत लक्षण क्या है ? यह जब किसी आचार्य से पूछा गया 'किं जीवनम् ? जीवन क्या है ? इस पर उन्होंने मानव जीवन के मूलभूत असाधारण गुणों को लक्ष्य में रखकर कहा – 'दोष विवर्जितं यत्' - जो दोषों से रहित हो, वहीं वास्तविक लक्षण है - मानव जीवन का। इसका तात्पर्य यह है कि मानव जीवन का लक्षण यह है - जिसमें क्रोध, मान, मद, माया, ठगी, छल, अहंकार, द्वेश, ईर्ष्या, लोभ, तुच्छ तीव्र स्वार्थ, भेद भाव, पक्षपात, वैर विरोध, अंधानुराग, तीव्र मोह, तीव्र आसक्ति आदि दोषों का दावानल न हो। दूसरे शब्दों में - पवित्र मानव जीवन वह है जिसमें ये मूलभूत दोष न हों। इस लक्षण के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि मूलभूत दोष रहित जीवन वह है - जिसमें सरलता, विनीतता, अमात्सर्य और जीवदया ये मूलभूत गुण हों। मानव जीवन का शुद्ध आंतरिक रूप भी यही है, जिसमें सरलता, क्षमा, मृदुता, मानवता, नैतिकता, समता, करुणता, सत्याता आदि गुण दूसरे प्राणियों से अधिक मात्रा में हों। ऐसा जीवन एक महाप्रसाद है, एक उत्सव है ऐसा मानव जीवन एक महाप्रसाद है। लोग मंदिरों में जाते है, वहां प्रसाद मिलता है। मानव को भी जीवन रूपी महाप्रसाद मिला है। इससे बढ़कर महाप्रसाद संसार में दूसरा कोई नहीं हो सकता है। दुनिया में जितनी चीजें हैं, उनका हर रूप में कुछ न कुछ मूल्य है, लेकिन मानव जीवन ही एक मात्र ऐसा है जिसका मूल्य केवल अच्छी तरह जीने में है। याद रखें:- किसी भी वस्तु का मूल्य तभी तक है जब तक जीवन है। जीवन तभी तक सच्चे माने में जीवन है जब तक हम उददेश्य पूर्वक शुद्ध लक्ष्य की ओर गति - प्रगति करते हुए निर्दोष जीवन जीते है। इस लिए निर्दोष जीवन जीने के लिए हमें जीवन के मूल्य को शुद्ध धर्म के साथ जोड़कर जीना होगा, तभी हमारा जीवन एक उत्सव बनेगा, एक स्वर्ग बनेगा। जीवन का अलग अलग रूप से मूल्य समझने वाले तीन प्रकार के व्यक्ति: यद्यपि मानव जीवन विश्व की सर्वश्रेश्ठ मूल पूंजी है, किन्तु ऐसी महामूल्य संपत्ति पाकर भी आलसी, अकर्मण्य, अंधविश्वासी, शंकालु एवं पराश्रित या परभाग्योपजीवी व्यक्ति इस मानव जीवन की मूल पूंजी की सुरक्षा न करके इसे दुर्व्यसनों में, फिजूल खर्ची में, अपनी शक्तियों की विषय वासनाओं में, कषाय वृद्धि में खो देता है। ऐसा विवेकहीन मंद बुद्धि व्यक्ति यौवन मद में आकर यह भूल जाता है कि मानव जीवन एक महोत्सव है। लोग मंदिरों आदि में जाकर उत्सव करवाते या मनाते हैं। मगर मानव जीवन से बढ़कर महान उत्सव दूसरा कोई नहीं हो सकता। साधारण आदमी प्रायः बाहर उत्सव इसलिए करवाता है कि उसने अपने जीवन को प्रायः पशुवत या नारकवत बना लिया है। दुर्व्यसनों तथा कुटेवों, बुरी आदतों एवं हिंसादि पापाचरणों में पड़कर उसने जीवन को नर्क बना लिया है। पूर्व पुण्य प्रबलता के कारण पुरस्कार में मिले हुए मानव जीवन को परमानंद, शांति और वात्सल्य के साथ स्वीकार करने और तदनुरूप जीने के बदले मनहूस अकर्मण्य और किंकतर्व्यमूढ़ बनकर इसकी उपेक्षा करके तथा घृणास्पद रूप से स्वीकार करके जीता है। दूसरा एक व्यक्ति इस प्रकार का है कि वह यह सोचता है - हमारे पास मानव जीवन रूपी मूल पूंजी, एक ऐसी संपत्ति है जिसे हम अपनी कह सकते हैं, क्योंकि जन्म हमारी इच्छा से नहीं हुआ और मृत्यु भी हमारी इच्छा से परे की चीज है। एक मात्र मानव जीवन ही हमारा है। उस पर ह अतएव पुरस्कार में मिली हुई इस मानव रूपी श्रेष्ठ मूल पूंजी को वह व्यर्थ कामों में खर्च नहीं करता, न्याय, नीति, मानवता और इमानदारी से जीवनयापन करने में जितना कमाता है, उतना वह खर्च कर देता है। फलतः मानव जीवन की मूल पूंजी उसके पास सुरक्षित रहती है ऐसा व्यक्ति जीवन मूल्यों को सुरक्षित रखता है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 32 हेमेन्द्रन ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति iPhenyegusarly Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ तीसरा व्यक्ति बहुत ही बुद्धिमान विवेक परायण और पुरुषार्थी है। विज्ञान से प्राप्त होने वाली सुख सुविधाओं में भी कटौती करके वह केवल जरूरी आवश्यकताओं को रखकर जीवन यापन करता है। तथैव शुद्ध आत्म धर्म (सत्य, अहिंसा आदि सद्धर्म या संवर निर्जरा रूप धर्म) के अनुरूप मानव जीवन के मूल्यों को सुरक्षित रखते हुए परमार्थ जीवन जीता है। स्व-पर कल्याणमय जीवन जीने में आनन्द मानता है। ऐसी महान आत्मा जीवन के मूल्यों में वृद्धि करती है। मूल सुरक्षक, मूल परिवर्धक और मूल उच्छेदक, तीनों का तात्पर्य : एक रूपक द्वारा - श्रमण भ. महावीर ने पावापुरी के अपने अंतिम प्रवचन में इसी तथ्य को समझाते हुए कहा है जहा य तिण्णि वाणियां, मूलम घेत्तूण निग्गया। एगोऽ थ लहई लाभं, एगो मूलेण आगओ|| एगो मूलंपि हारित्ता आगो तत्थ वाणिओ। ववहारे उवमा एसा, एवंधम्मे वियाणह|| उत्तराध्ययन सूत्र अ.7 गा. 14, 15 इसका भावार्थ यह है कि किसी समय तीन व्यापारी अपनी मूलपूंजी को लेकर व्यापार के लिए विदेश में गए। उन तीनों में से एक व्यापारी को व्यापार में अच्छा लाभ हुआ, दूसरा अपनी मूलपूंजी को स्थिर रखकर घर आ गया और तीसरा व्यापारी मूल धन को खोकर घर आ गया। यह जैसे व्यावहारिक उपमा है। इसी प्रकार धर्मरूपी मूलधन के विषय में भी समझ लेना चाहिए। शास्त्रीय रूपक द्वारा तीनों कोटि के व्यक्तियों के जीवन का मूल्यांकन :इसी अध्ययन की अगली गाथा में निष्कर्ष और आशय इस प्रकार बतलाया गया है : माणुसुतं भवे मूलं, लाभो देवगई भवे। मूलच्छेएण जीवाणं, नरग-तिरिक्खलणं धुवं ।। वही, अ.7 गा. 16 इसका भावार्थ यह है कि मनुष्यत्व युक्त मानव जन्म मूल धन है और उसी मूल धर्म धन में वृद्धि (लाभ) होना देवत्व की प्राप्ति है तथा मूल धन को नष्ट कर देने (खो देने) से या तो तिर्यंच गति प्राप्त होती है या नरक गति। आशय यह है कि पहला व्यक्ति मानव धर्म (मनुष्यत्व) रूप मूल धर्म धन को सुरक्षित रखता है। वह न्याय नीति पूर्वक जितना कमाता है उतना जीवन निर्वाह में खर्च कर देता है। उसके मानव धर्म की मूल पूंजी सुरक्षित रही। अर्थात जो व्यक्ति मानव जीवन जैसा उत्तम जीवन पाकर उसे वरदान रूप या पुरस्कार रूप समझकर न्याय, नीति धर्म के अनुरूप चलकर मूल धन के तुल्य मानव धर्म को सुरक्षित रखता है। दूसरा व्यक्ति मूल धन सम धर्म को सुरक्षित रखते हुए शुद्ध आत्म धर्म का आचरण करके उसमें वृद्धि करता है, आत्मा के निजी गुण धर्मों में वृद्धि करता है और तीसरा व्यक्ति मूल धन रूप धर्म को ही खो देता है। वह जीवन के मूल को ही हार जाता है। निष्कर्ष यह है कि इन तीनों कोटि के व्यक्तियों में प्रथम कोटि का व्यक्ति मनुष्यत्व रूप मूल धर्म धन को सुरक्षित रखने वाला है। दूसरी कोटि का व्यक्ति धर्म रूपी मूल धन को सुरक्षित रखने के साथ साथ आत्म स्वभाव में रमण रूप या सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, रूप आत्म धर्म रूपी धन में अभिवृद्धि करता है। अतः ये दोनों कोटि के व्यक्ति जीवन मूल्यों के क्रमशः सुरक्षक तथा सुरक्षा सहित संवर्द्धक है। किन्तु तीसरी कोटि का व्यक्ति धर्म रूपी मूल धन की सुरक्षा और अभिवृद्धि दोनों ही नहीं करता। वह धर्म रूपी मूलपूंजी को लेकर मानव जीवन को हार जाता है, जीवन मूल्यों से विहीन हो जाता है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्ध ज्योति33 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति MEducated Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " 77 श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ मूल पर से जीवन मूल्य के सुरक्षक, संवर्द्धक या मूल्यरहित का निर्णय : प्रस्तुत शास्त्रीय गाथा में मूल शब्द बहुत ही महत्वपूर्ण है जीवन मूल्य के सुरक्षण या संवर्द्धन का सारा दारोमदार अथवा निर्णय मूल पर से ही होता है। वृक्ष का जो मूल होता है, उसी के आधार पर सारे वृक्ष का वजन खड़ा रहता है। उसी मूल के कारण ही वृक्ष हरा भरा रहता है, फलता फूलता है। यदि वृक्ष के मूल को ही काट दिया जाए, अथवा उसे सुरक्षित न रखा जाए तो क्या वृक्ष टिका रह सकता है ? कदापि नहीं वृक्ष की जड़ को उखाड देने या सुरक्षित न रखने पर न तो वह वृक्ष हरा भरा रह सकेगा, न ही वह पल्लवित पुष्पित, फलित हो सकेगा। इसी प्रकार जीवन रूपी जो वृक्ष खड़ा है उसका मूल आत्मधर्म (ज्ञानादि चतुष्टय रूप धर्म) है। यदि जीवन में मूल रूप धर्म नहीं है तो कहना चाहिए वह जीवन मूल्य से रहित जीवन है, अथवा उस व्यक्ति के पास बौद्धिक वैभव, भौतिक धन, जीने के सभी साधन है, परिवार भी (पत्नी, पुत्र, पुत्री तथा अन्य कुटुम्बी जन आदि) भी लंबा चौड़ा है, स्वस्थ सुडौल शरीर भी है, इन्द्रिय जन्य वैषयिक सुख भी है, कार कोठी बंगला आदि भी हैं, परन्तु जीवन में भांति, संतोष, संतुलन आदि नहीं है, वाणी में माधुर्य नहीं है, तथा जीवन का मूल धर्म नहीं है, तो वह व्यक्ति जीवन मूल्य से रहित है। मूल शब्द ही जीवन मूल्य का मूलाधार क्यों और कैसे १ चूंकि मूल शब्द यहां मूल्य का द्योतक है मूल्य शब्द भी मूल ही शब्द से निष्पन्न हुआ है, जो मूल के अनुरूप या मूल के योग्य हो उसे मूल्य कहते हैं। यहां मूल है - धर्म। यानि संवर, निर्जरा, रूप, सद्धर्म । अतः जीवन मूल्य का अर्थ हुआ ऐसा मानव जीवन जो धर्म रूपी मूल के अनुरूप अथवा योग्य हो यदि ऐसा हो तो जीवन मूल्य सुरक्षित समझना चाहिए। I जीवन मूल्यों से रहित मानव जीवन कैसा होता है : अगर वह मानव जीवन धर्म रूप मूल के अनुरूप अनूकुल या आत्म धर्म के अनुकुल अथवा योग्य नहीं है तो कहना होगा वह जीवन, जीवन मूल्य रहित है। नीति न्याय युक्त अहिंसा आदि धर्म से या संवर निर्जरा रूप से विहीन जीवन है। ऐसा व्यक्ति मनुष्य जीवन जैसा उत्तम जीवन पाकर सधर्मविहीन जीवन बिताता है। अथवा धर्म युक्त जीवन मूल्य से रहित हो जाता है। ऐसा जीवन जीवन मूल्य से रहित हारा हुआ जीवन है। जीवन मूल्य से रहित व्यक्ति न्याय नीति मानवता तथा मानव धर्म की मर्यादा को भी ताक में रखकर तथा मदपान, मांसाहार, जुआ, चोरी, डकैती, लूटमार, तस्करी, हत्या, दंगा, आतंकवाद, उग्रवाद, भ्रष्टाचार, अन्याय, अत्याचार, व्यभिचार, शिकार, शोषण, उत्पीड़ित, अपहरण, आदि सब शुद्ध धर्म से रहित होने से मूल्य - रहित जीवन के प्रतीक है। ऐसा सधर्म जीवन मूल्य से रहित व्यक्ति विषयभोगासक्त, तथा दुर्व्यसनों से ग्रस्त होकर अनेक आधि व्याधियों से घिर जाता प्रायः आलसी, अकर्मण्य, विषयग्रस्त, दुःसाध्य रोगग्रस्त तथा अशुभ कर्मोदयवश दरिद्रता, विपन्नता, उद्विग्नता, तनाव से पीड़ित और आर्त्तरौद्रध्यान परायण हो जाता है। धर्म का आचरण न होने से ऐसा जीवन मूल्य से विहीन जीवन वाला व्यक्ति थोड़े से कष्ट, दुख, परिताप, चिन्ता और उद्विग्नता के कारण कभी-कभी आत्महत्या भी कर लेता है। अजमेर में एक सटोरिया सट्टे में हार गया। पत्नी से पहले की तरह उसने गहने और रुपये मांगे परन्तु पत्नी पहले कई बार एक एक करके कई गहने दे चुकी थी अतः अब देने से उसने इंकार कर दिया वह सटोरिया भाई आवेश में आकर आनासागर तालाब पर गया और उसमें डूबकर मर गया। इस व्यक्ति ने पहले धर्मविहीन कार्य किया। जुए के एक प्रकार सट्टा खेलने का फिर हारने पर और चिन्ता और उद्विग्नता के कारण आत्महत्या कर ली। अगर जीवन मूल्यों की सुरक्षा करता तो किसी सात्विक धंधे से आजीविका करके जीवन निर्वाह करता और सुख की नींद सोता। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 34 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Pral Use iv.orga Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था जीवन कब धर्म मूल्यों से रहित - कंब सहित? कोई कह सकता है कि यों तो सज्जन पुरुषों के द्वारा अपने जीवन में जागृत होने के कारण कई बार उसका जीवन, जीवन मूल्य से रहित, धर्म से भ्रष्ट बन जाता है। इसके विपरीत कई बार कई लोग समाज और परिवार के त्रास के कारण चोरी, डकैती, व्यभिचार, मद्यपान आदि व्यसनों के चक्कर में फंस कर जीवन मूल्य को खो देते है, परन्तु जीवन का कोई क्षण ऐसा आता है कि या तो ठोकर खाने के बाद या किसी महान आत्मा, महापुरुष या संत की प्रेरणा से एकदम बदल जाता है। वह चोर से साहुकार, डाकू से संत, कुव्यसनों का त्याग करके पापात्मा से धर्मात्मा बन जाता है। वाल्मिकी लुटेरा था किन्तु एक महात्मा की वाणी श्रवण करके सहसा ऋषि बन गया। धर्म से ओत प्रोत होने के कारण पहले का बुझा हुआ जीवन, जीवन मूल्य से युक्त धर्ममय बन गया। जीवन मूल्यों की सुरक्षा और वृद्धि में मूलभूत सद्धर्म अवश्य जुड़ा रहा : _कई व्यक्ति रिक्शा चलाकर या अन्य महनत मजदूरी या कहीं सर्विस करके नीति न्याय पूर्वक जीवन निर्वाह करते हैं, ऐसे लोग अपने जीवन में जीवन मूल्य ही सुरक्षित नहीं रखते बल्कि समय आने पर ईमानदारी, सत्यता और संवर निर्जरा रूप धर्म पर अटल रहकर जीवन मूल्यों की वृद्धि भी करते हैं। राजा रंतिदेव की पौराणिक कथा प्रसिद्ध है जिन्होंने दुष्काल पीड़ित प्रजा की रक्षा के लिए अपने प्राणों को खतरे में डालकर 49 दिनों की तपस्या की। जिसके प्रभाव से दुष्काल मिटकर सुकाल में परिणत हो गया। एक राजा का मंत्री जैनधर्मी वीतराग प्रभु का उपासक तथा दृढ़ धर्मी था। वह कभी ऐसा काम नहीं करता था, जिससे किसी का अहित हो। किन्तु राजा की धर्म पर जरा भी श्रद्धा नहीं थी। वह मंत्री के धर्मनिष्ठ जीवन को पसंद नहीं करता था। मगर मंत्री अपने पद का दायित्व पूर्ण रूप से निभाता था। इसलिए वह अपने कार्यों और गुणों से राजा को प्रिय भी था। मंत्री अपनी धर्माराधना में कभी चूकते नहीं थे। अन्य राज्याधिकारी मंत्री की प्रशंसा सुनकर ईर्ष्या से जलते थे। एक बार चौमासी पक्खी का दिन था, गांव में गुरुदेव भी विराजमान थे। अतः मंत्री ने उस दिन धर्माराधना हेतु पौषध व्रत ग्रहण कर लिया। संयोगवश राजा को उस दिन किसी विशिष्ट कार्य के लिए मंत्री के परामर्श की आवश्यकता पड़ी, पर वे उस दिन दरबार में हाजिर न थे, और राजसेवकों द्वारा बुलाये जाने पर भी वे पौषध में होने के कारण उपस्थित न हो सके, इस कारण राजा ने कठोर आदेश भेजा कि या तो मंत्री राज दरबार में हाजिर हो, या मंत्री पद की मुद्रा वापस लौटा दे। मंत्री के धर्मनिष्ठ जीवन मूल्य की सुरक्षा का प्रश्न था। जिसके रगरग में धर्म के प्रति दृढ़ निष्ठा होती है वह ऐसे संकट काल में भी धर्म पर स्थिर रह सकता है। अतः मंत्री ने आगंतुक राज सेवक को अपनी मंत्री पद की मुद्रा सौंप दी। मंत्री पद की मुद्रा राजा के पास पहुंचने पर राजा ने सोचा - 'मंत्री अपनी धर्मनिष्ठा पर दृढ़ है। धर्म के प्रभाव से षड्यंत्रकारी राज्याधिकारियों ने उसे मारने का जाल रचा, किन्तु वह विफल हो गया। किन्तु मैं व्यर्थ ही ऐसे वफादार, गुणी, धर्मनिष्ठ मंत्री के प्रति मुझे रोषद्वेश न करके उससे क्षमायाचना करनी चाहिए। यह सोचकर राजा मंत्री के पास माफी मांगने के लिए पहुंचा। राजा को आते देख मंत्री ने मन में विचार किया -'हो न हो, राजा मुझे मारने के लिए आ रहा है, उस समय धर्मनिष्ठ श्रावक ने विचार किया – हे जीव ! तुने इससे पूर्व अनेक शरीर धारण किये और छोड़े होगें, लेकिन धर्म के लिए या धर्म में लीन रहकर एक बार भी शरीर नहीं छोड़ा होगा। अतः डरने की जरुरत नहीं। यह तो तेरी धर्म में दृढ़ता की कसौटी का समय है। राजा को शत्रु न मानकर मित्र मान। वह तो निमित्त मात्र है। कल्याण मित्र समान संसार सागर पार कराने में सहायक को मैं शत्रु क्यों मानूं? चाहे जो हो इस समय मुझे समता धर्म में स्थिर रहना चाहिए। इतने में ही राजा मंत्री के पास पहुंच गये। क्षमायाचना करते हुए बोले - 'मंत्री वर ! आप अपनी धर्मनिष्ठा के प्रभाव से बच गये, मैं भी बच गया और सुरक्षित रहा। अतः यह मंत्री-मुद्रा समर्पित है इसे स्वीकार कीजिए। इस प्रकार राजा जो पहले धर्म आराधना तथा धर्मश्रद्धा से विहीन होकर जीवन मूल्यों से रहित पराजय का जीवन जी रहा था, वह धर्मनिष्ठ श्रावक के निमित्त से धर्म श्रद्धा से युक्त होकर जीवन मूल्यों से युक्त बन गया, उधर धर्मनिष्ठ मंत्री ने धर्मसंकट आने पर भी जीवन मूल्यों की रक्षा की। हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 35 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति For Private & Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ऐसा दोहरा जीवन जीवन मूल्यों से युक्त नहीं कहा जा सकता : इसी प्रकार जो व्यक्ति हिंसापरायण, परम्परा से युक्त हो, उसके परिवार में सभी लोग धर्म संप्रदाय के बाह्य क्रियाकाण्डों का पालन करते हैं, मगर उनके जीवन में धर्माचरण न हो, यानि धर्म नीति धर्मयुक्त आजीविका न करते हों, ऐसे लोग जीवन मूल्यों से रहित होते हैं। क्योंकि धर्म के मूलभूत अंगों, अहिंसा, संयम नीति, न्याय, मानवता आदि से वे लोग दूर ही रहते हैं। औरंगजेब, कोणिक आदि इस तरह के ज्वलंत उदाहरण है। ऐसे लोग साप्रदायिक कट्टर पंथी या संप्रदाय मोह, पंथ मोह, मत मोह आदि मूढ व्यक्तियों द्वारा भले ही धार्मिक कहे जाते हों, सम्माननीय भले ही हों अंदर से वे खोखले ही होते है। उनका जीवन नीति न्याय, अहिंसादि धर्माचरण, मानवता से रहित हो तो उनका जीवन शुद्ध धर्मांगों से रहित होने से जीवन मूल्यों से युक्त नहीं कहा जा सकता। जीवन मूल्य कहां सुरक्षित, कहां नष्ट भ्रष्ट १ कई दफा कतिपय व्यक्तियों का जीवन धर्म मूल्यों से रहित होता है परन्तु कई बार जीवन में ऐसा परिवर्तन आता है कि वे पापात्मा से धर्मात्मा बन जाते है इतिहास में ऐसे चोर, डाकू, वेश्या, हत्यारे आदि लोगों के जीवन का वर्णन आता है कि प्रारम्भ में वे ऐसे अनेक पापों में मग्न थे, किन्तु जब किसी निमित्त से प्रेरणा पाकर वे बड़े धर्मात्मा बन गये। कठोर परीक्षा में भी वे उत्तीर्ण हुए औरंगजेब बादशाह के शासनकाल में रामदुलारी नाम की एक वेश्या थी। एक बार उसके एक पुत्र हुआ। शिशु के लालन-पालन में वह इस प्रकार खो गई कि अपने धंधे की ओर ध्यान देना बंद कर दिया। उसकी मालकिन अन्ना ने आय बंद होती देखकर एक दिन रामदुलारी की अनुपस्थिति में उसके बच्चे को तिमंजिले मकान से नीचे फेंक दिया। रामदुलारी के मन पर बच्चे की मौत की इतनी चोट पहुंची कि वह पागल हो गई। उसको संसार से विरक्ति हो गई। एक त्यागी संत के उपदेश से वह ब्रह्मचारिणी बनकर भगवद् भक्ति में लीन रहने लगी वेश्या जीवन को बिलकुल तिलांजली दे दी औरंगजेब उसके रूप पर मुग्ध होकर उसे अपनी बेगम बनने के लिए बहुत प्रलोभन भी दिये भय भी दिखाया। मगर वह बिलकुल विचलित नहीं हुई। औरंगजेब ने उसकी भक्ति के मार्ग में बहुत रोड़े अटकाये। ज्यादती की। मगर आखिर उसने भगवान की भक्ति में तल्लीन होकर शील की रक्षा के लिए अपने प्राण दे दिये। रामदुलारी की मृत देह देखकर औरंगजेब को बहुत दुख हुआ। वह अपनी कामवासना को धिक्कारने लगा। इस प्रकार एक जीवन मूल्य हीन वेश्या ने एक दिन जीवन मूल्य की रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिये । T I निष्कर्ष है कि जहां शुद्ध धर्म है, वहां जीवन मूल्य सुरक्षित है और जहां शुद्ध धर्म जीवन में नहीं है वहां जीवन मूल्य असुरक्षित है, नष्टभ्रष्ट है। जीवन मूल्यों का हास : तेजी से होता जा रहा है आज हम जगत के निम्न वर्गीय और मध्यम वर्गीय लोगों से भी अधिक प्रायः उच्चवर्गीय लोगों, जिनमें बड़े बड़े धनपतियों, शासकों, शासनाधिकारियों, उद्योगपतियों, तथा उच्चपदाधिकारियों, यहां तक की धर्मधुरंधर कहलाने वाले कतिपय गृहस्थों तथा तथाकथित साधु वर्ग में भी शुद्ध धर्म की मर्यादाओं, सेवा, क्षमा, दया, न्याय, नीति, एवं संवर निर्जरा रूप या सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तपोमय धर्म का लोप होता जा रहा है। पाश्चात्य सभ्यता के तेजी से फैलते हुए प्रवाह में बहने लगे है। धर्म और अध्यात्म की जीवन में धज्जियां उड़ाई जा रही है। कहने को तो कई लोग उपासनामय धर्म का पालन करते हैं, किन्तु उनके व्यवसाय में समाज व्यवहार में राजनैतिक सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन में अहिंसा सत्य ईमानदारी न्याय नीति आदि धर्म का या शुद्ध निः स्वार्थ संवर निर्जरा रूप आचरणात्मक धर्म का गला घोंट दिया जाता है। तब भला उस जीवन को धर्म मूलक जीवन मूल्यों से युक्त या सुरक्षित कैसे कहा जा सकता है। ग्रंथ यह तो सुविदित है कि धर्म जहां केवल भाषण की या तत्वज्ञान बघारने की वस्तु रह जाती है अथवा जहां वह साप्रदायिकता के कटघरे में बंद हो जाता है, वहां जीवन में वह उतरता नहीं है, जीवन मूल्यों से रहित हो जाता है। हेमेजर ज्योति ज्योति 36 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति ainelib Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जीवन मूल्य सुरक्षित रहने पर ही विश्व में सुख शांति हो सकती है : आज अधिकांश कट्टर साप्रदायिक लोग धर्म के नाम पर परस्पर वादविवाद करते हैं, लड़ते झगड़ते हैं, एक दूसरे से घृणा, द्वेश, ईर्ष्या या विरोध करते हैं, दूसरे धर्म संप्रदायों का खंडन करके अपने संप्रदाय को पुराना और सच्चा सिद्ध करने की कोशिश करते हैं, परन्तु शुद्ध नीति, न्याय, धर्ममय जीवन जीना नहीं चाहते, अथवा चाहते हैं तो भी समय आने पर दसरे सांप्रदायिक लोगों की देखा देखी बहक जाते हैं, जीवन मूल्यों को छोड़ देते हैं, शुद्ध धर्म पर अटल नहीं रह पाते, ऐसी स्थिति में धर्मनिष्ठ जीवन मूल्य जीवन में कैसे सुरक्षित रह सकते हैं। परिवार समाज और राष्ट्र में अशांति, अराजकता, व्यभिचार, अनाचार, भ्रष्टाचार और बेईमानी, हिंसा, हत्या, दंगा, आदि का मूल कारण भी यही है - जीवन मूल्यों का नष्ट भ्रष्ट होना। विश्व में शांति, अमन चैन और आनन्द तभी व्याप्त हो सकता है, जनता के जीवन में धर्म मूलक जीवन मूल्य सुरक्षित रहे। अन्याय, अनीति, प्रमाद, कषाय आदि के वशीभूत होकर जीवन मूल्यों को नष्ट न होने दें। हिंसा-प्रवृत्त मनुश्य का तस्करवृत्ति में आसत्क रहने से और परस्त्रीरत-व्यक्ति का धर्म, धन, शरीर, इज्जत आदि समस्त गुण नाश हो जाता हैं। सर्व कलाओं में धर्मकला श्रेष्ठ है, सब बलों मे धर्मबल बड़ा है और समस्त सुखों में मोक्ष-सुख सर्वोत्तम है। प्रत्येक प्राणी को मोक्ष-सुख प्राप्त करने का सतत प्रयत्न करना चाहिये, तभी जन्म-मरण का दुःख मिट सकेगा। संसार में यही साधना सर्वश्रेष्ठ साधना है। अभिमान, दुर्भावना, विशयाशा, ईर्ष्या, लोभादि दुर्गुणों को नाश करने के लिये ही शास्त्राभ्यास करके पाण्डित्य प्राप्त किया जाता है। यदि हृदय-भवन में पंडित होकर भी ये दुर्गुण निवास करते रहे तो पंडित और मूर्ख दोनों में कुछ भेद नहीं है-दोनों को समान ही जानना चाहिये। पंडित, विद्वान् या जानकर बनना है तो हृदह से अभिमानादि दुर्गुणों को हटा देना ही सर्वश्रेष्ठ हैं। सुख और दुःख इन दोनों साधनों का विधाता और भोक्ता केवल आत्मा है और वह मित्र भी है और दुश्मन भी। क्रोधादि वशवर्ती आत्म दुःखपरम्परा का और समतादि वशवर्ती आत्म सुखपरम्परा का अधिकारी बन जाता है। यथाकरणी आत्मा को फल अवश्य मिलता है। जो व्यक्ति अपनी आत्मा का वास्तविक दमन कर लेता है उसका दुनियां में कोई दुश्मन नहीं रहता। वह प्रतिदिन अपनी उत्तरोत्तर प्रगति करता हुआ अपने ध्येय पर जा बेठता है। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 37 Brivate हेगेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति an intere Inadalana Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ स्याद्वाद सिद्धांत - एक विश्लेषण : उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी के शिष्य -रमेश मुनि शास्त्री दर्शन वस्तुतः वह है, जो 'वस्तु' अथवा 'पदार्थ' में परिव्याप्त अनन्त धर्मों की व्याख्या करता हुआ मानव मात्र में भर रहे अज्ञान अंधकार को तिरोहित करता है, और उस अज्ञान के स्थान पर उनमें 'दिव्य ज्योति' रूप ज्ञान का प्रकाश भर देता है। यथार्थ अर्थ में ज्ञान ही सत्य है, सत् है और अज्ञान असत्य है, असत् है। सत्य को देखने वाला, दिखलाने वाला ही 'दर्शन' है। यानी दर्शन एक ऐसी अक्षय ज्योति है, जिस के प्रकाश में, पदार्थ स्वरूप पर आये हुए, ढके हुए असत्य के सघन आवरण को हटाकर 'सत्य' का 'सत्' का साक्षात्कार किया जा सकता है। निष्कर्ष रूप में यह कथन भी औचित्य पूर्ण है कि 'दर्शन' शब्द का शाब्दिक अर्थ 'चक्षुरिन्द्रिय' से देखना है। किन्तु उस का अन्य अर्थ भी अति स्पष्ट है, उस दृष्टि से इस का अर्थ अतीन्द्रिय ज्ञान अर्थात दिव्य ज्ञान माना जा सकता है। यही वह तत्व है, स्थिति है, जिस के द्वारा हम सांसारिक यानी भौतिक और पारलौकिक तत्वों का प्रत्यक्ष कर सकते है, साक्षात्कार कर पाते हैं। दर्शन - जगत् में स्याद्वाद सिद्धांत की महती प्रतिष्ठा है। यह मौलिक-सिद्धांत जैन दर्शन का प्राणभूत तत्व है। इस का वज़ आघोष है कि प्रत्येक पदार्थ में अनेकों धर्म, अनन्त गुण एवं पर्याय आदि सहज ही पाये जाते है । ये धर्म गुण आदि वस्तुओं में क्रमशः और अक्रमशः होते हैं। कई बार तो ऐसा स्पष्टतः आभास होने लगता है कि ये गुण, धर्म आदि परस्पर विरोधी है। फिर एक ही पदार्थ में कैसे पाये जाते है ? जैसे स्वर्ण कलश को भेद कर, जब किसी स्वर्णकार को हम उस से स्वर्ण कुण्डल बनाते देखते हैं तो प्रतीत हो जाता है कि जिस तरह स्वर्ण कलश अनित्य है वैसे ही स्वर्ण कुण्डल अनित्य है। पर दोनों ही स्थितियों में स्वर्ण की स्थिति को ज्यों का त्यों देख कर, दर्शक यह नहीं समझ पाता है कि नित्य जान पड़ने वाले स्वर्ण में कलश और कुण्डल जैसी वस्तुओं की अनित्यता कैसे समायी रहती है? एक बालक को किशोर और युवा बनता देख कर भी कोई सामान्य जन यह स्वीकार नहीं करता कि कल जो बालक था, वह किशोर से भिन्न था और युवा से भी अलग था। जब कि बाल्यावस्था, किशोरावस्था और युवावस्था तीनों ही परस्पर विरोधी है। इन तीनों में व्यक्ति की एकता को वह सहज रूप से मानने में किसी भी तर्क को सुनना नही चाहता। किन्तु उसी व्यक्ति को जब यह कहा जाता है कि इसी तरह से प्रत्येक पदार्थ में अस्तित्व और नास्तित्व, यानी सत्ता और नाश, साथ-साथ पाये जाते हैं, तब वह इस कथन की सत्यता पर संदेह करने लगता है। जो मानव इस तरह के संदेहों में पड़े रहते हैं। उन्हें वस्तु तत्व के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान नहीं हो पाता है। पदार्थ को मात्र सद्रूप मान लेना या मात्र असद रूप मानना अज्ञान है। इसी तरह से अनेक विधि-निषेधात्मक विवक्षाएँ तत्वज्ञान में बाधक बन कर उन मानवों के सामने खड़ी हो जाती है। इन समस्त स्थितियों में उलझे मानव मस्तिष्क को अज्ञान, संदेह से उबार कर तत्वज्ञान के धरातल पर पहुंचाने के लिये जैन दर्शन में 'स्याद्वाद' की संस्थापना की गई। अनेकांतवाद को गौरवपूर्ण स्थान दिया गया। इसी संदर्भ में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि यह अनेकांतवाद क्या है ? इस की व्याख्या इस प्रकार है - पदार्थ में जो भिन्न-भिन्न परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म, गुण पर्याय आदि हैं, उन को स्पष्ट करना अनेकांत है। यह अनेकांत जब सिद्धांत का रूप ग्रहण कर लेता है, तब उसे अनेकांतवाद, यह नाम दिया जाता है। यानी पदार्थ का स्वभाव है-अनेकांत! इस वस्तु – स्वरूप की गहन विवेचना करने वाला सिद्धांत अनेकांत होगा। वस्तु स्वरूप पर जब वास्तविक चिंतन किया जाता है, तो यह स्पष्ट रूपेण देखा जाता है कि यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो उसमें किसी नवीन अवस्था की उत्पत्ति और पूर्व अवस्था का विनाश संभव नहीं हो पायेगा। परिणाम यह होगा कि आज, जो पदार्थ, जिस रूप में विद्यमान हैं, हजार-हजार वर्षों बाद भी, वह उसी रूप में बना रहेगा अर्थात आज जो युवा है, वे चिर युवा बन जायेंगें। जो नवजात हैं, वे कभी बालक, किशोर, युवा और वृद्ध नहीं बन पायेंगें। जो मृत पड़ा हुआ है। वह मृत ही पड़ा रहेगा। जो गर्भस्थ है। वह, बालक, किशोर युवा अवस्था को पार करता हुआ वृद्ध बन पायेगा। इसी तरह अचेतन वस्तु, वस्तुसमूह को भी समझना पड़ेगा। जिस पदार्थ का आज हमें अस्तित्व हेगेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति 38 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति A pple use only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्टसंत शिरामीण अभिनंदन गंथ नहीं दिखलाई नहीं पड़ता है, वह वस्तु कभी उपलब्ध नहीं हो पायेगी। जैसे आम के पेड़ में यदि आज बौर आया है तो वह वृक्ष सदा बौराया ही रहेगा। आज उसमें फल नहीं लगे हैं तो कभी भी फल नहीं लग पायेंगें। जिन में फल लगे हैं किन्तु वे हरे हैं तो वे हरे फल कभी पक नहीं पायेंगें। क्योंकि आज उनका अस्तित्व नहीं हैं इसलिए कभी भी उनका अस्तित्व नहीं हो पायेगा। अतएव यह अवश्य रूप से मानना पड़ेगा कि प्रत्येक पदार्थ अनेकांतात्मक है। अनेक धर्मों वाली वस्तुओं की परिबोध कराने वाला सिद्धांत अनेकांतवाद है। क्योंकि पदार्थ समूह, इन अनेक धर्मों, गुणों और पर्यायों आदि के बिना अस्तित्वहीन हो जायेगा। अचेतन वस्तु की ही तरह चेतन स्वरूप आत्मा भी अनेकांतमय है। अनेकांत-सिद्धांत की मान्यता जैन दर्शन की ऐसी विलक्षण मान्यता है, जिसे जैन ही नहीं मानते अपितु अनेकांत की महत्ता की स्वीकृति अन्य दार्शनिकों ने भी की है। अन्य दार्शनिकों के इस अनेकांत समर्थक स्वीकृति विवेचन और जैन सम्मत अनेकांत का अति सूक्ष्म अध्ययन करने पर स्पष्टतः परिबोध होता है कि दोनों स्वीकृतियों में विशेष रूप से भेद दिखलाई पड़ता है। यह विभेद, मुख्य रूप से यह है कि अन्य दार्शनिकों के विवेचनों में अनेकांत की झलक भर मिलती है। जो यह स्पष्ट करती है कि उन्होंने अनेकांत की महत्ता को नहीं समझा। जबकि जैन दार्शनिकों ने इसकी महत्ता को केवल समझा ही नहीं अपितु उसकी तह में जाकर जो गंभीर रहस्य निकाला, उससे चेतन अचेतनात्मक जगत के यथार्थ पर पड़ा हुआ पर्दा सदा के लिए उठ गया। पदार्थ तत्व के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान करना, सहज नहीं है, बड़ा ही जटिल है। यह अति जटिलता, इसलिए है कि प्रत्येक पदार्थ में, इतने अधिक धर्म है, गुण हैं, पर्याय है उनका पार करना असंभव सा है। जब तक किसी पदार्थ के इन सारे स्वरूपों का सम्यक् बोध नहीं कर लिया जायेगा, तब तक यह कहना सत्य नहीं होगा कि उस पदार्थ विशेष को सर्वात्मना जान लिया गया है। यही स्थिति प्रत्येक पदार्थ, हर वस्तु के साथ है। किसी पदार्थ के अपूर्ण ज्ञान के बल पर, कोई भी सर्वज्ञ नहीं बन सकता। इसलिए यह नितांत आवश्यक था कि कोई दर्शन ऐसी पद्धति विशेष को खोज निकाले, जिसके सहारे से, वस्तु मात्र के समग्र स्वरूप का सम्यक् बोध किया जा सके। अनेकांतवाद की संस्थापना से, दार्शनिक जगत की यही कमी जैन दार्शनिकों ने पूरी की है, इस अभाव की संपूर्ति की। यह अनेकांत क्या है ? इसकी विवेचना, प्रायः प्रत्येक जैन दार्शनिक ने की है। जिसका सार यह है, वस्तु मात्र में सत् - असत्, नित्य-अनित्य, तत्-अतत् आदि अनंत परस्पर विरोधी धर्मों, गुणों, पर्यायों आदि का होना 'अनेकांत' है। यानी इस बात को स्वीकार करना कि जगत के प्रत्येक पदार्थ में, प्रत्येक समय, अनेक रूप विद्यमान हैं। इनकी संख्या अनंत भी हो सकती है। इन सारे स्वरूपों की सत्ता को, एक साथ, एक-एक वस्तु में स्वीकार करना 'अनेकांत' है। इस आधार पर यह कहना होगा कि - पदार्थ का अनंत धर्मात्मक स्वरूप 'अनेकांत' है। दूसरे शब्दों में इसे यों भी कहा जा सकता है कि अनंत धर्म, अनंत गुण, अनंत पर्याय आदि मिलकर, एक-एक वस्तु का जो स्वरूप बनाते हैं, वे सारे वस्तु स्वरूप 'अनेकांत' होंगें अर्थात परस्पर विरोधी धर्मों, गुणों और पर्यायों के सम्मिश्रण से, वस्तु का जो स्वरूप बनता है, वह अनेकांत' कहा जायेगा। यहां यह ध्यान देने की बात है, पदार्थ-स्वरूप में, जिन अनंत धर्मों, गुणों और पर्यायों के होने की बात कही गई है वे धर्म, गुण, पर्याय आदि यथार्थ होने चाहिए। अर्थात उन्हीं धर्म, गुण, पर्याय आदि युक्ति से किसी वस्तु में सिद्ध होते हों, कोरे वाग विलास से परिकल्पित धर्म, गुण, पर्याय की आदि की दृष्टि से इस 'अनेकांत' को मिथ्या 'अनेकांत' कहा जायेगा। पदार्थ में जो भी अनंत धर्म होते है, वे सब गुण और पर्याय रूप होते हैं। इनमें से गुण पदार्थ का सहभावी धर्म है, जबकि पर्यायें क्रमभावी धर्म हैं। इसलिए किसी वस्तु के गुण समूह को संलक्ष्य कर जब उसके समग्र स्वरूप का परिबोध किया जायेगा तब उस वस्तु के अनेक गुण युक्त स्वरूप को 'अक्रम अनेकांत' नाम से कहा जायेगा। क्योंकि गुण समूह का समग्र बोध उस वस्तु के स्वरूप बोध के साथ ही, समग्र रूप से, एक साथ हो जाता है। अर्थात हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 39 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति ainelibrary Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ वस्तु के गुणात्मक स्वरूप का समग्र बोध, क्रम की अपेक्षा नहीं रखता। जबकि पर्याय समूह का समग्र बोध, क्रम के अभाव में संभव नहीं हो पाता। इसलिए किसी पदार्थ के पर्याय स्वरूप का क्रमशः समग्र बोध जब किया जायेगा तब प्रत्येक पर्याय का भिन्न-भिन्न अवस्था में बोध होने के कारण समग्र पर्यायों के समग्र स्वरूप बोध को 'क्रम अनेकांत' नाम से जाना जायेगा, यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है। इस तरह दो प्रकारों से अनेकांत के दो भेद माने जा सकते हैं। सम्यक् अनेकांत और मिथ्या अनेकांत, तथा क्रम अनेकांत और अक्रम अनेकांत अनेकांत के ये दो भेद सिद्ध करते हैं कि स्वयं अनेकांत भी परस्पर विरूद्ध धर्मों को स्वयं में आत्मसात किये हुए है। अतएव यह स्वयं भी अनेकांतात्मक सिद्ध हो जाता है। इसे प्रमाण और लय की विवक्षा के आधार पर अनेकांतात्मक सिद्ध किया गया है। इसी संदर्भ में एक महत्वपूर्ण प्रसंग का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा। कुछ अंधे व्यक्तियों द्वारा एक साथ मिलकर हाथी को जाने समझने के प्रयास का उदाहरण है। जिस तरह यह अंधे, हाथी की सूंड, कान, पूंछ और पेट आदि एक-एक अंग को पकड़कर, उन्हीं एक अंग को पकड़कर, उन्हीं एक-एक अंगों को 'हाथी' का समग्र स्वरूप मान लेते हैं और हाथी के स्वरूप के विषय में विवाद करते परस्पर लड़ बैठते हैं वही स्थिति, वस्तु स्वरूप में विद्यमान अनेकों धर्मों, गुणों और पर्यायों में से किसी एक को उस वस्तु का समग्र स्वरूप मानने पर बन जाती है और जिस तरह वे अंधे, अपने अपने द्वारा पकड़े गये, हाथी के एक-एक अंग को पूरा हाथी बतलाते हैं, उसी तरह वस्तु स्वरूप के किसी एक धर्म, एक गुण या एक पर्याय को, समग्र वस्तु स्वरूप जब कहा जायेगा, तब कौन किसे असत्य ठहरायेगा ? यह निश्चित नहीं हो सकता। वास्तविक स्थिति यह होती है कि वे सब के सब असत्य हैं। इसलिए वस्तु स्वरूप के किसी एक धर्म एक गुण और एक पर्याय को बतलाने वाले नय एक ही धर्म, गुण या पर्याय पर आग्रही होने के कारण एकांत कहे जाते हैं। एकांत का अर्थ ही होता है अनेक में से किसी एक का कथन करना। इस तरह के एकांत, संख्या की दृष्टि से चाहे अनेक हो जायें अनंत बनते जायें फिर भी अनेकांत संज्ञा को प्राप्त नहीं कर पायेंगें। तात्पर्य यह है कि पृथक-पृथक अंगों या अंशों के रूप में एक धर्म एक गुण या एक पर्याय की विवेचना करने वाले, एकांत, जब तक अलग-अलग पड़े रहते हैं यानि परस्पर निरपेक्ष बने रहते हैं, तब तक उसमें अनेकांतता नहीं आ पाती। किंतु जब वे सारे ही एकांत मिलकर परस्पर सापेक्ष बन जाते हैं, तब पदार्थ के समग्र स्वरूप के परिबोध बन जाते हैं। तब वस्तु तत्व के संपूर्ण स्वरूप के बोधक बन जाने के कारण ही उन्हें 'अनेकांत' की संज्ञा भी मिल जाती है। समस्त पदार्थ - समस्त पदार्थ समूह के इसी प्रधान आधार पर अनेकांत की यह विलक्षण सामर्थ्य स्पष्टतः प्रकट होती है - भिन्न-भिन्न धर्मों गुणों और पर्यायों के आधार पर जितने भी एकांत बन सकते हैं, वे सब के सब सापेक्षता अंगीकार कर लेने पर एक साथ अनेकांत में समा जाते हैं किंतु ये सारे एकांत यदि निरपेक्ष ही बने रहते हैं तो उनकी विशाल संख्या हो जाने पर भी, उनमें कभी भी अनेकांतता नहीं आ सकती। यह बात अलग है कि इन एकांतों के बिना अनेकांत की सत्ता ही सुरक्षित नहीं रह पाती है। इसलिए अनेकांत को भी हमें एकांत सापेक्ष मानना पड़ता है। यह बात दूसरी है कि परस्पर विरोधी धर्मों, गुणों और पर्यायों की व्याख्या करने वाले एकांतों में परस्पर सापेक्षता जगा देने की सामर्थ्य अनेकांत में ही पाई जाती है। उक्त विवेचना से यह अति स्पष्ट है कि जगत की प्रत्येक वस्तु का नियामक 'अनेकांत' है। यदि पदार्थ में पाये जाने वाले धर्मों की परस्पर - विरूद्धता में सापेक्षता न बने । तो सुनिश्चित ही, प्रत्येक पदार्थ खंड-खंड होकर बिखर जाये। जब जगत की प्रत्येक वस्तु बिखरी होगी, तब जगत की सत्ता कैसे साकार हो सकेगी ? यह एक विचारणीय प्रश्न उठ खडा होता है। इस आधार पर हमें यह मानना पड़ता है कि अनेकांत, वस्तु समूह का केवल नियामक, नियंत्रक और प्रतिपादक ही नहीं है अपितु यह जगत का एक मात्र शासक है। कोई भी शासक, अपने शक्ति प्रयोग के आधार पर शासन नहीं कर पाता। यह सर्वथा शाश्वत सत्य अनेकांत शासन पर भी यथार्थतः चरित्रार्थ होता है क्योंकि अनेकांत का महान अमात्य है- स्याद्वाद। स्याद्वाद न केवल अनेकांत की योजना का नीति निर्धारण करता है, अपितु उसकी नीतियों की स्पष्ट रूपेण व्याख्या भी करता है और उन नीतियों का कुशल क्रियान्वयन करता है सप्तभंगी सप्तभंगी का अपना महत्व है। । ducation Internal हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 40 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति www.gameliba 019 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सहस्र किरण दिनकर की महत्ता का श्रेय उसके रथ और सारथी को मिलता है। सूर्य का सारथी अरूण, अपने कुशल रथ चालन द्वारा, प्रतिदिन एक ही रीति से उसे अनंत आकाश के एक छोर से दूसरे छोर तक घुमाता रहता है। यदि अरुण रथ संचालन की दिशा कभी पूर्व से पश्चिम की ओर, कभी पश्चिम से दक्षिण की ओर, फिर उत्तर की ओर कर दे तो सूर्य की सारी महत्ता विनष्ट होने में देर न लगे या फिर उसके रथ जुते घोड़े बेलगाम होकर दौड़ना आरंभ कर दे या कभी न चलने की जिद ठान ले तो जो स्थिति सूर्य की बनेगी, वही स्थिति स्याद्वाद और सप्तभंगी द्वारा बगावत कर देने पर अनेकांत सिद्धांत की बन जायेगी। इसीलिए सूर्य की महिमा और महत्ता का जितना गुणगान है उससे कम अरुण का, उसकी अरुणिमा का नहीं है अपितु सूर्य की महिमा के गान से पहले अरुणिमा का, उषा का गुणगान करने की एक परम्परा सी बन गई है। इस परम्परा में उषा के महत्व और उसकी उपयोगिता का मूल्यांकन इतना बडा-चढ़ा दिया कि मानव समूह में उषा का, अरुणिमा का महत्व वर्णन, सूर्य की अपेक्षा अधिक मात्रा में हुआ। यही स्थिति 'अनेकांत' और 'स्याद्वाद' के विषय में कही जा सकती है। वस्तु तत्व के स्वरूप को प्रकाशित करने में, उसे उजागर करने में, संपूर्ण दायित्व अनेकांत निभाता है। किंतु अनेकांत की इस दायित्वपूर्ण महिमा का गुणगान 'स्याद्वाद' के द्वारा किया जाता है इसलिए अनेकांत के पूर्व स्याद्वाद को अधिक महत्व प्राप्त हुआ है। वास्तविकता यह है कि जब कोई भी जीव जगत के वस्तु समूह का बोध करने चलता है तब उसे उन वस्तुओं के समग्र एवं अखण्ड ज्ञान के लिए 'अनेकांत उपयोगी प्रतीत होता है स्याद्वाद की आवश्यकता तो तब पड़ती है जब वस्तु तत्व का यथार्थ रूपेण ज्ञान हो जाने के पश्चात उन ज्ञात वस्तु स्वरूपों का प्रतिपादन, दूसरों को यथार्थ बोध कराने के लिए करना होता है। इस प्रतिपादन के लिए जो पद्धति अपनायी जाती है उसीको 'स्याद्वाद' कहा जाता है। इस विवेचन के प्रकाश में एक महत्वपूर्ण तथ्य अति स्पष्ट हो जाता है कि 'स्याद्वाद' में आया 'स्यात्' शब्द एक ओर तो वस्तु मात्र में विद्यमान अनेक गुणों, धर्मों और अनंत पर्यायों की अपेक्षा - विशेष का बोधक बन कर अनेकांत का द्योतन करता है तो दूसरी ओर वस्तु समूह की व्याख्या एवं विवेचना के प्रसंग में, उन सारे धर्म-गुण- पर्यायों की अपेक्षित विवक्षाओं का वचाक बन जाता है" स्यात शब्द के इन दोनों आशयों को संलक्षय कर इन के इन आशयगत प्रयोगों को इस प्रकार स्पष्ट किया गया जो 'निपात' शब्द होते हैं, उनमें द्योतकता तो होती ही है, वाचकता भी होती है" । 'स्यात्' शब्द यद्यपि लिङ्न्त प्रतिरूपक निपात है। इसलिये यह विधि विचार आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है" । किन्तु जैन संबंध में विवक्षाओं की अपेक्षा से इसे 'अनेकांत अर्थ का द्योतक माना जाता है"। इसी आधार पर जैन दर्शन में इसको रूद्र मान लिया गया है इसका यह आशय नहीं है कि इसका अन्य अर्थों में उपयोग हुआ ही नहीं, अपितु सामान्यतः स्यात' शब्द का जो 'संशय अर्थ लिया जाता है उस संशयात्मक अर्थ में इसे कुछ स्थानों में प्रयुक्त देखा गया है। किन्तु इसका जो रूढ़ अर्थ भिन्न-भिन्न विवेक्षाओं को लेकर स्वीकार किया गया है। उसी के आधार पर 'स्याद्वाद' का यह अर्थ किया जाता है जिस सिद्धांत का वाचक स्यात् शब्द हो वह सिद्धांत स्याद्वाद' है अथवा जिस सिद्धांत का प्रतिवादन, विवक्षाओं के आधार पर किया जाता है वह सिद्धांत 'स्याद्वाद' है" इसी व्याख्या के आधार पर 'स्याद्वाद' का प्रयोग 'अनेकांत के समानार्थक एवं पर्याय वाची शब्द के रूप में प्रयुक्त हुआ है। | 1 इसका परिणाम यह हुआ कि अनेकांतवाद क्या है ? यह एक प्रश्न पूछे जाने पर स्पष्टतः उत्तर दिया जा सकता है, 'अनेकांत' सिद्धांत है और इस की विवेचन पद्धति को स्याद्वाद कहा जाता है निष्कर्ष यह है कि 'अनेकांत' को प्रतिपाद्य और 'स्याद्वाद' को प्रतिपादक कहा जा सकता है। इन दोनों का यही परस्पर संबंध है। जो इन दोनों के बीच के भेद को सुस्पष्ट ही कर देता है। 'स्याद्वाद' के इन दोनों अर्थों को लक्ष्य करके इस ओर ध्यान जाना नितांत स्वाभाविक है कि 'स्यात्' शब्द का और 'विवक्षा' शब्द का आशय क्या है ? जब तक यह अति स्पष्ट रूप से समझ में नहीं आयेगा तब तक न तो 'स्याद्वाद' को समझा जा सकता है और 'अनेकांत' को भी सम्यक् रूप से नहीं समझा जा सकता। वस्तु मात्र में अनंत गुण, अनंत धर्म और अनंत पर्याय आदि विद्यमान है। यह सिद्धांत अनेकांत है। अतएव पदार्थ में रहने वाले समस्त धर्मों, गुणों और पर्यायों में परस्पर विरोध देखने पर यह विचारणीय प्रश्न उठता है कि ये विरोधी धर्म, एक ही पदार्थ का स्वरूप कैसे हो सकते है ? इस तरह के प्रश्न किसी भी पदार्थ के बारे में अधिकतम सात हो सकते हैं। इसलिए इन सातों प्रश्नों के जो उत्तर दिये गये हैं उन में प्रत्येक उत्तर में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग अनिवार्य रूप से किया जाता है। इस सात प्रकार से स्थात शब्द के प्रयोग का नाम 'सप्तभंगी दिया गया है । जिसका स्पष्टतः अभिप्राय होता है सात प्रकार की विवक्षाओं के अनुरूप 'स्यात्' शब्द का प्रयोग है। Education Inta हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 41 Private हेमेन्द्र ज्योति ज्योति Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77 77 श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ यह कथन यथार्थ है कि 'घट' एक वस्तु है। 'घट' है इसलिए उसका अस्तित्व है। किंतु वह पट आदि नहीं है यही वास्तविकता है जब हम घट के 'अस्तित्व' को उसकी सत्ता को स्वीकार करते हैं तब उसका स्पष्ट रूप से यह तात्पर्य होता है कि घट स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा से है पर द्रव्य, पर क्षेत्र, पर काल | और पर भाव की अपेक्षा से नहीं हैं। यहाँ पर स्वद्रव्य आदि का आशय इस प्रकार से समझना चाहिए। 'स्व' का अर्थ होता है अपना 'पर' का अर्थ होता है दूसरा यानि अपने से अलग द्रव्य का अर्थ होता है पदार्थ, क्षेत्र का अर्थ होता है स्थान, काल का अर्थ होता है समय और भाव का अर्थ होता है उपस्थिति, विद्यमानता । घट हमारे सामने विद्यमान है। यह उसका भाव है वर्तमान में, इसी क्षण में हमारे सामने घट विद्यमान है। यह हुआ घट का काल भाव इसी स्थान पर जहां हम खड़े हैं, बैठे हैं, घट को सामने रखा देख रहे हैं। घट की उपस्थिति होना उसका क्षेत्र काल विद्यमान है। सामने रखा वह घट यदि मिट्टी का है तो 'मिट्टी' उसका द्रव्य हुआ। इस तरह यह चारों द्रव्य, क्षेत्र और भाव, घट के स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, और स्वभाव कहे जायेंगें। यह स्पष्ट ही है। इसी आधार पर हम कहेंगे 1. यह घट मिट्टी का है, सोना, चांदी, पीतल, लोहा, आदि का नहीं है। 2. यह मिट्टी का घड़ा इस प्याऊ में रखा है। 3. प्याऊ में, यह मिट्टी का घड़ा, वर्तमान में रखा है, कल नहीं रखा था। संध्या को फिर इस प्याऊ में नहीं रखा होगा। 4. इस समय, प्याऊ में मिट्टी का घड़ा है। फूट जाने पर यह घड़ा नहीं होगा। बनने से पहले भी नहीं होगा। 77 इन चारों प्रकारों से यह भली भांति सिद्ध हो जाता है कि 1. प्याऊ में रखा मिट्टी का घट 'घट' ही है, पट आदि नहीं है। 2. यह घट जिसकी ओर हमारा संकेत है वह प्याऊ में रखा घट ही है न की प्याऊ में रखा अन्य मिट्टी का घट । 3. साथ ही इस समय प्याऊ में जो घट रखा है, उसी की ओर हमारा आशय है न कि उसे उठाकर कोई दूसरा मिट्टी का घट प्याऊ में रख दिया जाय, उस घट से। 4. बल्कि जो मिट्टी का घट अभी रखा है वही हमारे आशय का केन्द्र है न कि उसके फूट जाने पर, वहां पडी रहने वाली खर्परियां हमारे आशय का केंद्र बन सकेगी। इस तरह यह बाद की चार विवक्षाएँ यह सिद्ध कर देती हैं कि मिट्टी का सामने रखा घट 'पट' आदि नहीं है। इसको हम पर द्रव्य, पर क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव कहते हैं जिनकी अपेक्षा से वस्तु तत्व में नास्तित्व सिद्ध किया जाता है। इस तरह पदार्थ को मूलतः दो प्रकार के प्रश्नोत्तरों से जाना जा सकता है जिन्हें हम कहेंगें 1 1. 2. यह वस्तु क्या है ? यानी वस्तु अर्थात् पदार्थ में जो-जो गुण, धर्म, पर्याय आदि है, उन सबका स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण पर्याय के सहयोग से बोध कर सकते हैं। इस प्रश्नोत्तर द्वारा पदार्थ में जो-जो धर्म, गुण, पर्याय आदि है, उन का क्रमशः समग्र बोध हो जाता है। जब निषेधात्मक प्रश्नोत्तर होगें, तब वह वस्तु जिस-जिस वस्तु स्वरूप नहीं है, उन समस्त वस्तुओं के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों और गुण, पर्यायों का एक-एक कर के निषेध करते-करते, जो शेष स्वरूप बचता है, वहीं स्वरूप, उस वस्तु का माना जाता है और आधार पर यह स्पष्टतः माना गया है। मूलतः भंग दो हैं । एक 'अस्ति' और दूसरा 'नास्ति' है। ये दो 'भंग' मूलभूत हैं मुख्य है। उक्त दोनों भंगों से पदार्थ की जो व्याख्या क्रम-क्रम से की जाती है या उस का बोध क्रम-क्रम से किया जाता है। उस क्रमिक बोध व्याख्या को, यदि युगपत अर्थात एक साथ कहने का प्रश्न उद्बुद्ध हो तो यही उत्तर देना उचित होगा कि इन 'आस्ति नास्ति की स्थितियों का कथन, युगपत किया जाना इस समर्थता की अपेक्षा से तीसरा भंग 'अवक्तव्य' जन्म लेता है जिसका अर्थ होता है न कि बोध की असमर्थता है। संभव नहीं होता। अतएव प्रतिपादन की असमर्थता, इन तीनों भंगों को परस्पर मिलाते रहने पर अधिकतम सात ऐसे भंग बनते हैं, जिन में इन का मिश्रण पुनरावर्तन का द्योतक नहीं बन पाता। इसलिये इन्हें 'सप्तभंगी' कहा जाता है" ये सातों भंग इस प्रकार है। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 42 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति saneloors Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 1. अस्ति, 2. नास्ति, 3. अस्ति नास्ति, 4. अवक्तव्य, 5. अस्ति अवक्तव्य, 6. नास्ति अवक्तव्य, 7. अस्ति नास्ति अवक्तव्य । ये सातों भंगों, तत्व जिज्ञासु के सात प्रश्नों के उत्तर रूप में माने जाते हैं अर्थात तत्व स्वरूप जानने की अभिलाषा रखने वाला व्यक्ति तत्वज्ञ पुरुष के समक्ष अपनी तत्व जिज्ञासा को केवल सात ही प्रश्नों के द्वारा प्रकट कर सकता है। अतएव, जिज्ञासा को समाधान देने के लिए, इन्हीं सात भंगों के माध्यम से सात प्रकार के उत्तर निर्धारित किये हैं। ये उत्तर, वस्तु स्वरूप के विभिन्न धर्म, गुण, और पर्यायों की मुख्य और गौण स्थिति को लक्ष्य कर निर्धारित किये गये हैं। । पदार्थ के अनेकांतात्मक-स्वरूपों में से जिस स्वरूप की विवक्षा करनी होती है, वह स्वरूप उस विवक्षा की दृष्टि से 'मुख्य' कहलाता है, शेष स्वरूप 'गौण' कहे जाते हैं। इसी को दार्शनिक भाषा में यों कहा जाता है - :- जो विवक्षित होता है, वह मुख्य है और जो अविवक्षित होता है, उसे गौण कहते हैं। इस संदर्भ में स्पष्टतः उल्लेख प्राप्त होता है अव्यभिचारी, अविकल, असाधारण और अंतरंग अर्थ को मुख्य' कहते हैं। इसके विपरीत अर्थ गौण' है"। मुख्य अर्थ के रहते गौण अर्थ बुद्धिगम्य नहीं बनता है। जिस तरह कर्ता, कर्म आदि कारक, अर्थ की सिद्धि के लिये एक-दूसरे को अपना सहयोगी बना लेते हैं, उसी प्रकार मुख्य गौण की विवक्षा माननी चाहिये” । देवदत्त, अपने बेटे सोमदत्त के पुत्र जिनदत्त का पितामह है। यहां सोमदत्त अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र है। किंतु अपने पुत्र जिनदत्त की अपेक्षा से पिता है। अतएव, जब उसे देवदत्त की अपेक्षा से परिचित कराया जायेगा तब उसमें पुत्रत्व 'मुख्य' होगा और पितृत्व गौण होगा। किंतु जिनदत्त की अपेक्षा से दिये जा रहे उस के परिचय में 'पितृत्व' मुख्य हो जायेगा और पुत्रत्व गौण रहेगा। इसी तरह जब अन्य वस्तु स्वरूपों की विवेचना में हम मुख्य-गौण-विवक्षा अपनाते हैं, जब इन विवक्षाओं में 'गौण' का अर्थ निषेध करना नहीं होता है। अपितु अप्रधानता माननी चाहिए। निषेध का अर्थ होता है - :- उस धर्म गुण, पर्याय आदि का अभाव या असत्व। जब कि गौणत्व का तात्पर्य होता है- अमुख्यता । वस्तुतः गौण, धर्म, गुण आदि उस वस्तु अर्थात पदार्थ में होता तो है, किंतु अपेक्षावश अप्रधान बन जाता है और जब उस अप्रधान की विवक्षा प्रधान होती है, तब वही गौण अर्थ 'मुख्य' बन जाता है और मुख्य बने अर्थ को अपना गौण अर्थ बना लेता है। जैसा कि कारक - समूह में होता है। इसीलिये सप्तभंगी की पद्धति में मुख्यार्थ बतलाने वाले प्रत्येक शब्द - विशेष के साथ 'स्यात' शब्द का प्रयोग पहिले और 'एवं' शब्द का प्रयोग बाद में किया जाना अनिवार्य माना गया है। - सप्तभंगी में अर्थात सप्तभंगीय वाक्यों में 'एव' शब्द का प्रयोग करने का उद्देश्य यही है कि अनिष्ट अर्थ का निवारण हो जाये । अन्यथा कोई स्थिति ऐसी भी हो सकती है, बन सकती है जिसमें कहा गया वाक्य अनकहे जैसा भी बन सकता है। इसलिए 'एव' कार का प्रयोग करने के साथ-साथ 'स्यात्' शब्द का भी प्रयोग करने का आशय, उस पदार्थ विशेष में अनेक धर्मत्व का प्रतिपादन करना अनिवार्य होता है। इस तरह पूर्व में बतलाये गये सातों भंगों का स्वरूप और उनका अभिप्राय निम्न लिखित प्रकार निर्धारित हुआ मानना चाहिए। 1. स्यादस्त्येव - स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा से वस्तु विशेष में अस्तित्व की स्वीकृति है। 2. स्यान्नास्त्येव परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल एवं परभाव की अपेक्षा से वस्तु विशेष में नास्तित्व की स्वीकृति है । स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव इन दोनों की युगपत् अपेक्षा से वस्तु विशेष में अस्तित्व और नास्तित्व की स्वीकृति है। । स्यादवक्तव्य एव स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल एवं स्वभाव तथा परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल एवं परभाव दोनों की युगपत् अपेक्षा से वस्तु विशेष में अस्तित्व और नास्तित्व की स्वीकृति की अभिव्यक्ति में असमर्थता । 3. 4. 5. स्यादस्त्येव अवक्तव्य प्रथम और चतुर्थ भंग की क्रमिक अपेक्षा से वस्तु विशेष की युगपत् विवेचना सामर्थ्य । स्यान्नास्त्यवक्तव्य एव - द्वितीय और चतुर्थ भंग की क्रमिक अपेक्षा से वस्तु विशेष की युगपत् विवेचना सामर्थ्य । 7. स्यादस्ति स्यान्नास्त्यवक्तव्य एव तृतीय और चतुर्थ भंग की क्रमिक अपेक्षा से वस्तु विशेष की युगपत् विवेचना सामर्थ्य | 6. हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 43 Private & P हेमेनर ज्योति ज्योति Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ वस्तु प्रधान ज्ञान सकलादेश और गुण प्रधान ज्ञान विकलादेश होता है। इस के संबंध में तीन मान्यताओं का उल्लेख कर देना अप्रासंगिक नहीं होगा। प्रथम मान्यता के अनुसार सप्तभंगी का प्रत्येक भंग 'सकलादेश और विकलादेश दोनों होता है । द्वितीय मान्यता के अनुसार प्रत्येक भंग विकलादेश होता है और सम्मिलित सातों भंग सकलादेश कहलाते हैं। तृतीय मान्यता के अनुसार प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ भंग विकलादेश और शेष सब सकलादेश होते हैं । द्रव्य नय की मुख्यता और पर्याय नय की अमुख्यता से गुणों की अभेद वृत्ति बनती है। उस से स्याद्वाद सकलादेश या प्रमाण वाक्य बनता है। पर्याय नय की मुख्यता और द्रव्य नय की अमुख्यता से गुणों की भेद वृत्ति बनती है। उससे स्याद्वाद विकलादेश या नय वाक्य बनता है। इसी संदर्भ में यह ज्ञातव्य तथ्य है कि वाक्य दो प्रकार के होते हैं - सकलादेश और विकलादेश। अनंत धर्म वाली वस्तु के अखण्ड रूप का प्रतिपादन करने वाला वाक्य सकलादेश होता है। वाक्य में यह शक्ति अभेद वृत्ति की मुख्यता और अभेद का उपचार - इन दो कारणों से आती है। एक धर्म में अनेक धर्मों की अभिन्नता वास्तविक नहीं होती। इसलिये यह अभेद एक धर्म की मुख्यता या उपचार से होता है। इस सप्तभंगी स्वरूप से सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि पहिले भंग में वस्तु के स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मुख्यता है, तो दूसरे भंग में परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मुख्यता है। इस आधार पर प्रथम भंग में परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव संबंधी अर्थ गौण था, जो कि दूसरे भंग की विवेचना में अपेक्षा विशेष से मुख्यता को प्राप्त कर लेता है। जबकि तीसरे भंग में स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव, दोनों की ही विवक्षा होने से इन दोनों की मुख्यता को प्राप्त है। इस उभय विवक्षा में क्रम होने से दोनों की ही क्रमशः प्रधानता बनती है। जबकि चतुर्थ भंग में यही दोनों विवक्षाएँ युगपत होने से अपनी प्रधानता को खो देती है। अतएव वे गौण बन जाती है। इसी तरह से आगे के भंगों में भी क्रमशः और युगपत विवक्षाओं के अनुसार मुख्यता और गौणता समझनी चाहिए। यहां यह विशेष रूप से जान लेना चाहिये कि सप्तभंगी का प्रयोग जब किसी वस्तु विशेष में उस के समग्र स्वरूप को लक्ष्य करके किया जा रहा होगा। अर्थात सप्तभंगी के प्रयोग का संलक्ष्य जब पदार्थ के द्रव्यात्मक स्वरूप पर आधारित होगा। वह अनेकांतात्मकता का प्रतिपादक नहीं हो पायेगा। क्योंकि परस्पर निरपेक्ष एकांत 'स्व' से भिन्न 'पर' एकांत के प्रति अपनी तुल्यता, समान महत्ता को स्वीकार किये हुए होते हैं। इस दृष्टि से परस्पर निरपेक्ष अपनी-अपनी मुख्यता को यथार्थ रूप से बनाये रखते हैं, निर्विरोध रूप से स्थिर रहते हैं। परिणाम यह होता है कि वस्तु-स्वरूप में विद्यमान समस्त एकांतों का जब क्रमशः परिबोध होता है। तब उन सारे एकांतों को क्रमश: जानते-जानते सारे एकांतों को जान लेने पर भी हम स्पष्ट शब्दों में यह नहीं कह पायेंगें कि हमने पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को सम्यक रूप से जान लिया है। पदार्थ की समग्रता में उन समस्त एकांतों के समाविष्ट रहने पर भी उस वस्तु का जो स्वरूप बनता है, वही उस की समग्रता का द्योतक होता है। अर्थात पदार्थ की समग्रता में पदार्थ का एकांत समुदित स्वरूप प्रधान हो जाता है। जिससे उन सारे एकांतों की गौणता स्वतः बन जाती है। क्योंकि ये सारे एकांत स्वयं में प्रधान बने रहने के कारण वस्तु के समग्र स्वरूप के बोधक नहीं बन पाते हैं। अनेकांत का तो आशय ही होता है। परस्पर सापेक्ष एकांतों का समुदित स्वरूप किंतु इन एकांतों को जब अलग-अलग निरपेक्ष रूप में देखा जाता है, तब इन्हें 'नय संज्ञा से अभिहित किया जाता है। वस्तु तत्व के एक-एक अंश का बोध कराने वाली उसकी अभिव्यंजना करने वाला ज्ञान शक्ति को नय कहा जाता है। नय जैन दर्शन का प्रमुख पारिभाषिक शब्द है। जो वस्तु का बोध कराते हैं, वे नय है । प्रत्येक पदार्थ अनंत धर्मात्मक है। पदार्थ के उन समस्त धर्मों का यथार्थ और प्रत्यक्ष ज्ञान केवल सर्व ही कर पाता है । पर सामान्य मनुष्य में सामर्थ्य नहीं है। सामान्य मानव एक समय कुछ धर्मों का ही ज्ञान कर पाता है। यही कारण है कि उसका ज्ञान आंशिक है। आंशिक ज्ञान को नय कहते हैं। यह स्मरण ही रखना होगा कि प्रमाण और नय ये दोनों ज्ञानात्मक है। किंतु दोनों में अंतर यह है कि प्रमाण संपूर्ण वस्तु का परिज्ञान कराता है तो नय वस्तु के एक अंश का बोध कराता है। इसी संदर्भ में यह तथ्य ज्ञातव्य है कि वक्ता के अभिप्राय की दृष्टि से नय का लक्षण इस प्रकार है - विरोधी धर्मों का निषेध न करते हुए वस्तु के एक अंश या धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञाता का अभिप्राय 'नय' है । दूसरे शब्दों में अनेकांतात्मक पदार्थ में विरोध के बिना हेतु की मुख्यता से साध्य विशेष यथार्थता को प्राप्त कराने में समर्थ शब्द प्रयोग 'नय' है। हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्त ज्योति 44 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति EnKPers Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जितने वचन के प्रकार है, उतने ही नय है । इस तरह नय के अनंत भेद हो सकते है। तथापि उनका समाहार और समझने की सरलता की दृष्टि से उन सब वचन पक्षों को अधिक से अधिक सात भेदों में विभाजित कर दिया है । ये सातों ही नय पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर विशुद्ध होते चले गये है। परस्पर विरूद्ध होते हुए भी नय एकत्र होते हैं और सम्यक्त्व भाव को प्राप्त करते है । किंतु जब ये नय परस्पर निरपेक्ष एवं एकांतवादी होकर स्वाग्रहशील हो जाते हैं, तब ये दुर्नय अर्थात नयाभास कहलाते है और जब ये नय सापेक्षवाद अर्थात स्याद्वाद से मुद्रित हो जाते है। तब ये नय सुनय कहलाते है। इस समस्त सुमिलित - सुनयों से 'स्याद्वाद' सिद्धांत बनता है। इसी संदर्भ में स्पष्ट रूपेण यह ज्ञातव्य है कि नय 'ज्ञानांश' या प्रमाण भी कहा जाता है। अगाध, अपार महासागर की अथाह जलराशि में से एक चुल्लू पानी निकाल कर कोई पूछे वह सागर है क्या ? इस के उत्तर में यही कहा जायेगा कि चुल्लू में भरा जल, न तो समुद्र है और न ही समुद्र से भिन्न है, अपितु सागर का एक अंश है। यही स्थिति 'नय' के विषय में मानी जा सकती है। जब नय समूह या कोई भी एक नय दूसरे नय की अपेक्षा रखता हुआ स्वयं की अभिव्यक्ति करता है तब वह प्रमाण की कोटि में आ जायेगा अर्थात वह प्रमाणांश होगा। अंतर केवल यही होता है कि दूसरे नयों से सापेक्षता का भाव जब किसी नय समूह में होता है, तब वह नय समूह यदि किसी वस्तु-विशेष की समग्रता का अभिव्यंजक हुआ तब तो उसको 'प्रमाण' ही मान लिया जायेगा। किंतु वह नय समूह, समूह होता हुआ भी एक नय की अपेक्षा से प्रमाणांश ही माना जायेगा। इसी तरह एक-एक नय भी दूसरे नयों की सापेक्षता के संदर्भ में प्रमाणांश कहे जाते है। आशय यह है कि अनेकांत द्वारा समग्र वस्तु स्वरूप का बोध होता है, तो नय के द्वारा वस्तु के अंश का बोध होता है। बाद में यही एक-एक अंश बोध जब पदार्थ के संपूर्ण अंशों के बोध तक पहुंच जाता है, यानी वस्तु के जब सारे अंशों को नय के द्वारा एक-एक करके जान लिया जाता है तब उन समस्त विभिन्न नयों द्वारा गृहीत बोध समूह को, पारस्परिक सापेक्षता के साथ जब तक एकरूपता प्राप्त नहीं हो पाती, तब तक वह सारा नय बोध, वस्तु अंश का बोधक होता है। अनेकांत के अनुसार नय का उपयोग और महत्व इसलिये है कि वह वस्तु स्वरूप का सूक्ष्मांश भी ग्रहण करता है। अतएव जब भी किसी समग्र पदार्थ के खण्ड विशेष का परिबोध अंशत: उसका यथा तथ्य प्रतिपादन नितांत अपेक्षित हो, तब नय ही इस अपेक्षा की संपूर्ति करता है। सप्तभंगी की परिकल्पना का अभिप्राय वस्तु मात्र में भिन्न-भिन्न परस्पर विरोधी धर्मों का सामंजस्य पूर्ण समन्वय सिद्ध करना रहा है। अति स्पष्ट है कि सप्तभंगी स्याद्वादवाद सिद्धांत तब उस सप्तभंगी किसी वस्तु विशेष के गुण पर्याय आदि को लक्ष्य करके उसके स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव पर आधारित होगी। तब उसे नय सप्तभंगी कहा जायेगा। यद्यपि सप्तभंगी के प्रयोग सूक्ष्मता से निरीक्षण किया जाए तो सहज ही ज्ञात हो जाता है इसके कुछ भंग तो पदार्थ के समग्र स्वरूप के विवेचन होने के कारण प्रमाण परक माने जा सकते है, तथा कुछ भंग आंशिक स्वरूप के विवेचक होने के कारण नय परक कहे जा सकते हैं। यथार्थतः तो सप्तभंगी में प्रमाण नय परक भेद नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि इस भेद कल्पना से विषय वस्तु को समझने में सामान्यतः विरोध का प्रसंग बन सकता है। पदार्थ स्वरूप यथार्थतः अनेकांतात्मक है। इसकी अनेक धर्मात्मकता का अभिप्राय होता है - धर्मों का समूह और समूह एक-एक इकाई की समुदित अवस्था को कहा जाता है। अर्थात अनेकांत का अर्थ होता है एकांतों का समूह। इस तरह अनेकांतात्मक पदार्थ स्वरूप को समस्त अंतों अर्थात धर्मों का समूह भी कहा जा सकता है। ऐसा प्रतिपादन सिद्धांततः न करने के मूल में यह आशय है एक-एक एकांत जब अलग-अलग पड़ें हों यानी कि वे परस्पर विरपेक्षा रह रहे हों तब उन सारे एकांतों का जो समुदित रूप से कथन किया जायेगा। का संलक्ष्य अनेकांतवाद की यर्थाथता और सार्थकता सिद्ध करना रहा है। प्रत्येक पदार्थ अनंत धर्मात्मकता के बिना सत्ता में नहीं रह सकता, जगत की यह वास्तविकता है। किंतु इस महत्वपूर्ण तथ्य को उजागर करने में सबसे बड़ी बाधा यह आती रही है कि उन अनंत धर्मों का निर्वचन इस तरह नहीं किया जा सकता है कि पदार्थ का समग्र स्वरूप एक साथ सुस्पष्ट हो सके। इसलिये इन सारे धर्मों का क्रमिक विवेचन में परस्पर समन्वय बनाये रखने की भावना से ओत-प्रोत मन बुद्धि ने स्याद्वाद एवं सप्तभंगी को जन्म दिया होगा यह समझना चाहिए। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 45 Amrinatale हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन गंथा सार पूर्ण भाषा में यही कहा जा सकता है कि स्याद्वाद सिद्धांत का महान आदर्श है - सत्य अनंत। हम अपने इधर-उधर, चारों ओर से जो कुछ भी देख जान पाते हैं, वह सत्य का संपूर्ण रूप नहीं है। प्रत्युत सत्य का स्फुलिंग है, अंशमात्र है। अतएव स्याद्वाद सम्मत विचार धारा मानव के सत्य दर्शन के लिये आंखें खोल सब ओर देखने की दूरगामी सप्राण प्रेरणा देती है। उक्त सिद्धांत का उन्मुक्त आघोष है कि जितनी भी वचन पद्धति है, कथन के प्रकार है। उन सबका संलक्ष्य 'सत्य' के दर्शन कराना है। सब अपने-अपने दृष्टि-बिन्दु से सत्य की व्याख्या करते है। परंतु उन के कथन में अवश्य भेद है। स्याद्वाद सिद्धांत की सतेज आंख से ही उन तथ्यांशों के प्रखर प्रकाश को देखा और समझा जा सकता है। वास्तविकता यह है कि स्याद्वाद सत्य का सजीव भाष्य है। यह सत्य एवं तथ्य की शोध करने और पूर्ण सत्य की मंजिल पर पहुंचने के लिये प्रकाशमान महामार्ग है। स्याद्वादमयी कथन प्रणाली सब दिशाओं से उदघाटित हुआ अति दिव्य मानस नेत्र है, जो अपने आप से ऊपर उठकर दूर दूर तक के तथ्यों को देख लेता है। पदार्थ स्वरूप पर अनेक दृष्टि बिंदुओं से विचार कर के चौमुखी सत्य को आत्मसात् करने का प्रयास करता है। अतएव स्याद्वाद संगत दृष्टिकोण सत्य का दृष्टिकोण है। शांति का दृष्टिकोण है, जन हित का दृष्टिकोण है और सह अस्तित्व के इस अमृत वर्षण में ही स्याद्वाद सिद्धांत की अनुपम उपादेया संनिहित है। यही इस की शिरसिशेखरायमाण विशेषता है। संदर्भ 1. न्यायदीपिका-3/57 बृहद्नयचक्र - 70 3. पंचाध्यायी, पूर्वार्ध - 262-263 न्यायदीपिका -3/76 5. क. स्वयम्भू स्तोत्र 22-25 ख. पंचाध्यायी पूर्वार्ध 42-44 6. क. धवला 1/1-111 ख. श्लोक वार्तिक 1/1.1, 127 7. राजकार्तिक-1/6/14/37 8. धवला 15/25/1 क. स्वयम्भू स्तोत्र 103 ख. बृहनय चक्र- 181 ग. श्लोक वार्तिक - 2/1,6, 56 10. आप्त मीमांसा -1/14 11. सप्तभंगी तरंगिनी-23/1 12. अष्टसहस्री टिप्पणी, पृष्ठ-286 13. श्लोक वार्तिक 2/1/6 14. सप्तभंगी तरंगिनी -30/1 15. धवला, 13/5,4,26 16. स्वयम्भू स्तोत्र टीका - 134 17. समयसार तात्पर्याख्य वृत्ति - 513 18. स्याद्वादमंजरी - 23 19. आत्म मीमांसा - 15 20. क. प्रमाण नय तत्वालोकालंकार -4 ख. सप्तभंगी तरंगिनी- पृष्ठ 1 ग. तत्वार्थ राजवार्तिक 1,6, 5 घ. भगवती सूत्र -श. 12, 3010 प्र. 19-20 ङ. विशेषावश्यक भाव्य गाथा -2232 21. स्याद्वाद मंजरी -7 22. स्वयंभू स्तोत्र -25 23. सप्तभंगी तरंगिनी-9 24. प्रमाणनय तत्वारत्नावतारिका-4/43 25. क. स्थानांग सूत्र वृति - 4/4/345 ख. तत्वार्थ भाष्यानुसारी टीका - पृष्ठ 415 26. उत्तराध्ययन सूत्र, चूर्णि-234 27. प्रमेमय कमल मार्तण्ड - पृष्ठ 676 28. सर्वार्थसिद्धि -1/33 29. सन्मति तर्क गाथा -47 30. क. अनुयोगद्वार सूत्र-156 ख. प्रज्ञापना सूत्र-स्थान-7/552 ग. स्थानांग सूत्र-पद-16 31. क. नयकर्णिका -19 पृष्ठ 48 ख, तत्वार्थ राजवार्तिक - 136 ग. शेषावश्यक भाव्य गाथा-226 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 46 हेमेन्द ज्योति* हेगेन्य ज्योति MEnabaleion PhaRPer Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ अहिंसा का दर्शन : जीवन का निदर्शन) आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्रमुनिजी म.सा. के अन्तेवासी -दिनेश मुनि अहिंसा हमारे जीवन का मूल आधार है। व्यक्ति ने विश्वबन्धुत्व की ओर जो मुस्तैदी से कदम बढ़ाया है उसके अन्तः स्थल में अहिंसा की भव्य भावना ही रही है। मानव के उच्चतम आदर्शों का सही मूल्यांकन अहिंसा के द्वारा ही सम्भव है। हिंसा, विनाश, अधिकारलिप्सा, पदलोलुपता और स्वार्थान्धता से परिपूर्ण मानव को अहिंसा ही सही मार्ग दिखला सकती है। अहिंसा के द्वारा ही मानव जन-जन के मन में प्रेम का संचार कर सकता है। बिना अहिंसा के मानव न स्वयं को पहचान सकता है और न दूसरों को ही। जीवन के निर्माण के लिए अहिंसा बहुत ही आवश्यक है। विश्व में जितने भी महापुरुष हुए जिन्होंने अपना आध्यात्मिक समुत्कर्ष किया, वे सभी अहिंसा के मार्ग पर चलकर ही आगे बढ़े थे। अहिंसा ने इन्सान को भगवान बनाया। प्रेम के देवता महात्मा ईसा ने एक स्थान पर कहा है - हे मानव ! यदि तू मंदिर में प्रार्थना के लिए जा रहा है और अन्तर्मानस में किसी के प्रति द्वेष की भावना रही है तो तू मंदिर में जाने से पूर्व उस व्यक्ति के पास जा जिसके प्रति तेरे मन में दुर्भावनाएँ पनप रहीं हैं, उससे अपराध की क्षमा माँग। इतना ही नहीं यदि तेरे एक गाल पर कोई एक चांटा मार दे तो तू दूसरा गाल भी उसके सामने कर दे। यह अहिंसा की उदात्त भावना है जो विरोध को भी विनोद के रूप में परिवर्तित कर देती है। अहिंसा जैनधर्म और जैन दर्शन का मूल आधार है। जैनधर्म का नाम स्मरण आते ही अहिंसा का सहज स्मरण हो आता है। जैनधर्म ने आध्यात्मिक उन्नति के लिए सर्वप्रथम स्थान अहिंसा भगवती को दिया है। सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह जो व्रत हैं उन सभी व्रतों का मूल आधार अहिंसा है। जहां पर अहिंसा है वहाँ पर ही अन्य व्रत पनपते हैं, फलते और फूलते हैं। अहिंसा को छोड़कर कोई भी व्रत नहीं रह सकता। जैनधर्म ने ही नहीं अपितु विश्व के जितने भी धर्म और दर्शन हैं उन सभी ने अहिंसा के पथ को अपनाया है। यह भी सत्य है कि सभी समान रूप से उसका विश्लेषण नहीं कर सके। कितने ही धर्म और दर्शन वाले मानव तक ही अपने चिन्तन को रख सके। उनकी दया मानव दया तक सीमित रही। उनकी अहिंसा की परिभाषा में मानव की सुरक्षा है तो कितने ही दार्शनिकों ने मानव से भी आगे बढ़कर पशु-पक्षियों की हिंसा से विरत रहने का सन्देश दिया किन्तु जैनधर्म तो उससे भी आगे बढ़ा। उसने पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में जीव मानकर उनकी रक्षा करने पर भी बल दिया। आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व भगवान महावीर ही ऐसे एक महापुरुष हुए जिन्होंने स्पष्ट शब्दों में इन सबकी हिंसा से बचने का सन्देश दिया है। हम आचारांग सूत्र को उठाकर देखें वहां भगवान महावीर की वाणी स्पष्ट रूप से झंकृत हुई है कि बिना अहिंसा की भावना को विकसित किये कोई भी साधक आध्यात्मिक उत्कर्ष को प्राप्त नहीं हो सकता। अहिंसा एक गंगा है। पौराणिक काल में गंगा के लिए भारत के मर्धन्य मनीषियों ने एक कमनीय कल्पना की है। उन्होंने गंगा की तीन धाराएं मानी हैं, उसकी एक धारा स्वर्गलोक में है, दूसरी धारा मानवलोक में है और तीसरी धारा पाताललोक में है। उन्होंने बतलाया गंगा अपवित्र को पवित्र बनाती है। उसमें जो डुबकी लगाता है वह पाप के मल से मुक्त हो जाता है। स्वर्गलोक के निवासियों को पाप से मुक्त करने के लिए गंगा की धारा ऊर्ध्वलोक में है जो आकाश गंगा के नाम से विश्रुत है, पाताल निवासियों के लिए पाताल गंगा की कल्पना है और भूतल निवासियों के लिए भूतल पर गंगा बह रही है। अहिंसा रूपी गंगा की भी तीन धाराएँ हैं। एक धारा मन लोक में प्रवाहित हो, दूसरी धारा वचन में तो तीसरी धारा काय लोक में। जब तीनों लोक में यानि मन, वचन, काया में अहिंसा की धारा प्रवाहित होती है तो तीनों लोक पावन बन जाते हैं। यदि इन्सान देवत्व को प्राप्त करना चाहता है तो उसे अहिंसा की गंगा में अवगाहन करना होगा तभी वह आत्मा से महात्मा और महात्मा से परमात्मा पद को प्राप्त कर सकता है। हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 47 ) हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द ज्योति Ji E nabali Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन गंथा मानव की एक बड़ी विडम्बना रही है कि वह अपनी समस्याओं का समाधान अपने अन्दर न खोज कर बाहर खोजता है। वह पाप पंक से मुक्त होना चाहता है। वह सोचता है कि तीर्थों में स्नान करने से मैं पाप मैल से मुक्त हो जाऊँगा। पर प्रश्न यह है कि पाप का मैल आत्मा पर लगा है तो वह तीर्थ स्नान करने से किस प्रकार मिट सकेगा। जैनधर्म का यह वज़ आघोष है कि तीर्थों में जाकर या तीर्थ में स्नान करके तुम पाप से मुक्त नहीं बन सकते। उसके लिए तो तुम्हें अपने अन्दर ही अहिंसा भगवती की पतित पावनी गंगा की निर्मल धारा में डुबकी लगानी होगी। तुम्हारी आत्मा में अहिंसा, प्रेम और सन्तोष की पवित्र धाराएँ बह रही हैं। उन धाराओं में अवगाहन करें। तभी तुम पाप से मुक्त बन सकते हो। एक वैदिक महर्षि ने कहा है "आत्मा एक नदी है उस नदी में संयम का पवित्र जल भरा पड़ा है, ब्रहमचर्य उस नदी के शक्तिशाली तट है इसके जल में स्नान करना चाहिए। अहिंसा और सत्य की गंगा में स्नान करने से आत्मा की विशुद्धि होती है। आत्मा की विशुद्धि के लिए अहिंसा बहुत ही आवश्यक है। जल से तन शुद्धि हो सकती है परन्तु मन और आत्मा नहीं।" इस विराट विश्व में जितने भी प्राणी हैं उन सभी की एक ही भावना और कामना है। हम जीऐं किन्तु मरें नहीं। सभी जीव जीना चाहते हैं, कोई भी जीव मरना नहीं चाहता। इसीलिए जैन धर्म ने ये स्वर बुलन्द किया कि “जीओ और जीने दो।" स्वयं भी आनंद से जीओ, और दूसरों को भी आनंद से जीने दो। तुम किसी प्राणी को जीवित नहीं कर सकते तो तुम्हें किसी प्राणी को मारने का भी अधिकार नहीं है। अहिंसक व्यक्ति किसी भी प्राणी को सताता नहीं, स्वयं कष्ट सहन कर लेता है पर वह दूसरों को कष्ट नहीं देता। उसके अन्तर्मानस में वसुधैव कुटुम्बकम् की भव्य भावना लहलहाती है जिससे वह किसी भी प्राणी को मन, वचन और काया से कष्ट नहीं देता है। वह सदा दूसरों को सुखी बनाने का प्रयास करता है। सभी जीव सुखी बनें, कोई भी कष्टयुक्त जीवन न जीये यही उसकी मंगल भावना होती है। अहिंसा साक्षात् परम ब्रह्म है। जो साधक अहिंसा की उपासना करता है वह सद्गुणों की उपासना करता है। उसके जीवन में सद्गुणों के सुमन खिलते हैं, महकते हैं। जिसकी सुमधुर सौरभ से जन-जन का मन आल्हादित होता है। अहिंसा की सही परीक्षा ग्रन्थों को पढ़ने से नहीं होती, उसकी परीक्षा होती है आत्मचिन्तन से। जब कभी भी उसके जीवन पर आपत्ति के काले बादल मंडराते हैं तब वह दूसरों पर दोष न मंढ़कर यह सोचता है कि मेरे अशुभ कर्म के कारण ये कष्ट आये हैं। दूसरे व्यक्ति तो निमित्त हैं वस्तुतः इसका मूल कारण मेरा उपादान ही है। फिर मैं रागद्वेष कर क्यों नये कर्मों का अनुबन्धन करूँ। अहिंसक साधक यह सोचता है कि जो वस्तु मुझे प्रिय नहीं है वह दूसरों को कैसे प्रिय होगी। जो मेरे को प्रतिकूल है वह दूसरों को भी प्रतिकूल है। इसीलिए वह दूसरों के साथ बहुत ही मधुर व्यवहार करता है। उसका प्रत्येक व्यवहार दूसरों को शांति प्रदान करने वाला होता है। प्रतिकूल व्यवहार का मूल कारण है काषायिक वृत्तियों, रागद्वेषयुक्त प्रवृत्तियाँ जिनके कारण व्यक्ति दूसरों के साथ सद्व्यवहार नहीं कर पाता पर जिसके जीवन अहिंसा का विराट सागर तरंगित हो रहा हो वह स्व और पर के भेद को भूलकर सभी के साथ ऐसा व्यवहार करता है जिसमें विनय और विवेक का प्राधान्य होता है स्नेह और सद्भावना का साम्राज्य होता है। आज जो द्वेष का दावानल धूं-धूं कर सुलगने के लिए ललक रहा है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को नष्ट करने पर तुला हुआ है। उसका हल अहिंसा है। भगवान् महावीर ने मानव को संदेश दिया कि मानव तू स्व की सीमा में ही संतुष्ट रह, पर की सीमा में प्रविष्ट न हो। जब मानव पर की सीमा में प्रविष्ट होता है तभी वह दूसरों के साधनों को प्राप्त करने के लिए लालायित होता है। उन्हें छीनने का दुस्साहस करता है। यही संघर्ष का मूल है। जैसे सरिता की सरस धाराएँ अपनी मर्यादा में रहती है तब तक उन धाराओं से सभी का लाभ होता है पर जब वे धाराएँ सीमा का उल्लंघनकर आस-पास के प्रदेश पर अधिकार जमाना चाहती हैं तब बाढ़ का रूप धारण कर लेती हैं और सर्वत्र हा-हाकार मच जाता है। यही दृश्य मानव का है। जब मानव स्वयं में रहता है तब तक शांति की सुरसरिता प्रवाहित होती है और जब वह स्वयं की सीमा विस्मृत होकर दूसरों के अधिकार को हड़पना चाहता है। तब विग्रह का वातावरण पैदा होता है। अहिंसा व्यक्ति को स्व की सीमा में केन्द्रित करती है। अहिंसक व्यक्ति अपने आप में सीमित रहना चाहता है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 48 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति RPoliguransruspicive analbraryana Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ यह भी स्मरण रखना होगा कि जैनधर्म की अहिंसा कायरों की अहिंसा नहीं है। अहिंसक व्यक्ति वीर होता है।, कायर नहीं। वह आत्म-रक्षा के लिए उचित प्रतिकार भी करता है। भगवान महावीर के अनेक राजा भक्त थे। वे सुचारू रूप से राज्य का संचालन करते थे। भगवान महावीर ने उनकों यह संदेश दिया था कि आवश्यकता से अधिक शस्त्र और अस्त्रों का संग्रह न करो। आवश्यकता से अधिक संग्रह व्यक्ति को उद्दण्ड और बेलगाम बनाता है। जैन तीर्थंकरों ने कभी भी युद्धों का समर्थन नहीं किया। उन्होंने युद्धों में मरने वालों को मोक्ष भी नहीं माना। वे नरसंहार को उचित नहीं मानते। उन्होंने सदा हिंसा का विरोध किया और अहिंसा का समर्थन किया। अहिंसा विश्व शांति का सर्वश्रेष्ठ साधन है जिसकी अमोघ शक्ति के सामने संसार की समस्त संहारक शक्तियां कुण्ठित हो जायेंगी। आज मानव तन से सन्निकट होता जा रहा है। वैज्ञानिक साधनों की प्रचुरता से क्षेत्र की दूरी सिमटती चली जा रही है। पर परिताप है कि मानव में स्नेह और सद्भावना की गंगा भी सूखने लगी है, अभय और मैत्री का उपवन मुर्झा रहा है, भय, छल, छद्म और धोखाधड़ी के कंटीले झाड़ झंखड़ उसके स्थान पर उत्पन्न हो रहे है। प्रत्येक देश की शक्ति अणु अस्त्रों के निर्माण में लग रही है। आज इतने अणु शस्त्र तैयार हो गये हैं कि वर्तमान में जो सम्पूर्ण सृष्टि दिखलाई दे रही है वह एक बार नहीं, अनेक बार उन शस्त्रों से नष्ट की जा सकती है। आज संसार महाविनाश की कगार पर खड़ा है। तृतीय विश्व युद्ध कब हो जाय, कहा नहीं जा सकता। बड़े-बड़े राष्ट्रनायक भी चिन्तित हैं। ऐसी भयाक्रान्त स्थिति में शान्ति और विश्वास का वातावरण निर्माण करने की शक्ति अहिंसा में ही रही हुई है। अहिंसा की शक्ति से ही विश्व में शान्ति का संचार हो सकता है। प्रेम, सद्भाव और सहयोग के सुगन्धित सुमन खिल सकते हैं आचार्य समन्तभद्र के शब्दों में कहा जाये तो "अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परम्" अर्थात् अहिंसा ही प्राणियों के लिए परम ब्रह्म या परम संजीवनी शक्ति है। ऋग्वेद में ऋषि ने लिखा है - जो व्यक्ति किसी को राक्षस भाव से नष्ट करना चाहता है वह स्वयं अपने द्वारा किये गये पापों द्वारा ही खत्म हो जाता है। यजुर्वेद में कहा है तू अपने शरीर से किसी को भी पीड़ित न कर । अर्थवेद के ऋषि के शब्दों में कहा जाये तो वे क्रान्तदर्शी हैं जो ऐश्वर्यशाली होकर भी किसी भी प्राणी को पीड़ित I नहीं करते अहिंसा जीवन का शाश्वत मूल्य है, वह सार्वभौम तत्व है जो पूर्ण वैज्ञानिक है। । | जैन दर्शन की अहिंसा निष्क्रिय अहिंसा नहीं अपितु वह विधेयात्मक है उसमें विश्व बन्धुत्व, परोपकार आदि की निर्मल भावनाएँ तरंगित हो रही है। जैन आगम प्रश्नव्याकरण में अहिंसा के साठ नाम दिये है उसमें दया, अभय, रक्षा आदि ऐसे नाम हैं जो अहिंसा के विधेयात्मक पक्ष को उजागर करते हैं। भाषा शास्त्र की दृष्टि से अहिंसा शब्द निषेधवाचक है जिससे व्यक्ति भ्रम में पड़ जाते हैं कि अहिंसा केवल निवृत्तिपरक ही है, उसमें प्रवृत्ति को कोई स्थान नहीं। पर गहराई से चिन्तन करने पर यह स्पष्ट होता है कि उसके दोनों पहलु हैं, प्रवृत्ति और निवृत्ति इन दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। उसमें एक से निवृत्ति है तो दूसरे में प्रवृत्ति भी है। अहिंसा के ये दोनों पहलु हैं। नहीं मारना यह अहिंसा का ही एक पहलु है। मैत्री, करुणा, दया और सेवा यह अहिंसा का दूसरा पहलु है। यदि हम अहिंसा के केवल नकारात्मक पहलु को ही समझते हैं तो वह अहिंसा की अपूर्ण परिभाषा होगी। अहिंसा की परिभाषा नकारात्मक और विधेयात्मक दोनों रूप मिलकर होती है। अहिंसा से सम्पूर्ण जीवों के साथ मैत्री स्थापित करना, उन जीवों की सेवा शुश्रूषा करना, उन्हें कष्ट से मुक्त करना भी आवश्यक है। जैनधर्म और दर्शन में अहिंसा के संबंध में बहुत गहरा चिन्तन है। विविध दृष्टियों से उन्होंने उस पर चिन्तन किया है। एक दृष्टि से हिंसा के दो प्रकार है। एक द्रव्य हिंसा है तो दूसरी भाव हिंसा है। द्रव्य हिंसा वह है जो स्पष्ट रूप से दिखलाई देती है और भावहिंसा वह है जो ऊपर से भले ही हिंसा के रूप में दिखलाई न देती हो किन्तु अन्तर्मानस में द्वेष पनप रहा हो। क्रोध, मान, माया और लोभ के बवण्डर उठ रहे हों, जो दूसरों के जीवन को नष्ट करना चाहता हो वह भाव हिंसा है। भाव हिंसा सर्वप्रथम हिंसा करने वाले का ही विनाश करती है। दियासलाई दूसरों हेमेलय ज्योति हेगेल ज्योति 49 हेमेजर ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ को जलाने के लिए जाती है पर दूसरों का वह विनाश करे या न करें, पर जिसके मन में ये दुर्भावना उत्पन्न होती हैं, उत्पन्न होते ही वह उस आत्मा का तो पतन कर ही देती है भाव हिंसा हमारे सद्गुणों को जलाकर नष्ट कर देती हैं। वह ऐसी ही अग्नि है। पहले भाव हिंसा होती है उसके पश्चात् द्रव्य हिंसा । यदि द्रव्य हिंसा किसी कारणवश न भी हो तो भी भाव हिंसा तो हो ही जाती है। यही कारण है कि भारत के तत्वदर्शियों ने भाव हिंसा पर चिन्तन करते हुए कहा है कि यह हिंसा सबसे अधिक खतरनाक है। यह हमारे जीवन का पतन करती है यह वह घुन है जो हमारी साधना को खोखला कर देती है। यह द्रव्यहिंसा की जननी है। यदि माँ नहीं हो तो बेटी नहीं हो सकती। भावहिंसा के बिना द्रव्यहिंसा कदापि सम्भव नहीं । भावहिंसा और द्रव्यहिंसा को समझाने के लिए हमारे पुराने सन्त एक उदाहरण देते हैं। एक रूग्ण व्यक्ति किसी डॉक्टर के पास पहुँचा। उसका चेहरा मुर्झाया हुआ था उसकी शारीरिक भाव भंगिमा से यह स्पष्ट हो रहा है कि उसके जीवन में निराशा का साम्राज्य है। उस रूग्ण व्यक्ति ने चिकित्सक के हाथ में पचास हजार के नोट थमाते हुए कहा यदि मैं आपकी चिकित्सा से स्वस्थ हो गया तो पच्चीस हजार के नोट आपको दूँगा और यदि मैं मर गया तो आप ये पचास हजार के नोट अपने पास रख लीजियेगा । चिकित्सक ने सोचा कि यह रोगी जीवित रहेगा तो मुझे सिर्फ पच्चीस हजार की राशि मिलेगी और यदि मर गया तो पचास हजार की राशि मिलेगी। उसने रूग्ण व्यक्ति को पॉयजन का इन्जेक्शन लगा दिया और पीने के लिए भी जहरयुक्त दवा दी। उस रोगी के रोग को नष्ट करने के लिए पॉयाजन की ही आवश्यकता थी । "विशस्यविशयमोषधम् के अनुसार वह रुग्ण व्यक्ति पूर्ण स्वस्थ हो गया वह चिकित्सक की मुक्त कंठ से प्रशंसा करने लगा। धन्य है आपकी बुद्धि को धन्य हैं आपकी चिकित्सा पद्धति को जिससे में एक दिन में स्वस्थ हो गया। रुग्ण व्यक्ति ने पच्चीस हजार चिकित्सक को दिये और उसकी प्रशंसा करता हुआ चल दिया। प्रस्तुत उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि चिकित्सक ने रुग्ण व्यक्ति की हिंसा नहीं की पर उसकी भावना रूग्ण व्यक्ति को मारने की ही थी। भाव हिंसा होने पर भी द्रव्य हिंसा नहीं हुई सामान्य व्यक्तियों की दृष्टि से डॉक्टर सही है पर अनन्तज्ञानियों की दृष्टि से डॉक्टर हिंसक है। उससे द्रव्य हिंसा नहीं हुई किन्तु भावहिंसा अवश्य हुई। रोगी स्वस्थ हो गया। परन्तु डॉक्टर को तो हत्या का पाप लग ही गया। डॉक्टर के मन में हिंसा की भावना पैदा हुई जिसके फलस्वरूप वह हिंसा के पाप का भागी बना भले ही डॉक्टर रोगी को न मार सका किन्तु इस दुर्भावना के कारण अपने आप को मार ही दिया। वह अपने कर्तव्य से पतित हो गया। उसने अपने गुणों का नाश किया। एतदर्थ ही महापुरुषों ने हमें यह सन्देश दिया कि भाव हिंसा से तुम सदैव बचो किसी का जन्म और मरण तुम्हारे हाथ में नहीं है तथापि तुम व्यर्थ किसी को मारने की दुर्भावना क्यों रखते हो? हिंसा तभी होती है जब अन्तर्मानस में क्रोध के भाव पनप रहें हों, अहंकार का सर्प फुत्कार मार रहा हो, माया और लोभ के विषैले कीटाणु पनप रहें हों, रागद्वेष और घृणा के दुर्भाव आ रहे हों। यही प्रमत्त योग है। इसी से व्यक्ति अन्य प्राणियों को सताता है, उन्हें कष्ट देता है। इस प्रकार हिंसा का मूल आधार कषाय भाव है। कषाय के अभाव में द्रव्य हिंसा हो सकती है पर भावहिंसा नहीं। | हमारे गुरुजन द्रव्य हिंसा को समझाने के लिए भी रूपक की भाषा में कहते है एक व्यक्ति बहुत अधिक रूग्ण हे । वह एक बार डॉक्टर के पास पहुँचा। डॉक्टर ने परीक्षण के पश्चात् उसे कहा तुम्हारे पेट में ग्रन्थि है। उसका ऑपरेशन करना होगा। ग्रन्थि बहुत ही खतरनाक है, मेरा यही प्रयास रहेगा कि तुम सदा के लिए स्वस्थ हो जाओ। डॉक्टर ऑपरेशन करता है, उससे अन्तर्मानस में करुणा का सागर लहलहा रहा है। वह जी जान से यह प्रयास करता है कि रोगी ठीक हो जाये, पर ऑपरेशन के दौरान ही रोगी ने सदा के लिए आँखें मूंद लीं । रुग्ण व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर उसके सारे अभिभावक उत्तेजित हो गए। वे कहने लगे कि यह डॉक्टर हत्यारा हेमेन्द्र ज्योति हमे ज्योति 50 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ है, इसने रोगी को मार दिया। डॉक्टर की सर्वत्र बदनामी होती है। सामान्य जनता की दृष्टि से वह डॉक्टर हत्यारा है किन्तु ज्ञानी उसे हत्यारा नहीं मानते। डॉक्टर के द्वारा द्रव्य हिंसा होने पर भी भावहिंसा नहीं थी । वह अपनी ओर से रूग्ण व्यक्ति को स्वस्थ बनाने का प्रयास कर रहा था इसलिए द्रव्य हिंसा होने पर भी भाव हिंसा नहीं है। तुलनात्मक दृष्टि से जब हम प्रश्न पर चिन्तन करते है तो सूर्य के प्रकाश की भांति यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि कहीं पर भाव हिंसा भी नहीं होती। इस चतुर्भंगी के द्वारा ज्ञानियों ने यह स्पष्ट किया है कि कहीं पर बाह्य हिंसा होते हुए भी मानव अहिंसक है तो कहीं पर बाह्य दृष्टि से अहिंसक दिखलाई देने पर वह हिंसक है। अहिंसा अव्यवहारिक नहीं है अपितु जीवन में भव्य - भावना को जागृत करती है। यदि जीवन काषायिक वृत्तियों से मुक्त बन जाए तो जीवन का कायाकल्प हो जाए। जीवन में जितनी हिंसावृत्ति कम होगी उतना ही जीवन पवित्र और निर्मल होगा। किसी को कष्ट न पहुँचाना, सभी को सुख और शान्ति पहुँचाना अहिंसा है। अहिंसा के दो प्रकार हैं- अनुग्रहरूप अहिंसा और दूसरा निग्रहरूप अहिंसा । यहाँ पर यह सहज ही जिज्ञासा हो सकती है कि अनुग्रह अहिंसा की बात तो समझ में आती है पर निग्रह अहिंसा कैसे ? उसमें तो दण्ड आदि दिया जाता है। उत्तर में निवेदन है अहिंसा का सम्बन्ध भावना से है। आचार्य धर्म संघ का पिता है। वह अपने शिष्यों को साधना के महामार्ग पर बढ़ने के लिए उत्प्रेरित करता है। प्रेम के साथ वह मार्गदर्शन देता है। यदि कोई साधक मर्यादा का अतिक्रमण करता है तो वह उसे सचेत करता है यदि वह आचार्य के द्वारा सचेत किये जाने पर भी स्खलनाओं से मुक्त नहीं होता तो आचार्य उस साधक को दण्ड भी देता है। उसका दण्ड देना हिंसा नहीं है क्योंकि आचार्य के अन्तर्मानस में उस साधक के प्रति अपार स्नेह है। आचार्य के द्वारा दिया गया दण्ड हिंसा न होने का कारण है कि आचार्य में द्वेष नहीं होता है अपितु आत्मशुद्धि की भावना है जब तक साधक दोषों की शुद्धि नहीं करता तब तक उसका विकास नहीं हो सकता। निग्रहरूप अहिंसा साधक को महानता के शिखर पर पहुँचाती है। निग्रहरूप अहिंसा को हम जरा और अधिक स्पष्ट करें निग्रह का अर्थ दण्ड है। वह दण्ड हिंसा है एक गृहस्थ साधक ने श्रावक के बारह व्रत ग्रहण किये है। वह राजा है। उसके राज्य पर किसी अन्य राजा ने आक्रमण कर दिया है। उस समय व्रतधारी श्रावक राजा क्या करें ? क्या वह अपना कर्तव्य समझकर अत्याचारी आक्रमण का सामना करता है और देश पर हो रहे अत्याचारों को मिटाता है। इस कार्य में हिंसा होती है पर उस हिंसा के पीछे अत्याचार को रोकना मुख्य है अत्याचारी का प्रतिकार करने के लिए उसे हिंसा करनी पड़ती है। जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने रावण को यह संदेश भी भेजा था कि वह समझौता कर ले पर जब रावण तैयार नहीं हुआ तो अन्याय, अत्याचार और बलात्कार के प्रतिकार के लिए उनहें युद्ध करना पड़ा। राम जनते थे कि यह एक सीता का प्रश्न नहीं है किन्तु हजारों सीताओं का प्रश्न है। यदि सिर नीचा कर इस अत्याचार को सहन कर लिया तो भविष्य में सतियों का सतीत्व सुरक्षित नहीं रह सकेगा। इसलिए उन्होंने युद्ध किया था। रावण ने राम को यह संदेश भेजा कि आप एक सीता को छोड़ दें। सीता के बदले में अनेक सुन्दरियाँ मैं आपको समर्पित करूँगा। किन्तु राम ने रावण के प्रस्तुत प्रस्ताव को ठुकरा दिया। उनके सामने भोग का प्रश्न नहीं किन्तु कर्तव्य का प्रश्न था और वे कर्तव्य के प्रश्न से उत्प्रेरित होकर ही युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हुए थे। कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने भी महाभाररत को टालने का अथक प्रयास किया। वे शान्तिदूत बनकर दुर्योधन की राज सभा में पहुँचे। साधारण से साधारण व्यक्ति भी इस कार्य को करने के लिए कतराता है वह कार्य श्रीकृष्ण जैसे उत्तम पुरुष ने बिना संकोच करना स्वीकार किया। श्रीकृष्ण ने दुर्योधन की राजसभा में कहा- "मैं रक्त की नदी हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 15 51 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति www.lak felbrary. Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ बहते हुए नहीं देख सकता। युद्ध में देश की सर्वश्रेष्ठ शक्ति का विनाश होता है। हजारों माताएं विधवा हो जाती हैं और हजारों पुत्रविहीन। राज्य पर पाण्डवों का अधिकार है किन्तु मैं उन्हें यह समझा दूंगा कि आप केवल पांच गांव ले लें। नरसंहार को टालने के लिए उस नरवीर ने अपनी झोली फैला दी, पर दुर्योधन के “सूच्यग्रं नैव दास्यामि, बिना युद्धेन कैशव। बिना युद्ध के हे केशव! एक सूई की अणि पर जितनी जमीन आए उतनी भी मैं नही दूंगाइसी स्वार्थपूर्ण निर्णय के कारण महाभारत का युद्ध हुआ। यह निग्रहरूप अहिंसा के फलस्वरूप कृष्ण अहिंसा के देव के रूप में प्रतिष्ठित हुए तो दुर्योधन हिंसक दानव के रूप में। सारांश यह है कि निग्रहरूप अहिंसा में हिंसा की प्रमुखता नहीं अपितु अहिंसा को ही प्रमुखता है। निग्रहरूप अहिंसा में अत्याचार को रोकने का संकल्प होता है। उसमें स्वार्थबुद्धि नहीं होती है। उसमें परमार्थ की भव्य भावना होती है। इसलिए बाह्यरूप से हिंसा दिखने पर भी अहिंसा ही है। अहिंसा पर विविध दृष्टियों से चिन्तन किया गया है। हिंसा के चार प्रकार भी आगम साहित्य में प्रतिपादित हैं। वे हैं 1. संकल्पी हिंसा - जानबूझकर संकल्प करके मारना। 2. आरम्भी हिंसा - चौके चूल्हे आदि गृहकार्य में होने वाली हिंसा। 3. उद्योगी हिंसा - खेती, व्यापार, उद्योग आदि में होने वाली हिंसा। 4. विरोधी हिंसा - शत्रु के आक्रमण करने पर अन्याय के प्रतिकार तथा जीवन रक्षा के लिए युद्ध अथवा संघर्ष करने से होने वाली हिंसा। इन चार प्रकार की हिंसाओं में श्रावक संकल्पी हिंसा का पूर्णरूप से त्याग करता है। शेष हिंसाओं के सम्बन्ध में भी वह विवेकयुक्त प्रवृत्ति करता है। जिससे कम से कम हिंसा हो। अहिंसा धर्म और दर्शन की आधारशीला है। धर्म और दर्शन का भव्य प्रासाद अहिंसा पर ही अवलम्बित है। बहुत ही संक्षेप में हमने अहिंसा के स्वरूप का कथन किया है। कुछ चिन्तकों का यह मन्तव्य है कि अहिंसा की महत्ता के संबंध में हमारे आदरणीय महापुरुषों ने बहुत ही विस्तार से प्रकाश डाला है। अहिंसा अपने आप में अच्छी चीज है, अहिंसा के सिद्धान्त भी सर्वप्रिय है पर अहिंसा की परिभाषाएँ और व्याख्याएँ इतनी जटित और दुरूह हो गई है कि आज उसका पालन करना अव्यवहार्य है। अहिंसा बहुत अच्छी वस्तु है पर आज वह जीवन में अपनाने योग्य नहीं रह पायी है। यदि हम अहिंसा का पालन करें तो हमारा जीवन ठीक रूप से नहीं चल सकता। हमें उन चिन्तकों के प्रश्नों पर चिन्तन करना है कि क्या सचमुच ही अहिंसा का पालन नही हो सकता? जो अहिंसा शताब्दियों से व्यवहार में आती रही, जिस अहिंसा को श्रमण भ. महावीर ने, तथागत बुद्ध ने और राष्ट्रपिता माहात्मा गाँधी ने अपनाया, क्या वह अहिंसा अब आचरण योग्य नहीं रही? यह शंका ठीक नहीं है। हजारों साधक आज भी अहिंसा के पथ पर चल रहे हैं। उनके जीवन के कण-कण में अहिंसा भगवती का निवास है। वे स्वयं धडल्ले के साथ अहिंसा का पालन करते हैं। उनका हर आचरण अहिंसा से ओतप्रोत है। ऐसी स्थिति में यह कहना कि आधुनिक युग में अहिंसा का पालन नहीं हो सकता यह अनुचित है। हाँ, इतना अवश्य है कि अहिंसा के पथ पर वही व्यक्ति चल सकता है जो वीर है और जिसके मन में अहिंसा के प्रति निष्ठा है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 52 en sents to हेमेन्द्र ज्योति* हेमेट ज्योति Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन आत्मावलंबन के लिए जिनबिम्ब श्रेष्ट आधार है। जैन विशारद मुनि जिनेन्द्र विजय 'जलज' किसी भी व्यक्ति को जानने के लिए चार निक्षेपों की आवश्यकता होती है। 1. नाम निक्षेप 2. स्थापना निक्षेप वस्तु के नाम व आकार की स्थापना 3. द्रव्य निक्षेप - वस्तु के नाम, आकार के साथ ही उसके भूतकाल एवं भविष्य काल के गुणों का वर्णन 4. भाव निक्षेप 1- नाम आकार के साथ उसके वर्तमान गुण । नाम निक्षेप : जिनेश्वर देवों के नाम शान्तिनाथ आदि नाम, यह नाम जिन । उनकी प्रतिमाऐं, यह स्थापना जिन / तीर्थंकर नाम कर्म बांधा हो ऐसे तीर्थंकरों के जीव / वह द्रव्य जिन और समवशरण में विराजित साक्षात जिनेश्वरदेव भाव जिन कहलाते हैं। नाम रखने के तीन तरीके होते हैं 1. किसी व्यक्ति ने अपना नाम महावीर या अपनी दुकान का नाम महावीर भंडार रख लिया तो इस नाम से उस व्यक्ति या वस्तु का ही परिचय होता है, भगवान महावीर का नहीं । 2. महावीर या अन्य तीर्थंकर आदि का नाम उनके अभिप्राय से रखना । 3. ऐसा कोई नाम रखना जिसका कोई अर्थ ही नहीं। जैसे किसी भ्रष्ट व्यक्ति ने अपना नाम अरिहंत रख लिया परन्तु उसका भाव निक्षेप, शुद्ध नहीं होने से कोई उसका नाम नहीं लेता। लेकिन जब हम अरिहंत बोल कर किसी तीर्थकर का स्मरण करते हैं तो भाव निक्षेप शुद्ध होने से वह स्मरणीय होते हैं। नाम स्मरण की महिमा भक्तामर स्तोत्र, कल्याण मंदिर स्तोत्र आदि में बतलाई गई है। स्थापना निक्षेप : जिस वस्तु में अरिहंत की स्थापना की जाती है, वह स्थापना अरिहंत कहलाती है। जिस नाम वाली वस्तु के सदृश्य रूप की आकृति अथवा असदृश्य रूप की आकृति से मन में उस वस्तु का बोध होता हो, वह उस वस्तु की स्थापना निक्षेप की वस्तु समझना । द्रव्य निक्षेप : जिस द्रव्य का भूतकाल में अथवा भविष्य काल में जो कारण रूप पदार्थ है, वह द्रव्य निक्षेप का विषय है । तीर्थकर नाम कर्म बांधे हों, ऐसे तीर्थंकर परमात्मा का तीर्थंकरपना उदय में आवे उसके पहले तथा तीर्थकर पद भोगकर निर्वाण पद पाने के बाद, इस प्रकार दोनों समय का देह द्रव्य तीर्थकर है किसी वस्तु के द्रव्य निक्षेप पर विचार करने से पहले उसके भाव निक्षेप को ध्यान में रखना चाहिए। उसके बाद उस वस्तु के भूत-भविष्य काल में कारण रूप पदार्थ को द्रव्य निक्षेप में गिनना चाहिए जो पदार्थ भव-निक्षेप के विषय वस्तु का भूतकाल या भविष्य में कारण रूप नहीं है, उस पदार्थ को द्रव्य निक्षेप में कहना, द्रव्य निक्षेप के प्रति अज्ञान का सूचक है। यहां भाव निक्षेप का विषय वस्तु सर्वज्ञ वीतराग- अरिहंत जिनकेवली है। भाव निक्षेप : भाव का साक्षात मान कराने वाला अकेला भाव ही नहीं, परन्तु उसका नाम आकार एवं आगे पीछे की अवस्था इन तीनों को मिला कर सोचने पर ही किसी वस्तु का निश्चित बोध होता है। हेमेकर ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 53 Private & हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जिन्होने सब कर्मों का क्षय करके शाश्वत सुख प्राप्त किया है, उनका विवरण शास्त्रों में सुनकर, उन महावीर की प्रतिमा के सामने दृष्टि रखकर या जिस परमात्मा की मूर्ति हो उनकी पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत अवस्थाओं का ध्यान करने से आत्मा में आत्म स्वरूप प्राप्ति का उल्लास पैदा होता है और आत्मा का शुद्ध स्वरूप क्या है ? इसका विचार उत्पन्न होता है। नाम से स्थापना विशेष लगाव पैदा करती है :- आकार के दर्शन से जैसी भावना जाग्रत होती है, वैसी लागणी उसके नाम मात्र लेने से नहीं होती है। नाम लेने के बाद भी उस व्यक्ति का आकार स्मरण में आने के बाद उसके प्रति अभिन्नता का भान होता है। वीतराग दशा का चिंतन करने के ध्येय से मूर्ति का दर्शन करने वाले का पौद्गलिक मोह बढ़ने के बजाय कम होता है। मूर्ति के दर्शन और पूजन की भी विधि है। उसके अनुसार दर्शन पूजन करने से पूजक आत्म स्वरूप की प्राप्ति के नजदीक आता है और उसका पौद्गलिक मोह दूर होता है। आकार का वर्णन तो पुस्तक में होता है, फिर उसे सचित्र क्यों बनाया जाता है ? कारण यह है कि चित्रों को देखने से उस विषय का विशेष ज्ञान होता है। अरिहंत के गुणों का चिंतन, मात्र सूत्र के श्रवण करने से अधिक पद्मासन में कायोत्सर्ग ध्यानवाली प्रशान्त मुद्रावाली श्री तीर्थकर परमात्मा की मूर्ति के दर्शन करने से अधिक होता है। नाम से आकार की ज्यादा विषेशताएँ हैं : जैसे आकार का निरीक्षण करने में आता है, वैसे ही आकार संबंधी धर्म का मन में चिंतन होता है। चित्त की एकाग्रता प्राप्ति के लिए केवल नाम स्मरण के बजाय प्रतिमा का अजब सा असर होता है। नाम से आकार की ज्यादा विषेशताएँ हैं। जिस प्रकार मकान के प्लान देखने से उसका बराबर ध्यान हो जाता है, इसी प्रकार परमेश्वर के नाम के स्थान पर परमेश्वर की आकारवाली मूर्ति से परमात्मा के स्वरूप का ज्यादा स्पष्ट बोध हो जाता है और परमात्मा का ध्यान करने में सरलता हो जाती हैं। इसलिए आत्म-स्वरूप की प्राप्ति के लिए जिनेश्वर देव का नाम जितना उपयोगी है, उससे ज्यादा मूर्ति उपयोगी है। मूर्ति को देखकर उस देव का विचार प्रथम दृष्टि में आता है, जिसके लिए मूर्ति निमित्त कारण है। उपादान कारण तो इस विषय का पहले का ज्ञान है, परन्तु साथ ही यह समझना चाहिए कि उपादान कारण की अनुभूति के लिए निमित कारण है। केवलज्ञान की प्राप्ति में राग भाव गौतम को रोक रहा था। परन्तु गणधर पद की प्राप्ति में वह राग भाव रूकावट नहीं बना था। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रशस्त राग जरूरी है। जिसको जिनेश्वर देव के प्रति राग नहीं, वह समकीति कैसे हो सकता है ? जिनेश्वर की मूर्ति के प्रति राग जिनेश्वर देव के प्रति ही राग है। जहां तक व्यक्ति वीतराग भाव को प्राप्त नहीं हो जावे वहाँ तक मूर्ति के आलंबन की आवश्यकता है। राग द्वेष रहित भाव तेरहवें गुणस्थान प्राप्त होने के बाद आलंबन की जरूरत नहीं है। निमित्त कारण होते हुए भी आत्मा में उपादान कारण पैदा नहीं होतो उसमें निमित्त का क्या दोष ? भगवान महावीर के संपर्क में आकर अनेक आत्मा में शुद्ध आत्मभाव प्राप्ति रूप उपादान कारण पैदा हुआ किन्तु कितने ही बहुकर्मी आत्माओं को भगवान महावीर रूप निमित्त प्राप्त होने पर भी उपादान प्राप्त नहीं हुआ तो इसमें परमात्मा का क्या दोष? इस प्रकार प्रतिमा रूप निमित्त कारण द्वारा शुद्ध आत्मा भाव-रूप उपादान कारण किसी को पैदा नहीं हुआ तो उसमें प्रतिमा का क्या दोश? जिनेश्वर भगवान की मूर्तियों में जिनेश्वर देव के गुणों को आरोपित करने के बाद उनको गुण रहित नहीं कहा जा सकता। जैसे अगर किसी मूर्ति को अमुक राजा की मूर्ति माना तो फिर उस मूर्ति के प्रति वैसा ही आदर भाव प्रदर्शित किया जाता है। यह व्यवहार में देखा जाता है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 54 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जिस भाव से देखो, वैसा फल : मैं पत्थर की मूर्ति की पूजा करता हूँ, ऐसा समझने वाले को पूजा का कुछ भी फल नहीं मिलता है। परन्तु उसमें देवत्व मानकर भक्ति पूर्वक पूजा करता है तो पूजा का उसे फल अवश्य मिलता है। स्वयं भगवान तरण तारण होते हुए •भी अगर कोई उनकी अशातना करता है तो उसका फल बुरा मिलता है, उसी प्रकार मूर्ति भी तारक है, उसकी अशातना करने वाले को उसका दुष्परिणाम मिलता है। जड़ होते हुए भी चिंतामणि रत्न आदि पूजनीय है। चिंतामणि रत्न आदि अजीव और जड़ होते हुए भी पूजनीय है और उनकी पूजा करने वालों की इच्छा पूर्ण होती है। जैसे ये अजीव वस्तुएँ स्वयं के स्वभाव से पूजन करने वाले का हित करती है, उसी प्रकार श्री जिन प्रतिमा भी पूजन करने वालों को स्वभाव से ही शुभ परिणति के साथ शुभ फल देती है। जो वस्तु जिस प्रकार का फल देती है, वैसी उपमा उसे दी जा सकती है। I पुस्तक अचेतन होते हुए भी उसे ज्ञान या विद्या की उपमा दी जाती है उसी प्रकार यद्यपि सम्यग्ज्ञान व धर्म आत्मा का विषय होने पर भी, उन्हें जड कल्पवृक्ष और चिंतामणि रत्न की उपमा दी जाती है। इसी प्रकार परमात्मा की मूर्ति से परमात्मा का ज्ञान होता है, तो उस मूर्ति को परमात्मा कहा जा सकता है। कर्मक्षय के दो अमोघ साधन : इस काल में कर्म क्षय के लिए जिन बिंब एवं जिनागम ये दो साधन है कविवर्य वीरविजयजी ने चौसठ प्रकारी पूजा में गाया है। विराम काल जिनबिंब जिनागम भवियन का आधारा जिणंदा तेरी अखियां नमे अविकारा || जिनप्रतिमा से अगर शुभ अध्यवसाय उत्पन्न नहीं होते तो यह दुर्भाग्य है : करीर के झाड़ पर पत्ते नहीं आये तो वसन्त ऋतु का क्या दोष है ? जल की धारा चातक पक्षी के मूँह में नहीं गिरे तो मेघ का क्या दोष ? इसी प्रकार जिनेश्वर देव की प्रतिमा शुद्ध अध्यवसाय उत्पन्न करने का साधन है, परन्तु अशुभ परिणामी एवं हीन भावी जीवों को भाव उत्पन्न नहीं हों तो यह उनका दुर्भाग्य ही माना जावेगा। प्रभु प्रतिमा क्या दोष ? परिणाम के कारण आस्रव भी संवर का कारण और संवर भी आस्रव का कारण बन जाता है। आचारांग सूत्र में फरमाया है कि - "जो आसवा ते परिसवा, जे परिसवा ते आसवा* अर्थात परिणाम के कारण जो आस्रव (कर्म आने का) कारण हो, वह संवर (कर्म रोकने का कारण बनता है और जो संवर का कारण होता है, वह आसव का कारण बनता है। इलायची पुत्र पाप के इरादे से बांस पर नाचते थे, इसलिए वह उनके लिए आस्रव का कारण बना, किंतु परिणाम की विशुद्धि से बांस पर नाचते हुए भी उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । भरत चक्रवर्ती दर्पण में अपने रूप को देखने लगे तो वह आस्रव का कारण हुआ, परन्तु मुद्रिका से शुभ भावना में आरूढ़ हुए तो उनको केवलज्ञान प्राप्त हो गया। इसी प्रकार से साधु-मुनिराज संवर एवं निर्जरा का कारण है, फिर भी उन्हें दुख देने या बुरा चिंतन करने से जीव अशुभ कर्मों का आस्रव करता है, परन्तु उससे साधु-मुनिराज हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 55 Private & Pe हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Su Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ की पूजनीयता नष्ट नहीं होती है। इसी प्रकार जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा, किन्हीं लोगों को परिणाम के अभाव में, निर्जरा या संवर का कारण नहीं बन सके, उससे जिन प्रतिमा की उपयोगिता कम नहीं होती है। जिन प्राणियों में जिन प्रतिमा के लिए भक्ति राग होगा, उनके लिए ही वह संवर एवं निर्जरा का कारण बनती है। इलायची पुत्र और भरत चक्रवर्ती के उदाहरण में, परिणाम के उत्पन्न होने में निमित्त कारण तो बांस और दर्पण ही था। कार्य की सिद्धि उपादान कारण से होती है, फिर भी उसमें निमित्त कारण निरुपयोगी नहीं होता। निमित्त कारण होगा तो उपादान कारण पैदा होगा। आत्मा को आत्म स्वरूप प्राप्त करने में जिनेश्वर भगवान की मूर्ति निमित्त कारण है। अभय कुमार द्वारा भेजी गई ऋषभदेव की प्रतिमा देखकर आर्द्रकुमार को प्रतिबोध हुआ और सम्यक्त्व रत्न प्राप्त कर अनुक्रम से मुनिराज बन आत्म कल्याण किया। दशवैकालिक सूत्र के रचयिता पूज्य श्री शयंभवसूरिजी को श्री शांतिनाथजी की प्रतिमा देखकर प्रतिबोध हुआ। इस प्रकार जिनेश्वर देव की प्रतिमा तीनों काल में मोक्ष प्राप्ति के लिए आलंबन बनती है। प्रतिमा पूजन में भावुक आत्मा जिन मूर्ति का निमित्त लेकर जन्मावस्था को लक्ष्य में रखकर प्रक्षाल करते हैं, और राज्यावस्था को ध्यान में रखकर, मुकुट, कुंडल हार आदि पहनातें हैं। फिर भी भक्तों का दृष्टि बिंदु तो वीतराग की भक्ति करने का है, इससे भक्त के चित्त में प्रसन्नता होती है और क्रमशः मोक्ष पद की प्राप्ति हो सकती है। प्रभु की द्रव्य पूजा में हिंसा नहीं है : प्रभु की द्रव्य पूजा में जो हिंसा का दोष मानते हैं, वह उचित नहीं है। क्योंकि जिसमें जीव की हिंसा होती है, वह सब क्रियाएँ हिंसक है या जीव वध हिंसा है - ऐसा जैन शासन में कहीं नहीं कहा है। जैन शास्त्रानुसार विषय कषायादि की प्रवृति करते हुए अन्य जीवों का प्राण नाश हो उसका नाम हिंसा है। आचार्य उमास्वाति ने तत्वार्थ सूत्र में कहा है कि - "प्रमतयोगात प्राणव्यनरोपण हिसा" | विषय कषायादि की प्रवृति के सिवाय होने वाले “प्राणव्यपरोपण" आदि को हिंसा मानने में आवेगी तो दानादि कोई भी धर्म प्रवृति नहीं हो सकेगी। जिनेश्वरदेव की द्रव्यपूजा शुद्ध भाव से करने से संवर और निर्जरा होती है, कारण कि द्रव्यपूजा करने वाली आत्मा को पूजा करने के कारण दानादि विविध धर्म की आराधना होती है। जिनेश्वरदेव की पूजा से "छह आवश्यक” की साधना हो जाती है : भावपूजा की शुरूआत में तीसरी निसिही" बोलने से सामायिक का स्वरूप आ जाता है, यह सामायिक नामक प्रथम आवश्यक हुआ। इसके बाद चैत्यवंदन में लोगस्स सूत्र बोलने से चउविसथ्थो नामक दूसरा आवश्यक हुआ। इसके बाद चैत्यवंदन करते “जावन्त केविसाहु सूत्र से गुरुवंदन नामक तीसरा आवश्यक हुआ। इसके बाद स्तवन के द्वारा पूजक अपने पापकृत्यों का प्रायश्चित या पश्चाताप करता है, यह प्रतिक्रमण नामक चौथा आवश्यक हुआ। बाद में जयवियराय, अरिहंत चेइआणं, तस्सउत्तरी, अन्नथ कहकर बाद में काउसग्ग करते हैं, यह पाँचवां आवश्यक हुआ। अंत में प्रभु के सन्मुख यथाशक्ति पच्चक्खाण करें, यह छठा आवश्यक हुआ। इससे ज्ञात हो जायेगा कि पूजन कितना लाभदायक है। गुणस्मृति हेतु मूर्तिपूजा सर्वमान्य है : गुणी पुरुषों के गुणों को स्मरण करने और उन गुणों को अपनी आत्मा में प्रकट करने के प्रयास करने में प्रभु-प्रतिमा परम सहायक है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 56 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Sanilointernatio & Pers Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जिनमूर्ति की भक्ति द्वारा अपने आत्मगुणों को प्राप्त करना : जिनमूर्ति से किसी प्रकार का द्रव्य प्राप्त करने का प्रश्न ही नहीं उठता है, किन्तु जिनमूर्तियों के निमित्त से सम्यग्दर्शनादि गुणों को अपनी स्वयं की आत्मा में प्रकट करने का है। जिन प्रतिमा की भक्ति द्वारा सम्यग्दर्शनादि गुणों पर जो आवरण आ गये हैं, उनको दूर करके पूजक अपने आत्मगुणों को अवश्य ही प्रकटा सकता है। 'प्रसन्न करने की जरूरत नहीं होने से प्रतिमा पूजन निष्फल नहीं है : जिनेश्वरदेव प्रसन्न होगें, ऐसा मान कर पूजन करना ठीक नहीं है। जिनेश्वर तो प्रसन्न या अप्रसन्न नहीं होते हैं। अगर प्रसन्न या अप्रसन्न हो तो वे जिनेश्वर जिनेश्वर देव कहला ही नहीं सकते हैं। पूजक के शुभ परिणामों की उत्पत्ति से ही उसका उद्धार हो सकता है ऐसे शुभ परिणामों की जागृति जिनेश्वर की पूजा से होती है। जिन प्रतिमा के पूजन से वीतराग का तो कोई लाभ नहीं होता किन्तु पूजा करने वालों को तो अवश्य ही लाभ होता है। उससे दोषों के निवारण के अतिरिक्त बहुमान, कृतज्ञता, विनय आदि गुण प्रकट होते हैं। इससे कर्मों की निर्जरा होती है। जिनेश्वर की प्रतिमा गुणों की प्राप्ति और दोषों के निवारण में निमित है। जैसे-जैसे जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा के प्रति प्रेम की वृद्धि और श्रद्धा सुदृढ़ होगी, संवर और निर्जरा विशेष होगी क्योंकि प्रेम और श्रद्धा के फलस्वरूप गुण प्राप्ति की ओर अग्रसर होने में आत्मा का उत्साह बढ़ता है। जिन मंदिर एवं प्रभुपूजन में उपयोग में आनेवाले द्रव्य मूर्छा भाव का त्याग और विराग भाव को पैदा करते हैं : द्रव्यपूजा में उपयोग में आने वाली वस्तुएँ अगर दूसरे स्थान पर हो तो उनके प्रति मोह पैदा होता है, परन्तु जिनमंदिर में ऐसे नहीं होता बल्कि वे रागादिक के नाश का कारण बनती है। जैसे बगीचे में सुगंधित फूलों को देखकर उनको तोड़ कर सूंघने का मन होता है, परन्तु पूजा के लिए लाए गये फूलों का हम उपयोग नहीं कर सकते हैं। मंदिर में घंटाल, चंवरादि क्यों : तीर्थंकर भगवान के आठ प्रतिहार्य हैं मंदिरों में ये प्रतीक के रूप में पाये जाते हैं। उच्च शिखर अशोक वृक्ष की अनुभूति करवाता है। ये घंटाल, शंख आदि की ध्वनियाँ दिव्य ध्वनि और दुंदुभि की स्मृति करा देते हैं। उस समय भी ये नाद मानवों को अपने प्रपंचों से मुक्ति ले कर तीर्थपति की शरण में जाने का संकेत करते थे। आज भी ये घंटाल प्रबल घोष के साथ जिनदेव के समीप जा कर जागृत रहने का आवाह्न कर रहें है। ये चामर आज भी उस समवशरण में रहने वाले प्रतिहायौ के अंगभूत होने की साक्षी दे रहें हैं। वह बतला रहें कि हम प्रभु के चरणों में प्रथम भक्ति भाव से झुकते हैं, तो बाद में ऊपर उठते हैं। इसी प्रकार प्रभु चरणों में समर्पित हो जाय तो वह अपनी आत्मा का कल्याण करके ऊर्ध्वगति को प्राप्त हो सकता है। मंदिरों में रखे जाने वाले त्रिगढ़ सिंहासन व जिनदेव को प्रतिश्ठित करने की वेदी त्रिभाग उपर्युपरि उस देवकृत समवशरण की महिमा को प्रकाशित कर रहें हैं। जिनदेव के पृष्ठभाग में रखा जाने वाला भामंडल भक्त हृदय में आज पर्यन्त उस क्रांते की गहरी छाप बनाए हुए है। ये छत्र-त्रय अभी तक उनकी त्रैलोक्य पूज्यता का स्पष्ट परिचय प्रदान करते हैं। विभिन्न दृष्टिकोणों से मूर्तिपूजा के महत्व को समझकर साधक शुद्ध चित से भांकारहित हो कर प्रभु की पूजा करता है तो निश्चय ही भावों की शुद्धि होगी और वह आत्म कल्याण के पथ पर निरन्तर अग्रसर होता रहेगा। हेगेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 57 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति । Paw.jarelibrary.org Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 2. 3. श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जिनशासन में जयणा का महत्त्व - साध्वी मणिप्रभाश्री आप जैसे पैसों को सम्भालकर उपयोग में लेते हो, जितने चाहिए उसी प्रमाण में व्यय करते हो यह पैसों की सम्भाल हैं या जयणा की गई कहलाती है तो इसी प्रकार आप स्थावर जीवों की भी जयणा करो। | जीव कौन कौन से ? : चलते फिरते जीवों की रक्षा करने का तो सब धर्मो में कहा गया है। परन्तु जैन धर्म का जीव विज्ञान अलौकिक है। इसके प्ररूपक केवलज्ञानी - वीतराग प्रभु हैं। उन्होंने मनुष्य में जैसी आत्मा है वैसी ही आत्मा पशु, पक्षी, मक्खी, चींटी, मच्छर, पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति वगैरह 563 जीव भेदों में बताई है। मनुष्य से लेकर वनस्पति वगैरह एकेन्द्रिय में आत्म तत्व की सिद्धि मनुष्य की आत्मा के चले जाने के बाद, इसको ग्लुकोज़ के बोतल या ऑक्सिजन चढ़ नहीं सकता। कारण की आत्मा है तब तक ही शरीर अगर कोमा में चला जाये तो भी ब्लड़ सर्क्यूलेशन होता है। इसलिए "आत्मा है" यह सिद्ध होता है। पशु, पक्षी, चींटी, मकोड़ा, मच्छर वगैरह में भी आत्मा है तब तक हलन चलन, खाने की क्रिया वगैरह करते हुए देखे जाते है। अ. पृथ्वी पत्थर और धातुओं की खान में जो वृद्धि होती है वह जीव बिना असंभावित है। आ. पानी कुआं वगैरह में पानी ताजा रहता है और नया नया आता रहता है जिससे पानी के जीव की सिद्धि होती है इ. वनस्पति जीव हो तब तक सब्जी, फल वगैरह में ताजापन दिखता है। याद रखो पृथ्वी पानी वगैरह में जो जीव हैं वे तुम्हारे जैसे ही और तुम्हारे माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी वगैरह बन चुके हैं अब यदि तुम इन जीवों की जयणा नहीं पालोगे तो तुम्हें भी पृथ्वी पानी वगैरह एकेंन्द्रिय के भव में जाना पड़ेगा। प्रश्न :- पृथ्वी आदि जीवों को स्पर्श से वेदना होती है, वह क्यों नहीं दिखती १ उत्तर :- गौतम स्वामी महावीर स्वामी से यह प्रश्न पूछते हैं, यह बात आचारांग सूत्र में आती है कि किसी मनुष्य के हाथ पैर काट दिये जाय, आँख और मुँह पर पट्टा बांधकर उसपर लकड़ी से खूब प्रहार किया जाय तो वह मनुष्य अत्यन्त वेदना से पीड़ित होता है लेकिन उसे व्यक्त नहीं कर सकता। उसी प्रकार पृथ्वी पानी वगैरह के जीवों को उसे कई गुणा अधिक वेदना अपने स्पर्श मात्र से होती है। जयणा का उद्देश्य : जैसे कपड़े का बड़ा व्यापारी सब को कपड़े पहुँचाता है फिर भी सब को कपड़े पहुँचाने का अभिमान अथवा उपकार करने का गर्व नहीं करता, कारण कि उसका उद्देश्य लोगों को कपड़े पहुँचाने का नहीं लेकिन पैसा कमाने का ही होता है। उसी प्रकार हम जीवों को बचायें जीवों की जयणा का पालन करें तो वह अपने अहिंसा गुण की सिद्धि के लिए ही है। जयणा का फल : जयणा के पालन करने से रोग वगैरह नहीं होते है मिलता है, समृद्धि मिलती है। आत्म भूमि के कोमल बनने क्रमशः आत्मा मोक्ष की प्राप्ति सरलता से करती है। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 58 सुख मिलता है, साता मिलती है, आरोग्य से गुण प्राप्ति की योग्यता आती है, जिससे हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति wjaine yo Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्टसंत शिरोमणि अभिनंदन पंथ प्रश्न :- स्थावर में जीव प्रत्यक्ष रूप से नहीं दिखते जिससे उन्हें बचाने का उल्लास नहीं जगता| क्यों ? उत्तर :- जिस प्रकार तुम क्रिकेट प्रत्यक्ष नहीं देखतें हो फिर भी कॉमेन्ट्री सुनकर उसे सत्य मानकर आनन्द लेते हो, उसी प्रकार जिनेश्वर भगवंतों ने इन जीवों को एवं उनकी वेदना को साक्षात देखी है और उसकी कॉमेन्ट्री दी है। संसार के चलते फिरते मनुष्य पर विश्वास रखने वाले यदि परमात्मा पर विश्वास आ जाय तो हमारे जीवन में जयणा का वेग आ सकता है। जयणा को प्राधान्य देकर हम प्रत्येक कार्य कर सकते है। बाकी भगवान तो कहतें हैं कि “आत्मवत् सर्व भूतेषु यदि तुम्हें दुख पसंद नहीं है तो किसी को भी दुख हो वैसी प्रवृति ही नहीं करनी। जयणा के स्थान : 1.पृथ्वीकाय - सभी प्रकार की मिट्टी, पत्थर, नमक, सोड़ा (खार) खान में से निकलते हुए कोयले, रत्न, चाँदी, सोना वगैरह सर्व धातु पृथ्वीकाय के प्रकार हैं। नियम 1. ताजी खोदी हुई मिट्टी (सचित्त) पर से नहीं चलना। लेकिन पास में जगह हो वहाँ से चलना। 2. सोना, चाँदी, हीरा, मोती, रत्न वगैरह के आभूषण पृथ्वीकाय के शरीर (मुर्दे) हैं। इसलिए उनका जरूरत से ज्यादा संग्रह नहीं करना, मोह नहीं रखना, हो सके उतना त्याग करना। 2. अपकाय :- सभी प्रकार के पानी, ओस, बादल का पानी, हरी वनस्पति पर रहा हुआ पानी, बर्फ, ओले वगैरह अपकाय (पानी के जीव) हैं। नियम 1. फ्रिज का पानी नहीं पीना, बर्फ का पानी नहीं पीना एवं बर्फ नहीं वापरना। 2. पानी नल में से बाल्टी में सीधा ऊपर से गिरे तो इन जीवों को आघात होता है इसलिए बाल्टी नल से बहुत नीचे नहीं रखना जिससे पानी फोर्स से नीचे नहीं गिरे। 3. गीजर का पानी उपयोग में नहीं लेना। 4. कपड़े धोने की मशीन में सर्वत्र पानी छानने का संखारे का विवेक रखना। 5. पाँच तिथि (पाक्षिक) तथा वर्ष की छ: अट्ठाई में कपड़े नहीं धोना। हमेशा नहाने वगैरह के लिए ज्यादा पानी नहीं वापरना और साबुन का उपयोग शक्य हो तो नहीं करना। 6. बार बार हाथ, पैर, नहीं मुँह धोना । पानी छानने की विधि : सुबह उठकर रसोई घर तथा पूरे घर का बासी कचरा निकालकर उसे सूखी जगह पर परठवना (डालना)। बर्तन को बराबर देखकर उसमें जीव नहीं हैं, वैसी खातरी करने के बाद उसमें घड़े का पानी डालना। फिर घड़े पर गरणा रखकर उसमें थोडा पानी डालना और फिर घडे के पानी को मात्र हिलाकर उसे बाहर निकालना। पुनः पानी छानकर घड़े में लेना और कपडे अथवा ब्रश से घड़ा धो लेना। फिर जहां घड़ा रखने की जगह हो वह बराबर साफ कर लेना, वरना चिकनापन जम जाय तो उसमें निगोद जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। घड़े के अंदर भी चिकास अथवा लील-फुग न हो उसका ध्यान रखना। घड़े को स्थान पर रखकर गरणा रखकर पानी भरना। इस प्रकार पूरा पानी छानने के बाद एक बाल्टी में थोड़ा पानी लेकर उसमें गरणे कों डूबाकर निकाल लेना और पानी को पानी के रास्ते में जाने देना और गरणे को ऐसे ही सुखा देना निचोना नहीं। शाम को साबुन लगाकर धोया जा सकता है, गरणा मैला होने नहीं देना। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 59 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथा। नोट :- संखारे का पानी गटर में फेंकने से विराधना होती है। इसलिए अलग कोठी में अनगल पानी रखकर उसमें संखारा डालना। दूसरे दिन वह पानी छानकर उपयोग में ले लेना और नया ताजा पानी कोठी में भरकर उसमें संखारा डालना। इस तरह करने से संखारे के जीवों को बचाया जा सकता है। खास ध्यान रखना : छाने हुए पानी में अपने हाथ अथवा झूठे गिलास नहीं डालना, पानी लेने के लिए लंबी डंडी वाले गिलास का उपयोग करना। पीने के पानी में झूठे गिलास डालने से संपूर्ण घड़े में समूर्छिम पंचंन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होती है। ऐसे पानी का उपयोग करने से बहुत विराधना होती है। पानी के एक बूंद में रहे हुए जीव जो अपना शरीर सरसों (राई) के दाने जितना बना दें तो ये जीव संपूर्ण जंबूद्वीप में नहीं समा सकते। इसलिए पानी कम ढोलना और जो ढोलना ही पड़े तो पानी छानकर संखारे की जयणा करने से प्रति बूंद 36450 त्रस जीवों को अभय दान दिया जा सकता है। आँख में मिर्च डालने से जो वेदना होती है, उससे कई गुणी अधिक वेदना पानी के जीवों को साबुन रगड़ने से होती है। 3-तेउकाय (अग्नि):- सर्व प्रकार की अग्नि और इलेक्ट्रीसिटी अग्नि दीर्घलोक शस्त्र कहलाता है। अग्नि से छ: काय की विराधना होती है। इलेक्ट्रीसिटी के उपयोग में सावधानी : जहाँ पानी का वेगपूर्वक प्रवाह बहता हों वहाँ विद्युत्त उत्पन्न करने के साधन (मशीन वगैरह) में मछलियां वगैरह कट जाती है और उसके कारण खून की नदी बहने लगती है। तुम्हारे एक स्विच का कनेक्शन पानी के प्रवाह तक है, यह मत भूलना। हजारों और लाखों वॉल्ट के विद्युत के साथ भी तुम्हारे स्विच का वाया-वाया संबंध है, इसलिए किसी भी इलेक्ट्रीक वस्तु का उपयोग करने पर सर्व जीवों की विराधना में भागीदार बनना पड़ता है। इसलिए जितनी हो सके उतनी जयणा रखने के लिए प्रयत्नशील रहना। गैस की पाइप लाइन का भी सब गैस के साथ में संबंध होने से बार बार गैस सुलगाना नहीं, जमीन पर सीधा गरम टोप नहीं रखना, लेकिन स्टेण्ड पर रखना, सब चीजों को ढक कर रखना, जिससे जीव गिरकर नहीं मरेंगें। भगवान ने कहा हैं कि एक चावल के दाने जितनी अग्नि में रहें हुए जीव यदि खुद का शरीर खस खस के दाने जितना बना दें तो संपूर्ण जंबूद्वीप में नहीं समायेंगें। इससे हम समझ सकतें हैं कि अग्नि के जीव कितने है। नियम :1. बार बार स्विच को ऑन ऑफ नहीं करना। 2. हो सके वहां तक इलेक्ट्रीक के नये साधनों को घर में नहीं बसाना और लाने की सहमति भी नहीं देना। साधनों की प्रशंसा भी नहीं करनी। 3. बार बार गैस चालू नहीं करना। 4-वाउकाय : सभी प्रकार की हवा, A.C, पंखे की हवा, तूफान वगैरह में वायुकाय के जीव हैं। भगवान ने कहा है कि नीम के एक पत्ते जितनी हवा में रहें हुए वायुकाय के जीव यदि अपना शरीर लीख जितना बना दें तो संपूर्ण जंबूद्वीप में नहीं समायेंगें। इसलिए हो सके उतनी जयणा रखना। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्ट ज्योति 60 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Traineersonaruses Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ADAV श्री राष्ट्रसंत शिरीमणि अभिनंदन ग्रंथ नियम : 1. पंखा बार बार नहीं करना। 2. कपड़े सुखाते समय ज्यादा नहीं झटकना। 3. सूखे हुए कपड़ों को तुरन्त ले लेना क्योंकि वस्त्रों के फड़कने से वायुकाय के जीवों की विराधना होती है। दे वगैरह बांधकर रखना, झूले में नहीं बैठना। 5-वनस्पतिकाय : इसके दो प्रकार हैं। प्रत्येक और साधारण। कोई भी वृक्ष प्रत्येक हो या साधारण उगने के समय (कोंपल अवस्था में) तो अनंत काय ही होते है।फिर यदि 'प्रत्येक की जाति हो तो वृक्ष का मुख्य जीव रहता है और दूसरे सब जीव मर जाते हैं। प्रत्येक वनस्पतिकाय के सात अंगों में अलग अलग जीव होते है। उन सात अंगों के नाम - फल, फूल, छाल, काष्ट, मूल, पत्ते और बीज। नियम : 1. अनंत काय बत्तीस हैं उनका त्याग करना। 2. बाग बगीचे में नहीं घूमना, घास पर नहीं चलना। 3. वृक्ष के पत्ते या फूल नहीं तोड़ना, पेड़ को हाथ नहीं लगाना। 4. सब्जी मार्केट में लीलोतरी की बहुत उथल पुथल नहीं करना। 5. तिथि के दिन लीलोतरी का त्याग करना। 6. एकासन वगैरह में सचित्त वस्तु का उपयोग नहीं किया जा सकता। बीज वाले फलों को सुधारने की समझ - जिन फलों और सब्जियों में बीज मध्य भाग में हों, उन फलों वगैरह को मात्र ऊपर ऊपर से पाव इंच ही चाकू लगाना, फिर दोनों तरफ से दोनों हाथ फिराना जिससे बीजों को बचाया जा सकता है। सचित्त अचित्त की समझ - सचित्त - जीव सहित वस्तु अचित्त - ऐसी वस्तु जिसमें से जीव निकल गया हो। सेब वगैरह फल सुधारने के 48 मिनट बाद अचित्त हो जाते हैं। किसी वस्तु में डाला हुआ नमक अगर पिघल जायें तो चूल्हे पर रखें बिना ही 48 मिनट में अचित्त हो जाता है, यदि नहीं पिघले तो सचित्त ही रहता है। जैसे कि सींग दाने की सूखी चटनी में डाला हुआ नमक। आखा जीरा सचित्त है। नमकीन पापडी (चिप्स) वगैरह में ऊपर से नमक डाला हो तो एकासन वगैरह में उपयोग में नहीं लिया जा सकता, साधु साध्वी भगवंत को भी नहीं वहोराया जा सकता। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 61 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थावर जीवों की अचित्तता 1. स्वकाय शस्त्र एक मिट्टी दूसरे प्रकार की मिट्टी के साथ मिलें तों भिन्न- भिन्न कुऐं के पानी परस्पर अथवा कुंआं तथा नल का पानी मिलें तो, इसी प्रकार अलग अलग अग्नि, अलग अलग वायु, अलग अलग वनस्पति परस्पर मिश्रित होने से एक दूसरों के लिए शस्त्र बनते हैं और जीवों के मर जाने से वस्तु अचित्त बनती है, लेकिन संपूर्णतयाः अचित्त नहीं बनती है। इसलिए विवेकी सज्जनों के लिए ऐसा मिश्रण करना उचित नहीं है और करने से दोष लगता है। 2. परकाय शस्त्र एक काय का दूसरे काय के साथ मिश्रण (संयोग) होने से परकाय शस्त्र बनता है। जैसे कि पानी का अग्नि के साथ सहयोग होने से पानी अचित्त होता हैं। 3. अभयकाय शस्त्र - श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ प्र स्थावर वस्तु में सचित्त अचित्तता समझाओ १ उ : स्थावर वस्तु जब तक जीव सहित हो तब तक सचित्त है, फिर अचित्त हो जाती है। प्र : स्थावर वस्तु अचित्त किस तरह होती है ? उ : तीन प्रकार के शस्त्र संयोग से वस्तु अचित्त होती है। एकेन्द्रिय के 22 भेद : पृथ्वी, अप, तेज, वायु और साधारण वनस्पति काय इन पाँच के चार-चार भेद होतें हैं। । 1. सूक्ष्म पर्याप्त 2. बादर पर्याप्त 3. सूक्ष्म अपर्याप्त 4. बादर अपर्याप्त 5 x 4 = 20 और प्रत्येक वनस्पति में मात्र एक बादर पर्याप्त, दो बादर अपयत ये दो भेद ही है, 20 + 2 = 22 भेद। एकेन्द्रिय में विशेष : Budioning 1. दो जाति के मिश्रित पानी को चूल्हे पर चढ़ाना। प्र : पानी उबालकर पीना चाहिए। इस प्रकार कहा है लेकिन उबालने से जीव मरते है ? उ पानी में प्रति समय जीव उत्पन्न होतें हैं और मरते हैं। कच्चे पानी में यह क्रिया सतत् ( निरन्तर ) चालू ही रहती है पानी को उबालने से एक बार तो जीव मर जाते हैं फिर उसके कालानुसार निश्चित समय तक पानी में जीव उत्पन्न नहीं होते हैं, वह पानी अचित्त रहता है। इसलिए पानी उबालकर पीना चाहिए। बेइन्द्रिय - 2. शंख, इयल (लट), जोंक, चंदनक, भूनाग (केंचुऐ), क्रिमि, पूरा वगैरह। 22 अभक्ष्य में लगभग सभी में असंख्य बेइन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होने से अभक्ष्य बनते हैं। नियम : 3. एकेन्द्रिय में पृथ्वी आदि के जो कोई भी उदाहरण दिए गए हैं, वे सब बादर पर्याप्त के ही है। सूक्ष्म में अपर्याप्त का आश्रय करके सूक्ष्म पर्याप्त जीव रहते हैं। बादर में पर्याप्त का आश्रय करके बादर अपर्याप्त जीव रहते हैं। मधु (शहद), मक्खन, शराब और मांस यह चार महा विगइ हैं। इसलिए इनका सर्वथा त्याग करना । बर्फ वगैरह का त्याग करना। मैथी वाले सभी अचार तथा शास्त्रीय विधि से नहीं बनाये हुए हों वैसे सभी अचारों का त्याग करना । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 62 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति www.pr Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 4. द्विदल का त्याग करना। द्विदल के साथ कच्चे दूध, दही, छाछ नहीं वापरना। 5. रात्रि भोजन का तथा बहु बीज का त्याग करना। हरे और सूखे अंजीर, बैंगन, खस-खस आदि बहुबीज हैं। 6. ब्रेड वगैरह वासी चीजें, काल हो चुका आटा, मिठाई, खाखरा, नमकीन वगैरह अभक्ष्य हैं। उनमें वैसे ही वर्ण, गंध, रस, स्पर्श के बेइन्द्रिय जीव उत्पन्न हो जाते है। इसलिए नहीं वापरना। बाइस अभक्ष्य वापरने से होने वाले नुकसान – बाइस अभक्ष्य आरोग्य नाशक, सत्व नाशक, बुद्धि नाशक हैं। इनसे त्रस और स्थावर जीवों का संहार होता है। तामसिक और क्रूर प्रकृति उत्पन्न होती है। तेइन्द्रिय: जूं, चींटी, इल्ली (गेहूँ में पैदा होने वाले कीडे) कान खजूरा, मकोड़ा, उदेही (दीमक) धान्य के कीड़े, छान के कीड़े वगैरह तेइन्द्रिय जीव हैं। नियम : 1. कोई भी धान्य छानकर वापरना और सड़े हुए धान्य में होने वाले जीवों की सावधानी पूर्वक जयणा करना (ठंडे स्थान पर रख देना)। 2. धान्य में कीड़े पड़ने के बाद धान्य को धूप में न रखकर, कीड़े होने की संभावना होने के पहले ही धूप में रख देने चाहिए। इसी प्रकार खाटले, बिस्तर, गादी वगैरह में भी खटमल अथवा दूसरे जीव जंतु के पैदा होने के पहले ही धूप में रखने का खास उपयोग रखना। घर में सफाई रखना जिससे चींटी वगैरह नहीं होतें। तेइन्द्रिय की पहचान :- इनके चार या छ: पैर होते हैं। चउरिन्द्रिय : बिच्छु, भौंरे, मच्छर, डांस, खडमाखडी, मक्खी, मकौड़े, कॉकरोच वगैरह। पहचान - इनके छ: या आठ पैर होते है और आगे मूंछ जैसा भाग होता है। लगभग पंख छोटे होते है। नियम :1. घर में सफाई रखनी, जिससे ये जीव उत्पन्न ही नहीं होंगें। 2. वे मर जायें ऐसी दवा वगैरह घर में नहीं छांटनी। सर्व स्थान पर बैठते या कोई वस्तु रखते या लेते समय विकलेन्द्रिय जीवों की रक्षा के लिए नजर डालकर दृष्टि पडिलेहन अवश्य करनी। कोई जीव हो तो उसे बचाना चाहिए। उपरोक्त बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय को विकलेन्द्रिय भी कहा जाता है। इन तीनो के पर्याप्त एवं अपर्याप्त ये दो भेद होने से 3x 2 = 6 भेद। ध्यान रखो एकेन्द्रिय से चउरिन्द्रिय तक के सभी जीव समूर्छिम और तिर्यंच हैं। समूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यच : ये जीव गर्भज तिर्यंच के समान ही दिखते हैं। भैंस सिंह वगैरह समूर्छिम भी होते हैं और गर्भज भी होते है। जैसे कि एक महाराज साहेब चौदह पूर्व पढ़ा रहे थे। उसमें वर्णन आया कि अमुख औषधि मिश्रित करने से बहुत सारी मछलियाँ पैदा होती है। हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 63 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था यह बात एक मच्छीमार ने सुनी और रोज औषधियां मिश्रित करके बहुत सी मछलियों को उत्पन्न करके बेचने लगा। इस प्रकार वह बहुत धनवान बन गया। एक बार महाराज साहेब का उपकार याद करके उन्हें सौगात (भेंट) देने गया। जब महाराज साहेब को यह बात ज्ञात हुई तब उन्होंने हिंसा की परम्परा को रोकने के लिए मच्छीमार को कहा कि अमुख औषधियों को मिलाने से इससे भी अधिक मछलियाँ पैदा होगी। मछुआरे ने घर जाकर यह प्रयोग किया जिससे उनमें से सिंह उत्पन्न हुआ और मछुआरे को खा लिया। इस प्रकार औषधि के मिश्रण से जो मछलियां और सिंह बने वे सब वास्तव में जीव थे लेकिन समूर्छिम जाति के थे। समूर्छिम मनुष्य - समूर्छिम मनुष्य, गर्भज मनुष्य जैसे नहीं दिखते। इन्हें पाँच इन्द्रियां होती है परन्तु इनका शरीर अत्यन्त छोटा (अंगुल का असंख्यातवा भाग जितना) होने से, एक साथ असंख्य उत्पन्न होने पर भी नहीं दिखते। इनका आयुष्य भी अंतर्मुहूर्त का ही होता है। ये गर्भज मनुष्य के चौदह असूचि स्थानों में उत्पन्न होते हैं। ये अपर्याप्त ही होते हैं। मनुष्य के चौदह असूचि स्थान : 1. विष्टा, 2. मूत्र, 3. कफ थूक, 4. नाक का मैल, 5. उल्टी, 6.झूठा पानी अथवा भोजन, 7. पित्त, 8. रक्त, 9. वीर्य, 10. वीर्य के सूखे पुद्गगलों के भीगने से एवं शरीर से अलग रखे हुए भीगे पसीने वाले कपड़ों में, 11. रस्सी, 12. स्त्री-पुरुष के संयोग में, 13.नगर के नालों में (गटरों में), 14. मनुष्य के मुर्दे में। _मनुष्य के शरीर से अलग हुए इन चौदह स्थानों में 48 मिनट के बाद असंख्य समूच्छिम पंचेन्द्रिय मनुष्य उत्पन्न होते हैं मरते हैं, उत्पन्न होते हैं मरते हैं। इस तरह निरन्तर उत्पत्ति एवं मरण चालू ही रहता है। इन जीवों की रक्षा करने के लिए इन असूचि पदार्थों की बराबर जयणा करनी चाहिए। जयणा के नियम :1. झूठे बरतन 48 मिनट में धो लेना। उबाला हुआ पानी ठंडा हुआ है यह देखने के लिए अंदर हाथ नहीं डालना लेकिन बाहर से थाली को स्पर्श करके। जान लेना। थाली धो कर पीना और कपड़े से पोंछना। 4. कपड़े उतारकर डूचा करके बाथरूम में नहीं रखना। पसीने वाले होने से सुखा देना। 5. कपड़ों को 48 मिनट से ज्यादा भिगोकर नहीं रखना। 6. रसोइघर में डिब्बे वगैरह को भीगे अथवा जैसे तैसे हाथ लगाये हों तो बराबर पौंछकर रखना। 7. पेशाब संडास सक्य हो तो बाहर खुले में जाना। 8. कफ-थूक वगैरह को राख अथवा धूल में मिला देना अथवा कपड़े में लेकर मसल देना। गर्भज तिर्यच पंचेन्द्रिय की जयणा के लिए नियम : कुत्ते, बिल्ली, चूहे, सांप, भुंड, चिड़िया, मुर्गा, गाय, भैंस, छिपकली वगैरह की हिंसा न हो उसकी सावधानी उनके माँस और हड्डी से मिश्रित टूथ पेस्ट वगैरह वस्तुएं नहीं वापरनी। फैशन की भी बहुत सारी वस्तुएं लिपस्टिक वगैरह इन निर्दोष प्राणियों की हिंसा से बनते हैं इसलिए उपयोग में नहीं लेना। गर्भज मनुष्य : एक बार पुरुष के साथ संयोग होने के बाद स्त्री की योनी में नौ लाख गर्भज पंचेन्द्रिय मनुष्य, दो से नौ लाख विकलेन्द्रिय तथा असंख्य समूर्छिम जीवों की उत्पत्ति होती है। इसलिए ज्यादा से ज्यादा ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 64हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Inputsp d Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 8 गहनों कर्मणों गति साध्वी तत्वलोचनाश्री भगवान् महावीर ने कर्म को आठ भागों में विभक्त किया है। 1. ज्ञानावरणीय कर्म, 2. दर्शानावरणीय कर्म, 3. वेदनीय कर्म, 4. मोहनीय कर्म, 5. आयुष्य कर्म, 6. गोत्र कर्म, 7. नाम कर्म, 8. अन्तराय कर्म 1-2 ज्ञानावरणीय कर्म और दर्शानावरणीय : कर्म का बन्ध लगभग एक जैसा ही है। ज्ञान शास्त्र या ज्ञानी के प्रति द्वेष करना, अखबार, पुस्तकादि पर बैठना, फाड़ना, उसमें खाना, ज्ञान की योग्यता होते हुए भी ईर्ष्या के कारण दूसरों को नहीं पढ़ाना, पढ़ने वालों की पुस्तकें छिपाना, पढ़ने नहीं देना, ज्ञान के प्रकाशन पर रोकना, अच्छी बात को बुरी बताना आदि ज्ञानावरणीय कर्म के हेतु यानि दर्शन की भाषा में आस्रव है और दर्शनावरणीय के भी यही हेतु है। इन दोनों का अशुभ बन्ध पड़ा हो तो क्रमशः ज्ञान का अभाव होता है, अर्थात ज्ञान की घोर आशातना की हो तो मनुष्य जड़, मूर्ख व कुरूप पैदा होता है या फिर पढ़-पढ़ कर भूल जाता है। पढ़ना चाहते हुए भी नहीं पढ़ पाता है। ज्ञानी गुरु का समागम नहीं मिलता। प्रभु दर्शन व धर्म दर्शन की प्राप्ति भी नहीं होती। इन दोनों के तीव्र बंध के विपाक से व्यक्ति, जंगली की तरह जीवन यापन करता है। -वेदनीय कर्म : कर्म का बंध जब मनुष्य को तीव्र हो तो उसके फलस्वरूप जीव (मनुष्य) दुख को पाता है, शोक उत्पन्न होता है, अपमानित होता है, आर्त्त पूर्वक रोता है, मारा जाता है, दुर्घटना आदि होना जिससे भयंकर पीड़ा होती है, दूसरे बिछड़े हुए या मृत व्यक्ति के गुणों को याद कर आंसू गिराना। यह सब वेदनीय कर्म के कारण जीवात्मा भोगती है। 4-मोहनीय कर्म : कर्म का बंध जीवात्मा का पड़ा हो तो उसके प्रभाव से मनुष्य केवली तीर्थकरादि पर झूठा आरोप लगाता है, असंगत बताता है, साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, संघ आदि की निंदा करता है, अवर्णवाद, मिथ्यारोपण करता है, अपने स्वयं पर दूसरों पर क्रोधादि कषाय करता है । दूसरों का उपहास, ठगी, मजाक आदि करता है। खुद शोकातुर रहता है, दूसरों को भी शोक में डालने की कोशिश करता है, इत्यादि बातों में से किसी में भी लिप्त होने पर जीव मोहनीय कर्म बंध कर व सत्य धर्म की बात को समझने का प्रयास ही नहीं करता तथा अपने स्वयं के मित्र, पुत्र, पत्नी आदि के द्वारा ठगे जाने पर और उनके द्वारा प्रताड़ित होने पर भी वह उन्हीं लोगों पर पुनः विश्वास रखता है। 5-आयु कर्म : हमारा जीवात्मा जितना आयु कर्म का उपार्जन करके आया होगा उतने ही समय वह इस देह में जीवित रहता है और जैसी हमारी यहाँ प्रवृति होती है वैसा ही हमारा आयु कर्म का बंध पड़ता है और उसके प्रभाव से जिस जीवा योनी का बंध होता है उन्हीं जीव योनियों में जीव उत्पन्न होता है, जैसे मनुष्य योनि, देव योनि, तिर्यंच योनी, नर्क योनि। मनुष्य योनि :- स्वभाव से ही सरल, मृदुता, नम्रता, विनय, विवेक रखने वाला दीन दुखियों पर दया भाव रखने वाला दूसरों की सम्पत्ति देखकर ईर्ष्या, जलन न करने वाला तथा आवश्यकता से अधिक धन सम्पत्ति, वस्त्रादि का संग्रह न करने वाला अर्थात अपनी इच्छाओं को सीमित रखनेवाला जीव मनुष्य योनि का आयु कर्म बांधता है। हेगेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 65 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति FPrivate&PANCE Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन गंथा देव योनि:- जो मनुष्य अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि व्रतों की परिपालना संयम है, सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण दान तन दीक्षा स्वीकार करने वाला तथा बाल तप अर्थात अविवेक या मूढ़ भाव से जो तपश्चर्या की जाय, जैसे अग्नि या जल में कूद कर मरना, पर्वत की ऊँचाइयों से गिरना, मिथ्यात्व भाव से की गई क्रियाओं का करना इत्यादि कर्मों को करने वाला देव योनि उत्पन्न होता है। इनमें भी अलग अलग स्थानों को अलग अलग पुकारा जाता है। जिनमें 1. भुवनवासी देव, 2. व्यंतर देव, 3. ज्योतिषी देव, 4.वैमानिक देव। ___तिर्यच योनी :- जो मनुष्य माया, छल कपटाई के भावों से दूसरों को ठगने की प्रवृति करता है। गूढ माया, झूठी माया में भी भुलावे डालने वाली माया करता है, झूठा तोल माप करता है, झूठी लिखा पढ़ी कर भोले लोगों को फांसना आदि कर्म करने से तिर्यंच योनि (पशु-पक्षी, जलचर, थलचर, नभचर) में जन्म लेना पड़ता है। नरक योनि:- मनुष्य प्राणियों को दुख हो ऐसी प्रवृति से महारंभ करता है, धन कुटुम्बादि, पर आसक्ति ममत्वभाव रखता है, महापरिग्रह की तीव्र इच्छा रखता है, पंचेंद्रिय प्राणियों का वध करता है, मांस मदिरा का भक्षण करता है इत्यादि इस प्रकार के कारणों से लिप्त हो वह नरक में जन्म लेने वाले नारकीय जीव का आयु कर्म बाँधता है। जहाँ वह अनंत दुखों को भोगता है। 6-नाम कर्म : शुभ नाम कर्मों का संग्रह मनुष्य के नामों में प्रसिद्धि व प्रभाविकता देता है। अशुभ नाम कर्म बदनामी व झूठा आरोप दिलाता है। शुभ नाम कर्म व अशुभ नाम कर्म इसका बंध कैसे होता है इसके बारे में महामना उमास्वाति म. सा. कहते हैं :- योगवक्रता विसं वादनं चा शुभस्य नाम्नः । 16-21 योग वक्रता अर्थात मन वचन काया की वक्रता अर्थात टेढ़ा बोलना, बोलना कुछ और करना कुछ और, दूसरों को उल्टे रास्ते प्रेरित करना आदि प्रवृति मनुष्य को अशुभ नाम कर्म का बंध करवाती है। इसके विपरीत चलना जैसे सरलता, ऋजुता, वचन से कहा गया करने वाला सही मार्ग बताने वाला तथा अच्छे मार्ग की प्रेरणा देने वाला शुभ नाम कर्म बांधता है। 7-गोत्र कर्म : इस कर्म के प्रभव से मनुष्य उच्च तथा नीच जातियों में जन्म लेता है। जिसे दो भागों में बांटा जाता है, ऊँच और नीच गोत्र कर्म :- स्वयं की बुराई बोलने वाला, पर निंदा से विरत दूसरों के गुणों की प्रशंसा करने वाला तथा असदगुणों को उजागर नहीं करने इत्यादि कर्म करने वाला ऊँच गोत्र कर्म बंध करता है। जिसके प्रभाव से उच्च जाति में जन्म लेता है। नीच गोत्र कर्म - पर निंदा, दूसरों की निंदा, आत्म प्रशंसा, अपनी बढ़ाई करने वाला, अच्छे गुणों को ढकने वाला और बुरे गुणों को प्रकट करने वाला नीच गोत्र कर्म बांधता है। जिससे वह नीच कुल में जन्म लेता है। 8-अन्तराय कर्म : किसी योग उपयोगादि वस्तुओं में या दानादि देते हुए को रोकना अथवा उसमें विघ्न करना, अंतराय कर्म का प्रभाव है, इसके प्रभाव से पिछले सातों ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, गोत्र, आयु नाम सातों प्रभावित होते है। मेन्य ज्योति हेमेन्त ज्योति66 हेमेन्ट ज्योति हेमेन्द ज्योति। MARoye Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ । .............. जैन धर्म में अभिव्यक्त हिंसा-अहिंसा श्रीमती अर्चना प्रचण्डिया श्रमण संस्कृति में आचार – पक्ष पर विशेष बल दिया गया। आचार का आधार है अहिंसा। अहिंसा की चर्चा मात्र भारतीय संस्कृति में ही नहीं विश्व की समस्त संस्कृतियों में अपने अपने ढंग से अभिव्यक्त है। इस्लाम संस्कृति में अपने सहधर्मियों के साथ भ्रातृवत् व्यवहार करना, ईसाई मत में आदर, प्रेम व सहानुभूति, पशु पक्षी आदि प्राणधारियों की अपेक्षा केवल मानव तक ही सीमित होना, वेद, उपनिषदों में यज्ञ में होने वाली हिंसा तथा अन्यान्य भौतिक सुख हेतु की गई हिंसा का त्याज्य न होना आदि आदि, किन्तु इन सबमें अहिंसा का जो रूप श्रमण संस्कृति में है वह निश्चयेन अनुपलब्ध है। वहां हिंसा का अर्थ है असद्प्रवृत्तिपूर्वक किसी प्राणी का प्राण वियोजन करना तथा अहिंसा का अर्थ है प्रमाद से रहित प्रामाणिक तथा जाग्रत जीवन जीना। जैन संस्कृति के अनुसार मन-वचन-काय से अपने तथा पर के अथवा दोनों के परिणामों में आघात पहुंचना तथा दुख संताप कष्ट होना वस्तुतः हिंसा है। यथा : 'आत्म परिणामहिंसन हे तत्वात्सर्वमेव हिसैतत्। अनृत-वचनादि केवल मुदाहृतं शिष्य बोधाय। इसे दो प्रकार से समझा जा सकता है - एक भाव हिंसा से तथा दूसरा द्रव्य हिंसा से। आत्मीय भावों की हिंसा अर्थात आत्मा के अशुभ परिणाम अर्थात रागद्वेष प्रमादात्मक प्रवृत्ति को भाव हिंसा तथा प्राणों का वियोग (आयु विछेद) अर्थात शरीर के किसी अवयव की अथवा समस्त शरीर की हिंसा को द्रव्य हिंसा कहा जाता है। इसके भी दो-दो भेद हैं - भावहिंसा में एक स्वभाव हिंसा दूसरी परभाव हिंसा, द्रव्य हिंसा में एक स्वद्रव्य हिंसा तथा दूसरी परद्रव्य हिंसा। स्वभाव हिंसा में जीव का अपने शुद्धोपयोग रूप भाव प्राणों का तथा परभाव हिंसा में दूसरे के भावप्राणों का घात होता है। इसी प्रकार स्वद्रव्य हिंसा में जीव के अपने द्रव्य प्राणों का तथा परद्रव्य हिंसा में दूसरे के द्रव्य प्राणों का घात होता है। हिंसा भाव हिंसा द्रव्य हिंसा स्वभाव हिंसा, परभाव हिंसा, स्वद्रव्यहिंसा, परद्रव्यहिंसा द्रव्यहिंसा में भाव हिंसा गर्भित होने के कारण भावहिंसा को ही सूक्ष्म एवं प्रधान माना गया है। इन सबमें एक बात ज्ञातव्य है कि मात्र किसी जीव का मारा जाना अथवा उसके अंगों का भंग हो जाना हिंसा नहीं है। हिंसा के लिए सकषाय, मन, वचन, काय से भाव प्राण तथा द्रव्यप्राणों का घात होना अत्यंत आवश्यक है। यथा - 'यत्खलुकषाय योगात्प्राणानां द्रव्य भाव रूपाणां। व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा।।' यह परम सत्य है कि आत्म स्वभाव को छोड़कर जितने भी विकृत भाव हैं वे सब हिंसा स्वरूप हैं अर्थात पापों के जितने भी भेद - प्रभेद कहे जाते हैं, वे सब हिंसा के ही अपरनाम है। उदाहरणार्थ- झूठ बोलना, चोरी करना, कुशील सेवन करना, तृष्णा बढ़ाना तथा रागद्वेष करना इत्यादि। संसारी जीव के दैनिक क्रिया कलापों के आधार पर हिंसा को मूलतः चार भागों में केन्द्रित किया गया है1. संकल्पी हिंसा, 2. विरोधी हिंसा, 3. आरम्भी हिंसा, 4. उद्योगी हिंसा। इन चारों में सबसे अधिक हानिकारक तथा सर्वप्रथम त्याज्य है संकल्प के साथ होने वाली हिंसा। जहां पर भावों में दूसरे जीवों का घात या किसी प्रकार का हेगेन्द्र ज्योति * हेमेन्य ज्योति 67 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति D ulanintent Private & P Swait.jainaliliary.org Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ................ कष्ट-नुकसान पहुंचाने का संकल्प कर लिया जाता हो, वहां पर संकल्पी हिंसा होती है। चाहे उससे जीव का घात-कष्ट हो अथवा न हो इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। ऐसे जीव के तो हिंसा से होने वाला पाप बंध हो ही जाता है और यह बंध भी कोई साधारण कोटि का नहीं अपितु अनंतानुबंधी होता है। संकल्पी हिंसा तीव्र कषाय के उदय से होती है। कानून की दृष्टि में भी ऐसा जीव भयंकर अपराधी होता है। दूसरी प्रकार की हिंसा है विरोधी हिंसा। इसमें आक्रांता से अपनी रक्षार्थ विरोध करने पर न चाहते हुए भी आक्रांता का प्राणाघात होता है। दोनों प्रकार की हिंसाओं में जीव का वध होता है, पर दोनों में भावों का बहुत बड़ा अंतर है। संकल्पी हिंसा में मारने वालों के भावों में क्रूरता थीं, अतिरेकता है, जब कि विरोधी हिंसा में रक्षक के परिणाम क्रूरता के नहीं हैं, अपितु वहां रक्षा का एक प्रयत्न मात्र है। एक में हिंसा करनी होती है तथा दूसरे में हिंसा हो जाती है। तीसरी आरम्भी हिंसा है। यह गृहस्थाश्रम में होने वाले आरम्भ से होती है। बिना आरम्भ किये गृहस्थाश्रम का सूचारू रूप से चलना प्रायः असम्भव है। जैसे - जल का बरतना, चौका, चूल्ही, उखरी, झाड़ना, वस्त्र धोना आदि समस्त कार्यों में आरम्भ होता है। जहां आरम्भ होता है वहां हिंसा का होना भी अनिवार्य है। चौथी हिंसा उद्योगी हिंसा है। यह गृहस्थाश्रमी जीवों के उद्योग धंधों पर आधारित है। उद्योगी तथा आरम्भी हिंसाओं में जीव वध के परिणाम नहीं हैं किन्तु आरम्भजनित हिंसा होती है। आरम्भ सकषाय भावों से किया जाता है। इसलिए सकषाय मन-वचन-काय की प्रवृति होने से वहां भी हिंसा का लक्षण घटित होता है। आचार्यगण कहते है कि चार प्रकार की हिंसाओं के सर्वथा त्यागी संकल्प, विरोध, आरम्भ उद्योग रूप विचार एवं क्रियाओं से सर्वथा रहित निर्ग्रन्थ साधक होते हैं। गृहस्थ त्रस हिंसा का ही त्यागी हो सकता है। वह गृहस्थी होकर स्थावर हिंसा का त्यागी तो नहीं हो सकता अपितु प्रयोजनार्थ व्यर्थ की अनावश्यक हिंसा से यत्नाचार द्वारा अपने को बचा अवश्य सकता है। वास्तव में रागादिक भावों का उदय में नहीं आना अहिंसा, तथा उन्ही रागादि भावों की उत्पत्ति का होना हिंसा है। यथा - 'अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसेति। तेषा मेवोत्पत्ति हिंसेते जिनागमस्य संक्षेपः।। हिंसा का मूल स्रोत है सकषाय रूप प्रमाद। प्रमाद के अभाव में यदि प्राणों का घात होता है तो वहां हिंसा नहीं होती है। हिंसा का यह लक्षण अव्याप्ति, अतिव्याप्ति असंभव आदि समस्त दूसरों से रहित, समीचीन है। इसी आधार पर योग्य आचरण वाला अर्थात यतनाचार पूर्वक सावधानी से कार्य करने वाला रागादि रूप परिणामों के उदय हुए बिना प्राणों का घात मात्र होने से भी हिंसक की कोटि में नहीं आता है। इसके विपरीत रागादि के वश में प्रवर्तित प्रमाद के प्रभाव में जीव का घात–अपघात हो अथवा न हो, वह प्रमादी हिंसक कहलाता है। इस प्रकार प्रमाद के योग में नियम से हिंसा होती है। जैनागम में स्पष्ट उल्लेख है कि हिंसा परिणामों के अधीन है, परिणामों से ही होती है, परिणामों में ही होती है। बाह्य पदार्थों में न तो हिंसा है और न हिंसा के कारण ही है। परिणाम के आधारों पर हिंसा- अहिंसा का विवेचन करते हुए कहा गया है कि हिंसा न करके भी कोई जीव हिंसा के फल का भोक्ता होता है तथा दूसरा जीव हिंसा करके भी हिंसा के फल का भाजन नहीं होता है। कारण एक के परिणाम भावहिंसा में रत हैं और दूसरे के हिंसा से विरत हैं। यथा - 'अविधायापि हि हिंसा, हिंसाफल भाजनं भवत्येकः । कृत्वाप्यपरो हिसां, हिसाफल भाजनं न स्यात|| इसी प्रकार किसी को थोड़ी भी हिंसा समय पर उदय काल में बहुत फल देती है तथा किसी जीव को बहुत बड़ी हिंसा भी फलकाल में थोड़ाफल देने वाली होती है। इसका मूल कारण यह है कि जिस समय जिस जीव के जैसे परिणाम मंद संक्लेशमय या तीव्र संक्लेशमय होते है, उसके जो कर्म बंध होता है, उसमें रसदान शक्ति तदनुरूप मंद या तीव्र पड़ती है और उदय काल में तदनुरूप कम या अधिक फल देती है। बाह्य कारण तो निमित्त मात्र है। परिणामों की सरागता अथवा वीतरागता ही हिंसा अहिंसा रूप फल की दात्री है। इसी प्रकार यदि दो जीव मिलकर किसी जीव की हिंसा करें तो उन दोनों को भी उस हिंसा का समान फल नहीं मिलता है। जिसके अधिक कषाय हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्रज्योति 68 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सहित परिणाम होगें उसे अपेक्षाकृत अधिक फल मिलेगा एक कार्य में प्रवृत्त होने पर भी एवं समान क्रिया करने पर भी परिणामों की तीव्रता और मंदता के कारण दो जीवों में से एक अधिक पापी बनकर अशुभ कर्म बांधता है, दूसरा कम पापी होकर उससे हल्का अशुभ कर्म बांधता है। आचार्यगण इस बात पर अत्यधिक बल देते हैं कि जीव चाहे हिंसा करें या न करें पीछे करें या पहले करें या फिर उसी समय करें परन्तु जीव के जिस समय जैसे परिणाम होंगें उन परिणामों से जैसे उसने कर्म बांधे होंगें समय पाकर वे कर्म उदय में आकर उसे वैसा फल अवश्य देंगें। इस प्रकार हिंसा का फल जीव को भावों के अनुसार प्राप्त होता है चाहे दूसरे जीव की उसके द्वारा हिंसा हो अथवा न हो यदि उसके भावों में हिंसा रूप प्रवृत्ति है तो उसे हिंसा का फल अवश्य प्राप्त होगा। आचार्य आगे बताते हैं कि एक जीव हिंसा करता है परन्तु फल के भागीदार अनेक होते हैं। यथा : 'एक करोति हिंसा भवन्ति फल भागिनो बहवः । बहवोविदधाति हिंसा हिंसा फल भुग्भवत्येकः ॥ इन सबसे एक ही बात ध्वनित है और वह है जीव के परिणामों - भावों की विचित्रता । वास्तव में संसारी जीवों को परिणामों, भावों के आधार पर ही हिंसा का फल मिलता है। हिंसा के रूप-स्वरूप पर विवेचनोंपरांत इस विषय पर भी चर्चा करना असंगत न होगा कि वे कौन से पदार्थ हैं जिनके सेवन से अत्यधिक जीवों की हिंसा होती है। सर्वप्रथम आचार्यों ने अष्ट मूल गुणों मद्य, मांस, मधु, तथा पांच उदम्बर फलों के त्यागने पर बल देते है यथा : 'मद्यं मासं क्षौद्रं पंचोदुम्बर फलानि यत्नेन । हिंसा व्युपरीत कामेर्भोक्तयानि प्रथममेव ॥ आचार्य मक्खन (लोनी) को भी त्यागने की बात करते हैं क्योंकि यह भी एक प्रकार हिंसा जनित अभक्ष्य पदार्थ हैं मक्खन (लोनी) को अभक्ष्य इसलिए कहा गया है कि इसमें दो मुहूर्त के पश्चात अनेक समूर्च्छन जीव राशि पड़ जाती है। अस्तु, दो मुहूर्त के पश्चात अर्थात चार घडी के उपरांत तो वह अनेक जीव राशि का पिंड हो जाने से भक्ष्य ही नहीं रहता है। आचार्य बताते हैं कि अनेक ऐसे पदार्थ हैं जिनमें दोष भी नहीं हैं अर्थात जिनमें जीव राशि भी नहीं है तो भी आकृति से खराब होने के कारण जिन्हें देखने में परिणामों में कुछ विकार भाव हो जाता है। अतः वे पदार्थ भी अभक्ष्य और त्याज्य हैं। जैनागम में धर्मार्थ हिंसा को पाप में परिगणित किया गया है। यहां धर्म का संकेत उस धर्म से है जहां यज्ञादि में पंचेन्द्रिय पशुओं को होम दिया जाता है देवताओं के नाम पर पशुओं की बलि चढ़ाई जाती है। अनेक प्रकार से तीव्र हिंसा की जाती है। ऐसा धर्म, धर्म न होकर अधर्म है। धर्म के यथार्थ स्वरूप - मर्म को समझकर ही धारण 1 दयामय होता है। किसी भी निमित्त से जीवों करना अहिंसक जीवन के लिए आवश्यक है। धर्म सदा अहिंसामय, के वध करने में नहीं अतिथि के लिए भी प्राणीघात करना पाप है 1 जहां स्थावर जीवों के घात का निषेध बताया हिंसक जीव के प्राण हनन को क्योंकि जिस जीव के जैसे भाव गया है वहां त्रस जीवों के घात को महापाप से अभिहित किया है। इतना ही नहीं भी निंद्य माना गया है। चाहे उससे बहुत से जीवों की रक्षा ही क्यों न होती हो हैं उसके अनुसार वह पुण्य पाप का बंध करता है। हम व्यर्थ में पुण्य पाप के भागीदार क्यों बनें ? इसी प्रकार जिन जीवों को बहुत कष्ट हो रहा हो, उन्हें भी नहीं मारना चाहिए, सुखी जीवों को भी नहीं मारना चाहिए। इनता ही नहीं आगे बताया गया है कि स्वगुरु का शिरच्छेद करना भी पाप है, हिंसा है। भूख से व्याकुल जीव को भी मांसादि अभक्ष्य पदार्थ कभी नहीं देना चाहिए और न किसी प्रकार धर्म के निमित्त आत्मघात में ही प्रवृत्त होना चाहिए। आत्मघात के समान अन्य कोई दूसरा पाप नहीं है । संसारी जीव में इस प्रकार की समझ अज्ञानता मिथ्या मान्यताओं का ही परिणाम हैं जिससे वे पुण्य की अपेक्षा अपने आप को पापगर्त में गिराते है। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 69 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था आचार्य हिंसा के संदर्भ में चर्चा करते समय रात्रि भोजन के त्याग का भी निर्देश देते हैं। रात्रि भोजन हिंसा के प्रबल कारणों में से एक कारण है। इसलिए हिंसा से विरत होने वाले पुरुषों को रात्रि भोजन का त्याग अनिवार्य रूप से रहता है। प्रश्न उठता है कि रात्रि भोजन से हिंसा क्यों और कैसे होती है? इसका समाधान करते हुए बताया गया है कि हिंसा नाम आत्म परिणामों के विघात का है। यह विघात रागद्वेष रूप कषाय प्रवृत्ति से होता है। इसलिए जिन प्रवृत्तियों के करने से राग की वृद्धि हो, वे सब हिंसाजनक हैं। रात्रि भोजन में अपेक्षाकृत अधिक तीव्र राग है। तीव्र राग के उदय में तीव्र हिंसा का होना अनिवार्य है। अस्तु मन, वचन, काय आदि नव भंगों के साथ रात्रि भोजन त्यागी अहिंसक की कोटि में परिगणित है। हिंसाजनित पापकर्मों से बचने के लिए जैनागम में दो स्थितियां निरूपित हैं। एक स्थिति में महाव्रत धारण कर पूर्ण अहिंसक बना जा सकता है तथा दूसरी स्थिति में देशव्रत या दिव्रत अर्थात मर्यादापूर्वक जीवनयापन कर यथाशक्ति अहिंसा धर्म का पालन किया जा सकता है। बिना प्रयोजन हिंसात्मक अथवा कषायवर्धक कार्य या चिंतन करने पर पाप का संचय होता है। अहिंसक को सर्वथा इससे बचना चाहिए। बिना प्रयोजन हिंसात्मक कार्य हैं - पापोपदेश, पापचर्या, हिंसात्मक उपकरणों का दान, दुःश्रुति तथा द्यूत। इस प्रकार विधिपूर्वक समस्त पंच पापों का परित्याग कर तीनों योगों को वश में रखकर ध्यान पूजन, स्वाध याय, धर्म चर्चा आदि धर्म क्रियाओं में सोलह प्रहर किसी प्रकार के सांसारिक आरम्भ के किये बिना जीवन चर्या को स्थिर करने वाला निश्चय ही पूर्ण अहिंसा धर्म को अंगीकार करता है। ऐसा अहिंसक प्रोषधोयवासी कहलाता है। हिंसा से मुक्त्यर्थ एक विधि यह भी उल्लेखित है कि जो थोड़े भोग से ही सन्तुष्ट होता हुआ बहुभाग भोग तथा उपभोग को छोड़ देता है, वह उनसे होने वाली समस्त हिंसा से बच जाता है। इस रीति से उसके संयधिक अहिंसाव्रत होता है। कारण जितना आरम्भ घटाया जाता है उतनी ही हिंसा से मुक्ति होती जाती है। यह सर्व विदित है कि अहिंसा धर्म में दान की अपनी महत्ता है। इस संदर्भ में आचार्य कहते हैं कि दान की अप्रवृत्ति ही लोभ को जन्म देती है। लोभ हिंसा का ही पर्याय है अर्थात हिंसा रूप ही है क्योंकि लोभ भी आत्मा को मोहित एवं प्रमत्त बनाता है। अस्तु अतिथि को दान देने से अहिंसा धर्म की सिद्धि अथवा हिंसा भाव का परित्याग होता है। जैनागमानुसार किसी भी रूप, किसी भी अवस्था में किया गया घात, अपघात आत्मघात को कभी भी अहिंसा में परिगणित नहीं किया जा सकता। किन्तु सल्लेखना अहिंसा में परिगणित है। इस विषय में आचार्य कहते हैं कि संल्लेखना में कषाय भावों को घटाया जाता है। कषाय भावों का घटाना ही अहिंसा भावों का प्रकट होना है। क्योंकि कषाय ही तो हैं हिंसा के कारण। अतः संल्लेखना अहिंसा भाव को प्रकट करने के लिए ही धारण की जाती है। अहिंसा के माहात्म्य को दर्शाते हुए कहा गया है कि अहिंसा धर्म का पालना एक प्रकार का रसायन है जैसे रसायन का सेवन करने वाला चिरंजीवी बन जाता है उसी प्रकार अहिंसा रूपी रसायन का सेवन करने वाला सदा के लिए अजर अमर हो जाता है। अर्थात अहिंसा धर्म को उत्कृष्ट नीति से पालने वालों को मोक्ष सिद्धि हो जाती है। यथा 'अमृतत्त्व हेतु भूतं परमय हिंसा रसायनं लब्वा। अवलोक्य वालिशानाम समंच समाकुलैन भवितव्यं ।। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि जैनधर्म संस्कृति में अभिव्यक्त हिंसा अहिंसा व्यक्ति के जीवन में एक ओर जहां प्रामाणिकता तथा अप्रमत्तता का संचार करती है वहीं दूसरी ओर यह सोच भी उत्पन्न करती है कि अभीष्ट की प्राप्ति में क्या हेय है और क्या उपादेय है, क्या सार्थक है और क्या निरर्थक ? जीवन कहां हिंसा से गिरा है और कहां अहिंसा से आपूरित है ? वास्तव में हिंसा संसार सागर का निमित्त कारण बनती है। जबकि अहिंसा आत्म वैभव के अभिदर्शन कराती है। मंगलकलश 394, सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़ (उ.प्र.) 202 001. हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 70 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति ghtebitorial Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ३ विश्व धर्म के रूप में जैन धर्म-दर्शन की प्रासंगिकता - राजीव प्रचण्डिया धृञ/धृ धातु से निष्पन्न 'धर्म' आरम्भ से ही विवाद का विषय रहा है। इसका मूलकारण है कि धर्म का चिन्तन-मनन धारण अथवा धरने की अपेक्षा जाति, सम्प्रदाय रूढ़ि, संस्कार तथा अन्धविश्वास आदि के परिप्रेक्ष्य में अधिक हुआ हैं। जब कि वास्तविकता यह है कि धर्म इन सबसे परे मानव जीवन का आधार स्तम्भ है | वह आत्मा की एक शुभ परिणति है। धर्म के द्वारा आत्मा का उत्कृष्ट हित सधता है। आत्मा के यथार्थ स्वरूप अर्थात अनन्त चतुष्ट्य का उद्घाटन होता है। वैदिक तथा श्रमण परम्परा से सम्पृक्त भारतवर्ष अध्यात्म/धर्म प्रधान देश होने के कारण यहां धर्म की सापेक्षगत अनेक व्याख्याएँ अनेक रूपों में व्यवहृत हैं किन्तु जो व्याख्याएँ निरूपित हैं उनमें दो ही व्याख्याएँ मूल हैं एक 'धारणाद्धर्मः' अर्थात जो धारण करता है, उद्धार करता है अथवा जो धारण करने योग्य है वह वस्तुतः धर्म है, दूसरी 'वत्त्थु सहावो धम्मो' अर्थात वस्तु का अपना स्वरूप अथवा स्वभाव ही धर्म है। इन द्वय परम्परा की समस्त व्याख्याएँ इन दो में ही अन्तर्भूत हैं। ये दोनों व्याख्याएँ अपने-अपने ढंग से एक ही बात का निरूपण करती हैं। विचार करें जो स्वभाव है वही तो धारण करने योग्य है और जो स्वभाव से भिन्न विभाव है वह तो धारित नहीं, आरोपित होता है। आरोपण शाश्वत-चिरन्तन नहीं हुआ करते हैं, वे तो कालादि से बंधे होते हैं। आरोपण हटते ही जो है उसकी प्रतीति होने लगती है। वास्तव में धर्म संहारक नहीं अपितु एक उत्कृष्ट मंगल है। प्रस्तुत निबंध में विश्व धर्म के रूप में जैनधर्म दर्शन की प्रासांगिकता' नामक विशद् किन्तु अत्यन्त सामयिक विषय पर चर्चा करना हमारा मूल अभिप्रेत है। किसी वर्ग, जाति संप्रदाय, देश, विदेश अथवा काल विशेष आदि की अपेक्षा जो धर्म प्राणिमात्र के लिए उपयोगी तथा कल्याणकारी होता है वह धर्म वस्तुतः विश्व धर्म कहलाता है। विश्व धर्म संकीर्णता की नहीं विशालता और समग्रता की बात करता है। वह समन्वय तथा एकता की भावना को जन-जन में प्रसारित करता है। यह विश्व धर्म 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का सर्वथा पक्षधर है। ऐसा ही धर्म, जैनधर्म है। जो किसी वर्ग विशेष का ही नहीं अपितु उन सब के लिए है जिनमें जीव तत्व विद्यमान रहता है। जैन धर्म कोरी कल्पनाओं एवं मिथ्या मान्यताओं से सर्वथा मुक्त एक निष्पक्ष, निराग्रही, प्रकृति अनुरूप जीवनोपयोगी, व्यावहारिक तथा विशुद्ध वैज्ञानिक धर्म है। निःसंदेह यह धर्म विश्व धर्म का पर्याय माना जा सकता है। जिन अर्थात मन और इन्द्रियों को जीतने वाला जैनधर्म वस्तुतः प्रकृति जन्य धर्म है। उसका कोई प्रवर्तक और चालक नहीं है, यह किसी व्यक्ति-शक्ति विशेष द्वारा प्रस्थापित भी नहीं है, यह तो रागद्वेष विजेता आत्मज्ञ अर्हतों तथा तीर्थंकरों के अनुभवों का नवनीत है, अस्तु यह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है। इस धर्म की प्राचीनता के संदर्भ में यह धारणा अत्यंत मिथ्यापूर्ण है कि यह वैदिक धर्मादि की प्रतिक्रिया का प्रतिफलन मात्र है। जबकि वास्तविकता यह है कि यह पूर्णतः एक प्राचीन एवं स्वतंत्र धर्म है। जिसका प्रमाण है वैदिक ग्रंथ 'ऋग्वेद' में इस युग के जैन धर्म के प्रथम उन्नायक तीर्थंकर ऋषभदेव के नाम का एक बार नहीं अनेक बार उल्लेख होना। जैन धर्म प्राणियों पर नियंत्रण करने वाले किसी नियामक शक्ति अर्थात ईश्वर आदि सत्ता को नहीं मानता है। इसके अनुसार समस्त प्राणी स्वयं में पूर्ण और स्वतंत्र हैं। वे किसी अखण्ड सत्ता का अंश रूप नहीं है। प्राणी अपने अपने कर्म करने का और उसका फल भोगने का सर्वथा अधिकारी है। स्वस्थ जीवन साधना तथा आध्यात्मिक उत्थान के लिए जैन धर्म की दृष्टि में सभी समान है। प्राणी अपने कृत कर्मों को नष्ट कर स्वयं परमात्मा बन सकता है। वास्तव में आत्मा ही परमात्मा है। जैनधर्म कहता है कि परमात्मा बनने की शक्ति विश्व के प्रत्येक जीव में विद्यमान है। 'सब्वे जीवा णाणमया' अर्थात विश्व के समस्त प्राणि कुल ज्ञानमय है, सबमें केवल्यज्ञान प्राप्त करने की शक्ति तथा सामर्थ्य विद्यमान है। किसी विशेष व्यक्ति में ऐसी शक्ति - सामर्थ्य हो, ऐसी बात कदापि नहीं है। निःसंदेह कोई भी प्राणी सम्यकदर्शन, ज्ञान, चारित्र रूपी रत्नत्रय की समन्वित साधना के द्वारा अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है। हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्च ज्योति 71 हेमेन्द न्योति* हेगेन्द ज्योति Private SHEDigitionary WAS Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ वास्तव में यह धर्म विश्व के प्रत्येक प्राणवंत जीव को परमात्मा बनने का अधिकार प्रदान करता है तथा परमात्मा बनने का मार्ग भी प्रस्तुत करता है किन्तु यहां परमात्मा के पुनः भवावतरण की मान्यता नहीं दी गई है। जैनधर्म की यह मान्यता प्राणियों के नैराश्य तथा असहाय पूर्ण जीवन में आशा आस्था का संचार ही नहीं करती अपितु उनके अंदर पुरुषार्थ तथा आत्म निर्भर की पवित्र भावनाओं को उत्पन्न करती है। जैन धर्म में व्यक्ति विशेष की अपेक्षा मात्र गुणों के चिन्तवन करने का विधि विधान है। इसका आद्य मंत्र ‘णमोकार मंत्र' इसका साक्षी है। जैनधर्म में गुणों के ब्याज से ही व्यक्ति को स्मरण किया जाता है। शरीर तो सवर्था वंदना के अयोग्य है। जैनधर्म के अनुसार राग की प्रचुरता को समाप्त करने के लिए अर्थात कर्म निर्जरा हेतु इन पांच (अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु) का स्मरण-चिन्तवन वस्तुतः पूजा है। यह दो प्रकार से होती है। एक भाव पूजा जिसमें मन से अहंतादि के गुणों का चिन्तवन होता है तथा दूसरी द्रव्यपूजा जिसमें जल, चंदनादि अष्ट द्रव्यों से जो विभिन्न संकल्पों के प्रतीक है, जिनेन्द्र प्रतिमादि द्रव्य के समक्ष जिनेन्द्र के गुणों का चिन्तवन-नमन किया जाता है। वास्तव में भक्तिपूर्वक की गई जिनेन्द्र पूजा से संसारी प्राणी समस्त दुखों से मुक्त होकर इस भव या अगले भव में निश्चयेन सुख समृद्धि का भोग- उपभोग करता हुआ अंततोगत्वा अपने कर्मों की निर्जरा कर मोक्षगामी होता है। जैन धर्म की मान्यता है कि उच्च या निम्न कुल में जन्म लेने से कोई भी मनुष्य छोटा-बड़ा नहीं हुआ करता। जैन धर्म मनुष्य जाति में भेद नहीं मानता। वास्तव में व्यक्ति अपने गुणों से, अपने कर्मों से जाना पहचाना जाता है। संभवतः विश्व के किसी भी धर्म में ऐसी सर्वांगीण तथा समस्पर्शी भावनाएँ दृष्टिगोचर नहीं होती है। अन्य धर्मों की अपेक्षा जैनधर्म में कर्म और कर्म बंधन की प्रणाली तथा कर्म विपाक से मुक्त होने की प्रक्रिया वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित है। विश्व का प्रत्येक प्राणी जैन दर्शन में उल्लिखित कर्म जाल के स्वरूप को यदि समझ लेता है तो निश्चय ही वह संसार चक्र से सदा सदा के लिए मुक्त होकर स्वयंप्रभु बन सकता है। कर्म मुक्ति अर्थात मोक्ष प्राप्यर्थ जैनधर्म का लक्ष्य रहा है, वीतराग विज्ञानता की प्राप्ति। यह वीतरागता सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूपी रत्नत्रय की समन्वित साधना से उपलब्ध होती है। जैनधर्म में रत्नत्रय के विषय में विस्तार से तर्क संगत चर्चा हुई है। वास्तव में 'रत्नत्रय' के प्रकटीकरण पर ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। जैनधर्म आत्मवादी धर्म है। यहां आत्मा के अस्तित्व, उसके स्वरूप, अवस्था आदि पर गहराई के साथ सम्यक् चिन्तन किया गया है। इस धर्म में समस्त द्रव्यों, जो गुणों का पूंजी भूत रूप है, के समूह को विश्व लोक संसार कहा गया है। इसके अनुसार समस्त लोक मात्र छहः द्रव्यों - जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल में ही अंर्तभूत है। इन षडद्रव्यों में जीव द्रव्य को श्रेष्ठ द्रव्य निरूपित किया गया है, इसका मूल कारण है कि अन्य द्रव्यों की अपेक्षा इसमें हित-अहित, हेय, उपादेय, सुख-दुख आदि का ज्ञान रहता है। अर्थात इसमें ज्ञायक शक्ति चेतना सदा विद्यमान रहती है। जैनधर्म के अनुसार सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं का बना हुआ सूक्ष्म-अदृष्य शरीर वस्तुतः कार्माण शरीर कहलाता है। यह कार्माण शरीर आत्मा में व्याप्त रहता है। आत्मा का जो स्वभाव (अनन्त ज्ञान-दर्शन, अनन्त आनन्द शक्ति) है, उस स्वभाव को जब यह सूक्ष्म शरीर विकृत/आच्छदित करता है, तब यह आत्मा सांसारिक/बद्ध हो जाता है अर्थात रागद्वेषादि कषायिक भावनाओं के प्रभाव में आ जात है या यूं कहें कि कर्म बंधन में बंध जाता है। फलस्वरूप जीव (आत्मा) अनादि काल से एक भव (योनि) से दूसरे भव (योनि) में अर्थात अनन्त भवों में इस संसार चक्र में परिभ्रमण करता रहता है। यह निश्चित है कि बंधन/आवरण हटते ही, आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप (सिद्धावास्था) अर्थात् परमात्मा रूप में प्रतिष्ठापित हो जाता है। इस प्रकार जीव स्वयं ही अपने उत्कर्ष - अपकर्ष का उत्तरदायी है। बंधन अर्थात् परतंत्रता और मुक्ति अर्थात् स्वतंत्रता - दोनों ही आत्मा के आश्रित हैं। जैनधर्म में आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगमनत्व बताया गया है। वह नीचे से ऊपर उठता जाता है। इसलिए यहां कोई जीव अवतार रूप में या अंशरूप में जन्म नहीं लेता अपितु उत्तार रूप में जन्म लेकर मोह से निर्मोह, मिथ्यात्व से सम्यक्त्व, राग से वीतराग, अर्थात कर्म से निष्कर्म की ओर प्रवृत्त होता हुआ अपने अंतरंग में सुप्त अनन्त शक्ति-गुणों को जागृत करता हुआ परमात्म पद पर प्रतिष्ठित हो जाता है। आत्मा की यह आध्यात्मिक अवस्था उत्कृ ष्टतम अवस्था कहलाती है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 72 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति Santedications AAR Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ प्रत्येक धर्म के दो पक्ष हुआ करते हैं एक आचार पक्ष दूसरा विचार पक्ष । जैनधर्म के आचार का मूलाधार अहिंसा और विचार का मूल अनेकांतवाद है। अहिंसा आत्मा का स्वभाव है। अहिंसा का प्रतिपक्ष हिंसा है। हिंसा का अर्थ है असद् प्रवृत्ति पूर्वक किसी प्राणी का प्राण - वियोजन करना। जैन धर्म प्रमाद को हिंसा का मूल स्रोत मानता है क्योंकि प्रमाद वश अर्थात् असावधानी के कारण ही जीव के प्राण का हनन होता है। वास्तव में आत्मा के रागादि भावों का न होना अहिंसा तथा उन रागादि होना हिंसा है। जैन धर्म दिशा देता है कि जीवन सबको प्रिय है। इस विराट विश्व में जितने भी प्राणी है चाहे वे चर हैं, अचर हैं, चाहे वे सूक्ष्म हैं, स्थावर हैं, सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता। यह धर्म 'मत्स्य न्याय' अर्थात् 'सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट' से बचने की तथा 'जीओ और जीने दो' के अपनाने की बात करता है क्योंकि सुख सभी के लिए अनुकूल एवं दुख अननुकूल है। ज्ञान और विज्ञान का सार भी यही है कि प्राणी की हिंसा न की जावे। विश्व में जितने भी दुख हैं वे सब आरम्भज हिंसा से उत्पन्न होते हैं। इस धर्म के अनुसार अपने मन में किसी भी प्राणी के प्रति किसी भी प्रकार की दुर्भावना आने मात्र से ही अपने शुद्ध भावों का घात कर लेना हिंसा है। चाहे यह दुर्भावना क्रियान्वित हो अथवा न हो, और उससे किसी प्राणी को कष्ट पहुंचे या न पहुंचे परंतु इन दुर्भावनाओं के आने मात्र से व्यक्ति हिंसा का दोषी हो जाता है। हिंसा का मूलाधार कषाय भाव है। विश्व के किसी भी प्राणी के अंतरंग में यदि कषाय भाव-क्रोध, मान, माया व लोभ तथा रागद्वेष आदि विद्यमान हैं तो वह प्राणी निश्चयेन हिंसक कहलायेगा। जैन धर्म में हिंसा-अहिंसा की जहां चर्चा हुई है वहीं पर प्रत्येक व्यक्ति को प्राणी पीड़ा के परिहार हेतु 'समिति पूर्वक' अर्थात समस्त प्रकार से प्रवृत्ति परक जीवन जीने का निर्देश भी दिया गया है। वास्तव में एक अहिंसक के दैनिन्दिन में होने वाले जितने भी क्रिया कलाप हैं जैसे - चलना-फिरना, बोलना-चालना, आहार ग्रहण करना, वस्तुओं को उठाना-धरना, तथा मल-मूत्र निक्षेपण करना, उन सब में विवेक और समता का प्रभाव किन्तु प्रमाद-मूर्छा का अभाव अत्यन्त अपेक्षित रहता है। निर्भयता अहिंसा का प्रथम सोपान है। भय, संदेह, अविश्वास, असुरक्षा, पारस्परिक वैमनस्य, शोषण, अत्याचार तथा अन्याय आदि की अग्नि जो आज प्रज्वलित है, उसका मूल कारण है जीवन में जैनधर्म की अहिंसा का अभाव। अहिंसा में क्षमा, मैत्री, प्रेम, सद्भावना, सौहार्द्रता, एकता, वीरता तथा उपशम मृदुता आदि मानवी गुण विद्यमान हैं। अहिंसा के द्वारा विश्व के समस्त प्राणियों में क्षमा करने की भावना तथा शक्ति जागृत होती है यथा 'खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतुमे।' वास्तव में अहिंसा का पथ ही एक ऐसा पथ है जिसके द्वारा विश्व बंधुत्व एवं विश्व शांति का स्वप्न पूर्ण हो सकता है। जैनधर्म विश्व के समस्त प्राणियों के मध्य समता लाने हेतु विश्व की समस्त आत्माओं को एक सा मानता है, यथा 'ऐगे आया।' 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' के अनुसार अखण्ड विश्व की समस्त आत्माओं को अपने आत्मा की भांति समझना अपेक्षित है। वस्तुतः अहिंसा की यह साधना समत्व योग की साधना है। जिसका मूलाधार विश्व की समग्र आत्माओं के साथ अपने जैसा व्यवहार करना है। हम अपने लिए जिस प्रकार का व्यवहार दूसरों से चाहते हैं, हम अपने लिए जिस प्रकार की स्थिति की अपेक्षा दूसरों से करते हैं, अन्य समस्त प्राणियों के लिए हम वैसा ही व्यवहार करें, वैसी ही स्थिति निर्मित करें तो निःसंदेह अनन्त आनन्द सहज में ही प्राप्त किया जा सकता है। अहिंसा की भावना विकसित होने पर जीवन में सहिष्णुता का संचार होता है। परीषह सहन करने की शक्ति स्थापित होती है। सहिष्णुता के द्वारा ही भारत जैसे विशाल जनतंत्रात्मक देश में विभिन्न मतों को मानने वाले स्नेह और सद्भावनाओं के साथ परस्पर मिलते हैं तथा आनन्द पूर्वक विचार मंथन करते है। वास्तव में सहिष्णुता जैन धर्म की अनमोल उपलब्धि है जो अहिंसा द्वारा अर्जित की जा सकती है। निश्चय ही 'अहिंसा परमोधर्मः' अर्थात अहिंसा परम धर्म है। यह विश्व की आत्मा है। प्राणि मात्र के हित की संवाहिका है। सार्वभौमिक दृष्टिकोण विश्व के समस्त दर्शनों, धर्मों, संप्रदायों एवं पंथों का समन्वय किया करता है। यह दृष्टिकोण जैन धर्म के जीवनोपयोगी तथा व्यावहारिक एवं वैज्ञानिक सिद्धांत अनेकांतवाद अथवा स्याद्वाद को अपनाने से प्राप्त होता है। वस्तु तत्व निर्णय में जो वाद (कथन) अपेक्षा की प्रधानता पर आधारित है, वह स्याद्वाद है। 'अनन्त हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति 73 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Private & Per Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ धर्मात्मक सत' अर्थात वस्तु अनेक धर्मात्मक है। अर्थात विश्व की प्रत्येक वस्तु अनन्त गुण व विशेषताओं को धारण करती है। जब किसी वस्तु के विषय में कुछ भी कहा जाता है तो साधारणतः उसके एक धर्म (गुण) को प्रमुख तथा उसके अन्य धर्मों (गुणों) को गौण कर दिया जाता है क्योंकि शब्द का उच्चारण होते ही अपेक्षित गुण ग्रहण कर लिया जाता है। पदार्थ में विद्यमान अनेक गुणों में से केवल एकादि गुणों को ही देख – समझकर जब यह निर्णय कर लिया जाता है कि यह पदार्थ पूर्ण है, इसका स्वरूप अन्य प्रकार का हो ही नहीं सकता, इसमें अन्य गुण विद्यमान हैं ही नहीं, तब एकान्तिक दृष्टि जन्म लेती है जिससे हठाग्रह उत्पन्न होता है। हठाग्रह/पूर्वाग्रह से तमाम मतभेद, संघर्ष उत्पन्न हो जाते हैं जबकि अनेकान्तिक दृष्टि जीवन जीने का सुंदर मार्ग प्रस्तुत करती है। अनेकांतवाद/स्याद्वाद को लोगों ने प्रायः गलत समझा है। वास्तविकता यह है कि यह न संशयवाद है और न ही संदेहवाद अथवा अनिश्चितवाद अपितु यह यथार्थवाद से अनुप्राणित है। अनेकांतवादी जो कुछ कहता है वह किसी अपेक्षा से, किसी दृष्टि से कहता है क्योंकि एक ही समय में, एक ही क्षण में, एक ही वस्तु के विषय में सारे गुणों को व्यक्त करना एक व्यक्ति के द्वारा नितांत असंभव है। स्याद्वाद/अनेकांतवाद केवल दर्शन के क्षेत्र में ही नहीं अपितु व्यावहारिक क्षेत्र में भी समन्वय की स्थापना करता है। इसके द्वारा विश्व की प्रत्येक समस्या का सही समाधान हो सकता है। सामाजिक मतभेद दूर हो सकते हैं। निश्चयेन जैन दर्शन का यह अनेकांतवाद/ स्याद्वाद समाज में, राष्ट्र, अंतर्राष्ट्र में समन्वय, स्नेह, सद्भावना तथा सहिष्णुता जैसे उदात्त गुणों को उत्पन्न कर जीवन दर्शन को एक नया आयाम दे सकता है। जैनधर्म मानव समाज को अधिकाधिक सुखी बनाने हेतु अपरिग्रह पर बल देता है। पर-पदार्थ का उपयोग परिग्रह और अपरिग्रह नामक वृत्ति-व्यवहार पर निर्भर करता है। अपरिग्रह का अर्थ है कि प्रत्येक पदार्थ के प्रति आसक्ति का न होना। वस्तुतः ममत्व या मूर्छा भाव से संग्रह करना परिग्रह कहलाता है। आसक्ति के कारण ही मनुष्य अधिकाधिक संग्रह करता है। परिग्रह को व्यक्ति सुख का साधन समझता है और उसमें आसक्त वह सदा दुखी रहता है। जबकि कामना रहित व्यक्ति ही सदा सुखी रह सकता है क्योंकि मानव की इच्छाएँ आकाश के सदृश असीम है और पदार्थ ससीम। यह सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि एक इच्छा की पूर्ति से पूर्व ही अनेक नवीन इच्छाओं का प्रादुर्भाव हो जाता है। यह सत्य है कि वैज्ञानिक विकास में विविधमुखी सुसंपन्नताएं अवश्य जुटाई गई हैं, उनसे क्षणिक सुखानुभूति भी होती है पर उनसे जीवन में स्थाई सुख शांति की पूर्ति प्रायः नहीं हो पाती। वास्तव में जिसे आज सुख समझा जाता है वह तो सुख नहीं मात्र सुखाभास है। जिस सुख से चित्त अशांत रहता है वह भला सुख कैसे हो सकता है। पाश्चात्य देशों का सामाजिक जीवन अशांत और असंतोषमय है। ठीक यही स्थिति आज हमारे देश के निवासियों की होती जा रही है। वे योग से हटकर भोग की दिशा में भटक रहे हैं। अननुकूल परिस्थितियों में वे असंगत, प्रत्यावर्तन के साथ अर्थ का अनर्थ कर डालते हैं। भोग में तृप्ति नहीं, वृत्ति है, विकास है कामना का। जितने भोगवासनाओं के उपकरण और सुविधाएँ जुटाई जाएंगी अतृप्ति उतनी ही अधिक उद्दीप्त होगी। जैन धर्म का अपरिग्रहवाद प्रत्येक मनुष्य में स्थाई तृप्ति तथा सुख शांति ला सकता है। स्पष्ट है कि मन और इंद्रियों को संयत किये बिना और लालसाओं को काबू में किये बिना न व्यक्ति के जीवन में तुष्टि आ सकती है और न समाज, राष्ट्र या विश्व में ही शांति स्थापित हो सकती है। अतएव जैसे आध्यात्मिक उन्नति के लिए संयम की आवश्यकता है उसी प्रकार लौकिक समस्याओं को सुलझाने के लिए भी वह अनिवार्य है अन्यथा एक दूसरे को हड़पने की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहेगी। जिससे भय, अशांति और संघर्ष नये नये रूपों में जन्म लेकर विकसित होते जायेंगें। निश्चयेन जैन धर्म का अपरिग्रहवाद आधुनिक युग की अर्थ वैषम्य जनित सामाजिक समस्याओं का सुंदर समाधान है। सात्विक जीवन निर्वाह हेतु विश्व के प्रत्येक मानव को प्रेरित करना जैनधर्म का मुख्य लक्ष्य रहा है। जैन धर्म मानव शरीर को जल संबंधी समस्त दोषों से मुक्त और शरीर को स्वस्थ तथा निरोग रखने की दृष्टि से शुद्ध, ताजे छने हुए और यथा संभव उबालकर ठंडा किये हुए जल के सेवन करने का निर्देश देता है। भोजन के संबंध में जैन धर्म का दृष्टिकोण अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा वैज्ञानिक है। इसके अनुसार मानव जीवन एवं मानव शरीर हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 74हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति S rivated Nowiain Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ को स्वस्थता प्रदान करने के लिए तथा आयुपर्यन्त शरीर की रक्षार्थ निर्दोष, परिमित, संतुलित एवं सात्विक भोजन ही सेवनीय होता है। वस्तुतः समस्त हिंसा के निमित्तों से रहित भोजन ही योग्य है। जैन धर्म की मान्यता है कि सूर्यास्त के पश्चात रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए। इसका वैज्ञानिक महत्व एवं आधार यह है कि आसपास के वातावरण में अनेक ऐसे सूक्ष्म जीवाणुं विद्यमान रहते हैं जो दिन में अर्थात सूर्य प्रकाश में उपस्थित नहीं रह पाते। जिससे भोजन दूषित, मलिन व विषमय नहीं हो पाता है। दूसरा महत्वपूर्ण सत्य यह है कि भोजन मुख से गले के मार्ग द्वारा सर्वप्रथम आमाशय में पहुंचता है जहां उसकी वास्तविक परिपाक प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। परिपाक हेतु वह भोजन आमाशय में रहता है। जब तक मनुष्य को जागृत एवं क्रियाशील रहना चाहिए क्योंकि मनुष्य की जागृत एवं क्रियाशील अवस्था में ही आमाशय की क्रिया सक्रिय रहती है जिससे भोजन के पाचन में सहयोग मिलता है। इसी आधार पर रूग्ण व्यक्ति को रात्रि काल में पथ्य न लेने की व्यवस्था चिकित्सा शास्त्र में हैं। जैन धर्म सूर्योदय से दो घड़ी तक और सूर्यास्त होने पर व्यक्ति को भोजन करने की अनुमति नहीं देता है। जैनधर्म सप्तव्यसनों (जुआ खेलना, मांसाहार करना, मदिरा (शराब) सेवन, वेश्यागमन, शिकार खेलना, (मनोरंजन हेतु मूक प्राणियों का क्रूर हनन), चोरी करना, (सफेद पोशीय अथवा साधारण रूप में) परस्त्रीगमन तथा तीन मकारों मधु (शहद), मांस और मदिरा तथा पांच उदम्बरों (पीपल, पिल्खन, वट (बढ़), गूलर, अंजीर) के त्यागने की बात करता है। क्योंकि शारीरिक तथा मानसिक दोनों दृष्टियों से ये पदार्थ-व्यसन मानव स्वभाव के सर्वथा अननुकूल है। इसके अनुसार अण्डे तथा शराब, सिगरेट आदि मादक तथा उत्तेजनात्मक पदार्थों से द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकार की हिंसा होती है। उससे स्वास्थ्य विचार-संयम, ज्ञान, सत्य, पवित्रता, दया, क्षमा आदि समस्त दिव्यगुण समाप्त हो जाते है। व्यक्ति पतित मलिन हो जाता है। मद्य में तो अनेक जीव उत्पन्न होते हैं और मरते रहते है। समय पाकर वे जीव उस मद्य पान करने वालों के मन में मोह-मूर्छा उत्पन्न करते हैं जिससे मान अभिमान आदि कुभाव जन्म लेते हैं। वास्तव में अरवाद्य और अपेय पदार्थ आत्म तत्त्व को अपकर्ष की ओर उन्मुख करते हैं। ऐसे खान-पान से हृदय और मस्तिष्क दोनों ही प्रभावित होते हैं। फलस्वरूप स्मृति-स्खलन तथा अशुचि एवं तामसीवृत्तियां उत्पन्न होती है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि जैनधर्म विश्व के समस्त जीवों के लिए कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। यह धर्म किसी विशेष जाति, संप्रदाय आदि का धर्म नहीं है वरन् यह अंतर राष्ट्रीय सार्वभौमिक तथा लोक प्रिय धर्म है। इस संदर्भ में मुर्धन्य चिंतक सर्वपल्ली डॉ. राधाकश्णन का यह कथन संगत एवं सार्थक है कि जैन दर्शन सर्वसाधारण को प्रोहित के समान धार्मिक अधिकार प्रदान करता है। प्राणिमात्र का धर्म होने के फलस्वरूप जैन धर्म को अनियतिवाद अर्थात कर्मवाद, अहिंसा, स्याद्वाद, समन्वय, सह अस्तित्व, सहिष्णु तथा सर्वोदय आदि नामों से संबोधित किया जा सकता है। इसके सारे सिद्धांत पूर्वाग्रह से सर्वथा मुक्त है। यह धर्म प्रत्येक के लिए ग्राह्य एवं उपादेय है। वास्तव में जैन धर्म जीओ और जीने दो का मार्ग प्रशस्त कर संपूर्ण मानव जाति को आपस में असम्पीड़ित करते हुए रहने की एवं स्वतंत्र जीवन की शिक्षा का प्रचार प्रसार करता है। यह स्वतंत्रता मात्र कागजों पर लिखा एक दस्तावेज नहीं है अपितु यह व्यावहारिक जीवन से सम्पृक्त है। स्वतंत्रता के द्वारा ही जीवन कषायों अर्थात क्रोधादि मानसिक आवेगों से मुक्त होता हुआ आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर रहता है अर्थात् भोग से हटकर योग की दिशा में प्रविष्ट होता है। जैन धर्म प्रवृत्ति परक न होकर निवृत्ति परक होने के कारण जीवन के लक्ष्य को भोग की अपेक्षा त्याग, बंधन की अपेक्षा मोक्ष की ओर प्रेरित होने का संदेश देता है। निश्चय ही इस योग के द्वारा संसारी जीव अपना विकास करता हुआ अर्थात् संपूर्ण बंधनों को काटता हुआ सिद्धांत को प्राप्त होता है। वास्तव में यह सिद्धावस्था या मुक्तावस्था एक सर्वोत्तम रूप है स्वतंत्रता का। निष्कर्षतः यह कथन अत्युक्ति पूर्ण न होगा कि विश्व की तमाम धार्मिक मान्यताओं में भारतीय धर्म मान्यता और इसमें भी जैनधर्म की मान्यता का एक विशिष्ट स्थान है। इसका मूलकारण है कि जैनधर्म की मान्यता का विशिष्ट स्थान है। इसका मूलकारण है कि जैनधर्म त्याग-तप और भक्ति मुक्ति के साथ साथ शाश्वत सुख आनन्द हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 75 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति TFORPrivate&Pere Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ की प्राप्ति पर बल देता है। जैन धर्म संसारी प्राणी को अपने शुद्ध स्वरूप अर्थात् संपूर्ण कर्मों से निर्जरित, परम विराट अवस्था पर प्रतिष्ठित कराता है। संसारस्थ प्राणी की विकासात्मक यात्रा, काम, अर्थ, धर्म, और मोक्ष नामक पुरुषार्थ चतुष्टय पर आधृत है जिनमें परम पुरुषार्थ मोक्ष को माना गया है क्योंकि इसमें अनन्त आनन्द की प्राप्ति होती है। धर्म ही नवीन कर्मों के बंधनों को रोककर पूर्व बद्ध कर्मों की निर्जरा में प्रमुख कारण होता है, इसलिए वह मोक्ष का साक्षात् कारण / साधन / निमित्त बनता है । 1. ऋग्वेद 2. अथर्ववेद 3. ऐतेरेय ब्राह्मण 4. छान्दोग्योपनिषद् 5. मनुस्मृति 6. पूर्वमीमांसा सूत्र जैमिनि 7. मत्स्यपुराणा 8. वायुपुराण 9. पराशर माधवीय 10. तैत्तिरीयोपनिषद् 11. याज्ञवल्क्य स्मृति 12. उत्तराध्यपन सूत्र संदर्भ ग्रन्थ हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 13. समवायांग 14. भगवती सूत्र 76 15. सूत्र कृतांग 16. आचारांग निर्युक्ति 17. दशवैकालिक, जिनदास चूर्णि 18. स्थानांग वृति आचार्य अभयदेव 19. प्रज्ञापनावृति, आचार्यमलय गिरि 20. योगावतार द्वात्रिंशिका 21. ध्यानशतक 22. आवश्कहरिभद्री टीका 23. प्रश्नव्याकरण, संवरद्वार 24. ओघ नियुक्ति । अ 'मंगलकलश 394, सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़-202001 (उ.प्र.) क्षमा अमृत है, क्रोध विष है। क्षमा मानवता का अतीव विकास करती है और क्रोध उसका सर्वथा नाश कर देता है। क्षमाशील में संयम, दया, विवेक, परदुःख भंजन और धार्मिक निष्ठा ये सद्गुण निवास करते हैं क्रोधावेशी में दुष्चारिता, दुष्टता, अनुदारता, परपीड़कता आदि दुर्गुण निवास करते हैं और वह सारी जिंदगी चिन्ता, शोक एवं संताप में घिर कर व्यतीत करता है। उसको क्षण भर भी शांति से सांस लेने का समय नहीं मिलता। इस लिये क्रोध को छोड़ कर एक क्षमागुण को ही अपना लेना चाहिये, जिससे उभय लोक में उत्तम स्थान मिल सके। क्षमागुण सभी सद्गुणों की उत्पादक खान है। इस को अपनाने से अन्य सर्व श्रेष्ठ गुण अपने आप मिल जाते हैं। PERRAAT श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ - 3 (पार्वापत्य कथानाकों के आधार पर भ. पार्श्वनाथ के उपदेश - नन्द लाल जैन, जैनों की वर्तमान चौबीसी में भ. पार्श्वनाथ तेइसवें तीर्थंकर हैं। इन्होंने काशी में विशाखा नक्षत्र में जन्म लिया और इसी नक्षत्र में संमेदाचल से निर्वाण पाया। इनका जीवन चरित्र कल्पसूत्र' चउपन्न माहापुरिस चरिउ, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, महापुराण और पार्श्वपुराण आदि में पाया जाता है। एक तापस के पंचाग्नि के समय सर्प की रक्षा और अपने तपस्या काल में कमठ का उपसर्ग इनके जीवन की प्रमुख घटनायें हैं। इन्होंने तीस वर्ष में दीक्षा ली, तेरासी दिनों में केवल ज्ञान पाया और सत्तर वर्ष तक धर्मोपदेश दिया। दोनो ही संप्रदायों में, महावीर चरित्र के विपर्यास में, उनका चरित्र प्रायः एक समान होते हुए भी आधुनिक दुष्टि से पूर्ण नही लगता । भला, सौ वर्ष को दो-चार पृष्ठों में कैसे समाहित किया जा सकता है। भ०पार्श्व ने अपने जीवन काल में" "पुरुष श्रेष्ठ" ऋषि और 'अर्हत' की ख्याति पाई। इससे उनकी लोकप्रियता तथा जन कल्याणी उपदेश कला का अनुमान लगता हैं। उनके संघ के साधु स्थविर और निर्ग्रथ कहलाते थे। महावीर की तुलना में उनके चतुर्विध संघ में कम-से-कम एक प्रतिशत सदस्य अधिक थे। कल्पसूत्र के अनुसार, इनके संघ में 16000 साधु, 38000 आर्यिकायें, 114000 श्राविक एवं 332000 श्राविकायें थीं। यह संख्या त्रिलोकप्रज्ञप्ति में कुछ भिन्न हैं। फिर भी, औसतन साध्वी-साधु का अनुपात 2.37 और श्रावक-श्राविका का अनुपात लगभग 3.0 आता हैं। साध्वी-साधु का अनुपात श्वेतांबर संप्रदाय में तो अब भी यही लगता हैं, पर दिगंबरों की स्थिति काफी भिन्न दिखती हैं। यह संघ निर्ग्रथ कहलाता था। महावीर को भी तो "निगंठ-नातपुत्त" कहा गया हैं। इनके लिए जैन शब्द तो 8-9वीं शती की देन हैं। इसीलिए आज कल 'निर्गंथ' पत्रिका निकली है जो भूत, प्रधान अधिक है। पार्श्वनाथ तो वर्तमान प्रधान थे। इनका मुख्य कार्य क्षेत्र तो वर्तमान विहार तथा उत्तर प्रदेश (काशी वैशाली, कपिलवस्तु, श्रावस्ती और राजगिर आदि) रहे पर उड़ीसा और बंगाल में पार्श्वपत्य सराकों की उपस्थिति उनके इन क्षेत्रों में भी प्रभाव को सूचित करती है। स्वयं महावीर और उनका वंश भी मूलतः पार्श्वापत्य था। भ. बुद्ध और उनका संबंधी भी प्रारंभ में पार्श्वापत्य ही थे। महावीर का उनके प्रति आदर भाव भी था। इसका उल्लेख उन्होंने अपने अनेक प्रश्नोंत्तरों में किया है। महावीर का पार्श्व की परंपरा का संघ, श्रुत एवं आचार प्राप्त हुआ। उन्होंने सामायिक परिस्थितियों के अनुसार उस में कुछ सं गोधन एवं परिवर्तन किये और उसे अधिक जनकल्याणी तथा वैज्ञानिक बनाया। इसीलिए वे अपने युग के नवीन तीर्थंकर बने। वर्तमान में भ. पार्श्व के उपदेशों/सिद्धान्तों से संबंधित कोई विशेष आगम ग्रंथ नहीं हैं। पर कहते हैं कि उनके उपदेशों का सार चौदह पूर्व ग्रन्थों में रहा होगा। दुर्भाग्य से, वे आज विस्मृिति के गर्भ में चले गये है। पर उनका अधिकाँश प्रवादान्त नामों से पता चलता है कि पार्श्वनाथ के समय भी महावीर के समान अनेक मत-मतान्तर रहे होंगे। इनके आधार पर ही उन्होने अपने एकीकृत उपदेश दिय होंगे। उनके उपदेशों का सार ऋषिभाषित' में मूल रूप में है पर उत्तराध्ययन, सूत्रकृत, भगवती सूत्र ज्ञाताधर्मकथा, राजप्रश्नीय," आवश्यक नियुक्ति," तथा निरयावलियाओ,” आदि के समान प्राचीन ग्रन्थों में अनेक पार्श्वपत्य स्थविरों एवं श्रमणोंपाशकों के कथानकों के रूप में यत्र-तत्र भी उपलब्ध होता है। इन ग्रन्थों का रचना काल 500-100ई.पू. के बीच माना जा सकता है। ये उपदेश (1) केशी-गौतम संवाद (2) पेंढालपुत्र उदक (3) वैश्य पुत्र कालास, स्थविर मेंहिल संघ, स्थविर गांगेय एवं अन्य पार्श्वापत्य स्थविर (4) भूता, काली आदि साध्वी (5) केशी- प्रदेशी संवाद (6) स्थविर मुनिचन्द्र, गोशालक संवाद तथा (7) सोमिल ब्राह्मण आदि के कथानकों में पाये जाते है। इन ग्रन्थों में नंदिषेण आदि स्थविर तथा सोमा, जयन्ती, विजय तथा प्रगल्भा आदि परिव्राजिकाओं के भी उल्लेख हैं। अनेक कथानकों में पार्श्वपत्य स्थविर या श्रावक महावीर के धर्म में दीक्षित तो होते हैं, पर उनमें उनके उपदेश नहीं हैं। ये सभी संवाद और कथानक वाराणसी एवं मगधक्षेत्र से संबंधित हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि इन क्षेत्रों में पार्श्वपत्यों का महावीर काल में भी काफी प्रभाव था। इन्हें अपने पक्ष में करने के लिए महावीर को अनेक बौद्धिक एवं कूटनीतिक उपाय काम में लेने पड़े होंगे। • कुछ बौद्ध ग्रंथों में भी भ. पार्श्व और उनसे संबंधित स्थविरों के कथानक पाये जाते हैं। इन उल्लेखों तथा जैन कथाओं के आधार पर ही पार्श्व की ऐतिहासिकता तथा समय (877-777ई.पू. या 817-717 ई.पू. यदि महावीर का समय 540-468 ई.पू. माना जाय) निर्धारित किया जाता हैं। भ. पार्श्व की ऐतिहासिकता की सर्वप्रथम अभिव्यक्ति इस युग में जर्मन विद्वान हर्मन जैकोबी ने की थी । Eduction Inte हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 77 Private हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ भ. पार्श्व के प्रमुख उपदेशों में विचारात्मक और आचारत्मक-दोनों कोटियाँ समाहित है। इस आलेख में इनका संक्षिप्त विवरण देने का प्रयास किया है। यहाँ यह संकेत देना आवश्यक है कि मैं इतिहासज्ञ नहीं हूँ, धार्मिक ग्रंथों का वैसा अध्येयता भी नहीं हूँ जैसी यह विद्वन मंडली हैं। अतः इस आलेख में अनेक अपूर्णतायें होंगी। आपके बुद्धिपरक सुझाव मुझे प्रिय होंगे। ऋषि भाषित में पार्श्व ऋषि के उपदेश: दिगम्बर ग्रन्थों में ऋषि भाषित का उल्लेख नहीं मिलता, पर श्वेताम्बर मान्य स्थानांग, समवायांग तथा उत्तरवर्ती ग्रन्थों में इसका प्रश्नव्याकरण के अंग अथवा कालिक श्रुत के रूप में और तत्वार्थाधिगम भाष्य" में अंगबाह्य के रूप में इसका विवरण मिलता हैं । जैन इसे अर्धमागधी का प्राचीनतम आचारांग का समवर्ती या पूर्ववर्ती 500-300 ई.पू. का ग्रन्थ मानते हैं। इसमें 45 ऋषियों के उपदेशों में अर्हत पार्श्व और वर्द्धमान के उपदेश भी सम्मिलित हैं। यही एक ऐसा स्तोत्र हैं जिसमें भ. पार्श्व के उपदेश मूल रूप में, बिना कथानक के, पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त, यह प्राचीनतम रूपों में से अन्यतर ग्रन्थ माना जाता हैं। फलतः इसी ग्रन्थ से हम भ. पार्श्व के उपदेशो की चर्चा करेंगे। इसमें जहाँ वर्द्धमान के कर्मवाद और कर्म संवर के उपाय- इन्द्रीय विजय, कषाय विजय एवं मन विजय (उन्नीस गाथाओं में बताया गये हैं, वही पार्श्व ऋषि के उपदेश (चौबीस सूत्रों में) निग्रंथ प्रवचन का संपूर्ण सार प्रस्तुत करते है जिन्हें महावीर ने अधिकाँश में मान्य किया। पार्श्व के इन उपदेशों में (1) विचारात्मक (2) आचारात्मक-दोनों रूप समाहित हैं। वैचारिक दृष्टि से, पार्श्व के उपदेशों में (1) पंचास्तिकाय (2) आठ कर्म, कर्म बंध, कर्म विपाक आदि के रूप में कर्मवाद (3) चार गतियाँ और मुक्तिवाद (4) शाश्वत, अनन्त, परिमित एवं परिवर्तनशील विशिष्ट आकार का लोक (5) जीव और अजीव तत्व और उनकी ऊर्ध-अधोगति तथा जीव का कर्तृत्व-भूक्तृत्व (6) चातुर्याम धर्म (7) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के दृष्टिकोणों से वर्णन की निरूपणा (8) हिंसा एवं मिथ्या दर्शन आदि अठारह पापस्थानों की दुख करता (9) इनसे विरति की सुख करता आदि के सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं। आचारगत उपदेशों में बताया गया है कि मनुष्य को हिंसा, कषाय एवं पाप स्थानों में प्रवृत्ति नहीं करना चाहिए क्योंकि ये दुःख के कारण हैं। सम्यग् ज्ञान एवं दर्शन से सुख की प्राप्ति होती हैं। प्राणियों को अचित्त आहार एवं सांसारिक प्रपंच-विरमण करना चाहिए जिससे भव-भ्रमण का नाश हो। प्राणियों को चातुर्याम धर्म का पालन करना चाहिये। इसके पालन से कर्म-द्वार संवृत होते हैं। _पार्श्व के ये उपदेश हमें आत्मवाद एवं निवृत्तिमार्ग का उपदेश देते हैं। इन उपदेशों में सचेल-अचेल मुक्ति की चर्चा नहीं हैं, मात्र चातुर्याम धर्म की चर्चा हैं। ऐसा प्रतीत होता हैं कि यह विषय उत्तरवर्ती काल में विचार-विन्दु बना होगा वैसा केशी-गौतम या अन्य संवादों में प्रकट होता हैं। इस ग्रन्थ में 'जीव' एवं 'अन्त' (आत्मा)- दोनों शब्दों का उपयोग समान अर्थ में किया लगता हैं। इससे प्रकट होता है कि भ. पार्श्व के विचारों पर उपनिषदीय 'जीवत्मवाद' का प्रभाव पड़ा हैं। अन्य ग्रन्थों में यत्र-तत्र जो भी पार्श्व के उपदेश या उनका सन्दर्भ पाया जाता हैं, वह ऋषिभाषित के सूत्रों का विस्तार या किंचित्त परिवर्धन (सचेल-अचेल मुक्ति आदि) का रूप हैं। उत्तराध्ययनः केश-गौतम संवादः विज्ञान और प्रज्ञा का उपयोग आवश्यकः चटर्जी उत्तराध्ययन को पाचंवी सदी ईसा पूर्व का ग्रंथ मानते हैं। इसके तेइसवें अध्ययन में पार्खापत्य केशी एवं महावीर के गणधर गौतम का एक ज्ञानवर्धक संवाद है। राजप्रश्नीय के केशी-प्रदेशी के संवाद में यही पापित्य केशी आचार्य हैं। इस संवाद के अनुसार, एक बार कुमार श्रमण केशी और गणधर गौतम एक ही समय श्रावस्ती (उ.प्र.) के अलग-अलग दो उद्यानों में ठहर थे। दोनों के ही मन में एक दूसरे से मिलने की एवं एक दूसरे की परम्पराओं को जानने की जिज्ञासा हुयी। गौतम संघ सहित केशी से मिलने गये। केशी ने उनसे बारह प्रश्नों पर जिज्ञासा की! इनमें दो प्रश्न महत्वपूर्ण हैं। एक ही लक्ष्य होते हुये चातुर्याम एवं पंचयाम तथा वेश की द्विविधता के हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 78 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Jain Education Interational Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था उपदेश का क्या कारण हैं? गौतम ने इस विषय में बहुत ही वैज्ञानिक दृष्टि का आश्रय लिया और बताया कि- (1) उपदेश शिष्यों की योग्यता एवं लौकिक दशाओं के आधार पर दिया जाते हैं। भ. पार्श्व के समय साधु और श्रावक ऋजु और प्राज्ञ होते थे और भ. महावीर के समय ये वक़ और जड़ होते हैं। अतः दोनों के उपदेशों में धर्म और तत्व का उपदेश प्रज्ञा और बुद्धि का प्रयोग कर देना चाहिए। महावीर ने वर्तमान दशा को देखकर ही विभज्यवाद के आध पार पर ब्रह्मचर्य व्रत जोड़कर पंचयाम का उपदेश दिया। भ. पार्श्व के युग मे यह अपरिग्रह के अन्तर्गत समाहित होता था। ऐसा प्रतीत होता है कि भ. पार्श्व के युग में विवाह-प्रथा का प्रचलन किंचित् शिथिल रहा होगा। महावीर ने उसे पांचवें याम के आधार पर सुदृढ़ बनाया और सामाजिकता का सम्वर्द्धन किया। तत्वतः इसमें भिन्न-पथता नहीं, व्याख्या-स्पष्टता ही अधिकता है। मूलाचार 7.535-39 में भी परोक्षतः यही कहा गया है। (2) इसी प्रकार, वेश (सचेल-अचेल) संबंधी द्विविधता भी केवल व्यावहारिक है। यहां भी वैज्ञानिक आधार ही धर्म के साधनों का अवलंबन करने की बात है। निश्चय दृष्टि से तो धर्म के मुखय साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही हैं। इस प्रकार वेश गौण है। इस पर बल देने की अनिवार्यता नहीं है। भरत चक्रवर्ती आदि बिना वेश के ही केवली हुए हैं। यहां 'निश्चय' शब्द का उपयोग हुआ हैं जो महत्वपूर्ण है। जो केवल सचेल मुक्ति ही मानते हैं, वे सही नहीं हैं। सचेल-अचेल संबंधी मान्यताओं का यह प्रथम उल्लेख लगता है। इन दो परम्परागत विचार-भेदों के उपदेशों के अतिरिक्त अन्य 10 प्रश्नोत्तर बिंदु पार्श्व और महावीर-दोनों ने ही स्वीकृत किये हैं। इस प्रकार इन दोनों परम्पराओं में लगभग 17 : मत भिन्नता प्रकट होती है। इन 10 बिंदुओं में (1) मनोनियंत्रण के माध्यम से इंद्रिय-कषायविजय (2) राग-द्वेष-स्नेह रूपी पाशों से मुक्ति (3) भव-तृष्णा रूपी लता को उत्तम चारित्र रूपी अग्नि से नष्ट करना (4) कषाय रूपी अग्नि को तपोजल से शमित करना (5) मन रूपी दुर्दात अश्व को श्रुत एवं संयम से वश में करना (6) सु-प्रवचन के मार्ग पर चलना (7) धर्म-द्वीप से प्रकाशित होना (8) संसार समुद्र को मोक्षैषणा द्वारा पार करना (9) अज्ञान अंधकार को अर्हद् वचन के नष्ट करना तथा (10) मुक्त स्थान प्राप्त करना। ये बिंदु उपमाओं के माध्यम से मनोवैज्ञानिक आधार पर प्रभावी रूप से व्यक्त किये गये हैं। सूत्र कृतांगः गौतम पेंढालपुत्र उदक संवादः श्रावकों का धर्मः वर्तमान बिहार प्रदेश के नालंदा नगर के मनोरम उद्यान में गौतम गणधर और पार्खापत्यीय पेंढालपुत्र उदक का हिंसा और कर्मबधं विषयक मनोरंजक संवाद आया है। गौतम ने उदक को बताया कि साधु या श्रमण तो सर्व हिंसाविरति का उपदेश देता है, पर गृहस्थ अपने सीमाओं के कारण स्थूल या त्रस-हिंसा का ही त्याग कर पाता है। इसका यह अर्थ नहीं लेना चाहिए कि श्रमण उसे त्रसहिंसा त्याग स्थावर हिंसा की अनुमति देता है और स्वयं तथा श्रावक के मापबंध का भागी होता है।गृहस्थ की स्थावर हिंसा उसके अप्रत्याख्यानी पापबंध का कारण बनती है। वस्तुतः त्रसकाय में आयुष्य भोग रहे प्राणी ही त्रस माने जाते हैं। यह भी सही नहीं है कि ऐसा कोई भी पर्याय नहीं जहाँ गृहस्थ प्राणी हिंसा का त्याग कर सके क्यांकि सभी स्थावर न तो त्रस के रूप में या सभी त्रस स्थावर के रूप में जन्म ले पाते हैं। साथ ही, देव, नारकी एवं विक्रिया वृद्धि धारकों तथा उत्तम संहननी जीवों की हिंसा तो वह कर ही नहीं सकता। फलतः अनेक पर्यायें ऐसी हैं जहाँ हिंसा का परित्याग हो सकता है। व्रत-भंगी नहीं कहा जा सकता। फलतः हिंसा-अहिंसा संबंधी व्रत पालन का अर्थ यह लौकिक जीवन एवं पर्याय–विषेष के आधार पर लेना चाहिए। भगवती सूत्र और भ. पार्श्व के उपदेशः ऐसा माना जाता है कि भगवती सूत्र के पूर्ववर्तीय शतक प्राचीन है। इनमें 1.9, 2.5, 5.9, 9.32 आदि में पार्खापत्यों एवं स्थविरों के विवरण और कहीं कहीं उपदेष भी पाए जाते हैं। इनमें कहीं कहीं पार्खापत्यों श्रावक/स्थविर महावीर के पंचयामी एवं सप्रतिक्रमणी धर्म में दीक्षित होते भी बताये गये हैं। वैश्यपुत्र कालास के कथानक में बताया गया है कि सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, विवेक और व्युत्सर्ग को दो प्रकार से परिभाषित हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 79 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Folonel WOneandilbrars Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ किया जा सकता है-द्रव्यार्थिक नय या निश्चय-नय से इन पदों का अर्थ अभेदात्मक आत्मा ही है और व्यवहार नय से इनका अर्थ वे प्रक्रियायें हैं जिनसे आत्मत्व के ये गुण परिपक्व रूप में अभिव्यक्त होते हैं। उदाहरणार्थ, संयम की अभिव्यक्ति के लिए कषायों की गर्हा की जाती है। इस कथानक से यह भी प्रकट होता है कि भ. पार्श्व के समय में ये पारिभाषित शब्द प्रचलित थे। इनके परिपालन से अगार अनगारत्व की ओर अभिमुख होता है। इस कथानक से भी यह तथ्य प्रकट होता है कि पार्श्वनाथ आत्मवादी थे। इस कथानक का स्थान ग्रंथ में निर्दिष्ट नहीं है, संभवतः यह राजगिर के समीप ही हो। तुंगिया नगरी में एक बार पार्वापात्यीय स्थविर मेहिल, आनंदरक्षित, कालिकपुत्र एवं काश्यप स-संघ पधारे। वहाँ के श्रावकों को प्रसन्नता हुई और वे उनके दर्शनार्थ गये। स्थविरों ने उन्हें न केवल चातुर्याम धर्म (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह) का उपदेश दिया अपितु उन्होंने यह भी बताया कि संयम पालन से संवर होता है और तप से कर्मनिर्जरा होती है। यही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि पूर्वकृत कर्म, पूर्वकृत संयम, कर्मबंध (शरीरनाम कर्म) एवं आसक्ति से प्राणियों की गति निर्धारित होती है। इसका अर्थ यह है कि सराग संयम एवं सराग तप कर्मबंध में कारण होता है और आसक्ति की तीव्रता-मंदता भावी गति निर्धारक होती है। इस से यह फलित होता है कि गतियों का बंध रागावस्था में ही होता है, वीतराग अवस्था में नहीं होता। एक अन्य कथानक में कुछ पार्श्वपत्य स्थविर राजगिर में महावीर से प्रश्न करते है कि असंख्यलोक में अनन्त और परिमित रात्रि-दिवस कैसे हो सकते है? उन्होने भ. पार्श्व के उपदेषों का उल्लेख करते हुए बताया कि यह संभव है क्योंकि अनन्त कालाणु संकुचित होकर असंख्य क्षेत्र में संमाहित हो जाते हैं। इसी प्रकार, प्रत्येक जीव की अपेक्षा काल परिमित भी हो सकता है। पार्श्वनाथ के अनुसार, लोक शाश्वत, आलोक परिवृत, परिमित एवं विषिष्ट आकार के है। इसमें अनन्त और असंख्य जीव उत्पन्न और नष्ट होते हैं। वस्तुतः जीवों के कारण ही यह क्षेत्र लोक कहलाता है । भगवती के 9.32 में वाणिज्य ग्राम (वैशाली के पास ही) में पार्श्वपत्यतीय स्थविर गंगेय ने भगवान महावीर से अनेक प्रश्न किये। महावीर ने भ. पार्श्व के मत का उल्लेख करते हुए बताया कि (1) विभिन्न प्रकार के जीव सांतर एवं निरंतर उत्पन्न होते रहते है। (2) सभी जीव चार गतियों में उत्पन्न होते है। नरक गति में सात नरक होते हैं। तिर्यंचों की एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक पांच योनियां होती हैं। मनुष्य गति में समूर्च्छन एवं गर्भज योनि होती है। देवगति चार प्रकार की होती है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच और गर्भज मनुष्यों की संख्या अन्य योनियों से अल्प होती है। मनुष्यों की तुलना में देव सौ गुने और तिर्यंच एक हजार गुने होते हैं। इन उत्तरों में जीव से जीव की उत्पत्ति या सत्कार्यवाद का भी परोक्षतः किया गया है। विभिन्न गतियों में उत्पत्ति पूर्वकृत कर्मबंध की प्रकृति पर निर्भर करती है। इन कथानकों में अनेक स्थलों पर बताया गया है कि अनेक बार पार्वापत्य श्रावक एवं स्थविर चातुर्याम से पंचयाम धर्म में दीक्षित हुए और महावीर संघ की शोभा बढ़ायी । राजप्रश्नीय :- कुमार श्रमणकेशी-प्रदेशी संवाद : आत्मवाद राजप्रश्नीय सूत्र को उपांगों में गिना जाता है। उसमें केशी- प्रदेश संवाद के अन्तर्गत शरीर-भिन्न आत्मवाद तार्किक उन्नयन किया गया है। यद्यपि कुछ विद्वान इस केशी को पार्श्वपत्य केशी से भिन्न मानते है पर अधिकांश पूर्वी एवं पश्चिमी विद्वान उन्हें पार्श्वपत्य ही मानते हैं। भ. पार्श्व का युग उपनिषदों की रचना का युग था जब क्रियाकाण्ड का रूप लिया और स्वतंत्र आत्मवाद का पल्लवन किया। भ. पार्श्व ने भी आत्म-प्रवाद में वर्णित मतान्तरों के परिप्रेक्ष्य हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 80 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ । में आत्मवाद का उपदेश दिया। इसी उपदेश को आचार्य केशी ने अनुभूति-पुष्ट करने के बदले तर्क-पुष्ट किया और दुराग्रह एवं एकांतवाद को छोड़ने का आग्रह किया। इस संवाद में ज्ञान के पांच प्रकारों का भी वर्णन है- उनके पथक आत्मवाद से संबंधित आठ तर्क हैं जो निम्न हैं - (1) परलोक (नरक एवं देवलोक) गत संबंधी चार कारणों से मृत्युलोक में तत्काल नहीं आ सकते (स्थानांग, 4) अतः प्रतिबोध नहीं दे सकते। (2) आत्मा वायु के समान अप्रतिहत गति वाला है। (शून्य में वायु गति नहीं करती)। (3) मन्दबुद्धि वालों के लिए आत्मवाद-जैसा सूक्ष्म विषय बोधगम्य नहीं है (ज्ञानावरण कम)। (4) आत्मा में हवा के समान भार नहीं होता यह अगुरु लघु है। (5) शरीरधारी जीव में कर्मोदय से शक्ति-भिन्नता व्यक्त होती है। (6) आत्मा वायु के समान अदृश्य है, सूक्ष्म है यह अमूर्त है। (7) आत्मा प्रदेशों में संहार विसर्पण की योग्यता है। वर्तमान युग में यहाँ वायु और अग्नि तप्त लोहे के दृष्टांत भौतिक (तैजस-कार्मण शरीरी) जीव के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं, अमूर्त आत्म तत्व को नहीं (पर उपकरण और प्रयोग विहिन युग में लौकिक उदाहरणों द्वारा अमूर्त तत्व को सिद्ध करने की कला अनूठी ही कहलायेगी)। यह मनोवैज्ञानिक भी है इसीलिये राजा-प्रदेशी केशी का अनुयायी बन गया। लगता है, यह संवाद गणधर गौतम से भेंट के पूर्व का है। क्योंकि केशी-गौतम संवाद में तो वे महावीर-संघ में दीक्षित हो गये थे। निरयावलियाओ : सोमिल ब्राह्मण और पंच अणुव्रतः वाराणसी के सोमिल ब्राह्मण ने पार्श्व के उपदेश सुनकर 12 व्रतों की दीक्षा ली। बाद में अनेक प्रकार के साधुओं के कारण अनेक बार उनका अतिक्रमण किया और मिथ्यात्वी हो गया। एक हितकारी देव के बारबार स्मरण कराने पर उसने पुनः 12 व्रत धारण किये। व्रत-तप-उपवास किये वह मर कर देव हुआ। साध्वी भूता की कथा का भी यही रूप है पर उसमें उपदेश नहीं है। फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि सोमिल का यह कथानक पार्श्वकालीन नहीं होना चाहिये क्योंकि उसमें चातुर्याम के बदले पंचयाम का उल्लेख है। साथ ही भगवती सूत्र 18.10 में भी सोमिल ब्राह्मण का कथानक है और उसमें भी वे ही प्रश्न है जो निरयावलियाओं में हैं पर उसके मिथ्यात्वी होकर पुनः दीक्षित होने की बात नहीं है। साथ ही यह कथानक वाणिज्य ग्राम से संबंधित है। इसलिये दोनों कथानकों के सोमिल ब्राह्मण अलग-अलग व्यक्ति होना चाहिये पर पंचयाम की संगति कैसे बैठेगी? उपसंहार: उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पार्श्व के सैद्धांतिक उपदेशों के अंतर्गत (1) पंचास्तिकाय (2) कर्मवाद और उसके विविध आयाम (3) अनंतसुखी मोक्ष (4) शाश्वत पर परिमित एवं परिवर्तनशील लोक (5) जीव-शरीर-भिन्नता के माध्यम से स्वतंत्र आत्मवाद (6) जीव के अमूर्त्तत्व, सूक्षत्व, अदृश्यत्व, ऊर्ध्वगामित्व, कर्तृत्व और भोगतृत्व (7) चार गतियां और पांच ज्ञानः रागावस्था में गतिबंध (8) सत्कार्यवाद (9) चातुर्याम धर्म/सामायिक धर्म (10) शांतर-उत्तर वस्त्र मुक्तित्व (11) हिंसा-अहिंसा का विवेक पर्याय और परिस्थिति पर निर्भर (12) धार्मिक पदों के अर्थ व्यवहार एवं हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति81 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Private Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ निश्चयनय की दृष्टि से लगाने की चर्चा आदि बिंदु आते है। इसके अतिरिक्त आचार्य के क्षेत्र में भी कषाय, हिंसा, पापस्थान एवं मिथ्या-दर्शन से विरमण, अचित्त आहार, व्रत-उपवास आदि के द्वारा इन्द्रिय – मन नियंत्रण, परिषह सहन, सामायिक, संयम, संवर, तप एवं निर्जरा का अभ्यास, पूर्वकृत कर्मों एवं आसक्ति के अल्पीकरण की प्रक्रिया का पालन आदि नैतिक जीवन के उन्नयन के उपदेश प्रमुख है। निश्चय व्यवहार सिद्धांत के समान वाहय एवं अंतरंग आचार का उपदेश भी दिया गया है। ये सभी परम्परागत उपदेश महावीर ने भी अपनाये है। दोनों ही तीर्थकर महिलाओं के प्रति उदार थे। दोनों ही मुक्तिलक्षी थे। फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि महावीर के उपदेशों की तुलना में भ. पार्श्व के युग में निम्न सैद्धांतिक मान्यतायें स्पष्ट रूप से नहीं मिलती। (1) कालद्रव्य, (2) सप्त-तत्व/नव पदार्थ (इनके परोक्ष संकेत हो सकते हैं) (3) दैनिक प्रतिक्रमण की अनिवार्यता (4) पंचयाम धर्म (ब्रह्मचर्य यम) और छेदोपस्थापना चारित्र (5) अष्टप्रवचन माता का महत्व (समिति और गुप्ति) (6) विभज्यवाद एवं अनेकांतवाद का वर्तमान रूप (7) अचेल मुक्ति के ऐकांतिक मान्यता। इन तत्वों का विकास भ. महावीर के समय में हुआ लगता है। इसीलिये महावीर संघ में दीक्षित होने वाले पार्खापत्य पंचयाम सप्रतिक्रमण दीक्षा लेते थे। इसके साथ ही, पार्श्व के युग में (1) सचेल-अचेल मुक्तिवाद (2) आत्मवाद और अभेदवाद (3) सुविधाभोगी साधुत्व एवं स्थविरवाद तथा (4) चातुर्यामवाद से संबंधित उपदेशों की प्रमुखता पाई जाती है। प्राचीन ग्रंथों में स्त्री मुक्तिवाद' एवं 'केवली कवलाहारवाद' की चर्चा नहीं है इनके चातुर्याम - पंचयाम, सचेल-अचेल, मुक्तिवाद तथा सामायिक चारित्र आदि अनेक प्रकरणों में व्यवहार-निश्चय दृष्टि का भी आभास होता है। या कुंद-कुंद की वरीयता प्राप्त निश्चय दृष्टि का आधार ये ही उल्लेख है ? केशी को गौतम की यह बात अच्छी लगी कि तत्व एवं चरित्र की परीक्षा प्रज्ञा, बुद्धि एवं विज्ञान से करनी चाहिए। इस वैज्ञानिकता की दृष्टि ने ही महावीर को पार्श्व के चिंतन को विकसित एवं अभिवर्द्धित करने की प्रेरणा दी । फिर भी उपरोक्त आचारों के कारण पार्श्व संघ में विकृति आयी होगी जिसे महावीर के युग में, पार्श्वस्थ शब्द को शिथिलाचार का प्रतीक माना जाने लगा। संभवतः यह मान्यता पार्श्व को हीन दिखाने की एक कूटनीति का अंग रही हो। यह माना जाता है कि जहां छेदोपस्थापना चारित्र कालद्रव्यवाद, विभज्यवाद आदि के उपदेश महावीर की उदारता प्रदर्शित करते है, वहीं पंचयाम एवं अचेल मुक्तिवाद, दैनिक प्रतिक्रमण, समिति - गुप्तिपालन पर बल आदि के प्रचण्ड निवृत्तिमार्गी उपदेश उनकी व्यक्तिगत जीवन में अनुशासन की कठोरता के प्रतीक माने जाते है। इस कठोरता को अनेक पूर्वी और पाश्चात्य विचारकों ने जैनतंत्र के सार्वत्रिक न हो पाने का एक प्रमुख कारण माना है। महावीर के युग की तीर्थंकर चौबीसी की मान्यता तथा पूवों के साथ अंगोपांगों का शास्त्रीय विस्तार भी इस प्रक्रिया में बाधक रहा है। अनेकांतवादी मान्यता में जैन तंत्र को सर्वोत्तम सिद्ध कैसे किया जा सकता है ? इन कारणों से ऐसा लगता है कि पार्श्व के सिद्धांत संभवतः जैन तंत्र को अधिक सर्वात्रिक बना सकता है। यही कारण है कि अब कुछ विद्वान निग्रन्थ धर्म पार्श्व धर्म की चर्चा करने लगे हैं। पर इससे महावीर का महत्व कम नहीं होगा क्योंकि उन्हें पाश्चात्यों ने भी विश्व के एक सौ महान पुरुषों में माना है। बस हमें केशी गौतम संवाद के दो वाक्य याद रखने चाहिए। 1. पण्णा सम्मिक्खये धम्म 2. विण्णाणेण धम्मसाहणमिच्छियं हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द ज्योति 82 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ संदर्भ 1. आचार्य भद्रबाहु : कल्पसूत्र, शिवाना, 1970 2. पंडित, सुखलाल, चार तीर्थकर, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी, 1989 3. आचार्य, यतिवृषभ : तिलोयपण्णत्ति-1, जीवराजग्रंथमाला, सोलापुर 1953 4. स्वामी, सुधर्मा : आचारांग-2, आ. प्र. स. व्यावर, 1980 5. जैन, सागरमल, सं. ऋषिभाषित, प्राकृत भारतीय अकादमी, जयपुर, 1988 6. --: उत्तराध्ययन-2, जैन विश्वभारतीय, लाडनू 1993 7. स्वामी, सुधर्मा : सूत्रकृतांग -2, तथैव, 1986, पृष्ठ 357 8. तथैव - 1. भगवती सूत्र - 1, तथैव, 1994 पृष्ठ 179-263, 2. भगवती सूत्र 2-5, साधुमार्गी संघ, सैलाना, 1968-72, 921, 1614, 2754 9. तथैव : ज्ञाताधर्मकथासूत्र, आ. प्र. स. व्यावर 1981 पृष्ठ 513, 526 10. स्थविर : राजप्रश्नीय, तथैव, 1982 पृष्ठ 167 11. देखों संदर्भ - 6 पृष्ठ - 35 12. स्थविर : निरयावलियाओ, गुर्जर ग्रंथरत्न कार्यालय अहमदाबाद, 1934 13. चटर्जी, ए. के. : कंप्रेहेन्सिभ हीस्ट्री आफ जैन्स, के. एल. एम. कलकत्ता, 1978 पृष्ठ 11 14. वाचक, उमास्वाति : तत्वार्थाधिगम सभाष्य, राजचन्द्र आश्रम, अगास, 1932 पृष्ठ 42 15. देखो - संदर्भ – 13, पृष्ठ - 251 16. जैन, एन. एल. : सर्वोदयी जैन तंत्र, पोतदार ट्रस्ट टीकमगढ़, 1997 12/644, बजरंग नगर, रीवा (म.प्र.) हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 83 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति olwwjainelibraryara Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ महावीर की देशना और निहितार्थ -डॉ सुनीता कुमारी श्रमण भ.महावीर जैन परम्परा में मान्य 24 तीर्थंकरों में सबसे अंतिम तीर्थंकर थे। इनमें तीर्थंकरों में पाई जाने वाली सारी विलक्षणताऐं विद्यमान थी। परन्तु इनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसी विषेशताऐं थीं जो इन्हें अन्य तीर्थंकरों से अलग कर देती है। ये बहुविध प्रतिभा के धनी होने के साथ साथ मौलिक चिन्तक थे। इनका चिन्तन सरल, सुबोधगम्य होने के साथ साथ गंभीर एवं दार्शनिक समस्याओं से भी परिपूर्ण होता था। उनकी दृष्टि में सभी जीव समान होते है, इनमें किसी प्रकार का अंतर नहीं होता है। दूसरे ही क्षण वे विभिन्न जीवों के बारे में विचार करने लगते हैं और इनकी भिन्नता के कारणों को भी स्पष्ट करते है। कभी वे व्यक्तिगत साधना की महानता का बखान करते हैं तो उसी पल परस्परता की भी व्याख्या करने लगते है। एक ओर वे मनुष्य को सामाजिक दायित्व के निर्वहण का संदेश देते हैं तो दूसरी ओर सन्यस्त जीवन स्वीकार करने की बात करते हैं। इसी तरह के बहुविध परस्पर विरोधी चिन्तन उनके विचारों में मिल जाते है। इन्हें वे प्रायः अपनी देशनाओं में व्यक्त करते रहते थे तथा उनका समाधान भी प्रस्तुत करते थे। इनके आधार पर वे मनुष्यों को सम्यक् सत्य का दिग्दर्शन कराना चाहते थे। समता : जीवन मृत्यु शत्रु-मित्र, जय-पराजय, प्रशंसा-निंदा, मान-अपमान, सुख-दुःख ऐसे असंख्य युग्म इस संसार में है। ये व्यक्ति के मन को विभिन्न प्रकार से आघात पहुंचाते है। उनके कारण उसके मन का संतुलन बिगड़ जाता है। वह विषम हो जाता है और द्वन्द्व का जीवन जीने को विवश हो जाता है । द्वन्द्व के इस आघात से बचने के लिए महावीर ने समता की साधना का मार्ग का अन्वेषण किया। उन्होंने समता को प्राणी का स्वभाव अथवा धर्म कहा'। इसके आधार पर उन्होंने मनुष्य को सभी परिस्थितियों में सम बने रहने की प्रेरणा का मार्ग प्रदान किया। समता की प्रेरणा मनुष्य के मन में उत्पन्न होने वाली विकृतियों का शमन कर देती है। वह शत्रु-मित्र, मणि-पाषाण, स्वर्ण-मृतिका जैसे भिन्न और प्रकृति वाले तत्वों के प्रति समान भाव रखने लगता है, इनके कारण उसके मनमें किसी प्रकार का राग-द्वेष नहीं उत्पन्न होता है। उसके मन में सभी जीवों के प्रति मैत्री, करुणा आदि मानवीय गुणों का विकास होने लगता है। वह सभी जीवों को अपने समान समझता है। किसी भी प्राणी का अहित उसे स्वीकार नहीं होता। समता जीव की प्रकृति है जबकि विषमता विकृति है। विकृति कभी भी उपादेय नहीं हो सकती है। यही कारण है कि महावीर ने सर्वदा मनुष्यों को विकृति से बचने का संदेश दिया। वे व्यक्ति को शत्रुता के स्थान पर मित्रता, घृणा की जगह प्रेम आसक्ति की अपेक्षा अनासक्ति, अपनाने को कहा करते थे। क्योंकि विश्व में व्याप्त विषमता को ऐसे ही सद्भाव पूर्ण व्यवहारों एवं विचारों से मिटाया जा सकता है। मनुष्य की यही वृत्ति समता को स्थापित करने की क्षमता रखती है। क्योंकि यह मनुष्य के मन में स्व एवं पर में रागद्वेष से रहित होने का भाव, मान अपमान दोनों ही अवस्था में तटस्थ, त्रस स्थावर सभी प्राणियों को समान समझना, रागद्वेश आदि के कारण आत्मा में विकार उत्पन्न न होने पाये आदि सौम्य एवं विधेयात्मक भाव उत्पन्न करता है। मनुष्य के ये शांत एवं सौम्य भाव अत्यन्त शक्तिशाली होते हैं और विश्व की समस्त विकृतियों को नष्ट करने की क्षमता से युक्त होते है। इनके कारण समस्त विश्व का कल्याण होता है। महावीर की देशना में सम्मिलित समता का यही प्रयोजन था, यही उसका निहितार्थ था। सह-अस्तित्व: अस्तित्व-रक्षा प्राणी जगत् की प्रकृति है। इसके लिये सभी प्राणी निरन्तर प्रयत्नशील रहते हैं। अस्तित्व विविध रूपों में विभाजित रहता है। कभी जीवन अथवा प्राण रक्षा का अस्तित्व उठ खडा होता है तो कभी मान अपमान अहं आदि रूपों में अस्तित्व रक्षा की समस्या उत्पन्न हो जाती है। कभी व्यक्तित्व निर्माण के रूप में अस्तित्व का प्रश्न आ जाता है, कभी स्वयं अस्तित्व के अस्तित्व बोध पर ही प्रश्न चिन्ह लगने की समस्या उत्पन्न हो जाती है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 84 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति Use Sairnellbi Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन गंथा इन सब के पीछे परस्परता का चिन्तन छिपा है जो सह अस्तित्व का ही दूसरा नाम है। सह अस्तित्व का सामान्य अर्थ है दूसरों का भी अस्तित्व अथवा उपस्थिति। जब हम अपने अस्तित्व की बात करते हैं तो दूसरों के अस्तित्व को कैसे भूल सकते हैं। हमारा जीवन वनस्पतियों पर आश्रित है और अगर हम उनके अस्तित्व को समाप्त कर यह सोच लें कि हम स्वयं को बचा लेंगे तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल होगी। हमें वनस्पति के अस्तित्व को मानना ही पड़ेगा। महावीर ने अपनी धर्मदेशना में इस बात का बार बार उद्घोष किया है। परस्पर उपकार करना जीव का स्वभाव है। यही अस्तित्व रक्षा है जो कुछ और नहीं, सह अस्तित्व की स्वीकृति मात्र है। सह अस्तित्व की अवधारणा में अनाग्रह के बीज छिपे हैं। यह वैश्विक संघर्ष को समाप्त कर सकती है क्योंकि संघर्ष का मूल जनक आग्रहवृत्ति है। आग्रहवृत्ति अनेक प्रकार के मिथ्यात्व को जन्म देती है। व्यक्ति सत्-असत्, एक-अनेक, परमार्थ-स्वार्थ आदि विविध प्रकार के द्वंदों में उलझने लगता है। जबकि अनाग्रह की वृति मनुष्य के मन में सापेक्ष दृष्टि उत्पन्न करती है। वह एक-अनेक, सत्-असत् के द्वंद्वों से मुक्त होकर किसी भी तथ्य को सापेक्ष दृष्टि से परखता है और संघर्ष के मूल कारणों का निराकरण करता है। वह अस्तित्व और नास्तित्व दोनों को विरोध न मानकर सहभावी मानता है। किसी भी तथ्य को वास्तविकता प्रदान करने के लिए दोनों आवश्यक है। इसी प्रकार एक और अनेक की समस्या को भी सह-अस्तित्व को स्वीकार करके भगवान महावीर ने अपनी देशना में स्पष्ट किया है। वे कहते हैं जो एक है, वह अनेक भी है और जो अनेक है वह एक भी है। इसी तथ्य को वे स्पष्ट करते हुए कहते हैं जो एक को जान लेता है, वह सब को जान लेता है, और सबको जानने वाला एक को जान सकता है | महावीर ने यहां यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि एक का भी अस्तित्व सत्य है और अनेक का भी अस्तित्व सत्य है। दोनों का ही सह-अस्तित्व है। सचमुच पारस्परिक विरोधी बातों की सहायता से समाधान का सूत्र प्रस्तुत करना एक विलक्षण कार्य है, जिसे महावीर ने सह-अस्तित्व की अवधारणा द्वारा सहज बनाया। सह-अस्तित्व महावीर की देशना का एक अद्भूत सिद्धांत है जिसके निहितार्थ हैं सभी के अस्तित्व को स्वीकार कर वैश्विक शांति की स्थापना। सहयात्रा : भाव भ्रमण संसारस्थ प्राणियों की नियति है। यहां प्राणी विविध योनियों में जन्म लेते हैं और मरते रहते हैं। वे अपने कर्मों के वश में रहकर संसार रूपी महासागर की महायात्रा करते रहते है। यहाँ प्रत्येक प्राणी एक यात्री भी है और सहयात्री भी। यहां कभी कोई अकेले नहीं चलता है। जब भी वह अपनी यात्रा का प्रारम्भ करता है कोई न कोई अवश्य उसका सहयात्री बन जाता है। यदि किसी कारणवश कोई अन्य प्राणी उसकी यात्रा-पथ का साथी नहीं बनता है तो स्वयं उसके अपने कर्म ही इस भूमिका का निर्वाह करने लगता है। ब्रह्मांड रूपी महापंथागार में प्राणी का यही सच्चा सहयात्री है जो कभी भी उसका साथ नहीं छोड़ता। यही उसके सुख दुख, जन्म-मरण का जनक भी है और इससे त्राण दिलाने वाला भी। इसी रूप में इसकी प्रकृति का निर्धारण भी होता है। सह यात्री अगर अच्छा और अनुकूल हो तो कठिन यात्रा भी सुगम लगने लगती है जबकि प्रतिकूल सह यात्री सामान्य और आसान यात्रा को भी महा कष्टकारी बना देता है। यही कारण है कि महावीर ने अपनी देशना में मनुष्यों को ऐसे सहयात्री का चयन करने का परामर्श दिया है जो यात्रा पथ में आने वाली समस्याओं के निराकरण में उसका सम्यक् सहयोग करे। आंतरिक और बाह्य जगत के रूप में प्रत्येक प्राणी को दो भिन्न प्रकृति के पथ की यात्रा अपने जीवन काल में करनी पड़ती है। बाह्य जगत की यात्रा जहां भव उत्पादक है वहीं अंतर जगत की यात्रा भव विनाशक। यात्रा के इस पथ में व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के सह यात्री मिलते हैं। बाह्य जगत में अन्य प्राणियों का निवास रहता है और यही सह यात्री बनते हैं। जबकि आंतरिक जगत की यात्रा में व्यक्ति की चेतना ही सहयात्री बनती है, क्योंकि यही इस पथ का पथिक है। यही व्यक्ति के मन में उत्पन्न होने वाली विषय वासनाओं का नाश करती है और व्यक्ति अपने कर्मावरण को अल्प करते हुए मुक्ति पथ की ओर अग्रसर हो जाता है। भ. महावीर के कहने पर किरात ने अंतर्यात्रा के पथ पर चलना प्रारम्भ किया। उसने अपने भीतर प्रवेश किया। उसे सहयात्री के रूपमें ऐसे दिव्य ज्योति हेमेन्द्र ज्योति * हेमेठच ज्योति 85 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति। matep Namlibrary Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था। का साथ मिला जिसके आलोक में उसने तमस के सारे बंधनों को प्रज्वलित कर लिया। उसने अपने ग्रन्थियों का भेदन कर लिया। वह सिद्ध क्षेत्र की दिशा में प्रयाण कर गया जहां से पुनः इस मृत्यलोक में वापस आने की सारी संभावनाएं समाप्त हो जाती है। सहयात्री की अवधारणा भ. महावीर की देशना का एक महत्वपूर्ण अवदान है, जो मनुष्य के समक्ष आध्यात्मिक उन्नति के पथ में आने वाली बाधाओं एवं उनके निराकरण का मार्ग प्रस्तुत करती है। सहिष्णुता: सहिष्णुता मनुष्य का एक विशिष्ट गुण है जो उसकी विवेक शक्ति से युक्त होती है। यह मनुष्य के मन में ऐसी भावनाओं को जन्म देता है जिन पर आरूढ़ होकर व्यक्ति सभी प्रकार के द्वन्द्वों से मुक्त होने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। इन्द्रिय संयम की महत्ता को जानकर इसके लिए अनिवार्य माना जाता है और इसलिए व्यक्ति अपने को इन्द्रिय विषय वासनाओं से मुक्त रखने का प्रयत्न करता है। वह जितेन्द्रिय बनकर निर्ममत्व भाव से जीवन जीता है। विभिन्न प्रकार की संवेदनाएँ उसे विचलित नहीं कर पाती है। सभी अवस्थाओं को सहन करने में उसे आनन्द का अनुभव होता है। वह पर कल्याण के लिए सदैव तत्पर रहता है। इसके लिए उसके मन में किसी प्रकार का प्रमाद या लोभ नहीं रहता है। विश्व का कल्याण करना उसका परम लक्ष्य रहता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वह सभी कुछ सहन करने के लिए तत्पर रहता है और यही सहिष्णुता है। क्योंकि सहिष्णुता सहन करने का ही नाम है। भगवान महावीर ने अपनी देशना में यह स्पष्ट किया है कि जागतिक कल्याण सहिष्णुता के बिना संभव नहीं हो सकता। यह एक अनिवार्य सिद्धांत है और मानवता की रक्षा के लिए आवश्यक भी है। यह मनुष्य को दूसरों के कष्टों को सहने की शक्ति प्रदान करता है। परहित के लिए यह अपेक्षित है। जैन परम्परा में सहिष्णुता की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए अनेका उदाहरण प्रस्तुत किये गये है। स्वयं श्रमण महावीर का जीवन सहिष्णुता का जीवंत उदाहरण है। उन्होंने अपनी तपश्चर्या और संयम साधना में इसे अपनाया है। लाड देश में उपसर्गों का सहन इनकी अनुपम सहिष्णु प्रवृति का परिचय देता है। कानों में कील जाने पर किसी तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करना सचमुच सहिष्णुता की पराकाष्ठा है। महावीर ने अपने जीवन में सहिष्णुता को अपनाया और इसके महत्व को समझा। इसे मानव कल्याण का महामंत्र माना। इसीलिए उन्होंने इसे अपनी देशना में स्थान दिया और पूरे विश्व की भलाई का मार्ग प्रशस्त किया। स्वतंत्रता : इस संसार में सभी को अपनी स्वतंत्रता अच्छी लगती है। कोई भी परतंत्र नहीं रहना चाहता। लेकिन प्रत्येक जीव दूसरों को परतंत्र बनाने का प्रयत्न करता रहता है। उसकी यह प्रवृत्ति विविध प्रकार के संघर्षों को उत्पन्न करती है। उसकी इस प्रवृत्ति का कारण उसके नैसर्गिक स्परूप का कर्मों के द्वारा आच्छादित होना है। संसारी प्राणी चाहे अपने आपको स्वतंत्र रखने का लाख प्रयत्न कर लें, परन्तु वह तो कर्माधीन है। कर्मों के पराधीन होकर वह निरंतर दुखों से पीड़ित होता रहता है। भ. महावीर जीवों को कर्मों की इस परवशता से मुक्ति दिलाना चाहते थे, संसार की भयावहता से बचाना चाहते थे। अतः उन्होंने अपनी देशना में स्वतंत्रता को समाहित किया और मनुष्य को परतंत्रता की बेड़ी से मुक्त होने का मार्ग प्रदान किया। स्वतंत्रता के पथ में सबसे बड़ी बाधा मनुष्य का अहंकार और ममकार है। जब तक इनसे मुक्त नहीं होगा तब तक परतंत्रता के पाश को तोड़ नहीं पाएगा। इसकी प्राप्ति के लिए उसे अपना सर्वस्व त्याग करना पड़ेगा। सर्वस्व त्याग के लिए मनुष्य को असीम संकल्प एवं धैर्य का आश्रय लेना पड़ेगा, जो उसके पास है और ममकार तथा अहंकार रूपी परिबंधनों से परिवेष्टित है। भ. महावीर ने परतंत्रता के दुख को भोगा साथ ही साथ स्वतंत्रता के सुख का रसास्वादन भी किया। इस स्वतंत्रता को पाने के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व त्याग किया। उन्होंने न केवल अपने घर, परिवार, बंधु-बांधव को ही छोड़ा, बल्कि अपने धर्म सम्प्रदाय का भी विसर्जन किया। भ.पार्श्व का धर्म सम्प्रदाय उन्हें परम्परा से प्राप्त था, फिर भी वे उसमें दीक्षित नहीं हुए। उन्होंने दीक्षा ग्रहण की लेकिन वह भी आलौकिक था। दीक्षित होते ही उन्होंने हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 86 हेमेन्ट ज्योति * हेमेट ज्योति Gartuatiohinfernational Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्टसंत शिगमणि अभिनंदन पंथ संकल्प किया मेरी स्वतंत्रता में बाधा डालने वाली जो भी परिस्थितियां उत्पन्न होंगी, मैं उनका साहसपूर्वक सामना करूंगा, उनके सामने कभी नहीं झुकूगा। मुझे अपने शरीर का विसर्जन मान्य है, पर परतंत्रता का वरण कभी भी स्वीकार नहीं होगा। महावीर ने अपने इस संकल्प का पालन जीवन य॑न्त किया। परिषहों का सामना किया। निर्ममत्व होकर जीवन बिताया। समस्त परिग्रहों का त्याग किया। परतंत्रता को कभी भी स्वीकार नहीं किया। सचमुच अद्भुत थी उनकी संकल्प साधना और परतंत्रता के त्याग की भावना। संकल्प की भावना मनुष्य के मन में उठने वाले विभिन्न प्रकार के द्वंद्वों को समाप्त करती है। व्यक्ति इसके कारण निर्णय लेने की अवस्था में आ जाता है। संशय की आंधी उसे अपने स्थान से विचलित नहीं कर पाती। अहंकार और ममत्व के विविध रूप उसके पथ में बाधाएँ उत्पन्न करते अवश्य हैं, लेकिन वह इनसे घबराता नहीं है। इन सबका सामना धीरता के साथ करता है और अंततः उन्हें पराजित कर विजयश्री को प्राप्त कर लेता है। वह परतंत्रता की शक्तिशाली बेड़ियों को तोड देता है। उसका संपूर्ण जीवन स्वतंत्रता के प्रकाश से आलौकित हो जाता है। वह अपने जीवन में आये हुए स्वतंत्रता के इस आलोक से परतंत्रता रूपी घोर अंधकार को सर्वदा के लिए दूर कर देता है। प्रकाश के इस पुंज में विश्व समस्त ऐश्वर्य कांतिहीन लगने लगते है। वह उन्हें त्यागने में किसी प्रकार का प्रमाद नहीं करता। उसके समस्त त्याग और स्वतंत्रता की मान्यता स्पष्ट हो जाती है। वह इन्हें अपने जीवन में स्थान देकर अनुपम सुख का उपभोग करता है। महावीर ने अपनी देशना में स्वतंत्रता को स्थान देकर मनुष्य के समक्ष त्याग और संकल्प का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया। उनकी इस अवधारणा में जहां तक एक ओर त्याग की महानता का दिग्दर्शन होता है वहीं दूसरी तरफ संकल्प साधना की महत्ता भी स्पष्ट परिलक्षित होती है। परन्तु महावीर की स्वतंत्रता की इस उद्घोषणा का यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जा सकता है - सभी व्यक्ति अपने घर परिवार का त्याग कर संन्यस्त जीवन बिताने का संकल्प ले लें। उन्होंने मात्र उन लोगों के लिए ही इसका प्रतिपादन किया जो सब सीमाओं से मुक्त स्वतंत्रता को अनुभव करना चाहते हैं। महावीर की देशना में विश्व कल्याण के विविध तथ्य छिपे हैं, जिनमें से कुछ अवधारणाओं के आधार पर इनके विश्व व्यापि स्वरूप पर प्रकाश डालने का प्रयास मात्र किया गया है। सन्दर्भ 1. समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए । आचारांग 1/8/3 2. सत्तु-मित-मणि-पाहाण-सुवणण-मट्टियासु राग-देसा भावो समदा णाम | - धवला, 8/3, 41/84/1 सव्वे पाणा ण हंतव्वा । आयारो, 4/1 जं च समो अप्पाणं परं य मइय साव्वमहिलासु । अप्पिर्यापियमाणादिसु तो समणो सो य सामाइयं ।। मूलाराधना, 521 5. परस्परोपग्रहो जीवानाम् । तत्वार्थसूत्र, 5/21 6. अंगसुत्ताणि भाग - || भगवई, 1/133-138 7. जो एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणई, । आयारो, 3/74 आवश्यक चूर्णी, उत्तर भाग, पृ. 203-204 मंसाणि छिन्नपुव्वाइं । आयारो, 9/3/11, हयपुवो तत्थ दंडेण, अदुवा मुट्ठिणा अदु कुंताइ फलेण। अदु लेलुणा कवालेणं, हंता हंता बहवे कंदिसु । वही 9/3/10, वही 9/3/3-6, 9/3/11, 9/3/12-13 10. बारस वासाई वोसट्टकाए चत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उपजंति । आयारचूला, 15/34 (अंगसुत्ताणि ।) - विभागाध्यक्ष, संस्कृत, बी.एम.एम. (पी.जी.) कालेज सड़की (यू.पी.) हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 87 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Jaceupinteroition Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. वसुन्धरा शुक्ल जैनधर्म या जैन दर्शन नाम ही जैनमत को आचारमूलक सिद्ध करता है जैन धर्म की विशेषता उसके व्यावहारिक पक्ष के कारण है। यद्यपि अन्य भारतीय दर्शनों के समान ही मुक्ति या कैवल्य इस दर्शन का भी लक्ष्य है तथापि जैन साधकों ने जीवन के व्यावहारिक पक्ष पर अत्यधिक बल दिया है श्रमण हो चाहे गृहस्थ, इस धर्म के अनुसार जीवन में तपश्चर्या अनिवार्य है। सम्पूर्ण जैन साधना सदाचार के उपदेशों से परिपूर्ण है। त्रिरत्न जैन साधना का मूलसूत्र है जीवन में ज्ञान अर्थात सम्यक् ज्ञान का होना अनिवार्य है ही, साथ में सम्यक् चरित्र का भी होना पर आवश्यक है। सम्यक चरित्र के बिना अर्थात् जीवन के सदाचार पक्ष के बिना ज्ञान किसी काम का नहीं रह जाता, इसीलिए कहा जाता है ज्ञानभार, क्रियां बिना श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जैन दर्शन के अनुसार आचार का स्वरूप) सम्यक दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र इन तीनों को त्रिरत्न कहा जाता है जिस प्रकार रत्न से व्यक्ति विभूषित होता है तथा सुन्दर लगता है, उसी प्रकार उक्त तीनों गुणों से विभूषित व्यक्ति सर्वाग सुन्दर अर्थात् बाह्यान्तर सुन्दर लगता है, इसलिए इन्हें रत्न कहा गया है। सद्गुणों से ही जीवन में सौन्दर्य बढ़ता है आभूषणों से नहीं । त्रिरत्न जीवन के व्यावहारिक पक्ष को शुद्ध करता हुआ साधक को मोक्ष मार्ग की ओर ले जाता है । इसलिए आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र में त्रिख्न को मोक्ष मार्ग कहा है । ये तीनों एक साथ मिलकर एक मार्ग बनाते हैं। इसी कारण तीनों पर एक साथ आचरण भी करना चाहिए। उमास्वामी के शब्दों में "सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्ग: । -- जैन दार्शनिकों ने आचार के पाँच भेद माने हैं- 1. सम्यग् दर्शनाचार, 2. ज्ञानाचार, 3. चारित्र्याचार, 4. तपाचार, 5. वीर्याचार । 1) सम्यग्दर्शनाचार : जो चिदानन्द शुद्धात्मक तत्व है वही सब प्रकार से आराधना करने योग्य है, उससे भिन्न समस्त पर वस्तुएँ त्याज्य हैं। ऐसी दृढ़ प्रतीति चंचलता रहित निर्मल अवगाढ़ परम श्रद्धा है, उसे सम्यक्त्व कहते है। उसका आचार अर्थात् उक्त स्वरूप परिणमन रूपी आचरण ही दर्शनाचार है और परम चैतन्य का विलास रूप लक्षण वाली, यह निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी रूचि सम्यग्दर्शन है उस सम्यग्दर्शन में जो आचरण है अर्थात् परिणमन है वह निश्चय दर्शनाचार है। जैन दर्शन में दर्शन शब्द अनाकार- ज्ञान का प्रतीक माना गया है और श्रद्धा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। सही दर्शन, सही ज्ञान तक और सही ज्ञान सही आचरण तक ले जाने की क्षमता रखता है। अतः धर्म का मूल दर्शन है। इस दृष्टि से आप्तवचनों तथा तत्वों पर श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। आत्मपुरुष वह है जो अठारह दोषों से विमुक्त हो आप्त वचनों के प्रति श्रद्धान, रुचि, अनुराग, आदर, सेवा एवं भक्ति रखने से सत्य का साक्षत्कार होता है। जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष के प्रति श्रद्धा या विश्वास ही सम्यक्त्व है। आत्मा परद्रव्यों से भिन्न है, यह श्रद्धा ही सम्यक्त्व है। इस प्रकार सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए सच्चा गुरु एवं धर्मबुद्धि आवश्यक है, जिनके द्वारा यथार्थ - अयर्थाथ का विवेक उत्पन्न होता है। सम्यक्त्व के पाँच लक्षण 4. अनुकम्पा - 5. आस्तिक्य 1. राम क्रोध, मान, माया तथा लोभ का उदय न होना 2. संवेग मोक्ष की अभिलाषा 3. निर्वेद संसार के प्रति विरक्ति बिना भेदभाव के दुःखी जीवों के दुःख को दूर करने की भावना सर्वज्ञ वीतराग द्वारा कथित तत्वों पर दृढ़ श्रद्धा । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 88 हमे ज्योति ज्योति Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था। सम्यक्व के पच्चीस दोष : सम्यक्त्व के पच्चीस दोष माने गये हैं, जो सम्यक्त्व की प्राप्ति के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करते हैं। उनसे साधक को रहित होने का आदेश है। वे दोष इस प्रकार हैं - तीन मूढ़ताएँ, आठ मद, छह अनायतन और आठ शंका आदि। तीन मूढ़ताएँ : 1. देव मूढ़ता, 2. गुरु मूढ़ता, 3. लोक मूढ़ता आठ पद :1. ज्ञान, 2. अधिकार, 3. कुल, 4. जाति, 5. बल, 6. ऐश्वर्य, 7. तप, 8. रूप। छह अनायतन :1.कुदेव, 2.कुदेव मन्दिर, 3.कुशास्त्र, 4.कुशास्त्र के धारक, 5.कुतप एवं 6.कुतप के धारक आठ शंका आदि:- (सम्यक्त्व के आठ अंगों से विपरीत) 1.शंका, 2.कांक्षा, 3.विचिकित्सा, 4.अन्य दृष्टि प्रशंसा, 5.निन्दा, 6.अस्थितिकरण, 7.अवात्सल्य और 8.अप्रभावना। इन्हीं दोषों में सम्यक्त्व के पाँच अति चारों का अन्तर्भाव है। 2) ज्ञानाचार: काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिद्रव, अर्थ, व्यंजन और तदुभय सम्पन्न ज्ञानाचार है और उसी निज स्वरूप में संशय, विमोह, विभ्रम रहित जो स्वसंवेदन ज्ञान रूप ग्राहक बुद्धि ही सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्दर्शन पूर्वक ही सम्यग्ज्ञान होता है। सम्यग्दर्शन के लिए जिन तत्वों पर श्रद्धान अथवा विश्वास अपेक्षित है, उनको विधिवत् जानने का प्रयत्न करना ही सम्यग्ज्ञान का लक्ष्य है। अर्थात् अनेक धर्मयुक्त स्व तथा पर-पदार्थों को यथावत् जानना ही सम्यग्ज्ञान है। वस्तुतः जीव मिथ्या-ज्ञान के कारण चेतन-अचेतन वस्तुओं को एक रूप समझता है, परन्तु चेतन स्वभावी जीव या आत्मा अचेतन या जड़ पदार्थों के साथ एकीभूत कैसे हो सकता है ? सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान का होना असंभव है। सम्यग्ज्ञान के तीन दोष - संशय, विपर्यय तथा अन यवसाय – स्व तथा पर पदार्थों के अन्तर को जानने के मार्ग में बाधक हैं। अतः इन तीनों दोषों को दूर करके आत्मस्वरूप को जानना चाहिए। आत्मस्वरूप का जानना ही निश्चय दृष्टि से सम्यग्ज्ञान है। 3) चारित्राचार : प्राणियों की हिंसा, मिथ्यावादन, चोर कर्म, मैथुन सेवान, परिग्रह, इनका त्याग करना ही अहिंसादि पांच प्रकार चारित्राचार है। सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान होने के बाद चारित्र सम्यक्चारित्र हो जाता है क्योंकि दृष्टि में परिवर्तन आ जाता है। दृष्टि परिशुद्ध यथार्थ बन जाती है। राग-द्वेषादि कषाय परिणामों के परिमार्जन के लिए अहिंसा, सत्यादि व्रतों का पालन करने के लिए सम्यक् चारित्र का विधान है। ज्ञान सहित चारित्र ही निर्जरा तथा मोक्ष का हेतु है। दूसरे शब्दों में अज्ञानपूर्वक चारित्र का ग्रहण सम्यक नहीं होता, इसलिए चारित्र का आराधन सम्यग्ज्ञानपूर्वक ही सम्यक् कहा गया है। श्रमण एवं गृहस्थ की दृष्टि से चारित्र दो प्रकार का है। 1.सफल चारित्र, 2.विकल चारित्र। बाह्य तथा आभ्यान्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों के त्यागपूर्वक श्रमण द्वारा गृहीत चारित्र सर्वसंयमी अर्थात सकल चारित्र है। गृहस्थों एवं श्रावकों द्वारा गृहीत चारित्र देश संयम अर्थात् विकल चारित्र है। उक्त दोनों प्रकार के चारित्र को क्रमशः सर्वदेश तथा एकदेश कहा गया है। चारित्र के पांच भेदों का भी वर्णन किया गया है। हेमेन्दा ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 89 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति AnPrivatek fultantra Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन पंथ 1.सामायिक, 2.छेदोपस्थापना, 3.परिहार विशुद्धि, 4.सूक्ष्म संपराय तथा 5.यथाख्यात। 1. सामायिक चारित्र : जिसका राग-द्वेष परिणाम शान्त है अर्थात समचित है, उसे सामायिक चारित्र कहते हैं। इस चारित्र की प्राप्ति के बाद मन में किसी प्रकार की ईर्ष्या, मोह आदि नहीं रह पाते। 2. छेदोपस्थापना चारित्र: पहली दीक्षा ग्रहण करने के बाद विशिष्ट श्रुत का अभ्यास कर चुकने पर विशेष शुद्धि के लिए जीवन भर के लिए जो पुनः दीक्षा ली जाती है और प्रथम ली हुई दीक्षा में दोषापत्ति आने से उसका उच्छेद करके पुनः नये सिरे से जो दीक्षा का आरोपण किया जाता है उसे छेदोपस्थापना चारित्र कहते हैं। 3. सूक्ष्मसंपराय चारित्र :जहां सूक्ष्म कषाय विद्यमान हो अर्थात किंचित लोभ आदि हो, वह सूक्ष्मसंपराय चारित्र है। 4. परिहारविशुद्धि चारित्र : कर्म मलों को दूर करने के लिए विशिष्ट तप का अवलम्बन लेने की अर्थात् आत्मा की शुद्धि करने को परिहार विशुद्धि चारित्र कहते हैं। 5. यथाख्यात चारित्र : आत्मा में स्थित लोभादि कषायों का भी अभाव हो जाना यथाख्यात चारित्र है। यह अवस्था सिद्धपद के पूर्व चारित्र-विकास की पूर्णता सूचक है। इस संदर्भ में योगाधिकारी की दृष्टि से भी चारित्र के चार भेद वर्णित हैं और चारित्र अर्थात् चरित्रशील के क्रमशः चार लक्षणों का प्रतिपादन किया गया है। वे चार लक्षण इस प्रकार हैं - 1.अपुनर्बन्धक, 2.सम्यग्दृष्टि, 3.देशाविरति तथा 4.सर्वविरति । 1. अपुनर्बन्धक : जो उत्कृष्ट क्लेशपूर्वक पाप कर्म न करे, जो भयानक दुःखपूर्ण संसार में लिप्त न रहे और कौटुम्बिक लौकिक एवं धार्मिक आदि सब बातों में न्याययुक्त मर्यादा का अनुपालन करे, वह अपुनर्बन्धक है। 2. सम्यग्दृष्टि : धर्म-श्रवण की इच्छा, धर्म में रूचि, समाधान या स्वस्थता बनी रही, इस तरह गुरु एवं देव की नियमित परिचर्या – ये सब सम्यग्दृष्टि जीव के लिंग हैं। 3. देशविरति : मार्गानुसारी, श्रद्धालु, धर्म उपदेश के योग्य, क्रिया तत्पर, गुणानुरागी और शक्य बातों में ही प्रयत्न करने वाला देशविरति चारित्री होता है। 4. सर्वविरति : अन्तिम वीतराग दशा प्राप्त होने तक सामायिक यानी शुद्धि के तारतम्य के अनुसार तथा शास्त्रज्ञान को जीवन में उतारने की परिणति के तारतम्य के अनुसार सर्वविरति चारित्री होता है। प्रथम अधिकारी (चारित्री) में मिथ्याज्ञान के रहने से दर्शन प्रकट नहीं होता, क्योंकि दर्शन मोहनीय कर्म अस्तित्व में रहता है। द्वितीय अधिकारी में मोहनीय कर्म अस्तित्व का क्षय होता है, परन्तु वीतरागता की प्राप्ति नहीं होती। तीसरे अधिकारी में कर्म अल्पांश में नष्ट होते हैं, किन्तु पूर्णतः नहीं और चौथे में जाते जाते पूरे कर्म ढीले पड़ जाते हैं तथा पूर्ण चारित्र का उदय हो जाता है"। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 90 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Forplay Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र आत्मविकास की क्रमिक सीढ़ियां हैं, मोक्ष मार्ग के साधन हैं, क्योंकि इनके द्वारा क्रम-क्रम से आत्म विकास होता है, कषाय एवं कर्मक्षीण होते जाते हैं और स्वानुभूति की परिधि का विस्तार होता जाता है तथा एक ऐसी अवस्था आती है जब साधक मोक्ष का अधिकारी बन जाता है। 4. तपाचार: तपाचार के बाहा तथा आभ्यान्तर दो भेद हैं। बाहृा तप के अनशन, अपमोदार्य, रसपरित्याग, वृत्ति परिसंख्यान, कायशोषण तथा विविक्त शय्यासन - ये छ: भेद माने गये हैं। प्रायश्चित, विनय, ध्यान, वैयावृत्य, स्वाध्याय तथा व्युत्सर्ग ये छ: अन्तरंग तपाचार हैं। उसी परमानन्द स्वरूप में परद्रव्य की इच्छा का निरोध कर सहज आनन्द रूप तप चरण स्वरूप परिणमन तपश्चरणाचार है। अनशनादि बाहा तपाचार हैं। समस्त परद्रव्य की इच्छा के रूप में से तथा अनशन आदि बारह तप रूप बहिरंग सहकारिकारण से जो निज स्वरूप में प्रतपन अर्थात् विजयन वह निश्चय तपश्चरण है। उसमें जो आचरण अर्थात् परिणमन है वह निश्चय तपश्चरणाचार है | 5. वीर्याचार : नहीं छिपाया है आहार आदि से उत्पन्न बल तथा भक्ति जिसने ऐसा साधु यशोक्त चारित्रय में तीन प्रकार अनुमतिरहित सत्रह प्रकार के संयम विधान करने के लिए आत्मा को मुक्त करता हैं वह वीर्याचार कहलाता है। समस्त इतर आचार में प्रवृत्ति कराने वाली स्वशक्ति के अगोपन स्वरूप वीर्याचार है। उसी शुद्धात्म स्वरूप में अपनी शक्ति को प्रकट कर आचरण या परिणमन करना निश्चय वीर्याचार है। अपनी शक्ति प्रकट कर मुनिव्रत का यह व्यवहार वीर्याचार है। इस चतुर्विध निश्चय आचार की रक्षा के लिये अपनी शक्ति का गोपन करना निश्चय वीर्याचार है। उपर्युक्त विवेचन के अनुसार चारित्रय का शाब्दिक अर्थ आचरण है। मनुष्य अपने दैनिक जीवन में जो कुछ सोचता है या बोलता है या करता है, वह सब उसका आचरण कहलाता है। चारित्र के दो रूप हैं - एक प्रवृत्ति मूलक और दूसरा निवृत्तिमूलक। इन दानों चारित्रों का प्राण अहिंसा है और उसके रक्षक सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह है। यहां इन्हीं जैन दर्शन मान्य आचार के व्रतों का परिचय दिया जा रहा है। जैन दर्शन के तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने अपने शिष्य समुदाय को निम्नलिखित चार महाव्रतों के पालन करने का उपदेश दिया था - 1.अहिंसा, 2.सत्य, 3.अस्तेय, 4. अपरिग्रह। परन्तु चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने इन महाव्रतों की सूची पांचवां ब्रह्मचर्य और जोड़ दिया। जैन धर्म में इन्हें ही 'पंचमहाव्रत' कहा जाता है। जैन दर्शन में मोक्ष का एकमात्र साधन धर्म माना गया है। वह धर्म दो प्रकार का है-आगार धर्म तथा अनागार धर्म। गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए पारिवारिक तथा सामाजिक उत्तरदायित्वों के निर्वाह के साथ मुक्ति मार्ग की साधना करना आगार धर्म है जिसे जैनदर्शन ग्रन्थों में गृहस्थ धर्म अथवा श्रावक धर्म भी कहा गया है। 'श्रावक' शब्द श्र धातु से ण्वुल प्रत्यय होने पर बना है जिसका तात्पर्य है श्रोता अथवा शिष्य। जैन दर्शन के अनुसार गृहस्थ धर्म को श्रावक कहा गया है। जो साधक निर्वाण प्राप्त करने के लिए गृहत्याग कर साधु जीवन व्यतीत करना स्वीकार करता है, उनका आचार अनगार धर्म कहा गया है। जिसे साधु अथवा श्रमणाचार भी कहते हैं। श्रावक और साधु निर्वाण प्राप्त करने के लिए जिन व्रतों का पालन करते हैं, यद्यपि वे मूलतः एक ही हैं परन्तु दोनों की परिस्थितियों में भिन्नता होने के कारण उनके व्रत-पालन की पद्धति में भी भिन्नता पाई जाती है। जगत् सम्बन्धी समस्त दायित्वों के प्रति उदासीन, संयम तथा त्याग को ही जीवन का मुख्य ध्येय मानने वाला साधु जिन हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 91 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति or Private & Pe Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन गंथा व्रतों का पूर्णतया पालन करता है। श्रावक उन्हें ही आंशिक रूप में पालन करने पर भी उन्हीं की तरह मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी माना गया है। तात्पर्य यह है कि अहिंसादि व्रतों का पूर्णतया पालन करने वाला साधक साधु और श्रमण तथा महाव्रती कहलाता है। आंशिक रूप से पालन करने वाला साधक श्रावक कहलाता है। जैन दर्शन दूसरे दर्शनों की भांति मनुष्य जीवन को चार आश्रमों में विभक्त करने के पक्ष में नहीं है और न वह जीवन की तुरीयावस्था में ही सन्यास ग्रहण की बात मानता है। वह जीवन को केवल दो भागों में ही विभाजित करता है। वे हैं - श्रावक (गृहस्थ) और श्रमण (साधु) इन दोनों में प्रथम को तो गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए ही जैन दर्शन में सम्मत सामान्य नियमों का पालन करके मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी माना गया है। और साधु जीवन में गृह परिवार, धन सम्पति आदि बाह्य पदार्थों का त्याग कर कठोर साधना करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है। साधु को श्रमण भी कहते हैं। श्रमण का तात्पर्य है जो जीवन में आन्तरिक विकारों पर विजय प्राप्त कर मानापमान निन्दा, स्तुति सबको समान समझे। यह शब्द श्रम (युय) धातु से बना है जिससे परिश्रमी होना प्रकट होता है, इसका अर्थ सन्यासी, भक्त तथा साधु होता है। अभिप्राय यह है कि जो परिश्रमपूर्वक साधु जीवन व्यतीत करे वह श्रमण है। इस प्रकार जैन दर्शन में साधु के लिए गृहस्थ की अपेक्षा विशेष कठोर साधना पद्धति कही गयी है। साधु के नियमों को महाव्रत कहते है। यहां उन्हीं पंचमहाव्रतों का विवेचन किया जा रहा है। अहिंसा महाव्रत : आजीवन त्रस और स्थावर सभी जीवों की मन, वचन, कार्य से हिंसा न करना, दूसरों की हिंसा कराना और हिंसा करने वाले का अनुमोदन न करना, अहिंसा महाव्रत है। अहिंसा की पांच भावनाएँ (समिति) होती है। प्रथम भावना : निर्ग्रन्थ स्वयं न तो हनन करे, न करावे और न करते हुए का अनुमोदन, मन, कर्म तथा वचन से करे यह भावना ईर्या समिति से सम्बद्ध है। द्वितीय भावना : मन से पाप हटाने वाले को निग्रंथ कहते हैं। पापकारी, सावद्यकारी, क्रिया मुक्त, आश्रव करने वाला, कलहकारी, द्वेषकारी, परितापकारी, प्राणों का अतिपात करने वाला और जीवों का उपघातक है। तृतीय भावना : जो वचन पापमय, सावद्य और सक्रिय यावत् भूतों (जीवों) का उपघातक विनाशक हो साधु को उस वचन का उच्चारण न करना चाहिए। इस प्रकार साधु को भाषा की शुद्धता तथा निर्दोषता का पालन परमावश्यक बताया गया है। चतुर्थ भावना :साधु, आदान, भाण्डमात्र निक्षेपणा समिति से रहित होना चाहिए। पंचम भावना : जो विवेक पूर्वक देखकर आहारपान करता है, वह निर्ग्रन्थ है, जो बिना देखे आहार करता है उसमें जीव हिंसा होती है। इस प्रकार निर्ग्रथ को सभी प्रकार की हिंसाओं से दूर रहना चाहिए। सत्य महाव्रत : मन, वचन, काय से सत्य का प्रयोग करना तथा सत्य का आचरण करना और सूक्षम असत्य तक का भी प्रयोग न करना, सत्य महाव्रत है। तात्पर्य यह है कि साधु क्रोध, लोभ, भय से और हास्य से कदापि झूठ नहीं बोले, न ही अन्य व्यक्ति को असत्य भाषण की प्रेरणा दे और न अनुमोदन ही करे। इस प्रकार तीन करण, तीन योग से मृषावाद का त्याग करने वाला ही सच्चा साधु है। हेमेन्ट ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 92 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्ट ज्योति Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 4. उपर्युक्त व्रत की निम्न पांच भावनाएँ हैं - 1. विवेक विचार से बोलना 2. क्रोध के वश न होना 3. लोभ के वश न होना भय के वश न होना 5. हास्य के वश न होना इस प्रकार असत्य का सर्वथा त्याग करने वाले साधु को भाषा की सदोषता एवं निर्दोषता का पूर्णतया ध्यान रखना चाहिए"। अचौर्य महाव्रत : चोरी आत्मा को पतन की ओर ले जाने वाली है। चोर कार्य करने वाला साधना में संलग्न होकर आत्मशक्ति को कदापि प्राप्त नहीं कर सकता। अतः साधु को अदत्त ग्रहण सर्वथा त्याज्य है। इस प्रकार साधु को बिना दिए कुछ भी नहीं लेना चाहिए, न चोरी करनी चाहिए और न चोरी करने की प्रेरणा ही देनी चाहिए तथा न चोरी करते हुए का अनुमोदन ही करना चाहिए। इसी को अचौर्य महाव्रत कहते हैं। इस व्रत की निम्न लिखित पांच भवनाएँ हैं :1. बिना विचार किये अवग्रह की याचना करने वाला निग्रन्थ अदत्त को ग्रहण करता है। यह जैन दर्शन का मत है। 2. गुरु की आज्ञापूर्वक आहार पान करने वाला हो। 3. प्रमाणपूर्वक अवग्रह का ग्रहण करने वाला हो। 4. निर्ग्रन्थ पुनः पुनः अवग्रह का ग्रहण करने वाला हो। 5. साधार्मिक साधु की कोई भी वस्तु ग्रहण करनी हो तो साधार्मिक से आज्ञा ग्रहण कर लेनी चाहिए। ब्रह्मचर्य व्रत : भोग की प्रवृत्ति से मोह कर्म को उत्तेजना मिलती है। इससे आत्मा कर्मबन्ध से आबद्ध होता है और संसार में परिभ्रमण करता है। अतः साधु को ब्रह्मचर्य अर्थात् विषयभोग से सर्वथा दूर रहना चाहिए। इसलिए साधु न तो विषय भोग का सेवन करें, न दूसरे व्यक्ति को विषयवासना की ओर प्रवृत्त करे और न ही प्रवृत्त व्यक्ति का समर्थन ही करें। इसकी भी निम्नलिखित पांच भावनाएँ हैं :1. स्त्रियों की काम विषयक कथा नहीं करना। 2. विकार दृष्टि से स्त्रियों के अंग प्रत्यंगों का अवलोकन न करना। 3. पूर्वोपभुक्त विषय भोगों का स्मरण न करना। 4. प्रमाण से अधिक तथा सरस आहार का आसेवन न करना। 5. स्त्री, पशु एवं नपुंसक से युक्त स्थान में रात्रि में न रहना। हेगेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 93 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Educationintentional Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ .. अपरिग्रह महाव्रत : परिग्रह से आत्मा अशान्तावस्था की ओर उन्मुख होता है क्योंकि रात दिन उसे बढ़ाने तथा सुरक्षा करने की चिन्ता बनी रहती है। अतः साधु को परिग्रह न करना चाहिए, न करने की प्रेरणा ही देनी चाहिए और न करते हुए का अनुमोदन ही करना चाहिए। इसकी पांच भावनाएँ निम्न प्रकार है :1. अप्रिय शब्दों का परित्याग कर प्रिय शब्दों का प्रयोग। 2. रूप पर रागद्वेष कदापि नहीं करना चाहिए। 3. रस की ओर आकर्षित कदापि नहीं होना चाहिए। 4. गंध के प्रति रुचि नहीं रखनी चाहिए। स्पर्श पर रागद्वेष कदापि न करे। बाहा पदार्थों के त्याग से अनासक्ति का विकास होता है।अतः बाहा पदार्थों का त्याग भी परमावश्यक माना गया है। 5. स्पश पर गृहस्थों के लिए आचार : यद्यपि जैन नीति शास्त्र का एक पुरुषार्थ मोक्ष है और कौटुम्बिक जीवन निश्चित ही निम्न कोटि की अवस्था है फिर भी त्याग पूर्ण जीवन की तैयारी के रूप में गृहस्थ (श्रावक) के लिए निम्नांकित अणुव्रतों का विधान है। अणुव्रत का अर्थ है पंच महाव्रतों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंश। अणुव्रत प्रत्येक महाव्रत से सम्बन्धित है। 1. अहिंसा से सम्बन्धित अणुव्रत : निर्दोष घुमक्कड़, पशुओं की हिंसा, आत्महत्या, भ्रूणहत्या, हिंसक संगठन से साहचर्य, कठोरता का व्यवहार, आदि न करना एवं किसी को अस्पृश्य न मानना। 2. सत्य से सम्बन्धित अणुव्रत : तोलने के झूठे बांटो का प्रयोग, झूठे निर्णय, झूठे मुकदमे या गवाही, ईर्ष्या या स्वार्थ के कारण भेद खोलना, किसी की वस्तु को वापस न करना, जाली काम, आदि न करना। 3. अस्तेय से सम्बन्धित अणुव्रत : दूसरे की वस्तु को अधिकार में कर लेने की नियत से लेना, चोरी की वस्तु को जानबूझकर खरीदना, कानूनी रूप से अवैध वस्तुओं का धन्धा करना, व्यापार में चालाकी करना, सदस्य के रूप में किसी संगठन की सम्पत्ति या रूपया हड़पना, आदि निषिद्ध कर्म है। 4. ब्रह्मचर्य से सम्बन्धित अणुव्रत : व्यभिचार, वेश्यागमन, अप्राकृत मैथुन, महीने में कम से कम बीस दिन मैथुन आदि न करना, अठारह वर्ष की आयु तक ब्रह्मचारी रहना, पैंतालीस वर्ष की उम्र के पश्चात् विवाह न करना, आवश्यक है। 5. अपरिग्रह से सम्बन्धित अणुव्रत :प्रत्येक व्यक्ति द्वारा निर्धारित आवश्यक सामग्री से अधिक न रखना घूस और उपहार न लेना, इत्यादि। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 94 हेगेन्द्र ज्योति * हेमेन्द ज्योति Jain Edonational Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ja राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ये अणुव्रत नकारात्मक सिद्धान्त है और हमें क्या करना चाहिए यह नहीं बताते हैं। फिर भी इनका पालन बहुतेरे नैतिक और सामाजिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सकता है। इनके पालन से चरित्र निर्माण होता है और धीरे धीरे मनुष्य आत्म साक्षात्कार की ओर बढ़ता है, सम्भवतः सार रूप में यह कहना कठिन होगा कि सम्यग् आचरण का मूल मन्त्र अहिंसा है जिस पर अधिक बल दिया गया अहिंसा में सभी शुद्ध आचरण समा जाते हैं। अहिंसा का किसी प्रकार की हिंसा न करने के साथ भावात्मक रूप में सेवा करना ही है। आधुनिक जगत् विविध प्रकार की अनैतिकताओं से भ्रमित है और दुखी है। इससे बचने का एक मात्र उपाय न तो पूंजीवाद है न साम्यवाद और न समाजवादी प्रजातन्त्रवाद ही है। क्योंकि ये तीनों सिद्धान्त शाखाओं को हरा-भरा बनाये रखना चाहते हैं और वृक्ष की जड़ की चिन्ता नहीं करते हैं अहिंसा पर आधारित आध्यात्मिक साम्यवाद सम्भवतः I व्यक्ति और समाज को दुःखों से बचा सकता है । सकता है इसका एक सीमा तक प्रयोग हमारे देश में गांधीजी ने किया था 2" । 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. संदर्भ ए. एन. भट्टाचार्य, दार्शनिक निबंधावली, दुर्गा पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1989 पृ. 27-28 तत्वार्थ सूत्र 1/1 डॉ. रामकिशोर शर्मा, सांख्य एवं जैन दर्शन की तत्त्व मीमांसा तथा आचार दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन पृष्ठ 1987 वही, पृ. 83 वही, पृ. 84 10. वही, पृ. 84-85 9. तत्वार्थ सूत्र 1/2 एवं 1/4 अर्हत्दास विन्डोवा दिगे, जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन, अमृतसर, 1981 डॉ. रामकिशोर शर्मा, वही पृ. 175 अर्हत्दास विन्डोवा दिगे, वही पृ. 82-83 11. वही, पृ. 85-86 12. रामकिशोर शर्मा, वही, पृ. 176 13. वही, पृ. 176 कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैन धर्म भारतीय दिगम्बर जैन संघ, 1988, पृ. 171 15. तत्वार्थ सूत्र, 7/14 16. आचारांग सूत्र, द्वितीय श्रुत स्कंध, 9/53, आत्माराम एण्ड सन्स, प्रथम संस्करण 17. डॉ रामकिशोर शर्मा, पृ. 194-95 18. वही, पृ. 195 19. वही, पृ. 196 20. वही, पृ. 196 21. डॉ. हृदय नारायण मिश्र, डॉ. जमुनाप्रसाद अवस्थी, नीतिशास्त्र की भूमिका हरियाणा साहित्य अकदामी, चण्डीगढ़, 1988 पृ. 393 - 96 हेमेजर ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 95 Private & Pr - डी-10, विश्वविद्यालय परिसर, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र - 136 119 (हरियाणा) हेमेटलर ज्योति हेमेन्द्र ज्योति politan Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ विश्व की वर्तमान समस्यायें और जैन सिद्धान्त -डॉ.विनोद कुमार तिवारी छठी शताब्दी ई. पू. के लगभग भारतीय सामाजिक धार्मिक आन्दोलन की प्रारंभिक शुरूआत हुई, जिसमें तत्कालीन समाज एवं धर्म में आई बुराइयों तथा भ्रष्टाचार को समाप्त करने का प्रयत्न किया गया। धार्मिक और नैतिक पृष्ठभूमि में बिहार को यह गौरव प्राप्त हुआ कि इसकी धरती पर अन्य चिन्तकों के साथ - साथ तीर्थकर महावीर जैसे महान समाज सुधारक का प्रादुर्भाव हुआ, जिनके क्रांतिकारी विचारों का प्रभा तत्कालीन युग में बहुत गहराई तक पड़ा और इसका महत्व आज भी हमारे लिए उस समय से कम नहीं है। तीर्थंकर महावीर किसी नये धर्म के प्रवृतक नहीं थे, बल्कि जैनधर्म की श्रृंखला में तेईस तीर्थंकरों के बाद के अन्तिम तीर्थंकर थे, जिन्होने इस धर्म को नया स्वरूप, नई दिशा और नवीन संगठन प्रदान किया। उन्होंने जैनधर्म में अब तक चले आ रहे सिद्धान्तों को स्पष्ट, संशोधित और व्यवस्थित कर इसे एक स्वतंत्र विचारधारा के रूप में लोकप्रिय बनाया। उन्होंने इसमें कई बातों को सम्मिलित करने के साथ-साथ अपने पूर्ववर्ती तीर्थंकरों द्वारा निर्धारित किये गए जीवन के नियम और शर्तो को सामाजिक एवं दार्शनिक आधार प्रदान किये। छठी शताब्दी ई.पू. कालीन सम्पूर्ण समाज में भ्रष्टाचार, हिंसा, अज्ञानता, जातिवाद, शोषण और सामाजिक-धार्मिक विभेद का बोलबाला था। धर्म के नाम पर अनगिनत पशुओं की बलि चढ़ाई जा रही थी। दूसरी तरफ समाज का एक वर्ग विशेष गलत मान्यताओं के आधार पर अछूत करार कर दिया गया था और स्त्रियों को समाज में दासी तथा भोग्या मात्र समझा जाने लगा था। मानवता का तेजी से पतन हो रहा था और कोई भी ऐसी धार्मिक या सामाजिक शक्ति दिखलाई नहीं पड़ रही थी, जो इन्हें रोक पाने में समर्थ हो। सब मिलाजुला कर स्थिति यही थी कि सामाजिक कल्याण और धार्मिक नैतिकता के किसी पहलू की तरफ लोगों का कोई ध्यान नहीं था। इन्ही कठिन परिस्थितियों में तीर्थकर महावीर का आगमन हुआ, जिन्होंने न सिर्फ तत्कालीन चुनौती को स्वीकार किया, बल्कि एक आदर्श समाज के निर्माण के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन उत्सर्ग कर दिया। समय और आवश्यकता की मांग को देखते हुए उन्होंने, प्रचलित जैन धार्मिक व्यवस्था में अनेक महत्वपूर्ण सुधार किये। इन सब का प्रभाव यह पड़ा कि जैनधर्म के धार्मिक,नैतिक और दार्शनिक विचार सम्पूर्ण भारत के साथ-साथ विश्व के कई अन्य दूसरे देशों में भी फैले, जो आज भी किसी न किसी रूप में वहाँ देखे या महसूस किये जा सकते हैं। जैन विचारकों के अनुसार मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य निर्वाण या मोक्ष है और इसकी प्राप्ति अनन्त सुख का द्योतक है। जीव स्वभाव से मुक्त है, पर अनादि अविद्या या वासना के कारण कर्म बंधन में फंस जाता है, लेकिन जैन मत के अनुसार यदि व्यक्ति सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, और सम्यक चारित्र रूपी त्रिरत्न का पालन करे, तो वह कर्म के बंधन से आत्मा को मुक्ति दिला सकता हैं। सम्यक् दर्शन की प्राप्ति सम्यक् ज्ञान से ही संभव है और सम्यक् ज्ञान बिना सम्यक चारित्र प्राप्त हो ही नहीं सकता। इस त्रिरत्न की प्राप्ति हो जाने पर मनुष्य आत्मा और कर्म के बंधन से मुक्त हो पूर्णता को प्राप्त कर लेता हैं। जैन सिद्धान्तों में सम्यक चारित्र की प्राप्ति के लिए लोगों को पांच अनुशासन के पालन की सलाह दी गई है। इसे जैन दर्शन में 'अणुव्रत' माना गया है और इसमें अहिंसा, अमृषा, अस्तेय अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य को सम्मिलित किया गया हैं। अहिंसा से तात्पर्य हिंसा से दूर रहने का, अमृषा से असत्य नहीं बोलने का, अस्तेय से चोरी नहीं करने का,अपरिग्रह से संचय नहीं करने का और ब्रह्मचर्य से व्यभिचार से स्वंय को मुक्त रखने का हैं। उपरोक्त व्रतों की अनिवार्यता पर ध्यान देने से यह स्पष्ट होता है कि इनके द्वारा मानव की उन वृत्तियों को नियंत्रित करने का प्रयास किया गया हैं, जिससे समाज में कुप्रवृत्ति और भ्रष्टाचार का जन्म होता हैं। मनुष्य के कर्म उसके स्वार्थ से वशीभूत होकर ही होते हैं। जब तक वह अच्छे-बुरे का मानदण्ड नहीं समझता, अपनी क्रियाओं को नियंत्रित नहीं हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 96 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Kalube Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ कर सकता। व्यक्ति तभी सौम्य, विवेकशील, नैतिक, शुद्ध, प्रगतिशील और समाज तथा राष्ट्रहितैषी हो सकता है, जब वह जीवन के पांच अनुचित कर्म हिंसा, चोरी, झूठ, परिग्रह तथा दुराचारों को त्याग दे। वर्तमान संर्दभ में उपरोक्त पंचव्रतों की उपयोगिता कई गुणा अधिक बढ़ गई हैं। अहिंसा को जैन तीर्थकरों ने परम ब्रह्म का स्थान दिया हैं। अहिंसा को केन्द्र बिन्दु और बाकी शेष अणुव्रतों को इसका सहायक आधार माना गया हैं। जैन मत के अनुसार प्रमाद के योग से प्राणियों के प्राणों का घात करना हिंसा हैं और उनकी रक्षा करना अहिंसा हैं। महावीर ने अहिंसा के उस स्वरूप की बात कही थी, जो आत्मदर्शी है और सारी सृष्टि में आत्म तत्व देखती हैं। उनकी अहिंसा मनुष्य के जीवन की एक चेतना हैं। अहिंसा के अन्तर्गत मात्र जीव हिंसा का त्याग ही नहीं आता, बल्कि उनके प्रति प्रेम का भाव भी व्यक्त करना धर्म माना गया हैं। हिंसात्मक कार्यो के विषय में मन में विचार लाना या दूसरों को हिंसात्मक कार्यो के लिए प्रेरित करना भी अहिंसा सिद्धान्त का उल्लंघन हैं। जैन मतानुसार प्रत्येक क्रिया मन, वचन और शरीर से होती है, पर वचन और शरीर से होने वाली क्रिया का मूल भी मन है, अतः मन पर नियंत्रण रखने का प्रयास किया जाना चाहिए। मन की चंचलता से व्यक्ति अपना लक्ष्य भूल जाता है, इस कारण वह आखेट, द्यूत, मद्यपान और मांसाहार का शिकार हो जाता हैं। एक अहिंसा वृत्ति को स्वयं को इन चीजों से दूर रहना चाहिए। इसी प्रकार उदार आचरण के लिए हमारा हृदय हीन कोटि की भावनाओ, जैसे अहंकार, क्रोध, पाखण्ड, लालच, ईर्ष्या, द्वेष वगैरह से मुक्त होना चाहिए। जैन विचारकों ने अहिंसा की आराधना के लिए सत्य की आराधना को अनिवार्य माना है। उसके माध्यम से व्यक्ति समाज का विश्वास भाजन बनता है और सब के लिए सुरक्षा का वातावरण प्रस्तुत करता है। सत्य का आदर्श सुनृत है, अर्थात वह सत्य जो प्रिय एवं हितकारी हो। लोगों को चाहिए कि वे मात्र मिथ्या वचन का ही परित्याग नहीं करें बल्कि मृदु वचनों का भी प्रयोग करें। चूंकि गृहस्थाश्रम में रहते हुए सत्य महाव्रती होना संभव नहीं है। अतः जहां तक संभव हो सके व्यक्ति को चाहिए कि वह मन, वचन और शरीर से असत्य बोलने और दूसरों को उसके लिए प्रेरित करने से बचे। जैन विचारानुसार अहिंसा और सत्य की रक्षा के लिए अचौर्य व्रत भी अनिवार्य है। उसके अनुसार कोई व्यक्ति तब तक किसी वस्तु को लेने का अधिकारी नहीं है, जब तक वह उसे सौंप न दी जाये। इसी के द्वारा छूटी हुई या भूली हुई वस्तु को ले लेना या दूसरे को सौंप देना नियम विरूद्ध कार्य है। दूसरों को चोरी के लिए उत्प्रेरित करना भी अनुचित और अधार्मिक है। हर व्यक्ति को उदारता और पारस्परिक विश्वास की भावना रखनी चाहिए और इसका विश्वास क्रमशः समाज राष्ट्र एवं अंतराष्ट्रीय स्तर पर किया जाना चाहिए। इन गुणों से युक्त नागरिक सह-अस्तित्व और बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय के सिद्धांतों का पालन करते हुए संगठित समाज, एवं राष्ट्र की रचना कर सकता है। जैन दर्शन के अनुसार बाह्य और आन्तिरक वस्तुओं के प्रति लालसा रखना ही परिग्रह है। यह निर्विवाद है कि जीवन का अधिकार जीवन के साधनों से जुड़ा है, क्योंकि उसके बिना जीवन की सत्ता संभव नहीं। भोजन, वस्त्र और आवास हर व्यक्ति की मौलिक आवश्यकताएँ हैं और अगर कोई व्यक्ति इनका संचय जरूरत से अधिक करता है तो वह दूसरों को इससे वंचित ही करेगा। परिग्रह से कई तरह की लालसाएँ जन्म लेती है। जबकि इसीसे मुक्त रहना नैतिकता एवं सचरित्रता का आधार है। आज की दुनिया में अपरिग्रह का पालन इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इसी के द्वारा समाज और देश से असमानता को समाप्त किया जा सकता है। वर्तमान संदर्भ से शोषण, अनैतिक व्यापार, कालाबाजारी, चोरबाजारी, तस्करी, भू-सम्पत्ति पर अनियंत्रित अधिकार तिलक दहेज की सीमाहीन लिप्सा जैसे घृणित प्रचलनों का बाहुल्य परिग्रहवादी दृष्टि की दुष्परिणती है। इसे वैधानिक नियमों द्वारा समाप्त नहीं किया जा सकता, बल्कि मानसिक सन्तुलन बनाये रखने के लिए हमें अपनी इच्छाओं पर स्वेच्छा से नियंत्रण करने का अभ्यास करना होगा। अपरिग्रह के पालन से ही स्वाभाविक रूप से समाज में व्यक्ति-व्यक्ति के बीच तनाव घटेगा। यदि विश्व के लोग संग्रहवृति त्याग दें तो चारों ओर शांति और संतोष का वातावरण कायम हो जायेगा। जिस में एक तरफ जहां निर्बलों को जीने का अधिकार मिलेगा वहीं अविकसित देशों के लिए विकास का मौका भी प्राप्त होगा। अपरिग्रह के द्वारा ही विश्व की वर्तमान सामाजिक एवं आर्थित विषम स्थिति को संतुल्य किया जा सकता है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 97 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ तीर्थंकर पार्श्वनाथ के प्रचलित जैन सिद्धांतों में ब्रह्मचर्य को अलग स्थान देकर महावीर ने इसे 'पंचव्रत' का रूप दिया। उन्होंने ब्रह्मचर्य से तात्पर्य सभी प्रकार की कामनाओं के परित्याग से लिया। मानसिक, बाहा, लौकिक, पारलौकिक एवं स्वार्थ जैसी अभिलाषाओं का पूर्ण परित्याग ब्रह्मचर्य के लिए आवश्यक माना गया। कई कारणों से अपने काल में महावीर ने इस व्रत के पालन पर विशेष ध्यान दिया। आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले का समाज जातिवाद, व्यभिचार, भ्रष्टाचार और शोषण से बुरी तरह प्रभावित था, जिसमें तत्कालीन धार्मिक ठेकेदारों ने धर्मस्थलों को भी अपने पापों से भ्रष्ट कर दिया। तत्कालीन समाज में स्त्रियां मात्र भोग-विलास की वस्तु मानी जाती थी। पर महावीर के धार्मिक व समाजिक आन्दोलन के कारण स्त्रियों ने अपनी खोई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त करने की चेष्टा की जिससे उन्हें समाज में बराबरी का स्थान प्राप्त हुआ। आगे चलकर कई ऐसी स्त्रियों का जिक्र आता है जिन्होंने राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं पर अपने विचार प्रगट किये और स्त्री समाज में गौरव की प्रतीक बनीं। तीर्थंकर महावीर ने जैनधर्म के अनुयायियों के लिए जीवन की कुछ शर्तों का भी उल्लेख किया। उन्होंने तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन लाने का भरपूर प्रयास किया और यह बतलाया कि व्यक्ति वर्ण से नहीं, बल्कि कर्म और गुण से ऊँचा या नीचा होता है। उन्होंने समाज में अभी तक चली आ रही जाति प्रथा की कड़ी आलोचना की और इस व्यवस्था में परिवर्तन लाने का प्रयत्न किया। उन्होंने जैन धर्म का द्वार जाति, वंश या पद से हटाकर सभी के लिए समान रूप से खोल दिया। जैन दर्शन स्याद्वाद, अनेकानत, जीव-अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष पर विशेष बल देता है और ये सभी किसी न किसी रूप से नैतिकता, संयम, संतोष, समानता, शुद्धता, भ्रातृत्व और सामाजिक एकता से जुड़े हैं। वर्तमान युग में हम स्वयं अपने और अपने वातावरण के इर्द गिर्द के लोगों को पहचान पा सकने में समर्थ नहीं हो पा रहें हैं, जिसका दुष्परिणाम यह होता है कि व्यक्ति के पारस्परिक संशय दूर नहीं किये जा सकते। इस हालत में न तो युद्ध की विभिषिका को टाला जा सकता है और न सह-अस्तित्व का सही वातावरण तैयार किया जा सकता है। हमें नयवाद और स्याद्वाद के सिद्धांतों के अनुरूप अपने ज्ञान की सीमाओं को समझना चाहिए तथा दूसरे के दृष्टिकोण का आदर करना सीखना चाहिए। जैन सिद्धांतों और नैतिक नियमों पर ध्यान देने से यह स्पष्ट होता है कि इनका संबंध मात्र जैन धर्म विशेष से न होकर सामाजिक, राष्ट्रीय और मानवीय भावनाओं एवं आवश्यकताओं से है। इनके पीछे जहां आध्यात्मिक और नैतिक विचार हैं, वहीं इनसे विश्व में शक्ति, एकता और भाई चारा लाने में सहायता मिल सकती है। आज संसार में हिंसा, व्यभिचार और कटुता बढ़ती जा रही है और हम एक एक से समाज की खोज में हैं, जिसमें शोषण, भेदभाव एवं द्वेष न रहे। अगर हम इन सत्यों को प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें तीर्थंकर महावीर और जैनधर्म के सिद्धांतों एवं दर्शन के आलोक में ही इनका समाधान ढूंढ़ना पड़ेगा और वही हमारी अन्तिम विजय होगी। विभागाध्यक्ष : इतिहास विभाग, पू. आ. कालेज, रोसड़ा - 848 210 (समस्तीपुर) बिहार हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 983हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्य ज्योति Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ज्ञान की आराधना कीजिये - महाराज भर्तृहरि का एक प्रसिद्ध श्लोक है : यदा किंचिज्ञोऽहं द्विपइव मदान्धः समभवं तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः । यदा किंचित्किंचिद् बुधजन सकाशादवगतं, तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इब मदो मे व्यपगतः ।। जब मैं थोड़ा बहुत जानता था, तब हाथी की तरह मदांध था, अपने आप को सर्वज्ञ मानकर इतराता था। फिर जब विद्वानों के सत्संग से मुझे कुछ कुछ जानने को मिला तब पता चला कि मैं तो निरा मूर्ख हूँ और मेरा सारा घमंड बुखार की तरह उतर गया। भर्तृहरि ने ही सज्जनों के स्वभाव का वर्णन करते हुए कहा है "नम्रत्वेनोन्नमन्त” अर्थात सत्पुरुष नम्रता के द्वारा ऊपर उठते हैं नम्रता और अकड़ अर्थात अहंकार दोनों स्थितियों में मनुष्य के बौद्धिक स्तर अथवा उसके ज्ञान का स्तर मुख्य भूमिका निभाता है। अल्पज्ञ साधारण ज्ञान प्राप्त व्यक्ति ही ज्ञानी होने का दंभ रख सकता है। दूसरों को अपनी विद्वता की चुनौती दे सकता है। अपने आप को सर्वज्ञमान समझ सकता है। किंतु अपने स्वाध्याय अथवा गुरुजनों की कृपा से जब मनुष्य बुद्धि में ज्ञान का स्तर ऊपर उठता है तब उसे वास्तविकता का पता चलता है आकाश की तरह विस्तृत ज्ञान के क्षेत्र की जब तनिक सी झलक दिखाई देती है, तब अपनी अल्पज्ञता का अनुभव होने लगता है। इसी तरह के अनुभव के आधार पर ही शायद जिगर मुरादाबादी ने ये पंक्तियां कही होंगी। जब देख न सकते थे, तो दरिया भी था कतरा । जब आँख खुली कतरा भी दरिया नजर आया ।। Sair Education Inter श्री किशोरचंद्र एम. वर्धन जब वास्तविक ज्ञान नहीं था तो समुद्र भी बूंद जैसा महसूस होता था किन्तु जब ज्ञान की दृष्टि मिली तो एक बूंद में समुद्र नजर आने लगा। अर्थात अल्पज्ञान, अज्ञान की अवस्था में व्यापक ज्ञान का क्षेत्र भी सीमित सा साधारण सा जान पड़ता था किन्तु जब ज्ञान आराधना के लिए आगे बढ़े तो छोटी से छोटी बात भी अपने समग्र भाव में अथाह जान पड़ने लगी। । • निश्चित ही मानव बुद्धि की सीमा अत्यन्त सीमित है। जब की ज्ञान अनंत है, अथाह है। जिनने भी ज्ञान साधना के क्षेत्र में पग रखा वह उसमें गहरे डूबते चले गये और अपनी खोज से मानवता को कुछ अमूल्य रत्न दे गये। विवेकशील व्यक्ति ज्ञानाराधना के क्षेत्र में अपने ज्ञानी होने के दंभ से अर्थात तथा कथित विद्वता के बुखार से बचकर ही आगे प्रगति करते है। अधिकांश तो अधजल गगरी छलकत जाय वाली कहावत के अनुसार ज्ञान का दंभ ओढे अपनी विद्वता का नाटकीय प्रदर्शन करते देखे जा सकते है। अल्प ज्ञान जन्य विद्वता का दंभ सारे संसार को अपने माथे पर ढ़ोता नजर आता है किन्तु गहरे पैठा हुआ ज्ञानी विशाल ब्रह्मांड में अपने आप को सही परिप्रेक्ष में देखता है। नम्रता, मितभाषण, स्वाध्याय, गुरुजनों की सेवा, सदाशयता, आत्मचिन्तन मनन आदि ऐसे व्यक्ति की प्रकट पहचान है। इसके विपरीत अल्पज्ञानी ज्ञान के दंभ में डूबा खंडन-मंडन की ऊहापोह में भटका, अच्छे बुरे के आग्रह में बद्ध, संसार को सुधारने का, दूसरों को ज्ञान देने का ढींढोरा पीटता नजर आयेगा। यह भी निश्चित है कि ज्ञान के क्षेत्र में अज्ञानी उतनी गड़बड़ नहीं करता जितनी अल्पज्ञानी करता है। समस्त मत मतांतर वाद, पंथ, या इनके नाम पर उत्पन्न वैर विरोध अल्पज्ञानियों की देन है। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 99 Private हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति www.sinel/brary.or Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ऐसे व्यक्तियों के लिए श्री सोमप्रभसूरीश्वरजी ने कहा है। शमालानं भंजन विमलमतिनाडि विघटय, किरन्दुकूपांसूत्करमगणयन्नागमसूणिम् । भमन्नुा स्वैरं विनयनय वीथि विदलय, जनः कं नानर्थ जनयति मंदाधो द्विपइव|| मिथ्या अभिमान से अंधा हुआ मनुष्य, मदोन्मत्त हाथी की तरह शांतिरूप बंधन-स्तंभ को नुकसान पहुंचाता हुआ निर्मल बुद्धि रूप रस्सी को तोडता हुआ, दुष्ट वाणी रूप धुल समूह को उड़ाता हुआ, आगम सिद्धांत शास्त्र रूप अंकुश को न मानता हुआ, पृथ्वी तल पर स्वतंत्रता पूर्वक घूमता हुआ, नम्रता और न्याय रूप मार्ग को उजाड़ता हुआ, क्या क्या अनर्थ पैदा नहीं करता है अर्थात ऐसा व्यक्ति सभी प्रकार के अनर्थों का सूत्रपात कर देता है। अल्पज्ञान से मिथ्या अभिमान पैदा होता है और यह मिथ्या अभिमान ही समस्त बुराइयों की जड़ है। इसके विपरीत पूर्ण ज्ञानी जो सर्वत्र समभाव रखते हुए,सब के कल्याण की कामना करके कहेगा मित्ति में सर्व भूएसु, वैरं मज्झन केणई। समस्त प्राणिमात्र मेरे मित्र हैं। मुझे किसी से वैर नहीं है। ज्ञान पथ पर आगे कदम बढ़ाने वाला व्यक्ति नम्रता, अविरोध, निर्वरता, अप्रतिद्वंदिता के बिना आगे नहीं बढ़ सकता। जैन प्रस्थापनाओं के अंतर्गत तो रत्नत्रय और पंचाचार की अनुपालना के बिना ज्ञान का, विद्वता का कोई महत्व ही नहीं है। आचरण की सुदृढ़ नींव पर विकसित ज्ञान ही संतुलित व्यक्तित्व का संपादन कर सकता है। ज्ञान अनंत है - उपनिषद की एक कथा प्रसिद्ध है। महर्षि भारद्वाज वृद्धावस्था के अंतिम चरण में मृत्यु शैया पर पड़े थे। उनकी पूर्व उपासना के प्रभाव से इन्द्र स्वयं उनके समक्ष प्रकट हुए और उनसे पूछा : "महर्षि भारद्वाज ! इस अंतिम समय में तुम्हारी क्या इच्छा है। भारद्वाज ने जवाब दिया - "देवराज ! मेरा वेदाध्ययन (ज्ञानाराधना) अधूरा रह गया।" इन्द्र – यदि आपको एक सौ वर्ष की आयु और मिल जाय तो आप क्या करेंगें। भारद्वाज - देवराज ! मैं वेदों के स्वाध्याय में फिर लग जाऊँगा। कथानक के अन्तगर्त देवराज इन्द्र महर्षि भारद्वाज को एक सौ वर्ष की आयु प्रदान कर देते हैं और इसी क्रम में महर्षि की उम्र पूरी हो जाती है। इन्द्र पुनः प्रकट होकर पूर्ववत् प्रश्न करते हैं और ऋषि के आग्रह पर वेदाध्ययन हेतु पुनः उन्हें सौ वर्ष की आयु प्रदान कर देते हैं। तीसरी बार भी पहले जैसी स्थिति बनती है तब इन्द्र अपनी योगमाया से तीन विशाल पर्वत खड़े कर देते हैं और प्रत्येक में से एक-एक मुठटी पदार्थ लेकर भारद्वाज से कहते हैं। इन्द्र - भारद्वाज ये तीन पर्वत वेद स्वरूप हैं। तीन मुट्ठी भर पदार्थ दिखाते हुए इन्द्र ने कहा महर्षि अभी तक तुमने इतना सा ही वेद ज्ञान प्राप्त किया है। ऋषिवर ! अनन्ता वै वेदाः वेद अनन्त है, ज्ञान का क्षेत्र अनन्त है और फिर ऋषि ने सन्तोष के साथ मृत्यु का वरण कर लिया। ज्ञान की आराधना करने वाले में धैर्य आवश्यक है और धैर्य के साथ ही नम्रता, सहजता स्वतः ही चली आती है। ज्ञानार्थी को धैर्यपूर्व ज्ञान की साधना में लगे रहना चाहिए। तभी कुछ प्राप्त हो सकता है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 100 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ स्वामी दयानन्द सरस्वती अपने समय के महिमा सम्पन्न महापुरुषों में से थे। उनकी सत्य निष्ठा, विद्वता और निर्भीकता ने अपने जीवन काल में ही उन्हें महर्षि दयानन्द के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया था। एक बार बातचीत के दौरान किसी ने उन्हें 'महर्षि' कह दिया। इस पर वे कुछ क्षण मौन हो विचारों में डूब गये। उन्हें महर्षि कहने वाला व्यक्ति भी पशो-पेश में पड़ गया। सहज होते हुए स्वामी जी ने कहा-“आज आप मुझे महर्षि कह रहें हैं ? यदि मैं कपिल और कणाद के जमाने में पैदा हुआ होता तो पढ़े – लिखों में भी मेरी गणना मुष्किल से हो पाती।" फ्रान्स के प्रसिद्ध खगोल शास्त्री श्री प्येर ला प्लेंस ने अठत्तर वर्ष की आयु में मृत्यु शैया पर पड़े हुए कहा था “हम जो कुछ जानते हैं वह कुछ भी नहीं है। हम जो कुछ नहीं जानते हैं वह असीम है।" संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं उनमें सहज नम्रता उनका सर्वोपरि गुण रहा है। यह तभी संभव है जब मनुष्य विशाल ब्रह्माण्ड में स्थित अरबों-खरबों ग्रह-तारे नक्षत्र सहित समस्त सृष्टि के मध्य अपनी स्थिति और स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। असीम विश्व और ससीम व्यक्तित्व की गवेषणा कर लेता है। ज्ञान की आराधना में साधक की भाँति लीन हो जाने पर ही जीवन और जगत के रहस्यों से पर्दे हटने लगते हैं और ज्यों ज्यों मनुष्य का ज्ञान बढ़ता जाता है त्यों त्यों उसकी ज्ञान साधना का क्षेत्र भी व्यापक, असीम होता चला जाता है। संसार की अनेक महत्वपूर्ण सभ्यतायें काल के गाल में समा गई। उनके अवशेष मात्र म्यूजियमों की शोभा बढ़ा रहें है। किन्तु महान् भारत आज भी कमोवेश अपनी सभ्यता संस्कृति को जीवित बनाये हुए है। इसकी नींव में उन महापुरुषों का श्रम तप उत्सर्ग सिंचित है जिन्होंने सभी प्रकार के प्रलोभन आकर्षण को ठुकरा कर अथाह ज्ञान साधना के लिए अपने आपको समर्पित कर दिया। उनके पद चिन्हों पर चलकर ही यह देश अपनी अस्मिता बनाये रख सकता है। जब-जब भी हम उस महान् पथ से भटके, हमें सभी प्रकार से पद दलित अपमानित और शोषित हए हैं। नये भविष्य का निर्माण, अल्पज्ञान जन्य दम्भ और लच्छेदार भाषण बाजी से नहीं होगा वरन् महाजनों येन गता स पंथा जिस मार्ग पर हमारे पूर्व महापुरुष चले हैं उन पर कदम बढ़ाने से होगा। प्रत्येक जागरूक विवेकशील व्यक्ति के लिए मार्ग प्रशस्त है। तीन वणिक पूंजी लेकर कमाने के लिये परदेश गये। उनमें एकने पूंजी से लाभ प्राप्त किया, दूसरेने पूंजी को संभाल कर रक्खी और तीसरे ने सारी पूंजी को बेपरवाही से खो दी। यह है कि पूंजी के समान मनुष्यभव है। जो उत्तम करणी करके उसके मोक्ष के निकट पहुँच जाता है या उसको प्राप्त कर लेता है वह पुरुष लाभ प्राप्त करनेवाले वणिक के सदृश है, जो स्वर्ग चला जाता है वह द्वितीय वणिक के सदृश है और जो मनुष्यभव को अपनी दुराचारिता से नर एवं पषुयोनि का अतिथि बना लेता है वह पूंजी खो देनेवाले के समान मनुष्यभव को यों ही खो देता है। अतः ऐसी करणी करना चाहिये कि जिससे स्वर्गापवर्ग की प्राप्ति हो सके। यही मानवभव पाने की सफलता है। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेगेन्य ज्योति* हेमेन्य ज्योति 101 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Private Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जैन परम्परा में उपवासों का वैज्ञानिक महत्व डॉ स्नेहरानी जैन, सागर जैन धर्म विश्व के सर्वप्राचीन धर्मों में से एक है। जिसमें स्वयं के अंदर गुणों की उन्नति हेतु गुण धर्म की उपासना की जाती है। विश्व का कोई अन्य धर्म इस प्रकार के सिद्धांत नहीं रखता। क्योंकि वे सब किसी सृष्टिकर्ता परमात्मा की उपासना करते है जो प्रत्येक जीव की स्थिति गुण दोषों हेतु जिम्मेदार है। सब अपने अपने उसी इष्ट परमात्मा की उपासना, पूजा करके अपने जीवन की सार्थकता मानते हैं। जबकि जैन धर्म कर्म सिद्धांत को सर्वोपरि मानते हुए कर्मों की निर्जरा (निवारण) की ओर ध्यान देता है। इसमें गुणों की उन्नति की ओर ध्यान दिया जाता है। धर्मी, गुणी ही होगा। तब प्रश्न उठता है कि जैन कौन ? उत्तर मिलता है 'जिन' का अनुयायी जैन है। प्रश्न पुनः उठता है 'जिन' कौन? उत्तर होता है, "जिसने अपनी इन्द्रियों और मन पर संपूर्ण विजय पायी है वही 'जिन' है। यह कार्य अत्यन्त दुरूह है- स्वयं की इच्छाओं पर विजय पाना, इन्द्रियों को वश में करना साधारण बात नहीं है। वहीं परम वीरता है। जबकि प्रत्येक सामान्य इन्सान इन्द्रियों और मन के वशीभूत होकर ही सारा जीवन बिता लेता है। ऐसी स्थिति में जैन वह भी कहलाता है जो जैनकुल में जन्मा है तथा जो शाकाहारी संस्कारों का है तथा जो जिन देव की पूजा करता है। 'जैन' शब्द का अस्तित्व महावीर काल में अधिक जोर पकड़ गया इसलिये लोगों को भ्रम हो गया कि जैन धर्म महावीर स्वामी ने चलाया। जबकि 'जिन' शब्द का प्रयोग प्राचीन था तथा महावीर स्वामी के माता पिता इसी धर्म के अनुयायी थे। वास्तव में महावीर स्वामी से पहले 'श्रमण धर्म नाम प्रचलित था। गौतम बुद्ध ने उसी श्रमण धर्म को स्वीकार कर प्रथम वर्ष निर्ग्रन्थ बनकर (नग्न विचरण करके) ही तपस्या की। जब वह उन्हें अति कठिन लगा तब उन्होंने 'मध्यम मार्ग' स्वीकार करके अपना अलग धर्म 'बौद्ध धर्म' के नाम से प्रतिष्ठित कराया। किन्तु दोनों ही धर्मों के साधुओं को जनसमुदाय 'श्रमण' पुकारता था। उनमें पहचान बताने के लिए "जैन श्रमण' और 'बौद्ध श्रमण नाम चल पड़े और धर्मों के लिए 'जैन' तथा 'बौद्ध धर्म। दोनों ही धर्मों में अहिंसा को मान्यता दी गई। श्रमण जैन तो सदैव से ही जीव दया के पुजारी थे। आदिनाथ के काल से ही जब से कल्पवृक्ष गायब हुए जीवों ने नख सींग दिखवाए, मनुष्य भी संस्लेशित हो गये थे, कलह करने लगे थे "अहिंसा और वीतरागत्व” को प्रधानता दी गई थी। जो पथ 'आदिनाथ' और उनके बेटों "बाहुबलि और भरत" ने अपनाया। वही परम्परा “आर्य परम्परा रही, जो समस्त श्रमणों, केवलियों, तीर्थकरों ने अपनाई। ये एक अक्षुण्ण परम्परा थी, जो सदैव जैन साधुओं/तपस्वियों ने अपनाई। इसमें 'नकल' नहीं 'सत्य' की खोज थी 'सत्यार्थियों द्वारा। सर्वत्र पर्यायों का अस्तित्व स्वयं की पर्याय कथा 84 लाख योनियों में तथा स्वास्तिक की चार गतियों में निरख सभी ने उस वीतरागत्व की राह पकड़ी थी। जो तुषमात्र भी परिग्रह न रख, नवजात शिशु की भांति निरीह बन इसी प्रकृति में जीने को तत्पर था। कुदरत का प्रत्येक प्राणी जिस निरीहता से जीता है, उस निरीहता में अन्य प्राणी अबोध होते हुए अपना अपना सीमित ज्ञान लिये प्रवर्तते हैं किन्तु जैन श्रमणों के चिन्तन ने पूरा ब्रह्मांड छान डाला। सूक्ष्म से सूक्ष्मतम और दूर से दूरतम अस्तित्व भी उनके चिन्तन में स्पष्ट झलक गये। गणित, ज्योतिष, भाषा, मनोविज्ञान, समाज विज्ञान, न्याय, रसायन विज्ञान, भौतिकी, प्राणी विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, वर्गणायें, निगोद, कार्मण वर्गणाएँ, इन्द्रियां सभी कुछ उनके सामने स्पष्ट थे। जो विवेचन भावों की उत्कृष्ट उपलब्धि का जैन श्रमणों ने प्रस्तुत किया है, वैसा किसी अन्य साधुओं अथवा चिन्तको ने नहीं कर पाया है। इसका कारण था-श्रमण वही था जो श्रम करते हुए आत्मा में रहता था। राजा खारवेल की गुफा द्वार पर जो मूलमंत्रांश देखने में आता है - "णमो सिद्धाणं" तथा "णमों अरहताणं" वे दोनों ही परमेष्ठियां सर्वोत्कृष्ट 'ज्ञान' की उपलब्धियां थी। पहली 'अशरीरी' दूसरी 'सशरीरी'। 'सशरीरी परमेष्ठी की स्थिति में पहुंचने वाले पथिक तपस्वी, आचार्य, उपाध्याय तथा सर्व साधु भी सामान्य धर्म निष्ठ गृहस्थ के लिए परमेष्ठी स्वरूप थे। ये मिलकर ही 5 परमेष्ठियां बनाते थे। इनके ही बतलाये पथ पर चलने वाला जिन मार्गी कहलाता था जो गृहस्थ की भूमिका से हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 102 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति in Education f i nal fainelibrary Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन थ। ही अपने आचार विचार की नींव बनाता था। अनुयायी भले ही जैन कहलावें, किन्तु जो श्रमणों की सेवा में आगे बढ़कर स्वयं को स्वसंयम की ओर मोडता था वह "श्रावक - श्राविका" कहलाते थे। महिला साधु वर्ग – 'आर्यिका' संघ या श्रमण संघ कहलाता था। स्वसंयम द्वारा श्रावक-श्राविका अपने को श्रावकाचार की भूमिका में दक्ष बनाते थे, तथा आगे बढ़कर साधुत्व स्वीकार करने पर 'मूलाचार' की भूमिका में दक्ष होते थे। इसके सिवा सत्य को पाने की अन्य कोई राह न थी, न है। संसार में मोह के वशीभूत होकर प्रत्येक जीव रागद्वेष करता है और ठगा जाता है जबकि अपना स्वयं का ही शरीर जिससे मनुष्य तथा प्रत्येक प्राणी सब से अधिक मोह रखता है वह भी उसके अनुकूल नहीं रहता। संसार के सारे झगड़े, सारी समस्यायें, सारे कष्ट इसी मोह के कारण हैं जो भावों में कलिलता कलुषता लाकर संसार के भ्रमण को बढ़ाता है। यही मोह कर्मों के बंधन में डालने वाली जंजीर है। इससे छूटने का उपाय स्वसंयम के सिवाय और कोई संभव नहीं है। इस सिद्धांत को प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक समझ ही लेता है किन्तु तब कोई बचाव की स्थिति शेष नहीं रह जाती। ज्ञानी व्यक्ति इसका निदान सहर्ष स्वयं के चयन से अपनी सीमा शक्ति के अनुसार क्रमशः बढाता है। तब उसे स्वयं को अपनी उस सामर्थ्य वृद्धि पर हर्ष होता है और वह उत्साह से आगे प्रगतिशील बनकर संयम बढ़ाते हुए व्रती ओर महाव्रती बनकर तपस्वी बन जाता है। संसार उससे बहुत पीछे छूट जाता है। अब उसे संसार छूटने का दुख नहीं रहता। जबकि सामान्य संसारी से यदि कोई सामान्य वस्तु भी छीने तो उसे भारी दुःख (मानसिक) होगा। स्वसंयम की इस प्रगति हेतु कर 'श्रावकाचार द्वारा प्रत्येक सामान्य मनुष्य के लिए छ: आवश्यक बतलाये गये है-देवपूजा (अरहंतों एवं सिद्ध भगवान की पूजा) गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान। गुरुओं में आचार्य, उपाध्याय एवं सर्व साधुओं के साथ साथ प्रत्येक सच्चा मार्गदर्शक भी जाना जाता है यथा उच्च श्रावकादि। संयम द्वारा श्रावक (गृहस्थ) अपनी आवश्यकताओं और सांसारिक सुख आकांक्षाओं को सीमित करते हुए अपनी तप क्षमता को बढ़ाता है। 12 प्रकार के तपों द्वारा वहीं गृहस्थ अपने भावों की विशुद्धि बढाते हुए कायक्लेश, क्षमता को उठाता है। (श्री दौलतरामजी की छः ढाला में बहुत ही सुंदर शब्दों में प्रत्येक सामान्य व्यक्ति के समझने हेतु निरूपित करती है। इस तपोमति हेतु उसे कोई बाध्य नहीं करता। इसीलिए जैन धर्म व्यक्ति परक धर्म है इसे कोई भी अंगीकार कर सकता है। इसका प्रचार करके जिस प्रकार ईसाई, मुसलमान, सिख, बौद्ध अथवा आर्य समाजी बनाये जाते है- 'जैन' बनाए नहीं जाते, भले ही कोई स्वयं चाहे तो 'जैन' बन सकता है। इसके तपमार्ग को बिरले ही अपना पाते है। जिसमे उपवासों को प्रधानता है। उपवास का सामान्य अर्थ है (उप = आत्मा) आत्मा में लीन होना। किन्तु इससे पहले आत्मा को समझना और उपवास की भूमिका पाना आवश्यक है। यह क्रमशः उपलब्धि है। अष्टमी चतुर्दशी को आहार संयम में सर्वप्रथम (सरलतम एकबार भोजन) एकासन कहा गया है। जो मधु, मद्य, मांस के सेवन का संपूर्ण निषेध करता है। इसी के अंतर्गत नशीली समस्त वस्तुओं गुटका, पान, सिगरेट, चाय, काफी आदि तथा अनछने पानी और रात्रि भोजन का त्याग भी आ जाता है। इसके कारण शरीर परिमार्जित होकर स्वस्थ तथा प्रक त महसूस करता है। त्याग की भूमिका में आत्मबल, करुणा उत्साह तथा सौम्यता बढ़ती है। अर्थात एकासन (एक आसन) से पहले भी व्यक्ति रात्रि भोजन तथा जलाधि सेवन त्यागता है। इसके लिए व्यक्ति समय सीमा बांधकर प्रयास करता है अथवा दोनों (एकासन तथा रात्रि भोजन त्याग) का प्रयास करता है। जब ये सही सही होने लगते है तब अगले कदम में “रस त्याग” जो किसी एक रस को अथवा प्रतिदिन एक रस को त्यागकर किया जाता है। इसके अंतर्गत सोमवार को हरी सब्जियों, साग, फलों की सीमितता अथवा पूर्ण त्याग, मंगलवार को मीठे का त्याग, बुधवार को घी का त्याग, गुरुवार को दूध का त्याग, शुक्रवार को खटाई का त्याग, शनिवार को तेल तथा रविवार को नमक का त्याग करता है। इससे शरीर हलका हो जाता है। जबसे व्यक्ति की स्वसंयम की भूमिका प्रारम्भ होती है वह जीवदया और अहिंसा को अधिक से अधिक पालता है। वह प्रत्येक जीव की आत्मा को अपनी आत्मा जैसा जान करुणा करता है। उनका दुख दर्द समझकर दयावान बन जाता है। इससे संसार में प्रेम, वात्सल्य और सहिष्णुता बढ़ती है - साथ ही सहनशीलता भी। हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 103 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Educati Jw Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Edodatio श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ त्याग की भूमिका में सारे सुख साधन उपलब्ध होते हुए भी व्यक्ति अपने उपयोग की वस्तुओं, उपभोगों को कम करता जाता है । भूमिका सिद्ध होने लगती है तो वह व्यक्ति प्रतिज्ञा (संकल्प) धारण की भावना करता है। स्वसंयम हेतु मूल परम्परा में 11 प्रतिज्ञाओं (अपने स्वरूप) का विधान है। प्रथम दर्शन प्रतिज्ञा में देवदर्शन तथा सम्यग श्रद्धा प्रधान है। (शरीर तथा आत्मा की भिन्नता को समझ पर्यायों को ऐकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक समझ प्रत्येक जीव की आत्मा को महत्व देना) दूसरी व्रत प्रतिज्ञा के अंतर्गत वह पंचपापों को स्थूल में त्यागता है, जिसमें 5 अणुव्रत, 3 गुणव्रत तथा 4 शिक्षाव्रतों का पालन करते हुए व्यक्ति चाहे तो स्वसंयम की भूमिका में स्वयं को अणुव्रती भी बना सकता है। इससे दो प्रतिज्ञाएँ पलने लगती है। ऐसा 'श्रावक' सुंदर मानव समाज के लिए आदर्श होता है। एकासन, आहार संयम, ऊनोदर, उपवास आदि की भूमिका बनाते हुए सामायिक प्रतिज्ञा को स्वीकारता है। धर्म लीन श्रावक निरन्तर प्रतिज्ञाएँ बढ़ाते हुए ग्यारहवीं प्रतिज्ञा तक पहुंच जाते हैं। इस बीच वे उपवासों को बार बार धारण करके अपने स्वसंयम को उत्कृष्ट बनाने की चेष्टा करते है। एक उपवास में अब 'एकासन' नहीं 48 घंटों तक का सम्पूर्ण आहार-जल त्याग रहता है। पिछले दिन के एकासन के बाद दूसरे दिन का उपवास तथा तीसरे दिन पुनः एकासन एक उपवास को सार्थकता देते है अर्थात एक उपवास से चार बार के भोजनों का त्याग हो जाता है। किसी अन्य धर्म में इस प्रकार के उपवासों और शरीर तथा मन शोधन का प्रावधान देखने में नहीं आता अतः वे इसके महत्व को नहीं समझ पाते किन्तु इसको कर लेने पर वे अपने शरीर सामर्थ्य को समझ सकते है। मैंनें अधिकांश मूल परम्परा की माताओं बहनों को साधुओं की तरह ऐसे ही उपवास अष्टमी चतुर्दशी के करते हुए पाया है। साधुगण तो 32 प्रकार के अंतराय पालते हुए 46 दोषों रहित एकबार ही भोजन को कर पात्र द्वारा ग्रहण करते है जिसमें रसी पालन भी रहता है परन्तु साधुओं की तरह किन्हीं किन्हीं श्रावकों को बेला (दो दिन) तेला (3 दिन) और कभी कभी तो 7 दिन तथा 9 दिन 10 दिन के इस प्रकार निर्जल उपवास करते हुए देखा है। जिनके बोलने चालने पूजनादि क्रियाओं आवश्यकों को सामान्य होते देखकर आश्चर्य होता है कि यह कैसे संभव है ? उनका शरीर सूखकर 'सुत' जाता है किन्तु उत्साह मुझे कभी कम नहीं लगा। 10 प्रतिज्ञाधारी कई वृद्धाएँ सहज ही 3-4 दिन के उपवास सामान्य खींच लेती है इनके तप और स्वास्थ्य को देखकर 'बायोविज्ञान पर तरस आता है कि उसे सही दिशा नहीं दी गई है। भी बायो फार्मेसी के अंतर्गत शरीर को 70% जलांश को संभाला जाता है ताकि रूधिर में गाढापन न आकर गुर्दों से विकारों का निष्कासन बराबर बना रहे। किन्तु एक ही बार आहार के साथ जल लेने वाला कितना जल ले पायेगा ये कल्पना की जा सकती है। गुर्दों की कार्य क्षमता सामान्य बनी रहने में रस त्याग (नमक, मीठे) मदद करता है तथा रक्त हेतु पानी की पूर्ति मांसल जल से होती है। फल स्वरूप मांस सिकुड़कर हलका हो जाता है और विकार फिंक जाते है। ऐसे व्यक्तियों को जलांश कम होने से इन्फेक्सन्स् भी कम आते है। ऐसा स्पष्ट हो जाता है कि ऐसा तपस्वी कुदरत के अधिक समीप रहता है। श्वेताबर परम्परा में भी एक वर्ष तक के उपवासों का रिकार्ड देखा गया है किन्तु वह प्रतिदिन जलाहार द्वारा संयमित रहता है। मूल परम्परा के आचार्य शांतिसागरजी का विशेष रिकार्ड है जिन्होंने अपने साढ़े 32 वर्ष के मुनिजीवन काल में 9938 उपवास सहित बितायें है। मैंने ऐसे उपवास करने वाले गृहस्थों का निरीक्षण करने पर पाया कि उनकी पल्स नॉर्मल थी, बी.पी. सामान्य से कुछ कम Urine discharge low था । किन्तु सामान्य गतिविधियों में कोई अंतर प्रतीत नहीं होता था। उनके चेहरे के वैभव अथवा मंदिर दर्शन, स्वाध्याय, घटावश्यकों में मुझे कोई कमी प्रतीत नहीं हुई एक गृहस्थ 75 वर्ष की वृद्धा राधा बाई थी, दूसरी एक ब्रह्मचारिणी किरण 30 वर्षीया थी दोनों के सामान्य रक्त चाप और शक्ति प्रतीत होते थे। दोनों ने 10 10 दिन का लगातार निर्जल उपवास किया था। | — Ematio — कार्तिकेयानुप्रेक्षा' की गाथा 373-376 के अनुसार ऐसे उपवासों का निर्जरा संबंधी महत्व दर्शाया गया है। गाथा 377-378 में मात्र भोजन त्याग को उपवास नहीं माना गया है। वह तो 'लंघन' कहलाता है। जो विषय और कषायों को अंतरंग से त्याग कर बिना किसी आशा के भेद ज्ञान (आत्मा और शरीर के भेद को समझते हुए) शरीर और सांसारिक प्रवृतियों की सार्थकता उसे आन्तरिक विशुद्धि के रूप में मिलती हे। वही उपवास कहलाता है। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 104 हेमेलर ज्योति मेजर ज्योति waneney on Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ विषय कषायों में लीन संसारी मनुष्य जिसकी प्रवृति ठीक विपरीत दिशा में हो वह ऐसे उपवासों का महत्व ही नहीं समझ सकता। उसकी प्रवृति रोगी' कहलाती है। जिसे कितनी भी उपलब्धि क्यों न हो जाये संतुष्टि और सुख प्राप्त ही नही हो सकता। उसको परमार्थ सूझ नहीं सकता। क्योंकि वह स्वार्थ में लीन रहता है। ऐसा व्यक्ति धर्म के नाम पर प्रदर्शन करते हुए कर्मकांडी बनकर अधर्म ढ़ा सकता है। किन्तु किसी को सुख नही दे सकता। धर्म की आड़ में अधिकतर ड्रेस का प्रदर्शन, ड्रिल और प्रमादी सत्ता देखने में जहां जहां आती है, वे जैनधर्म के वीतरागत्व और अपरिग्रहवाद को समझ नहीं पाते। अनेकान्त की दृष्टि में आंका गया सत्य मार्ग सदैव ही सत्यता की ओर दृष्टि रखेगा। मृत्यु की तरह सत्य जिसमें ायें छूटती हैं, आत्मतत्त्व अजर अमर रहता है। ऐसे चिन्तन की राह सदैव एक ही होगी इसीलियें जैनेतर चिन्तकों को आश्चर्य होता है कि सभी तीर्थंकरों, सभी आचार्यों ने एक ही बात दोहराई है। सत्य की महत्ता है यह जो कि शाश्वत है। किसी ने ठीक कहा है- "जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। ___मुझे तो अपने जर्मनी आवास काल में केथीलों के घंटे भी मंदिर की अभिषेक वाली गूंज की स्मृति दिलाते थे और स्वयमेव “णमोकार मंत्र” सुनाई पड़ने लगता था। आहारचर्या में साधुओं और गृहस्थों द्वारा ताजा भोजन, गर्म पानी, सीमित आहार और रसी त्याग शरीर को विकारों, रोगों से बचाते हुए परिमार्जित करके, शरीर को अप्रमादी, चुस्त, सुनियमित और संवेदी बनाते है। चिन्तन और उपयोग उसे विशुद्धि की ओर प्रेरित करतें है। अतः वीतरागी साधु सभी जगह सम्मान का पात्र बना रहता है। जबकि व्यर्थ पदार्थ शरीर से पूर्ववत् निष्काषित होते है। अतः शरीर कांतिमय बन जाता है। अन्य रोगियों को जहां तीन दिन की औषधि सेवन भी इतना स्वास्थ्य प्रदान नहीं कर पाती मात्र वहीं एक खुराक नियमित आहारी/संयमी को तुरंत आरोग्य लाभ दिलाती है। मेडिकल विज्ञान को चाहिए कि वह संयमियों के जीवन के इस उज्ज्वल पक्ष के महत्व को समझकर जनसामान्य के सम्मुख लावें ताकि जनसामान्य भी इसका लाभ लें। आयुर्वेद परम्परा भी उपवासों तथा कल्पादि को महत्व देती है। यह चिकित्सा परम्परा मूलतः द्वादशांगी जैन धर्म के 'प्राणावाय' नामक बारहवें अंग के 14वें पूर्व का वैयावृत्य (सेवामय) नामक धर्मव्रत के अतर्गत पैदा हुई है। जो प्रारम्भ में अष्टांग रूप प्रचलित थी। वहीं परम्परा आजकल 'नेचरोपैथी' कहकर जानी जाती है जिसमें उपयोग की मर्यादाओं में कुछ ढील आ गई है। यह बाद में संहिताओं के रूप में लिखी गई जिसे बाद में अठारह संहिताओं के संकलन से आयुर्वेद का रूप दे दिया गया। आज भी वह परम्परा जैन संघों में अपने मूल रूप में प्रचलित है। तथा मूल परम्परा के जैन साधु अपनी आहारचर्या से स्वयमेव ही सुव्यवस्थित स्वस्थ रहते हैं। आजकल पाश्चात्य नकल के अंतर्गत फ्रीज में रखा बासी भोजन तथा सारे समय खाते पीते रहना अच्छा माना जाता है जो आंतों तथा आमाशय में सारे समय वजन बनाये रखता है। यह एन्जाइम्स को रीचार्ज होने का मौका नहीं देता। शरीर स्थूल बनकर जलांश को बढ़ा लेता है। विकार अपने आप को घुलनशील बनाने हेतु उस पानी को रोककर तरह तरह की तकलीफें पैदा कर देते है। फलस्वरूप हृदय पर बोझ बढ़ने लगता है, रक्तचाप बढ़ता है, शरीर सुस्त हो जाता है और व्याधियां पैदा हो जाती हैं। मनुष्य अधिक खाते हुए अधिक व्यायाम की ओर बढ़ता है फलस्वरूप बुढ़ापा जल्दी आ जाता है। शरीर सदैव जरा और मरण से भयभीत रहता है। जैन साधुओं तथा श्रावकों के उपवास उन्हें संल्लेखना के लिए तैयार करते हैं। अविरल हुए क्षुधा परीषह को सहना उनमें मृत्यु से निडरता पैदा करता है। संपूर्ण रूप से आहार जल त्याग करते हुए साधु जागृत अवस्था में निर्विकल्प बन शरीर त्याग करतें हैं। यह सर्वोत्तम आदर्श है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 105 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ। जबकि जैनेत्तर साधु तथा सामान्य ऐश्वर्य-रत मनुष्य अस्पतालों में कराहते, चीखते, चिंता/भय करते दम तोड़ते हैं, एक जैन साधु संपूर्ण जीवों से क्षमा मांगते हुए सबको क्षमा करते हुए अपनी महायात्रा के लिए अपने सच्चे स्वरूप को ध्याते हुए, सिद्ध गुरुओं को नमन करते देह त्यागता है। ज्ञानवान गृहस्थ भी ऐसा ही करते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में उसे जीवन में अपनाया संयम, व्रत, उपवास सहयोग करते है। यह प्रक्रिया क्रमशः सम्पन्न होती है। प्रथम तो संकल्प लेने वाला संयमी अपना ठोस आहार धीरे धीरे कम करता है। एकासन की दैनिक परम्परा संभव हो जाने पर अपने शरीर की कमजोर स्थिति, बुढ़ापा, रोग तथा व्याधि या उपद्रव देख वह ठोस आहार धीरे धीरे त्याग करके लेह्य, पेय आदि पर आ जाता है। इसमें दूध, रस, फल आदि होते हैं। पश्चात वह मात्र दूध पर, फिर क्रमशः छाछ पर, रसों पर, जल पर आकर उचित समय विदाई का निकट जान मृत्यु पर्यन्त संपूर्ण आहार जल का दृढ़ता से त्याग करता है। इसके लिये अत्यधिक साहस और समता की आवश्यकता होती है। उसकी सामायिक की सच्ची परीक्षा होती है। अज्ञानी जन इसे आत्महत्या समझते हैं, जिसे जैनधर्म में घोर पाप माना गया है। आत्महत्या 'स्वहिंसा है जो प्रमाद/कषाय के अंतर्गत भावों के अतिरेक में होती है। जिसमें मृत्यु हेतु हिंसक तरीके उपयोग किये जाते हैं। यह एकाएक होती है। कभी पब्लिक, पर अधिकांश एकांत में होती है। जबकि संल्लेखना अथवा संथारा संपूर्ण सहज भाव से अपने शरीर और आत्मा के भेद को समझकर शरीर के सहयोग हेतु होते हैं। इसमें लंबे काल में धीरे धीरे प्रगति करते हुए त्याग, सहर्ष स्वयं द्वारा होता है। सबसे मैत्री भाव के साथ समता भाव लिये बिना किसी चिन्ता अथवा आकांक्षा के आत्म चिन्तन बनता है। कर्तव्य बोध तथा जागृति रहती है। सामाजिक रूप से सबको ज्ञात होती है। आचार्य शांतिसागर मुनि महाराज की 38 दिन की संल्लेखना संपूर्ण त्याग के बाद 14 दिनों के निर्जल उपवास से पूर्ण हुई (18.9.1955)। इसी प्रकार आचार्य श्री विद्यासागरजी की संघस्थ क्षुल्लिका श्री समाधिमतीजी की 33 दिवसीय सल्लेखना संपूर्ण त्याग के एक दिन के ही निर्जल उपवास से पूर्ण हुई थी। श्री समाधिमतीजी की संल्लेखना में मैं स्वयं उपस्थित थी। श्लेष्म, थूक सब सूख चुका था। हड्डियों के ऊपर मात्र त्वचा का आवरण था। अत्यन्त सूक्ष्म नाडी गति थी। जैन धर्म कायरों का नहीं, वीरों का धर्म है। बड़े बड़े चक्रवर्तियों ने, राजाओं ने संसार के समस्त वैभवों को ठुकरा कर इसे अपनाया है। यदि यह निरर्थक, खोखला और उपयोग रहित अथवा मिथ्यात्व पूर्ण होता तो तीर्थकर इसे कभी नहीं अपनाते। इसे प्रत्येक तपस्वी ने अपने अपने तरीकों से जांचा, आंका और खरा पाया है। आश्चर्य नहीं है कि मार्गरेट स्टीवेन्सन का साध्वी (श्वेताम्बर साधुत्व) बनने के बाद भी सत्यता से परिचय नहीं हो पाया। उनकी मूल चारित्र में प्रवृत्ति उन्हें निश्चित ही ठोस आधार पर रखती है और वह जैन धर्म के ऊपर “द एम्प्टी हार्ट ऑफ जैनिज्म” न लिखकर "रिचनेस ऑफ जैनिज्म या यही कुछ नोएल किंग की तरह लिखती। संदर्भ 1. नोएल किंग - जैनिज्म ऐ वैस्टर्न परसेप्शन डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल, अभिनंदन ग्रंथ जैन केंद्र, रीवा, म.प्र. 1998 पृ. 226 2. स्वामी सामन्तभद्र विरचित रत्नकण्ड – श्रावकाचार 3. आचार्य वहकेर रचित मूलाचार 4. स्वामी कार्तिकेय विरचित : कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा 361 5. स्वामी कार्तिकेय विरचित : कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथाएं 373-376 और 377-378 स्वर्गीय पं सुमेरुचन्द्र दिवाकर : चारित्र चक्रवर्ती आचार्य ज्ञानासागर वागर्थ विमर्श केंद्र व्यावर, सप्तम संरकरण 1997 हेमेन्य ज्योति हेमेन्त ज्योति 106 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द ज्योति Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन राय सम्यग्दर्शन के दो रूप व्यवहार और निश्चय सम्यग्दर्शन के दो रूप क्यों ? जीव की सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप विशुद्धि को अणगार धर्मामृत में धर्म कहा गया है। परन्तु इस धर्म का आचरण केवल आत्मा से नहीं हो सकता। वैसे ही आत्मा से रहित केवल शरीर से भी नहीं हो सकता। इसलिए जीवन के बाह्य और आभ्यान्तर इन दो रूपों की तरह सम्यग्दर्शन के भी बाह्य और आभ्यान्तर ये दो रूप है। आभ्यान्तर रूप सम्यग्दर्शन की आत्मा है और बाह्य रूप है सम्यग्दर्शन का अंगोपांगयुक्त शरीर सम्यग्दर्शन के इन दोनों रूपों की साधक- जीवन में आवश्यकता है। सम्यग्दर्शन के आभ्यान्तर रूप के बिना आत्म शुद्धि नहीं हो सकती और बाह्य रूप के बिना व्यक्ति की व्यवहार शुद्धि नहीं हो सकती। -अशोक मु यों देखा जाय तो सम्यग्दर्शन आत्म शुद्धि, आचरण शुद्धि तथा ज्ञानशुद्धि के मार्ग पर चलने की पहली सीढ़ी है। इसी को सम्यक्त्व कहा जाता है। 1 सम्यक्त्व का अर्थ है ठीक मार्ग को प्राप्त करना जो जीव इधर उधर भटकना छोड़कर आत्मविकास के सही रास्ते को प्राप्त कर लेता है। आत्म शुद्धि का पावन पथ प्राप्त कर लेता है उसे सम्यग्दृष्टि या सम्यक्त्वी कहते है। ठीक मार्ग को प्राप्त करने का अर्थ है मन में पूरी श्रद्धा होना कि यही मार्ग कल्याण की ओर ले जाने वाला है। उस मार्ग पर चलने की रुचि और प्रतीति होना साथ ही विपरीत मार्गों का परित्याग करना। यही कारण है कि जीव के अन्तर और बाह्य दोनों की शुद्धि के लिए निश्चय सम्यग्दर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शन जैन शास्त्रों में बताया गया है। सम्यग्दर्शन का बाह्य रूप है देव / गुरु और धर्म में श्रद्धा रखना अथवा सात तत्वों या नौ पदार्थों पर श्रद्धा रखना। इसका आभ्यन्तर रूप है- निश्चय, सम्यग्दर्शन, जिसका अर्थ होता है - आत्मा की वह विशुद्धता, जिससे सत्य या तत्व को जानने और निश्चय पूर्वक श्रद्धा करने को स्वाभाविक अभिरुचि जागृत हो जाये। वास्तव में देखा जाये तो बाह्य रूप आभ्यन्तर रूप की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है जब आत्मा में विशेष प्रकार की शुद्धि आती है तो जीव में सत्य को जानने की स्वाभाविक रुचि प्रकट होती है उस शुद्धि से पहले जीव सांसारिक सुखों में फंसा रहता है। जीव की सर्वप्रथम शुद्धि कैसे किससे ? प्रश्न होता है जीव में पहले पहल उस प्रकार की शुद्धि कैसे किस प्रकार होती है ? इस प्रश्न के लिए संक्षेप में आत्मा का स्वरूप और उस के संसार में भटकने के कारणों को जानना आवश्यक है। आत्मा अनादि अनन्त है तथा वह अपने स्वाभाविक गुण, ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य (शक्ति) की अनन्तता से युक्त है वह अजर अमर है। वस्तुतः वह अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त भाक्ति का भंडार है। परन्तु कर्म बंध के कारण आत्मा के ये गुण दब गये है। कर्मों के आवरण के कारण अल्पज्ञ, अल्पद्रष्टा, अल्प सुखी और आत्म शुद्धि वाला बना हुआ है। कर्मों के आवरण दूर होते ही आत्मा शुद्ध हो जाता है। उसके स्वाभाविक गुण पूर्णतया प्रगट हो जाते है। कर्म दो प्रकार के होते है। एक द्रव्यकर्म जो पुदगल द्रव्य के वे परमाणु (कार्मण वर्गनाएँ) हैं। जो आत्मा के साथ संबद्ध होकर उसकी विविध शक्तियों को कुठित कर देते है। दूसरे भाव कर्म (रागद्वेष मोहादि ) है जो क्रोधादि कषायों के संस्कारों के कारण आत्मा को बहुमुखी बनाये रखते है उसे अपने स्वरूप का भान नहीं होने देते। Edulation) 1 आत्मा की अनन्त शक्तियों को आवृत कर देने वाला कर्मावरण इतना विचित्र और विकट है कि वह आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्रकट नहीं होने देता सूर्य का प्रखर प्रकाश मेघाच्छन्न होने से जैसे अप्रकट रहता है वैसे ही कर्मों के आवरण के कारण आत्मा की अनन्त शक्ति भी प्रकट नहीं हो पाती। किन्तु जैसे सघन मेघावरण होने पर भी सूर्य की आभा अत्यन्त क्षीण रूप से प्रकट रहती ही है, उसी प्रकार कर्मावरण होते हुए भी आत्मा की शक्ति का सूक्ष्म अंश तो प्रकट रहता ही है उसी के कारण जीव की पहचान होती है। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 107 Private हेमेन्द्र ज्योति ज्योति almalibrasy Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ वास्तव में बात यह है कि अनादिकालीन कर्म बंधन और अपनी संसाराभिमुखी प्रवृत्ति के कारण आत्मा अपने स्वरूप को भूल बैठा है। उसे अपने पर विश्वास नहीं रहा, कर्म की शक्ति के समक्ष दीनता-हीनता का अनुभव करता है। आत्मा अपने स्वरूप और शक्ति को कैसे भूल गया ? इस तथ्य को समझने के लिए एक रूपक लीजिये। मान लो, एक वेश्या है, या कोई रूपवती स्त्री है। उसके मनमोहक रूप से आकृष्ट एवं विमुग्ध होकर एक पुरुष उसके वशीभूत हो जाता है। वह इतना परवश हो जाता है कि अपनी शक्ति को भूल कर उस नारी को ही सर्वस्व समझता है। उसी के चंगुल में फंसता रहता है। लेकिन एक दिन उसे अपने और उस नारी के असली स्वरूप का भान हुआ, अपनी शक्ति पर विश्वास हुआ और वह नारी के मोहपाश से छूट गया। यही स्थिति जीव और कर्म पुद्गल की है। जीव पर मोह/ममत्व-बुद्धि/अहंत्व - बुद्धि का आवरण इतना जबरदस्त है कि इसके कारण वह कर्म पुद्गलों के अधीन हो जाता है। अपनी शक्ति और स्वरूप को भूल जाता है। परन्तु जिस क्षण वह अपने स्वरूप और अनन्त शक्ति को पहचान लेता है, उसे स्व स्वरूप की उपलब्धि हो जाती है। उसी क्षण वह कर्म पुदगलों के चंगुल से छूट जाता है। फिर वह बंधन बद्ध नहीं रहता। निश्चय - सम्यगदर्शनः कब/क्या/कैसे ? निश्चय - सम्यक्त्व तब होता है जब अनन्तानुबंधी 1.क्रोध, 2. मान, 3. माया और 4.लोभ तथा 5. मिथ्यात्व मोहनीय, 6.सम्यक्त्व मोहनीय और 7. मिश्र मोहनीय। मोह कर्म की इन 7 प्रकृतियों का क्षय/क्षयोपशम अथवा उपक्षम हो जाता है। शुद्ध जीव (आत्मा) का अनुभव - निश्चय हो जाना, निश्चय सम्यगदर्शन है। शुद्ध आत्मा (जीव) के अनुभव को रोकने वाला मोहनीय कर्म, खास तौर से दर्शन मोहनीय (सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-मिश्रमोहनीय) और अनन्तानुबंधी (कषाय) कर्म है। इसलिए दर्शन मोहनीय (त्रिक) कर्म और अनन्तानुबंधी कषाय के उपशम, क्षय और क्षयोपशम होने से शुद्ध आत्मा अनुभव, साक्षात्कार या प्रत्यक्षीकरण होता है। इस आत्मानुभव को स्वरूपाचरण चारित्र कहा गया है। यह स्वरूपाचरण चारित्र या आत्मा अनुभव ही निश्चय-सम्यग्दर्शन का हार्द है। निश्चय-सम्यगदर्शन को पहचानने के ये लक्षण हैं - "आत्मा को अपने आत्मतत्व का भान हो जाता है, अर्थात आत्मा - अनात्मा (चेतन-जड़ या जीव - अजीव) का भेद विज्ञान हो जाता है। आत्मा जब अनादि सुषुप्त अवस्था से जागृत होकर अपना वास्तविक स्वरूप पहचान जाता है, तब पर पदार्थों से मोह छूटने लगता है। स्व - स्वरूप में रमण होने लगता है। धीरे धीरे देह में रहते हुआ भी देहध्यान छूट जाता है। निश्चय - सम्यग्दर्शन की स्थिति को समझने के लिए एक रूपक लीजिये - एक बार एक गडरिया भेड़ बकरियां चराने के लिए जंगल में गया। संध्या के झुटपुटे में जब वह भेड़ों को गाँव की ओर वापस लौटा रहा था, तभी उसने एक झाड़ी के पास एक सिंह - शिशु को बैठे हुए देखा। उसकी माँ (शेरनी) उस समय वहां नहीं थी। उसने करुणावश बच्चे को उठा लिया और भेड़ बकरियों के साथ रख लिया। उसको दूध पिला पिला कर बड़ा किया। सिंह का बच्चा भी अपने वास्तविक स्वरूप को न जानने के कारण भेड़ बकरियों की तरह चेष्टाएँ करने लगा। उन्हीं की तरह खाता - पीता सोता और चलता था। एक बार जिस जंगल में भेड़ बकरियां और यह सिंह शिशु विचरण कर रहे थे, उसी जंगल में एक बब्बर शेर आ गया। उसने जोर से गर्जना की, जिसे सुनकर सभी भेड़-बकरियां भयभीत होकर भाग खड़ी हुई। उनके साथ वह सिंह शिशु भी भाग गया। एक दिन वह सिंह शिशु उन भेड़ बकरियों के साथ नदी के किनारे पानी पी रहा था तभी अचानक अपनी परछाई पानी में देखकर सोचने लगा कि मेरा आकार और रंग रूप तो मेरे इन साथियों से मिलता ही नहीं, दूसरी तरह का है। जैसा कि गर्जना करने वाले उस शेर का था। क्या मैं भी उसी तरह गर्जना कर सकता हूँ? यह सोचकर उसने अपनी पूरी ताकत लगाकर जोर से गर्जना की। उसकी गर्जना सुनते ही भेड़-बकरियां भाग गई। वह सिंह शिशु अकेला ही रह गया। अब उसकी समझ में आया कि “मैं तो प्रचण्ड शक्ति का धनी वनराज हूं ये सब मुझसे डरते है। अतः वह अब अकेला ही निर्भय होकर वन में रहने लगा। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्रज्योति 108 हेमेन्द्रज्योति* हेमेन्द्र ज्योति in use braimelibabo Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ................ आत्मा भी सिंह शिशु के समान है। वह भी पुद्गल पर्यायों के साथ रहते रहते पुद्गलमय बन गया। अपने शरीर को ही आत्मा तथा अपना स्वरूप समझने लगा। शरीर के उत्पन्न होने को अपना जन्म और शरीर छूटने को ही अपनी मृत्यु मानने लगा। वह पौद्गलिक पर्यायों में अपनापन मानने लगा। किन्तु जब उसकी मोह-मूर्छा दूर हुई, अपने शुद्ध स्वरूप और बल का भान हुआ तब पुनः सिंह शिशु की तरह अपने असली स्वरूप को पहचान गया तथा स्वतंत्र विचरण करने लगा। शुद्ध आत्मा का यह अनुभव बिना किसी उपाधि या उपचार के होता है। इसलिए निश्चय सम्यग्दर्शन भेद रहित एक ही प्रकार का है। निश्चय सम्यग्दर्शन वाला अपना आदर्श स्वयं होता है। अपनी ही विशुद्ध आत्मा को वह देव उसी को गुरु और उसकी की स्वाभाविक परिणति को धर्म मानता है। अथवा अरिहंत और सिद्ध में जो ज्ञान स्वरूप निश्चल आत्म द्रव्य है, उसीको वह शुद्ध देव मानता है। आचार्य, उपाध्याय और साधु में जो उनका शुद्ध आत्मा है उसे ही शुद्ध गुरु जानता है। तथा रत्नत्रय में एक अभेद रत्नत्रयमयी स्वात्मानुभूति को ही शुद्ध धर्म मानता है। उसे ऐसा दृढ़ विश्वास हो जाता है कि मेरा शुद्ध स्वरूप अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुखमय है। पर भाव में रागद्वेषादि ही बंधन का तथा स्वस्भाव में रमण ही मोक्ष का हेतु है। इस प्रकार आत्म केन्द्रित हो जाना ही निश्चय सम्यग्दर्शन है। वास्तव में जिसे निश्चय सम्यगदर्शन प्राप्त हो जाता है वही सच्चे देव, गुरु और धर्म को पहचानता है। वही अपनी आत्मा को जानता है। उसकी रुचि एक मात्र स्वात्मानुभूति में होती है। वही उसे देव, गुरु और धर्म में भी प्रतिभासित होती है। इसीलिए प्रश्न व्याकरण सूत्र में निश्चय सम्यक्त्व का लक्ष्य बताया है - मिथ्यात्वमोहनीय क्षमोपशमादिसमुत्थे विशुद्ध जीव परिणामें सम्यक्त्वम् । "मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के क्षमोपशम आदि से उत्पन्न बीज के विशुद्ध परिणामों को (निश्चय) सम्यक्त्व कहते है।" शुद्ध आत्मा की निर्विकल्प परिणति ही निश्चय सम्यग्दर्शन है। यथार्थ निश्चय सम्यग्दर्शन जिसको होता है वह शुद्ध आत्मा की शक्ति को प्राप्त कर लेता है। उसको आत्मा के निर्दोष स्वाभाविक सुख का स्वाद अनुभव मिल जाता है। उसे आत्मिक आनन्द अमृत तुल्य और विषय सुख विषवत् प्रतीत होता है। ऐसा सम्यग्दर्शन निर्विकल्प है, सत्य स्वरूप है और आत्म प्रदेशों में परिगमन करने वाला है। सूर्य की किरणों से जिस प्रकार अंधेरे का नाश हो जाता है, सब दिशाएँ निर्मल लगने लगती है उसी प्रकार निश्चय सम्यग्दर्शन की उपलब्धि होते ही आत्मा प्रकाश से भर जाता है। निश्चय सम्यग्दृष्टि पर पदार्थावलंबी नहीं, किन्तु स्वभावावलंबी होता है। कोई भी देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाच आदि उसे सम्यग्दर्शन से विचलित नहीं कर सकता। जैसे अर्हन्नक और कामदेव अपने सम्यक्त्व पर दृढ़ रहे, सम्यक्त्व की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, देवों को भी उनके समक्ष हार माननी पड़ी। व्यवहार सम्यक्त्व के बिना निश्चय सम्यक्त्व संभव नहीं। किन्तु एक बात निश्चित् है कि आत्म स्वरूप का विशिष्ट प्रकार से दृढ़ निश्चय तब तक नहीं हो सकता जब तक आत्मा और कर्मों के संबंध से जिन तत्वों की सृष्टि हुई है उनके प्रति तथा उनके उपदेष्टा देव, शास्त्र और गुरुओं के प्रति दृढ़ श्रद्धा न हो। क्योंकि परम्परा से सभी आत्म श्रद्धा के कारण है। इन पर श्रद्धा हुए बिना, इनके द्वारा बताये हुए तत्वों पर श्रद्धा नहीं हो सकती। इनके बताये हुए तत्वों पर श्रद्धा - निश्चय हुए बिना आत्मा की ओर उन्मुखता, उसकी पहचान और विनिश्चिति संभव नहीं है। इसीलिए पंचास्तिकाय में व्यवहार सम्यक्त्व को आत्म तत्व के विनिश्चय बीज बताते हुए कहा है - "तेशां मिथ्यादर्शनो दयापादिता श्रद्धानाभावस्वभावं भावन्तर श्रदान सम्यग्दर्शनं, शुद्धचैतन्यरूपात्म तत्व विनिश्चय बीजम् । "इन भावों (नौ पदार्थों) का, मिथ्यादर्शन के उदय से प्राप्त होने वाला जो अश्रद्धा, इसके अभाव स्वभाव वाला जो भावान्तर यानी (नौ पदार्थों) पर श्रद्धान है, वह (व्यवहार) सम्यग्दर्शन है जो कि शुद्ध चैतन्य रूप आत्म तत्व के विनिश्चय (निश्चय सम्यग्दर्शन) का बीज है।" हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 109, हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्दा ज्योति wa Morya Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सम्यगदर्शन के दोनों रूपों का सन्तुलन आवश्यक : इसीलिए निश्चित है कि निश्चय - सम्यग्दर्शन साध्य (लक्ष्य) है और व्यवहार सम्यग्दर्शन उस निश्चय सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने के लिए साधन है। अतः जो व्यवहार से विमुख होकर निश्चय को प्राप्त करना चाहता है वह विवेक मूढ़ बीज, खेत, पानी आदि के बिना ही अन्न उत्पन्न करना चाहता है। जैसे केवल निश्चय ठीक नहीं है वैसे केवल व्यवहार भी अच्छा नहीं। दोनों का समन्वय और संतुलन अभिष्ट है। यद्यपि व्यवहार नय को अभूतार्थ कहा गया है, तथापि इसे सर्वथा निषिद्ध नहीं माना गया। धर्म के पहले सोपान पर पैर रखने के लिए व्यक्ति को व्यवहार सम्यगदर्शन का अवलंबन लेना ही पड़ता है। जैसे नट एक रस्सी पर स्वछंदता पूर्वक चलने के लिए पहले पहल बांस का सहारा लेता है किन्तु जब उसमें अभ्यस्त हो जाता है तब बांस का सहारा छोड़ देता है। इसी प्रकार धीर मुमुक्षु को निश्चय की सिद्धि के लिए पहले व्यवहार का अवलंबन लेना पड़ता है। जब निश्चय में निरालंबन पूर्वक रहने में समर्थ हो जाता है तब व्यवाहार स्वयमेव छूट जाता है। फिर भी व्यवहार सम्यगदर्शन का लक्ष्य निश्चय सम्यगदर्शन होना चाहिए। जैसे किसी ऊपर की मंजिल तक जाने के लिए सीढ़ियां चढ़ना आवश्यक होता है, मंजिल तक पहुँचने पर सीढ़ियां अपने आप पीछे छूट जाती है वैसे ही व्यवहार सम्यक्त्व सीढ़ी है और निश्चय सम्यक्त्व मंजिल है। नदी के उस पार तक जाने के लिए नाव का सहारा आवश्यक है। यात्री नाव का आश्रय तब तक लेता है, जब तक किनारा नहीं आ जाता। इसी प्रकार व्यवहार सम्यक्त्व नाव है और निश्चय सम्यक्त्व किनारा । किनारा आने पर नाव सहज रूप में छूट जाती है यही स्थिति व्यवहार सम्यक्त्व से निश्चय सम्यक्त्व में आने की है। सर्वप्रथम व्यवहार सम्यक्व आवश्यक : अनादि काल से अज्ञान में पड़ा हुआ जीव व्यवहार के उपदेश के बिना समझता नहीं है। अतः गुरुदेव उसे समझाते हैं - "आत्मा चैतन्य स्वरूप है, किन्तु वर्तमान में कर्म जनित पर्याय से युक्त है। इसलिये व्यवहार में उसे देव, मनुष्यादि कहते है। इस प्रकार कहने से वह समझ जाता है, निश्चय से तो आत्मा चैतन्य स्वरूप ही है। किन्तु स्थूल बुद्धि पुरुष को समझाने के लिए गति-जाति के द्वारा आत्मा का कथन किया जाता है। जो निश्चय बुद्धि से विमुख या निर्पेक्ष व्यवहार का आश्रय लेता है, वह शुद्ध चैतन्य रूप आत्मा के श्रद्धानुरूप निश्चय सम्यग्दर्शन से विमुख होकर केवल व्यवहार सम्यग्दर्शन में ही रचा-पचा रहने वाला मोक्ष स्वरूपी परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है। शुद्धोपयोग - मोक्ष - मार्ग से प्रमादी हो जाता है। शुभोपभोग में संतुष्ट रहता है। ऐसा व्यवहार जो निश्चयोन्मुख न हो, व्यवहाराभास कहलाता है। अतः एकांत व्यवहार का आश्रय लेकर व्यवहाराभास व्यवहार के चक्कर में पड़कर अपने आत्म लक्ष्य को भूल बैठना ठीक नहीं। इसी प्रकार एकांत निश्चय सम्यग्दर्शन का अवलंबन लेकर शुद्ध व्यवहार - सम्यग्दर्शन को छोड़ बैठना भी हितकर नहीं। निश्चय और व्यवहार सम्यग्दर्शन दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों का समन्वित और संतुलित रूप ही शास्त्रीय दृष्टि से श्रेयष्कर है। लेकिन व्यवहार भी तभी तक ग्राह्य है, जब तक कि वह परमार्थ दृष्टि से साधना में सहायक हो। सही स्थिति तो यह है कि भिन्न भिन्न भूमिकाओं की दृष्टि से सम्यग्दर्शन के ये दोनों ही रूप ग्राह्य है। सम्यग्दर्शन के विभिन्न लक्षण : विभिन्न प्रयोजनों से : पृथक् - पृथक मुख्य प्रयोजन की अपेक्षा से सम्यग्दर्शन के ये विभिन्न लक्षण कहे गये है। जहां "तत्वार्थ श्रद्धान" लक्षण कहा गया है, वहां प्रयोजन यह है कि जीव आदि तत्वों को पहचाने। यर्थात वस्तु स्वरूप तथा अपने हिताहित को श्रद्धान करके मोक्ष मार्ग में आगे बढ़े। "स्व-पर भेद श्रद्धान" लक्षण कहने का प्रयोजन है। पर द्रव्य में रागादि न करें किन्तु जहां "आत्म श्रद्धान" लक्षण कहा है, वहां भी प्रयोजन यह है कि 'स्व' को 'स्व' जाने और 'स्व' में 'पर' का विकल्प न करें। जहां "देव, गुरु, धर्म का श्रद्धान" लक्षण बताया है, वहां बाह्य साधन की प्रधानता है। अरहंत देव आदि का श्रद्धान सच्चे तत्वार्थ श्रद्धान का कारण है। इस प्रकार भिन्न भिन्न प्रयोजनों को लेकर सम्यग्दर्शन के ये पृथक-पृथक लक्षण कहे है। किन्तु सब का लक्ष्य एक ही है - शुद्धात्म स्वरूप का निश्चय एवं श्रद्धान करके मोक्ष प्राप्त करना, आत्मा का कर्म बंधन से सर्वथा मुक्त एवं शुद्ध होना। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 110 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति AUTANJ Jain Educatio Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ज्ञानवाद और प्रमाण शास्त्र -उपप्रवर्तक सुभाष मुनि सुमन ज्ञान आत्मा का स्वाभविक गुण है। जैन दर्शन ज्ञान को आत्मा का मौलिक धर्म मानता है। आत्मा का स्वरूप समझने के लिए ज्ञान का स्वरूप समझना बहुत आवश्यक है। आगमों में ज्ञानवाद : आगमों में ज्ञान सम्बन्धी जो मान्यताएँ मिलती है वे बहुत प्राचीन है। सम्भवतः ये मान्यताएँ भगवान महावीर के पहले की हैं। पंचज्ञान की चर्चा आगम साहित्य में मिलती है। उसके विषय में राजप्रश्नीय सूत्र में एक वृतांन्त मिलता है। श्रमण केशीकुमार अपने मुख से कहते है - हम श्रमण निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के ज्ञान मानते है - आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि ज्ञान, मनः पर्यायज्ञान, केवलज्ञान । केशीकुमार पार्श्वनाथ की परम्परा के साधु थे। उन्होंने अपने मुख से पाँच ज्ञानों का नाम लिया है। ठीक वे ही पांच ज्ञान महावीर की परम्परा में भी प्रचलित हुआ। महावीर ने ज्ञान विषयक कोई नवीन प्ररूपणा नहीं की। यदि पार्श्वनाथ की परम्परा से महावीर का एतद्विषयक कुछ भी मतभेद होता तो वह आगमों में अवश्य मिलता। पंचज्ञान की मान्यता श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में प्रायः एक सी है। इस विषय पर केवलज्ञान और केवल दर्शन आदि की एक दो बातों के अतिरिक्त कोई विशेष मतभेद नहीं है। मतिज्ञान : आगमों में मतिज्ञान को आभिनिबोधिक ज्ञान कहा गया है। उमास्वाति ने मति, स्मृति, संज्ञा चिन्ता और अभिनिबोध को एकार्थक बताया है। भद्रबाहु ने मतिज्ञान के लिए निम्नलिखित शब्दों को प्रयोग में लिया है - ईहा. अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति, प्रज्ञा। नंदीसूत्र में भी ये ही शब्द है। मतिज्ञान का लक्षण बताते हुए तत्वार्थसूत्र में कहा गया है कि इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है। स्वोपज्ञ भाष्य में मतिज्ञान के दो प्रकार बताये गये हैं - इन्द्रिय जन्य ज्ञान और मनो जन्य ज्ञान। ये दो भेद उपर्युक्त लक्षण से ही फलित होते हैं। सिद्धसेनगणि की टीका में तीन भेदों का वर्णन है। इन्द्रिय जन्य, अनिन्द्रियजन्य (मनोजन्य) और इन्द्रियानिन्द्रियजन्य। इन्द्रियजन्य ज्ञान केवल इन्द्रियों से उत्पन्न होता है। अनिन्द्रियजन्य ज्ञान केवल मन से पैदा होता है। इन्द्रियानिन्द्रियजन्य ज्ञान के लिए इन्द्रिय और मन दोनों का संयुक्त प्रयत्न आवश्यक है। ये तीन भेद भी उपयुक्त सूत्र से ही फलित होते है। अकलंक ने सम्यग्ज्ञान के दो भेद किये हैं - प्रत्यक्ष और परोक्ष। पत्यक्ष दो प्रकार का है - मुख्य और साव्यवहारिक । मुख्य को अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष और साव्यवहारिक को इन्द्रियानिन्द्रिय प्रत्यक्ष का नाम भी दिया है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष के चार भेद किये गये हे - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष को स्मृति संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध में विभक्त किया है श्रुत, अर्थापत्ति, अनुमान, उपमान आदि परीक्षान्तर्गत है इन्द्रियप्रत्यक्ष के चार भेद बताये गये है - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष के स्मृति, संज्ञा आदि भेद है। श्रुतज्ञान : श्रुतज्ञान का अर्थ है, वह ज्ञान जो श्रुत अर्थात शास्त्रनिबद्ध है। आप्त पुरुष द्वारा प्रणीत आगम या अन्य शास्त्रों से जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है, श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है। उसके दो भेद हैं - अंग बाहृा और अंगप्रविष्ट । जिन ग्रन्थों के रचयिता स्वयं गणधर हैं वे अंगप्रविष्ट हैं और जिनके रचयिता उसी परम्परा के अन्य आचार्य हैं वे अंग बाहा ग्रन्थ हैं। अंगबाह्य ग्रन्थ कालिक, उत्कालिक आदि अनेक प्रकार के है। अंगप्रविष्ट के 12 भेद है। ये बारह अंग कहलाते है। श्रुत वास्तव में ज्ञानात्मक है। किन्तु उपचार से शास्त्रों को भी श्रुत कहते हैं, क्योंकि वे ज्ञानोत्पत्ति के साधन है। श्रुतज्ञान के 14 मुख्य प्रकार है अक्षर, संज्ञी, सम्यक, सादिक, सपर्यवसित, गमिक और अंगप्रविष्ट ये सात और अनक्षर, असंज्ञी, मिथ्या, अनादिक, अपर्यवसित, अगमिक और अंबाह्य ये सात विपरीत। नन्दीसूत्र में इन भेदों का स्वरूप बताया गया है। अप हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द ज्योति 111 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति Editation internations For Private Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ श्रुतज्ञान का मुख्य आधार शब्द है। हस्त संकेत आदि अन्य साधनों से भी यह ज्ञान होता है। वहां पर यह साधन शब्द का ही कार्य करते है। अन्य शब्दों की तरह उनका स्पष्ट उच्चारण कानों में नहीं पड़ता मौन उच्चारण से ही वे अपना कार्य करते है। श्रुतज्ञान जब इतना अभ्यस्त हो जाता है कि उसके लिए संकेत स्मरण की आवश्यकता नहीं रह जाती जब वह मतिज्ञान के अन्तर्गत आ जाता है। श्रुतज्ञान के लिए चिन्तन और संकेत स्मरण अत्यन्त आवश्यक है। अभ्यास दशा में ऐसा न होने पर वह ज्ञान श्रुत की कोटि से बाहर निकलकर मति की कोटि में आ जाता है। मति और श्रुत - जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार प्रत्येक जीव में कम से कम ज्ञान मति और श्रुत आवश्यक होते है। केवलज्ञान के समय इन दोनों की स्थिति के विषय में मतभेद है। कुछ लोग उस समय भी मति और श्रुत की सत्ता मानतें है और कहते हैं कि केवल ज्ञान के महाप्रकाश के सामने उनका अल्प प्रकाश दब जाता है। कुछ लोग यह बात नहीं मानते। उनके मत से केवलज्ञान अकेला ही रहता है मति, श्रुतादि क्षायोपशमिक है। जब सम्पूर्ण ज्ञानावरण का क्षय हो जाता है जब क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं रह सकता यह मत जैन दर्शन की परम्परा के अनुकूल है। केवलज्ञान का अर्थ ही अकेला ज्ञान है। वह असहाय ही होता है। उसे किसी की सहायता अपेक्षित नहीं है। मति और श्रुत ज्ञान मतिपूर्वक ही होता है जबकि मतिज्ञान के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह श्रुत पूर्वक ही हो। नन्दीसूत्र का मत है कि जहां अभिनिबोधिक ज्ञान (मति) है वहां श्रुतज्ञान भी है और जहां श्रुतज्ञान है वहां मतिज्ञान भी है। स्वार्थसिद्धि और तत्वार्थराजवार्तिक में भी इसी मत का समर्थन है। यहां प्रश्न यह है कि क्या ये दोनों मत परस्पर विरोधी हैं। एक मत के अनुसार श्रुतज्ञान के लिए मतिज्ञान अनिवार्य है, जबकि मतिज्ञान के लिए श्रुतज्ञान आवश्यक नहीं। दूसरा मत कहता है कि मति और श्रुत दोनों सहचारी है। हम समझते हैं कि ये दोनों मत परस्पर विरोधी नहीं है। उमास्वाति जब यह कहते हैं कि श्रुत के पूर्व मति आवश्यक है तो उसका अर्थ केवल इतना ही है कि जब कोई विशेष श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है तब वह तविषयक मतिपूर्वक ही होता है। पहले शब्द सुनाई देता है और फिर उसका श्रुतज्ञान होता है। मतिज्ञान के लिए यह आवश्यक नहीं कि पहले श्रुतज्ञान हो फिर मतिज्ञान हो। क्योंकि मति ज्ञान पहले होता है और श्रुतज्ञान बाद में। यह भी आवश्यक नहीं कि जिस विषय का मतिज्ञान हो उसका श्रुतज्ञान भी हो। ऐसी दशा में दोनों सहचारी कैसे हो सकते है। नंदीसूत्र में जो सहचारित्व है वह किसी विशेष ज्ञान की उपेक्षा में नहीं है। वह तो एक सामान्य सिद्धान्त है। सामान्यतया मति और श्रुत सहचारी है। क्योंकि प्रत्येक जीव में यह दोनों ज्ञान साथ-साथ रहते है। अवधि ज्ञान : अवधिज्ञान के अधिकारी दो प्रकार के होते है – भवप्रत्ययी और गुणप्रत्ययी। भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारक को होता है। गुणप्रत्ययी का अधिकारी मनुष्य या तिर्यंच होता है। भवप्रत्ययी का अर्थ है जन्म से प्राप्त होने वाला। जो अवधिज्ञान जन्म के साथ ही प्रकट होता है वह भवप्रत्ययी है। देव और नारक को पैदा होते ही अवधि ज्ञान प्राप्त होता है। इसके लिए उन्हें व्रत नियमादि का पालन नहीं करना पड़ता। उनका भव ही ऐसा है कि वहां पैदा होते ही अवधिज्ञान हो जाता है। मनुष्य और अन्य प्राणियों के लिए ऐसा नियम नहीं है। मति और श्रुत ज्ञान तो जन्म के साथ ही होते है किन्तु अवधिज्ञान के लिए यह आवश्यक नहीं है। व्यक्ति के प्रयत्न से कर्मों का क्षयोपशम होने पर ही यह ज्ञान पैदा होता है। देव और नारक की तरह मनुष्यादि के लिए यह ज्ञान जन्म सिद्ध नहीं है, अपितु व्रत, नियम, आदि गुणों के पालन से प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए उसे गुणप्रत्यय और या क्षायोपशमिक कहते हैं। आवश्यक नियुक्ति में क्षेत्र, संस्थान, अवस्थित, तीव्र, मंद आद 14 दृष्टियों से अवधिज्ञान का लम्बा वर्णन है। विषेशावश्यक भाष्य में सात प्रकार के निक्षेप से अवधिज्ञान को समझने की सूचना है। यह सात निक्षेप है - नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 112 हेमेन्द ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति FRishalye only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था मनःपर्ययज्ञान : मनुष्यों के मन के चिन्तित अर्थ को प्रकट करने वाला ज्ञान मन:र्ध्याय ज्ञान है। यह मनुश्य क्षेत्र तक सीमित है। गुण के कारण उत्पन्न होता है और चरित्रवान व्यक्ति ही उसका अधिकारी है यह मनःपर्यय ज्ञान की व्याख्या आवश्यक नियुक्तिकार ने की है। मन एक प्रकार का पौद्गलिक द्रव्य है। जब व्यक्ति किसी विषय का विचार करता है तब उसके मन का विविध पर्यायों में परिवर्तन होता है। उसका मन तद्तद् पर्यायों में परिणत होता है। मनःपर्ययज्ञानी उन पर्यायों का साक्षात्कार करता है। उस साक्षात्कार के आधार पर वह यह जान सकता है कि यह व्यक्ति उस समय यह बात सोच रहा है। अनुमान कल्पना से किसी के विषय में यह सोचना कि "अमुक व्यक्ति अमुक विचार कर रहा है। मनःपर्यय ज्ञान नहीं है । मन के परिणमन का आत्मा से साक्षात् प्रत्यक्ष करके मनुष्य के चिन्तित अर्थ को जान लेना मनः पर्ययज्ञान है। यह ज्ञान आत्मपूर्वक होता है न कि मनपूर्वक। मन तो विषय मात्र होता है। ज्ञाता साक्षात् आत्मा है। मनःपर्ययज्ञान के दो प्रकार हैं- ऋजुमति और विपुलमति। ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति का ज्ञान विशुद्धतर होता है क्योंकि विपुलमति ऋजुमति की अपेक्षा मन के सूक्ष्मतर परिणामों को भी जान सकता है। दूसरा अंतर यह है कि ऋजुमति प्रतिपाती है अर्थात उत्पन्न होने के बाद चला भी जाता है किन्तु विपुलमति नष्ट नहीं हो सकता। वह केवलज्ञान की प्राप्ति पर्यन्त अवश्य रहता है। अवधि और मनःपर्ययज्ञान : अवधि और मनःपर्ययज्ञान दोनों ज्ञान रूपी द्रव्य तक सीमित है तथा अपूर्ण अर्थात विकल प्रत्यक्ष हैं। इतना होते हुए भी दोनों में अन्तर है। यह अन्तर चार दृष्टियों से है – विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय। मनःपर्ययज्ञान अपने विषय को अवधिज्ञान की अपेक्षा विशदरूप से जानता है अतः उससे विशुद्धतर है। यह विशुद्धि विषय की न्यूनाधिकता पर नहीं, किन्तु विषय की सूक्ष्मता पर अवलम्बित है। अधिक मात्रा में विषय की सूक्ष्मता पर अवलम्बित है। अधिक मात्रा में विषय का ज्ञान होना उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना विषय की सूक्ष्मताओं का ज्ञान होना। मनःपर्ययज्ञान से रूपी द्रव्य का सूक्ष्म अंश जाना जाता है। अवधिज्ञान उतनी सूक्ष्मता तक नहीं पहुँच सकता। अवधिज्ञान का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर सारा लोक है। मनःपर्ययज्ञान का क्षेत्र मनुष्य लोक (मानुषोतर र्वत पर्यन्त है)। अवधिज्ञान का स्वामी देव, नरक, मनुष्य और तिर्यंच किसी भी गति का जीव हो सकता है। मनःपर्ययज्ञान का स्वामी केवल चरित्रवान् मनुष्य ही हो सकता हे। अवधिज्ञान का विषय सभी रूपी द्रव्य है(सब पर्यायनहीं) । किन्तु मनःपर्ययज्ञान का विषय केवल मन है जो कि पीद्रव्य का अनन्तवां भाग है। अवधिज्ञान ओर मनःपर्ययज्ञान में कोई ऐसा अंतर नहीं जिसके आधार पर दोनों ज्ञान स्वतन्त्र सिद्ध हो सकें। दोनों में एक ही ज्ञान की दो भूमिकाओं से अधिक अन्तर नहीं है। एक ज्ञान कम विशुद्ध है दूसरा ज्ञान अधिक विशुद्ध हे। दोनों के विषयों में भी समानता ही है। दोनों ज्ञान आंशिक आत्म प्रत्यक्ष की कोटि में है। केवलज्ञान : _यह ज्ञान विशुद्धतम है। मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय के क्षय से कैवल्य प्रकट होता है। मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय क्षायोपशमिक ज्ञान हैं। केवल्यज्ञान क्षायिक है। केवलज्ञान के चार प्रतिबंधक कर्म है - मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय। यद्यपि इन चारों कर्मों के क्षय से चार भिन्न भिन्न शक्तियां उत्पन्न होती हैं किन्तु केवलज्ञान उन सब में मुख्य है। केवलज्ञान का विषय सर्वद्रव्य और सर्वपर्याय है। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं हो जिसको केवलज्ञानी न जानता हो, कोई भी पर्याय ऐसा नहीं है जो केवलज्ञान का विषय न हो, जितने भी द्रव्य हैं और उनके वर्तमान भूत और भविष्य के जितने भी पर्याय हैं सब केवलज्ञान के विषय है। आत्मा की ज्ञानशक्ति का पूर्ण विकास या आविर्भाव केवलज्ञान है। इस ज्ञान के होते ही जितने छोटे मोटे क्षायोपशमिक ज्ञान है, सब समाप्त हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्य ज्योति 113 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Oriatela Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ। हो जाते हैं। मति आदि क्षायोपशमिक ज्ञान आत्मा के अपूर्ण विकास के द्योतक हैं। जब आत्मा का पूर्ण विकास हो जाता है तब इनकी स्वतः समाप्ति हो जाती है। पूर्णता के साथ अपूर्णता नहीं टिक सकती। दूसरे शब्दों में पूर्णता के अभाव के साथ अपूर्णता है। पूर्णता का सद्भाव अपूर्णता के सद्भाव का द्योतक हे। केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है - सम्पूर्ण है। अतः उसके साथ मति आदि अपूर्णज्ञान नहीं रह सकते। जैन दर्शन की केवलज्ञान विषयक मान्यता व्यक्ति के ज्ञान के विकास का अंतिम सोपान है। दर्शन और ज्ञान : उपयोग दो प्रकार का होता है - अनाकार व साकार । अनाकार का अर्थ है निर्विकल्पक और साकार का अर्थ है सविकल्पक। जो उपयोग सामान्यभाव का ग्रहण करता है वह निर्विकल्पक है और जो विशेष का ग्रहण करता है वह सविकल्पक है। सत्ता सामान्य की सर्वोत्कृष्ट भूमिका है। सत्ता में भेद होते ही विशेष प्रारम्भ हो जाता हे। जैन दर्शन में दर्शन और ज्ञान की मान्यता बहुत प्राचीन है कर्मों के आठ भेदों में पहले के दो भेद ज्ञान और दर्शन से सम्बन्धित है। कर्म विषयक मान्यता जितनी प्राचीन है, ज्ञान दर्शन की मान्यता भी उतनी ही प्राचीन है। ज्ञान को आच्छादित करने वाले कर्म का नाम ज्ञानावरण कर्म है। दर्शन की शक्ति को आवृत करने वाले कर्म को दर्शनावरण कर्म कहते है। इन दोनों प्रकार के आवरणों के क्षयोपशम से ज्ञान और दर्शन का आविर्भाव होता है। आगमों में ज्ञान के लिए 'जाणई' (जानाति) अर्थात जानता है और दर्शन के लिए 'पासई (पश्यति) अर्थात देखता है का प्रयोग हुआ है। "दर्शन और ज्ञान युगपद न होकर क्रमशः होते है। इस बात का जहां तक छद्मस्थ अर्थात सामान्य व्यक्ति से संबंध है सभी आचार्य एक मत है किन्तु केवली के प्रश्न को लेकर आचार्यों में मतभेद है। केवली में दर्शन और ज्ञान की उत्पत्ति कैसे होती है ? इस प्रश्न के विषय में तीन मत है। एक मत के अनुसार दर्शन और ज्ञान क्रमशः होतें है। दूसरी मान्यता के अनुसार दर्शन और ज्ञान युगपद होते है। तीसरा मत यह है कि ज्ञान और दर्शन में अभेद है दोनों एक है। आगमों में प्रमाणचर्चा : प्रमाणचर्चा केवल तर्कयुग की देन नहीं है आगमयुग में भी प्रमाण विषयक चर्चा होती थी। आगमों में कई स्थलों पर स्वतन्त्र रुप से प्रमाण चर्चा मिलती है और ज्ञान और प्रमाण दोनों पर स्वतन्त्र रूप से चिन्तन होता था, ऐसा कहने के लिए हमारे पास याप्त प्रमाण है। भगवतीसूत्र में महावीर और गौतम के बीच एक संवाद है। गौतम महावीर से पूछते है “भगवन्! जैसे केवली अंतिम शरीरी (जो इसी भव में मुक्त होने वाले है) को जानते हैं वैसे ही क्या छद्मस्थ भी जानते है। ?" महावीर उत्तर देते है - "गौतम! वे अपने आप नहीं जान सकते या तो सुनकर जानते है या प्रमाण से।” किससे सुनकर? केवली से ....! किस प्रमाण से? प्रमाण चार प्रकार के कहे गए - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम। इनके विषय में जैसा अनुयोगद्वार में वर्णन है वैसा यहां भी समझना चाहिए। स्थानांग सूत्र में प्रमाण और हेतु दोनों शब्दों का प्रयोग मिलता है। निक्षेप पद्धति के अनुसार प्रमाण के निम्न भेद किए गए हैं-द्रव्य प्रमाण, क्षेत्र प्रमाण, काल प्रमाण और भावप्रमाण। हेतु शब्द का जहां प्रयोग है वहां भी चार भेद मिलते हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम। कहीं कहीं पर प्रमाण के तीन भेद भी मिलते है। स्थानांग सूत्र में व्यवसाय को तीन प्रकार का कहा है-प्रत्यक्ष, प्रात्ययिक, और अनुगमिक। व्यवसाय का अर्थ होता है निश्चय। निश्चयात्मक ज्ञान ही प्रमाण है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 114 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति स wjainelti Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्टसंत शिरोमणि अभिनंटन था प्रमाण के कितने भेद होते हैं ? इस विषय में अनेक परम्पराएँ प्रचलित रहीं है। आगमों में जो विवरण मिलता है वह तीन और चार भेदों का निर्देश करता है। सांख्य प्रमाण के तीन भेद मानते आए है। नैयायिकों के चार भेद माने है। ये दोनों परम्पराएं स्थानांगसूत्र में मिलती है। अनुयोगद्वार में प्रमाण के भेदों का वर्णन संक्षेप में निम्न प्रकार है। प्रत्यक्ष प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद है इन्द्रिय प्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष। इन्द्रियप्रत्यक्ष के पाँच भेद हैं - श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष, चक्षुरिन्द्रियप्रत्यक्ष, घ्राणेन्द्रियप्रत्यक्ष, जिव्हेन्द्रियप्रत्यक्ष और स्पर्शेन्द्रियप्रत्यक्ष। नोइन्द्रियप्रत्यक्ष के तीन प्रकार हैं - अवधिप्रत्यक्ष, मनःपर्ययप्रत्यक्ष और केवलप्रत्यक्ष । मानसप्रत्यक्ष को अलग नहीं गिनाया गया है सम्भवतः उसका पाँचों इन्द्रियों ने समावेश कर लिया गया है। आगे के दार्शनिकों ने उसे स्वतन्त्र स्थान दिया है। अनुमान : अनुमान प्रमाण के तीन भेद किए गए है - पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्टसाधर्म्यवत । न्याय, बौद्ध और सांख्यदर्शन में भी अनुमान के ये ही तीन भेद बताये गये है। उनके यहां अंतिम भेद का नाम दृष्टसाधर्म्यवत न होकर सामान्य तो दृष्ट है। पूर्वपरिचित लिंग (हेतु) द्वारा पूर्व परिचित पदार्थ का ज्ञान कराना पूर्ववत् अनुमान है। शेषवत् अनुमान पाँच प्रकार का है - कार्य से कारण का अनुमान, कारण से कार्य का अनुमान, गुण से गुणी का अनुमान, अवयव से अवयवी का अनुमान और आश्रित से आश्रय का अनुमान। दृष्टसाधर्म्यवत् के दो भेद है - सामान्य दृष्ट और विशेष दृष्ट। किसी एक वस्तु के दर्शन से सजातीय सभी वस्तुओं का ज्ञान करना अथवा जाति के ज्ञान से किसी विशेष पदार्थ का ज्ञान करना, सामान्यदृष्ट अनुमान है। अनेक वस्तुओं में से किसी एक वस्तु को पृथक करके उसका ज्ञान करना विशेषदृष्ट अनुमान है। सामान्य दृष्ट उपमान के समान लगता है और विशेषदृष्ट प्रत्यभिज्ञान से भिन्न प्रतीत नहीं होता। काल की दृष्टि से भी अनुमान तीन प्रकार का होता है। अनुयोगद्वार में इन तीनों प्रकारों का वर्णन है - अतीतकालग्रहण - तृणयुक्तवन, निष्पत्रशस्यवाली पृथ्वी, जल से भरे हुए कुण्ड, सर नदी तालाब आदि देखकर यह अनुमान करना कि अच्छी वर्षा हुई है, अतीतकालग्रहण है। प्रत्युप्तपत्रकाल ग्रहण - भिक्षाचर्या के समय प्रचुर मात्रा में भिक्षा प्राप्त होती देखकर यह अनुमान करना कि सुभिक्ष है प्रत्युप्तपत्रकालग्रहण अनागतकालग्रहण - मेघों की निर्मलता, काले-काले पहाड़, विद्युतयुक्त बादल, मेघगर्जन, वातोभ्रम, रक्त और स्निग्ध संध्या आदि देखकर यह सिद्ध करना कि खूब वर्षा होगी अनागतकालग्रहण है। इन तीनों लक्ष्णों की विपरीत प्रतीति से विपरीत अनुमान किया जा सकता है। सूखें वनों को देखकर कुवृष्टि का, भिक्षा की प्राप्ति न होने पर दुर्भिक्ष का और खाली बादल देखकर वर्षा के अभाव का अनुमान करना विपरीत प्रतीति के उदाहरण है। अनुमान के अवयव : मूल आगमों में अवयव की चर्चा नहीं है। अवयव का अर्थ होता है दूसरों को समझाने के लिए जो अनुमान हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 115 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Educatio n al Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था का प्रयोग किया जाता है उसके हिस्से । आचार्य भद्रबाहु ने दशवैकालिक नियुक्ति में अवयवों की चर्चा की है। उन्होनें दो से लगाकर दस अवयवों तक के प्रयोग का समर्थन किया है। उपवान : उपवान दो प्रकार का है - साधोपनीत और वैधर्मयोपनीत । साधोपनीत के तीन भेद है - किंचित साधोपनीत, प्रायः साधोपनीत और सर्व साधोपनीत । किंचित साधोपनीत : जैसा मन्दर है वैसा सर्षप है, जैसा सर्षप है वैसा मन्दर है, जैसा समुद्र है वैसा गोष्पद है, जैसा गोष्पद है वैसा समुद्र है। जैसा आदित्य है वैसा खद्यौत है, जैसा खद्यौत है वैसा आदित्य है। जैसा चन्द्र है वैसा कुमुद है, जैसा कुमुद है वैसा चन्द्र है। ये उदाहरण किंचित साधोपनीत उपमान के है। मन्दर और सर्षप का थोड़ा सा साधर्म्य है। इसी प्रकार आदित्य और खद्यौत आदि को समझलेना चाहिए। प्रायः साधोपनीत जैसा गौ और गवय का बहुत कुछ साधर्म्य है। यह प्रायः साधोपनीत का उदाहरण है। सर्व साधोपनीत : जब किसी व्यक्ति की उपमा उसी व्यक्ति से दी जाती है तब सर्वसाधर्योंपनीत उपमान होता है। अरिहन्त अरिहन्त ही है। चक्रवर्ती चक्रवर्ती ही है - इत्यादि प्रयोग सर्वसाधौंपनीत के उदाहरण है। वास्तव में यह कोई उपमान नहीं है। इसे तो उपमान का निषेध कह सकते है। उपमा अन्य वस्तु की अन्य वस्तु से दी जाती है। वैधयॊपनीत भी तीन प्रकार के हैं - किंचित वैधोपनीत, प्रायोवैधौँपनीत, और सर्ववैधयॉंपनीत। किंचितवैधापनीत : इसका उदाहरण दिया गया है जैसा शाषलेय है वैसा बाहुलेय नहीं है, जैसा बाहुलेय है वैसा शाषलेय नहीं है। प्रायोवैधोपनीत - जैसा वायस है वैसा पायस नहीं है, जैसा पायस है वैसा वायस नहीं है। यह प्रायोवैधोपनीत का उदाहरण है। सर्ववैधोपनीत - इसका उदाहरण दिया गया है कि नीच ने नीच जैसा ही किया, दास ने दास जैसा ही किया यह उदाहरण ठीक नहीं। इसमें तो सर्वसाधोपनीत का ही आभास मिलता है। कोई ऐसा उदाहरण देना चाहिए जिसमें दो विरोधी वस्तुएँ मिलती हों। नीच और सज्जन, दास और स्वामी आदि उदाहारण दिए जा सकते है। आगम : आगम के दो भेद किये गये है-लौकिक और लोकोत्तर। लौकिक आगम में जैनेत्तर शास्त्रों का समावेश है जैसे रामायण, महाभारत, वेद आदि। लोकोत्तर आगम में जैन शास्त्र आते है इनकी रचना सर्वज्ञ द्वारा होती है। आगम के दूसरी तरह के भेद भी मिलते है। इनकी संख्या तीन है आत्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम। तीर्थकर अर्थ का उपदेश देते हैं और गणधर उनके आधार से सूत्र बनाते है। अर्थ रूप आगम तीर्थंकर के लिए आत्मागम है और सूत्ररूप आगम गणधरों के लिए आत्मागम है। अर्थरूप आगम गणधरों के लिए अनन्तरागम है क्योंकि तीर्थकर गणधरों को साक्षात लक्ष्य करके अर्थ का उपदेश देते है। गणधरों के शिष्यों के लिए अर्थरूप आगम परम्परागम है, क्योंकि उन्हें अर्थ का साक्षात उपदेश नहीं दिया जाता अपितु परम्परा से प्राप्त होता है। अर्थागम तीर्थंकर से गणधरों के पास जाता है और गणधरों से उनके शिष्यों के पास आता है। सूत्र रूप आगम गणधर शिष्यों हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 116 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्ट ज्योति Ajmemestonsilab Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ के लिए अनन्तरागम है क्योंकि सूत्रों का उपदेश उन्हें साक्षात गणधरों से मिलता है। गणधर शिष्यों के बाद में होने वाले आचार्यों के लिए अर्थागम और सूत्रागम दोनों परम्परागम है। इस विवेचन के आधार पर सहज ही इस निर्णय पर पहुँचा जा सकता है कि जैन आगमों में प्रमाण शास्त्र पर प्रचुर मात्रा में सामग्री बिखरी पड़ी है। जिस प्रकार ज्ञान का विवेचन करने में आगम पीछे नहीं रहे हैं उसी प्रकार प्रमाण की चर्चा में भी पीछे नहीं है। ज्ञान के प्रामाण्य अप्रामाण्य के विषय में आगमों में अच्छी सामग्री है यह ठीक है कि बाद में होने वाले दर्शन के आचार्यों ने इसका जिस ढंग से तर्क के आधार पर विचार किया है- पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष के रूप में जिन युक्तियों का आधार लिया है और जैन प्रमाण भाास्त्र की नींव को सुदृढ़ बनाने का सफल प्रयत्न किया है, वैसा प्रयत्न आगमों में नहीं मिलता, किन्तु मूल रूप में यह विशय उनमें अवश्य है। तर्कयुग में ज्ञान और प्रमाण उमास्वाति ने ज्ञान और प्रमाण में किसी प्रकार का भेद नहीं रखा। उन्होंने पहले पाँच ज्ञानों के नाम गिनाए और फिर कह दिया कि ये पाँच ज्ञान प्रमाण है। बाद में होने वाले तार्किकों ने इस पद्धति में परिवर्तन कर दिया। उन्होनें प्रमाण की स्वतन्त्ररूप से व्याख्या करना प्रारम्भ कर दिया। उनका लक्ष्य प्रामाण्य अप्रामाण्य की ओर अधिक रहा। मात्र ज्ञानों के नाम गिनाकर और उनको प्रमाण का नाम देकर ही वे सन्तुष्ट न हुए। अपितु प्रमाण का अन्य दार्शनिकों की तरह स्वतंत्र विवेचन किया। उसकी उत्पत्ति और ज्ञप्ति पर भी विशेष भार दिया ज्ञान को प्रमाण मानते हुए भी कौन सा ज्ञान प्रमाण हो सकता है, उसकी विशद चर्चा की। इस चर्चा के बाद में इस निर्णय पर पहुँचे कि ज्ञान और प्रमाण कथंचिद् अभिन्न है । माणिक्यनन्दी के अनुसार वही ज्ञान प्रमाण है जो स्व का और अपूर्व अर्थ का निर्णय करता है ज्ञान अपने को भी जानता है और बाह्य अर्थ को भी जानता है ज्ञान ही प्रमाण है क्योंकि इष्ट वस्तु का ग्रहण और अनिष्ट वस्तु का त्याग ज्ञान के कारण हीं हो सकता है। ग्रहण और त्याग रूप क्रियाएँ ज्ञान के अभाव में नहीं घट सकतीं। वाविदेवसूरी के अनुसार स्व और पर का निश्चयात्मक ज्ञान प्रमाण है। इन्होंने अपूर्व विशेषण हटा दिया। अपूर्व अर्थ का हो या पूर्व अर्थ का हो कैसा भी ज्ञान हो, यदि वह निश्चयात्मक है तो प्रमाण है ज्ञान ही यह बता सकता है कि क्या अभीप्सित है और क्या अनभीप्सित है अतः वही प्रमाण है। आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाण मीमांस में लिखा कि - "अर्थ का सम्यक् निर्णय प्रमाण है।" यहां पर 'स्व' और 'पर' ऐसा प्रयोग नहीं है। अर्थ का निर्णय स्व निर्णय के अभाव में नहीं हो सकता अतः अर्थ निर्णय का अविनाभावी स्वनिर्णय स्वतः सिद्ध है। प्रमाण के उपर्युक्त लक्षणों को देखने से यह मालूम होता है कि ज्ञान और प्रमाण में अभेद हैं। ज्ञान का अर्थ सम्यग्ज्ञान है न कि मिथ्याज्ञान ज्ञान जब किसी पदार्थ को ग्रहण करता है तो स्व प्रकाशक होकर ही जैन दर्शन में ज्ञान को स्व पर प्रकाशक माना गया है तथा निश्चयात्मक ज्ञान को प्रमाण माना गया है। निश्चयात्मक का अर्थ है सविकल्पक वही ज्ञान प्रमाण हो सकता है जो निश्चयात्मक हो व्यवसायात्मक हो, निर्णयात्मक हो. सविकल्पक हो। T ducation Inyam हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 117 हेमेन्व ज्योति ज्योति Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ २ पाप और पुण्य , -हुक्मीचंद एल. बाघरेचा पाप क्या है ? पुण्य क्या है ? वास्तव में मानव को अमृत या विष की पहचान ही नहीं, पुण्य का अमृत तथा पाप का विष! पुण्य तथा पाप में हम कितना अंतर समझते हैं ? क्या स्वार्थ के वशीभूत होकर हम कभी-कभी पाप को भी पुण्य नहीं समझते ? क्या दुर्भावना से हम कभी-कभी पुण्य को भी पाप नहीं समझते? आपने और हमने दुखों के कारणभूत पाप को कितना छोड़ा है ? आपने सुखों के कारण पुण्य को कितना समीप से पहचाना है ? इन सभी तथ्यों को उजागर करने के लिए यह जानना आवश्यक है कि पुण्य क्या है और पाप किसे कहते हैं ? उत्तराध्ययन चूर्णि 2 में कहा है :"पासयति पातयति वा पाप" अर्थात जो आत्मा को बांधता है या गिराता है वह पाप है। एक कदम आगे बढ़ने वाले को कोई पीछे फेंक दे, पर्वत पर चढ़ रहा है और सामने से कोई धक्का मार दे, कितना असभ्यता का कार्य दिख रहा है। धक्का मारने वाले को लोग कितना दुष्ट व्यक्ति कहते हैं। बस वैसे ही सूक्ष्म निगोद से निकले हुए आतमराय जो दिनोंदिन ऊपर उठने की, पर्वत पर चढ़ने की, गुणस्थानक क्रमारोहण की प्रक्रिया में लगे हुए हैं, उन्हें कर्मराय के जो सैनिक नीचे नीचे गिराने की प्रक्रिया में संलग्न हैं, उन्हें पाप कर्म की संज्ञा शास्त्रकार महर्षि देते हैं। पाप एक विष है जो कि आत्मा का ऊर्ध्वगमन करने से रोकता है तथा आत्मा के चारित्रादि स्वभाव की हत्या करता है। पुण्य की परिभाषा देते हुए ज्ञानी कहते हैं :“पुणाति शुभं करोति इति पुण्यं" अर्थात आत्मा का जो शुभ करता है, कल्याण में सहयोगी है उसका नाम पुण्य हैं। पुण्य कर्म का ही भेद है। कहा जाता है कि कर्म आत्मा के लिए बन्धन है आत्मा का भयंकर शत्रु कर्म ही है। कर्म है तब तक मोक्ष हो नहीं सकता। इत्यादि व्याख्याओं को देखते हुए प्रश्न स्वाभाविक उठते हैं कि कर्म दुखदाई है तो उसकी क्या आवश्यकता? शास्त्रकार महर्षि ऐसे प्रश्नों के योग्य उत्तर देकर समाधान करते हैं। एक व्यक्ति ज्वर से पीड़ित है, कराह रहा है, चिल्ला रहा है जोर शोर से, उस समय डॉक्टर, वैद्यराजजी आदि को बुलाकर रोगी के हाथ पैर पकड़ कर उसके सगे संबंधी इंजेक्शन लगवा रहें हैं। क्या सुई के प्रवेश से दर्द नहीं होता होगा। शरीर में कटु से कटु दवा पिलाते हुए क्या उसे बुरा नहीं लगता होगा? उस समय कोई यह कह दे, क्या कर रहे हो ? यह दर्द से चिल्ला रहा है और उसे सुई का दर्द बढ़ाते हो, तो क्या होगा? सुई लगवानी, कटु से कटु दवा पिलानी यह किंचित् दुख दाई होने पर भी परिणाम सुखकर होने से उसे दर्द करना नहीं गिना जाता व्यवहार से, वैसे ही कर्म दुख दाता होने पर भी पुण्य कर्म सुई एवं कटु दवा सदृश अंत में सुखकारी होने से कुछ अवस्था तक उपादेय माना गया हैं । किसी स्थान से निश्चित स्थान तक जाने हेतु साधन की आवश्यकता होती है। जैसे रन द्वीप में जाने के लिए व्यक्ति नौका की सहायता लेगा। ठीक वैसे ही संसारी कर्म सहित परतन्त्र आत्मा को कर्म रहित स्वतंत्र होने हेतु सिद्ध गति में जाना है तो उसे संसार रूप समुद्र पार करने हेतु एवं राग द्वेष रूपी महामच्छों के परिवार से सुरक्षित रहने हेतु पुण्य रूपी नौका की आवश्यकता है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 118 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेय ज्योति Main Elkate nation Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथा को छुपाय आज तक करके आचार्य प्रवर श्रीमद् विजय विद्याचंद्रसूरीश्वरजी महाराज 'पथिक' ने “पथिक मणिमाला" के 151 दोहो में पाप और पुण्य को इस प्रकार परिभाषित किया है :पाप :- सप्त व्यसन से सदा पाप तत्व की रेख। रोता हँसता भोगवे, अशुभ कर्म का लेख।।31|| पुण्य :- है आमोद में, भौतिक सुख अनुकूल | पुण्य तत्व का फल यही, शुभ करनी का मूल|B0|| थॉमस फुलर के शब्दों में "पाप में पड़ने वाला मानव होता है, जो पाप पर पछताता है वह सज्जन है, जो पाप पर गर्व करता है, वह शैतान है।" गुप्तं पापं प्रकटं पुण्यं अर्थात पाप छुपाना चाहता है, अंधकार चाहता है और पुण्य ? पुण्य प्रकट होना चाहता है, प्रकाश चाहता है। कुछ लोग समझते हैं कि हमारे पाप का किसी को पता नहीं है। याद रखना कि पाप सिर पर चढ़ कर बोलता है। पापी की आंखों की विकृति क्या पाप को छुपा पाती है। कवि ने कहा था - पाप छुपाये ना छुपे, छुपे तो मोटा भाग। दाबी दूबी न रहे, रूई लपेटी आग|| रूई में लिपटी हुई आग कब तक छुपी रह सकती है ? वह कभी भी भड़केगी ही। इसी तरह पाप कभी भी छुप नहीं सकता। पुण्य को छुपाया जा सकता है। गुप्त दान के द्वारा दान को छुपाया जा सकता है। कृत्रिम क्रोध के द्वारा समता को छुपाया जा सकता है। परन्तु पाप को छुपाने के लिए कोई भी उपाय आज तक ईजाद नहीं हुआ है। जो पाप है वह छुप नहीं सकता है एवं जो छिपता है वह पाप नहीं होता। अतः मानव पाप करके स्पष्ट कह दे, उसे छुपाने के लिए सौ प्रकार के झूठ न बोले। क्योंकि हमारा मन दर्पण है - इस दर्पण में जो है - वह वैसा ही प्रतिभाषित होता है। एक कवि ने कहा था - तेरा मन दर्पण कहलाये भले बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाए मन के दर्पण से कुछ छिपा नहीं रह सकता। पाप कार्य को मन के दर्पण में देखकर आत्मा की आवाज से पहचान कर पाप से निवृत हो जाना चाहिए। वर्तमान में पापों की बढ़ती गंगा : जैसे छोटा बीज वृक्ष के विकास की क्षमता रखता है, उसी प्रकार छोटा सा पाप का बीज मानव के विनाश का कारण बन सकता है। चेहरे पर छोटा सा दाग हो तो सौंदर्य सामाप्त हो जाता है। वस्त्र में थोड़ी सी मैल हो तो वस्त्र को बदलना पडता है, नाव का छोटा सा छिद्र नाव की सुरक्षा को समाप्त कर देता है। इसी प्रकार छोटा सा पाप भी जीवन को पतन के गर्त तक पहुँचा देता है। अतः कभी भी पाप की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। कवि जयशंकर प्रसाद ने कहा है कि मनुष्य जब एक बार पाप के नागपाश में फंसता है, तब वह उसी में और भी लिपटता जाता है। स्वर्वाहिनी गंगा दूषित कैसे हुई ? फिल्मों में गीत गुनगुनाये जाते है - राम तेरी गंगा मैली हो गई, पापियों के पाप धोते-धोते|| पापियों के पास इतना बड़ा पापों का भंडार है कि जिसे धोते-धोते गंगा भी मैली हो गई। पवित्र करने वाली गंगा को भी हमने अपवित्र कर डाला। अतः अब पाप के मैल को धोने के लिए गंगा जल काम नहीं आयेगा। अब तो आत्मा की शुद्धि के लिए प्रायश्चित का गंगा जल ही काम आयेगा। आपने गंगा के जल को देखा तो है ना! लोग उसे आँखों से और सिर से लगाते हैं, उसका आचमन करते हैं। उसको पीते हैं। यदि गंगा में बाढ़ आ जाये तो उस गंगा के जल को पीने के लिए आप घर पर बैठे रहेंगें ना! गंगा तक जाना न पड़ेगा आपको अस्थि विसर्जन के लिए। गंगा स्वयं जो आ रही आपको लेने के लिए। स्वीकार है ना! हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 119 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ........... ................। संभवतः नहीं। हम बिफरी हुई जल के आवेग से आपूर्ण गंगा से भागते हैं। आज हमारे पापों की गंगा में बाढ़ आ चुकी है। पाप विवशता हो सकती है। परन्तु यह सुविशेष बढ़ जाये तब यह पापों की बाढ़ आत्मा का नाश क्या नहीं करेगी? पापों की गंगा आत्मा के मूल गुणों रूपी अस्थियों का विसर्जन कर देगी, जिस पर आत्मा का ढांचा खडा है। महात्मा बुद्ध ने कहा है कि “पुण्यात्मा जहां कहीं भी जाता है, सब जगह सफलता एवं सुख पाता है।" हमें क्या करना है ? पाप का दाग जितना गाढ़ा होता है, उसके नाश के लिए उतने ही बडे प्रायश्चित रूपी रसायन की आवश्यकता रहती है। पापों को टेस्ट मत करना। टेस्ट करने वाले वेस्ट हो जाते है। क्योंकि खून का स्वाद कभी छूटता नहीं। हम पानी के खतरे से बचाने के लिए वॉटरप्रूफ घडी का, भीगने से बचने के लिए वॉटरप्रूफ वस्त्र का, जलने से बचने के लिए फायरप्रूफ वस्त्र का, सर्दी की भयंकरता से रक्षा के लिए विंटरप्रूफ कमरे का इस्तेमाल करते हैं। हमारा शरीर डिसीज प्रूफ है, हमारी वाणी एब्यूजप्रूफ है, हमारी डॉयरी कोडवर्ड में लिखी होने से सिक्रेसीप्रूफ है, परन्तु क्या हमारा हृदय सिन (पाप) प्रूफ है ? कैसे हो सकता है? सिनप्रफ वस्त्र आज तक मार्केट में नहीं आया है। और आ भी नहीं सकेगा। सिनप्रूफ वस्त्र मन में उत्पन्न किया जा सकता है। सिन (पाप) पश्चाताप की अग्नि में जलकर भस्म हो जाता है। विवेक ही सिनप्रूफ वस्त्र है। जो व्यक्ति प्रतिक्षण अलर्ट रहता है, वह पाप से बच सकता है। पाप कार्य है तो पाप बुद्धि कारण है। कारण के नष्ट होने पर ही कार्य नष्ट हो सकता है। अतएव पाप न करने का नियम दिलाने के स्थान पर पाप बुद्धि को ही समाप्त करना चाहिए। एक स्थान पर कुछ मिठाई पड़ी थी। बहुत सी चींटियाँ वहाँ पर आई। चींटियों ने मिठाई खाकर उदर पूर्ति की। सभी आनंदित हो वहां से चलने लगी तो क्या देखा, एक चींटी मूंह बिगाड़कर मिठाई खाने के प्रयत्न में लगी है, परन्तु उसे आनंद नहीं आया। वह बोली "मुझे लगता है कि लड्डू का ऊपर का भाग खारा है। मुझे लड्डू खारा ही लग रहा है। तुम झूठ बोलती हो, लड्डू मीठा ही नहीं है। तब एक बुद्धिमती चींटी बोली "जरा अपना मुंह तो दिखा। उसने मुंह दिखाया। बुद्धिमती चींटी ने देखा कि मुंह में पहले से ही कुछ भरा हुआ है। "यह क्या भर रखा है मुंह में। इसे बाहर तो थूक ।” चींटी ने जब बाहर थूका तो प्रतीत हुआ कि वह नमक का ढेला है। बुद्धिमती चींटी बोली "देख! तूने यह नमक का ढेला मुंह में भर रखा था, अतः तुझे मीठे का स्वाद नहीं आया। अब नमक मुंह में से निकाल देने के पश्चात चखकर देख। और सच! अब वह चींटी हर्षित हो गई। क्योंकि लड्डू का वास्तविक स्वाद उसे मिल चुका था। जब पाप रूपी नमक मुंह में हों तब तक सुख की प्राप्ति व अनुभूति कैसे हो सकती है ? आप और हम भी अत्यधिक धर्म ध्यान करते हैं परन्तु थोडा सा पाप रूपी नमक अपने मन में रखते हैं। निंदा चुगली का नमक। फिर आनंद न आए तो स्वाभाविक ही है। आपने पूजा तो बहुत की परन्तु अश्रद्धा का नमक हृदय में रखा तो पूजा का आनंद अनुभव न हो सकेगा। आपने प्रतिक्रमण तो दिन में दो बार किया परन्तु पाप बुद्धि से पीछे न हटे तो प्रतिक्रमण कल्याणकारी न बन सकेगा। मानव पहले जीवन में पाप करता है तदानंतर पुण्य करता है, अतएव उसे पुण्य करने का आनंद नहीं आता। अतः पाप के त्याग की आवश्यकता है। जब पाप रूपी विष कम हो तो धर्म क्रिया तथा पुण्य रूपी अमृत से अलौकिक सुख प्राप्त होगा। सारांश:- कालिदास ने कहा है कि “पाप एक प्रकार का अंधेरा है जो ज्ञान का प्रकाश होते ही मिट जाता है।" महात्मा गांधी कहा करते थे "पाप करने का अर्थ यह नहीं कि जब वह आचरण में आ जाये तब ही उसकी गिनती पाप में हुई। पाप तो जब हमारी दृष्टि में आ गया। वह हम से हो गया। अब तो पापों की आंधी में बहने का आपको विचार नहीं आ रहा ना। पाप से रक्षा के लिए प्रयास की आवश्यकता है। आइए, आप और हम दुर्गुण रूपी कचरा, आत्मा का पाप रूपी विष निकाल कर बाहर फेंक दें। तथा पुण्य और सद्गुणों के भंडार को प्राप्त करें। "पापी पाप न कीजिये, न्यारा रहिये आप। करणी आपो आपरी, कुण बेटो कुण कुण बाप।" हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 120 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतशिरो अभिनन्दन ग्रन्थ बिभाग गुरु ऐसा कीजिए, जैसा पूनम का चाँद । तेज करे तपे नहीं, उपजावे आनंद Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री बीलराणाय नमः श्री उमेन्द्र सूरिगुरुदेवाय नमक णमो आमहंताणं णमो सिद्राण क्योसिद्धाणं नमो आयरियाण नमो उवज्झाय नमो लोए 109 झांझणं 12 सोपंाचनभूकका L समाधावस्था स ८ भ अँगलाई अच्वेक्षि 46 में हबई में गल प्रवचनय हेमेन्दु वृद्धि कांधर लाम १५. २३ . ३-२ • ६ आहोर Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री 44 inftige 492117 YATNA HAI बन Homentatd. • ६३ प्रापले • 1 किमी.20 शु.1503401 ranRatnani - ११ - 221142 1941 1 Andr37 सन् 2-001.14 M ARNA NAMA Aur २.ind सु + a 1 5209 / ion Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू.राष्ट्रसंत शिरोमणिजीकी दक्षिणयात्रा दक्षिण भारत का द्वार बीजापुर (कर्णाटक) नगर में पू.श्री अपनी कर्मस्थली में मंगल प्रवेश की झलकियाँ बीजापुर नगर प्रवेश की एक स्मृति दक्षिण भारत में सुप्रसिद्ध दादावाडी श्री मोहनखेडा अवतार रानीबेन्नुर नगर में प्रतिष्ठा की झलकियाँ O COTOT COCO प्रसिद्ध दादावाड़ी काम्बली बोहराते हवे श्री बाबुलालजी झवेरचंदजी परिवार (बागरा) AAD हक्मिचंदजी बागरेचा परिवार के निवास पर पूज्यश्री संघ अध्यक्ष श्री हजारीमलजी एवं सावलचंदजी वाणीगोता पूज्यश्री को बचपन की यादेताजी कराते हए www.jainelibrary Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. १९९९ में राणीबैनूर (कर्णा.) में ऐतिहासिक नगर प्रवेश एवं चातुर्मास की विशेष चित्रमय झलकियाँ नगर प्रवेश पर गुरूभक्ति में झूमते भक्तगण असीम जनसमूह के साथ नगर प्रवेश हिंसा का ताण्डव बंद करो -श्री कोंकणकेशरी पधारे हुए मंत्रीगण एवं विशेष अतिथिगण व पूज्यश्री मंच पर पू.श्री का चमत्कारी मांगलिक श्रवण करते हुए केन्द्रीय मंत्री श्री अनंतकुमार एवं फिल्म अभिनेता श्रीनाथ प्रवचन दौरान पूज्यश्री का केश लोच करते हुए मुनिगण B u cation International www.phary.org ee Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gਰ ਸੋ ਚ ਦੋ ਕੁਜ टिपटुर (कर्णाटक) नगरे सन् २००० में श्री राजेन्द्रसूरि गुरु मंदिर प्रतिष्ठा की स्मृतियां Nering शुभ लग्न में पू. दादा गुरुदेव श्री को विराजमान करते हुवें in Education Internal or Prve & Personal use ony www.jainelibraryorg Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपस्थित विशाल जनसमूह, चिकबालापुरनगरमें प्रभुश्री महावीरस्वामी जिनमंदिर प्रतिष्ठा BEARTY NELCONE ON THE EVE OF PRATHISHTAPANA MAHOTHSAVAOF LORD MAHAVEER SON72200/SRIMAHAVEERJAINSANCIECRELI नगरप्रवेश की नजर पू. श्री को गुरु वन्दन बिराजमान प्रभुश्री महावीर एवं गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरिजी म.सा. aruwaterspersoSION Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्रदुर्गा प्रतिष्ठा महोत्सव की एक विशिष्ट झलक गगने लहराती पताका बिराजमान गुरुमूर्ति श्री राजेन्द्रजी 111111 गुरुमूर्ति विराजमान... पंडाल की ओर बढते कदम... उपस्थित गुरु भगवंत... Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुबली कर्णाटक में गुरुमंदिर प्रतिष्ठा पू. गच्छाधिपतिश्री की निश्रा और मरुधर जैन संघ के तत्वाधान में बिराजमान गुरुमूर्ति... चल समारोह का द्रश्य... प्रतिष्ठा के पश्चात् प्रसन्न मुद्रा में गुरुदेव श्री एवं मांगीलालजी हरकाजी (धाणसा) For Private EvediobiaDS Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेन्नई चेन्नई में पटनी प्लाजा से चातुर्मास हेतु प्रवेश करते आचार्यश्री एवं मुनि मण्डल चेन्नई में पूज्यश्री अगवानी करते हुए श्री नित्योदयसागरसूरिजी एवं श्री चन्द्राननसागरसूरिजी Apulrhipichennai OCDAY NEGA FREE HEALTH CHEGNUPA तेराम चेन्नई में स्वास्थ्य परीक्षण केम्प में आशीर्वचन देते हुए पूज्यश्री चेन्नई में पूज्यश्री के ८२वें जन्म दिवस के उपलक्ष में गुरुपूजन एवं स्वर्ण गहुली करते रमेशजी वाणीगोता भीनमाल पू. आचार्यश्री एवं मुनि मण्डल के साथ पुखराजजी फौगाजी परिवार पूज्यश्री के कंकू के पगलिये... Education International www.ainelibrary Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Home चेन्नई चेन्नई में पूज्य आ.श्री का आशीर्वाद ग्रहण करते हुए श्री संघवी सुमेरमलजी लुक्कड़ प्रवचन मुद्रा में पूज्यश्री तमिलनाडुके पूर्व मंत्री पूज्यश्री से आशीर्वाद व्यहण करते हुए UHINIDDHin Jan Educa www.jamalibay are For Private & Personal use only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन् २००१ में चातुर्मास प्रवेश एवं गोदावरी के किनारे बसा राजमहन्द्रा चातुर्मास की झ राजमहेन्द्री (आ.प्र.) ★ नगर प्रवेश पर उपस्थित विशाल जनसमुदाय * चातुर्मास में पाट पर विराजित आचार्यसह मुनिमण्डल श्री कोंकणकेसरीजी संबोधित करते हुए Wwwa १० ★ सामैया में मंगल कलश पर वासक्षेप करते आचार्यश्री ● श्री जिनमंदिर में दर्शन-वंदन Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दावरी के किनारे बसा राजमह.. सन् २००१ में चातुर्मास प्रवेश एवं चातुर्मास की झलकियाँ राजमहेन्द्री (आ.प्र.) गोदावर नगर प्रवेश पर उपस्थित विशाल जनसमुदाय dos पश्वरनी पूज्य आचार्य देवेशी औरत म.सा. एवम् मनि मण्डल कचेर में मेटि कोटि वंदना श्री महावीर जैन कति For te Personal Use Only KARAN www.airality Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोदावरी के किनारे बसा राजमहेन्द्री भव्य गुरुपद महाविधान का एक चित्र Ja Education International Sound Horn Chybri सन् 2009 में चातुर्मास प्रवेश एवं चातुर्मास की झलकियाँ राजमहेन्द्री (आ.प्र.) ★ स्थानीय (एम.एल.ए.) पू. आचार्यश्री का आशीर्वाद प्राप्त करते हुए । वसन्त स्वामी ने नमः भारतवषम प्रथमवार राजमहन्द्रनगर भव्याति समाजकल्या सतरामणी न ऐश्वरजी गुरुम आहारला • आं.प्र. की मा. मंत्री श्री पुष्पलीला बहुचर्चित पुस्तक 'अंतर की जिज्ञासा' की द्वितीयावृत्ती का विमोचन करती www.jainey.org Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (आ.प्र.) तणुकु नगर में श्री शांतिनाथ प्रभु की प्रतिष्ठा मते २००२ साध्वीगण पू. गुरुदेवश्री को द्वादशवर्त वन्दन करते हुवे गुरुभक्त श्री हुकमीचंदजी बागरेचा व भबुतमलजी मू. श्री शांतिनाथप्रभुजी को बिराजमान कर वासक्षेप विधि में पूज्यश्री पूज्यश्री का आशीर्वाद प्राप्त कर रहे परम गुरुभक्त श्री शांतिलालजी मुथा अपने निवास पर अट्ठारह अभिषेक दौरान पू. गच्छाधिपतिश्री पू. सम्राटश्री के समक्ष कु. कविता दांतेवाडीया गहुली करती हुई आचार्यदेव एवं मुनिमण्डल TForFVIEOParsmalure only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प.पू. आचार्यदेव की निश्रा में (आ.प्र.) निडदवोलूनगर में भव्य श्री श्रेयांसनाथ प्रभु की प्रतिष्ठा सने 2002 श्री राजेन्द्र, शांति, विद्याचन्द्रसूरिजी म.सा. के त्रिवेणी संगम को प्रतिष्ठित कर रहे है पूज्यश्री QU Education प दिनांक २९-२-२०१ आ पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि १९वाँ पाटमहोत्सव पर साधु-साध्वीगण मुनिराज श्री पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि श्री से चर्चारत प्रतिष्ठा पश्चात पू. आचार्यदेवश्री प्रतिष्ठा के पश्चात श्री संघ के सदस्य हर्षित हो रहे हैं गुरुपूजन कर रहे संघ अध्यक्ष श्री झवेरचंदजी Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (आ.प्र.) पेदेमीरम तीर्थ में विश्व वंदनीय श्री राजेन्द्रसूरि दादावाड़ी की प्रतिष्ठा प्रतिष्ठा केशुभ लग्न में बढते हुवे कदम पू. गच्छनायक के प्रतिष्ठा के पश्चात वासक्षेप करते हुए पूज्यश्री प्रतिष्ठा के बाद कांबली ओढाते हुए गुरुभक्त कोरा शा.हिराचंदजी पूज्यश्री से आशिष प्राप्त करते हैं बिराजमान पू. दादागुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरिजी म.सा. पू. आचार्यश्री एवं उपस्थित मुनिगण ain Edin international For Private & Personal use only www.jainalibbfooto Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पागा कर्णाटक प्रान्त में विचरण के दौरान यादगार स्मृतियों के साथ मैसुर का एक दुर्लभ चित्र धर्मस्थल में पूज्यश्री से आशीर्वाद लेते हुए अंतेवासी चन्द्रयशजी धर्मस्थल में हाथों में हाथ थामें चन्द्रयशजी Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्रा ग्रन्थ नायक का स्नेहमिलन अपने अंतेवासियों के संग मैसूर गार्डन का एक दृश्य गुरु-शिष्य का संयोग मैसूर प्रवास के दौरान मुनिमण्डल पू. गुरुदेव के साथ श्री प्रीतेशचन्द्रविजयजी एवं चन्द्रयशविजयजी अपने पू. गुरुदेव के साथ मुनि प्रीतेशचंद्रविजयजी मैसूर गार्डन में पू. कोंकणकेशरी श्री लेखेन्द्रविजयजी www.jamelibrary.org Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्रा. ग्रन्थ नायक का स्नेहमिलन अपने अंतेवासियों के संग प्राकृितिक सौंदर्य में बैठे पूज्यश्री एवं मुनिमण्डल अपने शिष्य प्रीतेशचन्द्र वि. को आशीर्वाद प्रदान करते हुए पूज्यश्री पूज्यश्री अपने प्रियशिष्य चन्द्रयश वि.के साथ मैसूर गार्डन में पूज्यश्री मुलभद्री श्री बाहुबली के दर्शनार्थे जाते हए mernational Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्रा दक्षिणप्रांत में विशिष्ट नगरों की मंगलमय यादगार यात्राओं के दुर्लभ चित्रमय झलकियाँ पूज्यश्री की दक्षिणयात्रा के मुख्य सूत्रधार श्री हुकमीचंद चर्चारत है। गुरुदेव के प्रति देखो मुनिगणों की भक्ति - सेवाभावना | कर्णाटक में श्रमण बेलगोला में पू. आचार्यश्री एवं मुनिमण्डल धर्मस्थल में श्री वीरेन्द्र हेगड़े पूज्यश्री से आशीर्वाद लेते हुए Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्रा ग्रन्थ नायक का स्नेहमिलन अपने अंतेवासियों के संग मैसूर वृंदावन गार्डन की चित्रमय झांखी 3 For Private & Personal Use o भगवान बाहुबली के साथ पूज्य आचार्यश्री का एक यादगार चित्र www.jainelibrary. Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ jainelibrary.org Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 4 विशिष्ट योग विद्या : स्व. मुनि श्री देवेन्द्र विजयजी म.सा. योगः कल्पतरूः श्रेष्ठो, योगश्चिन्तामणि परः || योगः प्रधानं धर्माणां, योगः सिद्रेः स्वयं ग्रहः 113711 कुण्ठी भवन्ति तीक्ष्णानि मन्मथास्त्राणि सर्वथा । योगवर्मावृत्ते चित्ते तपरिछद्रकाण्यपि 13911 योगः सर्वविपद्वल्ली, विताने परशुः शितः | आमूलमंत्रतंत्र-व कार्मणं नितिश्रियः 115|| इस संसार में अनादिकाल से जड़वादी और आत्मोत्थानाकांक्षियों की आध्यात्मिक ये दो विचार-परम्पराएं प्रचलित हैं। दोनों विचारधारावादियों ने विश्व के चराचर सम्बन्धी समस्त प्रश्नों को समझने-समझाने का अत्यधिक प्रयत्न कर अपने-अपने सिद्धान्तों की उत्पत्ति की है । दोनों विचार-श्रेणियां छत्तीस (36) के अंक के समान अलग-अलग हैं। जड़वादी धारा के मानने वाले मानते हैं कि - इन्द्रियों का सुख ही वास्तविक सुख है । इसको प्राप्त करने के लिये किये जाते हुये प्रयत्नों में पाप-पुण्य की दरार वृथा है । नीति और अनीति का प्रश्न ढोंग मात्र है । सुख भोग के लिए यदि जघन्य से जघन्य कार्य भी किया जाय तो कोई हर्ज नहीं है | चूंकि शरीर भस्मीभूत हो जाने पर तो पुनरागमन है ही नहीं | यह तो वृक् पदवत् वृथा बनाया गया भ्रामक ढकोसला मात्र है । आधिभौतिक सुख ही वास्तव में जीवन का आनन्द है । अतः हे मनुष्यों, इसे प्राप्त करने के प्रयत्न करो। इस जड़वादी मान्यता के ठीक विपरीत आध्यात्मिक पथानुगामी की मान्यता है । ऐहिक सुख उनकी दृष्टि में सर्वथा अनुचित हैं । ऐहिक सुख एकदम अवांछनीय हैं । अतः ये आस्तिक धर्म कहे जाते हैं । जैन, वैदिक और बौद्ध तीनों धर्म आध्यात्मिक भावप्रधान हैं । इन्द्रियजन्य विषय सुख को मानने वाले नास्तिक हैं - जैसे चार्वाक | आर्यावर्त के आस्तिक दर्शन जैन, वैदिक और बौद्ध इन तीनों का सुख निरूपण लगभग समान है । तीनों का लक्ष्य आत्म-विकासक है । आध्यात्मिक सुख को प्राप्त करना, कर्म-मल का क्षय करना इन दो को तीनों धर्मों ने भिन्न-भिन्न ढंग से समझाया एवं बतलाया है । योग शब्द 'युज' धातु से करण और भाववाची घड्. प्रत्यय लगने पर बनता है - जिसका अर्थ है 'युजि च समाधौ याने समाधी को प्राप्त होना । योग यह एक महान् आत्म प्रगति का मार्ग है, जो वास्तव में आत्मा को अभिलषित स्थान-मोक्ष तक पहुंचाने में समर्थ है । जैन दर्शन में योग का अतीव महत्वपूर्ण स्थान है । जैन दर्शन प्रायः सम्पूर्ण रूपेण यौगिक साधनामय है | पातंजल योगदर्शन में 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोध' से योग को चित्त की चंचल वृत्तियों का निरोधक कहा गया है । वैसे ही जैन दर्शन में योग को मोक्ष का अंग माना गया है - 'मुक्खेण जोयणाओ जोगो' याने जिन-जिन साधनों से आत्मा कर्मों से विमुक्त होकर निज लक्ष्यबिन्दु तक जाकर राग-द्वेष एवं काम क्रोध पर विजय प्राप्त करे उन-उन साधनों को योगांग कहा गया है । इस प्रकार आत्मोन्नतिकारक जितने भी धार्मिक साधन है वे सब योग के अंग है। __महर्षि पतंजलिकत योगदर्शन में कहा गया है कि योग के अष्टांगों की परिपूर्ण रीत्या साधना-अनुष्ठान करने से चित्त का अशुभ मल का नाश होता है और आत्मा में शुद्धभाव (सम्यग्ज्ञान-केवलज्ञान) का प्रादुर्भाव होता है । वे अष्टांग ये हैं - यम, नियम, आसन,प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । साधनाकर्ता व्यक्ति जितने-जितने अंश में योगानुष्ठान करता है उतने-उतने अंश में चित्त के अशुद्ध-मल का नाश होता है और जितने-जितने अंश में कर्ममल का क्षय होता है, उतने-उतने अंश में उसका ज्ञान बढ़ता है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 1 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ अन्त में ज्ञान का यह विकास सम्यग्ज्ञान-केवलज्ञान में अपनी अन्तिम पराकाष्ठा को प्राप्त होता है । इस तरह योग के अष्ट अंगों का अनुष्ठान करने पर चित्त के अशुद्ध मल का नाश और विवेकख्याति-सम्यग्ज्ञान का प्रादुर्भाव-ये दो फल निष्पन्न होते हैं । योग के अष्टांगों में यम,नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार ये पांच बहिरंग साधन हैं और धारणा, ध्यान तथा समाधि ये तीनों अन्तरंग साधन कहे गये हैं। पांच अंग चित्तगत मल के क्षय करने में सहायक हैं और अन्त के तीन अंग विवेकख्यातोदय केवलज्ञान प्राप्त करने में सहायभूत हैं । उक्त अष्टांगों का स्वरूप-फल और इनकी साधना से मिलने वाली लब्धियों का पातंजलयोगदर्शन में बड़ा ही विस्तृत और परम व्यवस्थित विवेचन किया गया है । जैन दर्शन में उक्त योगांगों का आगमविहित स्वरूप क्या है? बस इसी स्थूल विषय का दिग्दर्शन यथामतिकरवाना ही इस लघु निबन्ध का उद्देश्य है। 1. यम - योग के आठ अंगों में सर्वप्रथम स्थान यम का है । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांचो महाव्रतों की संज्ञा 'यम' है । जैनागमों में इन पांचों की महाव्रत और अणुव्रत संज्ञा है । जैनागमों में और पातंजलयोगदर्शन मे इस विषय में कहीं-कहीं क्वचित्त वर्णन-शैली की भिन्नता के सिवाय कुछ भेद नहीं है । उक्त पांचों यमों (व्रतों) को त्रिकरण-त्रियोग से पालन करने वाला सर्वविरति-साधु-श्रमण-भिक्षु और देशतः परिपालन करने वाला देशविरति-श्रमणोपासक या श्रावक कहलाता है । 1. अहिंसा - पांच यमों में प्रथम स्थान अहिंसा का है । “प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा" अर्थात् प्रमत्तयोग से होने वाले प्राणवध को, वह सूक्ष्म का हो या बादर का -त्रस का हो या स्थावर का, हिंसा कहते हैं । हिंसा की व्याख्या-कारण और कार्य इन दो भेदों से की गई हैं । प्रमत्तयोग-रागद्वेष या असावधान प्रवृत्तिकारण हैं और हिंसाकार्य । तात्पर्य यह है कि प्रमत्तभाव में होने वाले प्राणी वध को हिंसा कहते हैं । ठीक इससे विरूद्ध अप्रमत्तभाव में रमण करते हुये रागद्वेषावस्था से परे रहकर प्राणिमात्र को कष्ट नहीं पहुंचाना अहिंसा है । 2. सत्य-असदभिधानमनृतम् । असत्य बोलने को अनृत कहते हैं । भय, हास्य, क्रोध, लोभ, राग और द्वेषाभिभूत हो सत्य का गोपन करते हुये जो वचन कहा जाय वह असत्य है । और विचारपूर्वक, निर्भय हो, क्रोधादि के आवेश से रहित हो तथा अयोग्य प्रपंचों से रहित होकर जो वचन हित, मित और मधुर गुणों से समन्वित कर के कहा जाय वह सत्य है । वह सत्य भी असत्य है कि जो पराये को दुःखदायी सिद्ध हो । सत्य के श्री स्थानाङ्गसूत्र में दस प्रकार दिखलाये हैं । 1. जनपद सत्य । 2. सम्मत्त सत्य । 3. स्थापना सत्य । 4. नाम सत्य । 5. रूप सत्य । 6. प्रतीत सत्य । 7. व्यवहार सत्य। 8. भाव सत्य | 9. योग सत्य और 10. उपमान सत्य । 3. अस्तेय - "अदत्तादानं स्तेयम्" वस्तु के स्वामी की आज्ञा के बिना ही वस्तु ग्रहण करना, फिर वह अल्प हो या बहुत, पाषाण हो या रत्न, छोटी हो या बड़ी, सजीव हो या अजीव उसको रागवश या द्वेष-वश होकर लेना स्तेय-तस्कर वृत्ति है । धन यह मनुष्यों का बाह्य प्राण हैं, अंतएव उसे उसके स्वामी की आज्ञा के बिना लेना प्रत्यक्ष रूप से हिंसा है । 4. ब्रह्मचर्य - "मैथुनमब्रह्मः" मैथुनवृत्ति को अब्रह्म कहते हैं । याने कामवासनामय प्रवृत्तियों में प्रवर्तमान रहना अब्रह्म है और कामवासना की कुप्रवृत्तियों से त्रिकरण-त्रियोगतः परे रहना ब्रह्मचर्य है । श्रीसूत्रकृतांग सूत्र में कहा है कि - "तवेसु उत्तमं बम्भचेरं" तपों में उत्तम ब्रह्मचर्य हैं | श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र में ब्रह्मचर्य का महत्व दिखलाते हुये कहा गया है कि - "ब्रह्मचर्य का श्रेष्ठ प्रकार से परिपालन करने से शील, तप, विनय,संयम, क्षमा, निर्लोभता और गुप्ति इन सब की आराधना सुलभ बन जाती है । ब्रह्मचारी को इस लोक में और परलोक में यशकीर्ति और लोक में विश्वासपात्रता मिलती है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 2 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ I 5. अपरिवाह (अकिंचनता) सुच परिवग्रहः । संसार के समस्त लौकिक पदार्थों में मूर्च्छा आसक्ति भाव रखना परिग्रह है । फिर वह भले अल्प हो या बहुत, सचित हो गया अचित्त, अल्पमूल्य हो या बहुमूल्य । इन का संग्रह परिग्रह है । परिग्रह का त्याग अनासक्ति भाव से करना और उसकी फिर कभी त्रिकरण- त्रियोग से चाहना नहीं करना अपरिग्रह व्रत है । श्रीवीतराग प्रवचन में परिग्रहवृत्ति (संग्रहवृत्ति) को आत्मा के लिये अत्यन्त घातक कहा गया है । जब से परिग्रहवृत्ति पोषित होती है, तभी से आत्मा का अधःपतन प्रारम्भ हो जाता है और अपरिग्रहवृत्ति आत्मा को तृष्णा पर विजयी बना कर उन्नत बनाती है । जैनागमों में उक्त पांचों महाव्रतों की पांच-पांच भावना कही गई हैं। जो महाव्रत पालक को अवश्य आदरणीय 1. - इर्यासमिति, मनोगुप्ती, वचनगुप्ती, आलोकित भोजन पान और आदानमण्ड - मात्रनिक्षेपन समिति, ये पांच भावनाएं प्रथम (अहिंसा) महाव्रत की हैं । 2. अनुविधिभाषण, क्रोधप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान, भयप्रत्याख्यान और हास्यप्रत्याख्यान, भयप्रत्याख्यान और हास्यप्रत्याख्यान ये पांच भावनाएं द्वितीय महाव्रत की हैं। 3. अनुवीचि अवग्रह याचना अभीक्ष्णावग्रहयाचना, अवग्रहावधारणा, साधर्मिकावग्रह याचना और अनुज्ञापित पानभोजन, ये पांच भावना तृतीय महाव्रत की हैं । 4. स्त्री- पशु नपुंसकसेवित शय्या-आसन त्याग, स्त्रीकथावर्जन, स्त्रीअंगप्रत्यंगदर्शन त्याग, मुक्त-रति-विलासस्मरणत्याग और प्रणीतरस पौष्टिक आहार त्याग, ये पांच भावनाएं चतुर्थ महाव्रत की है । 5. श्रोत्र, चक्षु, प्राण, रसना और स्पर्शेन्द्रिय जन्य शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के विषय में अनासक्ति राग का त्याग, ये पांच भावनाएं पांचवें महाव्रत - अपरिग्रह व्रत की है । इस तरह उक्त पांच यमों (सार्वभौम महाव्रतों) की पांच-पांच भावनाएं हैं। वस्तुत्व के पुनः पुनः अधिचिन्तन करने को भावना कहते हैं । जिस प्रकार खड़ा किया हुआ तम्बू बिना आधार (तनें) लगे नहीं ठहर कर गिर जाता है, वैसे ही महाव्रतों को ग्रहण करने के पश्चात् उसे भावनारूप तने नहीं लगेंगे तो सम्भव है साधक साधना से च्युत हो जाय अतः उक्त भावनाओं का अभ्यास साधक को करना अत्यावश्यक माना गया है । in Education उक्त पांचों महाव्रतों के विषय में जैनागम और पातंजलयोगदर्शन में प्रायः वर्णन साम्यता है । योग में अधिकार प्राप्त करने की इच्छा रखने वालों का उक्त अहिंसादि पांच यमों का यथावत् पालन करना प्रथम कर्तव्य है । जब साधक व्यक्ति अहिंसादि के सुगमानुष्ठानार्थ एतद्विरोधि हिंसा, असत्य, स्तेय मैथुन और परिग्रहवृत्ति का सर्वथा त्याग कर देता है, तब उसे एक अनुपम आनन्द प्राप्त होता है जिसका वर्णन अवर्णनीय है । हेमेला ज्योति *हेलेर ज्योति 3 हेमेल ज्योति ज्योति www.jinelibrary Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ भारतीय ज्योतिष में जैन मुनियों का योगदान .... ज्योतिषाचार्य मुनि जयप्रभविजय 'श्रमण मानव स्वभाव जिज्ञासु है । उसकी इस जिज्ञासु स्वभाव के कारण ही ज्ञान की विभिन्न शाखाओं का जन्म हुआ । ज्ञान की एक शाखा का नाम 'ज्योतिष विद्या है | ज्योतिष विद्या के माध्यम से मानव भूत, वर्तमान एवं भविष्य काल की बातें जानना चाहता है । ज्योतिष शास्त्र या ज्योतिष विद्या की जब उत्पत्ति की बात आती है, तो हम पाते हैं – “ज्योतिषां सूर्यादि ग्रहाणां बोधक शास्त्रम्" । अर्थात् जो शास्त्र सूर्यादि ग्रह और काल का बोध कराने वाला है । उसे ज्योतिष शास्त्र कहा गया है । इस शास्त्र के दो रूप माने गये हैं - 1. बाह्य रूप 2. आम्यंतरिक रूप। बाह्य रूप के अंतर्गत ग्रह, नक्षत्र, धूमकेतू आदि ज्योतिः पदार्थों का निरूपण एवं गृह नक्षत्रों की गति, स्थिति एवं उनके संचारानुसार शुभाशुभ फलों का कथन किया जाता है | आभ्यंतरिक रूप में समस्त भारतीय दर्शन आ जाता है । कुछ मनीषियों के मतानुसार नभोमंडल में स्थित ज्योतिः संबंधी विविध विषयक विद्या को ज्योतिर्विद्या कहते हैं अर्थात जिस शास्त्र में इस विद्या का संपूर्ण वर्णन रहता है, उसे ज्योतिष शास्त्र कहते हैं । इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र की व्युत्पत्ति के दो लक्षण हो जाते हैं । इनमें मात्र इतना ही अंतर है कि, पहिले में गणित और फलित दोनों प्रकार के विज्ञानों का समन्वय किया गया है और दूसरे में खगोल ज्ञान पर ही दृष्टिकोण रखा गया है । भारतीय ज्योतिष की परिभाषा के स्कन्ध पंच सिद्धांत, होरा, संहिता, प्रश्न और शकुन ये अंग माने गये हैं । यदि विराट पंच स्कन्धात्मक परिभाषा का विश्लेषण किया जाय तो आज का मनोविज्ञान, जीवविज्ञान, पदार्थ विज्ञान, रसायन विज्ञान, चिकित्सा शास्त्र आदि भी इसी के अंतर्भूत हो जाते हैं । वैसे एक बात स्पष्ट है कि, ज्योतिष शास्त्र की परिभाषा समय-समय पर विभिन्न रूपों में मानी जाती रही हैं। उस पर यहाँ विचार करना प्रासंगिक प्रतीत नहीं होता । प्रारंभिक काल की दृष्टि से देखें तो जैन मान्यता की दृष्टि से ज्योतिष तत्त्व पर सुंदर प्रकाश पड़ता है । जैन मान्यता के अनुसार यह संसार अनादिकाल से चला आ रहा है। इसमें न कोई नवीन वस्तु उत्पन्न होती है और न किसी का विनाश ही होता है, केवल वस्तुओं की पर्यायों में परिवर्तन होता रहता है । इस संसार का कोई सृष्टा नहीं है, वह स्वयं सिद्ध है । जैन साहित्य में कुलकरों के युग में ज्योतिष विषयक ज्ञान की शिक्षा देने के उल्लेख है । यदि जैन अंग साहित्य का अनुशीलन किया जाए तो, हम पाते हैं कि उसमें नवग्रहों का ईस्वी सन् से हजारों वर्ष पूर्व स्पष्ट उल्लेख होने लगा था । जैन आगम में 'जोईसंग विउ' शब्द आया है । भाष्यकारों ने इस शब्द का अर्थ ग्रह, नक्षत्र, प्राकीर्णक और ताराओं विभिन्न विषयक ज्ञान के साथ राशि और ग्रहों की सम्यक स्थिति के ज्ञान को प्राप्त करना किया है। जैन ग्रंथों में उत्तरायण और दक्षिणायन को स्थिति विस्तार से बताई है । सूर्य-चंद्रमा आदि समस्त ज्योतिमंडल जम्बूद्वीप के मध्य स्थित सुमेरू पर्वत की परिक्रमा किया करता है । यहां गमन मार्ग की भी चर्चा की गई हैं। स्थानांग सूत्र में पांच वर्ष का एक युग बताया गया है । ज्योतिष की दृष्टि से युग की अच्छी मीमांसा की गई है । वहां पंच संवत्सरात्मक युग के पांच भेद हैं - नक्षत्र युग प्रमाण, लक्षण और शनि । युग के भी पांच भेद बताये गये हैं । चंद्र, चंद्र, अभिवर्द्धित चंद्र और अभिवर्द्धित । इसी प्रकार समवायांग में बताया गया है : पंच संवच्छरियस्सणं जुगस्स रिउमासेणं मिचच माणस्स एगसट्ठि उ ऊमासा | तात्पर्य यह है कि, पंच वर्षात्मक एक युग होता है । इस युग के पांच वर्षों के नाम चंद्र, चंद्र, अभिवर्द्धित चंद्र और अभिवर्द्धित बताये गये हैं । पंच वर्षात्मक युग में इकसठ ऋतु मास होते हैं । समवायांग और सूयगडांग में दिनरात की व्यवस्था का विवरण भी मिलता है । इसके पश्चात् की स्थिति का हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 4 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Pww.limelibrate Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ अवलोकन करते हैं तो, पाते हैं कि, ऋषिपुत्र, भद्रबाहु और कालकाचार्य ने ज्योतिष के अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की । कालकाचार्य ने तो विदेशों में भ्रमण कर अन्य देशों के ज्योतिषवेत्ताओं के साथ रहकर प्रश्नशास्त्र और रमलशास्त्र का परिष्कार कर भारत में इनका प्रचार किया । इस अवधि में ज्योतिषशास्त्र विषयक ग्रंथों का प्रणयन भी हुआ । अब हम प्रारंभिक जैन ज्योतिष साहित्य का विवरण देकर कुछ उन जैन मुनियों का उल्लेख करेंगे, जिन्होंने ज्योतिष विद्या के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया है । वेदांग ज्योतिष पर अन्य ग्रंथों के प्रभाव की चर्चा करते हुए पं. नेमिचन्द्र शास्त्री ने लिखा है कि, वेदांग ज्योतिष पर उसके समकालीन षटखण्डागम में उपलब्ध ज्योतिष चर्चा सूर्य प्रज्ञप्ति एवं ज्योतिष करण्डक आदि जैन ज्योतिष ग्रंथों का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है । जैन ग्रंथ यतिवृषभ का तिलोयपण्णति, सूर्यप्रज्ञप्ति और चंद्रप्रज्ञप्ति में सामान्य जगत स्वरूप, नारक लोक, भवनवासी लोक, मनुष्य लोक, व्यन्तर लोक, ज्योतिर्लोक, सुरलोक, सिद्धलोक आदि का विस्तार से वर्णन पाया जाता है । जैन करणानुयोग या प्राकृत लोकविभाग ग्रंथ उपलब्ध हो जाते तो, यतिवृषभ के समय नक्षत्रों, राशियों और ग्रहों के पूर्ण विकास की स्थिति पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । सूर्यप्रज्ञप्ति और चंद्रप्रज्ञप्ति में भी ज्येतिष विषयक अच्छी जानकारी उपलब्ध होती है । इसी प्रकार ज्योतिषकरण्डक नामक ग्रंथ जिस पर पादलिप्तसूरि की टीका का उल्लेख है, भी ज्योतिष विद्या की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है । इसे ज्योतिष विद्या का मौलिकग्रंथ माना गया है । ऋषिपुत्र :- ऋषिपुत्र जैन धर्मावलंबी थे और ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे । केटालोगस, केटालोगोरम में इन्हें आचार्य गर्ग का पुत्र बताया गया है । आर्यभट्ट के पूर्व हुए ज्योतिषयों में गर्ग की चर्चा आती है । कुछ विद्वान इन्हें गर्ग के पुत्र के स्थान पर शिष्य मानते हैं । अभी ऋषिपुत्र का निमित्त शास्त्र उपलब्ध है । मदनरत्न नामक ग्रंथ में इनके द्वारा रचित् एक संहिता का उल्लेख है । ऋषिपुत्र का प्रभाव वराहमिहिर की रचनाओं पर स्पष्ट दिखाई देता है । इनका समय ई. पूर्व 180 या 100 बताया गया है । कालकाचार्य :- ये निमित्त और ज्योतिष के विद्वान थे । जैन परंपरा में ज्योतिष के प्रवर्तकों में इनका मुख्य स्थान है । यदि ये निमित्त और संहिता का निर्माण नहीं करते तो उत्तरवर्ती जैन लेखक ज्योतिष को पापश्रुत समझकर छोड़ देते। ये धारावास के राजा वयरसिंह के पुत्र थे । इनकी माता का नाम सुरसुंदरी और बहिन का नाम सरस्वती था । वराहमिहिराचार्य ने वृद्धजातक में कालक संहिता का उल्लेख किया है । यह संहिता उपलब्ध नहीं है । वीरसेन :- वीरसेन चंद्रसेन के प्रशिष्य और वसुनंदी के शिष्य थे । इन्होंने स्वयं को गणित, ज्योतिष, न्याय, व्याकरण और प्रमाणशास्त्रों में निपुण और सिद्धांत एवं छंद शास्त्र का ज्ञाता बताया है । इन्होंने ज्योतिष और निमित्त संबंधी प्राचीन मान्यताओं का स्पष्ट विवेचन किया है । इसके अतिरिक्त नक्षत्रों के नाम, गुण, स्वभाव, ऋतु, अयन और पक्ष का विवेचन भी किया है । इन्होंने धवलाटीका की रचना की । इनका समय ईसा की नवमीं सदी हैं । महावीराचार्य :- ये राष्ट्रकूट वंश के अमोघवर्ष राजा के समय हुए । इनका समय ईसा की नवमीं सदी माना जाता है । इनके द्वारा रचित् गणितसार एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है । अधिक जानकारी के लिये देखें :- गणित सार-संग्रह - सं डॉ0 ए0 एन0 उपध्ये । इनकी ज्योतिर्ज्ञान निधि और जातक तिलक नामक दो और रचनाओं का भी उल्लेख मिलता है। चद्रेसन :- केवलज्ञान होरा नामक एक विशालकाय ग्रंथ के ये रचनाकार हैं । यह एक संहिता ग्रंथ है । इसमें होरा संबंधी कुछ भी नहीं है । दक्षिण में रचना होने के कारण कर्नाटक प्रदेश के ज्योतिष पर इसका पूर्ण प्रभाव है । इस ग्रंथ में अनुमानित तीन हजार श्लोक हैं । इस ग्रंथ में हेमप्रकरण, दाम्यप्रकरण, शिलाप्रकरण, मृत्तिका प्रकरण, वृक्ष प्रकारण, कापसि गुल्मवल्कल, रोम चर्म पर प्रकरण, संख्यांक प्रकरण, नष्ट द्रव्य प्रकरण, निर्वाह प्रकरण, अपव्य हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 5 हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति anarasation Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ प्रकरण, लाभालाभ प्रकरण, स्वरप्रकरण, स्वप्न प्रकरण, वास्तुविद्या प्रकरण, भोजन प्रकरण देह लोक दीक्षा प्रकरण, अंजन विद्या प्रकरण एवं विषय विद्या प्रकरण आदि है । श्रीधराचार्य :- ये कर्नाटक के जैन ब्राह्मण थे और ज्योतिष के विशिष्ट विद्वान थे । ये बलदेव नाड़ान्तानि नरिगुन्द के निवासी थे । इनके पिता का नाम बलदेव शर्मा और माता का नाम अव्वोका था । ये शैव थे, किंतु बाद में जैन धर्मानुयार्य हो गये थे । इसका रचनाकाल 1049 है । जातक तिलक कन्नड़ भाषा का ग्रंथ है । यह जातक संबंधी रचना है। इसमें लग्नग्रह, ग्रहयोग और जन्मकुण्डली संबधी फलादेश का कथन है । ज्योतिर्ज्ञान विधि या श्रीकरण में एक प्रकरण प्रतिष्ठा मुहूर्त का है । इसमें संवत्सरों के नाम, नक्षत्र नाम, योगना, करण नाम तथा उनका शुभाशुभ दिया गया है । गणित सार गणित का अद्भुत ग्रंथ है । ये अपने समय के धुरंधर विद्वान है । भटवोसरी:- ये दिगम्बराचार्य दामनन्दी के शिष्य थे । इन्होंने आयज्ञान तिलक की रचना की । यह प्रश्न विद्या से संबंधित ग्रंथ है । इसकी गाथा संख्या 415 है और इसमें 25 प्रकरण है । इनका संबंध उज्जैन से भी बताया जाता है। इनका समय दशमीं सदी माना जाता है । दुर्गदव :- ये संयमदेव के शिष्य थे । ये उत्तरभारत में कुम्भनगर में रहते थे । वहाँ के राजा का नाम लक्ष्मीनिवास था। इन्होंने रिक्त समुच्चय की रचना 1089 में की थी । अन्य रचनाओं में अर्धकाण्ड और मंत्र महोदधि है । इनकी रचनाओं से भी ज्योतिष विद्या विषयक अच्छी जानकारी मिलती है । मल्लिषेण :- इन्होंने प्रश्नशास्त्र, फलित ज्योतिष में संबंधित 'आयसद्भाव' नाम महत्वपूर्ण ग्रंथ की रचना की । ये दक्षिण भारत के धारवाड़ जिलान्तर्गत गदग तालुका के रहने वाले थे । इनके पिता का नाम जिनसेन सूरि था इनका समय सन् 1043 माना गया है । ग्रंथ के अंत में कहा गया है कि, ग्रंथ के द्वारा भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों कालों का ज्ञान हो सकता है । साथ ही इन्होंने इस विद्या को अन्य को न देने के लिए भी कहा है । राजादित्य :- इनके विषय में कहा जाता है कि, कन्नड़ साहित्य में गणित का ग्रंथ लिखने वाले ये सबसे पहले विद्वान थे। इनके द्वारा रचित व्यवहार गणित, क्षेत्र गणित, व्यवहार रत्न और जैन गणित टीकोदाहरण, चित्रसुगे एवं लीलावती प्राप्त है । इनके समस्त ग्रंथ कन्नड़ में है । श्रीपति इनके पिता एवं वसन्ता इनकी माता थी । कोडिमण्डल के पूदिनबाग में इनका जन्म हुआ था । इनका समय ईसा की बारहवीं सदी माना जाता है । उदयप्रभ :- ये विजयसेन सूरि के शिष्य थे । इनका समय ई0 सन् 1220 बताया जाता है । आरंभसिद्धि अपरनाम व्यवहारचार्य नाम ज्योतिष ग्रंथ की इन्होंने रचना की जो महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है । इस ग्रंथ पर वि० से0 1514 में रत्नशेखरसूरि के शिष्य हेमहंस गणि ने एक विस्तृत टीका लिखी है । इन्होंने भुवनदीप या ग्रहभाव प्रकाश नाम ज्योतिष ग्रंथ की भी रचना की । इस पर सिंहतिलक सूरि ने सं0 1326 में विवृत्ति नाम टीक लिखी है । भुवनदीपक में ज्योतिष की ज्ञातव्य सभी बातें इस ग्रंथ के द्वारा जा सकती है । नरचंद्र उपाध्याय :- इन्होंने ज्योतिष शास्त्र के अनेकग्रंथों की रचना की । वर्तमान में बेड़ा जातक वृत्ति प्रश्न जातक, प्रश्न चतुविंशतिका, जन्म समुद्र सटीक, लग्नविचार, ज्योतिष प्रकाश उपलब्ध है । ये सिंहसूरि के शिष्य थे । बेड़ा जातक वृत्ति की रचना माघ सूरि अष्टमी सं0 1324 रविवार के दिन हुई । इसमें 1050 श्लोक हैं । इनकी एक अन्य ज्योतिष विषयक ज्ञानदीपिका भी बताई जाती है । बेड़ाजातक वृत्ति द्वारा फलित ज्योतिष का आवश्यक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । समन्तभद्र :- इन्होंने केवलज्ञान प्रश्न चूड़ामणि ग्रंथ की रचना की । ताड़पत्रीय ग्रंथ में इस ग्रंथ के रचनाकार का नाम स्पष्ट रूप से समन्तभद्र लिखा है, परंतु कौन से? रचना शैली दृष्टि से ग्रंथ 12वीं, 13वीं सदी का प्रतीत् होता हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति Jisamajdsab Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ उपर्युक्त विद्वानों के अतिरिक्त और भी अनेक जैन विद्वान मुनियों ने ज्योतिष शास्त्र विषयक ग्रंथों की रचना कर उल्लेखनीय योगदान दिया है । यथा हेमप्रभसरि, हीरकडवा, मेघ विजयगणि, महिमोदय उभयकशल, लब्धिचंद्रगणि आदि। वास्तव में देखा जाए तो इस विषय पर अभी गहन अनुसंधान की आवश्यकता है । यहाँ एक सारणी तैयार की गई है । जिज्ञासु विद्वान आगे अनुसंधान करेंगे । ऐसा विश्वास है। संदर्भ ग्रंथ 1. भारतीय ज्योतिष - पं. नेमिचंद्र शास्त्री । 2. बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ । 3. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान - डॉ. हीरालाल जैन | 4. वर्णी अभिनंदन ग्रंथ ।। 5. प्राकृत साहित्य का इतिहास | विक्रम स्मृति ग्रंथ । 6. 7. 8. 9. जैनधर्म का प्राचीन इतिहास भाग-2 परमानंद शास्त्री । जैन साहित्य और इतिहास । गणित सारसंग्रह -सं. डॉ. ए.एन उपाध्याय । 10. जैन सिद्धांत भास्कर भाग -14 दिनांक 01.13.48 । 11. सिंघी जैन ग्रंथमाला ग्रंथांक 21 । 12. जैनिज्म इन राजस्थान - डॉ. के. सी. जैन । 13. केवलज्ञान चूड़ामणि । 14. जैन वाड्मय का प्रमाणिक सर्वेक्षण । 15. त्रैलोक्यप्रकाश साथ ही कुछ अन्य ग्रंथ जैसे – ज्योतिष सार संग्रह, जिनरत्न शेष, हरिकलश जैन ज्योतिष । हिस्ट्री ऑफ क्लासिकल संस्कृत लिट्रेचर आदि - आदि । पुण्य और पाप ये दोनों सोने और लोहे की बेड़ी के समान हैं और मोक्षार्थियों के लिये ये दोनों बाधक हैं। ज्ञानी पुरुश अपने अनुभव के द्वारा पुण्य और पाप को निः ोश करने को यथा क्यि प्रयत्न गील रहते हैं। साथ ही इन्द्रियजन्य भोग-विलासों को सद्गुणी घातक समझ कर छोड़ देते हैं। इस प्रकार प्रयत्न लि रहने से सुख-दुःख का ताता समूल नश्ट होकर निःसंदेह मोक्षप्राप्ति होती है। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेन्द ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 7 हेमेन्द ज्योति हेमेन्दा ज्योति Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 4 वंदनीय कौन है? मुनि पुष्पेन्द्र विजय आम्र वृक्ष को मनमोहक शीतल छाया में बैठकर अनुभवी गुरुदेव ने अपने शिष्यों से प्रश्न किया कि, हे आयुष्मन् शिष्यो! बताओ इस जगत् में सबका स्नेह कौन प्राप्त कर सकता है ? एक शिष्य अपने स्थान से उठकर विनम्र शब्दों में हाथ जोड़कर बोला "गुरुदेव ! सहनशील मानव सबका स्नेह प्राप्त कर सकता है ।" गुरुजी ने कहा - "उत्तम – उत्तम ! तुम बैठो ।” पुनः गंभीर मुद्रा धारण करते हुए उन्होंने पूछा - "बताओ कौन लोकप्रिय बन सकता है ?" अब की बार ज्ञानचंद अपने स्थान से उठा एवं विनयपूर्वक बोला, जो सेवा करता है वह लोकप्रिय बन सकता है । आज गुरुजी प्रसन्न मुद्रा में थे । अपने शिष्यों को संसुस्कारित करने की दृष्टि से नैतिक प्रश्न किये जा रहे थे । शिष्यगणों को भी आंनद आ रहा था। गुरुजी ने अगला प्रश्न किया-बताओ सबसे चतुर व्यक्ति कौन कहलाता है ? एक शिष्य उठा और बोला 'धनवान' व्यक्ति सबसे चतुर होता है, यह उत्तर सुनकर गुरुजी ने कहा गलत । सब शिष्य उस शिष्य की हंसी उड़ाने लगे । वातावरण एकाएक बदल गया । गुरुजी ने सबको संबोधित करते हुए कहा, कि तुम सबने अपने भाई की खिल्ली उड़ाकर अपराध किया है । शान्त रहकर तुम लोगों को भी विचार करना था, परन्तु तुम सबने गलत उत्तर देने के लिए धनचंद की ओर देखकर उपहास किया, यह गलत पद्धति है। मेरा मन तुम सबके प्रति असन्तुष्ट हुआ है । यह सुनकर सब शिष्यगण एक साथ उठे एवं अपने अपराध के लिए सबने गुरुजी से क्षमा याचना की। सब शिष्यों का यह उत्तम व्यवहार देखकर पुनः गुरुजी प्रसन्न होते हुए बोले बैठो – बैठो ! बस, तुम लोगों ने अपनी-अपनी भूल के लिए क्षमा मांगी है अतः क्षमा मांगना एवं क्षमा देना भी 'मानवता' है । वातावरण पुनः पूर्ववत् बन गया था । कटु प्रसंग मधुर क्षणों में परिवर्तित हो गया था । गुरुजी ने पुनः वही प्रश्न दोहराया कि सबसे चतुर व्यक्ति कौन है ? अब की बार फूलचंद खड़ा हुआ एवं बोला जो व्यक्ति ‘समयज्ञ' होता है वही सबसे चतुर व्यक्ति होता है । गुरुजी ने सकारात्मक ढंग से सिर हिलाकर स्वीकृति प्रदान की । इस उत्तर से सब कोई संतुष्ट हुए । प्राकृतिक वातावरण अनुकूल था । शोरगुल जहाँ अधिक होता है वहां ज्ञानार्जन भी नहीं हो सकता है । गुरुजी ने कहा अब मेरा अंतिम प्रश्न है जिसका प्रत्युत्तर सोच समझकर देना । प्रश्न है जगत् में कौन वंदनीय है? प्रश्न जटिल था, सारे शिष्य मौन बैठे रहे । किसी ने उत्तर देने का साहस भी नहीं किया । सब सोच जरूर रहे थे किंतु कुछ समझ में नहीं आ रहा था । गुरुजी ने ऐसी स्थिति देखकर सबको स्नेह से संबोधित करते हुए कहा कि प्रिय आयुष्मन् ! शिष्यो ! जिस व्यक्ति का आचरण अर्थात् शील संस्कार श्रेष्ठ होता है, जो व्यक्ति चरित्रवान् होता है वही जगत् में वंदनीय है । चरित्रवान् को वंदना करने से कर्म भी करते हैं । तथा वंदनकर्ता को भी जीवन निर्मलता की शिक्षा मिलती है, साथ ही जीवन निर्माण की दिशा में नैतिक बल प्राप्त होता है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 8 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ श्री मोहनखेड़ा जैन तीर्थ ! संक्षिप्त इतिहास : मुनि पीयूषचन्द्रविजय तीर्थ स्थानों की महिमा अपरम्पार है । इसी बात को ध्यान में रखते हुए किसी कवि ने तीर्थ की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा है : श्री तीर्थपांथ रजसा विरजी भवन्ति, तीर्थसु बंधमणतो न भवे भमन्ति | द्रव्यव्ययादिह नराः स्थिर संपदः स्युः, पूज्या भवन्ति जगदीश मथार्चयन्ति || इसका तात्पर्य यह है कि, तीर्थ के मार्ग की रज से पापों का नाश होता है । जो तीर्थ भ्रमण करता है, वह संसार भ्रमण नहीं करता । तीर्थ में धन-लक्ष्मी खर्च करने से सम्पत्ति स्थिर रहती है । कभी नहीं घटती । तीर्थ यात्रा में तीर्थंकर भगवंतों की पूजा, अर्चना, ध्यान और सेवना करने से पूजक पूज्य बनता है । तीर्थ के भेद :- जैसा कि ऊपर बताया गया है, उस आधार पर यह कहा जा सकता है कि संसार सागर से भवपार होने के लिये तीर्थ ही एक मात्र आधार है । जब हमारे मानस पटल पर तीर्थ और उसके भेद या प्रकार की बात उभरती है तो हम पाते हैं कि तीर्थ के दो भेद हैं । एक जंगम तीर्थ और दूसरा स्थावर तीर्थ । जिन आगम, जिनमूर्ति, जिनमंदिर ये तो हैं स्थावर तीर्थ और साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ को जंगम तीर्थ कहा गया है। तीर्थ यात्रा का फल :- तीर्थ के विषय में एक अन्य बात यह भी कही गई है कि व्यक्ति द्वारा अन्य स्थान पर किये गये किसी भी प्रकार के पाप की मुक्ति तीर्थ यात्रा करने से हो जाती है । यथा : अन्य स्थाने कृतं पापम, तीर्थ स्थाने विमुच्यते । मनुष्य यह तो नहीं जानता कि उसने कौनसा पाप कहाँ किया है । कदाचित, जानता भी है तो वह उस पर ध्यान नहीं देता । जाने अनजाने में किये गये पापों से मुक्त होने के लिये तीर्थ यात्रा अवश्य करनी चाहिये । इस कलियुग में मुक्ति प्राप्त करने वाले इच्छुक भव्य प्राणियों के लिये तीर्थ यात्रा सर्वश्रेष्ठ साधन है । जिनेश्वर परमात्मा की कल्याणक भूमि एवं महान तपस्वी पूज्य मुनि भगवंतों एवं गुरु भगवंतों की तपोभूमि के प्रभाव से तीर्थ स्थल सुख एवं शांतिप्रदान करने वाले बन जाते हैं । शाश्वत तीर्थ श्री सिद्धाचल की महिमा अपरम्पार है । तीर्थ स्थापना :- प्रातः स्मरणीय विश्व पूज्य श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. ने मालव भूमि पर विचरण करते हुए जैन शासन की ध्वजा फहराई और तपश्चरण तथा धर्मोपदेश द्वारा उस धरा को पावन किया। वि. सं. 1940 में आपश्री ने राजगढ़ जिला धार (म.प्र.) से पश्चिम दिशा की ओर सिद्धाचल स्वरूप शत्रुजयावतार भगवान् श्री ऋषभदेव के जिनालय की स्थापना करवाई । किसी समय राजगढ़ के समीपवर्ती मनोहारी घाटियों वाले स्थान पर बंजारों की एक छोटी सी बस्ती थी, जो खेड़ा के नाम से जानी जाती थी । अपने विहारक्रम में परमश्रद्धेय गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. इस क्षेत्र में पधारे । खेड़ा गांव के समीपवाली घाटी पर चलते समय एकाएक आपश्री के पांव रुक गये । यह अप्रत्याशित था । श्रद्धेय गुरुदेव महायोगी थे । उन्होंने अपने ध्यान बल से देखा कि इस भूमि पर एक महान तीर्थ की संरचना होने वाली है । उन्होंने वहां एक ऐसा दिव्य प्रकाश पुंज भी देखा, जो परम सुखशांति देने वाला था। श्रद्धेय गुरुदेव वहां से राजगढ़ पधारे और वहां के तत्कालीन जमींदार श्रीमंत लुणाजी पोरवाल से कहा -- "श्रावकवर्य'! प्रातःकाल उठकर खेड़ा जाना । वहां घाटी पर जहाँ भी कुमकुम का स्वस्तिक दिखाई दे, उस स्थान को चिन्हित कर आना । उस स्थान पर आपको एक मन्दिर का निर्माण करवाना है ।" हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति9 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति diatel wirelibrary Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ श्रद्धेय गुरुदेव के आदेशानुसार श्री लुणाजी पोरवाल दूसरे दिन प्रातःकाल खेड़ा गये । वहां उन्हें एक स्थान पर कुमकुम का स्वस्तिक दिखाई दिया । श्री लुणाजी पोरवाल ने श्री नवकार महामंत्र का स्मरण कर श्रद्धेय गुरुदेव के आदेशानुसार उसी समय खात मुहूर्त कर दिया । वि. सं. 1940 मृगशीर्ष शुक्ला सप्तमी के शुभ दिन भगवान श्री ऋषभदेव आदि अनेक जिनबिम्बों की भव्य अंजनशलाका कर प्रतिष्ठा की गई । श्रद्धेय गुरुदेव ने प्रतिष्ठोपरांत श्रीसंघ के सम्मुख घोषणा करते हुए फरमाया कि यह मन्दिर आज से एक महान तीर्थ के नाम से पुकारा जाय । जिस प्रकार सिद्धाचल तीर्थ की महिमा है, उसी प्रकार भविष्य में इस तीर्थ की महिमा होगी । अतः इस तीर्थ को आज से श्री मोहनखेड़ा तीर्थ के नाम से पुकारा जाय । यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक ही होगा कि सिद्धाचल तीर्थ के 108 नाम हैं, उनमें एक नाम मोहनगिरि है । ऐसा कहा जाता है कि इस भूमि पर श्वेत मणिधर सर्पराज का निवास था । आज भी जिनालय के पीछे रायण वृक्ष के नीचे स्थित युगादिदेव के पगलिया जी की छत्री के पास उनकी छोटी-सी बांबी पर घुमट शिखरी है । प्रतिष्ठोत्सव के पश्चात् जैन श्रावकगण सिद्धाचल रूप इस तीर्थ की यात्रार्थ आने लगे । श्रद्धेय गुरुदेव का स्वर्गगमन :- परम श्रद्धेय गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. सं. 1963 पौष शुक्ला षष्ठी की मध्यरात्रि में राजगढ़ में समाधिपूर्वक महाप्रयाण कर गये । चारों ओर शोक की लहर व्याप्त हो गई। पौष शुक्ला सप्तमी को श्री मोहनखेड़ा तीर्थ जिनालय के प्रांगण में हजारों गुरुभक्तों ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से श्रद्धा सहित पूज्य गुरुदेव को अंतिम बिदाई दी । पू. गुरुदेव का अंतिम संस्कार किया गया । यहां गुरुभक्तों द्वारा समाधि मंदिर का निर्माण करवाया। आजकल प्रतिवर्ष पौष शुक्ला सप्तमी को मेला लगता है और पौष शुक्ला सप्तमी गुरु सप्तमी पर्व में समारोह पूर्वक मनाया जाता है । इस दिन देश के कोने कोने से हजारों की संख्या में गुरूभक्तों का आगमन होते हैं । तीर्थ विकास :- 108 वर्ष प्राचीन श्री मोहनखेड़ा तीर्थ का वातावरण शान्त और निरोग है । प्रथम तीर्थंकर एवं तीर्थपति भगवान् श्री आदिनाथजी की प्रतिमा अलौकिक एवं दिव्य रूपधारी है । भगवान् आदीश्वर दादा प्रकट, प्रभावी एवं दर्शनार्थी को पूर्ण आनंद प्रदान करने वाले हैं । इस प्रतिमा के दिन भर में तीन रूप होते हैं । यथा :- प्रातःकाल रूप, मध्यान्ह युवा एवं सांध्यकाल में प्रौढ़ एवं गम्भीर रूप होता है । यहां के प्राचीन मन्दिर का द्वितीय जीर्णोद्धार कार्य सं. 2034 में पूर्ण हुआ और व्याख्यान वाचस्पति प. पू. आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के पट्टप्रभावक सुशिष्य कविरत्न आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के कर कमलों से पुनः प्रतिष्ठा हुई । संगमरमर पाषाण से नवनिर्मित त्रिशिखरी भव्य जिनालय में परिकर सहित मुख्य आदिनाथ एवं शंखेश्वर पार्श्वनाथजी और चिंतामणि पार्श्वनाथजी आदि भगवान् की प्रतिमाएं मुख्य रूप से बिराजमान है । सम्पूर्ण भारत में प्रथम श्वेताम्बरीय भगवान् आदिनाथ की 16 फीट | इंच की विशाल श्यामवर्णी कायोत्सर्ग मुद्रावाली प्रतिमा मुख्य जिनालय के दायी ओर विराजमान है । मन्दिर के पृष्ठ भाग में रायण पगलियाजी विराजमान है । जहां नागदेवता यदा-कदा भाग्यशाली यात्रियों को दर्शन देते हैं । जिनालय के बांयी ओर भगवान पार्श्वनाथ की 51 इंची सुन्दर प्रतिमा तथा शाश्वता चौमुखीजी विराजमान हैं। जिनालय के आगेवाले भाग में परमश्रद्धेय शासन सम्राट श्री अभिधान राजेन्द्र कोष के निर्माता गुरुदेव आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का भव्य समाधि मन्दिर हैं । श्रद्धेय गुरुदेव की नयनाभिराम प्रगट प्रभावी प्रतिमा विराजमान है । पौष शुक्ला सप्तमी को लगने वाले मेले के दिन अज्ञात शक्ति से प्रेरित इस गुरु समाधि मन्दिर में हजारों गुरुभक्त यात्रियों की उपस्थिति में अमीय वृष्टि होती है । श्रद्धेय गुरुदेव की कृपा से हजारों गुरुभक्तों की मनोकामनाएं भी पूर्ण होती है । यहां गुरुदेव के मन्दिर में गुरुभक्तों द्वारा सोलह अखण्ड ज्योति प्रज्वलित रखी हुई है । गुरुदेव के प्रभाव से रोग मुक्ति, ऋण मुक्ति आदि कार्य भी सिद्ध होकर सुख-शान्ति स्थापित होती है । पूज्य गुरुदेव के ध्यान से आध्यात्मिक आत्मशान्ति का मार्ग भी प्रशस्त होता है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 10 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ गुरु मन्दिर के सम्मुख पू. आचार्य श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का स्मृति मन्दिर है, जिससे आचार्य प्रवर श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. आचार्य श्रीमद् विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. तथा उपाध्याय श्री मोहन विजयजी म.सा. की प्रतिमाएं हैं । यहां रत्न प्रतिमाओं का एक रत्न मन्दिर हैं । जिसमें 36 रत्नमय प्रतिमाएं विविध रंगों की विराजमान हैं । साथ ही सौधर्म बृहत्तपागच्छीय परम्परा की आद्य श्रमणी श्री विद्याश्रीजी, श्री अमरश्रीजी एवं श्रीमानश्रीजी आदि की चरण पादुकाएं विराजमान हैं । मन्दिरजी के मुख्य द्वार के समीप इस तीर्थ के विकास प्रणेता एवं प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. के शिष्यरत्न व्याख्यान वाचस्पति आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का सुन्दर समाधि मन्दिर है । समीप ही धर्मशाला के प्रांगण में इस तीर्थ के आधुनिक निर्माता, प्रेरक कविरत्न आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का भव्य समाधि मन्दिर हैं । उल्लेखनीय है कि इन दोनों गुरुदेवों का महाप्रयाण इसी तीर्थ भूमि पर हुआ है । देव-गुरु और धर्म की त्रिवेणी रूप श्री मोहनखेड़ा तीर्थ आज एक विशाल और भव्यतीर्थ के रूप में विकसित हो चुका है । मध्य प्रदेश के तीर्थों की यात्रार्थ आने वाले प्रत्येक यात्री संघों को इस तीर्थ से होकर जाना पडता है । यहां की पंचतीर्थों में मांडवगढ़, भोपावर, तालनपुर एवं लक्ष्मणी तीर्थों का यह मुख्य पांचवां तीर्थ है । यहां तीर्थ यात्रियों की सुविधार्थ 350 कमरों वाली विशाल एवं आधुनिक तीन धर्मशालाएं हैं । श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर चेरिटेबल ट्रस्ट की व्यवस्था में भाताखाता एवं भोजनशला आदि निःशुल्क सुविधायें यात्रियों को प्रदान की जाती है। यहां जैन धर्म की शिक्षा के लिये श्री आदिनाथ राजेन्द्र गुरुकुल का संचालन हो रहा है। साथ ही व्यावहारिक शिक्षण के लिये शासकीय मान्यता प्राप्त हाईस्कूल भी है, जिसमें लगभग 150 से अधिक छात्र-छात्रायें अध्ययन रहा है । वर्तमान में गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा., संयम स्थविर मुनिराज श्री सौभाग्य विजयजी म.सा., ज्योतिषाचार्य मुनिराज श्री जयप्रभ विजयजी म.सा. मुनिराज श्री ऋषभचन्द्र विजयजी म.सा. आदि मुनिमंडल के मार्गदर्शन में तीर्थ क्षेत्र का विकास कार्य प्रगति पर है । स्वतंत्रता और आत्मक्ति जब तक प्रगट न कर ली जाय तब तक आत्म क्ति का चाहिये वैसा विकास नहीं हो सकता। भास्त्रों का कथन है कि सहन लता के बिना संयम, संयम के बिना त्याग, और त्याग के बिना आत्मवि वास होना असंभव है। आत्मवि वास से ही नर-जीवन सफल होता है। जिस व्यक्तिने नर-जीवन पाकर जितना अधिक आत्मवि वास प्राप्त कर लिया वह उतना ही अधिक भाांतिपूर्वक सन्मार्ग के ऊपर आरूढ हो सकता है। अतः संयमी-जीवन के लिये सर्व प्रथम मन को वा करना होगा। मन के वा होने पर इन्द्रियाँ स्वयं निर्बल हो जायंगी और मानव प्रगति के पथ पर चलने लगेगा। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 11 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 4 निस्पृह संत का राजनीतिक अवदान मुनि विमलसागर धर्म और राजनीति संसार के दो ध्रुव हैं । जब भी ये मिलते हैं, एक-दूसरे पर हावी होने की चेष्टा करते हैं। मनुष्य के चित्त को राजनीति ही प्रभावित नहीं करती, धर्म भी गहराई से परिवर्तित करने की क्षमता रखता है। सामान्यतया यह देखा जाता है कि, या तो राजनीति को धर्म मार्गदर्शित करता है अथवा धर्म में राजनीति पड़ जाती है । इतिहास साक्षी है कि जब भी धर्म ने राजनीति का पथदर्शन किया तो कई क्रान्तिकारी व युगान्तकारी परिवर्तन जगत् ने देखे और मानवता को नई रोशनी मिली, किन्तु जब भी धर्म में राजनीति ने अपने वर्चस्व को दिखाने की कुचेष्टा की तब-तब न सिर्फ धर्म की अस्मिता खण्डित हुई, बल्कि मानवता को कलंकित होना पड़ा और इतिहास में काला अध्याय लिखा गया । यह ध्रुव सत्य है कि धर्म में राजनीति का पेठना कभी कल्याणकारी नहीं होता, परन्तु मानव समाज के हित में यह भी उतना ही आवश्यक है कि धर्म राजनीति का मार्गदर्शन करें । भारत के इतिहास का यह उज्ज्वल पहलू है कि यहां समय-समय पर विभिन्न साधु-संतों और ऋषि-मुनियों ने धर्म के आधार पर राजनीति को नियंत्रित कर समाज को उपकृत किया । संसार के भोग-सुखों से अलिप्त उन धर्म - अधिनायकों के साधना के समक्ष सत्ता व शासक नतमस्तक हुए और संसार में धर्म की सर्वोपरिता सिद्ध हुई। अखण्ड भारत के इतिहास में मुगलकाल धर्म में राजनीति के हस्तक्षेप का ही नहीं, बल्कि अतिक्रमण का अध्याय है। इस दौरान् भारतीय धर्म और संस्कृति पर कई ज्यादतियां हुई । राजवाड़ों में बिखरी यहां की शासन व्यवस्था मुगलों की सत्ता को सफल होने से रोक नहीं सकी । इस दौर में आज से 471 वर्ष पूर्व विक्रम संवत् 1583 को भाद्रपद शुकल एकादशी को गुजरात के पालनपुर नगर की धन्य धर्मधरा पर हीरजी के नाम से एक युगपुरुष ने जन्म लिया, जो आगे चलकर महान जैनाचार्य हीरविजयसूरि के नाम से जगद्-विख्यात हुए । पिता 'कुरा' और माता 'नाथाबाई' के इस स्वनामधन्य सपूत के बहुमुखी व्यक्तित्व की निर्मल आभा ने तत्कालीन समाज व राजनीति को नई दिशा दी । कभी-कभी एक व्यक्ति की प्रतिभा और साधना समग्र परिवेश को अलंकृ त कर देती है । आचार्य हीरविजयसूरि के जीवन-काल से ऐसा ही फलित हुआ । अपनी तप-साधना, सांस्कृतिक निष्ठा, गहरे आत्मबल अनेकान्तवादी उदार दृष्टिकोण और स्वभाविक सज्जनता के आधार पर वे अपने युग में पर्याय के रूप में उभरे । उनका समय जैनधर्म व गुर्जर इतिहास में 'हीरयुग' के नाम से स्थापित हुआ । ऐसे अनेक अवसर आये जब तत्कालीन राजनीति हीरविजयसूरि के विराट् व्यक्तित्व के समक्ष नगण्य बन गई। हीरविजयसूरि का उद्भवकाल हिन्दू संस्कृति का संक्रमण काल था । इस कालखण्ड में अखण्ड भारतवर्ष और उसकी प्रजा ने कई उतार-चढ़ाव देखे । एक ओर दिल्ली की राजगद्दी पर मुगल बादशाह जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर का शासन था तो शौर्यभूमि मेवाड़ में हिंदूसूर्य महाराणा प्रताप अपने हक और धर्म की रक्षा के लिए सब-कुछ न्यौछावर कर रहे थे । उधर महाराव सुरताण सिरोही स्टेट के अधिपति थे । संयोग से हीरविजयसूरि इस त्रिकोणीय राजनीति के केन्द्र बिन्दु हो गये थे। अपने दरबार के रत्न सेठ थानमल की माता चंपाबाई के निरंतर 180 दिन के उपवास की तपसाधना से प्रभावित होकर अकबर ने सन् 1582 के लगभग काबुल से लौटने के बाद गुजरात के शासक शिहाबुद्दीन अहमदखान के पास फरमान भेजकर आचार्य हीरविजयसूरि को आगरा दरबार में पधारने का निमंत्रण दिया । आचार्य गुजरात के गंधार नगर से पैदल चलकर आगरा आये | शहर से 19 कि.मी. दूर फतेहपुर - सीकरी में 6 लाख लोगों के साथ स्वयं मुगल बादशाह अकबर ने नंगे पांव चलकर जब आचार्य का शाही स्वागत किया तो राज्यशासन के समक्ष धर्मशासन की महत्ता सिद्ध हुई। बस, यहीं से एक ओर मुगल शासन की व्यवस्था में महत्वपूर्ण बदलाव की शुरूआत हुई तो दूसरी ओर हिंदू-संस्कृति की गरिमा और हीरविजयसूरि की यश-कीर्ति ने ऊंची छलांग भरी । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द ज्योति 12 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ इतिहास साक्षी है कि बादशाह अकबर का सबसे अधिक सार्थक उपयोग हीरविजयसूरि ने किया । वे अहिंसा और शांति के भारतीय संस्कृति के दूत के रूप में वहां प्रस्तुत हुए । उनके प्रभाव व प्रतिबोध ने अकबर की हीन व हिंसक मानसिकता को चमत्कारिक ढंग से परिवर्तित किया । आचार्य के अनुरोध पर बादशाह ने जैन परंपरा के पर्युषण पर्व व वैदिक परंपरा के विभिन्न पर्व-त्योहारों के निमित्त प्रतिवर्ष कुल 6 माह पर्यन्त जीव- हत्या पर रोक लगाई । स्वयं अकबर ने पर्युषण पर्व के दिनों में शिकार न करने की प्रतिज्ञा ली । खम्भात की खाड़ी में मछलियों के शिकार पर भी प्रतिबंध लगाया गया। जैन व वैदिक परंपरा के सभी तीर्थों का करमोचन किया गया । प्रतिदिन 500 चिड़ियों की जिह्वा का मांसभक्षण करने वाले इस शासक ने हीरविजयसूरि के परिचय के बाद फिर कभी ऐसा न करने का संकल्प लिया । उस काल में हिन्दू बने रहने के लिये दिया जाता 'जजिया' नामक कर आचार्य के कहने से अकबर ने बंद कर दिया । यह गौरवपूर्ण तथ्य है कि आचार्य के साथ वार्तालाप के पश्चात् अकबर सर्वत्र गोरक्षा का प्रचार करने के लिए सहमत हो गया । इस प्रकार मुगल काल में पहली बार हिन्दू प्रजा को अपने आत्म-सम्मान की अनुभूति हुई । आचार्य हीरविजयसूरि के मुगल बादशाह पर बढ़ते प्रभाव से कट्टरपंथी मुल्लाओं में हड़कंप मच गया था । जून सन् 1584 में अकबर ने हीरविजयसूरि को 'जगद्गुरु' की उपाधि देकर उनका राज-सम्मान किया । ईस्वी सन् 1582 से 1586 तक आचार्य ने फतेहपुर सीकरी व आगरा के आस-पास ही विचरण कर शहनशाह अकबर को बार-बार प्रतिबोधित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया । जैन परंपरा के ऐतिहासिक ग्रन्थ तो इन घटना-प्रसंगों का उल्लेख करते ही हैं, अकबर की सभा में उद्भट्ट विद्वान अब्बुलफ़जल ने भी इन बातों का विस्तार से वर्णन किया है । उसके अनुसार अकबर को हीरविजयसूरि ने सर्वाधिक प्रभावित किया । विन्सेण्ट स्मिथ ने अपनी कृति 'अकबर' में इन सारी बातों का प्रतिपादन किया है । 'आईनेअकबरी' नामक मुगलकानीन ऐतिहासिक ग्रन्थ भी उपरोक्त सारे तथ्यों की पुष्टि करता है । अकबर के इन अहिंसक कार्यों का उल्लेख अलबदाउनी ने भी किये हैं। 1585 ईस्वी में पुर्तगाली पादरी पिन्हेरो ने भी इनमें से अधिकांश बातों का समर्थन किया है । लोकश्रुति के अनुसार हीरविजयसूरि के जीवन-प्रसंगों के साथ बादशाह अकबर को प्रभावित कर देने वाली कई चामत्कारिक घटनाएं संबद्ध है, पर उनका कोई प्रामाणिक आधार उपलब्ध नहीं है । ऐतिहासिक तौर पर यह उल्लेखनीय है कि एक वर्ष ईद के समय हीरविजयसूरि अकबर के पास ही थे । ईद से एक दिन पहले उन्होंने सम्राट से कहा कि अब वे यहां नहीं ठहरेगें, क्योंकि अगले दिन ईद के उपलक्ष्य में अनेक पशु मारे जायेंगे। उन्होंने कुरान की आयतों से सिद्ध कर दिखाया कि कुर्बानी का मांस और खून खुदा को नहीं पहुंचता, वह इस हिंसा से खुश नहीं होता, बल्कि परहेजगारी से खुश होता है । अन्य अनेक मुसलमान ग्रन्थों से भी उन्होंने बादशाह और उन्हें दरबारियों के समक्ष यह सिद्ध किया और बादशाह से घोषणा करा दी कि इस ईद पर किसी प्रकार का वध न किया जाय । प्राप्त उल्लेखों के अनुसार अपनी वृद्धावस्था में हीरविजयसूरि ने गुजरात लौटने से पहले धर्म-बोध देने के लिए प्रारंभ में अपने शिष्य उपाध्याय शांतिचन्द्रजी को तथा उनके पश्चात् उपाध्याय भानुचन्द्रजी को अकबर के दरबार में छोड़ा था । अकबर ने अपने दो शाहजादों सलीम और दर्रेदानियाल की शिक्षा भानुचंद्रगणि के अधीन की थी । अब्बुलफ़जल को भी उपाध्याय भानुचन्द्रजी ने भारतीय दर्शन पढ़ाया था । इन तथ्यों के समर्थन में बहुत सामग्री उपलब्ध होती है । अकबर ने आगरा का अपना बहुमूल्य साहित्य - भण्डार हीरविजयसूरि को समर्पित कर दिया था । बाद में आगरा के जैन संघ ने उसे संभाला । आज पुरातात्विक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण उस ज्ञानभण्डार की समस्त सामग्री गुजरात में कोबा सिथत श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र में सुरक्षित है । वहां हीरविजयसूरि व आगरा के नाम से अलग विभाग बनाया गया है । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 13 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ मेवाड़ के गौरव हिन्दू सूर्य महाराणा प्रताप ने आचार्य हीरविजयसूरि के व्यक्तिगत और कृतित्त्व से प्रभावित होकर उन्हें पत्र लिखा था और आगरा से लौटते वक्त मेवाड़ पधारने का अनुरोध किया था । मेवाड़ी भाषा में लिखे गए डेढ़ पृष्ठ के इस पत्र के अन्त में 'प्रवानगी पचोली गोरो समत् 1635 रा वर्षे आसोज सुद 5, गुरुवार आलेखित है । महाराणा के निवेदन पर हीरविजयसूरि मेवाड़ प्रदेश की यात्रा पर आये थे । एक बार उन्होंने ससंघ खंभात से चित्तौड़गढ़ की यात्रा भी की थी। सिरोही स्टेट व उसके शासक महाराव सुरताण आचार्य के विशेष प्रिय थे । 13 वर्ष की उम्र में ईस्वी सन् 1540 में गुजरात के पाटण शहर में दीक्षित हुए हीरविजयजी को 27 वर्ष की युवावस्था में सन् 1554 में सिरोही में ही आचार्य पद से विभूषित किया गया था । अपने गुरु के इस विशेष समारोह को सफल बनाने के लिए सिरोही दरबार ने कई प्रबंध किये थे । महाराव सुरताण हीरविजयसूरि को सिरोही का सुरक्षा कवच मानते थे । सिरोही के साथ हुए दत्ताणी के ऐतिहासिक युद्ध में मुगलों का पराभव हुआ था, तथापि हीरविजयसूरि के निर्देश पर अकबर ने अपने गुरु की इस विचरण - भूमि को शान्ति क्षेत्र मानकर युद्ध, उत्पीड़न और प्रतिशोध से मुक्त कर दिया था । स्वः पराजय की दाह की उपेक्षा आचार्य के प्रति अकबर के सम्मान की द्योतक है। युद्ध के बाद का शान्ति-काल सिरोही के लिए स्वर्णयुग सिद्ध हुआ । 69 वर्ष की आयु में सन् 1596 में गुजरात के 'ऊना' ग्राम में हीरविजयसूरि ने अन्तिम सांस ली । अकबर ने उनके अग्निसंस्कार हेतु 100 बीघा भूमि प्रदान कर संत की मिली सौभाग्यशाली सन्निधि को याद किया । व्यवहार - कुशल व मधुरभाषी आचार्य को अपने जीवन में 'राजाओं के गुरु लोकसंत के रूप में अपार ख्याति मिली । उनका जीवन अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी रहा । राजाओं और राजनीतिज्ञों के सन्निकट रहते हुए भी वे राजनीति से सदैव अलिप्त रहे । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परंपरा के सबसे बड़े समुदाय 'तपागच्छ' के आप अकेले आचार्य थे । हजारों साधुसाध्वियों का आपने नेतृत्व किया । एक गच्छ में एक आचार्य की परंपरा आपके जाने के बाद 'तपागच्छ' में अटूट नहीं रह सकी । आचार्य हीरविजयसूरि पर विभिन्न रूपों में अनेक ग्रन्थों की रचना भी हुई । आत्मसुधारक सच्ची विद्वत्त या विद्या वही कही जाती है जिस में वि वप्रेम हो और विशय-पिपासा का अभाव हो तथा यथावत् धर्मका परिपालन और जीवनमात्र को आत्मवत् समझने की बुद्धि हो । स्वार्थिक प्रलोभन न हो और न ठगने की ठगबाजी। ऐसी ही विद्या या विद्वत्ता स्वपर का उपकार करनेवाली मानी जाती है, ऐसा नीतिकारों का मंतव्य है। जो विद्वत्ता, ईर्ष्या, कलह, उद्वेग पैदा करनेवाली है वह विद्वत्ता नहीं, महान् अज्ञानता है। इसलिये जिस विद्वत्ता से आत्म कल्याण हो, वह विद्वत्ता प्राप्त करने में सदोद्यत रहना चाहिये। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 14 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन व संलेखना : जैन दृष्टि में उपप्रवर्तिनी श्री स्वर्णकान्ताजी म. की शिष्या साध्वी स्मृति, एम. ए. मृत्यु अपरिहार्य धर्म है, ऐसा समझकर मनुष्य का मरणान्त समय में परलोक उत्तम हो, उसे सद्गति मिले, इसके लिए वह अच्छे भावों की भावना भाता है । प्रत्येक दर्शन में इसके लिए भिन्न-भिन्न पद्धतियां अथवा धारणाएं स्वीकार की गई है । जैन दर्शन में भी इस विषय पर गहन चिन्तन किया गया है, जिसे सल्लेखना व्रत से अधिक समझा जाता है । 1. सल्लेखना की निरुक्ति परक व्याख्या : सल्लेखना में 'सत्' और 'लेखना इन दो शब्दों का संयोग है । सत् का अर्थ है - सम्यक् और लेखना का अर्थ है कृश करना सम्यक् प्रकार से कषाय एवं शरीर को कृश करना सल्लेखना है' आचार्य पूज्यपाद बाहरी शरीर एवं भीतरी कषायों को, उन्हें पुष्ट करने वाले कारणों को उत्तरोत्तर घटाते हुए सम्यक् प्रकार से लेख अर्थात् कृश करना 'सल्लेखना बतलाते हैं। श्रावक जब यह देखे कि यह हमारा शरीर आवश्यक संयम पालन करने में अशक्त और असमर्थ हो रहा हैं अथवा मृत्यु का समय सन्निकट आ गया है, तो सर्वप्रथम उसे संयम को अंगीकार कर सल्लेखना धारण करनी चाहिए । 1 उपासक दशाङ्गसूत्र में सल्लेखना के लिए अपश्चिम मारणान्तिक सल्लेखना शब्द प्रयुक्त हुआ तत्त्वार्थसूत्र में "मरणान्तिकी संलेखनां जोषिता" कहकर साधक को मृत्यु काल समीप आने पर प्रीतिपूर्वक सल्लेखना धारण करने को कहा गया है । रत्नकरण्ड श्रावकाचार में उपसर्ग, अकाल, बुढ़ापा अथवा असाध्य रोग आदि होने पर धर्म पालन हेतु कषायों को कृश करते हुए शरीर त्याग का नाम सल्लेखना बतलाया गया है। चारित्रसारकार आचार्य कुन्दकुन्द के मत में बाहरी शरीर का और भीतरी कषायों का क्रमशः उनके कारणों को घटाते हुए सम्यक् प्रकार से क्षीण करना ही सल्लेखना है जबकि आचार्य वसुनन्दि कहते हैं कि वस्त्र मात्र परिग्रह को रखकर और अवशिष्ट समस्त परिग्रह को छोड़कर अपने ही घर में अथवा जिनालय में रहकर जो श्रावक गुरु के समीप मन-वचन-काय से अपनी भले प्रकार आलोचना करके पान के सिवाय शेष तीन प्रकार के आहार का त्याग करता है, उसकी वह विधि विशेष ही सल्लेखना है। 2. सल्लेखना : चतुर्थ शिक्षाव्रत : श्रावक के द्वादश व्रतों में जो चार शिक्षाव्रत हैं, उनमें आचार्य कुन्दकुन्द ने चौथा शिक्षाव्रत सल्लेखना माना आचार्य देवसेन, जिनसेन एवं वसुनन्दि आदि ने इस विषय में आचार्य कुन्दकुन्द का ही अनुसरण किया है, किन्तु तत्त्वार्थसूत्रकार ने व्रतों से पृथक रूप में सल्लेखना की महत्ता प्रतिपादित की है। स्वामि समन्तभद्र ने भी देशावकाशिक, सामायिक पोषधोपवास, वैय्यावृत्य को शिक्षाव्रत माना है" । कतिपय परवर्ति आचार्यों ने विशेषकर पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्दि, सोमदेव, अमितगति आदि आचार्यों ने स्वामी समन्तभद्र का ही अनुसरण किया है। 3. सल्लेखना कब करनी चाहिए : साधक मुनि मृत्यु का समय आने पर सल्लेखना आदि द्वारा शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से शरीर के मोह को त्याग कर मृत्यु के तीन प्रकार" में से किसी एक के द्वारा सकाम मरण को प्राप्त करें" मूलाराधना" में सल्लेखना कब करनी चाहिए इसका वर्णन करते हुए निम्न सात कारण दिए गए है। I संयम को परित्याग किए बिना जिस व्याधि का उपचार करना संभव नहीं हो, ऐसी स्थिति समुत्पन्न होने पर सल्लेखना कर लेना चाहिए। 1. Intera हेमेन्द्र ज्योति * मेजर ज्योति 15 हेमेजर ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था 2. जो श्रमण जीवन की साधना करने में वृद्धावस्था के कारण अशक्य हो, उसे सल्लेखना कर लेनी चाहिए । 3. मानव, देव और तिर्यंच सम्बन्धी कठिन उपसर्ग होने पर साधक को सल्लेखना कर लेनी चाहिए । 4. चारित्र विनाश के लिए अनुकूल उपसर्ग उपिस्थत होने पर साधक को सल्लेखना कर लेनी चाहिए । 5. भयंकर दुष्काल में शुद्ध भिक्षा प्राप्त करना कठिन हो गया हो, तो साधक को सल्लेखना कर लेनी चाहिए। 6. भयंकर अटवी में दिग् विमूढ़ होकर पथभ्रष्ट हो जाए तो साधक को सल्लेखना कर लेनी चाहिए । देखने की शक्ति और श्रवणशक्ति आदि की शक्ति क्षीण हो जाने पर साधक को सल्लेखना कर लेनी चाहिए। उपासकदशाङ्गसूत्र में आनन्द श्रावक के प्रसङ्ग में आता है कि आनन्द श्रावक को पूर्व रात्रि के अपरभाग में धर्म चिन्तन करते हुए यह विचार आया - यद्यपि मैं उग्र तपश्चरण के कारण कृश हो गया हूं, नसें दिखने लगी है, फिर भी अभी तक उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषार्थ, पराक्रम, श्रद्धा, धृति और संवेग विद्यमान है । अतः जब तक मुझमें उत्थानादि हैं और जब तक मेरे धर्मोपदेशक धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर गंध हस्ती के समान विचर रहे हैं । मेरे लिए श्रेयस्कर होगा कि अन्तिम मरणान्तिक संलेखना अंगीकार करुं। भोजन, पानी आदि का परित्याग कर दूं और मृत्यु की आंकाक्षा न करते हुए शान्त चित्त से अन्तिम काल व्यतीत करूं"। अतः स्पष्ट है कि आत्म-साधना हेतु सल्लेखना उस समय ग्रहण करनी चाहिए, जब शरीर तपश्चरण के योग्य न रहा हो । योगशास्त्र में भी कहा है कि श्रावक जब यह देखे कि आवश्यक संयम प्रवृतियों के करने में शरीर अब अशक्त और असमर्थ हो गया है या मृत्यु का समय सन्निकट आ गया है तो सर्वप्रथम संयम को अंगीकार कर सल्लेखना करें: सोऽथावश्यकयोगानां भंगे मृत्योरथागमे । कृत्वा संलेखनामादौ, प्रतिपद्य च संयमम् || 4. सल्लेखना कहां करनी चाहिए: सल्लेखना अरिहन्त भगवन्तों के जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान अथवा निर्वाण कल्याणक के पवित्र तीर्थ स्थलों पर जाकर धारण करनी चाहिए । ऐसी भूमि नजदीक न हो तो, किसी एकान्तगृह, घर, वन या जीव जन्तु से रहित एकान्त, शान्त स्थान में सल्लेखना ग्रहण करनी चाहिए। 5. सल्लेखना की विधि: सल्लेखना ग्रहण करने वाला व्यक्ति इष्ट वस्तु से राग, अनिष्ट वस्तु से द्वेष, परिजनों से ममत्व और समस्त बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह को छोड़ कर शुद्ध मन से अपने परिजनों से अपने दोषों को क्षमा करावे और स्वयं भी उनके अपराधों को क्षमा करें" | पुनः जीवनभर के कृत, कारित और अनुमोदित निखिल पापों की निच्छल भाव से आलोचना करके मरणपर्यन्त स्थिर रहने वाले अहिंसादि महाव्रतों को धारण करें । सल्लेखनाधारी क्रम से अन्न के आहार को घटाकर दुग्धादि रूप स्निग्धपान को बढ़ावे । पुनः क्रम से स्निग्धपान को भी घटाकर छाछ अथवा उष्ण जल आदि खर-पान को बढ़ावे । पुनः धीरे-धीरे खर-पान को घटाकर और अपनी शक्ति के अनुसार उपवास करके पंच नमस्कार मंत्र का मन में जप करें और इस प्रकार चिन्त्वन करते हुए सम्पूर्ण प्रयत्न के साथ सावधानी पूर्वक शरीर का परित्याग करें"। उत्तराध्ययनसूत्र में भी सल्लेखना विधि का वर्णन मिलता है । यहां बतलाया गया है कि उत्कृष्ट सल्लेखना के धारक साधक को पहले चार वर्षों में घृत, दुग्ध आदि विगयों का त्याग करना चाहिए, फिर पांचवे से आठवें वर्ष हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 16 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ तक चार वर्षों में विभिन्न प्रकार की तप की चर्याएं करें तीसरे चरण में अर्थात् नौ से बारह वर्ष तक के चार वर्षों में से प्रथम दो वर्षों में एकान्तर तपस्या करें और एकान्तर तप की पारणा उसे आयम्बिल से करनी चाहिए । साधक अन्त के के दो वर्षों में प्रथम छः मास में कोई विकट तपस्या न करे पुनः छः मास में घोर तपस्या करें किन्तु जब भी पारणा करे, वह आयम्बिल तप के रूप में ही करे। बारहवें वर्ष में वर्ष भर कोटि" भर तप करें। तदनन्तर एक पक्ष या एकमास पर्यन्त आहार का त्याग रूप अनशन व्रत धारण करें । इस प्रकार सल्लेखना तप से भिन्न नहीं है । 6. सल्लेखना के भेद द्विविध प्रकार स्थानाङ्गसूत्र में समाधिमरण के दो भेद कहे गए हैं - 1. प्रायोपगमन मरण और 2 भक्त प्रत्याख्यान मरण" त्रिविध सल्लेखना उत्तराध्ययनसूत्र में सल्लेखना के तीन भेदों का संकेत मिलता है। इनमें से किसी एक को स्वीकार कर सा कव्रती सकाम मरण को प्राप्त कर सकता है। 1. भक्त प्रत्याख्यान मरण : 23 जो सेवन किया जाए, वह भक्त है और उसका त्याग भक्त प्रत्याख्यान है • भज्यते सेव्यते इति भक्तं, तस्य पइण्णा त्यागो भत्तपइण्णा || अपने साधनाकाल में आहार और कषायों को कम करता हुआ साधक जब अपनी आयु का अन्त निकट जाने, तब वह आहार का पूर्णतया त्यागकर पंडित मरण स्वीकार करता है, यही भक्तप्रत्याख्यान है । 2. इंगिनी मरण अपने अभिप्राय के अनुसार रह कर होने वाला मरण इंगिनी मरण है । यहां इंगिनी शब्द से आत्मा का इंगित अर्थात् संकेत अर्थ ग्रहण किया गया है"। नियत स्थान पर उपर्युक्त विधि से मरण को पाना इंगिनी मरण है। इसमें कारण पड़ने पर साधक अपनी सेवा स्वयं करता है, मन-वचन-काय से कृत-कारित-अनुमोदित रूप से दूसरों की सेवा लेने का त्याग करता है । 3. पादोपणमनमरण पाद का अर्थ है वृक्ष । चारों प्रकार के आहार और शरीर का त्याग करके वृक्ष से कटी शाखा की तरह हलन चलन आदि क्रियाओं का त्याग करके समाधिपूर्वक मरण पादोपगमन मरण कहलाता है। दिगम्बर ग्रंथों में पादोपगमन को प्रायोपगमन कहा गया है। 7. सल्लेखना की अवधि सल्लेखना की अधिकतम सीमा बारह वर्ष, मध्यम सीमा एक वर्ष और जघन्य सीमा छः मास स्वीकार की गई है। 8. सल्लेखना के अतिचार : जिस प्रकार प्रत्येक व्रत के पांच अतिचार कहे गए हैं, उसी प्रकार सल्लेखना के भी पांच अतिचार बतलाए गए है। उपासकदशाङगसूत्र में इहलोकाशंसा प्रयोग, परलोकशंसा प्रयोग, जीविताशंसा प्रयोग, मरणाशंसा प्रयोग तथा हेमेल ज्योति हमे ज्योति 17 हेमेजर ज्योति ज्योति Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ कामभोगाशंसा प्रयोग - इन पांच अतिचारों का उल्लेख किया गया है। जबकि तत्त्वार्थसूत्र में कुछ भिन्न जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदानकरण - ये पांच अतिचार बतलाए गए हैं। इन। अतिचारों का विशेष स्वरूप निम्न प्रकार हैं: 1. इहलोकाशंसाप्रयोग इस सल्लेखना / संथारे के फलस्वरूप मेरी कीर्ति, ख्याति, प्रतिष्ठा हो, लोग मुझे बड़ा त्यागी, वैरागी समझें, धन्य धन्य कहें - इस प्रकार इस लोग सम्बन्धी आकांक्षा करने से अतिचार लगता है । उपासकदशाङगसूत्र टीका में बतलाया है कि इस मनुष्य लोक में सेठ, मन्त्री, राजा आदि ऋद्धि वाले मनुष्य होने की अभिलाषा इह लोकाशंसा प्रयोग अतिचार है। 2. परलोकाशंसा प्रयोग परलोक अर्थात् देव-देवेन्द्र होने की अभिलाषा करना ही परलोकाशंसा प्रयोग अतिचार है। 3. जीविताशंसा प्रयोग संल्लेखना संथारा काल में अपनी महिमा पूजा होती देखकर बहुत समय तक जीवित रहने की इच्छा करना जीविताशंसा प्रयोग अतिचार है । यही बौद्ध दर्शन में भवतृष्णा बतलायी गयी है । 4. मरणाशंसा प्रयोग अपनी पूजा प्रतिष्ठा न होती देख शीघ्र ही मरने की इच्छा रखना मरणाशंसा प्रयोग है । क्षुधा, तृषा आदि की पीड़ा से व्याकुल होकर जल्दी मर जाने की इच्छा करना मरणाशंसा प्रयोग है । यही बौद्धों की विभवतृष्णा है। 5. कामभोगाशंसा प्रयोग अनशन के प्रभाव से आगामी भव में दिव्य मनुष्य सम्बन्धी कामभोग की अभिलाषा रखना कामभोगशंसा प्रयोग अतिचार है । बौद्धदर्शन में काम तृष्णा का भी ऐसा ही स्वरूप बतलाया गया है । आचारांगसूत्र में भी कहा गया है कि साधक जन्म व मरण दोनों विकल्पों से मुक्त होकर अनासक्त भाव से जीवन यापन करें क्योंकि अनासक्तयोग से ही सिद्धत्वयोग की प्राप्ति होती है। इस प्रकार श्रमण साधक हो अथवा अपरिग्रही श्रावक दोनों के लिए मरणान्त समय में संल्लेखना अथवा समाधिमरण विधि को ग्रहण करना चाहिए । कुशल भावपूर्वक मरण करने से भव का नाश होता है, और उत्तमगति का लाभ होता है जो मानव का अभीष्ट लक्ष्य है । उपासकदशाङ्गसूत्र में आनन्द श्रावक एवं अन्य सभी श्रावकों ने विचार किया कि जब तक उनमें उत्थानादि विद्यमान है, वे अन्तिम मारणान्तिक संलेखना अंगीकार करें। यह विचार कर उन्होंने संलेखना अंगीकृत की । संदर्भ 1. संलिख्यतेऽनया शरीरकषायादि इति सल्लेखना । स्था. सू. टी. 2/2/76, पृ. 53 कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणां च कषायाणां तत्कारणहापनक्रमेण सम्यक्लेखना सल्लेखना । सर्वार्थ, पृ. 273 अपच्छिममारणंतिय संलेहण । उपा. सू. 1/70, – मिलाइये उपा. टी. पू. 56 4. त. सू. 7/17 5. उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रूजायां च निष्प्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ।। रत्न. श्रा. 6/1 हेमेन्द ज्योतिलेोज्न ज्योति 18 हेमेन्द ज्योति हेमेन्य ज्योति H anusaili Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ducat श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 6. बाह्यस्य कायस्याभ्यन्ताराणां कषायाणां तत्कारणहापनयाक्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना । चारित्र. गा. 22 पर व्याख्या I वसु श्रा. 271-273 7. 8. सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं । वइयं अतिहिपुज्जं चउत्थ संलेहणा अन्ते ।। चा. पा. गा. 25 9. त. सू. 7/16 10. देशावकाशिक वा सामायिक प्रोषधोपवासो वा । वैयावृत्यं शिक्षाव्रतानि चत्वारि शिष्टानि ।। रत्न श्लो. 61 11. मृत्यु के तीन प्रकार हैं भक्त प्रत्याख्यान (चारों आहारों का त्याग), इंगिनी मरण (निश्चित सीमा में रहना) पादोपगमन (वृष की शाखा के समान एक स्थान पर पड़े रहना) । 12. अह कालंमि संपत्ते, आधायाय समुस्मयं । सकाम मरणं मरई, तिणहमन्नयरं मुणी ।। उत्तरा. सू. 5/32 13. मूलाराधना 2/71-74 14. उपा. सू., 1/70 15. योग. 3/148 16. जम्म, दीक्षा - ज्ञान- मोक्ष स्थानेषु श्रीमदर्हताम् । तदभावे गृहेऽरण्ये, स्थण्डिले जन्तुवर्जिते ।। वही. 3/145 17. स्नहें वैरं सङ्गं परिग्रहं चापहाय शुद्धमनाः । स्वजनं परिजनमपि च क्षान्त्वा क्षमयेत् प्रियैर्वचनैः ।। रत्न. 6रु3 18. वहीं श्लोक 126-128 19. जिस तप का आदि और अन्त एक जैसा हो, उसे कोटि सहित तप कहते हैं अर्थात् आयम्बिल से तपस्या आरम्भ की, तो सदैव पारणा भी आयम्बिल से ही हो, चाहे वह पारणा वेलातेला आदि किसी भी तप का हो । 20. उत्तरा 36 / 254 21. स्था. सू. 2/8/414 22. आचा. (शी.टी.) पृ. 289, तथा दे. उत्तरा 5/32 23. भग. आ. पृ. 65 24. स्वाभिप्रायानुसारेण स्थित्वा प्रवर्त्यमानं मरणं इंगिणीमरणं । । वही 25. वही 26. गोम्मट, गाथा 61 27. दे. उत्तरा 36 / 253 28. तयानंतरच णं अपच्छिम मारणांतिय-संलेहणा-झूसणाराहणाए पंच अइयारा जाणियत्वा न समारियच्या तं जहा इहलोगासंसयओगे, पालोगासंसप्पओगे, जीवियासंसप्पओगे, मरणासंसप्पओगे, कामभोगासंसप्पओगे । उपा. सू. 1 दे, योग. 3/151 29. जीवितमरणाशंसामित्रानुराग सुखानुबन्धनिदानकरणानि । त. सू. 7/32 तथा मिलाइए सागार. 8 / 45 30. जै. त. प्र. पृ. 689 31. "इह लोगे" त्यादि. इहलोको मनुष्यलोकः तस्मिन्नाशंसा अभिलाषः तस्याः प्रयोग इहलोकाशंसाप्रयोगः श्रेष्ठीस्या जन्मान्तरेऽमात्यो वा इत्येवरूपा प्रार्थना । उपा. टी. पृ. 59 32. परलोकाशंसाप्रयोगे "देवाऽहं स्याम्" इत्यादि । वही 33. वही 34. "मरणाशंसाप्रयोगः" उक्तस्वरूपपूजाद्यभावे भावयत्यसौ यदि शीघ्र नियॅऽहम् इति स्वरूप इति ।। वही 35. जै. त. प्र. पृ. 689 36. "कामभोगाशंसा प्रयोगो" "यदि मे मानुष्यकाः कामभोगा दिव्या वा सम्पद्यन्ते तदा साधु' इति विकल्परूपः । उपा. सू. टी. पृ. 59 37. आ. सू. 1/8/8/19, पृ. 291 (व्यावर) हेमेन्द्र ज्योति ज्योति 19 हेगेल ज्योति हमे ज्योति Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ मांडव में जैन धर्म में -डॉ. श्यामसुन्दर निगम, -डॉ. प्रकाशचन्द्र निगम मांडवगढ़ का प्राचीन नाम मंडपदुर्ग था । मंडप दुर्ग परमारों का एक सुरक्षित केन्द्र था | धार से कुछ ही किलोमीटर दूरी पर विंध्याचल के दक्षिणी छोर पर नर्मदा नदी के कुछ उत्तर में यह दर्शनीय गढ़ विद्यमान था । यह दुर्ग अत्यन्त सुरक्षित था । इस कारण प्राचीन और मध्य काल में यह जैनधर्म का एक महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया था । मांडव और बूढ़ी मांडव क्षेत्र में जैन धर्म का प्रचार-प्रसार था । इसी दुर्ग के मध्य भाग में तारापुर स्थित था जहां श्री चन्द्रप्रभु स्वामी का गगनचुम्बी शिखर से युक्त एक प्रासाद था । सोलहवीं शती के प्रारंभ में ओसवंशीय आनन्द मुनि ने मांडवगढ़ को एक गिरि पर विद्यमान नगर माना था। खरतरगच्छीय मुनि मेरुसुंदर ने मंडप नगर को एक जनाकीर्ण एवं पुण्य नगर की संज्ञा दी, जबकि इसी गच्छ के कवि खेमराज ने इसे चैत्यों का नगर माना था। भट्टारक श्रुतकीर्ति ने 'हरिवंशपुराण में मांडवगढ़ को श्रेष्ठ मालव देश में स्थित माना था । इस नगरी में तारापुर नाम का एक उपनगर स्थित था। मंडन के "सिद्धांत को T" में मंडप को स्वर्ग की संज्ञा दी है । इस तरह "काव्यमंडन प्रशस्ति" में भी मांडव का नाम आया है । "उपदेश तरंगिणी", "परमेष्ठीप्रकाश सार" आदि ग्रन्थों में भी मांडव की चर्चा आई है। मांडव से ही कुछ दूरी पर नालछा और बूढ़ी मांडव नामक स्थल हैं । नालछा से बूढ़ी मांडव तक भारी मात्रा में पुरातत्त्वीय अवशेष बिखरे पड़े हैं । अधिकांशतः ये अवशेष जैन धर्म से संबंधित हैं। नालछा इस तरह से एक प्रकार से मांडव का एक उपनगर ही था । जैन ग्रंथों में इसका नाम नलकच्छपुर आया है। दामोदर कवि ने 13वीं सदी के पूर्वार्द्ध में रचित "जिनयज्ञ कल्प प्रशस्ति' में नलकच्छपुर की चर्चा की है। पंडित आशाधर ने नलकच्छपुर में अनेक चैत्यालयों की विद्यमानता की चर्चा की है। "जिनयज्ञकल्प प्रशस्ति" में इस नगर को एक चारू नगर माना है । उसके अनुसार नलकच्छपुर एक श्रावक संकुल बस्ती थी। वस्तुतः बारहवीं सदी में जब राजस्थान के मांडलगढ़ पर शहाबुद्दीन गौरी ने आक्रमण किया था तो बहुत से जैन परिवार पंडित आशाधर के साथ नलकच्छपुर आ गये थे । उनके आगमन से मांडव, नालछा और धार में जैन धर्म को पर्याप्त गति मिली थी । राजदरबार भी इन पंडितों का बड़ा सम्मान करता था । पंडित आशाधर लगभग पैंतीस वर्ष के लम्बे समय तक नालछा में ही रहे और वहां के नेमि-चैत्यालय में एकनिष्ठ होकर जैन-साहित्य की सेवा की ओर ज्ञान की उपासना करते रहे । उन्होंने अपने प्रायः सभी ग्रंथों की रचना यहीं की और यही पर ही वे अध्ययन अध्यापन का कार्य करते रहे । परमारों के संरक्षण तथा जैन भट्टारकों, मुनियों, साधुओं, आचार्यों और उपाध्यायों के उत्साही, प्रचार-प्रसार एवं मालवा के जैनियों की सम्पन्नता और उदारता के परिणामस्वरूप तत्कालीन मालवा के लगभग सभी प्रमुख नगरों और ग्रामों में जैन धर्म से सम्बन्धित अनेक निर्माण संपन्न हुए । रत्नमंडन गणि की रचनाओं से ज्ञात होता है कि 13वीं शताब्दी में परमार नरेश जयसिंहदेव तृतीय के समय मांडव में उसके मंत्री पेथड़कुमार तथा पेथड़ के पुत्र झांझण ने अनेक मंदिरों, धर्मशालाओं तथा जैन ग्रन्थालयों का निर्माण करवाया । इस विषय में मांडव, धार, नालछा आदि स्थानों के सम्पन्न जैन श्रेष्ठीगण भी पीछे नहीं रहे। इल्तुतमिश के आक्रमण के साथ ही परमार राज-सत्ता 13वीं सदी के चतुर्थ दशक में डांवाडोल हो उठी थी किन्तु पूर्वी मालवा एवं धार-मांडव क्षेत्र में अभी भी उसका प्रभाव था। खिलजी काल में प्रथमतः अलाउद्दीन खिलजी की सामरिक गतिविधियों एवं उपरान्त उसके सेनापति आइन-उल-गुल्क के आक्रमण के परिणामस्वरूप परमार सत्ता पूरी तरह उन्मूलित हो गई। चारों ओर विध्वंस, रक्तपात और लूटमार के दृश्य दिखाई देने लगे । मालवा की सांस्कृतिक गरिमा और उसके कलात्मक वैभव के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न सा लग गया । ऐसी स्थिति में भी जैन धर्म मध्यकालीन मुस्लिम शासकों के आधीन कुछ काल की अवरूद्धता को छोड़कर पल्लवित होता रहा। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 20 हेमेज्न ज्योति* हेमेन्य ज्योति Moralu Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ परमारों के पतन के बाद मालवा दिल्ली के सुलतानों के आधीन रहा। दास वंश के समापन के बाद क्रमशः खिलजी और तुगलक शासक दिल्ली के सुलतान बने । तुगलक काल में माण्डू के सुलतानों के आधीन मालवा स्वतंत्र हो गया दिलावरखाँ गोरी सन् 1930 ईस्वी सन् 1401 तक तुगलकों के आधीन मालवा का सूबेदार रहा । महमूद तुगलक द्वितीय के मालवा से बिदा होने पर दिलावरखाँ ने सन् 1401 ईस्वी में स्वतंत्रता की घोषणा कर दी । इस तरह मालवा स्वतंत्र हो गया । धार अभी भी मालवा की राजधानी था परंतु दिलावरखाँ को शादियाबाद (मांडू) अधिक प्रिय था और इस कारण मांडू को सहसा बड़ा महत्व मिल गया । दिलावरखाँ सन् 1405 ईस्वी तक स्वतंत्र मालवा का शासक रहा। यह वह समय था जबकि मालवा में पर्याप्त मात्रा में जैन परिवार आ गये थे । उन्हें इसलिये मालवा आकर्षक लगा क्योंकि दिलावरखाँ ने उन्हें जान और माल की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त किया था। दिलावरखाँ को इस समय धन की अत्यधिक आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति ये जैन परिवार ही कर सकते थे। दिलावरखी गोरी के समय जैन धर्म पुनः विकास की राह पर चल पड़ा। पाटन के एक प्रसिद्ध श्रेष्ठी पेथडशाह के एक संबंधी संघपति झांझण को मालवा में उच्च राजनीतिक पद मिला था । यह व्यक्ति सोमेश्वर चौहान के मंत्री जालोर के सोनगरा गोत्रीय श्रीमाल आभू का वंशज था" । १५ दिलावरखाँ के समय तीर्थंकरों की अनेक प्रतिमाएं बनाई गई थी। सन् 1401 ईस्वी की एक अभिलेखयुक्त पार्श्वनाथ की पीतल की प्रतिमा आज भी उज्जैन नमकमंडी जिनालय में देखी जा सकती है । होशंगशाह गोरी इसका मूल नाम अलपखाँ था। इसका शासन काल 1406 से 1435 ईस्वी माना जाता है। जैन ग्रन्थों में इसे आलमशाह भी कहा गया है । होशंगशाह के समय में जैन धर्म काफी पनपा । इसके समय में पेथड़ (बीका) का पुत्र झांझण दिल्ली से नाडूलाई होता हुआ पुनः मालवा में आया । झांझण के छः पुत्र थे जिनके नाम चाहड़, वाहड़, देहड़, पदमसिंह, आल्हू और पाल्हू थे। होशंगशाह इन सबको सम्मान की दृष्टि से देखता था । चाहड़ के चन्द्र । और खेमराज नामक दो पुत्र थे। बाहड़ के दो पुत्र समंधर और मंडन हुए मंडन होशंगशाह के समय एक विशिष्ट नाम था। उसे मंत्रीश्वर कहा गया है क्योंकि वह महाप्रधान के पद पर था। वह बड़ा कुशल राजनीतिज्ञ तथा विद्वान् साहित्यकार था" । झांझण का तीसरा पुत्र देहड़ था । देहड़ के पुत्र का नाम धनपत्य या धनराज था। होशंगशाह के समय मंडन के इस सुयोग्य चचेरे भाई ने संघपति का पद ग्रहण किया । झांझण का चौथा पुत्र पद्मसिंह था । इसने शंखेश्वर तीर्थ की संघ यात्रा समारोहपूर्वक सम्पन्न करवाई थी। इस कारण इसे संघपति भी कहा जाता था । झांझण का पांचवां पुत्र आल्हू था जिसने मंगलपुर और जीरापल्ली तीर्थ की संघ यात्राएं कीं। इसी ने जीरापल्ली में एक सभा मंडप निर्मित करवाया था । आल्हू झांझण का छठा और अंतिम पुत्र था। यह उदारतापूर्वक धन व्यय करता था। इसने जिनचन्द्रसूरि की अध्यक्षता में श्री अर्बुद और जीरापल्ली तीर्थ की संघ यात्राएं सम्पन्न करवाई थी। होशंगशाह का झांझण के छहों पुत्रों के प्रति अत्यधिक सम्मान था क्योंकि ये भ्रातागण न केवल योग्य, विद्वान् तथा धनी थे अपितु सुलतान होशंगशाह को उत्तम सलाह भी देते । इन्हीं के कहने से सुलतान ने राजा केसीदास, राजा हरिराज, राजा अगरदास तथा वरात, लूनार और बाहड़ नामक विख्यात और स्वाभिमानी ब्राह्मणों को बंदी-गृह से मुक्त किया था। होशंगशाह के समय एक और भी उल्लेखनीय जैन व्यक्तित्व मांडव में था । इसका नाम नरदेव सोनी था जो सुलतान का भंडारिक (कोषाध्यक्ष) व सलाहकार था । नरदेव एक महान् दानी व्यक्ति था और कभी भी अपने घर आये हुए पावक को निराश नहीं लौटाता था । होशंगशाह का पुत्र गजनीखाँ था । गजनीखाँ किसी कारणवश अपने पिता से रूठकर मांडवगढ़ से अपने मित्रों के साथ नांदिया ग्राम में आ गया था । इस ग्राम में धरणा नामक एक अत्यधिक धनी व उदार जैन श्रेष्ठी निवास करता था। गजनीखाँ ने धरणा से तीन लाख रुपया उधार मांगा जिसे धरणा ने इस शर्त के साथ दे दिया कि जब हेमेलर ज्योति के ज्योति 21 हेमेज ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ गजनीखाँ मांडव का शासक बने तब वह धनराशि वह धरणा को लौटा दे । धरणा ने ही कालांतर में गजनीखाँ को समझा-बुझाकर उसके पिता होशंगशाह के पास मांडू के लिये प्रस्थित करवाया था । सुलतान होशंगशाह को धरणा के इस कार्य ने बड़ा प्रसन्न किया। पुरातत्वीय साक्ष्य भी होशंगशाह के समय जैन धर्म के पल्लवन का प्रमाण देते हैं । उज्जैन के नमकमंडी दिगंबर जैन मंदिर में पीतल की एक प्रतिमा है जिस पर अंकित लेख के अनुसार वह होशंगशाह के शासन के अंतिम वर्ष की सिद्ध होती है । मोहम्मदशाह गोरी (1435-36) होशंगशाह के समय मांडव के दरबारियों के दो समूह हो गये थे । एक समूह का नेता शहजादा उथमनखाँ था तथा दूसरे समूह का नेता शहजादा गजनीखाँ था । होशंगशाह ने गजनीखाँ को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था । यह करना घातक रहा । 8 जुलाई, 1435 ईस्वी को गजनीखाँ मोहम्मदशाह गोरी के नाम से मालवा का सुलतान बना । महमूदखाँ को उसका संरक्षक नियुक्त किया गया था । दुर्भाग्यवश नया सुलतान अत्यधिक शराबी निकला | उसने सारा शासन प्रशासन अपने श्वसुर मलिक मुगीस तथा अपने साले व संरक्षक महमूदखाँ के हाथों में केन्द्रित कर दिया । परिणाम अच्छा नहीं निकला । अवसर देखकर महमूदखाँ ने मोहम्मदशाह को जहर देकर मार दिया। 18 अप्रैल, 1436 ईस्वी को सुलतान मोहम्मदशाह संसार से बिदा हो गया । गजनीखाँ का शासन अत्यन्त ही अल्पकालीन था । उसने नांदिया ग्राम से धरणाशाह को मांडव आमंत्रित किया । उसने उससे उधार लिये तीन लाख रुपयों के बदले में उसे छ: लाख रुपये प्रदान किये और दरबार में उच्च पद प्रदान किया । बादशाह का धरणा के प्रति यह अति स्नेह मांडव के अन्य अमीरों को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने मोहम्मदशाह के कान भरना प्रारंभ कर दिये । कमजोर मनोबल वाले सुलतान ने संघ यात्रा पर निकले धरणा को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया । धरणा की रिहाई के लिये श्रीसंघ ने अनेक प्रयास किये किन्तु वे व्यर्थ सिद्ध हुए। अंत में धरणा को एक लाख मुद्राएं देकर स्वयं को मुक्त कराना पड़ा । जब मोहम्मदशाह को अपदस्थ कर महमूद खिलजी ने शासन संभाला तो उचित अवसर देख धरणाशाह मांडव से निकल भागा"। महमूद खिलजी (प्रथम) सन् 1436 से 1469 ईस्वी तक महमूदखाँ मांडव का सुलतान रहा । वह खिलजी वंश का था और इस कारण मालवा का सुलतानवंश उसी के साथ परिवर्तित हो गया । सिंहासन पर बैठने पर उसने अपने पिता मलिक मुगीस को "निजाम-उल-मुल्क' की उपाधि प्रदान कर उसे वजीर के पद पर नियुक्त किया । सन् 1442 ईस्वी तक उसने अपने आपको पूरी तरह स्थापित कर लिया। महमूद खिलजी भी जैन धर्म के प्रति सहिष्णु और संरक्षक सिद्ध हुआ। उसके समय में मंडन के चार पुत्र पूजा, जोगा, संग्रामसिंह व श्रीमल्ल को मांडव में विशेष स्थान प्राप्त था । इसके अतिरिक्त भी मांडव इस समय अनेक सम्पन्न जैन व्यापारियों का केन्द्र था । इन व्यापारियों ने जैन कल्पसूत्रों के पुनर्लेखन का काफी धन अनुदान के रूप में दिया तथा मांडव में अनेक आकर्षक जिनालयों का निर्माण करवाया। सन् 1450 ईस्वी में ओसवंशीय आनंद मुनि ने "धर्म लक्ष्मी महतरा-भाख" नामक अपने ग्रंथ में रत्नाकर गच्छ के रत्नसिंह सूरि के समुदाय की धर्मलक्ष्मी महतरा का ऐतिहासिक परिचय दिया । नरवर नामक स्थान में सन् 1459 ईस्वी में खरतर गच्छ की पिटपलक शाखा के संस्थापक विद्वान् जैनावार्य जिनवर्द्धन सूरि के शिष्य न्यायसुन्दर उपाध्याय ने “विद्या-विलास-नरेन्द्र" नामक चौपाई की रचना की । सन् 1468 ईस्वी में मुनि मेरुसुंदर ने मांडव दुर्ग में संघपति धनराज के अनुरोध पर "शीलोपदेशमाला बालावबोध' की रचना की । उस समय पूरा निमाड़ अनेक जैन तीर्थों से युक्त था । मांडव के अतिरिक्त तारापुर, सिंघाना, तालनपुर, नानपुर, चिकली-ढोला तथा लक्ष्मणी आदि स्थानों पर जिनालय विद्यमान थे । इसी सुलतान महमूद खिलजी का एक मंत्री मांडव-निवासी जैनचन्द्र साधु था जो चांदासाह के नाम से जाना जाता था। चांदासाह एक कुशल राजनीतिज्ञ और जैन धर्म का प्रबल हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 22 हेगेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति onasuskotha Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्टसंत शिरोमणि अभिनंदन पंथ अनुयायी था । वह बड़ा धर्मात्मा, योग्य संगठक, सरल और उदार था । उसने शत्रुजय, गिरनार आदि तीर्थों की संघ-यात्राओं पर काफी धन व्यय करके संघपति का पद प्राप्त किया था तथा मांडवगढ़ में 72 काष्ठमय जिनालय निर्मित करवाये थे जिनमें अनेक धातु चौबीसी-पट्ट रखवाये थे। महमूद खिलजी के समय का एक अत्यधिक उल्लेखनीय व्यक्तित्व संग्रामसिंह सोनी था । यह पूर्व वर्णित नरदेव सोनी का पुत्र था तथा महमूद खिलजी के समय खजांची के पद पर नियुक्त था । संग्रामसिंह सोनी श्वेताम्बर मतानुयायी जैन (ओसवाल) था । महमूद खिलजी के द्वारा राणा कुम्भा और दक्षिण के निजाम के साथ लड़े गये युद्धों में संग्रामसिंह सोनी ने मदद की और कीर्ति अर्जित की । संग्रामसिंह सोनी राजनीतिज्ञ ही नहीं, वरन् विद्वान भी था | उसने 'बुद्धिसागर' नामक ग्रन्थ की रचना भी की थी । इसने एक हजार स्वर्ण मुद्राएं व्यय करके अलग-अलग स्थानों पर ज्ञान भण्डारों की स्थापना की थी । इसे सुलतान ने "नक्द-उल-मुल्क' की उपाधि दी थी । यह वही संग्रामसिंह सोनी है जिसने मक्सी पार्श्वनाथ तीर्थ के मंदिर का निर्माण करवाया था। मांडव में सन् 1498 ईस्वी में पुनर्लिखित कल्पसूत्र में महमूद खिलजी के समय के एक और जैन परिवार का उल्लेख आया है । इस परिवार में जसवीर नामक श्रेष्ठी का उल्लेख है जो बड़ा दानी था और जिसने बावन संघपतियों की स्थापना की थी । उसे संघेश्वर की उपाधि प्राप्त थी। गयासुद्दीन खिलजी (1469-150 ! ईस्वी) महमूद के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र गियाथशाह, गयासुद्दीन खिलजी के नाम से मालवा का सुलतान बना । यह एक विलासी किन्तु कला-प्रेमी शासक था । यद्यपि वह धार्मिक दृष्टि से कट्टर था, फिर भी जैन धर्म के प्रति वह सहिष्णु और उदार था । बहुत संभव है कि अत्यधिक विलासी होने के कारण सदैव धन की आवश्यकता पड़ती रही हो और इस कारण वह जैनियों के प्रति अधिक उदार हो गया है । उसके समय भी जैन कल्पसूत्रों का पुनर्लेखन होता रहा । भट्टारक सम्प्रदाय उसके समय में विशेष रूप से पल्लवित हुआ । सूरत शाखा के भट्टारक मल्लीभूषण उसी के समय मांडव में आये थे । भट्टारक श्रुतकीर्ति ने मालवा के मांडव और जेरहट नगर में अपने ग्रंथों की रचनाएं की। गयासुद्दीन के शासन काल में मालवा के जवासिया ग्राम में एक प्राग्वाटज्ञातीय परिवार था । इस परिवार के सदस्य बड़ी धार्मिक प्रकृति के थे । इस परिवार के सदस्यों ने तपागच्छ-नायक श्री लक्ष्मीसागर सूरि के करकमलों से सुमतिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई थी । जिस देवकुलिका में यह बिम्ब प्रतिष्ठित करवाया गया था, उसे काफी व्यय से बनाया गया था । इसी प्रकार गयासुद्दीन के राज्य में मांडव में सूरा और वीरा नाम प्राग्वाट-ज्ञातीय दो नर-रत्न निवास करते थे । वे बड़े उदार व दानी सज्जन थे । वे जिनेश्वर देव के परमभक्त थे । इन भाइयों ने गयासुद्दीन खिलजी की आज्ञा प्राप्त कर सुधानन्द सूरि के तत्वावधान में मांडवगढ़ से श्री शत्रुजय महातीर्थ की यात्रा करने के लिये संघ निकाला था जो सिद्धाचल तीर्थ तक पहुंचकर सकुशल मांडवगढ़ आया था । गियाथशाह के समय मुंजराज नामक एक जैन विद्वान् खालसा भूमि की देखरेख के लिये वजीर नियुक्त किया गया था । इसे मुंज बक्काल भी कहते थे । राज्य की ओर से उसे "मफर-उल-मुल्क' की उपाधि दी गई थी। मंडन कवि के वंशज मेघ को गयासुद्दीन खिलजी ने मंत्री पद दिया था । मेघ को “फक्र-उल-मुल्क' की उपाधि प्राप्त थी । मेघ का भतीजा पुंजराज था । वह भी एक उच्च राज्याधिकारी था । उसे "हिन्दुआराय' वजीर के नाम से जाना जाता था। प्रशासक होने के साथ-साथ यह बड़ा विद्वान् भी था । सन् 1500 ईस्वी में उसने "सारस्वत प्रक्रिया' नामक व्याकरण की रचना की थी । उसी की प्रेरणा पाकर ईश्वरसूरि ने 'ललितांग-चरित' नामक ग्रंथ की रचना की थी। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 23 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Educationintende Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ऐसा लगता है कि गियाथाशाह के शासन काल के उत्तरार्द्ध में जैनियों में पारस्परिक स्पर्द्धा बढ़ गई थी, जो समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों की देन थी । शिवदास बक्काल राजवंश के पारिवारिक विग्रह में शहजादा नसीरशाह के साथ था जबकि मुंज बक्काल शहजादा शुजातखाँ और रानी खुर्शीद के साथ । इस विग्रह के परिणामस्वरूप दोनों को ही अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा" । महमूद खिलजी के समय संग्रामसिंह सोनी का महत्व काफी बढ़ गया था । उसका महत्व गियाथशाह के समय भी कायम रहा। उसे नकद-उल-मुल्क' की उपाधि गयासुद्दीन ने प्रदान की थी । गियाथशाह के समय जैन धर्म के विकास की पर्याप्त सूचना "सुमति-संभव-काव्य", "जावड़—चरित" और 'जावड़-प्रबन्ध' नामक ग्रंथों से भी मिलती है। मांडव के जावड़शाह का उल्लेख करना यहां समीचीन होगा । "कल्प-प्रशंस्ति" नामक ग्रंथ में जिस खरतरगच्छीय जैन परिवार का उल्लेख आया है, वह श्रीमाली - कुल भगटगोत्रीय था। इस वंश में उत्पन्न जसधीर, आचार्य जिनसमुद्र सूरि का श्रद्धालु शिष्य था । वह एक दानशील और धार्मिक संघपति था । उसके दामाद का नाम मंडन था जिसे कुछ लेखकों ने भूल से मांडव के प्रसिद्ध मंत्री मंडन मान लिया है। वस्तुतः यह मंडन श्रीमाली कुल के किसी जयता नामक व्यक्ति का पुत्र था और उसका निकट संबंध खरतरगच्छ आचार्य जिनचन्द्रसूरि और जिनसमुद्रसूरि से था " । इसी समय एक और जावड़ मांडव में हुआ । वह तपागच्छीय था तथा जसधीर की सबसे छोटी बुआ का पुत्र था । उसके पिता का नाम राजमल्ल था । जावड़ का उल्लेख वाचनाचार्य सोमध्वज के शिष्य खेमराजगणि के गुजराती ग्रंथ "मांडवगढ़-प्रवासी" में आता है। सर्वविजयगणि नामक जैन कवि ने भी अपने काव्य-ग्रंथों में उसका उल्लेख किया है । सोमचरितगणि की रचनाओं में भी उसका उल्लेख है । वंश-परम्परा के अनुरूप जावड़ को भी राजदरबार में प्रतिष्ठित पद प्राप्त था । गयासुद्दीन सदैव उसका सम्मान किया करता था । सुलतान ने उसे उत्तम व्यवहारों की उपाधि से विभूषित कर कोषाध्यक्ष नियुक्त किया था । इसीलिये उसे सुलतान का " श्रीमाल - भूपाल" भी उसका एक विरूद था । इससे स्पष्ट है कि उसे अपने समाज में पर्याप्त प्रतिष्ठा प्राप्त थी। उसे अर्बुदाचल और जीरापल्ली की तीर्थ-यात्रा करने के बाद 'संघपति' की उपाधि दी गई थी । वह तपागच्छीय आचार्य लक्ष्मीसागरसूरि तथा उनके पट्ट शिष्य समुति साधुसूरि का असीम भक्त था । जावड़ ने अनेक जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई भी तथा मांडव में तपागच्छ के अनुयायियों का एक विशाल आयोजन सम्पन्न करवाया था । इस अवसर पर 104 जिन प्रतिमाएं प्रतिष्ठित की गई थी। 23 सेर की एक चांदी की मूर्ति और 11 सेर की एक स्वर्ण-प्रतिमा को छोड़कर शेष सभी प्रतिमाएं पीतल की थीं । उन्हें हीरक- खचित छत्रों तथा बहुमूल्य आभूषणों से सजाया गया था । प्रतिष्ठा समारोह पर जावड़शाह ने 15 लाख रुपये खर्च किये थे। Jain Education जावड़ ने मांडू में ऋषभनाथ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ तथा महावीर इन पांचों तीर्थंकरों के विशाल मंदिरों का निर्माण करवाया था । उसके द्वारा निर्मित ये मंदिर उस समय मांडू के मुख्य देवायतन थे । इसके अतिरिक्त भी मांडव में अनेक जैन मंदिर और भी थे, जिन सबका उल्लेख करना समीचीन नहीं हैं। नासिरूद्दीन खिलजी (1500-1511) नासिरूद्दीन के राज्य काल में भी जैन धर्म और जैन समाज को पूर्ववत् संरक्षण मिलता रहा । उसके समूचे राज्य काल में संग्रामसिंह सोनी "नकद-उल-मुल्क" की स्थिति में यथावत् बना रहा । मंडन का भतीजा पुंजराज अभी भी "हिन्दुआ - राय" पुकारा जाता था । जीवणशाह, गोपाल आदि इस काल के महत्वपूर्ण जैन व्यक्ति थे । सन् 1504 में ईश्वरसूरि नामक कवि ने "ललितांग-चरित" नामक एक रोचक काव्य-ग्रंथ दशपुर में रचा था जिसमें श्री पातिसाह निसीर का उल्लेख आया है । इस ग्रंथ का दूसरा नाम "रासक-चूड़ामणि- पुण्य-प्रबंध' भी कहा गया है। सन् 1508 ईस्वी में मंडप दुर्ग में मलधारगच्छ के कवि हीरानंद ने "विद्या-विलास-पवाड़ों” नामक चारित काव्य की रचना की । इसी समय मालवा के आजणोद नामक गांव में सोलंकी रावत पदमराय की पत्नी सीता के दो पुत्र हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 24 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति w.jainel Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ हुए थे । ये दोनों एक बार तीर्थ यात्रा को गये, जहां गिरनार में इन दोनों ने रंगमंडन मुनि से जैन-दीक्षा ग्रहण की । इनमें से एक का नाम ब्रह्मकुमार था जो कालांतर में ब्रह्ममुनि पार्श्वनाथसूरि की परंपरा में विनयदेव सूरि नामक आचार्य बने । नासिरूद्दीन के काल में ऐसा लगता है, जैन कला और स्थापत्य का लम्बा सिलसिला समाप्त होने लगा था। आश्चर्यजनक रूप से हम उसके राज्य-काल में जैन-प्रमिमाओं का अभाव-सा पाते हैं । दो कारणों से इस समय जैन मत की गति कुंठित हो गई थी । पितृहंता नासिरूद्दीन जैन समाज का चहेता नहीं था दूसरी ओर नासिरूद्दीन के बदमिजाज और शराबी व्यक्तित्व से जैन समाज की कोई संगीति नहीं मिल पा रही थी । मांडव के जैनियों में पारस्परिक ऐक्य न होने से दरबार में उनकी विरोधी मुस्लिम लाबी भी महत्वपूर्ण हो गई थी। जिसका स्पष्ट प्रमाण नासिरूददीन की मृत्यु के बाद देखने को मिला । नासिरूद्दीन खिलजी के एक दशक का यह राज्यकाल जैन धर्म के लिये मिश्रित उपलब्धियों वाला था क्योंकि जहां एक ओर मालवा में सत्ता वर्ग में जैन धर्म का विरोध प्रारंभ हो गया था, वहीं दूसरी ओर दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय अपनी स्थिति को दृढीभूत करने के प्रयास में । फिर भी ऐसा लगता है कि उन्हें इस काल में वांछित सफलता नहीं मिल पा रही थी। महमूद खिलजी द्वितीय (1511-1531 ईस्वी) महमूद को मालवा का सुलतान बनने के पूर्व अपने भाई शहाबुद्दीन मोहम्मद द्वितीय से गृह-युद्ध लड़ना पड़ा था । ऐसी स्थिति में महमूद ने एक राजपूत नेता मेदिनीराय के सहयोग से सुलतान पद प्राप्त किया । इस घटना से मेदिनीराय का प्रभाव पर्याप्त बढ़ गया । सुलतान ने उसको हटाने का प्रयास किया किन्तु यह संभव न देख मालवा का सुलतान गुजरात चला गया और वहां के सुलतान की सहायता से उसने पुनः मालवा का शासक बनने का प्रयास किया, किन्तु चित्तौड़ के महाराणा सांगा ने बीच में ही उसे कैद कर लिया । काफी कुछ भेंट देकर ही महमूद मांडव लौट सका | महमूद का मांडव लौटना उसके लिये घातक सिद्ध हुआ क्योंकि गुजरात के सुलतान बहादुरशाह ने सन् 1531 ईस्वी में मांडव पर आक्रमण कर उसे उसके सात पुत्रों सहित बंदी बना लिया । गुजरात ले जाते हुए उसे रास्ते में ही मार डाला गया । इस तरह मांडव से खिलजी शासन का अंत हो गया"। महमूद के राज्यकाल में मुस्लिम अमीर पुनः प्रभावशाली हो गये । मेदिनीराय का पतन हो गया । बसंतराय जैसा शक्तिशाली राजनीतिज्ञ मारा गया तथा संग्रामसिंह सोनी को मालवा से निष्कासित किया गया । इस घटनाओं का जैन समाज के अस्तित्व पर प्रभाव पड़ा । मालवा दरबार में जैन प्रभाव लगभग समाप्त हो गया । उनका व्यापार व्यवसाय दिन पर दिन कम होता चला गया और धीरे-धीरे वे या तो मारे गये या मालवा से पलायन कर गये । ऐसी स्थिति में किसी प्रकार के जैन-निर्माण की परिकल्पना व्यर्थ ही है । मालवा के सुलतानों के समय जैन धर्म ने उल्लेखनीय प्रगति की । चाहे राजनीति हो या सामाजिक क्षेत्र, प्रशासकीय दायित्य हो या निर्माण कार्य, सर्वत्र जैन प्रशासकों एवं श्रेष्ठियों की तूती बोलती रही । सांस्कृतिक क्षेत्र में महाकवि मंडन तथा प्रशासकीय क्षेत्र में संग्रामसिंह सोनी, इस काल के दो महत्वपूर्ण व्यक्तित्व थे जो मालवा के इतिहास के अत्यंत ही महत्वपूर्ण व्यक्तियों में परिगणित किये जा सकते हैं। खिलजियों के पतन के उपरांत मांडू पर क्रमशः अफगान एवं मुगल सत्ता पर आये । मुगल सम्राट अकबर द्वारा मालवा को अन्तिम रूप से जीत लिये जाने के साथ ही मांडू का वैभव जाता रहा । यद्यपि मुगल काल में भी मालवा में जैन धर्म का प्रभावी अस्तित्व बना रहा किन्तु मध्यकालीन मालवा के जैन धर्म के प्रमुख केन्द्र मांडव से तो उसकी बिदाई ही हो गई। माहेमेन्द ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 25 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति TEducatinuintamaane www.ainelibrary.org Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ मांडव का जैन कला-वैभव : कुछ पहलू की जैन मूर्तिकला - मांडव में जैन मन्दिर एवं प्रतिमा निर्माण की पर्याप्त चर्चा ऊपर की जा चुकी है। स्थानाभाव के कारण उनका शिल्प-शास्त्रीय विवेचन यहां नहीं किया जा रहा है । जिस बर्बरतापूर्वक इनका विनाश या विध्वंस किया गया, वह इतिहास का एक वेदनामय अध्याय है । मांडवगढ़ में उपलब्ध जैन मूर्तियों पर जो पाद-पीठलेख उत्कीर्ण किये गये उनकी संख्या 25 से अधिक है। मांडवगढ़ की ये प्रतिमाएं उपकेश, श्रीमाल, प्राग्वाट, ओसवाल, सोनी आदि ज्ञातियों के श्रेष्ठियों द्वारा प्रतिष्ठित की गई। इन प्रतिमा लेखों में कोरंट, बृहत्त तपा, अंचल, खरतर, नागपुरीय तपा आदि गच्छों का उल्लेख हुआ है । सर्वाधिक उल्लेख तपा पक्ष का है । जिन बिंबों पर यह उत्कीरण हुआ है, उनमें तीर्थंकर आदिनाथ, संभवनाथ, अजितनाथ, चन्द्रप्रभ, सुव्रतस्वामी, शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ, कुंथुनाथ, महावीर आदि रहे हैं । इन प्रतिमाओं का समय, लेखांकित तिथियों के अनुसार, संवत् 1483 से संवत् 1696 तक का है । मांडू की जैन चित्रकला - संभव है मालवा में बारहवीं से तेरहवीं सदी तक की चित्रकला की कुछ परम्पराएं रही हों। इसके बाद चौदहवीं और पंद्रहवीं सदी में चित्रकला की विशिष्टताएं स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होने लगी। सुलतानों के शासन काल में इस चित्रकला को स्थायित्व प्राप्त हुआ । इस समय मांडू, नालछा और धार में जैन मतावलंबी व्यापारियों और व्यवसायियों का बाहुल्य था । ये मांडू में विशेष धन सम्पन्न और प्रभावशाली थे । मांडू के सुलतानों के दरबार में भी इनका विशिष्ट प्रभाव था । इनमें नरदेव सोनी, संग्रामसिंह और जसवीर प्रमुख थे । इनकी आर्थिक सहायता, विपुल प्रोत्साहन और उदार संरक्षण से मांडू और नालछा में जैन मुनियों ने जैन धर्म के धार्मिक व लौकिक ग्रन्थों की रचना की । जैन धर्म के कल्पसूत्र तथा अन्य ग्रंथों की हस्तलिखित प्रतियां तैयार की जाने लगीं । सन् 1436 में इस प्रकार तैयार की गई एक जैन ग्रन्थ की प्रतिलिपि उपलब्ध है । इन ग्रंथों के पृष्ठों पर उनके विषय से संबंधित गाथाओं के चित्र बड़े आकर्षक रंगों में चित्रित किये गये हैं । ग्रन्थ के पृष्ठों के किनारे फूल-पत्तियों और बेल-बूटों से चित्रित किये जाते थे । इनमें लाल, पीले, और सुनहले रंगों का उपयोग होता था। मानव आकृतियां भी सुंदर आकर्षक ढंग से चित्रित की जाती थीं । इस चित्रकला पर पश्चिमी भारत की जैन चित्रकला का प्रभाव था । मांडू में जैन हस्तलिखित ग्रंथों में कल्पसूत्र विशेष रूप से चित्रित किये गये हैं । ऐसा ही एक कल्पसूत्र ग्रंथ जिसकी पांडुलिपि और चित्रण मांडू में सन् 1498 में हुआ था, उपलब्ध है । यह मांहू-कल्पसूत्र के नाम से प्रसिद्ध है । इस ग्रन्थ में अक्षर लाल पृष्ठभूमि में सुनहले रंग से लिखे गये हैं | बेल-बूटों व फूल-पत्तियों के अलंकरण की पट्टियों से इस ग्रन्थ के प्रत्येक पृष्ठ के दो भाग खड़े रूप में कर दिये गये हैं और बायें भाग में ग्रंथ के अक्षर गद्य-पद्य में लिखे गये हैं । ग्रंथ में वर्णित जैन बातों को समझाने के लिये ये चित्र अंकित किये गये हैं । मनुष्यों, पशु-पक्षियों और देवी-देवताओं के विभिन्न चित्र बनाये गये हैं । राजप्रासाद या राजभवन के आकार का अंकन, राजपुरुषों और राजमहिषियों की बैठी हुई आकृतियां, एक दूसरे को काटते हुए वृक्षों से वक्षःस्थल का चित्रण, पुरुष वक्षःस्थल का अधिक उभरा हुआ चित्रण, वृषभ और गाय का विशेष रूप से चित्रण, अश्व के चित्रण में मेहराब-सी झुकी गर्दन और अनुपात से छोटा सिर ये तत्व जैन ग्रन्थों की चित्रकला की विशेषताएं हैं । पुस्तक के चित्रण में लाल, नीले और सुनहले रंगों का बाहुल्य है । परन्तु इस चित्रण में ग्राम्य जीवन या लोक जीवन की झांकी नहीं है । चित्रकला धर्म से प्रभावित हुई है । धार्मिक बातों और गाथाओं को समझाने और स्पष्ट करने के लिये चित्रकला का उपयोग किया गया है । परन्तु मांडू सुलतानों शासन काल के उत्तरार्ध में मालव चित्रकला का यह स्वरूप परिवर्तित हो गया । मालवा के मांडू में निर्मित चित्र गुजरात की चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी तक की चित्रकला से प्रभावित रहे। इस काल के कल्पसूत्रों की दो जैन पांडुलिपियां प्रकाश में आई जो उक्त तथ्य को प्रकट करती हैं । सन् 1492 की हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 26 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ कल्पसूत्र की एक प्रति और भी प्रकाश में आई। यह सुलतान गयाथशाह खिलजी के समय की है। इसके चित्रों में गुजरात की अपेक्षा मालवी प्रभाव अधिक हैं"। मालवा की चित्रकला पर इन दिनों ईरानी चित्रकला का प्रभाव बढ़ता चला जा रहा था। यही कारण है कि मांडव कल्पसूत्र में जो चित्रकला का नया स्वरूप दिखाई देता है वह 'नियामतनामा' में अंकित चित्रों में शैलीगत समानता रखता है। नियामतनामा में अंकित चित्र स्थानीय प्रभाव से युक्त ईरान की शिराज शैली के हैं। इस नयी चित्रशैली के अनुकरण पर जैन पोथियों में भी चित्र बनाये गये" सच पूछा जाय तो नियामतनामा और 'बोस्ता' के चित्रों ने मालवा में एक नयी चित्र शैली का पुरस्सरण किया । | इस प्रकार यह निष्कर्ष निकालना अन्यथा न होगा कि परमार एवं सल्तनत काल में मांडव में जैन धर्म का पर्याप्त प्रचार प्रसार रहा मांडव के अत्यंत उल्लेखनीय एवं सम्पन्न जैन श्रेष्ठियों ने राजनीति, प्रशासन, साहित्य, धर्म व संस्कृति, कला एवं स्थापत्य, आर्थिक क्षेत्रों एवं जीवन की विभिन्न विधाओं में जो अभूतपूर्व एवं स्मरणीय भूमिका अदा की, वह मालवा ही नहीं, भारत के इतिहास की सदैव एक स्थायी निधि बन कर रहेगी । संदर्भ 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. मांडवगढ़ गिरि आवीया में ननिहिं मनोरथ लाहि । नाहटा अरगचन्द : मालवा के श्वेताम्बर जैन भाषा कवि - मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रंथ, पृ. 361 नाना पुण्यजनाकीर्णे दुर्ग श्री मांडपा भिधे । - उक्त, पृ. 277 इणिपरिवेत्य प्रवारी रची मांडवगढ़ हरि सिद्धि ! उक्त मांडवगढ़ वर मालव देसइ । जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह, द्वितीय भाग, पृ. 112 सी. क्राउझे : माण्डव के जावड़शाह - कर्मयोगी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ, षष्ठ खण्ड, पृ. 88 व्यक्तिगत सर्वेक्षण नालककापुरे सिद्धो ग्रन्धाय नेमिनाथ चैत्यगृहे जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग 2, पृ. 300 । प्रमारवंशवार्धीन्दु देवपाल नृपात्मजे । श्री मज्जेतुगिदेव ऽसि स्थेम्नाऽवन्ती भवत्यलम् । नलकछच्पुरे श्रीमन्ने मि चैत्यालयेऽसिधत् । विक्रमाब्द शतेष्वेषा त्रयोदशसु कीर्ति के ।। अनागार धर्मामृत प्रशस्ति, 119, उक्त पृ. 412 वास्तव्यो नलकच्छ चारू नगरे कर्त्ता परोपक्रियाम् । श्रीमदर्जुन भूपाल राज्ये श्रावक संकुले । जैन धर्मो दयार्थ यो नलकच्छपुरे वसत । जिनयज्ञकल्प प्रशस्ति उक्त, 411 : 10. 11. मुनि-द्वय अभिनन्दन ग्रन्थ - मु. व. अ. ग्र. " 12. तबकास- ए- नासिरी, पृत्र 622 उक्त पृ. 409 पृ. 252 13. दी देहली सल्तनत ए काम्प्रेहेन्सिव हिस्ट्री आफ इण्डिया, भाग 5, पृ. 395 14. निगम, श्यामसुन्दर सम इपिग्राफिक इविडेन्स आफ दी रिवाइवल आफ टेम्पल आर्किटेक्चर इन मालवा पद्मश्री डॉ. वि. श्री. वाकणकर अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ. 111 15. लोढ़ा दौलतसिंह मंत्री मंडन और उनका गौरवशाली वंश श्री यतीन्द्र सूरि अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ. 130 16. मुस्लिमकालीन मालवा में मांडव का महत्व परमार काल की भांति ही बना रहा । कुछ अर्थों में उसका महत्व पूर्वापेक्ष इसलिये भी बढ़ गया था क्योंकि मांडव मालवा के सुलतानों के आधीन एक स्वतंत्र मालवा राज्य की राजधानी था । मालवा के प्रारंभिक शासक दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता से विद्रोह करके सत्ता में आये थे । इस कारण वे सैनिक और वित्तीय दृष्टि से स्थानीय जनता पर निर्भर थे। वित्तीय साधनों की पूर्ति का एक महत्वपूर्ण स्रोत वह जैन समाज था जो मुस्लिम आक्रमण के विरूद्ध अपने अस्तित्व हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 27 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 1390-1410 ईस्वी, Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ । और अपार धन को संरक्षित करने के लिये मालवा में गया । इन परिस्थितियों में यह स्वाभाविक था कि मांडव के सुलतान इस्लाम धर्म के अनुयायी होने पर भी इनके साथ अच्छा व्यवहार करते। इस कारण उन्होंने न केवल विद्यमान जैन समाज का समुचित आदर किया, अपितु आगत जैन परिवारों का खुले दिल से स्वागत भी किया । इतना ही नहीं अनेक योग्य जैन श्रावकों को अत्यन्त ही महत्वपूर्ण प्रशासकीय पदों पर नियुक्त भी किया गया। जैन इतिहास को देखने से पता लगता है कि मंत्री पेड़ झांझण, जावड, संग्रामसिंह आदि अनेक श्रावक यहां पर हो गये हैं जो विपलु ऐश्वर्य और प्रभूत-प्रभूता के स्वामी थे । कविवर मंडन और धनराज भी ऐसे ही श्रावकों में थे । ये श्रीमाली जाति के सोनगरा वंश के थे। इनका वंश बड़ा गौरव और प्रतिष्ठावान था । मंत्री मंडन और धनदराज के पितामह का नाम झांझण था। इसके चाहड़, बाहड़, देहड़, पदम, आल्हा और पाहु नाम के छः पुत्र थे । इनमें से देहड़ और पदम तो मांडवगढ़ के तत्कालीन बादशाह अलपखाँ बनाम होशंगशाह के दीवान थे । अन्य अन्यान्य व्सवसायों में अग्रगण्य थे । इन भाइयों के अनेक पुत्र थे, जिनमें मंडन और धनदराज विशेष प्रसिद्ध थे । मंडन बाहड़ का छोटा पुत्र था और धनदराज देहड़ का एकमात्र पुत्र था। इन दोनों चचेरे भाइयों पर लक्ष्मी जितनी प्रसन्न थी, वैसी ही सरस्वती देवी की भी पूर्ण कृपा थी । इस प्रकार ये बड़े भारी श्रीमान् तो थे ही विद्वान् भी उच्च कोटि के थे । (मुनि जिनविजय : विज्ञप्तित्रिवेणी, पृ. 62,63) । वह दिलावरखाँ गौरी के पुत्र अलपखान या होशंगगोरी का प्रधानमंत्री था । होशंगगौरी ने ई. सन् 1405 से 1432 तक मालवा पर स्वतंत्र शासक के रूप में राज्य किया था। मंडन उसका प्रधानमंत्री था । वह अत्यंत योग्य एवं प्रतिभाशाली था । (देसाई मोहनलाल दुलीचंद जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास, पृ. 476) । विद्वत्ता व योग्यता के बल पर वह प्रगति करते हुए मांडू के सुलतान होशंगशाह गौरी का प्रमुख मंत्री बन गया था । मंडन के प्रभाव से मांडवपुर में विद्वानों का समागम बढ़ चला था और राजसभा में भी आये दिन विद्वानों का सत्कार होता था । राज-कार्य के उपरांत बचे हुए समय को यह विव्दद-सभाओं में और विद्वद् गोष्ठियों में ही व्यय करता था । राजसभा में जाने के पूर्व प्रातः होते ही उसके महालय में कविसेन एवं विद्वानों का मेला सा लगा रहता था । वह प्रत्येक विद्वान् और कवि का बड़ा सम्मान करता था और भोजन, वस्त्र एवं योग्य पारितोषिक देकर उनका सम्मान करता और उत्साह बढ़ाता था। वह संगीत का भी बड़ा प्रेमी था। रात्रि को निश्चित समय पर संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत होता था जिसमें स्थानीय और नवागंतुक संगीतज्ञों का संगीत-प्रदर्शन और प्रतियोगिताएं होती थी। उसका संगीत प्रेम श्रवण करके गुर्जर, राजस्थान और अन्य प्रान्तों से भी संगीत-कलाकार बड़ी लम्बी-लम्बी यात्रों करके आते थे। वह भी उनका बड़े प्रेम से सत्कार एवं आतिथ्य करता था और उनको संतृप्त करके लौटाता था । मंडन स्वयं भी कुशल संगीतज्ञ एवं यंत्र-वादक था । बड़े-बड़े संगीताचार्य उसकी संगीत में निपुणता देखकर अचम्भित रह जाते थे । संगीत के अतिरिक्त मंडन ज्योतिष, छंद, न्याय, व्याकरण आदि अन्य विधाओं एवं कलाओं का भी मर्मज्ञ था । इसकी सभा में कभी-कभी धर्मवाद भी होते थे और प्रमुख का स्थान इसके लिये सुरक्षित रहता था। यह इसके निष्पक्ष एवं अंसाम्प्रदायिक भावनाओं का परिचायक है। सांख्य, बौद्ध, जैन, वैदिक, वैशेषिक आदि परस्पर विरोधी विचारधाराओं का एक स्थल पर यो शांत विचार-विनिमय एवं शास्त्रार्थों का निर्वाह होते रहना निःसन्देह मंडन में अद्भुत ज्ञान, धैर्य, क्षमा और न्यायादि गुणों का होना सिद्ध करता है । मंडन की विद्वद् सभा में कई विद्वान् एवं कुशल कवि स्थायी रूप से रहते थे, जिनका समस्त व्यय वह ही वहन करता था । (लोढ़ा, दौलतसिंह : मंत्रीमंडन और उसका गौरवशाली वंश - राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ, पृ. 132) मंडन एक सुलेखक था। उसके द्वारा रचित ग्रन्थों काव्य-मंडन, श्रृंगार-मंडन, सारस्वत-मंडन, कादम्बरी-मंडन, चम्पू-मंडन, चन्द्रविजय प्रबंध, अलंकार-मंडन, उपसर्ग-मंडन, संगीत-मंडन आदि उल्लेखनीय हैं. - (मु. व.अ.ग्र. पृ. 256) 24. मंडन न केवल मध्यकालीन मालवा अपितु सम्पूर्ण मुस्लिम काल के एक महनीय रचनाकार एवं प्रशासक थे एक श्रावक के रूप में वे अपने समय के आशाधर सिद्ध हुए । 17. उक्त, पृ. 131-32 18. डे, यू. एन. मिडिएवल मालवा मि. मा. पृ. 423 19. लोढ़ा दौलतसिंह : प्राग्वाट इतिहास 3, पृ. 263-64 20. उक्त पृ. 265 21. मि. मा. पृ. 94 22. उक्त, पृ. 424 23. नाहटा, अगरचन्द मालवा के श्वेताम्बर जैन भाषा कवि - मु.द्ध.अ.ग्र. पृ. 272-78 उक्त हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 28 हेमेन्द्र ज्योति हमे ज्योति Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25. निजामी, ए. एच. : पूर्वोक्त, पृ. 90 26. गौड़, तेजसिंह : मालवा में जैनधर्म: ऐतिहासिक विकास - मु.व.अ.ग्र. पृ. 257, मक्सी के मन्दिर के एक भित्ति लेख में संग्रामसिंह का उल्लेख है। भा. दि. जै.ती. भाग 3, पृ. 250 27. डे. यू. एन. मिडियवल मालवा, पृ. 427 : पुत्रस्तयो श्री जसवीरनामा कामाभिरामाकृतिरूपधारी ।। श्री ग्यासदीनस्य हि यौवराज्ये प्रधानतां यः प्रवभार राज्य । उद्धत जर्नल आफ मध्यप्रदेश इतिहास परिषद् कहा 4. पृ.00 कतिपय जैन ग्रंथों में गयासुद्दीन का उल्लेख है। दो संदर्भ पर्याप्त होंगे श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 38. 1. मालव देसे धम्मसुपयासणु मुणिदेवंदकित्तिपिउभासणु । तहसिसु अभियवाणि गुणधार तिहुवणकितिपबोहणसारउ । तहाँसिसु गुदकित्ति गुरुभक्त जेहि हरिवंसपुराणु पउत्तर । संवतु विक्कमसेण णरेसह सहसु पंचसय बावण सेसह । मंडपगड वर मालवदेसइसाहि गयासु पयाव असेसइ । जोहरापुरकर भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक, 523 - 28. गौड़, तेजसिंह पूर्वोक्त, पृ. 256 29. लोढ़ा, दौलतसिंह पूर्वोक्त, पृ. 303 2. मालव देस दुगा मंडवचलु वहडसाहि गयासु महाबलु । साहि णसीरणाम तहणंदणु रायधम्म अणुरायउ बहुगुणु । उक्त लेखांक 524 : उक्त डे, यू. एन. मिडियवल मालवा, पृ. 427 - 30. 31. 32. गौड़, तेजसिंह : पूर्वोक्त, पृ. 256 33. डे. यू. एन. पूर्वोक्त, पृ. 427-28 34. क्राउझे अनु. सत्यव्रत माण्ड के जावड़शाह 35. उक्त पृ. 88-89 36. उक्त, पृ. 89 व आगे 37. उक्त समरथ साहस धीर, श्री पातिसाह निसीर । उद्धत - जैन कामताप्रसाद जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ. 67 नाहटा, अगरचन्द : पूर्वोक्त Education inte कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दनग्रन्थ, पृ. खण्ड पृ.87 39. 40. डे पूर्वोक्त 41. उक्त अ. 11 42. उक्त का परिष्टि - डी 43. स्व. श्री लोढ़ाजी ने 'मांडवगढ़ तीर्थ' नामक एक पुस्तिका का लेखन किया था। इस पुस्तिका के प्रकाशक थे - श्री जैन श्वे. संघ की पेढ़ी पीपली बाजार, इन्दौर । सन् 1960 में मुद्रित इस कृति में पृष्ठ 46 से 54 तक श्री लोढ़ा ने मांडवगढ़ से सम्बन्धित कई जैन लेख दिये थे । मण्डप दुर्ग (मांडव ) की कई प्रतिमाएं अन्यत्र तथा इन्दौर, धार, उज्जैन, आगरा, नागोर, कैसूर, परासली, बुरहानपुर, मण्डोद आदि स्थानों पर जा चुकी हैं। ऐसा उल्लेख श्री लोढ़ा ने सम्बन्धित अभिलेखों के साथ किया है। -मालवांचल के जैन लेख, पृ. 73 44. लूणिया, भंवरलाल मध्य युग में मालव चित्रकला - मालविका, मालव एक सर्वेक्षण, पृ. 93-04 45. निजामी, ए. एच. कन्ट्रीब्यूशन आफ जैनिज्म टू हिस्ट्री आफ मालवा, शोध-साधना, 1986, पृ. 89-90 46. मि. मा. पृ. 376-78 हेमेल ज्योति मेजर ज्योति 29 समर्पण 34, केशव नगर, हरिफाटक, उज्जैन (म.प्र.) मेल्य ज्योति हमे ज्योति Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ। नदान : रूप और स्वरूप -विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गोदानम् अर्थात् उपकार के हेतु से धन आदि अपना पदार्थ जब किसी को दिया जाता है तो उसे दान कहा जाता है । दर असल दान में परोपकार का भाव मुख्य रहता है और अपने उपकार का भाव गौण । इन्दौर के सर सेठ हुकमचन्दजी अपने समय के पहले और अकेले श्रेष्ठि शिरोमणि थे । एक बार उनसे किसी ने पूछा, "आपके पास कुल सम्पत्ति कितनी है? लोगों को आप की सम्पत्ति की थाह नहीं मिल रही है । आप लक्ष्मी पुत्र हैं । जन कुल अनुमान ही अनुमान में भटक रहा है । कोई दश करोड़ का अनुमान लगाते हैं, कोई बीस करोड़ का । वास्तविक स्थिति क्या है? कोई नहीं जानता ।"यह सुनकर सेठ सा. मुसकराये और बोले - "मेरी सम्पत्ति थोड़ी है । आपको सुनकर आश्चर्य होगा - सत्ताइस लाख पचास हजार ।" प्रश्नकर्ता ने अविश्वास की मुद्रा में कहा, "क्यों फुसलाते हैं, आप? करीब पचीस लाख रूपये का तो शीश महल ही होगा । कितनी मिलें हैं, कितनी अधिक अन्य अनन्य मूल्यवान सामग्री? सेठ साहब तब बोले," आप मेरे कहने का आशय नहीं समझे । अभी तक इन हाथों से केवल सत्ताइस लाख पचास हजार ही दान में दिये जा सके हैं । जो इन हाथों से दिये गये हैं और जनता के हित में जिनका उपयोग हुआ है, दर असल वे ही मेरे हैं । कितनी थोड़ी सी पूंजी है मेरी । हाथों से दिया गया दान ही अपना धन होता है ।" दान की चर्चा में ही त्याग का प्रसंग स्वयमेव उद्भूत हो जाता है । मेरी दृष्टि में त्याग स्वयं एक स्वतंत्र आर्थिक सत्ता है । इसका दान से कोई सम्बन्ध नहीं । दान और त्याग दोनों स्वतंत्र शब्द हैं और दोनों की आर्थिक सत्ता भी स्वतंत्र ही है | त्याग वस्तुतः धार्मिक लक्षण है । वह आत्मिक स्वभाव है । जबकि दान है पुण्य कर्म । धार्मिकों अथवा त्यागियों के पास किंचित परिग्रह अथवा संग्रह नहीं होता जबकि दानियों के पास पदार्थों का पूर्ण परिग्रह पाया जाता है । त्याग वस्तुतः पर को पर जानकर किया जाता है । दान में यह बात नहीं होती । दान सदा उसी वस्तु का दिया जाता है जो वह स्वयं अपनी हो । पर-वस्तु का त्याग तो हो सकता है, पर दान नहीं । दूसरे की वस्तु को उठाकर यदि किसी को दे दिया जाय तो दान नहीं कहा जा सकता, अपितु वह एक प्रकार से चोरी की श्रेणी में आता है । जो वस्तु अनुपयोगी, अहितकारी और निरर्थक होती है वस्तुतः ऐसी किसी वस्तु का त्याग किया जाता है, जबकि दान में वही वस्तु दी जाती है जिसकी उपयोगिता और हितवादिता सर्वथा चिरंजीवी रहती है । इस प्रकार उपकार की भावना से अनुप्राणित अपनी उपयोगी वस्तु का सुपात्र को दे देना वस्तुतः कहलाता है - दान । दान और त्याग में पदार्थ की उत्कृष्टता और निकृष्टता का प्रायः मूल्य और मूल्यांकन किया जाता है । दान में वही पदार्थ दिया जाता है जिसका सामाजिक और धार्मिक स्तर पर मूल्य होता है । त्याग में इस प्रकार का विचार प्रायः नहीं किया जाता है । सामान्यतः निकृष्ट पदार्थ अथवा प्रवृत्ति का त्याग किया जाता है । उदाहरण के लिए क्रोध का प्रायः त्याग किया जाता है । इसी श्रृंखला में मान, माया और लोभ का भी त्याग करना श्रेयस्कर होता है किन्तु ज्ञान का कभी कोई त्याग नहीं करता, क्योंकि ज्ञान आत्मा का स्वभाव है । आत्मा के लिये जो दुःखद और अप्रिय अनृतमयी वृत्तियां हैं जिनका उदय अथवा जन्म मोह जन्म राग और द्वेष से अनुप्राणित होता है, ऐसी बातों का सदा त्याग तो किया जाता है, दान कभी नहीं । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 30 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Jain Educatfor m ational Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ लोक-जीवन में लौकिक मान्यता के अनुसार त्याग और दान को पर्याय वाची माना गया है । ये दोनों शब्द पर्यायवाची हैं नहीं । कुछ अंशों में ये दोनों-त्याग और दान परस्पर में विरोधी स्वभाव के प्रतीत हो उठते हैं । उदाहराणार्थ आत्मिक स्वभाव क्षमा का दान तो किया जाता है पर उसका त्याग त्रिकाल में नहीं किया जाता । इतना अवश्य है कि दान देने से त्याग के संस्कार अवश्य प्रोन्नत होते हैं । दान के संदर्भ में एक बात और उल्लेखनीय है । दान में तीन पात्रताएं अपेक्षित होती हैं - यथा 1. दातार । 2 दान में दी जाने वाली वस्तु | 3. वह व्यक्ति जिसको दान दिया जाता है । त्याग में इन तीन पात्रताओं के स्थान पर केवल दो ही पात्रताएं अपेक्षित होती हैं - यथा 1. त्यागी - वह व्यक्ति जो त्याग करता है । 2. वह वस्तु जिसका त्याग किया जाता है । दान में पराधीन क्रिया की प्रधानता रहती है जबकि त्याग में पूर्णतः स्वाधीनता रहती है । दान वस्तुतः पुण्यात्मक कर्म का परिणाम होता है और त्याग है आत्मा का स्वभाव । धर्म शास्त्र में दान चार प्रकार का कहा है - यथा 1. आहारदान 2. औषधिदान 3. अभयदान 4. ज्ञानदान दान विषय अन्य अन्य संदर्भ इन्हीं भेदों में अन्तर्मुक्त हो जाते हैं । आहार और औषधि दान में प्राणियों को भोजन और औषधि दी जाती है जबकि आहार और औषधि त्याग में क्रमशः आहार और औषधि का स्वयं सेवन करने का त्याग किया जाता है फलस्वरूप त्याग में भोजन तथा औषधि का अन्य किसी को देने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसी प्रकार अभयदान और ज्ञानदान में अभय और ज्ञान के त्यागने का प्रश्न ही नहीं उठता किन्तु इन दोनों का दान तो दिया जा सकता है। आहार दान से तात्पर्य हैं भूखे को आहार जुटाना । चौका की संस्कृति से अनुप्राणित भोजन और चौका का घनिष्ठ सम्बन्ध है । क्षेत्र शुद्धि, द्रव्य शुद्धि, काल शुद्धि और भाव शुद्धि का समवेत रूप चौका के स्वरूप को स्थिर करता है । चौका की संस्कृति से अनुप्राणित किसी भी सत्पात्र को भोजन कराना आहारदान की उत्तम अवस्था है। औषधिदान करते समय दातार को औषधि का सूक्ष्म ज्ञान होना आवश्यक है । औषधिदान में दातार में रोग और उसका निदान विषयक बोध होना उसमें चार चाँद लगा देता है । सत्पात्र को उपयुक्त औषधि का दान देना वस्तुतः अत्यन्त उपयोगी होता है । अभयदान से तात्पर्य है जो भी प्राणी भयभीत है, उसे वस्तुतः भयमुक्त करना अभयदान है | कौन कर सकता है अभय दान? जो स्वयं भयभीत है वह तोप-तीर तलवार से क्या किसी को भय मुक्त कर सकता है? विचार कीजिए जब सत्व में समत्व का संचार हो उठता हैं और अन्ततः उसमें सम्यक्त्व का उदय हो जाता है तब कहीं उसमें निर्भयता के संस्कार मुखर हो उठते हैं । सार और संक्षेप में कह सकते हैं कि सम्यक दृष्टि जीव सदा निर्भय होता है और वही दूसरों को अभयदान दे सकता है । हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति ET 31 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द ज्योति। Nrwariya Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ विद्वान और बुद्धिमान दो शब्द है उनकी अपनी-अपनी स्वतंत्र आर्थिक सत्ता है । पुस्तकों के अध्ययन अनुशीलन से विद्वान् बना जाता है, जबकि बुद्धिमत्ता मतिज्ञान की प्रखरता से प्रदीप्त होती है । विद्वान के लिये बुद्धिमान होना आवश्यक नहीं होता । बुद्धिमान के लिये विद्वान् होने की अनिवार्यता कोई महत्व नहीं रखती । ज्ञान दान का सीधा और शाश्वत सम्बन्ध बुद्धिमान से होता है। आज हर पढ़ा लिखा व्यक्ति दूसरे को ज्ञानदान दे उठता है । ज्ञान और श्रद्धान पूर्वक जिस साधक ने ध्यान में जाने की क्षमता जाग्रत करती है, उसीमें वस्तुतः ज्ञान दान देने की शक्ति उद्भूत होती है । वह अपनी चारित्रिक भाषा में सत्पात्र को ज्ञान दान देने की चेष्टा करता है । दान की सत्पात्रता चतुर्विध संघ में होती है । साधु-साध्वी, श्रावक और श्राविका मिलकर चतुर्विध संघ के रूप को स्वरूप प्रदान करते हैं । इसके अतिरिक्त जिस प्राणी की दशा और दिशा में सन्मार्ग मुखी परिवर्तन की सम्भावना मुखर हो उठे, उस पात्र को भी दान देना सार्थक माना गया है। जीव दया हेतु दान देना वस्तुतः धार्मिक संस्कारों का सुपरिणाम होता है। सद्गृहस्थ की सफलता हेतु जैनाचार्यों ने षट् आवश्यकों की जानकारी और उनका शक्तिभर नैत्यिक प्रयोग और उपयोग करना वस्तुतः अनिवार्य माना गया है । देवदर्शन / स्मरण, गुरुवंदन, संयम, तप स्वाध्याय और दान से छह शुभ संकल्प षट् आवश्यक कहलाते हैं । इससे गृहा में प्रत्येक प्रारभी के प्रति दया, सौहार्द्र और परोपकार जैसे शुभ संस्कार उत्पन्न होने लगते हैं। इस प्रकार के उदत्त संस्कार माननीय विकास के लिये परम आवश्यक प्रमणिगत होते हैं । दान देना वस्तुतः मनुष्य की उत्तम प्रवृति है। आज के आपा धामी प्रधान जन-जीवन में सुख और सन्तोष का वातावरण उत्पन्न करने के लिये दान देने के शुभ संस्कारों की आवश्यकता असंदिग्ध है । हेमेला ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 394, सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़ चोरी, स्त्रीप्रसंग और उपकरण संग्रह ये तीनों बातें हिंसामूलक हैं और संयम साधकों को इनका सर्वथा परित्याग कर देना ही लाभकारक है अजैन भाास्त्रकारों का भी मन्तव्य है कि जो संन्यासी चोरी, भोगविलास और माया का संग्रह करता है वह कनिश्ठ योनियों में बहुत कालपर्यंत भ्रमण करता रहता है। इसी प्रकार 1 गृहस्थ की आज्ञा के बिना उसके घर की कोई भी वस्तु वापरना, 2- किसी की बालक बालिका या स्त्री को फुसला कर भगा देना, 3 और जिने वर निशेधित बातों का आचरण अथवा भाास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा करना और 4 गुरु या वड़ील की आज्ञा के बिना गोचरी लाना, खाना या कोई भी वस्तु किसीको देना-लेना ये चारों बातें चोरी में ही प्रविश्ट है अतः संयमी साधुओं को इन बातों से भी सदा दूर रहना चाहिये, तभी उसका संयम सार्थक होगा। 32 मंगलकलश 202 001 श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेजर ज्योति ज्योति Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ स्वप्न - एक चिन्तन -डॉ. कालिदास जोशी दैनिक जीवन में हम सबको जागृति, स्वप्न एवम् सुषुप्ति, इन तीनों अवस्थाओं का लगातार अनुभव होता रहता है । इन तीनों का साहचर्य तथा क्रम स्वाभाविक, अकृत्रिम, सहज होता है इसलिये हम प्रायः इनके संबंध में अलग से सोचते नहीं हैं । प्राचीन भारतीयों ने इन तीनों अवस्थाओं के बारे में गहराई से चिन्तन किया । वेदान्ती विचारकों ने स्वप्न की अवस्था में विशेष रूचि दिखायी, तथा अपने 'ब्रह्म सत्य जगन्मिथ्या इस सिद्धान्त को स्पष्ट करने के लिये कई बार स्वप्न के उदाहरण का सहारा लिया । उनका हमेशा यह आग्रह रहा कि जैसे स्वप्न के पदार्थ स्वप्न की अवस्था के जारी रहने तक ही विद्यमान रहते हैं, स्वप्न टूटने पर जागृति आने पर उनका कोई अस्तित्व नहीं रहता, ठीक उसी प्रकार हमें दैनिक व्यवहार में प्रतीत होने वाली पदार्थों की विविधता अनेकता भी पारमार्थिक दृष्टि जग जाने पर बाधित हो जाती है । तब केवल सच्चिदानंद ब्रह्म की एक मात्र सत्ता की अनुभूति होती है । स्वप्न की अवस्था का विचार हमेशा जागृति तथा निद्रा के परिप्रेक्ष्य में हुवा है । जागृति में दो बातें रहती है। प्रथम बात है हमारे ज्ञानेंद्रियों का उनके विषयों से संपर्क - जैसे चक्षु का रूप या दृश्य से, श्रोत्र का शब्द, अर्थात ध्वनि से, त्वचा का स्पर्श से रसना का रस से, तथा ध्राण का गंध से संपर्क | दूसरी बात है इस संपर्क के फलस्वरूप बोध, अनुभव या प्रत्यय का मनःपटल पर अंकित हो जाना, अर्थात उस अनुभव की समाप्ति के बाद भी संस्कार रूप से उसका मन में विद्यमान रहना। उस संस्कार के पुनः जागृत होने से उस अनुभव की स्मृति जागृत हो उठती है। निद्रा की अवस्था में इन दो प्रक्रियाओं में से दूसरी प्रक्रिया (अर्थात प्रत्यय का अंकन) घटित नहीं होती । इसलिये निद्रा में अनुभूतियों के संस्कार नहीं बनते और न ही भविष्य में उन के पुनर्जागरण की कोई संभावना बनती । यदि ऐसा नहीं होता तो किसी सोये हुवे व्यक्ति के पास खड़ी आवाज में कोई पाठ, कथा या कविता पढ़कर सुनाई जाने से जैसे कोई जागने वाला व्यक्ति उसके अंश फिर से सुना सकेगा वैसे ही सोया हुवा व्यक्ति भी जग जाने पर उसी -प्रकार उसके अंश सुनाने में समर्थ होता । परंतु ऐसा कभी प्रत्यक्ष में दिखायी नहीं देता। स्वप्न की अवस्था जागृति तथा निद्रा इन दोनों से भिन्न, फिर भी कुछ मामलों में दोनों से कुछ समानता रखनेवाली बीच की स्थिति है | जागृति के समान वह अनुभूतियों से युक्त अवस्था है । इन अनुभूतियों का निर्माण क्रम (Genesis) जागृति की अनुभूतियों से एकदम भिन्न होता है । स्वप्न की अनुभूतियाँ अत्यंत अल्पकालिक चंद मिनटों तक ही रहनेवाली होती हैं । प्रतिदिन के चौबीस घंटो में से हम जागृत अवस्था में यदि लगभग सोलह घंटे रहते हो तो 'स्वप्न' में केवल लगभग पंद्रह, बीस मिनट ही रहते होंगे । और फिर स्वप्न के अनुभव हम तुरन्त भूल भी जाते हैं । यदि हमारा जीवन क्रम ऐसा होता, जिसमें स्वप्न, निद्रा और जागृति में हमारा समान समय व्यतीत होता जैसे प्रतिदिन आठ आठ घंटे-तो फिर हमें किसी समय हम जागृत हैं कि स्वप्न देख रहे हैं इसका निर्णय करना बहुत ही कठिन हो जाता । स्वप्न जब तक जारी रहता है तब तक तो उसकी अनुभूतियां जागृति की अनुभूतियों जैसी ही लगती हैं । वे कम ठोस, अधिक तरल या अविश्वसनीय नहीं लगती । परंतु जग जाने पर वे नष्ट होती हैं और मन में उनकी स्मृतियां भी मंद होकर जल्द ही खत्म हो जाती हैं । इसलिये स्वप्न को आभासिक या प्रातिभासिक (illusory) समझा जाता है । स्वप्न के पदार्थों की प्रातिभासिकता की तुलना अन्य भ्रांतियों से की जाती है - जैसे मृगमरीचिका, सीप में रजत का आभास तथा कम रोशनी में रज्जु की जगह सर्प का अवभास । इन भ्रांतियों के स्वरूप वर्णन के संबंध में भारतीय तत्वचिंतकों के मन भिन्न-भिन्न हैं, तथा उन्होंने उसको अलग अलग नाम दिये हैं- जैसे अन्यथा ख्याति (न्याय वैशेषिक), सत् ख्याति (जैन दर्शन), विपरीत ख्याति (सांख्य-योग), आत्मख्याति (योगाचार बौद्ध), असत् ख्याति (माध्यमिक बौद्ध), अख्याति (प्रभाकर मीमांसा, रामानुज), तथा अनिर्वचनीय ख्याति (अद्वैत वेदाना) । हेमेन्ट ज्योति * हेगेच ज्योति 33 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ किसी भी व्यक्ति को भ्रांति में अवभासित होनेवाले पदार्थों (जैसे पानी, रजत, अथवा सप) का पहले से ही ज्ञान होना आवश्यक होता है । उदाहरण के लिये, जिसने पहले कभी रजत देखा ही नहीं है और जिसके मन में रजत की कोई संकल्पना ही न हो उसको सींप में रजत का अवभास नहीं होगा । उसी प्रकार स्वप्न में अवभासित होनेवाले पदार्थ का भी सपना देखनेवाले को पूर्वानुभव होना आवश्यक है, क्योंकि स्वप्न के आभास के लिये पूर्वसंस्कार, जो मन में संचित हुवे हो, उनका पुनर्जागरण होना आवश्यक होता है । तभी वह पदार्थ या प्रसंग उसको स्वप्न में अवभासित हो सकता है । स्वप्न टूटने पर स्वप्न के पदार्थ की जगह पर व्यावहारिक जगत् में उस पदार्थ का या किसी अन्य पदार्थ का कोई अस्तित्व नहीं बचता, जबकि भ्रांति दूर होने पर ऐसा नहीं होता । उसमें सर्प के स्थान पर रस्सी, या जल की जगह बालू और रजत के स्थान पर सींप का अनुभव हो जाता है, जो बाद में विद्यमान रहता है । यह स्वप्न और अन्य भ्रांतियों के बीच एक महत्व का अन्तर हैं । स्वप्न का उदाहरण देकर एकमेवा द्वितीय ब्रह्म की सिद्धि वेदान्त में किस प्रकार की गयी है, इस संबंध में श्रीमत शंकराचार्य के अपरोक्षानुभूति ग्रंथ में उपलब्ध निम्न दो श्लोक विचारणीय हैं । स्वप्नो जागरणेऽलीक: स्वप्नेऽपि न हि जागरः । द्वयमेव लये नास्ति लयोऽपि ह्युभयोन च 157| त्रयमेव भवेन्मिथ्या गुणत्रय विनिर्मितम् । अस्य द्रष्टा गुणातीतो नित्यो ह्येक श्चिदात्मकः 1158।। अर्थ :- "स्वप्न की स्थिति जागृति में नष्ट हो जाती है । जागृति का स्वप्न में अभाव होता है । निद्राकाल में स्वप्न और जागृति दोनों नहीं रहते और उन दो में निद्रा नहीं रहती । अतः त्रिगुणों से निर्मित ये तीनों अवस्थाएं मिथ्या हैं | तीनों में विद्यमान द्रष्टा ही गुणातीत, नित्य, एकमात्र, चित्स्वरूप है " । उस आत्मस्वरूप के साक्षात्कार को ही अपरोक्षानुभूति कहते हैं | वही तुरीय अवस्था है । महर्षि पतंजलि ने योग सूत्र में चित्त को प्रसन्न एवं स्थिर करने के उपायों की विस्तार से चर्चा की है । (देखें - योगसूत्र 1: 33-39) । उसमें 38वें सूत्र में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि स्वप्न तथा निद्रा में कभी कभी अत्यंत उत्कट, सुखद अनुभव आते हैं | उनपर यदि साधक चित्त को स्थिर करे तो उसका चित्त आसानी से प्रसन्न सकता है। दार्शनिक चिन्तन के अलावा पिछले कुछ वर्षों में मनोविज्ञान के क्षेत्र में स्वप्न के संबंध में प्रचुर खोज कार्य हुआ है। सुप्रसिद्ध जर्मन मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ्रॉइड ने मनोविकारों से ग्रस्त व्यक्तियों के स्वप्नों का विश्लेषण करके मन के व्यवहारों को समझने का सफल प्रयास किया । उन्होंने मन की तह में दबी हुवी भावनाओं को तथा भय को अभिव्यक्ति की (Conscious) दशा में लाने का अपना नया तरीका (Psychoanalysis) विकसित किया। वर्तमान में मस्तिष्क के सूक्ष्मतम घटकों के वियुत्रसायनिक प्रक्रियाओं की कार्यपद्धति का प्रचुर मात्रा में अध्ययन होने के फलस्वरूप स्वप्न एवम् मस्तिष्क के अन्य व्यवहारों के बारे में नयी जानकारी प्राप्त हुई है। उसके अनुसार 'स्वप्न' यह निद्रा के अंतर्गत घटित होनेवाली एक अवस्था है । निद्रा के 'शान्त निद्रा (Quiet Sleep) तथा 'सक्रिय निद्रा (active Sleep) ऐसे दो प्रकार अब माने जाते हैं । जब हम जागृति से निद्रा की अवस्था में जाते हैं तब प्रथम शान्त निद्रा की चार अवस्थाओं में से विकसित होनेवाली स्थिति लगभग डेढ़ घंटे हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 34 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्ट ज्योति Dear use Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ। तक जारी रहती है । तत्पश्चात सक्रिय निद्रा की स्थिति लगभग उतने ही समय तक रहती है । उसको REM Sleep कहते हैं, क्योंकि उसमें आंखे शीघ्रता से हिलती रहती हैं (Rapid eye Movements) | इसी अवस्था में अधिकतम स्वप्न दिखायी देते हैं । ये दोनों अवस्थाएं एक के बाद एक क्रमशः आती रहती हैं । दोनों के बीच में गाढ़ निद्रा (deep sleep or delta sleep) की स्थिति बीच बीच में पंद्रह बीस मिनटों तक आ सकती है । इनमें व्यक्तिगत असमानताएं बहुत अधिक देखी गयी हैं । मानसिक परेशानियों के कारण भी निद्रा के क्रम में बदलाव आता है । स्वप्न में कभी यह स्वप्न है ऐसा ज्ञान नहीं होता । उस की घटनाएं हमेशा जागृति जैसी ही लगती हैं । स्वप्न के प्रसंग ज्यादातर उस दिन के प्रत्यक्ष अनुभवों पर ही आधारित रहते हैं । या फिर तीव्र भावनाओं से, भय से, या सुख या दुःख की अधिकता से जुड़े हुवे अनुभवों से स्वप्न अधिक प्रभावित रहते हैं । स्थिर और शांत मन में स्वप्न नहीं आते । अस्थिर मनोवृत्ति स्वप्नों के लिये अनुकूल होती है | जन्मांध व्यक्ति या कर्णवधिर, गूंगे व्यक्ति के स्वप्नों में दृश्य का या ध्वनि का कोई आविष्कार नहीं होता । अधिकतर स्वप्न तुरन्त भूल दिये जाते हैं । जगने के बाद कुछ क्षणों तक ही उनकी स्मृति रहती हैं । दैनिक जीवन में हमारी अनेक इच्छाए अपूर्ण रहती हैं । उनको हम स्वप्नों में पूरी हुई देखने से तनाव से मुक्त हो सकते हैं । तनावों से मुक्ति के एक साधन के रूप में स्वप्नों का यह कार्य मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है । स्वप्न में संत महात्माओं के दर्शन, किसी कठिन समस्या का हल मिल जाना, भविष्य की किसी घटना का पूर्व आभास मिलना, या भक्ति तथा साधना से संबंधित अत्यंत उत्कट, सुखद अनुभव मिलना, ऐसी अद्भुत बातें हममें से अनेक के जीवन में आती हैं । उनके कारण कई लोगों के मन में स्वप्न एक गूढ़ विषय बना है । उसका आकर्षण मनुष्य को हमेशा रहा है और रहेगा इतना हम निश्चित रूप से कह सकते हैं । एफ-305, रम्यनगरी, पुणे-411 037 बिषयभोग बड़वानल के सदृश है। युवावस्था भयानक जंगल के समान है। शरीर ईंधन के और वैभवादि वायु के समान हैं। संयोग तथा वैभवादि विषयाग्नि प्रदीप्त करनेवाले हैं। जो स्त्री, पुरुष संयोगजन्य भोगसामग्री मिल जाने पर भी उसका परित्याग करके अखंड ब्रह्मचारी स्त्री, पुरुषों का इतना भारी तेज होता है कि उनकी सहायता में देव, दानव, इन्द्र आदि खड़ें पैर तैयार रहते हैं और इसी महागुण के कारण वे संसार के पूजनीय और वंदनीय बन जाते हैं। व्यभिचार सेवन करना कभी सुखदायक नहीं। इससे परिणामतः अनेक व्याधि तथा दुःखों में घिरना पडता है। उक्ति भी है कि 'भोगे रोगभयं' विषय भोगों में रोग का भय है, जो वास्तविक कथन है। व्यक्तिमात्र को अपने जीवन की तंदुरस्ती के लिये परस्त्री, कुलांगना, गोत्रजस्त्री, अंत्यजस्त्री, अवस्था में बड़ी स्त्री, मित्रस्त्री, राजराणी, वेश्या और शिक्षक की स्त्री; इन नौ प्रकार की स्त्रियों के साथ कभी भूल कर के भी व्यभिचार नहीं करना चाहिये। इनके साथ व्यभिचार करने से लोक में निन्दा और नीतिकारों की आज्ञा का भंग होता है, जो कभी हितकारक नहीं है। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्य ज्योति 35 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जैन कला के विविध आयाम - प्रोफेसर एस. पी. शुक्ल, भारतीय चिन्तन-धारा में जैन धर्म एवं दर्शन का महत्वपूर्ण योगदान है । इसके साथ ही भारतीय कला के विकास में भी जैन परम्परा ने गति प्रदान की है । जैन धर्म का मूल अत्यन्त प्राचीन काल से ढूढां जा सकता है। कुछ विद्वानों के अनुसार जैन धर्म भी कुछ विशेषताओं का प्रारम्भ सिंधु सभ्यता (ई. पू. 3000) में देखा जा सकता है। तत्कालीन मुहरों तथा मूर्तियों से प्राग जैन धर्म सम्बन्धी कुछ जानकारी प्राप्त है । तपस्या एवं योगासनों का प्रारम्भिक रूप इस सभ्यता काल में विकसित हो गया था । हड़प्पा से प्राप्त पाषाण कबन्ध में कायोत्सर्ग-मुद्रा का प्राग् रूप प्राप्त है जिसका विकास ऐतिहासिक कालीन जैन मूर्तियों में स्पष्टतया मिलता है । अभी हाल ही में श्री आर.एस. बिष्ट को धौलाबीरा (कच्छ, गुजरात) के उत्खनन से एक शिर विहीन पाषाण मूर्ति मिली है जिसमें पुरुष को नग्न रूप में उत्कुटिकासन से मिलती जुलती मुद्रा में बैठे दिखलाया गया है । इसके अतिरिक्त ऋग्वेद में जिन वातरशना मुनियों और यतियों का उल्लेख है उनकी जीवन पद्धति में तपस्या की परम्परा के प्रचलित होने का ज्ञान होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रागैतिहासिक काल से भारत में तपस्या एवं साधना का महत्व स्वीकृत हो चुका था । उसी पृष्ठभूमि में ऐतिहासिक काल में श्रमण परम्परा का संवर्द्धित हुई जिसका विकसित रूप आज भी जैन एवं बौद्ध धर्मों में स्पष्टतया दर्शनीय हैं । ऐतिहासिककालीन जैन कला का प्रारम्भ मौर्यकाल (तीसरी शती ई. पू.) से हुआ । परम्परा यह भी बतलाती है कि 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी की प्रतिमा का पूजन उनके जीवनकाल में ही प्रारम्भ हो गया था । वसुदेवहिन्डी और आवश्यकचूर्णी में एतद्विषयक उल्लेख प्राप्त है । इसमें कहा गया है कि रोसक (सिंध-सौवीर, आधुनिक सिंध, पाकिस्तान) के राजा उद्दायण की पत्नी ने महावीर के व्यक्ति चित्र (पोर्टेट) की पूजा की थी । जैन धर्म में तीर्थंकरों की प्रतिमाओं का निर्माण परवर्ती काल में महत्वपूर्ण बन गया । जैन कला बड़ी समृद्ध है । जैन धर्म सम्बन्धी कलात्मक अभिव्यक्ति कई माध्यमों - पाषाण, मृण्मय एवं धातु-में प्राप्त है । जैन धर्म सम्बन्धी कलात्मक अंकन भारत के विभिन्न भागों से उपलब्ध हैं। इनके अध्ययन से जैन धर्म के विकास एवं मान्यताओं के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है । प्रस्तुत लेख में पाषाण, मिट्टी, धातु की प्रतिमाओं एवं अंकनों की चर्चा की गई है जिसे कलाकारों की कुशलता, कला माध्यमों की उपयोगिता एवं लोकप्रियता का ज्ञान होता है । पाषाण मूर्तिया: जैन धर्म सम्बन्धी पाषाण मूर्तियां सर्वाधिक प्राप्त है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि यह मूर्तियां मौर्य काल से निर्मित की जाने लगी थीं । लोहानीपुर (पटना के निकट) से प्राप्त पाषाण कबन्ध किसी तीर्थंकर मूर्ति का भाग रहा था जिसकी पहचान करना सम्भव नहीं है । मूलतः इस मूर्ति में तीर्थकर को खड्गासन-मुद्रा में दिखलाया गया था । इस पर मौर्यकालीन पालिश है । जैन कला के विकास में मथुरा के कलाकारों का विशेष योगदान रहा । यहां पर जैन धर्म सम्बन्धी मूर्तियों का निर्माण शुंग काल (2री शती. ई. पू.) से होने लगा था । इस काल के कई शिलापट्ट पाये गये हैं जिन्हें उत्कीर्ण अभिलेखों में 'आयागपट्ट' कहा गया है । इन शिलापट्टों को चैत्यगृहों में वृक्ष के नीचे सिंहासन पर दर्शनार्थ स्थापित किया जाता था। इन पर सुन्दर आकृतियां उत्कीर्ण की गयी थी । इन पर आकर्षण रूपक बनाये जाते थे। हो सकता है कि इन्हें चैत्य की आन्तरिक अलंकरण में भी प्रयुक्त किया जाता हो । इन शिलापट्टों पर जैन प्रतीकों को विशेष महत्व दिया गया । कुछ आयागपट्टों पर तीर्थंकर अथवा किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति का भी अंकन किया गया । ऐसे आयागपट्ट राज्य संग्रहालय, लखनऊ एवं मथुरा के संग्रह में है । मथुरा से प्राप्त शुंगकालीन आयागपट्टों पर प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग, कुरुक्षेत्र वि वविद्यालय, कुरुक्षेत्र - 136 119 । हेमेश ज्योति* हेमेकर ज्योति 36 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्टज्योति Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jajn श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन विभिन्न प्रकार के आकर्षक चित्रण है। एक आयागपट्ट पर जिसका दान मथुरावासियों ने किया था, तिलकरत्नों से घिरा 16 अरयुक्त चक्र हैं। इस पर आठ पुष्पधारिणी स्त्रियां है। साथ ही सुपर्ण एवं श्रीवत्स का भी चित्रण हैं। आयागपट्ट के मध्य बना हुआ चक्र वस्तुतः जैन धर्म चक्र का प्रतीक है । एक आयागपट्ट शिवघोष की पत्नी द्वारा निर्मित कराया गया था । इसके मध्य भाग में सात सर्प फणां से युक्त पार्श्वनाथ ध्यानास्थ बैठे हैं । उन्हें पद्मासन मुद्रा में दिखलाया गया है । उनके दोनों ओर नग्न गणधर नमस्कार मुद्रा में हाथ जोड़े खड़े हैं । आमोहिनी नामक एक राज महिला द्वारा प्रतिष्ठापित आयागपट्ट पर एक संभ्रान्त महिला परिचारकों के साथ अंकित है । ऐसा लगता है कि यह अंकन वर्धमान महावीर की मां का है क्योंकि उत्कीर्ण अभिलेख में वर्धमान के प्रति श्रद्धा व्यक्त की गयी है । शिवयशस द्वारा प्रतिष्ठापित आयागपट्ट पर एक जैन स्तूप का चित्रण है जिसके साथ सीढ़ियों, द्वार, प्रदक्षिणापथ तथा दोनों ओर स्तूप के सहारे स्त्रियों का भी स्पष्ट अंकन है । सीहनादिक द्वारा निर्मित कराये गये आयागपट्ट पर छत्र के नीचे जिन का चित्रण है । इसके अतिरिक्त इस आयागपट्ट पर मीन युगल, विमान, श्रीवत्स, वर्धमानक, पद्म, इन्द्रयष्टि (वैजयन्ती) एवं मंगल कलश भी चित्रित है । जैन शब्दावली में इन्हें अष्टमंगल कहा जाता है । इस पर उत्कीर्ण धर्मचक्रस्तम्भ एवं गजस्तम्भ पारसीक अखामनी शैली के हैं । मथुरा में जैन कला का कुषाण काल (प्रथम- तृतीय शती ई.) में विशेष विकास हुआ । मथुरा के कलाकारों ने तीर्थंकरों की मूर्ति । जिन्हें पहचाना जा सकता है । सर्वतोभद्रिका प्रतिमा एवं तीर्थंकरों के जीवन से सम्बन्धित कथानक का चित्रण किया । जैन कला के इतिहास में इस काल में एक नवीन अध्याय जुड़ा । कुषाण काल में भी आयागपट्टों का निर्माण होता रहा । कुछ आयागपट्ट पाये गये हैं जिनका जैन कला और संस्कृति के सन्दर्भ में विशेष महत्व है। कुषाण काल में जैन धर्म को समाज के विभिन्न वर्गों का सहयोग एवं संरक्षण प्राप्त हुआ । एक आयागपट्ट पर स्तूप का पूरा चित्रण है। प्रदक्षिणापथ तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां भी हैं। स्तूप के दोनों ओर पारसीक शैली के स्तम्भ है। इसे लोणशोभिका नामक वेश्या की पुत्री वसु ने दान में दिया था जिसने अर्हत के लिए मन्दिर आयागसभा, शिल्पपट्ट निर्मित कराया था । आयागसभा नाम से संकेत मिलता है कि यह एक सभा भवन या जिसमें आयागपट्ट रखा गया। वह स्थान विशेष "निर्ग्रन्थ स्थल रहा था। एक अन्य आयागपट्ट पर एक बड़े आकार का अलंकृत स्वास्तिक है जिसकी भुजाओं के घेरे में कुछ प्रतीक यथा स्वस्तिक, श्रीवत्स, मीनयुगल और भद्रासन (इन्द्रयष्टि) भी बनाये गये हैं । विशाल आकार के स्वस्तिक के मध्य बने वृत्त में जिन एवं त्रिरत्न का चित्रण है। स्वस्तिक अभिप्राय एक वृत्त से घिरा है जिसके बाहर चैत्य वृक्ष, जिन उपासिकाएं, स्तूप आदि चित्रित हैं । इसके साथ अष्टमंगल भी बनाये गये हैं । एक अन्य आयागपट्ट भद्रनन्दि की पत्नी अचला द्वारा प्रतिष्ठापित किया गया था । इस आयागपट्ट के मध्य भाग जिन का अंकन है । इस पर त्रिरत्न, स्तम्भ आदि आकर्षक चित्रण है । जैन कला का सर्वाधिक महत्वपूर्ण आयाम तीर्थंकर मूर्तियों का निर्माण किया जाना है। प्रारम्भिक मूर्तियों में तीर्थंकर विशेष को पहचानना कठिन है। लेकिन कुषाणकालीन कलाकारों ने इस ओर कुछ प्रयत्न किया जो आगे चलकर सुदृढ़ परम्परा के रूप में विकसित हो सका । जैन धर्म में 24 तीर्थंकरों में से ऋषभनाथ, नेमिनाथ पार्श्वनाथ एवं महावीर को प्रारम्भ में विशेष महत्व दिया गया । इन तीर्थंकरों का विवरण कल्पसूत्र (तीसरी शती ईस्वी) में विस्तार से मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि 24 तीर्थकरों की सूची को भी कुषाण काल में ही अन्तिम रूप दिया गया। कुषाण कलाकारों द्वारा बनायी गयी मूर्तियों में ऋषभनाथ, संभवनाथ, मुनिसुव्रत, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर को पहिचानना सम्भव हो सका । इन मूर्तियों में तीर्थकरों को ध्यान अथवा कायोत्सर्ग-मुद्रा में दिखलाया गया । साथ ही उनके वृक्ष पर श्रीवत्स चिह्न अंकित किया गया। ऋषभनाथ एवं पार्श्वनाथ की सर्वाधिक मूर्तियां निर्मित हुई जो उनकी लोकप्रियता का संकेत हैं । ऋषभनाथ के कन्धों तक केश तथा पार्श्वनाथ के साथ सात सर्पफणों का छत्र दिखलाया गया । नेमिनाथ, जिन्हें अरिष्टनेमि भी कहा गया, के साथ उनके चचेरे भाई बलराम एवं कृष्ण को भी चित्रित किया गया । संभवनाथ मुनिसुव्रत एवं महावीर की मूर्तियों के आधार भाग पर उत्कीर्ण अभिलेखों के कारण पहचाना गया । इन मूर्तियों में कई प्रतिहार्य भी अंकित किए गये। साथ ही आधार भाग पर धर्मचक्र के साथ साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका पुष्प लिए अथवा हाथ जोड़े दिखलाये गये । Intera हेमेल ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 37 हेमेला ज्योति हेमेला ज्योति taneller Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सर्वतोभद्रिका प्रतिमा अथवा जिन चौमुखी का निर्माण किया जाना मथुरा के शिल्पकारों की महत्वपूर्ण देन है। ऐसी मूर्तियों में चार तीर्थंकरों को चौकोर स्तंभ जैसे वास्तु के चार पटलों पर अलग अलग दिखलाया गया। इनमें कंधों तक केश वाली मूर्ति को ऋषभनाथ (आदिनाथ), सर्पयुक्त मूर्ति को पार्श्वनाथ से पहचाना जा सकता है। दो अन्य मूर्तियों में एक अंकन 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी का रहा होगा। कुषाण काल के बाद भी सर्वतोभद्रिका प्रतिमा का निर्माण होता रहा किन्तु इनमें एक ही तीर्थंकर को चार पटलों पर दिखलाया गया । मथुरा के कुषाण कालीन शिल्पकारों की अन्य महत्वपूर्ण देन कुछ तीर्थंकरों एवं साधुओं के जीवन की घटनाओं का चित्रण करना है । एक फलक पर ऋषभनाथ के जीवन की महत्वपूर्ण घटना चित्रित है । इसमें वैराग्य से पूर्व ऋषभदेव को नीलान्जना नामक अप्सरा का नृत्य देखते हुए दिखलाया गया है । नर्तकी का समय जैसे ही पूरा हुआ इन्द्र ने दूसरी नर्तकी प्रकट कर दी । ऋषभनाथ से यह बात छिपी न रह सकी । उन्हें संसार एवं जीवन की निस्सारता का बोध हुआ और राजपाट छोड़कर साधु हो गये । जैन साहित्य में इस घटना का विशेष उल्लेख प्राप्त है । एक अन्य फलक पर महावीर के भ्रूण को ब्राह्मणी के गर्भ से हटाकर क्षत्राणी त्रिशला के गर्भ में स्थापित करने की कथा का चित्रण है । इन्द्र के आदेश पर यह कार्य हिरनेगमेषी, जो कि बालकों के देवता हैं, ने किया था। इस फलक पर मेषसिरयुक्त नेगमेष का चित्रण है। इस घटना का कल्पसूत्र में भी उल्लेख है । I गुप्तकाल में जैन मूर्ति निर्माण के केन्द्रों का विस्तार हुआ । मथुरा के अतिरिक्त अन्य स्थलों पर मूर्ति निर्माण, प्रारम्भ हुआ । मथुरा के शिल्पकारों द्वारा निर्मित मूर्तियों लखनऊ तथा मथुरा के राजकीय संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रही हैं । इन मूर्तियों के माध्यम से आत्मिक सौन्दर्य को दिखलाने का प्रयास किया गया । मूर्तियों के दर्शन से वासना के स्थान पर आध्यात्मिक भावना का जागरण होता है । इस मूर्तियों में तीर्थंकर का प्रभामण्डल अत्यन्त मनोरम एवं मनोहारी है । लखनऊ संग्रहालय में गुप्तकालीन कई पाषाण मूर्तियां (सं. जे. 139, जे. 121 ओ. 131, जे. 104 आदि) संग्रहीत है जिनका निर्माण मथुरा के शिल्पकारों ने किया था । 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी की मूर्ति (जे. 2) पर संवत् 299 उत्कीर्ण है । यह पाठ विवादास्पद है । इस मूर्ति को एक स्त्री, जो ओखरिका की पुत्री थी, ने अर्हतों के मन्दिर, जो कि देवकुल रहा था, में स्थापित कराया था । महावीरस्वामी को खड़े हुए दिखलाया गया जिसमें पैरों का कुछ भाग मात्र अलंकृत पादपीठ पर बचा रहा गया है । अवशिष्ट भाग से प्रतीत होता है कि उपरोक्त मूर्ति अत्यन्त सुन्दर रही थी। कुछ मूर्तियों (जे. 119, जे. 89) की पहचान नेमिनाथ से की जा सकती है क्योंकि इनमें बलराम और कृष्ण का भी अंकन है । मूर्ति सं 49.199 में तीर्थंकर का बालकवत् अंकन है । मथुरा की गुप्ताकलीन मूर्तियों में अधिकांशतया आधार भाग धर्मचक्र का अंकन है । कुछ में गगनचारी विद्याधर में तीर्थंकर को खड़े ती पहने दिखलाया गया है । जैन धर्म सम्बन्धी अन्य गुप्तकालीन मूर्तियों के अवशेष कई स्थलों से उद्घाटित हुए हैं । विहार के राजगिरि ( वैभार पहाड़ी से ) नेमिनाथ की मूर्ति उपलब्ध हुई है । इसके आधार पर चक्र बना हुआ है । विदिशा से तीन मूर्तियां मिली हैं जिन पर महाराजाधिराज रामगुप्त के समय के अभिलेख उत्कीर्ण हैं । इन पर अन्तिम कुषाण कालीन शैली की छाप है। उदयगिरि (विदिशा के निकट, म. प्र.) की पहाड़ी पर जहां सम्राट कुमारगुप्त के समय का अभिलेख है, पार्श्वनाथ की गुप्तकालीन मूर्ति उत्कीर्ण है । इसी प्रकार कहौम (उत्तर प्रदेश) से एक पाषाण स्तम्भ मिला है जिसके आधार पर पार्श्वनाथ का चित्रण है तथा ऊपर शीर्ष पर चार तीर्थंकरों का अंकन है । पूर्व मध्यकालीन समाज ने जैन धर्म को विशेष प्रोत्साहन दिया । फलतः भारत के विभिन्न भागों में मन्दिरों का विशाल पैमाने पर निर्माण हुआ। यह मन्दिर दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के हैं। इन मन्दिरों में अधिकांशतया 24 तीर्थंकरों की मूर्तियों को प्रतिष्ठापित किया गया । तीर्थंकर की मूर्तियाँ, जो इस काल में बनी, अलंकरणों तथा अष्टप्रतिहार्यों से युक्त बनायी गयी । मुख्य मूर्ति के साथ तीर्थंकर विशेष के यक्ष एवं यक्षी को भी दिखलाया गया । श्रवणवेलगोला जैसी विशालकाय मूर्ति का निर्माण इसी कालावधि में सम्भव हुआ । इस काल की बहुत सी मूर्तियों अभिलिखित पायी गयी हैं जिनसे मूर्ति के दानकर्ता, उद्देश्य, गण, संवत, तिथि आदि की हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 38 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जानकारी प्राप्त होती हैं । अभिलेख होने से मूर्ति को लिपिविज्ञान के आधार पर तिथिबद्ध करना भी आसान हो गया। पूर्व मध्यकालीन मूर्तियां कई प्रकार की हैं । कुछ मूर्तियां तीर्थंकर विशेष की हैं, कुछ में कई तीर्थकर एक साथ दिखलाये गये हैं । कुछ मूर्तिपट्ट प्राप्त हुए हैं जिनमें ऋषभनाथ/आदिनाथ प्रमुख देव हैं किन्तु उनके साथ 23 तीर्थंकरों का भी अंकन है । यह ध्यान और खड्गासन दोनों मुद्राओं में हैं । इससे प्रतीत होता है कि 24 तीर्थंकरों को एक स्थान पर पूजने की प्रथा का विकास हुआ था । यह उसी तरह है जैसे विष्णु की मूर्ति में विष्णु के दस अवतारों को भी स्थान दिया गया । मृण्यमूर्ति कला : भारतीय मृण्यमूर्ति कला इतिहास का आद्यैतिहासिक कालीन प्राग सिंधु तथा सिंधु सभ्यता काल से प्रारम्भ हुआ जिसका विकास ऐतिहासिक काल में विभिन्न चरणों में होता रहा । मृण्यमूर्ति कला में ब्राह्मण, जैन तथा बौद्ध तीनों सम्प्रदायों के अवशेष प्राप्त हैं । साथ ही लोक जीवन से सम्बन्धित देवी-देवताओं का भी निर्माण हुआ है । जैन धर्म का मृणमूर्ति कला में बहुत कम अंकन प्राप्त है । अधिकांश उदाहरण जो अभी तक पाये गये हैं । प्रायः गुप्तकालीन (चौथी- छठी शती ईस्वी) के हैं | जैन धर्म के संरक्षण हमेशा समाज का धनाद्य वर्ग रहा । वह पाषाण एवं धातु भी जैन मूर्तियों का अपनी इच्छानुसार निर्माण कराने तथा क्रय करने में सक्षम थे । सम्भवतः इसी कारण जैन धर्म के कलात्मक अंकन के लिए मृणमूर्ति कला को अधिक अपनाया नहीं जा सका । जैन तीर्थंकर के चार अंकन मृण्मूर्ति कला में प्राप्त हैं । अयोध्या के (जिला फैजाबाद, उत्तरप्रदेश) के उत्खनन से प्राप्त जैन तीर्थंकर का मृणमय अंकन सर्वाधिक प्राचीन है । यह मृणमूर्ति 6.7 से.मी 4.5 से. मी. आकार की है । इसे सांचे से बनाया गया था । यह धूसर वर्ण की है । स्तरीकरण का आधार पर इस मृणमूर्ति को तृतीय शती ई. पू. रखा गया है । इसमें तीर्थकर को खड़गासन में दिखलाया गया था । मूर्ति का आधा हिस्सा खण्डित है । मूर्ति में आकृति के लम्बे कान हैं । इसमें तीर्थंकर को मुण्डित केश दिखलाया गया है । प्रतिष्ठासारसंग्रह के अनुसार तीर्थकर के शरीर पर केश नहीं दिखलाये जाने चाहिए । इस प्रकार तीर्थकर का इस मण्यमूर्ति में अंकन प्राचीन परम्परा के आधार पर हुआ है । यह उल्लेखनीय है कि अयोध्या जैन धर्म सम्बन्धी एक महत्वपूर्ण स्थल रहा था । परम्परा के अनुसार अयोध्या में तीन तीर्थंकरों का जन्म हुआ था । चौथे तीर्थकर अभिनन्दननाथ, पाचवें तीर्थंकर सुमतिनाथ और चौदहवें तीर्थकर अनन्तनाथ की जन्मस्थली अयोध्या बतलायी गयी है। मृणमूर्ति कला में दो अन्य अंकन गुप्तकालीन हैं । क मृणमूर्ति मोहम्मदी (लखीमपुर-खीरी, उत्तर प्रदेश) से प्राप्त हुई है । यह मृणमूर्ति राज्य संग्रहालय, लखनऊ के संग्रह में है । पादपीठ पर सुपार्श्वः गुप्तकालीन ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण है । तीर्थकर को ध्यानमुद्रा में बैठे दिखलाया गया है |उनके मुख पर स्मित भाव है । तीर्थकर की तीसरी मृणमूर्ति सहेट महेट (जिला गोण्डा-बइराइच, उत्तरप्रदेश) से प्राप्त हुई है । सहेट महेट की पहिचान प्राचीन श्रावस्ती, जो कोशल जनपद की राजधानी थी से की जाती है । यह तीर्थकर मूर्ति का कबन्ध मात्र है जिसमें वक्ष पर श्रीवत्स चिह्न अंकित हैं। एक मूर्ति तिल्दा (कंगाल) से पायी गयी है जिसमें जिन का सिर खण्डित है । तीर्थकर आकृतियों के अतिरिक्त मृणमूर्ति कला में नेगमेष तथा नेगमेशी का भी अंकन प्राप्त है । यह 'बालग्रह थे जिनकी पूजा बालकों के स्वास्थ्य एवं जीवन के लिए लोक में की जाती है । उल्लेखनीय है कि महावीरस्वामी के भ्रूण को ब्राह्मणी के गर्भ से क्षत्राणी के गर्भ में इन्द्र के आदेश पर नेगमेष ने स्थापित किया था । इस प्रकार जैन धर्म में नेगमेष की एक महत्वपूर्ण देवता के रूप मान्यता है जिसका कलात्मक अंकन कुषाण मथुरा कला में उपलब्ध है जिसका पहले उल्लेख किया गया है । नेगमेष का स्फूर्ति कला में भी अंकन प्राप्त है । नेगमेष को लम्बे कानों से युक्त दिखलाया गया है जिससे उनके मेषरूपी स्वरूप का संकेत मिलता है । ऐसी मृणमूर्तियां अहिच्छा, मथुरा, कुभराहार (पटना) आदि अनेक ऐतिहासिक स्थलों से पायी गई है । स्तरीकरण के आधार पर यह चौथी पांचवीं शती में विशेष लोकप्रिय रहीं । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 39 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति dicalinintere Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ धातु मूर्तियां : जैन धर्म सम्बन्धी धातु निर्मित मूर्तियां अपेक्षाकृत बाद की हैं । बड़ौदा के निकट अकोटा (गुजरात) से जैन ताम्रमूर्तियों का एक निधान प्राप्त हुआ है । जो प्रारम्भिक धातु कला पर प्रकाश डालता है । इस निधान में एक मूर्ति ऋषभनाथ की है । इसमें तीर्थंकर के नेत्रों को ध्यान मुद्रा में दिखलाया गया है । उनके अधखुले नेत्रों से आध्यात्मिक आभा निकलती हुई प्रतीत होती है । इसमें शरीर के अवययों में संतुलन, एवं माडलिंग में एक तारतम्य है । उमाकान्त पी.शाह के अनुसार यह सुल्तानगंज की बुद्ध की ताम्रमूर्ति के सदृश है । इसी कारण उन्होंने इस धातु मूर्ति को 450 ई. में रखा है । अकोटा निधान की दो अन्य ताम्र मूर्तियां भी महत्वपूर्ण हैं | इनमें से एक मूर्ति ऋषभनाथ की है जिसमें यक्ष और अम्बिका का भी अंकन है । इसे जिनभद्रगीण क्षमाश्रमण ने 500-50 ईसवी में प्रतिष्ठापित किया था । दूसरी मूर्ति एक अज्ञात् तीर्थकर की है । जिन भद्रगणि क्षमाश्रमण ने इस ताम्र मूर्ति को 550-600 ईसवी के मध्य प्रतिष्ठापित किया था । लगभग इसी काल को एक आकर्षक ताबे की जीवनस्वामी की मूर्ति अकोटा से भिन्न है जो प्राचीन कालमें का निरन्तरम का प्रमाण देते हैं । बसन्तगढ़ (राजस्थान) की मूर्ति के आधार भाग पर अंकति अभिलेख में संवत् 744 (687 ईसवी) का उल्लेख है । जैनधर्म सम्बन्धी ताम्र मूर्तियों की पूर्व मध्यकाल (600-1200 ई.) में विशेष लोकप्रियता हुई । इन्हें कई खण्डों में बनाया गया । इन मूर्तियों में यक्ष, यक्षी, जिन आदि को भी स्थान दिया गया । अधिकांश मूर्तियों पर अभिलेख उत्कीर्ण किए गये जिनमें दानकर्ता का नाम, उसका गण, शासन संवत् एवं तिथि का उल्लेख हैं । ऐसी मूर्तियां भारत के विभिन्न भागों से उपलब्ध हुई हैं । यह मूर्तियां अधिकांशतया जैन मन्दिरों में अर्पित की जाती थीं । उपासक एवं उपासिका इन्हें अपने घरों में गृहपूजा के लिए भी निर्मित कराते थे । सन्दर्भ ग्रंथ 1. Umakant P. Shah Studies in Jaina Art, Banaras, 1955 2. B.C. Bhattacharya Jaina, Iconography, Delhi, 1974 K.K. Thaplalced) Jaina Vidya, Vol.1, 1998, Lucknow & Journal of U.P. Research Institute of Jainology 4. वासुदेवशरण अग्रवाल-भारतीय कला, वराणसी 1965 एस. पी. शुक्ल जैन कला का प्रारंभिक विकास, (महाश्रमणी अभिनन्दन ग्रन्थ) 25वीं महावीर निर्वाण शताब्दी के अवसर पर प्रकाशित मालेर कोटला (पंजाब) 3. आचार्य, यतिवृषभ : तिलोयपण्णत्ति-1, जीवराजग्रंथमाला, सोलापुर 1953 6. स्वामी, सुधर्मा : आचारांग-2, आ. प्र. स. व्यावर, 1980 7. जैन, सागरमल, सं. ऋषिभाषित, प्राकृत भारतीय अकादमी, जयपुर, 1988 8. -: उत्तराध्ययन-2, जैन विश्वभारतीय, लाडनू 1993 9. स्वामी, सुधर्मा : सूत्रकृतांग - 2, तथैव, 1986, पृष्ठ 357 10. तथैव - 1. भगवती सूत्र - 1, तथैव, 1994 पृष्ठ 179-263 2. भगवती सूत्र 2-5, साधुमार्गी संघ, सैलाना, 1968-72, 921, 1614, 2754 11. तथैव : ज्ञाताधर्मकथासूत्र, आ. प्र. स. व्यावर 1981 पृष्ठ 513, 526 12. स्थाविर : राजप्रश्नीय, तथैव, 1982 पृष्ठ 167 13. देखों संदर्भ - 6 पृष्ठ - 35 14. स्थविर : निरयावलियाओ, गुर्जर ग्रंथरत्न कार्यालय अहमदाबाद, 1934 15. चटर्जी, ए. के. : कंप्रेहेन्सिभ हिस्ट्र आव जैन्स, के. एल. एम. कलकत्ता, 1978 पृष्ठ 11 16. वाचक, उमास्वाति : तत्वार्थाधिगम सभाष्य, राजचन्द्र आश्रम, अगास, 1932 पृष्ठ 42 17. देखो - संदर्भ – 13, पृष्ठ - 251 18. जैन, एन. एल. : सर्वोदयी जैन तंत्र, पोतदार ट्रस्ट टीकमगढ़, 1997 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 40 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Jan Eco em Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ उत्तम आहार शाकाहार: - श्रीमती रंजना प्रचंडिया 'सोमेन्द्र' सामान्यतः आज जब भी शाकाहार की चर्चा होती है तो छूटते ही मन में यह बात उभरती है कि शाकाहार अर्थात् शाक/भाजी का आहार करना, सेवन करना । यह एक आम धारण है कोई भी साग / सब्जी जैसे गाजर, मूली, बैंगन, गोभी, आलू, टमाटर, कटहल, प्याज, शलगम, लहसुन आदि अनेक प्रकार की कृषि उत्पाद वस्तुएं इस श्रेणी में आती हैं । दरअसल शाकाहार का स्थूल अर्थ तो यही है । किन्तु जब हम जैन संस्कृति के आधार पर शाकाहार शब्द की चर्चा करते हैं, तब शाकाहार से आशय थोड़ा पृथक हो जाता है । जैन संस्कृति के आधार पर शाकाहार : जैन संस्कृति में सभी कृषि-उत्पादों को खाद्य वस्तु नहीं बताया गया है । वे सब्जियां जो जमीकन्द हैं, जैसेगाजर, मूली, आलू, अदरक आदि या जिनमें त्रसकाय जीवों की असंख्यात संख्या होती है, जैसे - गोभी, बैंगन कटहल या जिनमें तामसी भोजन की उत्पत्ति होती है-जैसे प्याज, लहसुन आदि । ये सभी शाक / भाजी अखाद्य की श्रेणी में आते हैं । इस दृष्टि से गेंहूँ, चावल, आम, अमरूद, सेब, संतरा, लौकी, तोरई आदि सभी भक्ष्य व सात्विक सब्जियां हैं जिन्हें शाकाहार के रूप में प्रयोग किया जा सकता है । वे साग / सब्जी जिनका परिचय या बोध हमें है ही नहीं, अज्ञात हैं, वे भी अखाद्य की श्रेणी में आ जाती हैं । भोजन की आवश्यकता क्यों व किसलिए : जैन संस्कृति में भोजन के महत्व पर विशेष बल दिया है । 'जैसा खाबे अन्न वैसा होबे मन' की उक्ति जनमानस में आज भी व्याप्त है । मूल बात है कि हम भोजन क्यों कर रहे हैं? क्या हमारे जीवन का उद्देश्य भोजन करना है? नहीं। भोजन तो हम शरीर को गतिशील करने के लिए कर रहे हैं जिससे हम तप-साधना कर सकें। हम अपने कर्मों को क्षय करने में जुट सकें । इसीलिए कहा जाता है, कि हमारा भोजन भजन इस प्रकार से होना चाहिए, जिससे हमारे भीतर चेतन्यता मौजूद रहे और हम बिना किसी प्रमाद के संयम, तप और साधना में निमग्न हो सकें । मन-वचन-कर्म से शाकाहार होना : जैन संस्कृति में श्रावकों के द्वारा जब भोजन किया जाता है तो भोजन करने से पूर्व वे अपने मन-वचन और कर्म में शुद्धता व शुचिता का भाव पहले से ही सजग कर लेते हैं । अतः ये शुद्धभाव तभी जागृत होते हैं जब हमारे भीतर पुरुषार्थ मौजूद हो । जिस कमाई से भोजन का निर्माण हो वह मेहनत के साथ-साथ शुद्ध ईमानदारी से जुड़ा हो । किसी के दिल को दुःखा कर कमाये गये धन का कभी भी शुभोपयोग नहीं हो सकता । अतः मन-वचन-कर्म से पहले हमें शाकाहार होना होगा । आचरण की शुद्धता और शाकाहार : आचरण की शुद्धता, उत्तम-शाकाहार का पहला चरण है । इस 'शब्द' में मांसाहार की 'बू' दूर-दूर तक नहीं टिक पाती है । किन्तु 'मदिरा' और 'मधु' का सेवन करने वाला व्यक्ति आचरण से भी स्खलित हो जाता है । तब उसका शाकाहार, शाकाहार नहीं रह पाता है । मदिरापान एक ऐसी बराई है जिसमें अनन्त जीवों की घात / प्रतिघात निरन्तर होता रहता है । साथ ही उसकी प्रज्ञा धीरे-धीरे नष्ट होते लगती है । बुद्धि क्षीण हो जाती है और अंत में वह स्वयं बोझा ढोते वाला शरीर रह जाता है । 'मधु' भी जीवों के घात/प्रतिघात का स्पष्ट उदाहरण है । अतः भले ही हम सीधे मांसाहार का सेवन हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्य ज्योति 41 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति w.aimejlurary.ads Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77 श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ नहीं करते हों, हमारी समाज में यह प्रचलित भी न हो पर बहुत से त्रसकाय जीवों का घात / प्रतिघात तो जाने-अनजाने में हम कर ही बैठते हैं। त्रसकाय जीवों के शरीर का अंश का नाम ही मांस है । दो इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव सकाय जीव कहलाते है अतः मांस खाते में न केवल उस एक त्रसजीव की हिंसा का दोष है जिसे मारा गया है, अपितु उससे उत्पन्न अनेक जीवों के जन्म-मरण का दोष भी विद्यमान हो जाता है । पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में आचार्य अमृतचन्द्र ने मांस का निषेध स्पष्ट रूप से इस प्रकार किया है "न बिना प्राणिविधाताम्मां सस्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात् । मांसं भजतस्तस्मात् प्रसख्यनिवारिता हिंसा || यदपि किल भवति मांसां स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादेः । तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रित निगोत निर्मयनात् ॥ आमावपि पक्वास्वपिविपच्यमानासु मांसापेशीषु । सातत्येनोत्यादस्तज्जातीनां निगोतानाम् || आमा वा पक्वां वा खादाति यः स्पृशति व पिशितपेशीम् । स निहन्ति सतत निचितं पिण्डं बहुजीव कोटी नाम् ॥” अन्त में मैं तो यही कहूंगी कि शुद्ध, सात्विक व सरल जीवन के बिना सुख-शान्ति संभव नहीं है । इसके लिए हमें अपने भोजन - भजन पर सचेत रहना होगा । हम जैसा भोजन-भजन करेंगे हमारे भीतर वैसे ही भावों की उत्पत्ति होगी । हमारा आचरण उससे प्रभावित होगा । अतः शुद्ध शाकाहार वही है जिसके प्रयोग से प्रमाद की स्थिति न हो और हम चेतन्यता के साथ धर्म-साधना में उन्मुख हो सके। तभी उत्तम आहार शाकाहार की सार्थकता हो सकती है । समय की गतिविधि और लोकमानस की रुख को भलि भाँति समझ कर जो व्यक्ति अपना सद्व्यवहार चलाता है वह किसी तरह की परे पानी में नहीं उतरता। जो लोग हठाग्रह या अपनी के वा उक्त वात का अनादर करते हैं वे किसी भी जगह लोगों का प्रेम सम्पादन नहीं कर सकते और न अपने व्यवहार में लाभ पा सकते हैं। अतः प्रत्येक मानव को समय की कदर करना और लोकमानस की रुख को पहचान कर कार्यक्षेत्र में उतरना चाहिये। मेजर ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 42 मंगल कलश, 394 सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़ 202 001. Use श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हमे ज्योतिगेर ज्योति Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ प्राकृत अपभ्रंश जैन साहित्य में प्रयुक्त संज्ञाओं की व्युत्पत्ति - डॉ. धन्नालाल जैन अजवम्म - अजवर्मा ! र काम के साथ वर्ण द्वितीयकरण के नियमानुसार म्म । अजवर्मा गिरिनगर के राजा थे, इन्होंने अपनी पुत्री मदनावली का विवाह, प्रत्येक बुद्ध करकण्ड के साथ किया था । अजयंगि - अजितांगी । इ स्वर का लोप, ता में से आ स्वर का लोप, त के स्थान पर 'य' ऋति, ई दीर्घ स्वर का हृस्व इ होकर अजयंगि नामकरण हुआ । अजितांगी गिरिनगर के राजा अजवर्मा की पत्नी तथा प्रत्येक बुद्ध करकण्ड की सास थीं । अनंगलेह - अनंगलेखा । खा में से आ स्वर का लोप और स्व में से अल्प-प्राण ध्वनि का लोप होकर महाप्राण ध्वनि 'ह' शेष रहने से 'अनंगलेह' नामकरण हुआ । अनंगलेखा तिलकद्वीप की एक विद्याधरी थी । अमियवेग - अमितवेग । त का लोप और 'यंश्रुति । एक विद्याधर । अमितवेग ने तेरापुर की गुफाओं में, लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व, पार्श्वनाथ तीर्थंकर की प्रतिमा स्थापित की थी । अमितवेग द्वारा स्थापित पार्श्वनाथ तीर्थंकर की प्रतिमा आज भी उपलब्ध है । अरिरूयण - अरिदमण या अरिदमन । म का लोप और 'य' श्रुति । न का ण होकर, अरिदयण नामकरण हुआ। अरिदमन उज्जैन का राजा था । उज्जैन का राजा अरिदमन जैन साहित्य में एक 'जिण भक्त के रूप में प्रसिद्ध है । कंचनमई- कंचनमती । ती में से त का लोप और ई स्वर शेष । हिन्दी में, कंचनमई से ही कंचनबाई शब्द बना है। म का लोप 'व' श्रुति और व का ब होकर बई या बाई (आ स्वर के आगमन से) बना है । आज जो हिन्दी में बाई शब्द चल रहा है वह मती - मई - वई - बाई के रूप में विकसित हुआ है । कंचनमती एक प्रसिद्ध विद्याधरी रही है, इसका विवाह राजा नरवाहनदत्त से हुआ था । कणयप्पह - कनकप्रभ । न काण, क का लोप और 'य' श्रुति, प्रभा वर्ण द्वितीयकरण होकर भी में से अल्प प्राण ध्वनि का लोप होकर 'ह' महाप्राण ध्वनि शेष रहने से कणयप्पह नामकरण हुआ है । ये तिलकद्वीप के एक विद्याधर थे । कउमयता - कुसुमदत्ता । सु में से स का लोप, 'उ' स्वर शेष रहा, द का लोप और 'य' श्रुति । दन्तीपुर के वन रक्षक की पत्नी । चंदलेह - चन्द्रलेखा । द्र में से र् का लोप, खा में से आ स्वर का लोप, ख की अल्पप्राण ध्वनि का लोप और महाप्राण ध्वनि 'ह' शेष रहने से चंदलेह । चन्द्रलेखा तिलकद्वीप की एक प्रसिद्ध विद्याधरी थी । दसरह - दशरथ । श का स, थ में से अल्पप्राण ध्वनि का लोप और महाप्राण ध्वनि 'ह' शेष रही । राजा दशरथ राम के पिता और अयोध्या के राजा थे । धणयत्त - धनदत्त । न का ण, द का लोप और 'स' श्रुति । जैन साहित्य में अनेक धनदत्त हुए हैं । एक धनदत्त, नालंदा का प्रसिद्ध व्यापारी हुआ है । इन्हीं का लड़का धनपाल हुआ । एक धनदत्त प्रसिद्ध ग्वाला भी हुआ है जो जिन भक्ति के प्रभाव से अगले भव में मोक्ष-गामी प्रत्येक बुद्ध के रूप में जन्म लेता है । धणमई - धनमती । न का ण, ती में से त का लोप और ई स्वर शेष रहा । धनमती, ताम्रलिप्ति के वसुमित्र और नागदत्ता की पुत्री थी । धनमती का विवाह नालंदा के व्यापारी धनदत्त के पुत्र धनपाल से हुआ था । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 43 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द ज्योति ForPanasootola Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ धनमित्त - धनमित्र । त्र का त । तेरापट्टन का एक प्रसिद्ध व्यापारी । धनमित्र एक परम जिनभक्त था । जिन भक्ति के प्रभाव से ही उस पर संसारिक संकट नहीं आते हैं। धनसिरी – धनश्री । श्री का सिरी । संयुक्त व्यंजन स्वतंत्र हो गये । इसमें कोई विकास नहीं है । ताम्रलिप्ति के वसुमित्र और नागदत्ता की पुत्री धनश्री का विवाह कौशाम्बी के राजा वसुमित्र से हुआ था । णरवाहणयत नरवाहनदत । न का ण, द का लोप और 'य' श्रुति । नरवाहनदत कौशाम्बी का राजकुमार था । ये जैन साहित्य में अपनी साहसिक क्रियाओं के लिए प्रसिद्ध है । दे में से द का लोप ऐ स्वर शेष रहा। पद्मदेव, उप्लखेडि पउमएव पदमदेव । द का लोप उ स्वरागम का एक विद्याधर था । ये विद्या के कारण प्रसिद्ध हैं । पउमावई - पद्मावती । द् का लोप और 'उ' स्वर का आगम, ती में से त का लोप और 'ई' स्वर शेष रहा। पद्मावती, कौशाम्बी के राजा वसुपाल की पुत्री थी । पद्मावती का विवाह चम्पापुर के राजा जाड़ीवाहन के साथ हुआ था। पासजिनिंद पार्श्व जिनेन्द्र श् का स्, र का लोप व का लोप व में से व का लोप होकर जो 'अ स्वर शेष बचा उसका स् के साथ संधि होने के से स बना । जिनेन्द्र में न का ण एका इ. द्र में से र् का लोप होकर जिविंद बना पार्श्व जिनेन्द्र देव जैन साहित्य में नागफणों से युक्त, संकट मोचन, परम सुखदायी के रूप में प्रसिद्ध हैं। पज्जुण्ण प्रद्युम्न । प्र मे से र् का लोप द्य का ज्ज, म्न का वर्ण द्वितीयकरण होने से न्न (ण्ण) होकर पज्जुण्ण दामोदर के पुत्र प्रद्युम्न अर्थात् श्री कृष्ण । मयणामर मदनामरद का लोप और 'य' श्रुति, न का ण मदन अर्थात् कामदेव । मदन का एक नाम अनंग भी है, क्योंकि कामदेव अंगहीन हैं। अमर इसलिए है, क्योंकि जब से पृथ्वी बनी है तभी से काम प्राणिमात्र को अपने वश में लिये हुए हैं । काम को तो केवल तीर्थंकरों और उनके अनुयायियों ने ही जिता है । काम ब तक अमर रहेगा, तब तक पृथ्वी पर प्राणी है । रइवेय रतिवेगा । ति में से त का लोप, गा का लोप और य श्रुति । सिंहलद्वीप की राजकुमारी । जैन कथाओं में एक अति सुन्दर कन्या के रूप में वर्णित । राहव राघव । घ में से अल्पप्राण ध्वनि का लोप और महाप्राण ध्वनि 'ह' शेष रहने से राहव नाम वाचक संज्ञा बनी है । राघव, राम का नाम है । अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र । राम का आख्यान, रामायण कही जाती है । परन्तु जैन साहित्य में राम का आख्यान पद्मपुराण, पउमचरिउ (पद्मचरित्र) के नाम से प्रसिद्ध है । पद्म चरित्र इसलिए है क्योंकि पद्म अर्थात् कमल । कमल का फूल सूर्य के स्पर्श से खिलता है। राम भी सूर्यवंशी हैं । सूर्यवंश में खिला पद्म अर्थात् राम और राम का चरित्र पद्मचरित्र या पद्मपुराण । जैन साहित्य में अनेक प्रसिद्ध पद्मपुराण हैं । इन पद्मपुराणों का भारतीय आर्य भाषाओं के विकास में बड़ा योगदान हैं। आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का विकास का अध्ययन पद्मपुराणों के बिना संभव नहीं है । 1 - 96, तिलक पथ, इन्दौर (म. प्र. ) हमेवर ज्योति हमेजर ज्योति 44 हेमेन्द्र ज्योति हेमेजर ज्योति pro Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ व्यसन और संस्कार डॉ. रज्जन कुमार व्यसन एवं संस्कार ये दो शब्द मात्र ही नहीं हैं बल्कि मानव व्यक्तित्व के निर्धारक भी हैं । कभी ये प्रशस्त अर्थ के वाचक बन जाते हैं तो कभी उन्हें अप्रशस्त भाव का सूचक भी माना जाता है । कुटेव अथवा दृष्प्रवृति इनके अप्रशस्त रूप हैं जबकि सद्प्रवृति एवं सम्यक् भाव उनका प्रशस्त प्रतिरूप है । उनके प्रशस्त स्वरूप की सर्वत्र प्रशंसा की जाती है तथा अप्रशस्त प्रतिरूप की निंदा । आज चारों तरफ कुसंस्कारों एव कुव्यवसनों का साम्राज्य स्थापित होता जा रहा है । जिनके कुपरिणामों से सभी लोग त्रस्त हैं । अतः आज व्यसनमुक्ति एवं संस्कार निर्माण का चिन्तन एक सार्वभौमिक एवं प्रासगिक विचार बनता जा रहा है और इस दिशा में पर्याप्त प्रयत्न भी हो रहे हैं। व्यसन : अर्थबोध • दोष, दुर्बल पक्ष, आसक्ति किसी कार्य में अत्यंत संलग्न होना, । व्यसन शब्द के उपर्युक्त अर्थ मनुष्य की ऋणात्मक वृत्ति के दूर रहने का परामर्श दिया जाता है । जैसा कि हम देख रहे व्यसन शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त होता है जैसे बहुत ज्यादा आदी होना, पतन, पराजय, हानि आदि द्योतक माने जा सकते हैं । प्रायः मनुष्य को इनसे हैं व्यसन के जो विविध अर्थ किए गए हैं उनमें से अधिकांशतः मनुष्य की प्रवृत्ति के बोधक हैं । इस प्रवृत्ति का कारण मनुष्य की लघुमति अथवा अल्पमति है । अपनी इस अल्पमति के प्रभाववश व्यक्ति प्रायः समीचीन मार्ग को त्यागकर कुत्सित मार्ग को अपना लेता है। क्योंकि वह उसे ही सम्यक्मार्ग समझता है । ये कई प्रकार के हो सकते हैं और उनके प्रकारभेद व्यसनभेद की भिन्नता के अनुरूप विविध हो सकते हैं । आचार्य पद्मनंदि की मान्यता है कि व्यसन कई प्रकार के होते हैं जिन्हें व्यक्ति अपनी अल्पमति के कारण ग्रहण कर लेता हैं और उनसे प्रभावित होकर वह सम्यक् मार्ग को छोड़कर कुत्सित मार्ग की ओर आकर्षित होता है । कहने का अर्थ यह है कि कुमार्ग की ओर ले जाने वाली वे सारी प्रवृत्तियाँ जिनमें व्यक्ति अत्यधिक लिप्त रहता है, व्यसन कहलाता है। यह बहुत सारी हो सकती हैं । अब यहां एक जिज्ञासा उठती है कि व्यसन कितने हो सकते हैं । समाधान सहज भी है और कठिन भी, क्योंकि कुमार्ग की ओर ले जाने वाली सारी की सारी प्रवृत्तियां ही व्यसन हैं । अतष्व उस समस्या समाधान हेतु हम जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित सप्तव्यसनों को सन्दर्भ रूप में प्रस्तुत करना चाहेंगे । on Inter - चूंकि व्यसन दोषयुक्त प्रवृत्ति का नाम है और दोषों की अनगिनत संख्या होने से व्यसन के प्रकार निर्धारण में समस्या आ सकती है और पाठकों को इन्हें समझने में भी भ्रांति हो सकती है । अतः उनसे बचने के लिए जैनाचार्यों ने उन सप्त व्यसनों को ही प्रमुखता ही माना है जो व्यक्ति को अधिक भ्रष्ट करने की क्षमता रखते हैं। जूआ, मांस भक्षण, सुरापान, वेश्यागमन, शिकार कर्म, चौर्यकर्म एवं परस्त्रीगमन ये सात महाव्यसन हैं। इन्हें महापाप भी कहा गया है । इनमें से प्रत्येक व्यसन अत्यंत घृणित एवं निंदनीय माना गया है । इन्हें हिंसक विचारों एवं पतित वृत्तियों का पोषण करने वाला महा विनाशक कर्म कहा गया है । प्रत्येक व्यक्ति को उनसे मुक्त रहने का परामर्श दिया गया है । क्योंकि ये सारे व्यसन मनुष्य की उस आसक्तिवृत्ति के परिणाम हैं जो उन्हें सर्वदा कुपथ की ओर बढ़ने की प्रेरणा देते हैं । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 45 रीडर, अनुप्रायुक्त दर्शनशास्त्र, महात्मा ज्योतिबाफुले विश्वविद्यालय, बरेली (यू.पी.) हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ संस्कार एवं उसके भावार्थ मानव जीवन की सम्पूर्ण शुभ और अशुभवृत्ति उसके संस्कारों के अधीन है । उनमें से कुछ वह पूर्व भव से अपने साथ लाता है और कुछ उसी भव (जन्म) में संगति, शिक्षा, वातावरण आदि से प्राप्त करना है । 'संस्कार' शब्द प्रायः पूर्ण करने के अर्थ में व्यवहृत होता है जो पवित्रता एवं परिष्कार जैसी क्रियाओं को संपन्न करता है । कोशों में उसके लिये पूर्ण करने, शुद्ध करने, अंतःशुद्धि, पुण्यसंस्कार, पूर्व जन्म की वासनाओं को पुनर्जिवित करने, धार्मिक कृत्य, अनुष्ठान, भावना, विचारभाव, मनःशक्ति, कार्यवाही आदि विविध अर्थ मिलते हैं । सचमुच ! संस्कार अपनी इन विविध अपेक्षाओं को पूर्ण करता है । इसलिए संस्कार का एक और अर्थ हमें देखने को मिलता है । सुसंस्कृत करना। __मनुष्य के भाव एवं विचार ही उसके संस्कार माने जाते हैं । इन्हें शुद्ध करना एवं शुद्ध रखना ही सुसंस्कृत करना है । उन्हें शुद्ध इसलिए करना पड़ता है क्योंकि शुद्धिकरण के बाद उनमें योग्यता को धारण करने की शक्ति प्राप्त होती है । इनका पुनरोद्धार करके इनको पुनर्जीवन भी प्रदान करना पड़ता है क्योंकि इसीके आधार पर विस्मृत तथ्यों को स्मृति के धरातल पर लाया जाता है । इस रूप में संस्कार - शुद्धिकरण एवं पुनर्जीवन जैसे दो जीवंत प्रक्रियाओं का ऐसा नाम है जिन्हें छोड़ पाना मनुष्य के लिए शायद ही कभी संभव हो । संस्कार के इसी अर्थ भाव का प्रकाशन शवर भाष्य में इस प्रकार हुआ है। संस्कार वह है जिसके होने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के लिए योग्य हो जाता है । संस्कार के द्वारा गुणों का विकास होता है और अर्हता की उपलब्धि होती है । अर्हता दो रूपों में प्राप्त होती है । क. पापमोचन गुणों से उत्पन्न अर्हता एवं ख. नवीन गुणों की प्राप्ति से उत्पन्न अर्हता। आचार्य अकलंक 'सिद्धिविनिश्चय' ग्रंथ में संस्कार के अर्थ स्पष्ट करते हुए उसे वस्तु का स्वभाव एवं स्मृति का बीज मानते हैं । आचार्य पूज्यपाद संस्कार की व्याख्या कुछ अलग ही रूप में करते हैं। अविद्या अथवा अज्ञानतावश जीव शरीरादि को पवित्र, स्थिर और आत्मीय समझने लगता है । यह भी एक प्रकार का संस्कार है और इस अज्ञान को दूर करने के लिए जिन प्रवृत्तियों का बार-बार अभ्यास किया जाता है वे भी संस्कार हैं । ज्ञान और अज्ञान वस्तुतः स्मृति के ही दो रूप है। एक सम्यक् एवं उपादेय है जबकि दूसरा मिथ्या एवं हेय है । लेकिन इन दोनों का आविर्भाव स्मृति के कारण ही होता है। स्मृति एक मानसिक प्रक्रिया है और शब्दकोशों में संस्कार को मानसी शिक्षा भी कहा गया है। मानसी शिक्षा से हमारा तात्पर्य शिक्षा की उस प्रविधि से है जिसमें मन को सम्यक भावों से इस प्रकार भावित किया जाता है जो व्यक्ति के मन में उठने वाले कुविचारों को शमन कर सके । अतः संस्कार को एक प्रकार का मानसिक प्रशिक्षण भी माना जा सकता है । उपर्युक्त चिन्तन संस्कार के विभिन्न भावार्थों को स्पष्ट करता है । संस्कार के उद्देश्य मानव जीवन में स्वीकृत संस्कारों का एक अलग महत्व है । क्योंकि इनके पीछे एक उद्देश्य रहता है जो विधेयात्मक भावों से पूर्ण रहता है । यही कारण है कि हमारे पूर्वजों ने संस्कार विधानों को अपनाए जाने हेतु एक अभियान छेड़ रखा था । उनके इस पराक्रम के पीछे उनके साधनामय जीवन का अनुसंधान रहा था । प्रायः अनायास एवं व्यर्थ ही किसी मान्यताओं और परंपराओं को अनुसरण करने की अपेक्षा उनको व्यवहार के धरातल पर कसकर एवं परख कर ही अपनाया जाता रहा है । यही बात संस्कारों के सन्दर्भ में भी लागू होती है । अतः आज जरूरत है संस्कार निर्माण एवं व्यसन मुक्ति जैसे सुसंस्कारिक विधानों के पीछे छिपे रहस्यों एवं उद्देश्यों से जनमानस को अवगत कराना एवं उन्हें पुनर्जीवन प्रदान करना। संस्कार के गर्भ में अनगिनत रहस्य और उद्देश्य छिपे हैं जिनके पीछे एक सुविचारित प्रयोजन निहित रहता है । यह मनुष्य को उसके सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक उद्देश्यों के महत्व से अवगत कराना है । इसके कारण गुण संपन्न व्यक्तियों से संबंध स्थापित होता है । प्राचीन शास्त्रों के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त होता है और व्यक्ति अपनी सांस्कृतिक विरासत के महत्व को जानने लगता है । इन सबका व्यक्ति के ऊपर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है । वह यह तथ्य समझने लगता है - संस्कार एक नए जीवन का प्रारंभ है जिसके लिए नियमों के प्रति प्रतिबद्धता अपेक्षित है । उनके कारण मनुष्य में मानवीय मूल्यों की वृद्धि होती हैं जो व्यक्तित्व विकास एवं मानवता की रक्षा के लिए अनिवार्य है । संस्कार का प्रतिकात्मक महत्व माना गया है जो प्रेम, सौहार्द्र, भाईचारे जैसे सद्गुणों को जीवित रखने में अहम भूमिका का निर्वाह करते हैं । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 46 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ संस्कार निर्माण के बाधक तत्व संस्कार निर्माण से हमारा तात्पर्य विस्मृत सद्गुणों एवं मानवीय मूल्यों को पुनर्जीवित कर उन्हें एक नया जीवन प्रदान करना है । यह कोई आसान कार्य नहीं हैं । कारण इस दिशा में विभिन्न प्रकार की बाधाएं खड़ी है जैसे मनुष्य का मिथ्याभिमान, स्वार्थ, भौतिक वस्तुओं के भाग की लिप्सा व्यसनों के - क्षणिक रसास्वादन का लोभ एवं उनमें अनुरक्त हो जाना आदि । इन सबके कारण मनुष्य अपने प्राकृतिक स्वरूप को भूलता जा रहा है । वह दुर्व्यसनों का शिकार होता जा रहा है और कुसंस्कारों के जाल में उलझता जा रहा है । संस्कार निर्माण के कई बाधक तत्व हो सकते हैं उनमें से कुछ का उल्लेख निम्नलिखित है स्वार्थवृत्ति - प्रमाद, राग, ममत्व के वशीभूत होकर स्वयं के लिए ही कार्य करना स्वार्थवृत्ति है । इसके कारण व्यक्ति मात्र वैयक्तिक हित साधन हेतु सीमित हो जाता है । उसकी यह प्रवृत्ति संस्कारों को मलिन करती ही है साथ ही साथ बहुत सारे संस्कारों से भी उन्हें विरत कर देती है - मात्र इस चिन्तन के आधार पर कि उनसे मुझे क्या लाभ है? संवेदनहीनता - स्वार्थवृत्ति का एक परिणाम संवेदनहीनता के रूप में उत्पन्न होता है । उस वृत्ति से पीड़ित व्यक्ति दूसरों के कष्ट दूर करने का प्रयत्न ही नहीं करता । क्योंकि उनके अन्तस में इस तरह के भाव ही नहीं पनपते । यदि कदाचित् ऐसा हो भी जाए तो संवेदनशीलता के अभाव में वे उसे निर्दयतापूर्वक दबा देते हैं । वे अप्रमाणिकता, अनैतिकता, मिथ्यात्व को अपनाने में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं । असमत्वभाव - सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि में समान भाव रखना, सभी प्राणियों को समान समझना समता है । इसके विपरीत भाव असमता है । यह प्रवृत्ति मनुष्य के हृदय में कुसंस्कारों को जन्म देती है। वह अन्य सभी को तुच्छ समझने लगता है । सर्वत्र अपनी प्रशंसा एवं जय की ही कामना रखता है । असंतुलित संवेग - प्रायः मनुष्य अपने संवेगों से चालित होता है । क्रोध, मान, माया, लोभ, भय, तिरस्कार, ईर्ष्या आदि संवेग के विभिन्न प्रतिरूप है। इन पर नियंत्रण रखना अत्यंत आवश्यक है, अन्यथा संस्कारों को विघटित होने से वे नहीं बचा सकते । आज प्रायः ये सारे संवेग अनियंत्रित हो गए हैं । इनका संतुलन बिगड़ गया है । परस्परता की श्रृंखला का अभाव - आचार्य उमास्वाति ने परस्परोपन हो जीवाजाम् का सूत्र दिया जिसका अर्थ है - एकदूसरे का सहयोग करना ही जीव का स्वभाव है | संस्कार भी स्वभावदशा का द्योतक है । लेकिन आज मनुष्य अपनी उस सहजता से विमुख हो गया है परिणामस्वरूप उन्हें कुसंस्कारों के कारण उत्पन्न अग्नि की ज्वाला के ताप को सहना पड़ रहा है । भोगवादी संस्कृति का प्रभुत्व - भोगवादी संस्कृति की विशेषता भौतिक साधनों का भरपूर प्रयोग एवं आध्यात्मिक वृत्तियों का परित्याग शारीरिक एवं बौद्धिक विकास के सर्वाधिक प्रयत्न तथा मानसिक एवं भावनात्मक विकास की उपेक्षा । उनके कारण व्यक्ति में चारित्रिक पतन, अनुशासनहीनता, कर्तव्यपराङ्मुखता अराजवृत्तियों का उदय होता है जो कुसंस्कारों का पोषण करते हैं । उपर्युक्त सारे सन्दर्भ संस्कार निर्माण में बाधक बनते हैं । उनके प्रभाव से व्यक्ति व्यसनों का सेवन करने लगता है और अंततः वह उनका आदी बन जाता है । संस्कार निर्माण एवं व्यसनमुक्ति की प्रक्रिया संस्कार एवं व्यसन शब्द के अर्थबोध से हम यह समझ गए है कि मानव जीवन में उनका अत्यंत महत्व है। संस्कार जहाँ अच्छे भाव का सूचक माना गया है वही व्यसन शब्द गलत एवं नकारात्मक भाव का प्रतिरूप समझा गया है । इसी कारण एक ओर अगर संस्कार निर्माण की बात की जाती है तो दूसरी तरफ व्यसन मुक्ति का प्रसंग छोड़ दिया जाता है। कहने का अर्थ यह है कि व्यसन के त्याग पर बल दिया जाता है जबकि संस्कार को स्वीकार करने की बात की जाती है। ऐसा क्यों? इस तथ्य से हम भली भांति परिचित है । उसी अनुक्रम में हम यहां यह भी बताना चाहेंगे कि दोनों ही शब्दों के कई अर्थ किए गए हैं । अतः जब संस्कार निर्माण एवं व्यसन मुक्ति का प्रसंग हमारे समक्ष उपस्थित होता है तो इसके साथ-साथ उनसे जुड़े अन्य पक्षों पर भी ध्यान चला जाता है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 47 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति oniriternations Fore P Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ इन सब घटकों को ध्यान में रखने पर हमारे सामने संस्कार निर्माण एवं व्यसन मुक्ति के कई प्रारूप बनने एवं बिगड़ने लगते हैं । अगर इन सबको साथ लेकर चलना पड़े तो हम बहुत बड़ी समस्या में फंस सकते हैं और अपने मूल उद्देश्य से भी भटक सकते हैं । अगर उन्हें छोड़ दिया गया तो हम वस्तुतः विषय सन्दर्भ के साथ न्याय नहीं कर सकेंगे । अतः दोनों ही परिस्थिति में हमारे सामने संकट है और इनका समाधान भी करना है क्योंकि हम उन्हें छोड़ना भी नहीं चाहते । इसलिये इस संकट के हल हेतु हमें उन प्रक्रियाओं को कार्यरूप देना होगा जो उनके विभिन्न पक्षों को अपने साथ जोड़ सके । यहां हम उन्हें केवल सूत्ररूप में प्रस्तुत कर रहे हैं मनुष्य के सम्यक् स्वरूप का प्रकाशन संस्कार एवं व्यसन का स्वरूप निर्धारण मानव जीवन में संस्कार एवं व्यसन का स्थान संस्कार निर्माण एवं व्यसन मुक्ति की चेतना का जागरण मूल्य एवं मूल्यबोध की भावना का विकास सभ्यता एवं संस्कृतिगत विशेषताओं का प्रकाशन सहअस्तित्व की व्यापकता का परिबोध मानसिक संतुलन जीवन शैली में परिवर्तन संस्कार निर्माण एवं व्यसन मुक्ति हेतु ये कुछ महत्वपूर्ण बिन्दु हो सकते हैं, लेकिन उन्हें ही मात्र अंतिम नहीं माना जा सकता । क्योंकि ये दोनों सन्दर्भ अत्यंत व्यापक हैं। अतः इनके लिए व्यापक सूत्र भी बन सकते हैं । लेकिन यहां हमारा निवेदन यह है कि मात्र सूत्रों के प्रकाशन से ही संस्कार निर्माण एवं व्यसन मुक्ति के प्रयास सफल नहीं हो सकते । उस हेतु एक प्रतिबद्ध संकल्प की आवश्यकता है जो इन सूत्रों को कार्यरूप में परिणत कर सके । सन्दर्भ 1. वामन शिवराम आप्टे : संस्कृत हिन्दी-कोश, नाग प्रकाशक, दिल्ली 1995, पृ. 988 2. न परिमियन्ति भवन्ति व्यसनान्यपराण्यपि प्रभूतानि । त्यक्त्वा सत्पथमपथपृवृत्तयः क्षुद्रबुद्धिनाम् ।।1/32, पंचविंशितिका (पद्मनंदि) जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर 1932 3. जूयं मज्जं मंसं वेसा पारद्धि-चोर-परयारं । दुग्गइगमणस्सेदाणि हेउभूदाणि पावाणि ।।59, वसुनंदि-श्रावकाचार भारतीय ज्ञानपीठ काशी, 1952, लाटी संहिता, 2/113, पंचविंशितिका 1/6 4. आप्टे : संस्कृत हिन्दी-कोश, पृ. 1051 संस्कारों नाम स भवित यस्मिन्जाते पदार्थों भवित योग्यः कस्यचिदर्यस्य । 3/1/3, शावर भाष्य 6. वस्तुस्वभावोऽयं यत् संस्कारः स्मृतिबीजमादधीत । 1/6/34/14, सिद्धिविनिश्चय (अकलंक) भारतीय ज्ञानपीठ, काशी 1951 7. शरीरादौ स्थिरात्मीयादिज्ञानान्य विद्यास्तासामम्य सः पुनः प्रवृत्तिस्तेन जनिताः वासनास्तैः कृत्वा । 37/36/8, समाधिशतक टीका, वीरसेवा मन्दिर देहली सं. 2021 डॉ रामस्वरूप 'रसिकेस' आदर्श हिन्दी संस्कृत कोश, चौखंबा विद्याभवन वाराणसी, 1986 पृ. 591 आप्टे : संस्कृत-हिन्दी-कोश पृ. 1051 9. तत्त्वार्थसूत्र, 5/21 विवे : पं सुखलाल संघवी, पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी 1993 8. हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 48 हेगेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Puyerapeumonalise only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ न महामंत्र णमोक्कार (स्वरूप एवं माहात्म्य) जशकरण डागा मंगलाचरण “प्रथम नमु अरिहन्त सिद्धं को परमातम पद के धारी | फिर वंदन आचार्य देव को जो छत्तीस गुण के धारी || उपाध्याय गुणी साधु साध्वी, पंच महाव्रत के धारी | भाव सहित हो उन्हें वंदना, जिनने मेह ममता मारी I" महामंत्र णमोक्कार जैन धर्म का मूल शाश्वत, सर्वजीव कल्याणक, अनुत्तर महामंत्र है । मंत्र का अर्थ होता है "मननात् त्रायते यस्मात् तस्मान्मंत्र प्रकीर्तितः ।" अर्थात् मनन करने से जो अक्षर स्वयं की रक्षा (त्राण) करते हैं, वे अक्षर मंत्र कहलाते हैं । णमोक्कार महामंत्र, सम्पूर्ण लोक का सार व श्रेष्ठतम होने से, हमें मंत्र राज़ या परमेष्ठी' कहा गया है । 'परमेष्ठी' का अर्थ है - जो आत्मा के लिए परम इष्ट, परम कल्याणकारी व मंगलकारी हो । यह मंत्रराज महाप्रभावक है, लौकिक व लोकोत्तर, भौतिक व आध्यात्मिक, दोनों प्रकार के अचिन्तय महाफलों का दाता और अनन्तः सर्व जन्म जरा, भय, रोग, शोक, गरजादि के सर्व दुखो का सर्वथा विनाश कर शाश्वत मोक्ष के अनंत सुखों का देने वाला है । यह परमेष्ठी मंत्र राज णमोक्कार हम प्रकार है: “णमो अरहताणं | णमो सिद्धाणं । णमो आयरियाणं | णमो उवज्झायाणं | णमो लोए सव्व साहूणं " "एसो पंच णमोक्कारो, सव्व पावप्पणा सणो । मंगलाणंच, सवेसिं, पढमं हवइ मंगलम् ।।" अर्थ- "समस्त अरिहंतों को नमस्कार हो । समस्त सिद्धों को नमस्कार हो । समस्त आचार्यों को नमस्कार हो । समस्त उपाध्यायों को नमस्कार हो । लोक स्थित समस्त साधुओं को नमस्कार हो ।" "इन पांच पदों का यह नमस्कार सभी पापों का नाश करने वाला है । संसार के सब मंगलों में यह प्रथम (मुख्य) मंगल है । इस महामंत्र के पांच पदों में प्रथम दो 'देव' से व शेष तीन 'गुरु' तत्व से संबोधित हैं, जिनमें पैंतीस अक्षर हैं । अन्त में चूलिका के चार पद हैं जिनमें तैंतीस अक्षर हैं । इस प्रकार से इस मंत्र राज में कुल अड़सठ अक्षर हैं । मंत्रराज के ग्यारह नाम : इस णमोक्कार महामंत्र के ग्यारह नाम हैं । यक्ष 1. पंच महामंगल महाश्रुत स्कंध 2. नवकार महामंत्र 3. पंच नमस्कार महामंत्र 4. महामंत्र 5. अपराजित मंत्र 6. अनादिमंत्र 7. मंगल मंत्र 8. मूल मंत्र 9. मंत्रराज 10. जिन मंत्र व 11. असिआउसाय नमः मंत्र (यह नाम पांचों पदों के प्रथम अक्षरों को सयुक्त रूप है तथा इनसे ही हमरा बीज मंत्र ओम (ऊ) वाला है (अ+ अ + आ +उ+म-ओम) हेमेन्ट ज्योति* हेमेन्च ज्योति 49 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ मंत्रराज के पांच पदों की रंग स्थापना : पांचों पदों के प्रस्थापित रंग, उन पदों की विशेषताओं के प्रतीक है। यथा प्रथम पद अरिहंत -श्वेत-यह रंगरागद्वेष रहित निर्मल आत्माओं का प्रतीक हैं। द्वितीय पद-सिद्ध-लाल-यह रंग परिपक्व अनाज की तरह, परिपक्व विशुद्ध आत्माओं का प्रतीक है । तृतीय पद -आचार्य पीला - यह रंग सूखे वृक्षवत् रूप सेव हरियाली को नष्ट करने का प्रतीक है । चतुर्थ पद उपाध्याय नीला - यह रंग अल्प पाप कलिमल शेष रही अत्माओं का प्रतीक है । पंचम पद साधु-काला यह रंग पाप कलिमल को धोनेवाली साधक आत्माओं का प्रतीक है । स्वरूप-पंच परमेष्ठी का पावन स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार है - प्रथम पद - णमो अरहन्ताणं "घण घाइ कम्महणा, तिहुवणवइ भवकमल मतदा | अरिह अणंत ताणी, अणुप्प मसोसवा जयंतु जय || अर्थात् जिन्होंने चारो घाती कर्मो का सर्वथ । क्षयकर तीन लोक में विद्यमान भव्यजीवों रूपी कमलों को विकसित करने में जो सूर्य हैं । जो अनंतज्ञानी हैं और अनुपम सुखमय हैं वे अरिहन्त जगत में जयवंत हैं । "ललि अयंसहाव लट्ठा समप्पडा अदोसदुट्ठा गुणेहिजिट्ठा । पमायसिट्ठा तवेण पुट्ठा, सिरीहइटा रिसीहि जुट्ठा ||" अर्थात् वे स्वरूप से सुन्दर, समभाव में स्थिर, दोष रहितगुणों से अत्यन्त महान कृपा करने मे उत्तम, तप के द्वारा पुष्ट लक्ष्मी से पूजित व ऋषियो से सेवित हैं । विशेष - अरहन्त शब्द के पर्याय व अर्थ इस प्रकार है - 1. अर्हन्त - अर्हन्त पूजनीय त्रिलोक पूज्य (प्राकृत में अर्हत शब्द है) 2. अरहोत्तर - अ + रह + उत्तर - जिनसे कोई रहस्य छिपा नही है सर्वज्ञ । 3. अरिहन्त - अरि + हन्त - कर्म रूप शत्रुओं को जिन्होंने नष्ट कर दिया है । 4. अरहन्त - अ + रह + अन्त - जो पुनः पैदा न हो (अरूह - न उगना व अन्त रहित) । 5. अरथांत-अरथ + अन्त - सर्व प्रकार से अपरिग्रही तथा जिनका अंत (मृत्यु) नहीं होता | 6. अरहन्त - अरह + अंत - आसक्ति राहत -पूर्ण अनासक्त । 7. अरहयद - अरह+यद - मनोज्ञया अमनोज्ञ प्रसंग में भी जो तीतली स्वभाव का त्याग नहीं करते हैं । 2. अरहन्त देव अनंत चतुष्टय (अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत चारित्र, व अनंत बलवीर्य रूप), के धारक होते हैं, तभी अठारह दोषरहित व बारह गुण सहित होते हैं । अठारह दोष है - नहिं अज्ञान', निद्रा, मिथ्यात्म, नहीं राग' और द्वेष नहीं । नहीं अव्रत काम' हास्यादि:-13, छ नहीं पंच'4-18 अंतरा वहां ।। बारह गुण है - 1. अनंत ज्ञान 2. अनंत दर्शन 3. अनंत चारित्र (स्वस्वरूप में अनंत स्थिरता) 4. अनंत तप 5. अनंत सुख 6. क्षायिक समकित (निराकुल एवं विशुद्ध आत्म प्रतीति) 7. शुक्ल ध्यान (स्व-स्वस्थ का निर्विकल्प ध्यान) 8. अनंत दान लब्धि (अनंत प्राणियों पर अनंत अभय दान स्वरूप शुद्ध विच्छभाव से परिणमन) 9. अनंत लाभ लब्धि (अव्याबाध आत्म स्वरूप की प्राप्ति का अनंत लाभ) 10. अनंत भोग लब्धि (अनंत एश्वर्य का प्रतिक्षण भोग) 11. अनंत उपभोग लब्धि (आत्मा के परमानंद का प्रवाह रूप में पुनः पुनः अनुभूति) व 12. अनंत वीर्य लब्धि (जिसके आलम्बन से आत्मा की अनंत सामर्थ्य रूप रूचि प्रगट होती है जिसमें किंचित सूचना या वियोग नहीं । ये बारह गुण सभी केवली भगवन्तों में मिलते हैं । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 50 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति onal use Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ अंतराय कर्म के क्षय से दानादि पांच लब्धियाँ प्रगट होती है । जिससे अरिहन्त दानादि देने को सम्पूर्णतः समर्थ हैं तथापि वे पूर्ण वीतराग होने से पुद्गल द्रव्य रूप से, इन दानादि लब्धियों की प्रवृत्ति नहीं करते हैं । मुख्यतः ये लब्धियाँ भी दायिक भाव से प्राप्त होने से शुद्ध आत्म भूत होती हैं । अरिहन्त दो प्रकार के होते हैं 1. तीर्थंकर व 2. सामान्य केवली । इन दोनों में मुख्यतः चार प्रकार का अन्तर होता है, यथा 1. चार तीर्थ- साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका की स्थापना तीर्थंकर ही करते हैं । उनकी वाणी आगम बन जाती है तथा उनका धर्मशासन चलता है । समवशरण की रचना व अष्ट प्रतिहार्य तीर्थंकरों के ही होते हैं । 3. संसार के सर्वाधिक सत्ता सम्पत्ति के धारक इन्द्र चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि तथा विशिष्ट विद्वान, दार्शनिक आदि भी तीर्थंकरों से प्रभावित होते हैं । 4. तीर्थकर उत्कृष्ट पुण्यशाली महापुरुष होते हैं । 5. महाविदेह क्षेत्र में अधिकतम 160 व न्यूनतम 20 तीर्थंकर सदैव रहते हैं । वर्तमान में अभी सीमंधर स्वामी आदि तीर्थंकर वीस बिरहमान के नाम से विद्यमान हैं । 6. तीर्थकरों व सामान्य केवली भगवंतों की आयुष्य क्रमशः जघन्य 72 वर्ष 8 वर्ष तथा उत्कृष्ट 84 लाख पूर्व व देशोन क्रोड़पूर्व की होती है । तीर्थंकर अरहन्तों का स्वरुप दर्शानेवाली संक्षिप्त भाव स्तुति हम प्रकार है - "अरिगंजन अरिहन्त, जगतगरू संत हैं । केवल कमलाकत, महा यशवन्त हैं || इन्द्र नरेन्द्र मुनीन्द्र, सुसेव करत हैं | द्वादश गुण भगवंत, सदा जयवन्त हैं । अरिहंत देव को महादेव भी कहते हैं, कारण - महारागो, महादेसे, महा मोहो तहा परो | कसाय य हयजेण महादेवो स वुच्चई ।। अर्थात् जिसने महाराग, महाद्वेष, महामोह और कषाय का (सर्वथा) विनाश का दिया है, उसे महादेव (अरिहन्त) कहते हैं । द्वितीय पद-णमो सिद्धाणं "अद्वविह कम्म वियला, णीट्ठिय कज्जापण्ड संसारा | दिट्ठ सयलत्थ सारा, सिदा सिदि ममं दिसंतु"||" अर्थात् जो अष्ट कर्मों से रहित, कृत कृत्य, जन्म मृत्यु के चक्र से मुक्त तभी समग्र तत्त्वार्थ के द्रष्टा है, वे सिद्ध भगवन्त है, और (अनुत्तर) सिद्धि के देनेवाले हैं । विशेष - 1. अष्ट कर्मों के क्षय से सिद्ध भगवंतों में आठ मुख्य आत्मिक गुण प्रगट होते हैं यथा - 1. अनंत ज्ञान, 2. अनंत दर्शन 3. अनंत सुख (वेदनीय व चारित्र मोहनीय के क्षय से, 5. अक्षय स्थित (अमरत्व) 6. अभूर्व 7. अगुरु लघुत्व व 8. अनंत वीर्य (शक्ति) । हेमेन्द ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 51 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति A ddautions indane Pantali Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सिद्ध भगवन्त अशरीरी होने से निरंजन निराकार है, तथा अज्ञान व मोह से सर्वथा रहित है । निर्विकार, निर्भय, निर्विकल्प, निरिच्छ, निर्लेप आंकक्षा रहित, ज्ञानरूप, अक्षय अनंत गुण युक्त, अव्यय, आनंदस्वरूप व अनंत शक्तिवान होकर भी वीतराग होने से अकर्ता हैं । किन्तु जैसे चन्द्रमा द्रष्टा की नेत्र ज्योति बढ़ाने में सहज निमित्त होता है, अथवा जैसे धर्मास्तिकाय अक्रिय होकर भी द्रव्यों की गति में सहायक निमित्त है, वैसे ही सिद्ध भगवान अकर्ता होने पर भी वे सिद्ध गुणों के अनुरागी भव्यजीवों की सिद्धि में सहकारी कारण बनते हैं । दूसरे मनोविज्ञान शास्त्र का भी यह नियम है कि जो जैसा चिंतन, स्मरण करता है । वह कालान्तर में वैसा ही बन जाता है । अतः सिद्ध भगवंतों के चिंतन, मनन, स्तवन आदि से स्वतः आत्मा से परमात्मा पद की ओर गति होकर अन्नतः सिद्धत्व की प्राप्ति होती है । कहा है - "कर्ता ईश्वर है नहीं, ईश्वर शुद्ध स्वभाव | यदि उसको प्रेरक कहे, ईश्वर दीव्य प्रभाव ||" "चेतन तो निज भान में, कर्ता आप स्वभाव | बर्ते नहीं निज भान में, कर्ता कर्म प्रभाव" वस्तुतः ईश्वर जगत कर्त्ता नहीं है, इसकी पुष्टि वैदिक धर्म से भी होती है जैसे कहा गया है - “न कर्तृत्वं न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभुः । । फल संयोग, स्वभावष्तु प्रवर्तते ।' अर्थात् न परमेश्वर जगत कर्ता है, न कर्मो को बनाता है, तथा न कर्मो के फल संयोग की व्यवस्था या रचना करता है । परन्तु सब स्वभाव से ही बरत रहे हैं । आगे कहा है - "नादत्ते कस्य चित्पाप, न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानना वृतं ज्ञानं, तेन मुह्यन्ति अन्तवः ||" अर्थात् न परमेश्वर किसी को पाप का फल देता है, न पुण्य का । अज्ञान से ज्ञान ढ़का है । इसीसे जगत के प्राणी मोही हो रहे हैं । सिद्ध भगवन्त सिद्ध होने की अपेक्षा से पन्द्रह प्रकार के कहे गये हैं । यथा - 1. तीर्थ सिद्धा (गौतमादि) 2. अतीर्थ सिद्धा (मरुदेवी मातादि) 3. तीर्थकर सिद्धा (भगवान शांतिनाथ आदि) 4. अतीर्थंकर सिद्धा (गजसुकमाल मुनि आदि) 5. स्वयं बुद्ध सिद्धा (कपिल केवलि, मृगापुत्र आदि) 6. प्रत्येक बुद्ध सिद्धा (करकंडु आदि) 7. बुद्धबोधिक सिद्धा (थावच्चा पुत्र आदि) 8. स्त्रीलिंग सिद्धा (चंदनबालादि) 9. पुरुषलिंग सिद्धा (अतिमुक्तकुमार आदि) 10. नपुंसकलिंग सिद्धा (गांगेय अणगार आदि) 11. स्वलिंग सिद्धा (जम्बूस्वामी आदि) 12. अन्यलिंग सिद्धा (शिवराजार्षि आदि) 13. गृहस्थ लिंग सिद्धा (कूर्मापुत्र आदि) 14. एक सिद्धा (भगवान महावीर आदि) 15. अनेक सिद्धा (भगवान ऋषभनाथ आदि) ।। अरिहन्त साकार ईश्वर है, जबकि सिद्ध निराकार । इसी कारण से साकार निराकार दोनों उपासनाओं का अपना महत्व है । म. कबीर ने इन दोनों उपामनाओं के विषय में बडी मर्मस्पर्शीबात इस प्रकार कही हैं - "निर्गुण तो है पिता हमारो, और सगुण महतारी | किसको वंदे, किसको निदे, दोनो पल्ले भारी"।" सिद्ध भगवंतों की जघन्य अवगाहना एक हाथ आठ अंगुल व उत्कृष्ट तेतीस धनुष्य 32 अंगुल प्रमाण है | हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 52 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति UPSC wmmsjana Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ तृतीय पद णमो आयरियाणं "पंचाचारा सम्मगा, पंचिदिय दंति दप्पणिद् दलणा | धीरा गुण गंभीरा आयरिया सरिसा होति ।' अर्थात् जो पंचाचार (ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप व वीर्याचार) से युक्त हैं, जो पंचेन्द्रिय रूपी हाथियों के मान को दलित करनेवाले हैं, धीर हैं तथा (छत्तीस) गुणों से गंभीर है । आचार्य के छत्तीस गुण, इस प्रकार कहे गए हैं । "पंचिदिय संवरणो तह णव विह बंभचेर गुत्ती धरो | चउविह कसाय मुक्को, इह अट्टारस गुणेन्हि सजुत्तो | पंच महव्वय जुत्तो, पंच विहायार पालण समत्थो । पंच समिओ तिगुत्तो, छत्तीस गुणो गुरू मज्झं ।' अर्थात् पांच महाव्रत, पांच आचार, पांच समिति, तीन गुप्ति पांच इन्द्रिय संवर, नववाड सहित ब्रह्मचर्य पालक व चार कषाय से मुक्त । इस प्रकार छत्तीस गुण से युक्त होते हैं । आचार्य के 36 गुण इस प्रकार भी कहे गये हैं - 12 तप, 10 धर्म, 5 आचार, 6 आवश्यक व 3 गुप्ति । आचार्य की प्रमुख विशेषता होती है - "जह दीवो दीव सयं, पइप्पइ जसो दीवो | दीव तमा आयरिया, दिव्वंति परं च दिप्पंति"I" अर्थात् जिस प्रकार दीपक स्वयं प्रकाशित होकर, अन्य सैकडों दीपकों को प्रकाशित करता हैं उसी प्रकार आचार्य ज्ञान, दर्शन, चारित्र द्वारा स्वयं प्रकाशित होकर अन्य को प्रकाशित करते हैं । विशेष - 1. आचार्य चतुर्विध संघ के नायक व संचालक होते हैं । 2. आचार्य के नाम के आगे '108' लिखने का एक कारण उनके द्वारा पापों के 108 दरवाजो को बंद कर '108' उत्तम गुणों से शोभित होता है । बिगत इस प्रकार जाने 4 कषाय 3 (आरंभ, संरभ व समारंभ) x 3 योग x 3 करण = 108 कुल । आचार्य चतुर्विध संघ नायक व संवाहक होते हैं । 3. संरभ - जीवहिंसा विषयक मन में भाव लाना । समारंभ - जीवों कों संताप देना । आरंभ -जीवो की हिंसा करने को कहते हैं । चतुर्थ पद णमो उवज्झायाणं 'अण्णाण घोर तिमिरे, दुरंत तीराम्हि हिंड माणाणं । भविदायुज्जोयरा, उवज्झाया वरम दि देंतु"।'' अर्थात् उस अज्ञान रूपी घोर अंधकार में जिसका ओर छोर पाना कठिन है । भटकनेवाले भव्य जीवों के लिए ज्ञान का प्रकाश देने वाले उपाध्याय उत्तम मति प्रदाता होते हैं । ये उपाध्याय कैसे होते हैं? शास्त्रकार कहते हैं "बारसङग बिउबुदा, करण चरण जुओ । प्रभावण जोग निग्गहो, उवज्झाय गुण वदे" अर्थात् बारह अंग के अभ्यासी चरण और करण सत्तरी युक्त आठ प्रभावना द्वारा जैन धर्म को दिपानेवाले और तीन योग को वश में (विग्रह) करनेवाले ये पच्चीस गुण धारक उपाध्याय जी वंदनीय होते हैं । विशेषता- 1. उपाध्याय के पच्चीस गुण इस प्रकार भी कहे हैं - ग्यारह अंग बारह अंग व चरण सत्तरी, करण सत्तरी के ज्ञाता, इन पच्चीस गुणों सहित होते हैं । 2. ये स्व पर दर्शन के विज्ञाता, आगम व्याख्याता और श्रुतज्ञान के दाता होते हैं । 3. चरण सत्तरी अर्थात् साधुचर्या के 70 बोल अनुसार चारित्र पालन करना तथा करण हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 53 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Jaintinuation Intentialithali Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सत्तरी अर्थात् चरण की पुष्टि करने योग्य 70 बोल अनुसार परिणामों को शुद्ध रखना व जिस अवसर पर जो करने योग्य हो, सो करते हैं । आप आगमों के मर्म के ज्ञाता और व्याख्याता होते हैं । 4. चरण सत्तरी के 70 बोल है पांच महाव्रत, दस यति धर्म सतरह भेदे संयम, दस प्रकार की वैयावृत्य, नव प्रकार का ब्रह्मचर्य पालन, ज्ञानादि रत्नत्रय, बारह प्रकार का तप व चार कषाय निग्रह इन सबके पालक व आराधक होते हैं। 5. करणसत्तरी के 70 बोल हैं - आहार, वस्त्र, पात्र शैया, ऐसी चार पिण्ड विशुद्धि, पांच समिति, तीन गुप्ति, बारह भावनाएं, बारह प्रतिमाएं, पांच इन्द्रियां निग्रह पच्चीस प्रति लेखना चार अभिग्रह धारण करना" । पंचम पद णमो लोए सव्व साहूणं "दंसण णाण समग्गं मोक्खस्स जो ह चरितं । साधयहि णिच्च सुद्रं साहू समुणी णमोतस्स I अर्थात् जो दर्शन एवं ज्ञान से समग्र मोक्ष मार्ग स्वरूप एवं नित्य शुद्ध चारित्र की साधना करते हैं, जो बाह्य व्यापारों से मुक्त हैं, जो दर्शन, ज्ञान चारित्र और तप रूप चार आराधनाओं में सदा लीन रहते हैं जो परिग्रह रहित और निर्मोही है, वे साधु कहलाते हैं। साधु के 27 गुण कहे हैं जो इस प्रकार है। “पंच महव्वय जुत्तो, पंचेदिय संवरण । चडविह कसाय मुक्को, तओ समाधारणीया ||1|| तिसच्च सम्पन्न तिओ, खंति संवेग रओ । वेजय मच्चु भय गयं, साहु गुण सत्तावीसं 121 अर्थात् (1-5) पांच महाव्रतों का पालन, (6-10) पांच इन्द्रियों का संवर, (विषयों से निवृत्ति) (11-14) चार कषायों से निवृत्ति, (15-17) मन, वचन व काया समाधारणीया (18–20) भाव, करण व योग सच्चे (21-23) ज्ञान दर्शन व चारित्र सम्पन्न (24) क्षमावंत 25, वैराग्यवंत (26-27) वेदनीय मरणांतक समाहिया ऐसे सत्तावीस गुण सम्पन्न साधु होते हैं। – | विशेष 1. दिगम्बर परम्परानुसार साधु के 28 गुण कहे हैं" यथा 15 पांच महाव्रत, 6-10 पांच समिति का पालन, 11-15 पांच इन्द्रिय विगयी 16 सामायिक 17 वंदन 18 स्तुति 19 स्वाध्याय, 20 प्रतिक्रमण, 21. कायोत्सर्ग, 22. शयन एक करवट से (अर्ध रात्रि के बाद) 23. अदन्त मंजन, 24. अस्ताव 25. नग्नत्व 26. एग मत्तं 27. खड़े रह भोजन करना और 28 केश लोच करना । ३० आगम बलिया समय निग्गंथा" अनुसार साधु का बल आत्म ज्ञान होता है तथा सुत्ता अमुणी मुणिजो सया जागरंति अनुसार मुनि सदा मोहरूपी भाव निद्रा से जाग्रत रहते हैं । जब आत्मा सोता है तो इन्द्रियां जाग्रत रहती है और जब आत्मा जाग्रत रहता है तो इन्द्रियां सो जाती है अर्थात् निष्क्रिय हो जाती है । ऐसे अप्रमत्त मुनि होते हैं उनके लिए कहा गया है “पर परिणाम त्यागी, तत्व की संभार करे । हरे भ्रम भाव, ज्ञान गुण के धरैया है || लखे आपा आप माहि, रागद्वेष भाव नाहि । शुद्ध उपयोग एक, भाव के करैया है ॥ विरता सुरूप ही की, व संवेद भावन मे । परम अतीन्द्रिय सुख नीर के बरैया है । देव भगवान सो स्वरूप, लखे घटही मे । ऐसे ज्ञानी संत, भव सिंधु के तिरैया है"।" हेमेल्य ज्योति मे ज्योति 54 हेमेजर ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ भाव सच्चे से अभिप्राय, उपशम, क्षयोपशय क्षायिक भाव विशुद्धि करण सच्चे से आत्म प्रवृति की विशुद्धि व 'जोग सच्चे' से तीनो योगों की एक रूपतामय सत्यप्रवृति जाने । पंचम पंद को सुशोभित करने वाले साधुओं के लिए कहा गया है. - Educ “ज्ञान को उजागर, सहज सुख सागर, सुगुण रत्नाकर विराग रस भय है । शरण की रीति हरे मरण को न मद करे, करण सो पीढ़ी दे चरण अनुसयो है ॥ धर्म को मंडन, भ्रम को विखंडन परम नरम होके कर्म सु लरियो है । ऐसे अहो मुनिराज, भूलोक मे बिराजमान, तिरखी बनारसी भाव वंदन करे हैं" । " मुनि कल्पचर्या तीन प्रकार ही होती हैं*। यथा 1. निर्विष्ट कल्प स्थिति • ये परिवार विशुद्ध चारित्र के पालन होते हैं इनका संहारण नहीं होता है । 2. जिन कल्प ये वन में रहकर एकाकी कठोर साधना करनेवाले मुनि होते हैं जो जिन मुद्रा के धारक होते हैं ये अपने शरीर का प्रति कर्म (सार सम्हाल, चिकित्सा आदि) भी न करते हैं न कराते हैं और सभी परिषहो व उपसर्गो को समभाव से सहन करते हैं । 3. स्थविर कल्प ये तीर्थंकर प्रभु की आज्ञानुसार संयम पालनार्थ मर्यादित वस्त्र उपकरण के धारक होते हैं। व्याधि निवारणार्थ निर्दोष कल्पनीय औषधि का सेवन करते हैं । विशेष - 1. "आदरी संयम भार, करणी करे अपार, समिति गुप्तिधार, विक्वानिवारी है । जयणा करे छ काय, सावद्य न बोले वाय, चुकाय कवाय लाय क्रिया भण्डारी है ।। ज्ञान भणे आगे याम, लेवे भगवंत नाम, धर्म जो करे काम, ममता को मारी है । कहत हैं तिलोक रिख कर्मा से टाले विष, ऐसे मुनिराज ताको वंदना हमारी है" ।। और भी कहा गया है। 3. 2. वर्तमान में दिगम्बर मुनि जिनकल्प व श्वेताम्बर मुनि स्थविर कल्प की परंपरा के प्रतीक हैं ऐसी अनेक विद्वानों की मान्यता है । संचेलक (मर्यादित वस्त्र वाले) व अचेलक (वस्त्र रहित या अल्प वस्त्र ) परम्परा का वर्णन भी इसीसे सम्बन्धित है।" दिगम्बर मुनि लिंग, जिन मुद्रा अनुरूप है तो श्वेताम्बर मुनि लिंग जिन आज्ञा अनुरूप है । 4. उपरोक्त कल्पचर्या की अपेक्षा से मुनियों के तीन प्रकार कहे गए हैं। ये सभी पंचमहाव्रत एवं पांच समिति व तीन गुप्ति के पालक होते हैं । भगवान पार्श्वनाथ के केशी कुमार आदि पांच रंगों के वस्त्र धारण करने वरले श्रमण संचेलक और भगवान महावीर के शिष्य गणधर गौतम आदि अनेक श्रमण अचेलक परम्परा के पालक थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि श्वेताम्बर मत भगवान पार्श्वनाथ की प्रचलित संचेलक परम्परा का प्रतीक है एवं प्राचीन है । जैन मुनि के वस्त्र, मुहपत्ती आदि के धारक होने की पुष्टि प्राचीन वैदिक ग्रंथों से भी होती है । जैसे “हस्ते पात्र दधानश्य, तुण्डे वस्त्र धारकाः । मालिन्यमेव वासांसि धारयति अल्पभाषिण" | " अर्थात् हाथ में पात्र सुख पर मुखवस्त्रिका व मलिन वस्त्रों के धारक, अल्प भाषी जैन मुनि होते हैं । 5. तीर्थंकर कल्पातीन होते हैं । जिनकल्पी व कल्पातीत महात्मा अपवाद सेवन नहीं करते । स्थविर कल्पी on Inte रोमेन्द्रज्योति ज्योति 55 हेमेन्द्र ज्योति हेगेल ज्योति Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्टसंत शिरोमणि अभिनंदन गंथा आवश्यक प्रसंग आने पर जिन आज्ञा को ध्यान में रखते मर्यादा व द्रव्यख्य काल भाव अनुसार यथोचित अपवादमार्ग का भी सेवन करते हैं तभी बाद में उसमें सेवन में लगे दोषो का समुचित प्रायश्चित ले शुद्धि करण करते हैं । महामंत्र में णमो शब्द के प्रयोग का हेतु - 1. परमेष्ठी महामंत्र में णमो' शब्द का छ: बार प्रयोग हुआ है । जिससे छ प्रकार का कषाय जो 'अहं' व 'मम' रूप है गलित होता है । 'अहं' के तीन रूप हैं - क्रोध, मान व द्वेष 'मम' के तीन रूप हैं - माया, लोभ व राग । 'णमो' में 'ण' नहीं व 'मो' मोरा 'या' मोह का प्रतीक भी है । इस तरह णमो - 'नहीं मोरा' से 'अहं' तथा नहीं 'मोह' में 'मम' का विनाश होता है । इस प्रकार से 'णमो' संसार की जड 'अहं' व 'मम' दोनों का ही सर्वथा समाप्त करने वाला है। णमो धर्म का मूल है तथा वंदन का पर्याय भी है जिसके लिए कहा गया है - वंदनीय गोय कम्मं खवंइ, उच्च गोय कम्मं निबंधई । अर्थात् वंदन से नीच गोत्र का क्षय और उस गोत्र का बंधन होता है । भावपूर्वक पंच परमेष्ठी को वंदन से उत्कृष्ट इसायन आने पर तीर्थकर गोत्र का उपार्जन होता है । 'णमो पुण्य का नवम भेद है । जिससे सहन व उत्तम पुण्य अर्जित होता है । (गुप्तियो व संयमियों को नमन से) परमेष्ठी मंत्रराज का महत्व - 1. विश्व के किसी भी धर्म या पंथ मे ऐसा महान परमोत्तम मंत्र, खोजने पर भी नहीं मिलेगा । जैसे वैदिक धर्म में गायत्री मंत्र का, बौद्ध धर्म में त्रिशला मंत्र का महत्व है वैसे जैन धर्म में इनसे भी अधिक महत्त्व नवकार महामंत्र का है । इस तथ्य की निष्पक्ष सत्यता को इन मंत्रों के अर्थो से समझा जा सकता है। 2. यह परमेष्ठी महामंत्र अचिन्त्य लाभ प्रदाता है कहा है - “संग्राम सागर करीन्द्र भुजंग सिह, दुर्व्याधि वन्हि रिपु बंधन संभवानि | चोर ग्रहज्वर निशाचर शाकिनी, नाम नश्यन्ति पंचपरमेष्ठी पदे भयानि I अर्थात् नमस्कार महामंत्र द्वारा महायुद्ध, समुद्र, गज, सर्प, सिंह, दुख अग्नि, शत्रु, बंधन, चोर, ग्रह, बुखार, निशाचर (राक्षस) शाकिनी आदि का भय नष्ट होता है । इसके लिए और भी कहा है - "अपराजित मंत्रोंऽय सर्वविघ्न विनाशनः ।" अर्थात् यह महामंत्र अपराजित है । अन्य किसी भी मंत्र द्वारा इसकी शाक्ति को प्रतिहत या अवरुद्ध नहीं किया जा सकता । इसमें असीम सामर्थ्य निहीत है, तथा सर्व विघ्नों को क्षणभर में नष्ट करने वाला है । 3. यह महामंत्र जिनवाणी का सार भाव औषधि रूप महारसायन है । इसके प्रत्येक अक्षर में कोटि कोटि शुद्ध महान आत्माओं की प्रति ध्वनियाँ शुभ आकांक्षा एव मंगल भावनाएं झंकृत होती है तभी पाप पुञ्ज पलायिनी, अशुभ कर्म नाशिनी एवं वेदना निग्रह कारिणी दिव्य शक्तियों का भण्डार इसमें निहीत है । ऐसे अपरिमित शक्तिवाले महामंत्र के उच्चारण मात्र से सूक्ष्म शरीर में छिपे अनेक शक्ति केन्द्र जाग्रत होते हैं । इसका उच्चारण जिह्वा दाँत, कण्ठ, तालु, ओष्ठ, भूर्धा आदि से होने से, एक विशेष प्रकार का स्पन्दन होता है, जो विभिन्न शक्तियाँ व चेताना केन्द्रों को जाग्रत करते हैं । इस प्रकार से जो कार्य बड़ी साधना व तपस्या से भी बहुत समय में कठिनता से पूर्ण होता है, वह नवकार मंत्र से स्वप्न समय में बड़ी सरलता से पूर्ण हो जाता है । 4. इस महामंत्र का न आदि है न अंत । इसका रंचयिता कौन है, अज्ञात है । दिगम्बर परम्परा के एक मत अनुसार इसके रचयिता आचार्य पुष्पदंत माने जाते हैं । जो भगवान महावीर के 650 वर्ष पश्चात हुए थे । किन्तु इस मान्यता का कोई प्रमाणिक आधार नहीं मिलता है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 56 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Janational Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 5. इस परमेष्ठी महामंत्र की आराधना जीवन को उत्क्रांति की ओर ले जाती है । अनंत भव्य आत्माएं इसका आराधन कर परम पद को प्राप्त हुई हैं, हो रही है और होंगी । यह मंत्र शक्ति का धाम है, जिसके जाप से मिलता है आत्मिक विश्राम । इसके प्रत्येक पद और अक्षर में समाया है - आनंद, महाआनंद । यह कल्पतरु और पारस मणि से भी बढ़कर है । यह देव गुरु व धर्म तत्त्व का महत्त्व दर्शाता है । सत्य का मर्म बतलाता है । यह ध्येय का ध्यान सिखाता है हेय का ज्ञान कराता है और हेय का भान कराता है । इस महामंत्र में अरिहन्त दाता और ज्ञाता है । सिद्ध ज्ञेय एवं आचार्य पालक और जिनशासन रूप रथ के संचालक हैं । उपाध्याय ध्याता है आगम के ज्ञाता है । साधु साधक है एवं सत्य के आराधक है । इन पंच परमेष्ठी को जो भी करता है नमस्कार उसके अंतर का दूर होता है तमस्कार । यह परम मंत्र, परम तंत्र, परम रतन, परम जतन, परम रसायन है । यह सेवा में महा सेवा, मेवा में महामेवा, जप में महा जप, तप में महा तप, सम में महासम, दम में महादम, ज्ञान में महाज्ञान, ध्यान में महाध्यान और दान में महादान है । जिसके मन में है नवकार उसका क्या कर सकता संसार, अर्थात संसार के उपद्रव उसे किसी भी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुंचा सकते हैं । 6. परमेष्ठी के पांच पदों के साथ अंत में चार पद (जिनका रंग श्वेत माना गया है) जोड़ने से नवपद होते हैं। ये चार पद व उनके गुण इस प्रकार है- 1. णमो दंसणस्स (67 गुण) 2. णमो णाणस्स (51 गुण) 3. णमो चारित्तस्स (70 गुण) 4. णमो तवस्स (50 गुण) । इस प्रकार से इन चारों पदों के 238 गुण कहे हैं तथा परमेष्ठी के 108 गुण मिलाने से नवपद के कुल 346 गुण होते हैं । इन नवपद की बड़ी महिमा गरिमा है । जिस प्रकार समस्त सिद्धियां, आत्मा में रही हुई है उसी प्रकार नवपद की ऋद्धियां भी आत्मा में रही हुई है, जो सभी इस नवपद के आराधन से उद्भूत होती है । महामंत्र णमोक्कार की महिमा व माहात्म्य 1. चौदह पूर्वधारी महापुरुष, आगम महाश्रुत से चिंतन मनन द्वारा आत्मा विकसित करते हैं । फिर भी जब वे देहोत्सर्ग हेतु अनशन स्वीकार करते हैं तब जीवन के अंतिम क्षणों में केवल हम अचिन्त्य महिमावाले महामंत्र राज का ही शरण ग्रहितकर स्मरण व जाप करते हैं । कारण यह महामंत्र भवान्तर में नियम से ऊर्ध्व गति प्रदान करता 2. चमत्कार से नमस्कार यह लौकिक सत्य है । किन्तु नमस्कार मंत्र से चमत्कार यह लोकोत्तर सत्य है । यह महामंत्र आत्मशोधन का मुख्य हेतु होते हुए भी,समग्र आधि व्याधि उपाधि रोग शोक,दुख दारिद्र आदि सभी का विनाशक है । इसके आराधन से समस्त विघ्नों का विनाश होता है । भव-क्लेश व संताप नष्ट होकर शाश्वत सुख का अचिन्त्य अनंत लाभ प्राप्त होता है । इसी महामंगलमय महामंत्र की आराधना श्रीपाल नरेश, श्री सुदर्शन श्रेष्ठी, सुभद्रासती, मयणरहासती, द्रौपदीसती, सोमासती आदि अनेकानेक आत्माओं ने की है तथा भयंकर, कष्टों, विघ्नों पर विजय प्राप्त कर अनंत सुखों को उपलब्ध हुए हैं । नमस्कार से चमत्कार विषयक यहां कतिपय सत्य घटनाएँ संक्षिप्त में प्रस्तुत हैं। 1. कवि निर्भय हाथरसी - आप एक बार बडौत (मेरठ) नगर में एक कवि संमेलन में गए । सारे कवि अपनी कविताएँ बोल चुके थे । जब निर्भय हाथरसी का बोलने का मौका आया कि अचानक जोरदार वर्षा हुई, जिसमें सारा आयोजन अस्त व्यस्त हो गया । किसीने हंसी में कहा कि हाथरसी ने कविता नहीं पढ़ी है अतः इन्हें पारिश्रमिक भी नहीं मिलेगा । यह बात हाथरसी को चुभ गई और वे तत्काल दौडकर मंच पर जा चढ़े । एकाग्र मन से णमोकार मंत्र का उच्चारण किया और कविता बोलने लगे तो तत्काल घनघोर वर्षा बंद हो गयी । फिर सारी रात कवि सम्मेलन चला | यह अश्चर्यजनक था कि नगर में सारी रात वर्षा होती रही, परंतु कवि सम्मेलन के स्थान पर एक बूंद भी पानी नहीं बरसा । णमोकार मंत्र मात्र पांच पक्तियों के अलावा कुछ नहीं जानते हुए भी बाबा हाथरसी के 148 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 57 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति Dration inte FOODrivatein Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ कविताएँ छन्द में णमोकार मंत्र पर लिखी है। णमोकार मंत्र से चमत्कारी अनुभवों को बताते हुए वे स्वयं लिखते हैं कि एक बार 27 मार्च 1997 को कैथन (कोटा) राजस्थान के मेले में आयोजित कवि सम्मेलन में बोलने को माइक पर खडा हुआ कि मंच पर गिर पड़ा । तत्काल डाक्टर आए और मुझे लाश की तरह कार में डाल अस्पताल पहुंचाया गया । मस्तिष्क का एक्सरे हुआ और बताया गया कि मस्तिष्क को लकवा मार गया था । किंकर्तव्य विवेक शून्य होकर भी सूक्ष्म चेतना में मैंने णमोकार मंत्र का अजपा जाप चलाया । शून्य चेतना शनैः शनैः वापिस आने लगी । भूला बिसरा जब याद आने लगा | सभी को आश्चर्य हुआ कि डाक्टरों के अनुसार जिस इलाज के लिए साल 6 माह लगते वह काम 6 दिन में हो गया । यह सब णमोकार मंत्र जाप का चमत्कार था । मुझे अनेक बार स्पष्ट अनुभव हुआ कि हमारी घड़ी में जब भी घडी की सूई पैंतीस के अंक पर होती है । पूरी आत्म निष्ठा में पांच बार णमोकार मंत्र का जाप करके जो भी हम सोच लेते हैं वही कार्य पूरा हो जाता है । ऐसा हुआ है, होता है और हो रहा है परंतु क्यों ? यह अभी मेरी लौकिक समझ से परे है । मेरी अटूट श्रद्धा इस महामंत्र पर है और मेरा उद्बोध है "निर्भय बनानेवाले मंत्र है, असंख्य किन्तु मंत्रों में महान मंत्र, मंत्रराज णमोकार है " 2. शाह गुलाबचन्द खीमचन्द का कैन्सर रोग मिट गया - आप जामनगर निवासी है । लगभग 51 वर्ष पहले की घटना है । जो उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत है - "कैंसर की जानलेवा बीमारी शुरू होने से पहले 6 माह तक मुझे बुरी तरह दुखता रहा । काफी इलाज कराया पर लाभ नहीं हुआ । एक दिन मेरे कफ में खून दिखाई पड़ा । डाक्टरों ने जाँच पड़ताल कर कैंसर हो जाने की बात कही । पेंसिलिन के इंजेक्शनों का कोर्स चालू हुआ। पर रोग बढ़ता गया । मेरा गला अंदर व बाहर से इतना सूज गया कि पानी की घूट भी नीचे गले से न उतरने लगी । इस पर डॉ. के. पी. मोदी से जाँच कराई । उन्होंने बताया बीमारी इतनी बढ़ चुकी है कि इलाज तो दूर तक बायोप्सी जाँच के लिए अंदर का टुकडा काट कर भी नहीं ले सकते । और कहा कि यह तो अब सिर्फ एक द दिन का मेहमान है ऐसा मेरे फेमिली डॉक्टर को बताया । मैं शान्ति से मर सकू इस हेतु बेहोशी के इन्जेक्शन देने की बात भी कही । मैंने फैमिली डॉक्टर से कहा मुझे अभी प्यास लगी है किसी भी तरह मुझे पानी अवश्य पिलाने की कोई भी तरकीब करें । उन्होंने मुझे कहा कि आप किसी भी तरह आज की रात निकाल दीजिये कल सबेरे मैं इसकी व्यवस्था करूँगा और नली की मदद से पानी दूँगा । मैं समझ गया कि मेरी अंतिम घड़ी आ गई है। मुझे गुरुदेव से सुने ये वचन याद आ गए । भले ही पूरे जीवन में धर्म का पालन न किया है, किन्तु अंतिम समय में सब जीवों से क्षमा मांग कर सारा वैर विरोध भूलकर, समस्त जीवों के प्रति मैत्रीभाव रख महामंत्र णमोकार कर स्मरण करने वाली आत्मा सद्गति को प्राप्त होती है । बस इस अमृतमयी प्रेरक वचन ने मेरे जीवन में अमृत भर दिया। इसी अमृत वचन से प्रेरणा लेकर अत्यन्त श्रद्धापूर्वक नवकार महामंत्र का स्मरण शुरू कर दिया । शाम का समय था । मेरी शैया के आसपास करुण दृश्य दिखाई दे रहा था । परिवार के लोग फूट-फूट कर रो रहे थे और वे भी मुझे नवकार मंत्र सुना रहे थे । तभी मैंने सबको बुलाकर, सबसे क्षमा याचना की और परमेष्ठी को वंदन करते हुए बोला - "खामेमि सवे जीवा, सव्वे जीवा खमंतुमे | मित्ती मे सव्वे भूवेसु वेरं मज्झं न केणई ।" इसके साथ ही मन में भावना व्यक्त की 'संसार के सब जीव सुखी हो, सुखी हो, संसार के सब जीव निरोग हो, सब जीवो का कल्याण हो । कोई भी पाप का आचरण न करे । किसी को दुख न हो । संसार के सब जीव कर्म से मुक्त हो, मुक्त हो । इस भवना को भाते हुए अत्यन्त जागृत भाव से नवकार मंत्र के ध्यान में लीन हो गया, इस भय से कि कहीं मेरी दुर्गति न हो जाय | 20-25 बार नवकार मंत्र का जाप करने के बाद पुनः पुनः मैं सर्व हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 58 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जीव के प्रति अपनी उपरोक्त मैत्री की भावना बोलता और जाप में तन्मय हो जाता । रात्रि के करीब ग्यारह बजे मुझे जोर की उल्टी हुई । सारा तसला भर गया । मैं बेहोश हो गया । घर वालों ने विचारा यह अंतिम घड़ी का संकेत है । रोना पीटना शुरू हो गया । कुछ समय बाद मुझे होश आया और दो तीन लौटे पानी पी गया । फिर पुनः इस विचार से कि कहीं मेरी सद्गति के बजाय दुर्गति न हो, पुनः पुनः नवकार की धुन व पूर्वोक्त मैत्री भावना बोलना चालू रखा । थोड़ी देर में मैनें दूध भी पी लिया, जबकि पूर्व में पानी भी गले न उतरता था । फिर 7-8 घण्टे गहरी निद्रा आ गयी । दूसरे दिन निद्रा खुली तो मानों नवजीवन मिल गया हो, मैंने चाय व तरल पदार्थ लेना शुरू कर दिया फिर दूध मिठाई हलवा आदि पौष्टिक आहार लेना भी शुरू कर दिया। डाक्टरो ने मेरा चेक अप कर बड़ा आश्चर्य व्यक्त किया कि तीसरी स्टेज पर पहुंची कैंसर की बीमारी कैसे अचानक ठीक हो गई । वस्तुतः यह सब केवल प्रभु पंच परमेष्ठी भगवंतों का श्रद्धा पूर्वक किये गए गुरु जाप का ही फल था ।" 3. णमोकारमंत्र से सर्प विष का प्रभाव हीन होना- वर्ष 1983 ई की घटना है । टोंक से दिगम्बर जैन संघ बस से सम्मेदशिखर की यात्रा पर गया था । टोंक के श्री गणेशदासजी पारख भी साथ में गए थे । श्री पारख ने बताया कि उनकी यात्रा की बस नालंदा के पास जंगल में खराब हो गई । यात्री गण बस से नीचे उतरे व इधर उधर घूमने लगे। तभी यात्रा में साथ आए एक बालक को वहां पर सर्प ने डस लिया । सभी घबरा उठे कि क्या किया जाय? तभी वहां के एक व्यक्ति ने निकट में ही एक फकीर रहता बताया, जो झाड़ा दे सर्प का जहर उतारता है । उस बालक को वहां ले गए। उस मुस्लिम फकीर ने पूछा आप कौन लोग है? इस पर उसे बताया कि हम सब जैन है और यात्रार्थ आए हुए हैं । फकीर ने कहा तब आपने मेरे पास आने की क्यों तकलीफ की? आपके पास ही जहर उतारने की चीज उपलब्ध है जो मैंने भी आप लोगों से ही ग्रहण की है । अब देखिए आपकी ही वस्तु से जहर उतारकर मैं बालक को अभी ठीक करता हूं। उसने इतना कहकर णमोकार मंत्र का उच्चारण कर मौनस्थ हो परमेष्ठी का थोड़ी देर ध्यान किया । फिर महामंत्र को बोलते हुए बालक के झाड़ा लगाया व डसे हुए स्थान से खून चूसकर थूकता गया । थोड़े ही समय में बालक ठीक और चंगा हो गया। एक मुसलमान फकीर द्वारा णमोकार मंत्र के जाप से झाड़ा देकर सर्प विष उतार देने की णमस्कार से चमत्कार की यह एक अद्भुत घटना थी । णमोकार मंत्र जाप का फल व उपलब्धि - इस संबंध में कहा गया है - “नवकारिक अक्खरो पावं फेरेइ सत्त अयराणं । पण्णास च पएणं पंचं मयाइ समगोणं"।" अर्थात् इस महामंत्र को भाव सहित जपने से इसका एक अक्षर सात सागरोपम (नरकायु) पापो को, और उसका एक पद पचास सागरोपम पापों को तथा सम्पूर्ण पांच पद, पांच सौ सागरोपम स्थिति प्रमाण पापो को नष्ट करता है । और भी कहा गया है - “जो गुणइ लक्खमेगं, पूएह विहिणा य नमुक्कारं | तित्थयइं नाम गोयं, सो बंधह नत्थि संदेहो ।' अर्थात जो विधि (एवं भाव) पूर्वक नमस्कार मंत्र को एक लाख बार जपता है, वह तीर्थकर गोत्र का बंध (उपार्जन) करता है, इसमें संदेह नहीं है । ऐसी भी मान्यता है कि इस मंत्रराज को नौ लाख बार जपे तो छासठ लाख जीव यौनियां (मनुष्य देव की अठारह लाख छोड़) कटे और 8 क्रोड 8 लाख, 8 हजार 808 बार जपे तो वह निश्चय से तीर्थकर होता है । (त्रिलोक विजय आलोयंणा तिलोक ऋषिकृत) । हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति 59 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Raduate Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 5. विशेष - 1. इस महामंत्र के जाप का फल, मोक्ष मार्ग के आधारभूत पंचाचार की उपलब्ध भी है । यथा - अरिहन्त पद से वीर्याचार, सिद्धपद से दर्शनाचार, आचार्यपद से चारित्राचार, उपाध्याय पद से ज्ञानाचार व साधुपद से तपाचार की आराधना उपलब्धि होती है। णमोकार मंत्रराज को बिना समझ के मात्र श्रद्धापूर्वक बोलने से भी वह वैसे ही लाभकारी होता है, जैसे विष निवारक मंत्र के उच्चारण से (बिना उसका अर्थ समझे) विष उतर जाता है । किन्तु जो इस महामंत्र का अर्थ व स्वरूप समझकर उसे ध्यान में रखते हुए, विशुद्ध भाव एवं उच्चारण के विधिपूर्वक आराधन करते हैं, उन्हें इसका लाभ व फळ अनुत्तर और सर्व श्रेष्ठ मिलता है । 3. अन्य मंत्रों का उच्चारण शुद्ध हो या अशुद्ध अवस्था में जपे तो अनिष्टकारक भी हो सकते हैं । किन्तु नवकार मंत्र को किसी भी अवस्था में व किसी भी प्रकार से अशुद्ध जपने पर भी कोई हानि नहीं होती है, सर्व पापों से मुक्ति मिलती है। कहा है - "अपवित्र पवित्रोऽवा सुस्थितो दुःखस्थितोऽपिवा | ध्यायेत पंच नमस्कारम् सर्वपापेः प्रमुच्यते ।" 4. कर्म सारे संसारी जीवों पर शासन कर रहा है, परन्तु वह कर्म भी पंच परमेष्ठी से डरता है । पंच परमेष्ठी से संकल्प जोड़ने पर कर्म के सारे बंधन छूट जाते हैं । महामंत्र की प्रति दिन शुद्ध जाप नौ लाख पद जपने पर उसी भव में जीवन में चमत्कार आ जाता है - देव दर्शन हो जाता है । मनुष्य की प्रकृति में वात पित्त कफ है । वात (वायु) चिन्ता पैदा करता है वह ज्ञान से दूर हो जाता है । पित्त चंचलता एवं क्रोध पैदा करता है, जिससे चारित्र से दूर हो जाता है । कफ, दमा, टी.बी. आदि रोग पैदा करता है । जिससे दर्शन से दूर हो जाता है । इस प्रकार ज्ञान, दर्शन व चारित्र के आराधक पंच परमेष्ठी की आराधना से वात, पित्त व कफ की सर्व बीमारियाँ दूर हो जाती है । तभी अज्ञान मोह व मिथ्यात्व का क्षय होकर सिद्ध बुद्ध मुक्त हो परम पद को प्राप्त होता है । 6. इसके जाप का महत्व दर्शाते कहा गया है - "जहां जपे णमोकार, वहां अघ कैसे आवे | जहां जपे णमोकार वहां व्यंतर भग गावे | जहा जपे णमोकार, वहा सुख सम्पत्ति होई । जहा जपे णमोकार वहां दुःख रहे न कोई मंत्रराज णमोकार अनुपम है - इस महामंत्र को सूत्रकार ने 96 उपमाएं देकर इसकी महानता व प्रधानता दर्शाई है । किन्तु वस्तुतः यह तो अनुपम है । कुछ उपमाएं है - 1. ज्यों सर्व देवों में इन्द्र प्रधान, त्यों सर्व मंत्रों में मोटा नवकार 2. ज्यों मनुष्यों में चक्रवर्ती की रिद्धि मोटी, त्यों सर्वमंत्रों में मोटा नवकार, 3. ज्ये शूर पुरुषों में वासुदेव प्रधान, त्यों सर्व मंत्रों में मोटा नवकार 4. ज्यों दानवीरों में वैश्रमण देव प्रधान, त्यों सर्व मंत्रों में मोटा नवकार 5. ज्यों पदवियों में तीर्थंकर का पद प्रधान, त्यों सर्वमंत्रों में मोटा नवकार, 6. ज्यों शल्यों में अभवी का मोटा त्यों सर्व मंत्रों में मोटा नवकार 7. ज्यों बल में तीर्थंकर का बल मोटा त्यों सर्व मंत्रों में मोटा नवकार 8. ज्यों ज्ञान में कैवल्य ज्ञान प्रधान त्यों सर्व मंत्रों में मोटा नवकार 9. ज्यों ध्यान में शुक्ल ध्यान प्रधान, त्यों सर्व मंत्रों में मोटा नवकार 10. ज्यों दान में अभयदान श्रेष्ठ, त्यों सर्व मंत्रों में मोटा नवकार 11. ज्यों खानो में हीरे की खान मोटी त्यों सर्व मंत्रो में मोटा नवकार 12. ज्यों बाणों में राधा वेद बाण प्रमुख, त्यों सर्व मंत्रों में मोटा नवकार 13. ज्यो ज्यों गोत्रो में तीर्थंकर गोत्र सर्वोच्च, त्यों सर्व मंत्रों में सर्वोच्च नवकार 14. ज्यों चारित्र में यथाख्यात प्रधान त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 15. ज्यों घात में कर्म की घात मोटी त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 16, ज्यों घात में अनुत्तर विमान की घात सर्वोत्कृष्ट त्यों सर्व मंत्रों में सर्वोत्कृष्ट नवकार 17. ज्यों वचनों में निर्वद्य सत्य वचन श्रेष्ठ त्यों सर्व मंत्रों में श्रेष्ठ नवकार, हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 60 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Maanantharuse ohly Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 18. ज्यों भात में क्षीर चावल उत्तम त्यों सर्व मंत्रों में उत्तम नवकार 19. ज्यों रात्रियों में दीपावली की रात्रि मुख्य, त्यों सर्व मंत्रों में मुख्य नवकार 20. ज्यों गायकों में गन्धर्व प्रमुख त्यों सर्व मंत्रों में प्रमुख नवकार 21. ज्यों कर्मो में मोह प्रधान त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 22. ज्यों व्रतों में शील मोटा त्यों सर्व मंत्रों में मोटा नवकार 23. ज्यों घृत में गाऊ का घृत उत्तम त्यों सर्व मंत्रों में उत्तम नवकार 24. ज्यों नृत्य में इन्द्राणी प्रधान त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 25. ज्यों कल्प (कृत्यों) में जिन कल्प उत्कृष्ट, त्यों सर्व मंत्रों में उत्कृष्ट नवकार 26. ज्यों गायों में कामधेनु सर्व श्रेष्ठ, त्यों सर्व मंत्रों में सर्वश्रेष्ठ नवकार 27. ज्यों संघयण में वजऋषभ नाराचसंघयन श्रेष्ठ त्यों सर्व मंत्रों में श्रेष्ठ नवकार 28. ज्यों संठाण में समचौरस संठाण श्रेष्ठ, त्यों सर्व मंत्रों में श्रेष्ठ नवकार 29. ज्यों यश में भगवंत का यश सर्व श्रेष्ठ त्यों सर्व मंत्रों में सर्व श्रेष्ठ नवकार 30. ज्यों रसों में इक्षुरस उत्तम त्यों सर्व मंत्रों में उत्तम नवकार 31. ज्यों वर्णो में शुक्लवर्ण श्रेष्ठ त्यों सर्व मंत्रों में श्रेष्ठ नवकार 32. ज्यों मरण में पंडित मरण श्रेष्ठ त्यों सर्व मंत्रों में श्रेष्ठ नवकार 33. ज्यों रोगों में अजीर्ण मुख्य त्यों सर्व मंत्रों में मुख्य नवकार 34. ज्यों शरण में धर्म शरण उत्तम त्यों सर्व मंत्रों में उत्तम नवकार 35. ज्यों गंध में कृष्णागर (धूप एक प्रकार की) उत्तम, त्यों सर्व मंत्रों में उत्तम नवकार 36. ज्यों आगर में रत्नागर प्रधान त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 37. ज्यों सागरो में स्वयंभू रमण बडा त्यों सर्व मंत्रों में बडा नवकार 38. ज्यों सर्व इन्द्रियों में नेत्र महत्वपूर्ण है त्यों सर्व मंत्रों में महत्वपूर्ण नवकार 39. त्यों सर्व अयन में उत्तरायन श्रेष्ठ है त्यों सर्व मंत्रों में श्रेष्ठ नवकार 40. ज्यों सर्व पाषाणों में पारस श्रेष्ठ है त्यों सर्व मंत्रों में श्रेष्ठ नवकार 41. ज्यों सर्व धर्मो में जैन धर्म प्रधान है त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 42. ज्यों सर्व जोड़ों में सारस का जोडा मुख्य है त्यों सर्व मंत्रों में नवकार 43. ज्यों सर्व माह में श्रावण श्रेष्ठ है त्यों सर्व मंत्रों में श्रेष्ठ नवकार 44. ज्यों सर्व देत्यों में रावण मुख्य है, त्यों सर्व मंत्रों में मुख्य नवकार 45. ज्यों सर्व फूलों में अरविंद प्रधान है, त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 46. ज्यों योगियों में गोविन्द विशेष है, त्यों सर्व मंत्रों में विशेष नवकार 47. ज्यों सर्व वस्त्रों में क्षोमयुगल श्रेष्ठ है, त्यों सर्व मंत्रों में श्रेष्ठ नवकार 48. ज्यों पापों में मिथ्या दर्शन शब्द बड़ा है त्यों सर्व मंत्रों में बडा नवकार 49. ज्यों वनो में नन्दनवन श्रेष्ठ है त्यों सर्व मंत्रों में श्रेष्ठ नवकार 50. ज्यों रथों में हरिस्यन्दन प्रमुख है, त्यों सर्व मंत्रों में प्रमुख नवकार 51. ज्यों क्षेत्रों में महाविदेह उत्तम है, त्यों सर्व मंत्रों में उत्तम नवकार 52. ज्यों दुःखों के बीजो में स्नेह मूल है, त्यों सर्व मंत्रों में मूल नवकार 53. ज्यों वृक्षों में जम्बू प्रधान है त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 54. ज्यों सर्व जीवों का आधार अम्बु है त्यों सर्व मंत्रों में आधार नवकार 55. ज्यों सतियो मे सीता प्रमुख है, त्यों सर्व मंत्रों में प्रमुख नवकार 56. ज्यों नदियों में गंगा का महत्व सर्वाधिक है, त्यों सर्व मंत्रों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण नवकार 57. ज्यों तिथियों में पूनम प्रधान है त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 58. ज्यों देवों में अनुत्तरदेव श्रेष्ठ है, त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 59. ज्यों बुद्धि में उत्पातिया बुद्धि प्रधान है त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 60. ज्यों सूत्रो में दृष्टिवाद प्रधान है, त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 61. ज्यों बाजा में भंभा प्रधान है, त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 62. ज्यों रूप में रंभा प्रधान है, त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 63. ज्यों दीर्घ गिरि में निबढ प्रमुख है, त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 64. ज्यों वृद्धि वृक्ष में बड वट प्रमुख है, त्यों सर्व मंत्रों में प्रमुख नवकार 65. ज्यों पक्षियों में गरुड प्रधान है, त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 66. ज्यों तेज में रवि का तेज श्रेष्ठ है त्यों सर्व मंत्रों में श्रेष्ठ नवकार 67. ज्यों मणियों में चिंतामणि प्रधान है त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 68. ज्यों हाथियों में एरावत प्रधान है त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 69. ज्यों ऊर्ध्वगिरि में सुदर्शन प्रधान त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 70. ज्यों सभा में सौधर्म सभा प्रधान त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 71. ज्यों माता में तीर्थंकर की माता उत्तम त्यों सर्व मंत्रों में उत्तम नवकार 72. ज्यों साता प्राप्ति में मरुदेवी माता प्रधान त्यों सर्व मंत्रों प्रधान नवकार 73. ज्यों सिंह में शार्दूल प्रधान त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 74. ज्यों सुखी जीवन में युगलिया प्रमुख त्यों सर्व मंत्रों में प्रमुख नवकार 75. ज्यों श्रृंगार में मुकुट प्रमुख त्यों सर्वमंत्रों में प्रमुख नवकार 76. ज्यों गच्छ में गणधर प्रधान त्यों सर्व मंत्रों में प्रधान नवकार 77. ज्यों गति में सिद्धगति श्रेष्ठ त्यों सर्व मंत्रों में श्रेष्ठ नवकार 78. ज्यों पृथ्वी में इबत प्रागभारा श्रेष्ठ त्यों सर्व मंत्रों में श्रेष्ठ नवकार 79. ज्यों पांच समिति में भाषा समिति मोटी त्यों हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 61 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति dudhanine Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ .................. सर्व मंत्रों में मोटा नवकार 80. ज्यों गुप्ति में मन गुप्ति मोटी त्यों सर्व मंत्रों में मोटा नवकार 81. ज्यों तप में उत्तम ब्रह्मचर्य त्यों सर्व मंत्रों में उत्तम नवकार मंत्रराज परमेष्ठी के जाप की सहज प्रक्रियाएँ - जन साधारण भी इस महामंत्र की जीवन में सहज साधना कर लाभान्वित हो सके इस हेतु यहां कुछ जाप करने के कुछ उपयोगी सुझाव प्रस्तुत है । 1. प्रातः उठते व रात्रि में सोते त्रियोग स्थिर कर कम से कम ग्यारह बार नवकार का जाप करे । शयन करते ही प्रायः निद्रा नहीं आती । अतः जब तक निद्रा न आवे तक तक मन में परमेष्ठी का जाप करते रहे। जाप से पूर्व सागारी संथारा यह कहकर कि "आहार शरीर उपाधि पचसउ पाप अढार | तीन बार गुणस्यु नहीं इस हेतु जब लग श्री नवकार | ग्रहण कर शयन करे तो निद्रा शीघ्र व सुखद आयगी तभी यह प्रक्रिया विशेष लाभकारी रहेगी । श्वास प्रश्वास के साथ ऊँ अर्हत का अजप्पा जाप भी चला सकते हैं । 3. भोजन, नाश्ता, चाय, दूध आदि के ग्रहण से पूर्व तथा बाद में भी कम से कम तीन नवकार बोल कर करे। 4. घर से बाहर जाते या किसी भी कार्य के आरंभ करते तीन नवकार मन में जपकर जावे या कार्य शुरु करें। इससे न केवल सुख शान्ति व सफलता मिलेगी वरन् अमंगल व क्लेश भी दूर होगे । 5. बस, गाड़ी या रेल आदि में सफर करते जब कोई अन्य कार्य प्रायः नहीं होता, तो महामंत्र का या ऊँ अर्हत का अजप्पा जाप (श्वास प्रश्वास के माध्यम से) कर सफर के समय को सार्थक करें । महामंत्र नवकार के बीजाक्षर न होने से इसे कभी भी कही भी निसंकोच जपा जा सकता है । साप्ताहिक अवकाश के दिन कम से कम एक घण्टा का समय सब की सुविधानुसार निश्चित कर उस अवधि में सामूहिक नवकार का जाप क्रिया करें । यह जाप धर्मस्थान के अलावा अन्यस्थान - घर, दुकान पर भी किस जा सकता है । जहां भी करेंगे वहां का वातावरण पवित्र होगा तथा निकट में रहे भाई, बहिन भी उससे लाभान्वित होंगे । महामंत्र जाप के लिए शुद्धि जाप आठ प्रकार की शुद्धि पूर्वक करे । यथा 1. द्रव्य शुद्धि अंतरंग शुद्धि (कषाय रहितता) इस हेतु संवरित हो जाप करें । 2. क्षेत्र शुद्धि निराकुल स्थान 3. समय शुद्धि निश्चित्तता का समय 4. आसन शुद्धि स्वच्छ सूती या, ऊनी आसन 5. विनय शुद्धि 6. मन शुद्धि, मन की एकाग्रता 7. वचन शुद्धि (मधुर शुद्ध उच्चारण) 8. काय शुद्धि शारीरिक बाधाओं से निवृत हो जाप में स्थित होवे । परमेष्ठी का परमोपकार संसारी जीवों पर 1. अरिहन्तो का - मोक्ष मार्ग प्रगट कर सिद्ध भगवंतों की पहिचान कराते हैं। 2. सिद्ध भगवंतों का - अव्यहार से व्यवहार राशि में जीवों को आने का अवसर देते हैं । 3. आचार्यो का - पंचाचार की पालना करा मोक्षमार्ग में आगे बढ़ाते हैं । 4. उपाध्यायों का - श्रुत ज्ञान का बोध दे धर्म का मर्म बता साधना मार्ग में प्रकाश देते हैं । 5. साधुओं का - धर्म कथा आदि से प्रेरित कर आत्म बोध दे, साधना में लगते हैं । उपसंहार – महामंत्र नवकार जिनशासन का और चौदह पूर्व का सार है । प्रभु ने फरमाया है समग्रलोक हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 62 हेगेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Jaindeatunamast Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ का सार धर्म है, धर्म का सार आत्मज्ञान है, और आत्मज्ञान का सार 'संयम' है । संयम के समग्र स्थान और समग्र संयमी आत्माएं नवकार के पांच पदों में समाहित हैं । अतः यह नवकार समग्र चौदह पूर्व के ज्ञान का सार है, इसमें संदेह न करो। दूसरी अपेक्षा विचारे लोक का सार धर्म है, धर्म का सार परम धर्म अहिंसा है और इस अहिंसा के पूर्ण पालक सभी महापुरुष और महान आत्माएं इस परमेष्ठी महामंत्र में गर्भित होने से भी इसे चौदह पूर्व का सार कहा गया है । सभी आत्मार्थियों के लिए यह त्रिकाल स्मरणीय एवं उपासनीय अति उत्तम महामंत्र है । इससे उत्तम संसार में कुछ नहीं है । इसके लिए कहा गया है - “मंत्र संसार सार, त्रिजगदनुपम, सर्व पापारि मंत्र | संसारोच्छेद मंत्र, विषम विषहर, कर्म निर्मूल मंत्र || मंत्र सिद्धि प्रदानं, शिवसुख जननं केवल ज्ञान मंत्र | मंत्र श्री जैन मन्न, जप-जप जापित जन्यनिर्वाण मंत्र" अर्थात् यह महामंत्र संसार का सार है, तीनों लोक में अनुपम हैं महान चमत्कारी है, समस्त पापों का अरि है, संसार बंध का उच्छेदक है, भयंकर से भयंकर विष का नाशक है कर्मों का निर्मूल कर्ता है, सभी सिद्धियों का प्रदायक है इसलिए बार बार इस मंत्र का जाप करना चाहिए, जिससे निर्वाण सुख की प्राप्ति होवे । यह परमेष्ठी महामंत्र सर्व कर्म काटण हार,मिथ्यात्व तिमिर विदाहणहार, बोध बीज का दातार अजर, अमर पदवी का देवणहार मनेच्छा का पूर्णहार, चिंता का चूर्णहार, भवोदधि तारण दुख विदारण कल्याणिक,मंगलिक, वंदनीय पूजनीय है । यह मंत्र शक्ति डायणी सायणी, व भूत विहंडणी मोह विखंडणी, मोक्ष निमंडेणी, कर्म रिपु दण्डणी और अष्ट सिद्धिनव निधि का दातार है। इस महामंत्र णमोक्कार के स्मरण मनन-चिंतन से मति निर्मल और निष्पाप होती है और पापात्मा भी पवित्र होती है। समस्त विघ्न एवं दुखों को क्षणमात्र में नष्ट करने की इसमें अद्भुत शक्ति है । अतः आत्म साधकों को सारे मंत्र, तंत्र, देवी देवता, पीर पेगम्बर,बाबा सन्यासी आदि को छोड़ इस मंत्र राज को ही त्रियोग सहित चित से पूर्ण श्रद्धा भक्ति के साथ सच्चा शरणभूत समझ सदैव जपना व स्मरण करना चाहिए । भव भव में इसी को शरण हो ऐसी उत्तम भावना भावे । _ अंत में महामंत्र णमोक्कार पर एक भावपूर्ण मुक्तक व नित्य बोलने योग्य स्तुति यहां प्रस्तुत करते हुए लेख पूर्ण करता हूं। मुक्तक एकता का जो प्रतीक, शब्द शब्द है सटीक | णमोकार महामंत्र, अनादि अनंत है || उपकारी है अनंत, ज्ञानी श्री अरिहन्त | पूर्ण शुद्ध बुद्ध मुक्त, सिद्ध भगवन्त है || संघनायक आचार्य, ज्ञानदाता उपाध्याय | महाव्रती निस्पृही, निग्रंथ संत है || बनजाओ निर्विकार, जापो ध्यान नवकार | पंच परमेष्ठी को, वंदन अनंत है ।। हेमेन्द ज्योति* हेमेन्य ज्योति 63हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति । Jitionindia Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ। परमेष्ठी स्तुति (तर्ज - मिलता है सच्चा सुख केवल) अरिहन्त नमु श्री सिद्ध नमु आचार्य नमु उपाध्याय नमु, सब संतों को कर जोड नमु ।। मंगल कर्ता सब दुखहर्ता, पद पांच नमु, परमेष्ठी नमु, पद पांच नमु परमेष्ठी नमु In II अरिहंत । घनघाती कर्म को नाश किया, वीतराग हुए सर्वज्ञ प्रभु । अन्तरयामी त्रिभुवन स्वामी हे भवभंजन अरिहन्त नमु, हे भवभंजन अरिहन्त नमु ID अरिहंत | जो जन्म मरण से मुक्त हुए, वीतराग हुए सर्वज्ञ प्रभु । अहो शुद्ध बुद्ध निर्लेप प्रभो, सबके स्वामी श्रीसिद्ध नमु, सबके स्वामी श्रीसिद्ध नमु |13|| अरिहंत। जो जिनशासन के नायक हैं, छत्तीस गुणो के धारक हैं | पंचाचारी दृढ आचारी संघ संवाहक आचार्य नमु, संघ सवाहक आचार्य नमु 14 || अरिहंत | जो चरण करण के ज्ञाता है, भटके जीवों के त्राता है | जो आगम मर्म व्याख्याता है, जिनवर जैसे उपाध्याय नमु, जिनवर जेसे उपाध्याय नमु |15 || अरिहंत | जो पंच महाव्रत धारक हैं समिति गुप्ति के पालक हैं | शुद्ध मोक्ष मार्ग के साधक हैं निग्रंथ गुरू सर्व संत नमु, निग्रंथ गुरू सर्व संत नम् 16|| अरिहंत | यह पंच परमेष्ठी पावन है, भव तारक अनुपम साधन है | सब ऋद्धि सिद्धि मंगलदाता, त्रियोग सहित कर जोड़ नमु, त्रियोग सहित करजोड़ नमु 17 || अरिहंत । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 64हेगेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति amsungthsrjaro Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 22222222 19. 20. 21. 23. 24-25. 26. 27. श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सुभाषित सूची से. भगवती सूत्र 1/1 व आवश्यकसूत्र व कल्पसूत्र आरम्म अ तथा धवला 1/1. आवश्यक मलयगिरी खन्ड 2 / 1 तथा धवला 1/1. महानिशीथ सूत्र ममणसूत्रं सूत्र 7. पंच प्रतिक्रमण सूत्र. स्वरचित पदों से. तात्विक प्रश्नोत्तरी से. सुभाषित से. सुभाषित से.. समणसुतं ज्योतिर्मुख सू. 8. अनुयोगद्वार क्षायिक भाव सू. 126 तथा समलायंता 31. 41. आत्म सिद्धिशास्त्र से. के प्रतिकरण सूत्र प्रवचन सारोद्वार द्वार 66-67. समवायांग. जैन तत्त्व प्रकाश प्रकरण 5. 28. हेमेन्द्रज्योति से ज्योति 29. 30. 31. 32. 33. 34. 35. 36. 37. 88 4 2 2 4 38. 39-40. भगवद् गीता 5/14. भगवद् गीता 5/15. म. कबीर के पदो से. अर्हत प्रवचन 1/5. प्रवचन सारोद्धार द्वार 64 तथा जैन तत्त्व प्रकाश 46. प्रमाण 3. आवश्यक निर्युत्ति. ठाणांग 3/1/124. समणसुत्तं - ज्योतिर्मुख सू. 10. जैन तत्त्व प्रकाश प्रमाण 4 व प्रवचन सारोद्धार 66-67 42. 43. 44. 45. 47. 48. 49. 50. 51. 52. 65 परमात्मा होने विज्ञान पू. 58-59. व्यवहार सूत्र 10. आचारांग 1/3/106 ज्ञान दर्पण पद्य 21. प्रतिक्रमण सूत्र भाववंदना से. तत्वज्ञ- बनारसीदास कृत ठाणांग 3/4/16. उत्तरा 28/11. उत्तरा 23. शिवपुराण 21/24. उत्तरा. अ.19/2 सुभाषित से. धवला खण्ड 1 पुस्तक 1. (शट्खण्डागम मी.1) श्रीमद् राजचन्द्र. जैन प्रकाश अंग 11/97 नवनीत अंग 11 / 96 तेथी वेदना विहीन अंग 15/7/96 आधार से. कामघट कथानक 156. कामघट कथानक 157. स्वचिंतन से. सुभाषित से. त्रिलोक विजय आलोयणा (मुनि त्रिलोक ऋषि कृत) हड्डी विशेष की रचना. संस्थान (शरीर की आकृति को कहते है). जो तत्काल समाधान दे. - डागा सदन, संघपुरा, टोंक (राज.) हेमेजर ज्योति हेमेन्द्र ज्योति € 304 001 Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ पोरवाल जाति का संक्षिप्त इतिहास - मुनि चन्द्रयशविजय पोरवाल जाति भारतवर्ष की प्रमुख जातियों में से एक है । श्वेताम्बर जैन जातियों में पौरवाल जाति एक महत्वपूर्ण जाति है । इस जाति में अनेक उज्ज्वल एवं तेजस्वी रत्न उत्पन्न हुए हैं, जिन्होंने इसकी गौरव गरिमा में चारचाँद लगा दिये है । इस लघु निबन्ध में हम पौरवाल जाति की उत्पत्ति और उसके गोत्रों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं । यहां यह स्पष्ट करना हम उचित समझते हैं कि हमारा यह निबंध श्रीदौलत सिंह लोढा कृत प्राग्वाट इतिहास पर आधृत है । इसके अतिरिक्त यदि अन्य कोई संदर्भ सामग्री मिलती है तो यथा स्थान उसका उल्लेख किया जावेगा । यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक ही होगा कि जैन संस्कृति में व्यक्ति का महत्व उसके जन्म जात कुल, वंश, गोत्र आदि से नहीं माना जाता बल्कि उसका मूल्यांकन उसके शीलादि गुणों से किया जाता है । इससे यह स्पष्ट होता है कि जैन धर्म संस्कृति में जाति को कोई महत्व नहीं दिया गया है। फिर भी जातियाँ हैं तो उनपर विचार तो करना ही होता है। तत्कालीन प्राग्वाट श्रावक वर्ग वर्तमान समय में पोरवाल कहलाता है । इसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा जाता है कि इसकी उत्पत्ति भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् लगभग 57 वर्ष श्री पार्श्वनाथ संतानीय श्रीमद् स्वयंप्रभसूरि ने भिन्नमाल और पदमावती में की थी किंतु डॉ. के. सी. जैन का मत है कि पौरवाल जाति की उत्पत्ति श्रीमाल (भिन्नमाल का अन्य नाम) से होना सही प्रतीत नहीं होता । उनके मतानुसार प्राचीन अमिलेखों एवं हस्तलिखित ग्रंथों में पौरवाल के लिए प्राग्वाट शब्द का उपयोग किया गया हैं और प्राग्वाट मेवाड़ (मेदपाट) का दूसरा नाम है ऐसा प्रतीत होता है कि प्राग्वाट क्षेत्र के निवासी कालांतर में प्राग्वाट या पोरवाल कहलाने लगे । पोरवाल अपनी उत्पत्ति मेवाड़ के पुर नामक गांव से बताते हैं। पोरवाल भी लघु शाखा और बृहद शाखा में विभक्त हैं | (Jainism is Rajasthan) गुप्त वंश की अवंती (उज्जैन) में सत्ता स्थापना से वैदिक मत पुनः जागृत हुआ । अब जहां अजैन जैन बनाये जा रहे थे, वहां जैन पुनः अजैन भी बनने लगे । जैन से अजैन बनने का और अजैन से जैन बनने का कार्य विक्रम की सातवीं आठवीं शताब्दियों में उद्भट विद्वान कुमारिलभट्ट और शंकाराचार्य के वैदिक उपदेशों पर और उधर जैनाचार्यों के उपदेशों पर दोनों ही ओर खूब हुआ । रामानुजाचार्य और वल्लभाचार्य के वैष्णव मत के प्रभावक उपदेशों से अनेक जैन कुल वैष्णव हो गये थे । इसका परिणाम यह हुआ कि वैश्यवर्गों में भी धीरे धीरे वैदिक और जैन मत दोनों को मानने वाले दो सुदृढ़ पक्ष हो गये । उसीका परिणाम है कि आज भी वैष्णव पौरवाल और जैन पोरवाल है डॉ. के.सी. जैन पोरवाल जाति की उत्पत्ति का समय आठवी शताब्दी मानते हैं । अब पोरवाल जाति के गोत्रों पर विचार करते हैं । सामान्यतः गोत्रों की उत्पत्ति किसी पुरुष के नाम पर, गांव के नाम पर कर्म के अधार पर अथवा किसी घटना विशेष के आधार पर मानी जाती है । डॉ. जैन ने पोरवाल के लगभग चौदह गोत्रों का उल्लेख किया है । उनका यह उल्लेख शिलालेखों और हस्तलिखित ग्रंथों पर आधृत है। इसके विपरीत श्री दौलतसिंह लोढा ने इस सम्बन्ध में विस्तार से लिखा है और पोरवाल जाति के क्षेत्रवार गोत्रों की चर्चा की है । उनका कहना है कि उपलब्ध चरित्र, ताम्रपत्र, प्रशस्ति, शिलालेखों से, ख्यातों से और वर्तमान जैन कुलों के गोत्रों के नामों से तथा उनके रहन सहन, संस्कार, संस्कृति, आकृति कर्म, धंधों से स्पष्टतः और पूर्णतः सिद्ध है कि ये कुल वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण कुलोत्पन्न है । प्राग्वाट जाति या पोरवाल जाति की निम्नांकित शाखाओं का उल्लेख श्री लोढ़ा ने किया है । यथा - हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 66 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति male Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 1. सेठिया पोरवाल 2 कपोला पोरवाल 3. पद्मावती पोरवाल 4. गूर्जर पोरवाल 5. जांगडा पोरवाल 6. नेमाडी और मलकापुरी पोरवाल 7. मारवाडी पोरवाल 8 पुरवार और 9. परवार । इन शाखाओं के नाम से यह प्रतिध्वनित होता है कि उनके नाम क्षेत्र के हिसाब से पड़े कौन-सी शाखा की स्थापना कब हुई? इस बात का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता है। उस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि जब भी इस जाति के मूल स्थान पर कोई आक्रमण हुआ, तब अपना स्थान त्याग कर ये अन्यत्र जाकर बस गए। उदाहरणार्थ जब प्राग्वाट प्रदेश तथा भिन्नमाल पर आक्रमण हुए और राज्य परिवर्तन हुआ तो अनेक कुलों के साथ प्राग्वाट ज्ञातीय कुल भी थे जो प्राग्वाट ज्ञातीयकुल सौराष्ट्र एवं कुंडल महा स्थान में जाकर स्थायी रूप से बस गए थे, वे कालांतर में सौराष्ट्रीय अथवा सौरठिया पौरवाल और कुण्डलिया तथा कपोला पौरवाल कहलाये। ऐसे ही अन्य शाखाओं के सम्बन्ध में जानना । I अब हम पोरवालों की गोत्रों की चर्चा करेंगे। मेरुतुंग सूरि द्वारा लिखी गई अन्चलगच्छीय पट्टावली में निम्नांकित गोत्रों का उल्लेख किया गया है। - 1. गोतम, 2. सांस्कृत 3. गार्ग्य 4. वत्स 5. पाराशर 6. उपमन्यु 7. वंदल 8. वशिष्ट 9. कुत्स 10. पौलकश 11. काश्यप 12. कौशिक 13. भारद्वाज 14. कपिष्ठल 15. सारंगिरि 16. हारीत 17. शांडिल्य और 18. सनिकि । अन्य कुछ गोत्र विलुप्त हो गये जिनमें पुष्पायन आग्नेय पारायण कारिस, वैश्यक माढर प्रमुख हैं । उपर्युक्त गोत्र अधिकतर ब्राह्मण जातीय हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि उक्त गोत्रीय पोरवाल जातीय कुलोंकी उत्पति ब्राह्मण कुलों से हुई । पद्मावती पोरवाल शाखा के अट्टाईस गोत्र इस प्रकार बताये गए हैं- 1. यशलहा 2. डगाहडा 3. कूचरा 4. चरवाहदार 5 ननकरया 6 चौपड़ा 7 सौपुरिया 8. तवनगारिया 8. कर्णजोल्या 10. राहरा 11. हिंडोणीयासधा 12. आमोत्या 13. मंडावरिया 14 लक्षटकिया 15. समरिया 16. दुष्कालिया 17. चौदहवां 18. मोहरोवाल 19. रोहल्या 20. धनवंता 21. विडया 22. बोहतरा 23. पंचोली 24. उर्जरघौल 25. कुहणिया 26. सूदासधा 27. अधेडा और 28. मोहलसधा । जांगड़ा पोरवाल या पोरवाड शाखा के चौबीस गोत्र इस प्रकार बतायें गए हैं 1. चौधरी, 2. सेठ्या 3. महावद्या 4. दानगढ 5. कामल्या 6. धनोत्या 7. रत्नावत 8. फरक्या 9. काला 10. कैसोटा 11. धारया 12. मून्या 13. वेद 14. मेथा 15. धडया 16. मंडवाच्या 17. नभेपुत्या 18. भूत 19. डवकरा 20. खरड्पा 21. मादल्या 22. उघा 23. बाड़वा और 24 सरखंडया नेमाड़ी और मलकापुरी पोरवाड़ के गोत्रों के सम्बन्ध में श्री लोढा ने लिखा है कि कुलभाटों से सम्बन्ध विच्छेद हो जाने से उक्त शाखाओं में गोत्र धीरे धीरे विलुप्त हो गये और उस समय उनमें गोत्रों का प्रचलन की बन्द हो गया है । वीसा मारवाडी पोरवाल के गोत्रों की सूची मारवाड़ के पौरवालों की सूची में आगई है । क्षेत्र के मान से जिन पोरवाल कुलों की पृथक गोत्रों का उल्लेख किया गया है उसका विवरण इस प्रकार है - सेवाड़ी की कुल गुरु पौषधशाला गोड़वाड़ भ्रांत का सेवाड़ी ग्राम बालीनगर से कुछ दूरी पर स्थित है । यहाँ की पौषधशाला राजस्थान की अधिक प्राचीन पौषधशालाओं में गिनी जाती हैं। इन पौषधशालाओं के भट्टारकों के आधिपत्य में ओसवाल और प्राग्वाट जाति के कई कुलों का लेखा है । इनमें प्राग्वाट जाति के निमनांकित चौदह गोत्र भी हैं। यथा 1. कांसिद्रा गोत्र चौहान 2. कुंडसुगोत्रीय खेडा चौहान 3 हरणगोत्र चौहान 4. चन्द्रगोत्र परमार 5. कुडालसा गोत्र Education Tote हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 67 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति www.jainelibrary.or Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ चौहान 6. तुंगीयानागोत्र चौहान 7. कुंडल गोत्रीय 8. अग्निगोत्रीय 9. डीडोलचा गोत्रीय 10. आनन्द गोत्रीय 11. विशाल गोत्रीय 12. बाघरेचा चौहाण 13. गोत गोत्र 14. धारगोत्रीय । घाणेराव की कुल गुरू पौषधशाला इनके आधियत्य में प्राग्वाट जाति की निम्नलिखित छब्बीस गोत्रों का लेखा है 1. भडलपुरा सोलंकी 2. वाडेलिया सोलंकी 3. कुम्हार गोत्र चौहाण 4. भुरजभराणिया चौहाण 5. दुगड़गोत्र सोलंकी 6. मुदडीया काकगोत्र चौहान 7. लांबगोत्र चौहाण 8. ब्रह्मशांति गोत्र चौहाण 9. बडवाणिया पंडिया 10. बडग्रामा सोलंकी 11. अंबावगोत्र सोलंकी 12. पोसनेचा चौहाण 13. कछोलियावाल चौहाण 14. कासिद्रगोत्र तुमर 15. साकरिया सोलंकी 16. ब्रह्मशांति गोत्र राठोड़ 17. कासवगोत्र राठोड़ 18. मणाडिया सोलंकी 19. स्याणवाल गहप्रोत 20. जाबगोत्र चौहाण 21. हेरूगोत्र सोलंकी 22 निवजिया सोलंकी 23. तवरेचा चौहाण 24. बूटा सोलंकी 25. सीपरसी चौहान 26. खिमाणवी परमार सिरोही की कुल गुरू पौषधशाला - इसके आधियत्य में निम्नलिखित बयालिस गोत्रों का लेखा है 1. बांकरिया चौहाण 2. विजयानन्दगोत्र परमार 3. गोतमगोत्रीय 4, स्वेतविर परमार 5. धुणिया परमार 6. विमलगोत्र परमार 7. रत्नपुरिया चौहाण 8 पोसीत्रा गोत्रीय 9. गोयलगोत्रीय 10. स्वेतगोत्र चौहाण 11. परवालिया चौहाण 12. कुंडल गोत्र परमार 13. उडेचागोत्र परमार 14. भुणशखा परमार 15. मंडाडियागोत्रीय 16. गूर्जर गोत्रीय 17. भीलडेचा बोहरा 18. नवसरागोत्रीय 19. रेवतगोत्रीय 20. डमालगोत्रीय 21. नागगोत्र बोहरा 22. वर्द्धमान गोत्र बोहरा 23. डणगोत्र परमार 24. विशाल परमार 25. बीबलेचा परमार 26. माढर गोत्रीय 27. जाबरिया परमार 28. दताणिया परमार 29. मांडवाडा चौहाण 30. काकरेचा चौहाण 31. नाहर गोत्र सोलंकी 32. वोरा राठोड मंडलेचा 33. कुमारगोत्रीय 34. घीणोलिया परमार 35. मलाणिया परमार 36. कासब गोत्र परमार 37. वसन्तपुरा चौहाण 38. नागगोत्र सोलंकी 39. आंवल गोत्र कोठारी 40. बाबा गोत्रीय 41. वोरागोत्रीय और 42. कोलरेचा गोत्रीय । बाली की कुलगुरू पौषधशाला - इनके आधिपत्य में आठ गोत्रों का लेखा है । यथा - 1. रावल गोत्रीय 2. अंबाई गोत्रीय 3. ब्रह्मशंता गोत्रीय चौहाण 4. जैसलगोत्र राठोड़ 5. कासब गोत्र 6. नीबगोत्र चौहाण 7. साकरिया चौहाण और 8 फलवधा गोत्र परमार । पौषधशालाओं के आधिपत्य में जिन जिन गोत्रों का लेखा है, उन्हें देखने से यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है कि उनकी उत्पत्ति क्षत्रिय कुलों से हुई । उपर्युक्त विवरण के आधार पर कुछ तथ्य सहज ही उभरकर हमारे सामने उपस्थित होते हैं । जैसे 1. पोरवाल जाति एक प्राचीन जाति है । यह जैन और वैष्णव मतावलम्बी है । 2. पोरवाल जैनों की उत्पत्ति जैनाचार्य के उपदेश से हुई अर्थात् जैनाचार्य से प्रतिबोध पाकर पौरवाल जाति के लोगों ने जैनधर्म अपनाया । 3. इसकी शाखायें क्षेत्रों के आधार पर है । जो जिस क्षेत्र में निवास करते थे, उसीके आधार पर उनको पुकारा जाने लगा । कालांतर में उसने एक शाखा का रूप ले लिया। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 68 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति www.ainelib Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 4. पोरवाल जाति की उत्पत्ति ब्राह्मण एवं क्षत्रिय कुलों से हुई है। 5. सामान्य गोत्रों के अतिरिक्त अलग अलग शाखाओं के अलग अलग गोत्र भी पाये जाते हैं । 6. पौषध शालाओं में जो लेखे रखे गए हैं । उनकी गोत्र भी पौषधशालाओं में भिन्न है । उससे कुल गोत्रों की संख्या निर्धारित करना कुछ असम्भव हो गया है । 7. कुछ गोत्र विलुप्त हो गये हैं जिनका विवरण कहीं नहीं मिलता है । इसी प्रकार यदि अन्य और पौषधशालाओं के लेखो का अध्ययन किया जाय तो सम्भव है, कुछ गोत्रों का और विवरण भी मिल सकता है। 8. पौषधशालाओं में जिन गोत्रों के लेखे हैं उन गोत्रों की उत्पत्ति कैसे हुई? इस बात का उल्लेख नहीं किया गया है । यदि गोत्रों की उत्पत्ति का विवरण मिल जाता तो और भी महत्वपूर्ण होता । 9. गोत्रों को उत्पत्ति के सामान्य आधार निम्नांकित बताये जाते हैं । 1. स्थान के नाम पर 2. व्यवसाय के आधार पर 3. व्यक्ति के नाम पर 4. कुल के आधार पर 5. कर्तव्य के आधार पर । इसे घटना विशेष के आधार पर कहना अधिक उचित होगा आदि आदि । पोरवाल जाति के इतिहास पर विस्तार से लिखा जा चुका है किंतु फिर भी कुछ प्रश्न अनुत्तरित है जिन पर अनुसंधान की आवश्यकता है । परम श्रद्धेय गुरुदेव राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. इसी पोरवाल जाति के एक उज्ज्वल रत्न हैं जो वर्तमान काल में जैनधर्म की ध्वजा को पूरे भारतवर्ष में फहरा रहे हैं | आग्रही मनुष्य अपनी कल्पित बातों की पुष्टि के लिये इधर-उधर कुयुक्तियाँ खोजते हैं और उनको अपने मत की पुष्टि की ओर ले जाते हैं। मध्यस्थ दृष्टिसंपन्न व्यक्ति भास्त्र और युक्तिसिद्ध वस्तुस्वरुप को मान लेने में तनिक भी खींचतान या हठाग्रह नहीं करते। अनेकान्तवाद भी बतलाता है कि सुयुक्तिसिद्ध वस्तुस्वरुप की ओर अपने मन को लगाओ, न कि अपने मनःकल्पित वस्तुस्थिति के दुराग्रह में उतर कर असली वस्तु स्थिति के अंग को छिन्न-भिन्न करो। क्योंकि मानस की समता के लिये ही अनेकान्त तत्त्वज्ञान जिनेश्वरों के द्वारा प्ररूपित किया गया है। उस में तर्क करना और भांक-कांक्षा रखना आत्मगुण का घात करना है। ___ संयम को कल्पवृक्ष की उपमा है, क्योंकि तपस्या रूपी इसका मजबूत जड़ है, संतोष रूपी इसका स्कंध है, इन्द्रियदमन रूपी इसका भाखा-प्रशाखाएँ हैं, अभयदान रूप इसके पत्र हैं, शील रूपी इस में पत्रोदूग हैं और यह श्रद्धाजल से सींचा जाकर नवपल्लवित रहता है। ऐश्वर्य और स्वर्गसुख का मिलना इस के पुष्प हैं और मोक्षप्राप्ति इस का फल है। जो इस कल्पवृक्ष की सर्व तरह से रक्षा करता है उसके सदा के लिये भवभ्रमण के दुःखों का अन्त हो जाता है। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 69 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Romanam Je lion into r anslarury Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ णमोकार महामंत्र और उसकी उपादेयता -डॉक्टर संजीव प्रचंडिया 'सोमेन्द्र' | प्रत्येक मंत्रों की अपनी पृथक महिमा हुआ करती है । ये सभी मंत्र प्रायः किसी न किसी अस्तित्व पर आधारित होते हैं । इन मंत्रों के माध्यम से प्राणी लौकिक मनोभावनाएं पूर्ण करता है । इसीलिए वे अत्यधिक लोकप्रिय हो जाते हैं। णमोकार महामंत्र इन मंत्रों की तुलना में अपना विशिष्ट महत्त्व रखना है। यह व्यक्ति या उसकी सत्ता पर नहीं अपितु गुणों पर आधारित महामंत्र है । प्रत्येक धर्म/सम्प्रदाय के पास महामंत्र / मंत्र हुआ करते हैं । णमोकार महामंत्र उनसे हटकर एक विशिष्ट प्रकार का महामंत्र है। यह लोक और पर लोक में सुख शांति और समृद्धि का आधार रखता है। ये मंत्र क्या है? तथा इनका प्रयोजन क्या है? पहिले यह समझ लेना बहुत जरूरी है । ध्वनि की तरंगे खुले आकाश में बिन्दु से घूमती हुई गोल गोल आकार में फैलती जाती है। इन तरंगों के माध्यम से ही हमारे शरीर की प्रतिक्रिया प्रभावित हो जाती है । जैसे युद्ध के लिए वीर रस के माध्यम से सेना में एक ऐसा वातावरण फैलाया जाता है जिससे कि सैनिकों में एक अजीब सा उत्साह भर जाता है । वे उस उत्साह के माध्यम से प्रतिद्वन्दी / शत्रु से लड़ने के लिए तत्पर हो जाते हैं । तो यह सब उसी ध्वनि तरंगों का कमाल ही है । पर सूक्ष्म रूप में, यह क्रम सतत गतिशील रहता है। आज ध्वनि विज्ञान ने भी यह सिद्ध कर लिया है। कि इस जगत में प्रस्फुटित कोई भी ध्वनि कभी भी नष्ट नहीं होती । अपितु वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जिस रूप में विस्तृत होती है, उसी रूप में प्रत्यावर्तित हो, वातावरण को प्रभावित करने लगती है । अनेक वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर लिया है कि यदि जल पिलाने वाले के भाव में खिन्नता है तो उसके जल पीने से मन में खिन्नता कहीं न कही स्थापित हो जाती है । ऐसे ही यदि सद्भाव या मंगल कामना से भरा हुआ कोई आदमी जल की एक मटकी / गगरी को कुछ देर हाथ में लिए रहे तो उस गगरी / मटकी का जल गुणात्मक रूप से परिवर्तित हो जाता है । (रसायनिक नहीं) जब यही जल, मंगल गीत गाकर वृक्षों पर सिचिंत किया जाता है तो निश्चित ही वे वृक्ष फल-फूल आदि से लद भर जाते हैं। कितना सपाट सम्बन्ध है यह कि मंगल / अमंगल भावनाओं के कारण जल में / वायु में रूपान्तर संभव है। यही है सही अर्थों में मंत्रों की आधार शिला मंत्रों के बीजाक्षर जब आकाश में तैरते हैं तो आकाश में गुणात्मक अन्तर होने लगता है । इसलिए मंत्रों से यह सिद्ध-व्यक्तित्व जब कभी मुखातिव होता है तो सामने वाले का मन और हृदय स्वतः परिवर्तित कर देता है। इसलिए भगवान महावीर के सामने कोई भी विरोधी टिक नहीं पाता था। क्योंकि उसमें विद्यमान सारे विरोध स्वतः ही शमित हो जाते थे । तो महामंत्र के शुद्ध उच्चारण से शनैः शनैः वातावरण में धार्मिक वृत्ति जन्म लेने लगती है। जैन संस्कृति और धर्म में णमोकार महामंत्र का अपना महत्व है। जैसा कि मैं पहिले भी कह चुका हूं कि यह मंत्र गुणों की उपासना करता है किसी व्यक्ति विशेष की नहीं । अतः इस विशिष्ट महामंत्र णमोकार की हम यहां क्रमशः चर्चा करेंगे पहिला, 'अरिहंतो को नमस्कार हो । अर्थात् जिसके सारे शत्रु समाप्त हो गए हैं। जिसके भीतर अब कुछ भी नहीं जिससे कि उसे लड़ना पड़े । लड़ाई समाप्त हो गयी । भीतर अब न तो बैर रहा न क्रोध रहा, न काम या लोभ रहा और न ही अहंकार कोई शेष न रहा। 'अरिहंत मूलतः नकारात्मक शब्द है । अर्थात् निषेध की सीमा नहीं आंकी जा सकती सकारात्मक की सीमा ठहरायी जा सकती है। इसलिए पहिले अरिहंत को रखा गया है। क्योंकि उनकी कोई सीमा न रही। कोई आकार न रहा। दूसरा, णमो सिद्धाणं' अर्थात् सिद्धों को नमस्कार हो । सिद्ध अरिहंत से छोटा नहीं होता। दोनों में कोई फर्क नहीं है। अरिहंत वह जिसने कुछ खो दिया । छोड़ दिया। Education laternational हेमेन्द्र ज्योति ज्योति 70 हेमेजर ज्योति मेजर ज्योति janelibra Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्टसंत शिरोमणि अभिनंदन पंथ किन्तु सिद्ध वह जिसने कुछ पा लिया । दोनों में यही अन्तर है । फिर भी सिद्ध वही पहुंचते हैं जहाँ अरिहंत पहुंचते हैं । तो ऐसे सिद्ध भगवान को मेरा नमस्कार है । उसके अतिरिक्त भाषा में यह उपयित है कि विधायक का स्थान सदैव दूसरा ही होता है । जैसा कि मैंने अभी कहा कि अरिहंत का स्वरूप निराकार होता है जिसका आकार दिया ही नहीं जा सकता वह सिद्ध के आकार से पृथक तो होगा ही साथ ही व्यापक रूप में अपरिमित । तीसरा सूत्र है आचार्यों को नमस्कार हो (णमो आयइरियाण) । अर्थात् वह व्यक्ति जिसने केवल पाया ही नहीं अपितु आचरण से अपनी चर्चा से भी प्रकट किया हो । आचार्यों का आचरण और ज्ञान दोनों सार्थक हों, उनमें आपस में तादाम्य हो तो ऐसे आचार्यों को नमस्कार हो । अरिहंत और सिद्ध हमारी पकड़ से परे हो सकते हैं लेकिन हमारी पकड़ में आचार्य आ सकते हैं । किन्तु यह पकड़ यदि संभव है तो खतरे भी असंभव नहीं है । हमारी क्रियाएं हमें धोखा दे सकती हैं । क्योंकि जो दिखायी दे वह जरूरी नहीं कि वह वही हो । पर, आचार्य वही जिसका ज्ञान और आचरण अभिन्न हो । एक हो । चौथा, 'णमो उवज्झायाणं' अर्थात् उपाध्यायों को नमस्कार हो । उपाध्याय' अर्थात् उसमें केवल ज्ञान सहित आचरण ही नहीं अपितु उसमें उपदेश देने की शक्ति भी हो । जो जानता है उसी में जीता है और जो जीता है वही बताता है तो उपाध्याय इस दृष्टि से महान हुआ पर आचार्य को लौकिक व्यवस्था करने के कारण बड़ा होना हुआ । पांचवें चरण में, णमोलोए सव्व साहूणं' । अर्थात् लोक में सभी साधुओं को नमस्कार हो । 'साधु जो चुपचाप साधना में जुटा है और सधने की अपलक प्रक्रिया जारी है, लोक में ऐसे सभी साधुओं को मेरा प्रणाम हो / नमस्कार हो जो अपनी साधना में पूर्णतः सध चुके हैं । अर्थात् सधा हुआ होना ही साधु होना है । इस प्रकार णमोकार महामंत्र में पंचपरमेष्ठियों के गुणों का चिंतन किया जाता है । गुणों का निरंतर चितवन करने से जहां एक ओर चिंतक के आत्मिक गुणों का जागरण होता है वहीं दूसरी ओर वातावरण में अद्भुत परिवर्तन होता है जिसके प्रभाव से सुख समृद्धि का वातावरण तो होता ही है साथ ही अन्य जीवों का कल्याण भी संभव हो जाता है । तब फिर इस महामंत्र की उपादेयता स्वतः ही उजागर हो जाती है । मंगल कलश, 394 सर्वोदय नगर आगरा रोड, अलीगढ़ 202 001. _संसारी मनुश्यों में जो अपनी सुखसुविधा की कुछ भी चिन्ता न कर केवल परमार्थ में ही आत्मभोग देनेवाले हैं, वे उत्तम हैं। अपनी स्वार्थसाधना के साथ जो दूसरों के साधन में भी यथा क्यि सहयोग देते रहते हैं वे मध्यम है। जो केवल अपने स्वार्थ साधन में ही कटिबद्ध रहते हैं; परंतु दूसरों के तरफ लक्ष्य नहीं रखते, वे अधम हैं। और जो अपनी भी साधना नहीं करते और दूसरों को भी बरबाद करना जानते हैं वे अधमाधम है। इन चारों में से प्रथम के दो व्यक्ति सराहनीय और समादरणीय हैं। प्रत्येक प्राणी को प्रथम या दूसरे भेद का ही अनुसरण करना चाहिये, तभी उसकी उन्नति हो सकेगी। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेगेय ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 71 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Lain Educat Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 4 दृष्टि को अपने जीवन पथ पर साध्वी मोक्षरसाश्री बालक-बालिकाएं Lesson में, युवक युवितयां फैशन और व्यसन में व्यस्त । छुट्टियों में खाली बैठे बैठे गप्पे हांकना, निंदा करना आदि से लोगों को फरसत ही नहीं मिलती है । जिन्दगी का अमूल्य समय कहाँ निकल जाता है, ये उनको स्वयं को भी मालूम नहीं पड़ता हैं । जब दिन निकलता हैं, तब तारीख के केलेण्डर में से एक तारीख कम हो जाती हैं । इसी तरह कम होते-होते अंतिम तारीख पूरी हो जाने पर सुन्दर दिखने वाले केलेण्डर को फेंक दिया जाता हैं और उसकी जगह एक नया केलेण्डर आ जाता है, लगा देते हैं । लेकिन उस नये केलेण्डर की भी ऐसी ही हालत होती है। ठीक इसी प्रकार आत्मा ने भी केलेण्डर के रूप में शरीर को धारण किया हैं । सबसे पहले निगोद में । वहाँ पर स्वतन्त्र शरीर नहीं होता हैं, परन्तु एक ही शरीर के अन्दर अनन्त जीव रहते हैं । एक श्वासोश्वास में 17-18 बार जन्म-मरण करता हुआ जीव अनंत काल तक निगोद में रहता हैं | जब एक आत्मा सिद्धगति, मोक्ष में जाता हैं तब कोई एक पुण्यशाली आत्मा निगोद में से (अव्यवहार राशि) निकलकर व्यवहार राशि यानि एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होता हैं । एकेन्द्रिय यानि स्थावर। स्थावर यानि एक ही जगह पर रहे हुए पृथ्वीकाय, अपकाय (पानी), तेउकाय (अग्नि), वायुकाय (पवन) और वनस्पतिकाय के जीव । इन पांच स्थावर काय के जीवों को शरीर रूपी एक ही इन्द्रिय मिलती हैं । यहां पर अनंत समय तक जन्म-मरण, छेदन-भेदन हुआ । अनंतानंत दुःखों को सहन करने के बाद द्विन्द्रिय में जन्म लिया । वहां शरीर के साथ में मुंह भी मिला। अनंतबार जन्म-मरण हुआ । उसके बाद तेइन्द्रिय, चउरीन्द्रिय आदि में बहुत बार जन्म लिया और अब पंचेन्द्रिय में जन्म हुआ । अभी अपने को लगता हैं कि तिर्यंच बनने में कितना दुःख सहन करना पड़ता है । परवशता, ठण्डी, ताप, भूख, प्यास आदि के लिए पराधीन रहना पड़ता हैं । ओह ! कितना दुःख । अनंत पुण्य का जब उपार्जन होता हैं तब मानव भव प्राप्त होता हैं । और उसमें भी सभी के पुण्य एक जैसे नहीं होते हैं । इस जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में बत्तीस हजार देश है । उसमें से 25%2 आर्य देश हैं, बाकी सभी अनार्य देश हैं। जिस प्रकार से सुख अच्छा लगता है, दुःख नहीं । जीवित रहना अच्छा लगता है, मरना नहीं । इसी प्रकार सृष्टि के सभी जीवों को सुख व जीवित रहना अच्छा लगता हैं, इसलिए किसी भी जीव को मारने का हक अपने को नहीं हैं । सभी को अभयदान देना अपना कर्तव्य हैं । जयणा, दया, करुणा आदि रखने से कर्मों की निर्जरा होती हैं । संसार में जन्म लिया हैं । मानव भव प्राप्त किया हैं । मगर अंतराय कर्म के कारण संसार में रहना पड़ता है । फिर भी जल में कमल की तरह रहना चाहिये । जन्म लिया तब भी कुछ लेकर नहीं आए थे, मरते समय भी कुछ लेकर नहीं जा पाएंगे । यही संसार का स्वरूप है । धर्म ही साथ आता है और साथ जाता है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 72 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Jain Educas erna Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ H मुनि लाभेशविजय 'राजहंस' त्याग और बलिदान की भूमि राजस्थान में अनेक सुविख्यात जैन तीर्थ है। इस लेख में उन सब जैन तीर्थों का परिचय न देते हुए हम केवल जालोर जिले में स्थित जैन तीर्थों का ही उल्लेख करेंगे। जालोर जिले में जैन धर्म के अस्तित्व के प्रमाण प्राचीन काल से ही मिलते हैं । उससे यह सहज ही कहा जा सकता है कि जालोर जिले में जैन धर्म उत्तमावस्था में रहा होगा । यही कारण भी रहा कि यहां जैन तीर्थ भी है और दूर दूर तक विख्यात हैं। जालोर जिले के जैन तीर्थो का संक्षिप्त विवरण उस प्रकार है 1. जैन तीर्थ स्वर्णगिरि जालोर : प्राचीन काल में कनकाचल नाम से विख्यात था। किसी तत्कालीन जैन राजाओं ने यक्षवसति व अष्टापद आदि जैन जो उल्लेख मिलते हैं उनके अनुसार वि. सं. 126 से 135 के उसका निर्माण करवाया होगा, ऐसा प्रतीत होता है । जालोर जिला मुख्यालय है । नगर के समीपवर्ती स्वर्णगिरि पर्वत पर तीर्थ स्थित होने से इसी नाम से विख्यात है । इस तीर्थ के सम्बन्ध में तीर्थ दर्शन (प्रथम खण्ड) में लिखा है कि यह स्वर्णगिरि समय यहाँ अनेक करोड़पति श्रावक निवास करते थे । मंदिरों का निर्माण करवाया था, ऐसा उल्लेख मिलता है । मध्य राजा विक्रमादित्य के वंशज श्री नाहड़ राजा द्वारा 点 जालोर जिले के जैन तीर्थ श्री मेरुतुंगसूरि विचित विचारश्रेणी व लगभग तेरहवीं सदी में श्री महेन्द्रसूरि विरचित अष्टोत्तरी तीर्थ माला में भी इसका उल्लेख मिलता है । सकलार्हत स्तोत्र में भी इसका नाम कनकाचल के रूप में उल्लिखित है । वि. सं. 1221 में राजा श्री कुमारपाल ने इस तीर्थ का उद्धार करवाया ऐसा उल्लेख भी मिलता है । जालोर का एक नाम जाबालिपुर भी मिलता है, जो जाबालिऋषि के नाम पर रखा गया। ऐसा कहा जाता है कि यहां बहत्तर जिनालय थे । सं. 1336 में अलाउद्दीन ने जालोर पर आक्रमण किया था, तब उसके द्वारा इस गिरि एवं नगर के आबू के सुप्रसिद्ध मन्दिरों की स्पर्धा करने वाले मनोहर एवं दिव्य जिनालयों का विनाश हुआ था। उन जिनालयों की स्मृति दिलाने वाली तोपखाना मस्जिद, जिसका निर्माण जिनालयों के पाषाण खण्डों से करवाया गया था, आज भी विद्यमान है । इस मस्जिद में लगे अधिकांश पाषाण खण्ड मन्दिरों के है और अखंडित भाग तो जैन पद्धति के अनुसार है। इसके स्तम्भों पर शिलाओं पर अभिलेख उत्कीर्ण है। कितने ही लेख सं. 1194 1239, 1268, 1320 आदि के हैं । स्वर्णगिरि में राजा कुमारपाल ने भगवान् पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया था जिसे कुमार विहार के नाम से जाना जाता है । इसकी प्रतिष्ठा सं. 1221 में श्री वादीदेव सूरि के कर कमलों से होने का उल्लेख है । वि. सं. 1256, 1265 में भी अलग अलग आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठा करवाने के उल्लेख मिलते हैं । Educator Inte वि. सं. 1681 में मुगल सम्राट जहांगीर के समय यहां के राजा श्री राजसिंह के मंत्री मुहणोत श्री जयमल के द्वारा एक जिन मन्दिर बनवाने एवं अन्य समस्त जैन मन्दिरों का जीर्णोद्धार रखाने का भी उल्लेख मिलता है। मंत्री जयमल की पत्नियों श्रीमती सरूपदे व सोहागदे के द्वारा भी अनेक जिन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाने का उल्लेख है। जिनमें से अनेक प्रतिमाएँ विद्यमान है । श्री महावीर भगवान के मंदिर का जीर्णोद्धार मंत्री जयमल ने करवाया और श्री जयसागरगणि के हाथों प्रतिष्ठा करवाने का भी उल्लेख है। यहां स्थित यक्ष वसति मन्दिर जिसका उद्धार राजा कुमारपाल ने करवाया था, उसका अन्तिम उद्धार आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरिजी म.सा. के उपदेश से सम्पन्न हुआ था । आचार्य श्री उद्योतन सूरि ने वि. सं. 835 में यहां के श्री आदिनाथ भगवान के मन्दिर में अपने ग्रंथ कुवलयमाला की रचना पूर्ण की थी । उस समय यहां अनेक मन्दिर थे । अष्टापद नामक एक विशाल मन्दिर भी था । उसका उल्लेख आबू के लावण्यवसहि के वि. सं. 1296 के अभिलेख में मिलता है । हमे ज्योति ज्योति 73 मेजर ज्योति हेमेन्द्र ज्योति www.ainelibrary.or Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था वि. सं. 1293 में दानवीर, विद्वान और शिल्पविद्या में निपुण मंत्री श्री यशोवीर द्वारा श्री आदिनाथ भगवान के : मन्दिर में कलायुक्त अद्भुत मण्डप के निर्माण करवाने का उल्लेख है । इसी प्रकार वि. सं. 1310 वैशाख शुक्ला त्रयोदशी शनिवार, स्वाति नक्षत्र में भगवान महावीर स्वामी के मन्दिर में चौबीस जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा अनेक राजाओं और प्रमुख व्यक्तियों की उपस्थिति में होने का भी उल्लेख खरतरगच्छ गर्वावली में मिलता हैं । मंत्री जयसिंह के तत्वावधान में यह प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न हुआ था । वि. सं. 1342 में सामन्तसिंह के सान्निध्य में अनेक जिन प्रतिमाओं के प्रतिष्ठित किये जाने का उल्लेख है । उन सब प्रमाणों से यह प्रमाणित होता है कि स्वर्णगिरि जालोर जैन तीर्थ प्राचीन तीर्थ है । समय के प्रवाह के साथ परिवर्तन हुआ और बाद में सरकारी कर्मचारियों ने इन मन्दिरों में युद्ध सामग्री भरकर चारों ओर कांटे लगा दिये थे । कहा गया है कि समय सदैव एक समान नहीं रहता है । इस कहावत के अनुसार विश्वपूज्य प्रातः स्मरणीय गुरुदेव श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का यहां पदार्पण हुआ । उन्होंने यहां के जिनालयों को देखो तो उनका हृदय क्षोभ से भर गया । उन्होंने इस तीर्थ का उद्धार करने का निश्चय किया और अपने प्रयास शुरू कर दिये । आपके सद्प्रयासों से जैन मन्दिरों से सरकारी नियन्त्रण समाप्त हुआ और वि. सं. 1933 की माघ शुक्ल प्रतिपदा रविवार को महामहोत्सवपूर्वक प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न करवाकर गुरुदेव ने जालोर से विहार किया । जैन मन्दिरों को मुक्त करवाने के लिये गुरुदेव को अनशन भी करना पड़ा । जोधपुर नरेश श्री यशवंतसिंहजी ने भी स्थिति को समझते हुए सहृदयता का परिचय दिया । जालोर में नगर के अन्य जैन मन्दिर भी दर्शनीय है । पहाड़ पर जाने के लिये वयोवृद्ध यात्रियों के लिए डौली का साधन भी है। समुद्र की सतह से लगभग 1200 फुट की ऊंचाई पर एक पर्वत पर 2.5 कि.मी. लम्बे व 1.25 कि चौड़े प्राचीन किले के परकोटे में जैन मन्दिरों का दृश्य मनोहारी है । जालोर नगर में यात्रियों की सुविधा के लिए धर्मशाला आदि सभी है। 2. जैन तीर्थ श्री भाण्डवपुर : यह जालोर जिले का प्रसिद्ध जैन तीर्थ है । उस स्थान तक जाने के लिए समीपस्थ रेलवे स्टेशन जालोर है, जो 56 कि.मी. है, दूसरा विशनगढ़ 40 कि.मी. एवं तीसरा मोदरा 30 कि. मी. की दूरी पर है । उन सभी स्थानों से बसें एवं टेक्सियों की सुविधा उपलब्ध है । भाण्डवाजी अथवा भाण्डवपुर गांव और यहां के मंदिर का इतिहास प्राचीन बताया जाता है । कहा जाता है कि जालोर के (प्राचीन जाबालिपुर के) शासक परमार भाण्डुसिंह ने इसे बसाया था और इस पर शासन भी किया। उसके पश्चात् उसके वंशजों ने भी पीढ़ियों तक उस पर शासन किया । वि. सं. 1322 में बावतरा दय्या राजपूत बुहडसिंह ने यहां के परमार शासकों को पराजित कर उस पर अपना अधिकार कर लिया था । इस क्षेत्र पर दय्या राजपूतों का अधिकार स्थापित होने के कारण उस क्षेत्र का नाम दियावट पट्टी हो गया । कालांतर में इस क्षेत्र पर जोधपुर नरेश ने अधिकार कर लिया । वि. सं. 1803 में जोधपुर नरेश रामसिंह ने दय्या लुम्बाजी से इस क्षेत्र को छीन कर आणा के ठाकुर मालमसिंह को दे दिया । ठाकुर मालमसिंह के वंशजों का इस क्षेत्र पर स्वतंत्रता प्राप्ति तक आधिपत्य रहा । इतिहास के इस विवरण से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भाण्डवपुर कभी बड़ा नगर रहा होगा । ऐसा बताया जाता है कि इस क्षेत्र में बेसाला नामक एक कस्बाई गांव था, जिसमें जैन धर्माविलम्बियों के सैकड़ों घर थे । ये सभी श्वेताम्बर जैन थे । बेसाला में एक भव्य एवं मनोहर सौंध शिखरी जिनालय था । इस जिनालय के एक स्तम्भ पर सं. 813 श्री महावीर उत्कीर्ण था, जो आज श्री भाण्डवपुर जैन तीर्थ में है । हेमेन्या ज्योति* हेमेन्ट ज्योति 74 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति walin Education memelon Farape w.jainelibition Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ आवागमन के साधनों का अभाव था । चोर डाकुओं का आतंक बना रहता था । बेसाला पर भी डाकुओं के आक्रमण निरन्तर होते रहते थे । इन डाकुओं को मेमन डाकुओं के नाम से जाना जाता था। इन मेमन डाकुओं से अपनी रक्षा करने की दृष्टि से यहां की जनता अन्यत्र जाकर बस गई । डाकुओं ने आक्रमण करके जैन मंदिर को तोड़ डाला किंतु प्रतिमाजी सुरक्षित बचा ली गई । किवंदती है कि कोमता निवासी संघवी पालजी इस प्रतिमा को एक गाड़ी में रसकर कोमता ले जा रहे थे । गाड़ी जहां वर्तमान में मंदिर है, वहां आकर रूक गई। गाड़ी को आगे बढ़ाने के काफी प्रयास किय गये किंतु सफलता नहीं मिली । सूर्यास्त के पश्चात् रात्रि हो गई । रात्रि में उन्हें स्वप्न आया । स्वप्न में उन्हें निर्देश दिया गया कि प्रतिमा को यही मंदिर बनवाकर विराजमान कर दो । इस निर्देशानुसार पालजी ने मंदिर का निर्माण करवाकर वि. सं. 1233 माघ शुक्ला पंचमी गुरुवार को महोत्सव पूर्वक उक्त प्रतिमा को विराजित कर दिया । इसका प्रथम जीर्णोद्धार वि. सं. 1359 में और द्वितीय जीर्णोद्धार वि. सं. 1654 में दियावट पट्टी के श्री जैन श्वेताम्बर श्री संघ ने करवाया था । विश्व पूज्य प्रातः स्मरणीय गुरुदेव श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. अपने विहारक्रम में धर्मोपदेश देते हुए वि. सं. 1955 में जब इस ओर पधारे तो आसपास के सभी ग्रामों के श्रीसंघ उनकी सेवा में उपस्थित हुए और इस प्रतिमा को लेजाकर अन्यत्र प्रतिष्ठित करने की विनती की । गुरुदेव ने फरमाया कि प्रतिमा को यहां से न हटाते हुए यहीं चैत्य का विधिपूर्वक जीर्णोद्धार करवाया जावे । परिणामस्वरूप गुरुदेव के उपदेशानुसार इसका तृतीयोद्धार वि. सं. 1988 में प्रारम्भ हुआ और वि. सं. 2007 में पूर्ण हुआ । प्रतिष्ठोत्सव वि. सं. 2010 ज्येष्ठ शुक्ला प्रतिपदा सोमवार को सम्पन्न हुआ। वर्तमान में यह मंदिर पूर्वाभिमुख है जिसके प्रवेश द्वार पर विशाल हाथियों के अतिरिक्त दोनों ओर शेर की प्रतिमाएं विराजमान हैं। द्वार पर नगारे बजाने हेतु सुन्दर झरोखा भी बना हुआ है । मन्दिर के गर्भगृह में जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी की प्रतिमा विराजमान है, जिसके आसपास श्री शांतिनाथ एवं श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमाएँ हैं । गूढ मण्डप में अधिष्ठायक देवी की प्रतिमा एवं देवताओं की चरण पादुकाएं विराजमान हैं। इसके अतिरिक्त भाग में दोनों ओर दो दरवाजे हैं, जिनके पास ही दीवारों पर समवसरण, शत्रुजय अष्टापद, राजगिरी, नेमीनाथ प्रभु की बरात, सम्मेदशिखर गिरनार, पावापुरी के सुन्दर कलात्मक पट्ट लगे हुए हैं । आगे चार चार स्तम्भों पर आधारित सभा मण्डप है । जिसकी गोलाकार गुमटी में नृत्य करती हुई एवं वाद्य यंत्र बजाती हुई नारियों की मूर्तियाँ हैं । आगे प्रवेश द्वार के समीप ऐसा ही छोटा शृंगार मण्डप है, जिसके नीचे वाले भाग में संगीत यंत्रों को बजाती नारियों की आकृतियाँ हैं । मंदिर के चारों ओर चार कुलिकाओं के शिखर दृष्टिगोचर होते हैं । प्रत्येक कुलिका में तीन तीन जैन तीर्थकरों की प्रतिमाओं को वि. सं. 2010 ज्येष्ठ शुक्ला दशमी सोमवार को आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के सान्निध्य में प्रतिष्ठित किया गया । मूल मन्दिर के शिखर के पीछे लम्बी तीन घुमटियों वाली साल बनी हुई हैं । जिसमें पार्श्वनाथ भगवान की चार सुन्दर कलात्मक प्रतिमाओं के साथ एक प्रतिमा गौतम स्वामी की भी प्रतिष्ठित की गई है । इस साल में श्री पार्श्वनाथ स्वामी की तीन प्रतिमाएं श्यामवर्ण को है । मन्दिर के प्रवेशद्वार के आंतरिक भाग के दोनों किनारों पर बनी देव कुलिकाओं के आसपास दो छोटी डेरियाँ बनी हुई है । जिसमें आचार्य श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. एवं आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की प्रतिमाएँ विराजमान हैं । प्रवेश द्वार के आंतरिक मंदिर भाग में बने छोटे आलों में श्रीमातंग यक्ष एवं श्री सिद्धायिका देवी की प्रतिमा भी है । चारों देव कुलिकाएं आमने सामने हैं जिसके बीच में ग्यारह ग्यारह स्तम्भ बने हुए हैं । यहां एक विशाल धर्मशाला भी है जिसमें 200 आवासीय कोठरियां है यात्रियों के ठहरने खाने-पीने बर्तन बिस्तर आदि की समुचित व्यवस्था है । भगवान महावीर स्वामी का तीर्थ स्थल होने के कारण यहां प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ला 13 से 15 तक विशाल पैमाने पर मेला लगता है । इस मेले में देश के कोने कोने से हजारों की संख्या में धर्म प्रेमी श्रद्धालु आते हैं । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 75 हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति SilainEducad i ationalit Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ एकांत में होने के बावजूद इस तीर्थ स्थान पर सदैव श्रद्धालु भक्तों की भीड़ लगी रहती है। क्षेत्र के निवासी सभी जाति और धर्म के लोग मूलनायक भगवान् महावीर के प्रति आस्था रखते हैं । यहां के निवासियों ने मन्दिर के आसपास एक मील की परिधि में शिकार खेलना निषिद्ध कर रखा है । इस क्षेत्र में किसी भी प्रकार के पेड़ पौधों को काटना भी निषिद्ध है । निर्जन एकांत में होते हुए भी इस तीर्थ पर दर्शनार्थियों का सतत आवागमन इसके महत्व की ओर इंगित करता है । 3. श्री गोडी पार्श्वनाथ आहोर : राजस्थान का जालोर जिला, उसमें बहनेवाली सूकड़ी नदी । सूकड़ी नदी के किनारे बसा है आहोर । जालोर से तखतगढ़ मार्ग पर जालोर से 19 कि.मी. की दूरी पर आहोर स्थित है । मुख्य मार्ग पर बसा होने के कारण चारों ओर से आनेवाली बसें यहां होकर जाती है। निकटतम रेलवे स्टेशन जालोर है । मारवाड़ के ठिकानों में आहोर का ठिकाना प्रतिष्ठित था । ऐसा कहा जाता है कि आहोर ठिकाना मारवाड राज्य के प्रथम कोटि के ताजिमी सरायतों में से एक था जिसे प्रथम श्रेणी का दीवानी फौजदारी अधिकार, डंका, निशान और सोना निवेश का सम्मान मिला हुआ था । ऐसा उल्लेख भी मिलता है कि जब जालोर के सोनिगरा चौहान कान्हड़देव का अलाउद्दीन के साथ ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, तब उस युद्ध में यहां के क्षत्रिय वीरों ने अद्भुत वीरता का परिचय दिया था । इस तीर्थ की उत्पत्ति का विवरण रोचक है । प्राप्त जानकारी के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि विक्रम की तेरहवीं सदी में अणहिल पाटण नगर में एक धर्मनिष्ठ श्रावक के द्वारा कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र सूरि के सान्निध्य में अर्जनशलाका महोत्सव का आयोजन किया गया था। उस हेतु अनेक प्रतिमाएँ लाई गई थी । आचार्यश्री के शिष्य बालचन्द्र ने मुहूर्त चुका दिया । इसी अवसर पर एक श्रावक तीन प्रतिमाएं लाया था जिनकी अंजनशलाका शुभ मुहूर्त में हुई। वे प्रतिमाएँ महाप्रभाविक भी हुई। उस श्रावक ने इन तीनों प्रतिमाओं को एक भोयरे में स्थापित कर दिया । श्रावक के पड़ोस में एक मुसलमान रहता था। उस मुसलमान ने एक प्रतिमा भोयरे से निकाल कर अपने घर में गड्ढा खोद कर उसमें छिपा दी। वह मुसलमान प्रतिदिन उस पर सोया करता था कुछ दिन तो बीत गए। फिर एक दिन प्रतिमा के अधिष्ठायक देव यक्ष ने मुसलमान को स्वप्न में कहा कि सिंध देश से जब मेघाशाह नामक श्रावक इधर आए तो पांच सौ टके लेकर प्रतिमा उसे दे देना यदि तू ऐसा नहीं करेगा तो तुझे मार डालूंगा । इससे मुसलमान डर गया और प्रतिमा निकाल कर मेघाशाह के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा । अपने व्यापार के सिलसिले में मेघाशाह श्रावक का पाटन आगमन हुआ । पाटन में ही रात्रि विश्राम के समय उसे स्वप्न आया कि यहां का एक मुसलमान तुम्हें एक प्रतिमा देगा। तुम पांच सौ टका देकर वह प्रतिमा ले लेना। संयोग से दूसरे ही दिन उस मुसलमान से मेघाशाह की भेंट हो गई। मेघाशाह ने पांच सौ टका देकर प्रतिमा ले ली । 17 अपना व्यापार व्यवसाय करते करते मेघाशाह की इच्छा अपने गांव लौटने की हुई। उसने रूई की गांठें बीस ऊंटों पर लादी । पहले जिस ऊंट पर रूई लादी गई थी, उस पर रूई में प्रतिमा भी ठीक प्रकार से रख दी । राधनपुर में कर चुकाते समय कर वसूलकर्त्ता में ऊंटों की संख्या पूछी तो उसे बीस ऊंट होना बताया । जब वसूलकर्त्ता ने ऊंट गिने तो उन्नीस निकले । वास्तविकता यह भी कि गणना करते समय वसूलकर्त्ता प्रतिमा वाले ऊंट को गिनना भूल जाता था । मेघाशाह ने बताया कि एक ऊंट पर भगवान् पार्श्वनाथ की प्रतिमा है । सम्भव है तुम उसकी गिनती करना भूल जाते हो कर वसूलकर्त्ता ने प्रतिमा के दर्शन किये और बिना कर लिये मेघाशाह को जाने की अनुमति दे दी । अपने गांव भदेसर पहुंचने पर प्रतिमा को लेकर मेघाशाह और उसके साले काजलशाह में विवाद हो गया । प्रतिमा मेघाशाह ने अपने हिसाब में रख ली । मेघाशाह की पत्नी मृगादे या मोती बाई एक धर्मपरायणा नारी थी। उसके दो पुत्र महिया और मेहरा थे । मेघाशाह ने प्रतिमा अपने परिजन धनराज के सुपुर्द कर दी । सेवा-पूजा-भक्ति करते हुए बारह वर्ष बीत गए । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 76 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति www.r brary.o Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन च एक रात मेघाशाह को स्वप्न में निर्देश किया गया कि तुम प्रतिमा को थलवट की ओर ले जाओ । यह भी कहा गया कि जाते हुए पीछे मुड़कर मत देखना | स्वप्न में मिले निर्देशानुसार मेघाशाह प्रतिमा लेकर चल दिया। मार्ग में वह एक उजाड़ से गांव तक पहुंचा । वह आगे चल रहा था । गाड़ी पीछे थी । यहां उसके मन में विचार उत्पन्न हुए कि देखें गाड़ी आ रही है या नहीं । उसने पीछे मुड़कर देखा । उसके देखते ही गाड़ी जहां थी वहीं रूक गई । उसके पश्चात् गाड़ी एक इंच भी आगे नहीं बढ़ी । उसके सभी प्रयास विफल रहे । यहीं उसे यक्ष ने स्वप्न में निर्देश दिया कि उस गांव का नाम गोड़ीपुर है । यहां से दक्षिण में एक कुआ है । उसके पास सफेद आक है, उसके पास अक्षत का स्वस्तिक बना हुआ मिलेगा । उसके नीचे अखूट धन है । वही पत्थर की खदान भी है। सिरोही से कारीगार बुलवाकर यहां सुन्दर मन्दिर बनवाना और इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा करना । मेघाशाह ने यक्ष के निर्देशानुसार कार्य किया। उसकी ख्याति फैली उसका साला काजलशाह भी आया। उसने प्रस्ताव किया कि मन्दिर निर्माण में आधा भाग उसका रखा जावे । मेघाशाह ने असहमति व्यक्त की । काजलशाज बदले की भावना लेकर लौट गया । कुछ समय पश्चात् काजलशाह की पुत्री के विवाह का निमंत्रण मेघाशाह को मिला । यक्ष ने पुनः स्वप्न में कहा कि काजलशाह तुम्हें दूध में विष देकर मार डालेगा । यदि तुम्हें वहां जाना ही पड़े तो भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा का प्रक्षालन लेकर जाना । मेघाशाह ने अपने पूरे परिवार को भेज दिया, वह नहीं गया। उस पर काजलशाह स्वयं उसे लेने आया और बदनामी का कहकर उसे अपने साथ ले गया किंतु मेघाशाह पार्श्व प्रभु की प्रतिमा का प्रक्षालन ले जाना भूल गया । अंततः वहीं हुआ जो होना था। मेघाशाह को भोजन के समय दूध भी रखा गया । उसे दूध भी पीना पड़ा कारण वह जूठा नहीं छोड़ता था। दूध विषयुक्त था। परिणाम स्वरूप उसके प्राण पखेरू उड़ गए । चारों ओर हाहाकार मच गया । मेघाशाह के साथ धोखा हुआ । काजलशाह की निंदा भी हुई । उसका तिरस्कार भी हुआ । 1 मेघाशाह की मृत्यु का शोक कम हुआ। जिनालय के निर्माण का कार्य अधूरा था जिसे काजलशाह ने पूरा करवाया। जब ध्वजा चढ़ाने का अवसर आया तो काजलशाह ने ध्वजा चढ़ाई। किंतु ध्वजा चढ़ाते ही गिर गई। उसने तीन बार ध्वजा चढ़ाई और तीनों बार गिर गई। इससे सभी चिंतित हो गए । मेघाशाह के पुत्र मेहराशाह को यक्ष ने स्वप्न में बताया कि तुम्हारे पिता का हत्यारा काजलशाह हैं। मैं एक हत्यारे को ध्वजा नहीं चढ़ाने दूंगा । तुम मेरा स्मरण करते हुए ध्वजा चढ़ा देना । स्वप्न के अनुसार मेहराशाह ने ध्वजा चढ़ाई । इस प्रकार श्रीगोड़ी पार्श्वनाथ की उत्पत्ति बताई जाती है । ये बातें तो हुई अतीत की थी। वर्तमान कल की बात करें। वि.सं. 1922 मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी को यहां के श्रावकों ने तीर्थ स्थापित करने का निर्णय लिया । वर्तमान स्थान का ही चयन किया गया । वि. सं. 1922 माघ शुक्ला नवमी को नींव खोदी गई, त्रयोदशी को जिनालय का पाया भरवाया । इस प्रकार गौड़ी पार्श्वनाथ की नींव पड़ी । चौदह वर्षों में जिनालय निर्माण कार्य पूर्ण हुआ । विश्वपूज्य प्रातः स्मरणीय गुरुदेव श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के कर कमलों से सं. 1936 माघ शुक्ला दशमी को मूलनायक श्रीगौड़ी पार्श्वनाथ की समारोहपूर्वक प्रतिष्ठा हुई फिर 19 वर्ष तक संगमरमरी पाषाण तराशे गए और 1955 फाल्गुन कृष्णा पंचमी को गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. ने अंजनशलाका सम्पन्न की। 77 भगवान श्री पार्श्वनाथ की मूर्ति ढाई हाथ ऊंची है और नीलोत्पल निर्मित है । इस पर कोई लेख नहीं है, किंतु प्राचीन प्रतीत होती हैं । इस तीर्थ के दर्शन - वंदन-पूजन का लाभ अवश्य लेना चाहिए । 4. जैन तीर्थ भीनमाल : भीनमाल जालोर जिले का एक ऐतिहासिक नगर है। भीनमाल के श्रीमाल, रत्नमाल, फूलमाल, आलमाल, पुष्पमाल, भिल्लमाल, रतनपुर आदि अनेक नाम मिलते हैं। अभी तक प्राप्त अभिलेखों में श्रीमाल एवं भिन्नमाल नामों का ही उल्लेख मिलता है । Jain Tucationantemat हेमे ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 77 हेमेजर ज्योति हेमेजर ज्योति Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था उस नगर की स्थापना कब हुई, इस सम्बन्ध में कोई निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं है । केवल अनुमान के आधार पर और कुछ घटनाओं को दृष्टिगत रखते हुए कहा जा सकता है कि श्रीमाल नगर की स्थापना ई. पूर्व पांचवी शताब्दी में हुई होगी। सं. 1393 में लिखित उपकेशगच्छ प्रबन्ध से ज्ञात होता है कि पार्श्व परम्परा के पांचवें पट्टधर आचार्य श्री स्वयंप्रभ सूरि ने महावीर निर्वाण से 52 वें वर्ष में श्रीमालपुर की ओर विहार किया । उससे भी इस नगर की प्राचीनता सिद्ध होती है । चीनी यात्री हेनसांग ने भी उसके सम्बन्ध में लिखा है - 'किऊ वे सोनी गुजरात की राजधानी पिलोमोला (भिल्लमाल) है। भिल्लों एवं मालों की बस्ती होने से तथा कवि माघ का आदर नहीं होने से उस प्रदेश का नाम भिल्लमाल पड़ा । बाम्बे गजेटियर के अनुसार जगत स्वामी का मन्दिर, सूर्यमन्दिर, यहां सं. 222 में बने। सं. 265 में नगर भंग हुआ, सं. 494 में नगर लूटा गया । सं. 700 में पुनः आबाद हुआ । सं. 900 में तीसरी बार लूटा गया। सं. 955 में पुनः नगर का संसकर हुआ। निकोलस पुफलेंट नामक एक अंग्रेज ने सन् 1611 में इस नगर के विस्तार के सम्बन्ध में लिखा जिसमें उस नगर के 36 मील विस्तारवाले कंगूरेदार किले की सुन्दरता का वर्णन किया गया है । इस नगर से अनेक जैनाचार्यों का सम्बन्ध रहा है जिनके नाम उस प्रकार है - आचार्य स्वयंप्रभसूरि, आचार्य रत्नप्रभसूरि (दोनों वीर सं. 52) आचार्य दुर्ग स्वामी, आचार्य सोमप्रभाचार्य, आचार्य सोमप्रभसूरि, आचार्य सिद्धर्षिगणी, आचार्य जयप्रभसूरि, आचार्य उदयप्रभसूरि, आचार्य वीरसूरि, आचार्य देवगुप्त सूरि, आचार्यकवकसूरि, आचार्य धर्मप्रभसूरि, आचार्य भवसागरसूरि, आचार्य ज्ञानविमल सूरि आचार्य राजेन्द्रसूरि, आचार्य धनचन्द्रसूरि, आचार्य भूपेन्द्रसूरि, आचार्य यतीन्द्रसूरि, आचार्य विद्याचन्द्र सूरि, आचार्य हेमेन्द्रसूरि । ये आचार्य अलग अलग परम्परा से सम्बन्धित हैं । इतने आचार्यों का इस नगर से सम्बन्ध रहना अथवा उनका समय समय पर इस नगर में पधारना इस बात का प्रतीक है कि यहां जैन धर्मविलम्बियों का बाहुल्य रहा है और इससे इस नगर की अतिशयता में वृद्धि होती रही । हम यहां इस नगर की ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में चाहते हुए भी नहीं लिख रहे हैं । प्रमाणों के आधार पर स्पष्ट है कि यह नगर काफी प्राचीन है । यहां जैन धर्म की स्थिति भी अच्छी रही । उस नगर पर आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की विशेष कृपा रही । आपके उपदेश से प्रतिबोध पाकर 800 परिवारों ने त्रिस्तुतिक आम्नाय को स्वीकार किया । इनमें से 100 परिवार वालों ने वर्ग व्यवस्था अंचलगच्छीय ही रखी । परन्तु त्रिस्तुतिक क्रियाओं को स्वीकार किया। आपकी पट्टपरम्परा के आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरिजी ने यहां जीर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठायें करवाई । उसके पश्चात् भीनमाल के निवासियों की आर्थिक स्थिति में चार चांद लग गए। वर्तमान भीनमाल में ग्यारह जैन मन्दिर है जिनमें भगवान् पार्श्वनाथ का मन्दिर प्राचीन माना जाता है । प्रतिमा के परिकर पर सं. 1011 का लेख उत्कीर्ण है । यह प्रतिमा भूगर्भ से प्राप्त हुई थी । भूगर्भ से प्राप्त यह प्रतिमा तथा अन्य प्रतिमाएं जालोर में गजनीखान के अधीन थी । वह इन प्रतिमाओं को रखने में मानसिक क्लेश का अनुभव कर रहा था । अन्ततः उसने प्रतिमाएँ श्रीसंघ को सौंप दी, जिन्हें संघवी श्री वरजंग शेठ ने भव्य मन्दिर का निर्माण करवाकर वि. सं. 1662 में स्थापित करवाई । उस अवसर पर गजनीखान ने 16 स्वर्ण कलश चढ़ाये थे । यह उल्लेख श्री पुण्यकमल मुनि द्वारा रचित भीनमाल स्तवन में मिलता है । भीनमाल जोधपुर अहमदाबाद रेलमार्ग पर है । भीनमाल स्टेशन 0.8 कि.मी. की दूरी पर है । जोधपुर, जालोर, जयपुर, सिरोही, उदयपुर, अहमदाबाद आदि स्थानों से बसे उपलब्ध हो जाती है । यहां ठहरने के लिए धर्मशाला है, जहाँ पानी, बिजली,बर्तन, बिस्तर भोजनशला आदि की सुविधा है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 78 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति SJainsadubabidaumatory Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 5. जैन तीर्थ सत्यपुर (सांचोर) : जैन तीर्थ सत्यपुर (साँचोर) के विषय में तीर्थ दर्शन प्रथम खण्ड में जो विवरण दिया गया है उसी के आधार पर यहां इस तीर्थ का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है । इस तीर्थ का वर्णन जग चिन्तामणी स्तोत्र में है। यह कहा जाता है कि इस स्तोत्र की रचना गणधर गौतम स्वामी ने की थी । सांचोर का प्राचीन नाम सत्यपुर या सत्यपुरी था । पराक्रमी राजा श्री नाहड़ ने एक आचार्य से उपदेश पाकर वि. सं. 130 के लगभग एक विशाल गगनचुम्बी जिनालय का निर्माण करवाकर वीर प्रभु की स्वर्ण प्रतिमा आचार्य श्री जजिज्गसूरि के हाथों प्रतिष्ठा करवाई थी। यह उल्लेख विविध तीर्थ कल्प में मिलता है । विक्रम की ग्यारहवी सदी के कवि धनपाल द्वारा रचित सत्यपुरी मण्डन महावीरोत्साह में भी इसका वर्णन है। विविध तीर्थ कल्प में उल्लेख है कि इस तीर्थ की बढ़ती महिमा से विधर्मिया को ईर्ष्या होने लगी । इस तीर्थ को क्षति पहुंचाने मालवा से वि. सं. 1348 में मुसलमानी सेना, वि. सं. 1356 में अलाउद्दीन खिलजी के भाई उल्लुधखान यहां आए किंतु सबको हार मानकर वापस जाना पड़ा । अंततः वि. सं. 1361 में अलाउद्दीन खिलजी स्वयं आया और प्रतिमा को दिल्ली ले गया । यहां विक्रम की तेरहवीं सदी में कन्नौज के राजा द्वारा भगवान महावीर का काष्ट मंन्दिर बनवाने का उल्लेख है । अजयपाल के दण्ड नायक द्वारा विक्रम की तेरहवी सदी में भगवानश्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापित करने का उल्लेख मिलता है। वर्तमान मंदिर के निर्माण काल का पता नहीं चलता किंतु वि. सं. 1933 में जीर्णोद्धार होने का विवरण मिलता है । कविवर समयसुन्दर जी की यह जन्म भूमि है । तीर्थाधिराज की प्रतिमा मनोहारी है । सभीपस्थ रेलवे स्टेशन रानीवाडा 48 कि.मी. है । अन्य स्थानों से बस सुविधा उपलब्ध है । धर्मशाला है । पानी, बिजली, बर्तन, बिस्तर व भोजनशाला की सुविधा उपलब्ध है । रात्रिभोजन के ये चार भांगे हैं-1 दिन को बनाया, दिन में खाया, 2 दिन को बनाया रात्रि में खाया, 3 रात्रि को बनाया दिन में खाया, 4 अंधेरे में बनाया अंधेरे में खाया। इन भागों में से पहला भांगा ही शुद्ध है। रात्रिभोजन के त्यागियों को इन भांगों में सावधानी रख कर और परिहरणीय भांगों को छोड़ कर अपना नियम पालन करना ही लाभदायक है। इसी प्रकार रसचलित रातवासी, अभक्ष्य और नशीली चीजों भी वापरना अच्छा नहीं है। इन वस्तुओं को वापरने से शरीर के स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 79 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्ट ज्योति only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरंतर दान करते हैं, जिसे है, संग्रह से नहीं । श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन शेय । ग्रंथ जीवन में जीवन में दान का महत्व लोभ कपट आदमी के आचरण को गिरा देता है, छिन सारी खुशियाँ, जीवन को नरक बना देता है । मानव वही जीवन में सुखी रहता है जो हृदय में अपने दान का दीप जला लेता है । - साध्वी पुष्पाश्री जैन शासन में धर्म ग्रन्थों के अनुसार धर्म के चार अंग माने गये हैं- दान, शील, तप भावना । इन चारों में दान प्रथम है। धर्ममय जीवन का प्रारंभ दान से ही होता है। दान से व्यक्ति का संसार भ्रमण कम होता है और दुःखों से मुक्ति मिलती है। आज तक जितने भी तीर्थकर हुए हैं, वे सभी संयम ग्रहण के पूर्व एक वर्ष तक वर्षीदान कहा जाता है (एक करोड़ आठ लाख सुवर्ण मुद्राएँ) दान से ही गौरव मिलता दान क्रिया का प्रारंभ भगवान ऋषभदेव के समय से प्रारंभ हुआ था दान की महिमा अपरंपार है। सभी धर्मों ने दान की महिमा को स्वीकारा है । मानव जीवन की श्रेष्ठता दान रूपी धर्म का आचरण करने में ही है । अगर ऐसा न होता तो मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं होता । उदर पूर्ति सभी करते हैं। पर विवेकी मानव को दानवृत्ति से ऊंचा उठकर जीवन को सार्थक करना है। जिस मानव के ह्रदय में दान देने की भावना नहीं होती है, उसका हृदय एक बंजर भूमि के समान गुणहीन है । दान के गुण कहां तक गिनाएँ । कहा है- "दान से समस्त प्राणी वश में हो जाते हैं, दान से शत्रुता का नाश होता है, दान से पराया भी अपना हो जाता है, दान से समस्त विपत्तियों का नाश होता है ।" दिया हुआ दान कभी निष्फल नहीं जाता है । वह तो ब्याज सहित पुनः मिलता है । कहा है - ब्याजे स्यात् द्विगुणं वित्तं, व्यापारे च चतुर्गुणम् । क्षेत्रे शतगुणं प्रोक्तं, दानेऽनन्तगुणं भवत् ॥ इस श्लोक द्वारा प्रमाणित होता है कि दान का कितना महत्व है । दान एक अमृत का झरना है। दान से केवल कीर्ति और सम्मान ही नहीं मिलता किन्तु मनुष्य स्वर्ग और मोक्ष की मंजिल को भी प्राप्त कर सकता है । शेखसादी ने कहा "जो आदमी धनी होकर भी कंजूस है वह वास्तव में धन का कीड़ा है । जो गरीब होकर भी दान करता है, वह भगवान के बगीचे का प्यारा फूल है ।" I जिसके पास धन सम्पत्ति का सागर भरा पड़ा है। वह यदि दो चार चुल्लू भर पानी जितना किसी को दे देता है तो उसकी भावना में वह परितृप्ति और आनंद की उर्मि नहीं उठ सकती है जो एक चुल्लूभर पानी में से कुछ बूंद देकर किसी की प्यास को शांत करने में उठती है । वही व्यक्ति जीवन में कुछ पाता है । दान के पांच प्रकार बतलाये हैं. अभयदान, उचितदान, अनुकम्पादान, कीर्तिदान और सुपात्रदान । व्यवहार दृष्टि से दान के तीन प्रकार बतलाये हैं "दूध, पानी और विष ।" जो गुप्तदान दिया जाता है वह दूध के समान है। मित्र सगे सम्बन्धियों को जो दान दिया जाता है वह पानी के समान । दान देने के बाद जाहिर कर लेते हैं वह विष के समान । दान अमृत है पर जाहिर करने से जहर बन जाता है। हेमेन्द्र ज्योति मे ज्योति 80 दान से अनंतगुणा लाभ ही लाभ है। घाटे की कोई संभावना नहीं रहती है । किन्तु एक शर्त अवश्य है कि दान देते समय देनेवाले की भावना पूर्ण रूप से शुद्ध होनी चाहिए । दान देते समय स्वार्थ की भावना नहीं होनी चाहिए। दान देनेवाला और लेनेवाला दोनों ही पवित्र होने चाहिए । मेजर ज्योति र ज्योति Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्टसंत शिरोमणि अभिनंदन पंथ बाइबिल में तो इतना तक कहा है - "तुम्हारा दायां हाथ जो दान देता है उसे बायां हाथ न जान पाये।" कितनी सुन्दर बात बताई है । परन्तु हमने तो जरा सा भी दान दिया कि नाम पहले चाहिए । कहा है - दान देते एक पैसा, नम्बर पहला रखते हैं, पुण्य करते हैं राई भर, अरमान स्वर्ग का गढ़ते हैं । विज्ञापन तो इतना बढ़ गया कि क्या कहें - धर्म की दुहाई देकर दुनिया को ठगते हैं । दान जीवन को अलंकृत करने वाला सबसे बड़ा आभूषण है- जिसके अभाव में मानव जीवन असुन्दर और निरर्थक जान पडता है । राजा हरीश्चन्द्र और कर्ण जैसे दानी तो इस जगत् में विरले ही मिलेंगे । और भी जैन इतिहास की ओर दृष्टिपात करते है तो ज्ञात होता है कि कितने दानी हुए हैं - शालीभद्र ने ग्वाले के भव में दान देकर अनंत रिद्धि सिद्धि को पाया था । घृतदान के प्रभाव से धन्य सार्थवाह ने प्रथम तीर्थकर पद पाया था । इतिहास प्रसिद्ध कुमारपाल राजा, संप्रतिराजा, जगडूशाह, भामाशाह, खेमा देदराणी आदि की दान वीरता सूर्य के प्रकाश की भांति आज भी जगमगा रही है। दान श्रावक का मुख्य गुण है । बारहव्रतों में भी 12वां व्रत अथिति संविभाग आता है । किसी विद्वान ने कहा है - सैकड़ों पुरुषों में कोई एक व्यक्ति ही शूरवीर निकलता है तथा हजारों में एकाध पंडित, वक्ता तो दश हजार व्यक्तियों में से भी मुश्किल से एक निकल पाता है । परन्तु दाता मिलना तो महान् मुश्किल है । ढूंढने पर भी मिले या न मिले । दान तमाम दों की दवा है । दान से शारीरिक और मानसिक सभी प्रकार के कष्ट दूर होते हैं । आपके दिल में प्रश्न उठता होगा कि बीमारियाँ कैसे दूर होती है? आपने पढ़ा, सुना होगा कि दान देते समय अगर उत्कृष्ट भावना आ जाय तो तीर्थकर नाम गोत्र कर्म का बंध होता है । क्या यह चमत्कार नहीं है? वस्तु साधारण थी किन्तु भावना असाधारण होते ही दान देते देते तीर्थकर नाम कर्म उपार्जन कर लिया तो भविष्य में कोई भी रोग पीड़ा, किसी भी प्रकार के कष्ट की संभावना नहीं रहती है । शारीरिक और मानसिक सभी प्रकार की वेदनाओं से सदा सदा के लिए मुक्ति मिल जाती हैं । जो इन्सान इसे समझ लेता है । वह सदा के लिए दुःखों से मुक्त होता है । किसी ने कहा - ज्यों ज्यों धन की थैली दान में खाली होती है, दिल भरता जाता है । वेदों में कहा है - "सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो और हजार हाथों से बांटो ।" अगर व्यक्ति ऐसा नहीं करता है तो धन उसके लिए अनेक आपत्तियों का कारण बन जाता है । क्योंकि लक्ष्मी के चार पुत्र होते हैं । धर्म, राजा, अग्नि और तस्कर। इन चारों में से ज्येष्ठ पुत्र का अपमान किया जाय तो तीनों ही क्रोधित हो जायेंगे । आपको समझ में नहीं आया होगा कि धर्म का अपमान कैसे? जो व्यक्ति नीति मार्ग का त्याग कर अनीतिपूर्ण कार्य करता है, महापुरुषों के हितकारी वचन नहीं मानता है, अधर्म को धर्म मानता है, असत्य आदि दुर्गुणों को अपनाकर दान आदि गुणों से दूर रहता है, वह धर्म का अपमान ही करता है। दान पुण्य करना ही लक्ष्मी के ज्येष्ठ पुत्र का नाम धर्म है । दीन दुःखियों की सहायता न कर अनीति से एकत्र करता ही जाता है, उसका धन राजा छीनना प्रारंभ कर देता है। आज सरकार इनकम टैक्स, सैलटेक्स आदि अनेक प्रकार के टेक्स लेकर लोगों से पैसा छिनती हैं । अधिक क्या, व्यक्ति के मरने पर भी लाश को भी टेक्स लेकर जलाने देती है । करोड़पति मर गया तो टेक्स लिए बिना लाश उठाने नहीं देती। उस प्रकार धर्म कार्य में खर्च न करने पर प्रथम राजा या सरकार ही धन छिनती है। अगर बच भी जाय तो लक्ष्मी का तीसरा पुत्र अग्नि उसे स्वाहा कर लेता है । आये दिन समाचार पत्र में पढ़ते है कि अमुक दुकान में फेक्ट्री में, कारखाने में आग लगी अत्यधिक हानि हुई । वर्षों से कमाया धन क्षणमात्र में सभी स्वाहा हो जाता है । फिर चोरों की आंख तो धन पर ही टीकी रहती है । अगर धर्म, राजा, अग्नि से बचा तो दॉव लगते ही चोर सफाया कर जाते हैं । लक्ष्मी पुत्र होने के नाते से वे भी अपना हिस्सा मांगते हैं । मतलब यही हैं कि व्यक्ति शुभ कार्यों में खर्च नहीं करता है तो तीनों भाई किसी न किसी प्रकार नाराज होकर लूटने का प्रयत्न करते हैं । अतः दान अवश्य देना चाहिए अगर दान नहीं देते हैं तो नई लक्ष्मी कैसे प्राप्त होगी? अतः कहा गाय को गर नहीं हो तो वह दूध नहीं देती, वृक्ष की डाली से यदि फूल नहीं चुनो तो,वह फल नहीं देती । पुरानी सम्पत्ति का सद्उपयोग नहीं किया तो - लाख प्रयत्न करो नूतन लक्ष्मी प्राप्त नहीं होती । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 81 हेमेन्ट ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ दलित उत्थान में जैन समाज का योगदान - डॉ. ए. बी. शिवाजी 'दलित उत्थान में जैन समाज का योगदान' विषय शोध का विषय है जिसमें धैर्य के साथ, श्रम–पूर्वक, सूक्ष्मता से सामाजिक मूल्यों के उन समस्त बिन्दुओं का परीक्षण करने की आवश्यकता है । यदि यह कार्य किया जाता है तो वर्तमान में 'दलित उत्थान' में जो कार्य हुआ है अथवा जो किया जा रहा है, उसका भारत की सांस्कृतिक परम्परा पर क्या प्रभाव पड़ रहा है इस पर प्रकाश पड़ सकता है । 'दलित उत्थान में जैन समाज के योगदान पर दृष्टि डालने के लिए हमें इतिहास के झरोखे से झांकना होगा। जब श्री महावीर स्वामी ने स्वयं आज से 2600 वर्ष पूर्व चांडाल हरिकेशी को दीक्षा देकर एक महान क्रांतिकारी कार्य किया था । कहा जाता है कि यहां हरिकेशी संयम त्याग, साधना द्वारा मुनि की उपाधि से अलंकृत किए गए । धर्म वास्तव में यह धर्म है जो मनुष्य को मनुष्य बनाता है और जैन धर्म नीतिपरक होने के कारण अपनी भूमिका निभाता आया है । यह बात अलग है कि जैन अनुयायी वर्तमान में कितने सद्गुणों एवं नीति का पालन करने वाले हैं । दलित आन्दोलन वास्तव में महाराष्ट्र के ज्योति बा फूले, नारायण गुरु और बाबा साहब आम्बेडकर द्वारा प्रेषित विचारों के कारण समाज में एक क्रांति का रूप ले रहा है । महात्मा गांधी ने भी 'हरिजन' शब्द का प्रयोग कर समाधान ढूंढने का प्रयास किया । मसीहियों ने भी दलितों का शूद्रों का उत्थान किया किन्तु इस दृष्टि से आज तक विचार नहीं किया गया। कुछ लोग तो यह कहते हैं कि बौद्ध दर्शन तथा अम्बेडकर के विचार दर्शन के मिश्रण से दलित साहित्य ने इस आन्दोलन में, श्वास फूंका है। जैन धर्म में दलित उत्थान की क्रांति का श्रेय आचार्य नानालालजी को जिन्हें आचार्य श्री नानेश भी कहा जाता है, दिया जाता है जिन्होंने अपने प्रवचनों के द्वारा निम्नतम समझी जानेवाली जातियों के हृदयों को जीता और दलित आन्दोलन का जैन धर्म में नये रूप से आव्हान किया । कहा जाता है कि आचार्य नानालालजी ने इस क्रांति का आरम्भ 22-23 मार्च 1964 को नागदा के पास गुराडिया ग्राम से किया था । जहां बलाई जाति के लोग मुखिया श्री गोबाजी की सुपुत्री एवं चावरजी की बहिन के शुभ विवाह के उपलक्ष में एकत्र हुए थे और उन्हें आचार्य नानालालजी मांस, मदिरा, शिकार, त्याग और सदाचारी जीवन जीने का व्रत दिलवाकर जैन समाज में, हृदय परिवर्तन करवाकर, धर्मान्तरण करवाया था । धर्मान्तरण हृदय परिवर्तन का दूसरा नाम है और इसमें कोई बुराई नहीं है । मानव यदि अपने जीवन में मानवीय गुणों एवं मूल्यों को समाविष्ट कर अपने जीवन को उठाता है तो इससे अच्छी बात जीवन में और कौन सी हो सकती है । कहा जाता है कि महाराजश्री ने गुराडिया से बरखेड़ा, बड़ावदा, लोद, लम्बोदिया, गुजरवरडिया, ताल, आकमा, आलोट, महिदपुर, डेलची, बोरखेडा,रानी पीपलिया, रण्डा धमाखेडा आदि ग्रामों में विहार कर दलितों के विशेषकर बलाई जाति के सप्त व्यसनों को छुडाते हुए, जैन समाज का अंग बनाते हुए, प्रवचन की धारा बहाते रहे जिसके कारण श्वेताम्बर सम्प्रदाय में एक नये आन्दोलन का जन्म हुआ और आचार्य नानालालजी प्रथम प्रवर्तक हुए । ऐसा बताया जाता है कि गुराडिया में श्री सीताराम राठोड, बलाई नागदा तथा धूलजी भाई बलाई, गुराडिया ने आचार्य नानालालजी के सम्मुख यह कहा कि महाराज हमारी जाति का उद्धार कीजिए । आचार्य नानालालजी ने उन्हें जैन धर्म में स्वीकार करने के तत्पश्चात उन्हें 'धर्मपाल' नाम दिया गया ताकि वे अपने नाम के बाद 'जैन' के स्थान पर 'धर्मपाल' लगावे ताकि वे अछूत नहीं समझे जावे । आचार्यजी के इस कृत्य के कारण लोग उन्हें 'अछूतों के महाराज' भी कहने लगे थे । आचार्य नानालालजी के कार्य को गति देने में धर्मेश मुनिजी ने धर्मपाल प्रवृत्ति को नई दिशा दी । उन्होंने चिन्तन मनन कर धर्मपाल समाज की सामाजिक उन्नति के लिए ग्राम-ग्राम पद विहार कर व्यसन मुक्ति और संस्कार क्रांति का प्रचार प्रसार किया जिस से प्रेरित हो श्री गणपतराज बोहरा ने उदारता पूर्वक श्री प्रेमराज हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 82 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Pilimsameltoonprily Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ। गणपतराज बोहरा धर्मपाल जैन छात्रवास की स्थापना रतलाम में की जहां ग्रामीण धर्मपाल छात्र व छात्राओं को निशुल्क आवास, भोजन एवं पुस्तकों की व्यवस्था की गई है ताकि यह अछूत दलित कहलाने वाले छात्र एवं छात्राएं शैक्षणिक दृष्टि से उन्नति करें । वर्तमान में श्री कोमलसिंहजी कूमट इस छात्रवास की देखरेख करते हैं । इसी तरह एक 'जैन जवाहर शिक्षण संस्था, कानोड - ये भी स्थापित की गई। दलितों के इस उत्थान कार्य के फलस्वरूप ही इन पैंतीस वर्षों में 'धर्मपाल' के कई व्यक्ति पंचायतों के सरपंच है, कई परिषदों के सदस्य एवं प्रधान पदों पर आसीन हुए हैं । कई धर्मपाल, युवक विभिन्न विभागों के प्रभारी व प्रशासनिक अधिकारी के रूप में प्रतिष्ठित है । समता भवनों का निर्माण धर्मपालों के उत्थान के लिए श्री अखिल भारतीय साधु मार्गीय जैन संघ ने समता के प्रचार एवं प्रसार के लिए गुराडिया शिवपुर, डेलनपुर, हरसोदन, तिलावद, गोविंद लाभगर, धमनार और मक्सी में समता भवन का निर्माण करवाया ताकि जैन धर्म और जैन संस्कृति का विकास हो । लोगों को समय समय पर जैन धर्म एवं दर्शन की शिक्षा दी जाती है। स्वास्थ्य सेवा बलाई जाति के लोगों को 'धर्मपाल' बनाकर जैन समाज ने दलितों को केवल सम्मान ही नहीं दिया किन्तु उन लोगों के स्वास्थ्य की चिन्ता भी थी । बताया जाता है कि इस कार्य हेतु 'जवाहर चल चिकित्सालय पद्म श्री नन्दलाल बोर्डिया के निर्देशन में आरम्भ किया गया था । यह कार्य स्वर्गीय आचार्य श्री जवाहरलालजी महाराज के प्रवचनों के फलस्वरूप ही आरम्भ हुआ था और पद्मश्री डॉ. बोर्डिया ने अपनी टीम के साथ गांव गांव घूमकर रूग्ण व्यक्तियों का निशुल्क परीक्षण कर चिकित्सा प्रदान करते थे । वास्तव में डॉ. बोर्डिया की यह सामाजिक सेवा केवल प्रशंसनीय ही नहीं, अनुकरणीय है । क्या वर्तमान में जैन समाज के चिकित्सक एक संगठन बनाकर क्या दलितों के बीच में जाकर यह कार्य नहीं कर सकते। जहां चाह है वहां उपाय भी है । आचार्य श्री जवाहरलालजी एवं आचार्य नानालालजी भी उपरोक्त सेवाओं के कारण ही गांवों में सवा लाख के करीब बलाई जाति को श्रीमहावीर का अनुयायी बनाया है और समाज में उन्हें एक गौरव पूर्ण स्थान दिलाया है। क्या हिन्दू धर्म के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य समाज के इससे कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं है । सुमेरमुनिजी का दलित उत्थान सुमेरमुनिजी ने खटीक जाति में जागृति का कार्य किया । कहा जाता है कि स्वर्गीय सुमेरमुनि ने खटीक समाज को जागृत करके जैसे नानालालजी ने 'धर्मपाल' नाम दिया वैसे ही सुमेरमुनिजी ने खटीक जाति को 'वीरबाल' नाम देकर खटीक जाति का उद्धार किया और जैन समाज में समाहित कर आदर योग्य स्थान दिलाया । खटीकों ने भी सप्त व्यसनों को छोड़ा और महावीरजी द्वारा बताए पथ को स्वीकार किया किन्तु सुमेरमुनिजी के देहावसान के तत्पश्चात् सुमेरमुनिजी द्वारा प्रज्वलित मशाल में स्नेह डालने वाले नहीं के बराबर रहे और 'वीरबाल' समाज, 'धर्मपाल समाज' की तरह एक आन्दोलन नहीं बन सका परन्तु यह सत्य है कि विक्रम संवत 1970 में भीलवाड़ा, सवाई, माधोपुर, नसीराबाद और पिपलिया में खटीकों ने अपना पैतृक धन्धा त्यागकर अहिंसा की शरण ली और जैन धर्म को स्वीकार किया । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 83. हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Private Female Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जैन दिवाकर महाराज दलित उत्थान में जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज का नाम भी आदर के साथ लिया जाता है । श्री केवलमुनि की पुस्तक 'एक क्रांत दर्शी युग पुरुष जैन दिवाकर' से ज्ञात होता है कि "दुर्व्यसनों का त्याग कराने हेतु उन्होंने दीन-हीन, पद दलित, उपेक्षित, अर्द्ध सभ्य बनावासी भीलों के बीच उद्बोधन किया । वैसे मुनि चौथमलजी ने यह प्रेरणा, स्थूलभद्र से जिन्होंने कोशा नामक एक वेश्या के जीवन को परिवर्तित किया था, लेकर अनेक वेश्याओं के उद्धार का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने मोचियों में जैन तत्व की प्रेरणा जगाई जिसमें मोची समाज से अमरचंद, कस्तूरचंद, तेजमल जो गंगापुर, मेवाड़ के थे उनके नाम दलित आन्दोलन में रखे जा सकते हैं । जैन दिवाकर मुनिचौथमलजी के विषय में श्री केवलमुनि ने लिखा है, "भीलों का हिंसा त्याग करवाया । वास्तव में दलित कल्याण के लिए स्वंय खतरे और कष्ट उठाकर उन्होंने जो किया वह इतिहास में अमर रहेगा ।" (पृ. 184) जिनदत्त महाराज ऐसा कहा जाता है कि जिनदत्त महाराज ने भी दलित उत्थान में योगदान दिया है । चन्द्रप्रभ सागर की पुस्तक 'खतरगच्छ' का आदि कालीन इतिहास में कहा गया है कि जिनदत्त महाराज ने अनगिनित जैन बनाये जो निम्नजाति में से थे । चन्द्रप्रभ सागर का कथन है कि "यदि आज सम्पूर्ण जैन समाज अपने संकुचित विचारों को छोड़कर दलित उत्थान में योगदान देवे तो भारत में एक सामाजिक क्रांति की सम्भावना दिखाई देती है । अगर मेरा यह आलेख जैन समाज को प्रेरित कर सका, तो जिस देश के हम निवासी है, उसमें मानवतावाद की सच्ची लहर पैदा कर सकेगे, तो वास्तव में जैन समाज भारत माता की सच्ची सेवा करेंगा ।" चन्द्रप्रभ सागर का कथन वास्तव में प्रशंसनीय एवं आदर के योग्य है किन्तु आज वर्तमान में जैन समाज स्वयं दुर्व्यसनों से ग्रसित है । आज जैन समाज के समस्त जैन मुनियों को द्विपक्षों पर लडाई लड़नी होगी । जैन समाज में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार करना होगा और दूसरी ओर दलितों के उत्थान में तन-मन-धन से अपना जीवन न्यौछावर करना होगा तभी 'जिन' शब्द की सार्थकता होगी अन्यथा नहीं । मुनिराज श्री ऋषभचन्द्र विजय 'विद्यार्थी स्व. कविरत्न आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के शिष्यरत्न ज्योतिष सम्राट मुनिराज श्री ऋषभचन्द्र विजयजी म. 'विद्यार्थी ने श्रीमोहनखेडा तीर्थ, राजगढ जिला धार (म.प्र.) पर रहते हुए धार एवं झाबुआ जिले के लगभग बीस बाईस हजार आदिवासियों के जीवन में सदाचार के बीज वपन किये । आपने अपने सदुपदेश से इन आदिवासियों को व्यसनों का त्याग कर व्यसन रहित जीवन जीने के लिये प्रेरित किया । ये आदिवासी आपको अपना गुरु मानने लगे है । समय समय पर श्री मोहनखेडा तीर्थ पर इन आदिवासियों के सम्मेलनों का आयोजन भी होता रहता है । मुनिश्री के पास इन आदिवासियों के नाम एवं पते सहित सूचियाँ भी है । नोट : पाठक बाधु 'श्रमणोपासक, धर्मपाल, विशेषांक वर्ष 35 अंक 13, 1997 तीर्थंकर वर्ष 7 अंक 7 1977, 'एक क्रांत दर्शी युग पुरुष संत जैन दिवाकर' श्री केवलमुनि खतरगच्छ का आदिकालीन इतिहास का अवलोकन करें। आराधना 27, रवीन्द्रनगर, उज्जैन (म.प्र.) हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 84हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ न राग से वीतराग की ओर साध्वी अनंतगुणाश्री आर्य भूमि पर जन्मा हर मानव महावीर नहीं होता | कर्म भूमि पर जन्मा हर मानव कर्मवीर नहीं होता || पुरुषार्थ से ही आदमी का स्वरूप बनता बिगड़ता है | धर्म भूमि पर जन्मा हर मानव धर्मवीर नहीं होता || जो व्यक्ति राग पर विजय पाता है अर्थात् राग को छोड़ देता है वह विरागी बन सकता है, और जो राग-द्वेष दोनों को छोड़ देता है, वह वीतरागी कहलाता है । वर्तमान में जैन धर्म में जीव या आत्मा का लक्षण धार्मिक विषयों को लेकर भी राग-द्वेष अत्यधिक बड़ा हुआ है । जहाँ राग-भाव है वहाँ धर्म नहीं है क्योंकि धर्म विराग में है, समता में है । जैसे घोड़े से वही उतरेगा जो पहले उस पर चढ़ेगा, उसी प्रकार जिसने कुछ पकड़ा ही नहीं वह छोड़ेगा क्या? जहाँ तक पकड़ने की बात है, आज सारा विश्व राग को पकड़े हुए है, सभी राग के घोड़े पर सवार है । प्रश्न है, मानव-मात्र को राग से किसने जोड़ा? मानव को रागी किसने बनाया? वास्तव में राग को पकड़ना मनुष्य के बस की बात नहीं है, वह स्वतः जन्म से ही राग से जुड़ता चला जाता है । अतः वह उसे छोड़े तो कैसे? राग (मह) का व्यावहारिक अर्थ है जादू । जैसे मदारी जादू से बांध बनाकर दिखा देता है एवं उसे गायब भी कर देता, किंतु वास्तव में उसका अस्तित्व कुछ नहीं होता, ठीक वैसे ही मैं एवं मेरा का भी कोई अस्तित्व नहीं है, किन्तु ऐसा लगता है कि 'मैं' हूं और मेरा भी है । यही माया है और इसी से राग का जन्म होता है । माया को समझे बिना राग से पीछा छुड़ाना असंभव है । राग का दमन हो सकता है, किन्तु दबा हुआ बीज तो कभी भी अंकुरित हो जाएगा। राग को त्यागकर विराग की ओर बड़े इसके लिए पहले माया को समझें और बार-बार सोचे कि जो दिख रहा है, वह है नहीं, और जो है वह दिखाई नहीं दे रहा । 'गीता में भी कहा गया है - “यदा तो मोह कलिलं बुदित्यतितरिष्यति । तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च |" इसलिए जो शुद्ध सच्चिदानंद आत्मा है, वह माया के कारण, दिखाई नहीं देती । 'मेरा पुत्र' मेरी पत्नी मेरा शरीर'। जब यह 'मेरा छूटने लगेगा तो हमारे कदम स्वतः ही विराग की ओर मुड़ जाएंगे । हम जिस संसार में रहते हैं वह भी 'मैं' 'मेरा' के आवरण के कारण एक भ्रामक सत्य के रूप में दिखाई देता है, किंतु यह भी मिथ्या है । न यह संसार सदा रहता है और न इस संसार में रहने वाले शरीर ही सदा रहते हैं। यह शरीर क्षणभंगुर, नश्वर, अशाश्वत है । शाश्वत तो सिर्फ आत्मा ही है । यह संसार भी क्षणभंगुर है, जीव यहां जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । अवनि कभी भी समाप्त नहीं हुई, उस पर चाहे प्रलय हुआ हो महामारी आई हो, भूकम्प उठे हैं । या ज्वालामुखी फटे हो, विनाश तो सिर्फ जीवों का ही हुआ है। मानव सभी जीव धारियों में सबसे अधिक विवेकशील प्राणी है। वह हंसता है, रोता भी है संकट आने पर विलाप भी करता है । जिससे भी उसका मोह होता है, उसका वियोग दुःख का कारण बन जाता है । संसार में दुःखों की जड़ इसी मोह को माना गया है । राग की भावना सदैव दुखों को निमंत्रण देती है । यथा श्री रामचंद्रजी स्वर्ण मृग को देखकर सीता के कहने पर उसका वध करने चल दिये । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्ट ज्योति 85 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति Jainsion intami Detary Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ उस समय राग भाव के कारण राम का विवेक शून्य हो गया था। क्या मिला श्री राम को? जब लौटे तो कुटिया उजड़ चुकी थी । सीता को रावण ले जा चुका था । राग के कारण ही सीता एवं राम को एक दूसरे का विछोह सहना पड़ा । रावण महापंडित था, लंका का राजा था, देवता उसकी सेवा करते थे। सीता के प्रतिराग के कारण वह साधु के वेश में आ सीता को उठा ले गया । मामा मारीच को हिरण बनाकर, राम के हाथों उसकी मृत्यु करवाई । अंत में लक्ष्मण के हाथों मारा गया । वैदिक रामायण में राम के हाथों रावण की मृत्यु मानी गई है किंतु जैन - रामायण लक्ष्मण के हाथों रावण वध स्वीकारती है, खैर कुछ भी हो, मरना रावण को ही पड़ा । अगर वह सीता के प्रति राग न रखता तो उसकी अकाल मृत्यु नहीं होती । जब तक राग का अंत नहीं होता तब तक सांसारिक वस्तुओं से मन विलंग नहीं हो पाता । पूर्ण रूपेण राग को जीतना बहुत ही कठिन है, किंतु जो पूर्ण रूप से राग को जीत लेता है वह वीतरागी बन जाता है । जब हम राग से वीतराग की ओर मुड़ेगे, तभी मन को सुख, शांति एवं परम संतोष प्राप्त होगा । वास्तव में वीतरागी कौन है? "वीतरागी है वह जो राग-द्वेष छोड़े | आत्मा का संबंध परमात्मा से जोड़े । जिन्दगी का लक्ष्य तो जान ले जग में भटके हुए पांवों को सद् राह पर मोड़े ॥" यह है राग विजेता की भावना निःस्पृह भाव से जीवन जीना । जिस प्रकार वनाग्नि वृक्षों को, हाथी वनलताओं को, राहु चन्द्रमा की कला को, वायु सघन बादलों को और जल पिपासा को छिनभिन्न कर डालता है ठीक उसी प्रकार असंयम भावना आत्म के समुज्जवल ज्ञानादि गुणों को नश्ट भ्रश्ट कर डालता है जो लोग अपनी असंयम भावना को निजात्मा से निकाल कर दूर कर देते हैं और फिर उनके फंदे में नहीं फँसते वे अपने संयमभाव में रहते हुए अपने ध्येय पर आरूढ होकर सदा के लिये अक्ष्य सुखविलासी बन जाते हैं। इतना ही नहीं उन के आलम्बन से दूसरे प्राणी भी अपना आत्मविकास करते रहते हैं। हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति प. पू. साध्वीजी श्री स्वयंप्रभाश्रीजी म.सा. की शिष्या 86 श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेन्द्र ज्योति ज्योति Fumional Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ न साधु पद का महत्व - साध्वी मोक्षमालाश्री अनंत उपकारी चरम तीर्थपति श्रमण भगवान श्री महावीर परमात्मा के शासन में परमार्थ के प्राप्त किये हुए शास्त्रकार महर्षि आचार्य भगवन्त श्री रत्नशेखर सूरि म. ने नवपद की महिमा गाते हुए भीसिरिवालकहा' नामक ग्रन्थ में पांचवें साधु पद के बारे में बताते हुए कहते हैं । आज का दिन साधु पद की आराधना, साधना, जाप, ध्यान करने का हैं । पंच परमेष्ठी में प्रवेश करने का द्वार साधु पद ही हैं । साधु पद में प्रवेश किये बिना कोई भी आत्मा परमेष्ठी पद में अपना समावेश नहीं कर सकता हैं । साधु पद की साधना द्वारा पंच परमेष्ठी की साधना हो सकती हैं । अरिहन्त भी साधु हैं, साधु नहीं हो तो अरिहन्त नहीं बन सकते । सिद्ध भी साधु हैं, साधु नहीं हो तो सिद्ध नहीं बन सकते । आचार्य भी साधु है, साधु नहीं हो तो आचार्य नहीं बन सकते । उपाध्याय भी साधु है, साधु नहीं हो तो उपाध्याय नहीं बन सकते । साधु तो साधु ही होते हैं । नवपद में साधु पद एकदम बीच में आता है । पहले चार पद, बीच में साधु पद और बाद में चार पद आते हैं । आराधक आत्मा को कोई भी सिद्धि साधना के बिना नहीं मिलती है । जिस दिन साधु पद का नाश होगा उस दिन शासन भी नहीं रहेगा । शासन वही होता है जहां साधु होता है । जहां साधु नहीं वहां शासन नही । साधु पद की आराधना क्यो? साधु पद की आराधना मोक्ष मार्ग की साधना में सहायता पाने के लिए करनी पड़ती हैं । सहायता करे वही साधुजी। साधु पद की आराधना द्वारा मुमुक्षु आत्माओं को भी मोक्ष की साधना में सहायता मिलती हैं । साधु भगवन्त अपने शरीर की देख रेख नहीं करते हैं । तप आदि के कारण उनकी काया कोयले के समान काली बन जाती हैं । इसलिए ही साधु का वर्ण 'श्याम' कहा जाता है । साधु भगवन्त निरन्तर संयम की साधना करने वाले ही होते हैं । उनकी हर एक क्रिया में संयम मुख्य होता हैं । साधु गोचरी को जाते हुए, आहार करते हुए, बोलते हुए, चलते हुए, सोये हुए, जागते हुए, जाहिर में बैठे हुए आदि हर वक्त संयम की साधना शुरू ही रखते हैं । इस परमात्मा के शासन में उच्चतम कक्षा में साधु पद हैं । जिसको भी इसमें प्रवेश करना हो तो अपनी आत्मा को सर्वस्व बनाना होगा । साधु पद को पाने के लिए संयम ग्रहण करने के भाव आने जरूरी है । पंच महाव्रत का पालन, पंच समिति का पालन, तीन गुप्ति का पालन । पांच महाव्रत की पच्चीस भावना - द्रव्य साधु पद । क्षमा आदि धर्म को आत्मसात् करना – भाव साधु पद । वीतराग परमात्मा के साधु करुणा के अवतार होते हैं । जीवों के प्रतिपालक हैं । जीवयोनि के लिए मां जैसे हैं । एक भी जीव को जरा भी दुःख नहीं पहुंचे इसके लिए सतत सावधान रहते हैं । करवट बदलते पूंजना, हाथ पूंजना, जगह पूंजना बाद में करवट बदलते है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 87 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति rinten Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ साधु चले तो इर्यासमिति पूर्वक, बोले तो भाषा समिति पूर्वक आहार लेने जाए तो एषणा समिति पूर्वक, कोई भी समिति पालन करे तो आदान भंड़मत्त निख्खेवणा समिति पूर्वक, शरीर का कोई भी मल, मैल निकालना हो या परठना हो तो पारिट्ठापनिका समिति का उपयोग करते हैं । परमात्मा के शासनकाल में साधुओं के मन, वचन, काया, नियन्त्रण में होते हैं। मन को घुमाना हो वही घुमाते हैं, न घुमाना हो वहां कभी नहीं घुमाते हैं । वाणी से नही बोलना हो तो कभी नहीं बोलेंगे, बोलना होगा तो योग्य, हित-मित और प्रिय शब्द ही बोलेंगे । शरीर को नहीं हिलाना हो तो नहीं हिलाएंगे और अगर संयम योग की साधना के लिए हिलाना भी पड़े तो जयणापूर्वक हिलाते हैं। यह है पांच समिति और तीन गुप्ति । साधु कभी कभी ही अप्रमत्त होते हैं, ऐसा नहीं मूड़ में होते हैं तभी अप्रमत्त होते हैं ऐसा भी नहीं बल्कि साधु सदा अप्रमत्त ही होते हैं। साधु वीतराग परमात्मा का अनुयायी हैं। "नवि हरखे नवि शोचे' ये विशेषता है। साधु में, न कभी हर्ष न कभी दुःख, शोक आदि । साधु को सुधा जैसा कहा जाता है। अमृत जैसा कहा जाता है। जगत में अमृत का दान करनेवाले होते हैं, उत्तम बुद्धि को धारण करने वाले होते हैं । ऐसे गुण नहीं हो तो सिर मुंडाने से क्या मिलता है? पूज्य यशोविजयजी म. ने कहा हैं कि जैसे तैसे को योग नहीं कहा जाता हैं। मन को, राग-द्वेष को जीते समभाव में लीन बने उसको योग कहते हैं सिर मुंडाने से योग नहीं आता है। अगर आता हो तो भेड़ को हर वर्ष मुंडन करने में आता है । उसको तो नहीं आता हैं । जंगल में रहने से भी योग नहीं आता हैं, हिरण आदि जंगल में ही रहते हैं। जटा (बाल) बढ़ाने से भी योग नहीं आता है, वट वृक्ष को बड़ी बड़ी जटाएं होती हैं। भस्म लगाने से भी योग नहीं आता हैं, गधे भस्म में ही ज्यादा लोटते हैं । इसलिए पूज्यपाद कहते हैं कि मन स्थिर नहीं तो साधु पद का स्वाद नहीं । साधु को राग नहीं द्वेष नहीं अपना नहीं, पराया नहीं । कहीं भी आसक्ति नहीं, कहीं भी रुचि या अरुचि नहीं, किसी भी स्थिति में साधु समान अवस्था में ही होते हैं । साधु पद की आराधना जो बराबर की जाय तो जीवन की किसी भी स्थिति में साधु को विषाद ग्रस्त व्यथित, विहवल उन्मत्त या विवेकहीन नहीं बनने देगा हर एक अवस्था में सहज स्थितिप्रज्ञता आती हैं। यही साधु पद की तात्विक आराधना हैं । आचार्य, उपाध्याय, बाल, ग्लान, तपस्वी आदि की साधु निरन्तर सेवा करते हैं, हर समय हाजिर रहे हैं । सेवा वैयावच्च नाम का अभयंतर तप । वैयावच्च गुण को अप्रतिपाती गुण के रूप में पहचाना जाता है। दूसरे गुण तो आते हैं और चले जाते हैं, परन्तु इस गुण से तो आत्म विकास ही होता है आत्म पतन कभी नहीं होता है। साधु ने वैयावच्च गुण को आत्मा के साथ एकमेव कर दिया हैं। । में साधु जीवन में करने का क्या? घड़ा उठाने का । ऐसा बोलना, यह वैयावच्च धर्म का अपलाप हैं । संसार बहुत घड़े उठाये मगर यह पानी का घड़ा नहीं, 'निधान' अन्दर के गुण का प्रकट करता हैं । वीतराग शासन की कोई भी क्रिया अमूल्य हैं । वीतराग के शासन में 'काजा' निकालने की क्रिया, जो तुम्हारी भाषा में कचरा निकालने की क्रिया होती हैं, वह नहीं बल्कि विपुल कर्म निर्जरा करवा के यावत् केवलज्ञान दिलाने का काम करती हैं । और इसी के साथ श्रेष्ठ किस्म की जीवदया का परिणाम और प्रवृत्ति जुड़ी हुई हैं। यह जैन शासन का परम तत्त्व हैं । यह 'काजा' निकालने की क्रिया सम्यग्दर्शन के लक्षण स्वरूप हैं । इसमें जिनाज्ञा का पालन हैं । इससे सम्यग्निर्मल बनता है चारित्र विशुद्ध बनता है इससे आत्मा अवधिज्ञान, केवलज्ञान की भूमिका प्राप्त कर सकता हैं। परमात्मा के शासन की एक भी क्रिया कम नहीं हैं। I साधु के मैले कपड़े व रंग देखकर निंदा, जुगुप्सा करने से गहन कर्म बंध होता है। दर्शन मोहनीय कर्म का बंध होता है, नीच गोत्र व अशुभ कर्मों का बंध होता है। भूल से भी कभी आपके जीवन में साधु की निंदा या जुगुप्सा हुई हो तो प्रायश्चित कर लेना चाहिये और भविष्य में यह गलती नहीं हो इसका खास ध्यान रखना चाहिये । साधु को देखकर नाक बिगाड़ने से सीधा एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय में जन्म लेना पड़ता हैं, जिसमें नाक आदि नहीं होता हैं। यह कोई झूठ या शाप नहीं है बल्कि सच्ची हकीकत है और अगर पंचेन्द्रिय में भी उत्पन्न हो जाओ तो ऐसी विकृत अवस्था मिलेगी जिससे दुनिया अपने ऊपर घृणा करेंगी । | Jain Educationmation हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 88 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ बहुत से महात्मा इतनी उच्च कक्षा के त्यागी होते हैं कि अपना पसीना भी नहीं पोंछते हैं । अगर पोंछना भी पड़े तो एकदम हल्के से, ताकि कहीं शरीर से मैल न निकल जाय साधु तो मलिन ही होता हैं । अन्य परिषहों की तरह यह 'मल परिषह भी साधु को सहन करना पड़ता हैं | जो साधना का एक अंग हैं | जिससे विपुल कर्म निर्जरा करके आत्मा विशुद्ध बनती हैं । साधु की मलिनता यह एक भूषण हैं । और उज्ज्वलता यह एक दूषण हैं । जैसे साधु का शरीर मलिन होता हैं वैसे कपड़े भी मैले होते हैं । ‘साधु कपड़ा पहनते हैं लज्जा गुण के लिए न कि शरीर को शृंगार के लिए साधु को कोई पूछे कि तप क्यों करते हो? शरीर से छुटकारा पाना है । मलिन क्यों रहते हो? ममता से छुटकारा पाने के लिए । संयम की साधना क्यो? कर्म बंधन से छूटने के लिए । सर्व प्रकार के बंधन से छुटकारा पाना हैं । यही आवाज सदा ही साधु के हृदय में गूंजती रहती हैं । जब भी देखो तब वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा रूप स्वाध्याय में और ध्यान कायोत्सर्ग आदि कोई न कोई कार्य में व्यस्त रहते हैं । एक बार एक राजा के मन में शंका हुई कि साधु लोग रात में क्या करते हैं? यह देखने के लिए गुप्त रूप से उपाश्रय में गया और देखता हैं कि कोई साधु वैयावच्च में मग्न, तो कोई ध्यान में, कोई आत्मशोधन में तो कोई बड़ों के विनय में, कोई धर्मकथा में तो कोई वाचना में, कोई काउस्सग्ग में तो कोई खमासमण दे रहा है, कोई काया क्लेश तो कोई संलीनता में लीन हैं | साधु के यह अद्भुत रूप देखकर राजा आनन्द विभोर हो गया । हकीकत में मोक्ष तो यही हैं । सुख का सागर यही पर समा गया हैं । आपके कारखाने में कचरा जिस तरीके से निकाला जाता हैं उसमें कितने जीवों की हिंसा होती हैं । हीरा आदि साफ करने में एसीड का उपयोग करने के बाद उसे फेंकने में कितने जीवों की हिंसा होती हैं । उबलता गरम पानी गटर में जाने से कितने जीवों की हिंसा होती हैं । घर में दवा छिड़काने से कितने जीवों की हिंसा होती हैं। वीतराग के शासन में साधु के हृदय में तो जीव मात्र के प्रति करुणा की भावना ही होती हैं । उसमें भी जिन कल्प को धारण करने वाले साधु भगवंत जो जंगल में विहार करते हों, राह चलते आस पास वनस्पति हो और सामने से सिंह आता हो तो वनस्पति पर न दौड़कर उस रस्ते पर ही चलते रहेंगे । भले ही सिंह उनका भक्षण करें । आज आपको और हमको यही आराधना करनी है । साधु मन, वचन, काया के बंधन से रहित होता हैं । चार कषाय से मुक्त, पांच इन्द्रियों के विषय से दूर, जीव योनि का रक्षण करने वाले, सत्रह प्रकार के संयम का पालन करने वाले, अठारह हजार शीलांग को धारण करने वाले, नव ब्रह्मचर्य की गुप्ति को धारण करने वाले, बारह प्रकार के तप में शूर समान, सोने को अग्नि में तपाने के बाद जैसी चमक आती हैं वैसी ही चमक साधु में तप के द्वारा आती हैं। इनको नमस्कार करने वालो का पुण्य बंध होता हैं । ऐसे साधु पद की आराधना, जाप, साधना करने का आज का दिन हैं । साधु 27X 27 = 729 गुणों से शुभालंकृत होते हैं । अरबोंपति या बड़ी सत्ता वाला हो नवकार मंत्र में किसी का स्थान नहीं । सिर्फ साधु का स्थान हैं । ऐसी साधना होगी तब सही अर्थ में नमनीय, वंदनीय, स्तवनीय, पूजनीय बन सकते हैं | ऐसा महान साधु पद क्या आपको ध्यान में आया? कोई आपको गुजरात का मिनिस्टर बनने का कहें और मैं आपको कहूं कि आपको साधु बनना हैं तो आप किसको चुनोगे? पूणिया श्रावक को मगध नरेश श्रेणिक महाराजा कहते हैं "मैं तुम्हें आधा मगध राज्य देता हूं । तुम मुझे अपनी एक 'सामायिक दे दो ।" पूणिया श्रावक कहता हैं "मुझे सामायिक के बदले राज्य नहीं चाहिये ।" जिससे मोक्ष मिले ऐसी सामायिक के बदले में नरक देनेवाला राज्य कौन लेगा । साधु पद को प्राप्त न कर सको तो अपने हृदय में तो साधु पद बिठाना चाहिये । यही अभिलाषा । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 89 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति jaipelibrary.org Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ BPCOCAPIANRAS जैन साहित्य में द्वारिका - डॉ. तेजसिंह गौड़, उज्जैन कुछ वर्षों पहले द्वारिका के सम्बन्ध में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कुछ लिखा गया था। उसमें जैन स्रोत को तो लगभग छोड़ ही दिया था। द्वारिका की खोज के लिये एक अभियान भी चला था। उस सम्बन्ध में भी कुछ पढ़ने को मिला था किंतु बाद में उस अभियान का क्या हुआ? कुछ जानकारी नहीं मिल पाई। प्रस्तुत लेख में द्वारिका विषयक जो विवरण जैन साहित्य में मिलता हैं, उसे यहां प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा हैं। द्वारका का निर्माण :- जरासंध से विग्रह के कारण आनेवाली विपत्ति के विषय में समुद्रविजय (तीर्थकर अरिष्टनेमि के पिता) ने निमितज्ञ से पूछा कि उसका परिणाम क्या होगा ? निमितज्ञ क्रोष्टुकी ने बताया कि बलराम और श्रीकृष्ण जरासंध का वध करने के पश्चात् तीन खण्ड के अधिपति होंगे किंतु अभी यहाँ रहना आप सबके हित में नहीं है | आप यहाँ से पश्चिय दिशा के समुद्र की ओर चले जाओ । मार्ग में सत्यभामा जहाँ एक साथ दो पुत्रों को जन्म दे, वहीं नगर बसाकर रहना । वहाँ आपका कोई अहित नहीं कर सकेगा। निमितज्ञ क्रोष्टुकी के इस भविष्य कथन को सुनकर समुद्रविजय ने उग्रसेन सहित सौर्यपुर से प्रस्थान कर दिया। मार्ग में उन्हें जरासंध के पुत्र कालकुमार के अग्नि में भस्म होने की बात विदित हुई । उस पर वे प्रसन्न हुए । एक स्थान पर उन्होंने पड़ाव डाला । संयोग से वहां अतिमुक्त नामक चारणमुनि का पदार्पण हुआ। समुद्रविजय ने श्रद्धाभक्ति के साथ मुनिश्री को वंदन किया और अपनी विपत्ति का परिणाम पूछा। मुनिश्री ने आश्वासन देते हुए फरमाया कि उन्हें चिंतित अथवा भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है । उनका पुत्र अरिष्टनेमि बाईसवां तीर्थकर है । वह महान् पराक्रमी और भाग्यशाली है । बलराम एवं श्रीकृष्ण बलदेव और वासुदेव हैं । ये द्वारिका नगरी बसायेंगे और जरासंध को मारकर तीन खण्ड के अधिपति होंगे। समुद्रविजय आदि वहां से चलकर सौराष्ट्र में आये। वहां रैवत पर्वत के निकट उन्होंने अपना पड़ाव डाला। यहां सत्यभामा ने दो युगल पुत्रों को जन्म दिया। श्रीकृष्ण ने दो दिन का उपवास कर लवण समुद्र के अधिष्ठाता सुस्थितदेव का एकाग्रचित्त हो ध्यान किया। सुस्थितदेव प्रकट हुए और उन्होंने श्रीकृष्ण को पांचजन्य शंख, बलराम को सुघोषशंख के साथ दिव्य रत्न एवं वस्त्रादि भेंट किये। साथ ही देव ने श्रीकृष्ण से स्मरण करने का कारण भी पूछा। श्रीकृष्ण ने कहा – “पहले के अर्द्धचक्रियों की द्वारिका नगरी को आपने अपने अंक में छिपा लिया है । अब कृपा कर वह मुझे फिर दीजिये । इस पर वहाँ से देव ने समग्र जलराशि हटाली और शक्र की आज्ञा से वैश्रवण ने बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी द्वारिका नगरी का एक अहोरात्र में निर्माण कर दिया । यह नगरी सभी प्रकार से समृद्ध थी । यादवों ने शुभ मुहूर्त में नगरी में प्रवेश किया और सुखपूर्वक रहने लगे। द्वारका की अवस्थिति :- द्वारिका की अवस्थिति के सम्बन्ध में निम्नानुसार विवरण मिलता है तस्या पुरो रैवतकोऽपाच्यामासीतु माल्यवान् । सौमनसोऽद्रि प्रतीच्यामुदीच्यां गन्धमादनः ।। इसके अनुसार द्वारिका के पूर्व में रैवत पर्वत, दक्षिण में माल्यवान पर्वत, पश्चिम में सौमनस पर्वत और उत्तर में गन्धमादन पर्वत था । तात्पर्य यह कि द्वारिका चारों ओर से पर्वतों से घिरी होने से सुरक्षित थी, अजेय थी। शत्रुओं का कोई भय नहीं था, वह दुर्भेद्य थी । ज्ञाताधर्म कथांग, में द्वारिका के सम्बन्ध में जो विवरण मिलता है, उसके अनुसार द्वारिका पूर्व-पश्चिम में लम्बी हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 90 हेमेन्द्रज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन पंथ और उत्तर दक्षिण में चौड़ी थी । नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी थी। वह कुबेर की मति से निर्मित हुई थी । सुवर्ण के श्रेष्ठ प्रकार से और पंचरंगी नाना मणियों के बने कंगूरों से शोभित थी । इस विवरण से आगे बताया गया है कि द्वारिका नगरी के बाहर उत्तर पूर्व दिशा अर्थात् ईशान कोण में रैवतक नामक पर्वत था । अंतकृद्-दशा में द्वारिका के सम्बन्ध में जो विवरण मिलता है, वह ज्ञाताधर्म कथांग के समान ही है। वृहत्कल्प में लिखा है कि द्वारिका के चारों ओर पत्थर का प्राकर था"। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार द्वारिका बारह योजन आयामवाली और नौ योजन विस्तृत थी । वह रत्नमयी थी । उसके आसपास 18 हाथ ऊंचा नौ हाथ भूमिगत और बारह हाथ चौड़ा सब और से खाई से घिरा हुआ किला था । चारों दिशाओं में अनेक प्रासाद और किले थे । रामकृष्ण के प्रासाद के समीप प्रभासा नामक सभा थी । उसके पास पूर्व में रैवतक गिरि, दक्षिण में माल्यवान पर्वत, पश्चिम में सोमनस पर्वत और उत्तर में गंधमादन पर्वत थे। _ हेमचन्द्राचार्य आचार्य शलांक" देवप्रभरि आचार्य जिनसेन,” आचार्यगुणभद्र आदि जैन विद्वान द्वारिका की अवस्थिति समुद्र किनारे मानते हैं । वैदिक पुराण हरिवंशपुराण” विष्णुपुराण" और श्रीमद् भागवत” के विवरण के अनुसार भी द्वारिका समुद्र के किनारे पर बसी हुई थी । आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनिजी म.सा. नेद्वारिका की अवस्थिति के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों की मान्यताओं का उल्लेख किया है । वही हम यहां उद्धृत कर रहे हैं । यथा - 1. रायस डेविड़स ने द्वारका को कम्बोज की राजधानी लिखा है । 2. पेतवत्थु में द्वारका को कम्बोज का एक नगर माना है । डाक्टर मलशेखर ने प्रस्तुत कथन का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है सम्भव है यह कम्बोज ही कंसभोज हो, जो अंधकवृष्णि के दश पुत्रों का देश था । 3. डॉ. मोतीचन्द्र कम्बोज को पामीर प्रदेश मानते हैं और द्वारका को बदरवंशा से उत्तर में अवस्थित दरवाज नामक नगर रहते हैं । घट जातक का अभिमत है कि द्वारका के एक ओर विराट समुद्र अठखेलियां कर रहा था तो दूसरी ओर गगनचुम्बी पर्वत था । डॉ. मलशेखर का भी यही अभिमत रहा है । 5. उपाध्याय भरतसिंह के मन्तव्यानुसार द्वारका सौराष्ट्र का एक नगर था । सम्प्रति द्वारका कस्बे से आगे बीस मील की दूरी पर कच्छ की खाड़ी में एक छोटा-सा टापू है । वह एक दूसरी द्वारका है जो 'बेट द्वारका' कही जाती है । माना जाता है कि यहां पर श्रीकृष्ण परिभ्रमणार्थ आते थे । द्वारका और बेट द्वारका दोनों ही स्थलों में राधा, रुक्मिणी, सत्यभामा आदि के मन्दिर हैं । 6. बाम्बे गजेटीअर में कितने ही विद्वानों ने द्वारका की अवस्थिति पंजाब में मानने की सम्भावना की है । 7. डॉ. अनन्त सदाशिव अल्तेकर ने लिखा है- प्राचीन द्वारका समुद्र गई, अतः द्वारका की अवस्थिति का वर्णन करना संशयास्पद है । 8. पुराणों के अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि महाराजा रैवत ने समुद्र के मध्य कुशस्थली नगरी बसाई थी । वह आनर्त जनपद में थी । वही कुशस्थली श्रीकृष्ण के समय द्वारका या द्वारवती के नाम से पहचानी जाने लगी। आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्रमुनिजी ने आगे लिखा है - श्वेताम्बर तेरापंथी जैन समाज के विद्वान मुनि रूपचन्दजी ने जैन साहित्य में द्वारका शीर्षक लेख में लिखा है - "घटजातक के उल्लेख को छोड़कर आगम साहित्य तथा महाभारत में द्वारका का रैवतक पर्वत के सन्निकट होने का अवश्य उल्लेख है, किंतु समुद्र का बिलकुल नहीं । यदि वह समुद्र के किनारे होती तो उसके उल्लेख न होने का हम कोई भी कारण नहीं मान सकते। घटजातक हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 91 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द ज्योति Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ के अपर्याप्त उल्लेख को हम इन महत्वपूर्ण और स्पष्ट प्रमाणों के सामने अधिक महत्व नहीं दे सकते । दूसरे में द्वारका के पास समुद्र न होने का हमें एक और आगमिक प्रमाण मिलता है । जब श्रीकृष्ण को यह पता चलता है कि लवण समुद्र के पार धातकी खण्ड में अमरकंका के नरेश पद्मनाथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण कर लिया गया है तब वह पांचों पाण्डवों से कहते हैं कि तुम लोग अपनी सेना सहित पूर्व वेताली पर मेरी प्रतीक्षा करो, मैं अपनी सेना सहित तुमसे वहीं मिलूंगा । पूर्व निश्चयानुसार श्रीकृष्ण पाण्डवों से वहीं पर पूर्व वेताली में मिलते हैं और वहां से लवण समुद्र पार कर अमरकंका पहुंचते हैं । यदि द्वारका समुद्र किनारे होती, तो उन्हें द्वारका छोड़ पूर्व वेताली से समुद्रपार करने की कोई जरूरत नहीं होती ।" उसके उत्तर में कहा जा सकता है कि जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य में अनेक स्थलों पर द्वारका के सन्निकट समुद्र होने का उल्लेख हुआ है । ऐसी स्थिति में उपर्युक्त कथन युक्ति युक्त प्रतीत नहीं होता । रहा प्रश्न अमरकंका गमन का, सम्भव है इसके पीछे कुछ अन्य कारण रहा हो । इस कारण से ही द्वारका को समुद्र के किनारे नहीं मानना तर्क संगत नहीं है । द्वारिका के विनाश की भविष्यवाणी:- जरासंध के वध के पश्चात् श्रीकृष्ण ने तीन खण्ड की साधना कर चारों ओर अपनी विजय पताका फहरा दी और द्वारिका आकर सुखपूर्वक तीन खण्ड का राज करने लगे। भगवान अरिष्टनेमि विचरण करते हुए द्वारिका पधारे । श्रीकृष्ण उनकी सेवा में पहुंचे । वंदन करने के पश्चात् श्रीकृष्ण ने पूछा - "भगवन बारह योजन लम्बी और नव योजन चौड़ी साक्षात् देवलोक के समान उस द्वारिका नगरी का विनाश किस कारण से होगा? अरिहंत भगवान अरिष्टनेमी ने उत्तर दिया - हे कृष्ण ! निश्चय ही बारह योजन लम्बी और नव योजन चौड़ी स्वर्गपुरी के समान इस द्वारिका नगरी का विनाश मदिरा, अग्नि और द्वैपायन ऋषि के कोप के कारण होगा। द्वारिका के भविष्य कथन को सुनकर श्री कृष्ण चिंतित हो गये । उन्होंने सोचा कि वे स्वयं तो दीक्षा नहीं ले सकते। भगवान् अरिष्टनेमी ने उनके मनोगत भावों को जानकर कहा कि तुम्हारा विचार सत्य है । वासुदेव दीक्षा लेने में समर्थ नहीं होते । इस पर श्रीकृष्ण ने पुनः जिज्ञासा प्रकट की कि वे उस शरीर का त्याग कर कहां जायेंगे? भगवान् ने बताया जिस समय द्वारिका का विनाश होगा उस समय तुम दक्षिण दिशा के किनारे बसी पाण्डु मथुरा जाने के लिए निकलोगे किंतु मार्ग में जराकुमार के बाण से तुम्हारी मृत्यु होगी और तुम काल कर तृतीय पृथ्वी में उत्पन्न होओगे और उत्सर्पिणी काल में अमय नामक तीर्थकर बनोगे। उधर द्वैपायन ऋषि ने भी भगवान की भविष्यवाणी सुनी । द्वारिका और यादवों की रक्षा के लिये वे वन में चले गये। श्रीकृष्ण ने द्वारिका में आकर मदिरापान निषिद्ध कर दिया और विद्यमान मदिरा कदम्बवन के मध्य कादम्बरी गुफा के समीपवर्ती शिलाकुण्डों में फिंकवा दी । श्री कृष्ण ने भले ही मद्य निषेध कर मदिरा को अन्यत्र डलवा दिया हो किंतु जो होनहार होती है, वह टलती नहीं है । जहां पर मदिरा डाली गई थी, वहां विविध प्रकार के सुगन्धित पुष्पों के पेड़ पौधे थे। उन पुष्पों की सौरभ से वह मदिरा पूर्व से भी अधिक स्वादिष्ट हो गई । संयोग ही कहा जायेगा कि वैशाख मास में शाम्बकुमार का एक अनुचर भ्रमण करता हुआ उस ओर पहुंच गया । उसे प्यास लगी तो उन कुण्डों में से एक की मदिरा पानी समझ कर पी गया । वह मदिरा उसे स्वादिष्ट लगी तो उसने कुछ मदिरा एक पात्र में भरी और उसे लेकर शाम्बकुमार के पास पहुंचा । शाम्बकुमार उस स्वादिष्ट मदिरा को पीकर अतिप्रसन्न हुआ । उसने मदिरा के प्राप्ति स्थान के बारे में पूछा। द्वैपायन ऋषि को मारना :- शाम्बकुमार को उसके अनुचर ने मदिरा प्राप्ति का स्थान बता दिया । शाम्बकुमार यादव कुमारों को लेकर कादम्बरी गुफा के निकट आया । उन्होंने वहां मदिरापान किया और इधर उध र घूमने लगे। उसी अनुक्रम में उन्होंने द्वैपायन ऋषि को ध्यान मुद्रामें देखा । द्वैपायन ऋषि को देखते ही उन्हें स्मरण हो आया कि यही ऋषि द्वारिका का विनाश करने वाला है । इसे मार दिया जाय तो द्वारिका विनाश से बच हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 92 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Seasanalalse Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था जायेगी। यही सोचकर यादव कुमारों ने ऋषि पर लकड़ियों, पत्थरों आदि से प्रहार करना शुरू कर दिया। द्वैपायन ऋषि गिर पड़े। यादवकुमार उन्हें मृत जानकर वहां से द्वारिका आगए । जब श्रीकृष्ण को इस घटना की जानकारी मिली तो उन्हें अत्यधिक पश्चाताप हुआ। वे क्षमायाचना के लिये द्वैपायन ऋषि के पास भी गये। द्वारिकावासियों से धर्माराधना के लिये आग्रह भी किया। श्रीकृष्ण भगवान अरिष्टनेमि की सेवा में भी गये और उन्होंने वहां द्वारिका विनाश की अवधि भी पूछी। भगवान अरिष्टनेमी ने फरमाया कि द्वारिका का दहन द्वैपायन ऋषि बारहवें वर्ष में करेंगा । द्वैपायन ऋषि मरकर अग्निकुमार देव के रूप में उत्पन्न हुआ। वह अपने वैर के कारण द्वारिका में आया। इस समय द्वारिकावासी आयंबिल, उपवास, बेले, तेले आदि तपाराधनाएं कर रहे थे। इस कारण वह देव कुछ नहीं कर पाया। बारहवाँ वर्ष आया । द्वारिकावासियों ने सोचा कि उनकी तप तथा धर्माराधना के कारण द्वैपायन चला गया है। सब जीवित रह गये। ऐसा सोचकर वे स्वेच्छा पूर्वक आनन्दमय जीवन व्यतीत करने लगे। इतना ही नहीं वे मद्यपान और मांसाहार भी करने लगे। द्वारिका का विनाश :- जब द्वैपायन के देव ने द्वारिकावासियों की स्थिति देखी तो उचित अवसर जानकर उसने अंगारों की वृष्टि की । इससे श्रीकृष्ण के सभी अस्त्र-शस्त्र जलकर नष्ट हो गये । उसके संवर्त वायु के प्रयोग से जंगल का घास और काष्ठ द्वारिका में एकत्र हो गया । तत्पश्चात प्रलयकारी अग्नि प्रज्वलित हुई । लोग भागने लगे तो द्वैपायन उन्हें पकड़कर अग्नि में डाल देता । श्रीकृष्ण और बलदेव ने वसुदेव, देवकी और राहिणी को द्वारिका से बाहर निकालने के लिये रथ में बैठाया तो द्वैपायन ने अश्वों को स्तम्भित कर दिया । श्रीकृष्ण स्वयं रथ खींचने लगे तो रथ टूट गया । माता-पिता की करुण पुकार सुन श्रीकृष्ण बलराम उनके रथ को द्वारिका के दरवाजे तक ले आये किंतु उसी समय द्वार बन्द हो गये। उनके प्रयास विफल रहे । वे निरर्थक श्रमकर रहे थे तभी द्वैपायन उनके समीप आकर बोला कि क्यों व्यर्थ परिश्रम कर रहे हो । मैंने पहले ही वह दिया था कि तुम दोनों के अतिरिक्त कोई भी जीवित नहीं बचेगा । वसुदेव, देवकी और रोहिणी ने श्रीकृष्ण और बलराम से अन्यत्र चले जाने का आग्रह किया और उन्होंने संथारा ग्रहण कर लिया । विवश होकर श्रीकृष्ण और बलराम द्वारिका से चल दिये । द्वारिका जलकर विनष्ट हो गई। इस प्रकार द्वारिका का विनाश हो गया। निष्कर्ष : इस संक्षिप्त विवरण के पश्चात् द्वारिका के सम्बन्ध में हम निम्नांकित निष्कर्ष निकाल सकते हैं1. द्वारिका के दो बार विनाश होने का विवरण मिलता है । 2. द्वारिका एवं समीपवर्ती क्षेत्र भगवान अरिष्टनेमी एवं श्रीकृष्ण का कर्म क्षेत्र रहा । 3. वर्तमान द्वारिका और बेट द्वारिका में और उसके समीपवर्ता क्षेत्रों में श्रीकृष्ण से सम्बन्धित अनेक स्थान बताये जाते हैं । जिससे द्वारिका उसी क्षेत्र में होनी चाहिये । 5. इस विषयक और अनुसंधान अपेक्षित है । जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य के संदर्भ में इस पर अनुसंधान की आवश्यकता है । प्राचीन द्वारिका के अवशेषों की खोज समुद्र में हो रही थी । इस खोज को निरन्तर रखा जाना चाहिये ताकि वास्तविक तथ्य स्पष्ट हो सकें। आशा ही नहीं विश्वास है कि उस दिशा में कोई ठोस प्रयास होगा । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 93 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 3. संदर्भ 1. त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित 815/360-362 2. वही, 8/5/386-387 वही, 8/5/388-389 4. जैनधर्म का मौलिक इतिहास भाग 1 - 406, 345 5. वही, पृष्ठ 345 6. त्रिषष्टि 8/5 /418 7. ज्ञाताधर्मकथांक -5/2 पृष्ठ 156 8. वही, 5/3 पृष्ठ 156 9. अन्तकृदशा 1/5 पुष्ठ 9 10. वृहत्तकल्प भाग 2 पृष्ठ 251 11. भगवान अरिष्टनेमी और श्रीकृष्ण पुष्ठ 361 12. त्रिषष्टि 8/5/92 13. चउपन्न महापुरिसचरियं 14. पाण्डव चरित्र 15. हरिवंशपुरण 41/18-19 16. उत्तरपुराण 71/20-23 17. हरिवंशपुराण 2/54 18. विष्णुपुराण 5/23113 19. श्रीमद् भागवत 10/50/50 20. भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण पुष्ठ 359-360 21. वही पृष्ठ 363-364 22. त्रिषष्टि 8/8/28 एवं हरिवंशपुराण 53/41-42 पृ. 606 23. अन्तकृद्दशा 5/1 पृष्ठ 95 24. वही, पृष्ठ 95 25. वही, पृष्ठ 98-99 26. भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण पृष्ठ 328 27. त्रिषष्टि 8/11/12-13 28. से 31 वही 8/11/19-22, 23-30, 42-61 32. भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण पृ. 331-332 एल. 45, कालिदास नगर, पटेल कालोनी, अंकपात मार्ग, उज्जै न -456 006. (म. प्र.) हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 94 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Jimedicate Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जैन पर्व : प्रयोग और प्रासंगकिता - श्रीमती डॉ. अलका प्रचंडिया प्राण धारियों में मनुष्य एक श्रेष्ठ प्राणी है । इसकी श्रेष्ठता का मुख्य कारण है, उसमें निहित ज्ञान और श्रद्धान पूर्वक तप और संयम करने की अमोघ शक्ति और सामर्थ्य | इसी शक्ति के आधार पर वह अपनी आत्मिक और आध्यात्मिक विकासयात्रा को पूर्ण करता है । इसी आधार पर उसकी सांस्कृतिक और सामाजिक उन्नति प्रभावित होती है। श्रम मनुष्य में स्वावलम्बन के संसार उत्पन्न करते हैं। कोई भी जागतिक अथवा आध्यात्मिक कार्य सम्पादन श्रम साधना पर निर्भर करता है । सम्यक् श्रम-साधना श्रमी को उन्मार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्रदान करती है । जीवन जीना एक कला है । हृदय के साथ किया गया श्रम कला का प्रवर्तन करता है । इसी कला के पूर्ण विकास और प्रकाश से सम्पन्न करने में पर्व की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । पर्व के प्रयोग और उसकी प्रांसगिकता विषयक संक्षिप्त अनुशीलन प्रस्तुत करना यहां हमारा मूल अभिप्रेत है । पर्व और त्योहार समानार्थी बन कर प्रयोग में प्रायः आते हैं । पर्व और त्योहार के आर्थिक स्वरूप में पर्याप्त अन्तर है । त्योहार हमारे बाह्य जीवन और जगत में अपूर्व उत्साह और उल्लास का संचार करते हैं । पर्व हमारे आत्मिक और आध्यात्मिक जीवन में प्रकाश और विकास को पूर्णता प्रदान करते हैं । त्योहार यदि हमारे बाह्य जीवन को प्रभावित करते हैं तो पर्व से हमारा आन्तरिक जीवन आलोकित होता हैं । चातुर्मास, पर्युषण, दीपावली, संवत्सरी गौतम प्रतिपदा, ज्ञानपंचमी, मौन एकादशी आदि पर्व की कोटि में परिगणित किये जाते हैं । उन्हें आध्यात्मिक पर्व भी कहा जाता हैं । सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से अनेक त्योहार हैं | नवीन संवत्सर, रक्षाबंधन, श्राद्ध अर्थात् देव, गुरु और धर्म के प्रति सच्चा श्रद्धान, विजयदशमी, धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन व नाम गौतम प्रतिपदा, भैयादूज, वसंत पंचमी, श्रुतपंचमी, तथा होली आदि त्योहार उल्लेखनीय हैं । चातुर्मास : आषाढ़ी पूनम से कार्तिक पूनम तक चार महीने की सुदीर्घ अवधि तक जैन साधु-साध्वी एक ही स्थान पर निवास करते हैं । अपरिग्रही श्रमण संत सदा पदयात्री होते हैं। वे असंग भाव से विहार करते हैं, आहार ग्रहण करते हैं और लोगों को जीवन सफलता हेतु कल्याणकारी शुभ उपदेश देते हैं । उस दीर्घ अवधि में ये संत ध्यान साधना स्वाध्याय और लेखन में मनोयोग पूर्वक प्रवृत्त होते हैं । अब यहाँ कतिमय प्रमुख पर्व और त्योहारों पर चर्चा करेंगे । पर्युषण : यह आत्मिक जागरण का पर्व है । यह पर्व आठ और दश दिवसीय अवधि में भक्ति भावना पूर्वक मनाया जाता है । आठ दिवसीय पर्युषण पर्व का आधार अष्टान्हिका है जो वर्ष में चार बार मनाया जाता है । भाद्रवा में उसे पर्युषण कहते हैं । व्रत विधान तथा पूजा-पात्र परायण हम उस पर्व को उत्साह पूर्वक सम्पन्न किया जाता है । उस अवसर पर आत्मा के राग-द्वेष आदि विकारों की उपशान्ति करना होता है । अन्त में आन्तरिक भाव और भावना से किए गये दोषों के प्रति प्रतिक्रमण करने की पद्धति प्रचलित है । जहाँ यह पर्व दश दिवसीय अवधि का मनाया जाता हैं वहां प्रत्येक दिन धर्म के दश लक्षणों का क्रमशः चिन्तवन किया जाता है । उस प्रकार उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य तथा ब्रह्मचर्य हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 95 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Phot Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का क्रमशः आराधन किया जाता है । अन्त में क्षमावाणी अर्थात् एक-दूसरे से विगत में बन पड़े अपराधों के प्रति क्षमायाचना करते-कराते हैं । व्रत-विधान, पूजन आरती करके भक्ति भावना पूर्वक उस पर्व को सम्पन्न किया जाता है । उसे दशलक्षणी पर्व भी कहते हैं। यहां यह पर्व वर्ष में तीन बार आता है पर भाद्रपद में ही उनकी आराधना की जाती हैं । संवत्सरी : महापर्व का आठवां पूर्णाहुति दिवस है। संवत्सरी । इस अवसर पर मनुष्य सहज भाव से अपनी भूलों पर पश्चाताप करता हुआ दूसरों से क्षमायाचना करता है। मन में भरा वैरभाव मिटाकर प्रसन्नता पूर्वक अपूर्व आनन्द का अनुभव करता है। तन की शुद्धि, मन की शुद्धि, प्रतिक्रमण आलोयणा अर्थात् मन की गांठों का खुलना तथा क्षमापना इस पर्व के प्रमुख अंग हैं। इसी को कुछ जैन क्षमावाणी दिवस के रूप में मनाते हैं। परम्पर में क्षमा याचना करते हैं। संवत्सरी सचमुच आत्मा की दीवाली हैं । गौतम प्रतिपदा : दीपावली के पश्चात् कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा नववर्ष का शुभ दिन है। इस दिन इन्द्रभूति गौतम को केवलज्ञान प्राप्त हुआ था । दीपावली के पश्चात् गौतम अर्थात् गणेशजी के नाम का स्मरण किया जाता हैं । गौतम अक्षय लब्धि के भण्डार थे । सर्व प्रकार के विघ्न विनाशक, अक्षय लब्धि के निधान गौतम स्वामी को नमस्कार किया जाता है । श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ । प्रतिपदा का अर्थ है प्रत्येक पद । हर कदम पर गौतम की भांति संचेत रहना, विनम्र होना, गुण गरिमा से सम्पन्न होना, तथा सुख और समृद्धि की प्राप्ति होना, वस्तुतः गौतम प्रतिपदा का सन्देश है। ज्ञान पंचमी : ज्ञान पंचमी के मूल में भाई दौज का माहात्म्य अन्तर्भुक्त है। कहते है भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् बड़े भाई राजा नन्दीवर्धन शोकमग्न, बिना खाये पिये उदास बैठे रहते हैं तब उनकी बहिन सुदर्शना अपने भाई के घर आई और अपने हाथ से भाई को खिलाया पिलाया । कहते हैं इस अवसर पर ग्रंथ / शास्त्र लेखन का प्रयास किया गया । श्रुत सेवा ने जिन शासन की गरिमा और महिमा को आज तक अक्षुण्ण रखा है। श्रुत आराधना से प्राणी ज्ञानी बनता है। क्लेशों तथा कष्टों से विमुक्त होता है । इस अवसर पर जिनवाणी की आराधना सेवा और निम्न शुभ संकल्प लेना चाहिये । 1. ज्ञान के साधन शास्त्र, ग्रंथ तथा ज्ञानदाता गुरु के प्रति आदर भाव रखना । ज्ञान प्राप्त्यर्थ विनय शील बनना तथा जिज्ञासु होकर हर अच्छी और सच्ची बात को ग्रहण करना । ज्ञान प्रसंग और प्रचार में अपने पुरुषार्थ तथा आर्थिक सहयोग का दान करना । इस पर्व की आराधना करने से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयारम्भ होता है । अन्तर में ज्ञान का प्रकाश हमारे चारित्र में प्रकट होता है जीवन को ज्ञान से आलोकित करना ही सबसे बडी ज्ञान पूजा हैं । 2. 3. मौन एकादशी : मौन मन अन्तरंग का तप है। यह वचन का भी तप है मौन युक्त उपवास होने से मन, वचन, काया तीनों योगों से तप की आराधना हो जाती हैं। मन का तप है इन्द्रिय संयम तथा उपवास बारसी का तप है मौन और जप तथा मन का तप है ध्यान / एकाग्रता । इन तीनों का मिलन है मौन एकादशी व्रत । हेमेजर ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 96 हेमेउच ज्योति मेजर ज्योति ersonal Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन है ग्रंथ मौन का माहात्म्य तब सम्भव होता है जब हम विवेकपूर्वक वचन का संवरण करें। पूर्ण मौन का अर्थ है मन की विकल्प शून्य अवस्था, निर्विकल्पता । मौन एकादशी पर चुपचाप बैठे रहने का दिन नहीं, किन्तु मन से, वचन से अरिहंत प्रभु का स्मरण करने का, ध्यान और जप करने का दिन है । तन संयम, मन संयम और वचन संयम के लिये हमें मौन साधना में प्रवृत्त होना परम आवश्यक है । विखरेषु वाणी । वाक् व्यवहार एक शक्ति है। इसीसे अभिव्यक्ति होती है। अभिव्यक्ति में शक्ति का संचार मौन साधना से सम्भव है । वचन का विवेक वस्तुतः मौन का मुख्य आधार है । इन आत्मिक और आध्यात्मिक विकास के पर्वो पर चिन्तवन के उपरान्त कतिमय त्योहारों पर हम संक्षेप में विचार करेंगे। नवीन संवत्सर : चैत्र शुक्ला प्रतिपदा के प्रभात में यह पर्व द्वार-द्वार दस्तक देता है । सुन्दर भविष्य निर्माण की पवित्र प्रेरणा देता है । चैत्र मास में चित्रा नक्षत्र का रंग विरंगा रूप अन्तर्भुक्त है । T इसी मास में आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव तथा अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर चैत्र मास में ही उत्पन्न हुये थे। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भी चैत्र मास में ही उत्पन्न हुये । इस प्रकार चैत्र चिन्तन का महीना है । रक्षा बंधन : रक्षा का अर्थ है प्रेम, दया, सहयोग और सहानुभूति । रक्षा मानव मन की पवत्रिता का पावन प्रतीक है। जैन संस्कृति में विष्णुमुनि की कथा का उल्लेख उपलब्ध है। विष्णुकुमार मुनि संघ रक्षा के लिये अपनी ध्यान साधना को गौण करके दुष्टों को सन्मार्ग पर लाने की शिक्षा देने के लिए उपस्थित हुये। कथा में विष्णु रक्षक हैं। विष्णु का अर्थ और अभिप्राय है व्यापक । जो विराट रूप धारण कर सके और संतप्त प्राणियों की रक्षा कर सके वह है विष्णु । I रक्षाबंधन की प्रासंगिकता आज धर्म, देश के साथ-साथ बहिन की सुरक्षा में समाहित है। आज का समुदाय समता और शील संस्कारों से शून्य हो गया है । ऐसी स्थिति में आज देश की प्रत्येक बहिन अपने भाई के पौरुष की अभ्यर्थना कर रही है ताकि उसके शील और सौभाग्य की रक्षा हो सके । यही है इस पर्व की अर्थ आत्मा । हम दुःखियों के दुःख दर्द में सहयोगी बनें, तभी विश्व में सुख और शान्ति का सागर ठाटें मारने लगेगा । प्राणिमात्र की रक्षा के लिए आओं बंध जायें । विजयदशमी : आश्विन शुक्ल दशमी का दिन भारतीय समाज में विजयदशमी त्योहार के रूप में समाहत है। इसे विजयपर्व, दशहरा, दुर्गापूजा के नामों से भी जाना जाता है । दशहरा का सामान्य अर्थ है दश का नाश करने वाला । दशकन्धर अर्थात् रावण का विनाश उस कथा का मूलाधार है। राम और रावण का विकास और विनाश का वैचारिक विवरण इस त्योहार का मूलाभिप्रेत है । राम न्याय नीति और सदाचार के प्रतीक हैं जबकि रावण अन्याय अनीति दुराचार तथा अहंकार का प्रतिनिधि है । व्यक्ति चाहे जितना बलवान क्यों न हो, सत्ताधीश और धनवान क्यों न हो, अनीति और अनाचार के कारण वह सामान्य व्यक्ति के सामने भी पराजित हो जाता है । विजय दशमी का त्योहार जिस दिव्य सन्देश को समेटे हुये हैं उसका मूल स्वर साहस, संकल्प, सत्य, संयम, सदाचार, संतोष आदि गुणों में समाहित हैं। यदि वह हमारी ज्ञान और ध्यान चेतना में मुखर हो उठे तो मोह, मूढ़ता मद और मूर्च्छा का विनाश कर हम संसार में आत्म विजय के सच्चे भागीदार बने सकें । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 97 हेमेन्द्र ज्योति मेजर ज्योति Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ पंचपर्वी त्योहार : पंचपर्वी त्योहार में धनतेरस, नरक, चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा तथा भैय्या दूज का समवाय विद्यमान है। इन त्योहारों के आर्थिकमर्म पर हम संक्षेप में चर्चा करेंगे । धनतेरस की मूलात्मा धन्वन्तरि में समाविष्ट है | धन्वन्तरि देवताओं के चिकित्सक हैं । वैद्य शब्द का अर्थ ही है - जो दूसरों की वेदना पीड़ा को जानता हो, वह है वैद्य । वैद्य प्राणियों के शरीर के रोगों की चिकित्सा कर उन्हें शान्ति पहुंचाता है, भगवान प्राणियों के आध्यात्मिक मानसिक रोगों की चिकित्सा करते हैं, उनके जन्म-मरण जरा-शोक की व्याधि दूर करने वाले महावैद्य हैं । लोक मान्यता है कि धनतेरस का अर्थ धन की वर्षा से ही हैं । इस दिन लोग प्रायः चांदी, तांबे, स्टील के बर्तन खरीदकर धनतेरस मनाते हैं, किन्तु असली धनतेरस है दुःखियों के दुःख दर्द दूर करने का संकल्प लेना चाहिए। धन तेरस धन्वन्तरि का जन्म दिन हमें इस आदर्श की प्रेरणा देता है कि संसार में आये हो तो प्रेम का, सेवा का अमृत बांटो, दूसरों के दुःखदर्द पीड़ा दूर करो । पंचपर्वी त्योहारों में धन तेरस निःस्वार्थ और निरपेक्ष भाव से परोपकार पर-सेवा का संकल्प लेना चाहिये । जो परोपकार करने में सक्रिय होता है लक्ष्मी स्वयं चलकर उस के घर द्वार आकर दस्तक देती है। नरक चतुर्दशी : धनतेरस के अगले दिन चौदस हीं नरक चतुर्दशी कही जाती है । नरक उस स्थान को कहते हैं जहां प्राणी को सुख और चैन, तथा आनन्द की अनुभूति नहीं होती हैं । जहां सदा अंधकार बना रहता है । वहां रवि शशि की किरणें नहीं पहुंचती हैं। तन उजला करने पर यदि मन मैला है तो उसे स्वच्छता नहीं कहा जा सकता । अन्तर की निर्मलता के लिये हमें दूसरों की निन्दा, चुगली, ईर्ष्या का कूड़ा पड़ा हो, काम-क्रोध की अशुचि सड़ रही हो तो मन पवित्र कैसे होगा? मन की निर्मलता तभी सम्भव है जब परोपकार का, सेवा का, दीन दुःखियों के दुःख दर्द दूर करने का संकल्प किया, सेवा की तब धन -तेरस मन गई । जैन त्योहार की अपनी गरिमा है और है उसकी अपनी महिमा । यहां शौच ही नहीं उत्तम शौच पर विचार किया गया है । मन से नरक मिट जाय, विचार से नरक टरक जाय तथा घर-द्वार से नरक निकल जाय तभी नरक चतुर्दशी त्योहार मनाने की सार्थकता है । दीपपर्व : दिवाली कार्तिक कृष्णा अमावस्या को मनाई जाती है। सघन अंधकार को उजाले में बदलने के लिए माटी के दिये जलाने का विधान है । प्रकाश ज्ञान का प्रतीक हैं । समाज, राष्ट्र का सम्यक संचालन के लिये धन की आवश्यकता असंदिग्ध है । इसीलिए दिपावली पर गणेश और लक्ष्मी की पूजा की जाती है । लक्ष्मी और गणेश क्रमशः पवित्रता और गम्भीरता चाहते हैं । गणेश का लम्बोदर सहनशीलता की प्रेरणा देता है । लम्बे कान वाला अच्छा श्रावक होता है । कान का पक्का होना आवश्यक है । बड़ा शिर माथा चिन्तनशीलता का प्रतीक है | समाज की प्रत्येक चिन्ता का समाधान यही विशाल शिर तथा विशाल माथा है । छोटी जीभ गणेश के जीवन की सार्थकता है । नेता का वाचाल होना एक प्रकार का दोष है। बड़ी जीभ का होना बड़ा घातक होता है, इसलिये नैतिक शास्त्र में जिव्हा पर संयम रखने का निर्देश दिया गया है । हेमेन्त ज्योति हेमेन्र ज्योति 98 हेमेन्द ज्योति हेगेन्द ज्योति । FaTRAiruppily Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था चूहे की सवारी स्पष्ट करती है कि नेता में व्यवस्था पटुता की अद्भुत क्षमता होनी चाहिये । गणेशजी के समान उदारता, गम्भीरता, सहिष्णुता, चिन्तनशीलता तथा वाणी-संयम जिस नेता में मुखर हो उठते हैं, वह नेता लोक में सदा पूज्यता प्राप्त करता है । दीपावली पर भगवान महावीर को जन्म मरण के दारुण दुःखों से पिंड छुड़ाने का अवसर मिला था । वे मोक्ष को प्राप्त हुये थे । कपट, द्वेष और मिथ्याचार तथा अहंकार जैसी गंदगी को दूर कर हमें दीपावली के दिव्य संदेश–अन्तरंग को प्रकाश से आप्लावित करना चाहिये । गोवर्धन पूजा : दीपावली के पश्चात् प्रतिपदा को यह त्योहार मनाते हैं । यह हमें कर्तव्य का भान कराता है । जो समाज में मूक सेवक हैं उनका अभिनन्दन करने की भावना भी उसी में सन्निहित हैं । गौतम भगवान महावीर के दार्शनिक शिष्य थे । वे भगवान महावीर के वीतराग भाव को धारण करते हैं और अन्ततः स्वयं भगवान् महावीर की नाई परम ज्योतिर्मान हो जाते हैं । भैय्या दूज : भाई-बहन के पवित्र प्रेम का प्रतीक : नन्दीवर्धन और सुदर्शना के जीवन पर आधारित भैय्यादूज भाई द्वारा बहिन की रक्षा का उद्घोष है । बसंत पंचमी: यह ज्ञान और वैराग्य का त्योहार है । पतझड़ के बाद ऋतु का शुभागमन नव निर्माण का द्योतक है । विनाश के बाद विकास की सूचना लेकर वसंत ऋतु आती है । जर्जर, मृतप्रायः प्राकृतिक वनस्पतियों में नव जीवन का संचार होने लगता है । वसंत को सब ऋतुओं में श्रेष्ठ माना जाता है । यह ऋतुराज भी कहलाता हैं। सर्व प्रथम ज्ञान की पूजा कीजिये । ज्ञान प्राप्त करना वैराग्य की प्रेरणा देता है । अज्ञान और मोह का समूळ अन्त हो जाने पर सम्पूर्ण ज्ञान का आलोक प्राप्त होता है । ज्ञान से मोह पर विजय प्राप्तकर साधक वीतराग बना करता है । इस वसंतपंचमी का यही सन्देश आज हम सब के लिये है । इस प्रकार पर्व और त्योहार हमारे जीवन में आत्मिक और आध्यात्मिक चेतना तथा सामाजिक और सांस्कृतिक जागरण द्वारा जीवन को हर्ष-उल्लास से सम्पृक्त करते हैं | सामाजिक चेतना द्वारा राष्ट्रीय जागरण का सन्देश दिया जाता है । आज राजनीतिक संसार में घोटालों से गला घुटने लगा है । अनाचार और अत्याचार से समूह और समुदाय में भयंकर आंतकवाद फैलता जा रहा है । लूट-पाट, चोरी और डकैतियां आम बात हो गयी है । जीवन सर्वथा असुरक्षित और आशंकाओं से घिरता जा रहा है । संयुक्त परिवार टूटने और बिखरने लगे हैं । अखण्ड जीवन की ज्योति निष्प्राण होने लगी है । साथ साथ जीवन जीने की अपेक्षा अनाथ जैसा जीवन जीना आज के नवजीवन का स्वभाव बन गया है । पर्व और त्योहार आकर हमारे जीवन में स्फूर्ति और जाग्रति का अद्भुत संचार करते हैं । पर्वो तथा त्योहारों के आयोजन एक अद्भुत प्रकार का उल्लास और प्रेरणा प्रदान करते हैं । पर्व हमारे जीवन में त्याग और साधना का संचार करते हैं | तब भोजन के स्थान पर भजन गाने-बजाने के स्थान पर ध्यान-साधना व्रत, विधान, सेवा और दान जैसी विविध प्रवृत्तियाँ मुखर हो उठती हैं । इस प्रकार पर्व जीवन सुधार का अमोघ साधन सिद्ध हो जाता है । पर्व की प्रयोग प्रियता और प्रसंगिकता प्रायः असंदिग्ध है । मंगल कलश 394, सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़ - 202 001. हेमेन्ट ज्योति* हेगेन्ना ज्योति99 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति । niwwlameliirani Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जैन एवं बौद्ध वाङ्मय में वर्णित कुरुक्षेत्र डॉ. धर्मचन्द्र जैन पूर्व वैदिककाल में उत्तरवेदी से प्रख्यात, ब्रह्मप्रिय स्थल कुरूक्षेत्र भारतीय संस्कृति विशेषकर अध्यात्मवाद से अधिक सम्बद्ध रहा है । इसी वसुन्धरा पर निवास कर अनेकानेक ऋषि-महर्षियों एवं साधु-सन्तों ने तपसाधना के उत्कर्ष पर मुक्तिलाभ किया है । वेद, पुराण एवं उपनिषदों की रचना, श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश और ऐतिहासिक महाभारत युद्ध भी इसी भूखण्ड पर हुआ बतलाया जाता हैं । वैदिक धर्मदर्शन के प्रकृत केन्द्र स्थल कुरुभूमि पर ब्राह्मणेतर दर्शनों को भी समुचित सम्मान प्राप्त था । कुरुजन जिस भूभाग पर निवास करते थे वह क्षेत्र बहुत विस्तृत रहा होगा, जैसे कि इतिहासज्ञ भी मानते हैं कि कुरुराष्ट्र 300 योजन में फैला हुआ था - तियोजन सतेसुकुरुरटे । महाभारत के अनुसार भारतवर्ष के उत्तर-पश्चिम में स्थित सरस्वती और दक्षिण पूर्ववर्ती दृषद्वतीनदी का मध्यभाग कुरुराष्ट्र, कुरुजनपद अथवा कुरुक्षेत्र कहलाता था । यह भूखण्ड घने जंगल से घिरा हुआ था, इसीसे इसे कुरुजाङगल से भी जाना जाता था । निश्चित ही यह प्रदेश बड़ा पवित्र और रमणीय था, जहां देवगण भी निवास करने के लिए लालायित रहते थे । इसी कारण मनीषि साधकों के लिए तत्त्वज्ञान का प्रमुख स्थल स्वरूप यह भूमि ब्रह्मसदन, ब्रह्मावर्त, देवभूमि, मुक्तिधाम, समन्तपंचक एवं कुरुतीर्थ इत्यादि नामों से उल्लिखित है । कालान्तर में आज यहां कुरुक्षेत्र स्थाणवेश्वर (थानेसर) के रूप में दृष्ट है । कुरुक्षेत्रं तु देवर्षे स्थाणुर्नाम महेश्वरः तदेवतीर्थमभवत् । जैन वाङ्मय में कुरुक्षेत्र : विविधतीर्थकल्प के अनुसार जैन आद्यतीर्थंङकर नाभिपुत्र भगवान् ऋषभदेव के सौ पुत्रों में एक कुरुनाम का पुत्र था। आचार्य जिनसेन के मन में इन्हीं का अपरनाम सोमप्रभ था जो कुरुवंश के शिखामणि थे- सोमप्रभः प्रभोराप्त कुरुराजसमाह्वयः । कुरूणामधिराजोऽभूत कुरुवंशशिखामणिः ।। महामण्डलेश्वर महाराज कुरु ने अपने उग्रतप से जिसधरा को पवित्र किया था, वह क्षेत्र ही कुरुक्षेत्र अथवा कुरुराष्ट्र कहलाने लगा - कुरूनाभेणं कुरूश्क्तिं पसिद्ध । इन्हीं कुरुराज के पुत्र हस्ति ने ही हस्तिनापुर नगरी को बसाया था जो कुछ समय बाद कुरुप्रदेश की राजधनी बनी । उत्कृष्ट योगचर्या के संधारक, केवली, अरिहन्त, भगवान ऋषभदेव ने इसी कुरुर्जागल की अलंकारभूत महानगरी हस्तिनापुर में ही महाराजाधिराज सोमप्रभ तथा कुरुनन्दन पुत्र श्रेयांस के करकमलों से प्रासुक इक्षु रस का प्रथम आहार ग्रहण किया था - श्रेयान सोभप्रभेणामा लक्ष्मीमत्याचसादरम् | रसभिक्षोरदात् प्रासुमुत्तानीकृतपाणये ।। इस प्रकार प्राचीन तीर्थ हस्तिनापुर से मण्डित कुरुप्रदेश कर गौरव अधिक वृद्धिगत होता है । बृहत्कल्पसूत्रभाष्य तथा आदिपुराण में वर्णित पच्चीस आर्यदेशों में कुरु भी एकदेश बतलाया गया है जो भारत के उत्तर पश्चिम में स्थित था । स्थानांगसूत्र में इसी कुरुदेश को पुण्यभूमि कहा गया है - अकर्मभूमिविशेषः । श्रावस्ती से लेकर गंगा तक कर प्रदेश कुरुजनपद कहलाता है जहां तीर्थडकर वृषभदेव ने तपश्चरण का अधिकांश समय व्यतीत किया था"। जैनागमों के अनुसार इस कुरुभूमि पर अन्य तीर्थंकरों का भी विहार एवं धर्मोपदेश हुआ था किन्तु किन-किन अरिहन्तों का विचरण हुआ यह स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। बौद्ध वाङमय में कुरुक्षेत्र :- निकायग्रन्थों में प्रायः कुरुक्षेत्र शब्द नहीं मिलता । प्रारम्भिक बौद्ध साहित्य में कुरुजाङगल, कुरुजनपद, कुरुदेश, कुरुराष्ट्र और उत्तरकुरु ये कुछ एक शब्द मिलते हैं जिनसे कुरुदेश अथवा कुरुक्षेत्र के अस्तित्व का बोध होता है । महाभारत में अनेक स्थलों पर कुरुक्षेत्र का उल्लेख मिलता है जिनके अनुसार जो कुरुदेश, कुरुजाङगल और कुरुक्षेत्र इन तीन भागों में विभक्त था । (संस्कृत एवं प्राच्यविद्या संस्थान, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र) हेमेठल्य ज्योति* हेमेन्च ज्योति 100 हेमेन्य ज्योति* हेमेट ज्योति Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ महाभारत काल में भारत में स्वतन्त्र चौदह राज्य थे और भगवान बुद्ध के समय में सोलह स्वतन्त्र गणराज्यों की गणना की गयी है ।" अङगतरनिकाय में जिन जनपदों के नामोल्लेख हैं उनमें नौवें स्थान पर कुरुजन पद आता है । जैनागमो से भी इसकी पुष्टि होती है । कुरुषु पांचालः अथवा कुरुपांचालेसु यह युगलपद दिखलाता है कि किसी समय पस्वाल देशका उत्तरी भाग कुरुराष्ट्र में शामिल था । सम्भवत इसी कारण बौद्ध वाङ्मय में काशी कोसल तक कुरुदेश की सीमा परिगणित की गयी है। __कुरुजनपद के दो प्रमुख निगमों थुल्लकोट्टित” । वर्तामान थानेसर । और कम्मासदम्म (वर्तमान ग्राम कुमोदा) में सम्कय सम्बद्ध गौतम बुद्ध ने स्वयं विहार कर कुरुवासियों को सतिपट्ठान" (स्मृति प्रस्थान) का सद्धर्मामृतपान कराया था । निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र भगवान् महावीरस्वामी किसी भी समय इस कुरुभूमि में पधारे हों, ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। निश्चिन्त एवं खुशहाल कुरूजन : कुरुजनों का जीवन सुखमय तथा निश्चिन्त था। इनकी अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं होती थी । इनकी अपनी पृथक पृथक् पत्नियां भी नहीं होती थीं । अपने निर्वाह हेतु ये अधिक परिश्रम भी नहीं करते थे कारण कि उपजाऊ कुरुभूमि में अनाज स्वतः ही उत्पन्न हो जाता था । सदाचरण ही इनका परमधर्म था । यही कुरुधर्म भी था जिसका अर्थ है नैतिक मर्यादा । इस प्रकार कुरुजनों का जीवन सीधा-सादा, सरल, पवित्र और नैतिक मर्यादा पूर्ण था जिसे आज भी यहां के लोगों में देखा जा सकता है । विद्यमान कुरुक्षेत्रवासियों का सादा जीवन यापन पवित्र और खुशहाल है, वे धनधान्य सम्पन्न हैं - परिपुण्णकोट्ठागारं तथा परिश्रम से अपना जी कभी नहीं चुराते । इनका आचरण अहिंसामय है । उत्तरकुरू और कुरुक्षेत्र : भूविज्ञान के अध्येताओं के लिए उत्तरकुरु आज भी खोज का विषय बना हुआ है । जैन एक विशाल जम्बूद्वीप की सुन्दर कल्पना करते हैं, जो चारों ओर से लवण समुद्र से घिरा हुआ है । जम्बूद्वीप के उत्तरी भाग में ऐरावत और दक्षिण में भरतवर्ष ये दो कर्मभूमियां हैं । इन दोनों के मध्य में सुमेरु पर्वत है । जिसका अस्तित्व सभी दार्शनिक स्वीकार करते हैं । इसी सुमेरु पर्वत के पूर्व में देवकुरु और पश्चिम में उत्तरकुरु विद्यमान है । ये देव भूमियां है। इन्हीं के दोनों ओर का क्षेत्र विदेहक्षेत्र कहलाता है - भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमियोऽन्यत्रदेवकुरूतरत्कुरुभ्यः । जबकि बौद्धों के मतमें यह समस्त पृथ्वी चार महाद्वीपों-जम्बूद्वीप, पूर्वविदेह, अवरगोदानीय और उत्तरकुरु, में विभक्त है। महाभारत के भीष्मपर्व में भी सुमेरु के चारों ओर अवस्थित चार महाद्वीपों का वर्णन मिलता है जिनमें से दो उत्तरकुरु और जम्बूद्वीप पालिनिकायग्रन्थों की परम्परानुकूल है किन्तु बौद्ध साहित्य में मान्य अपारगोदान के स्थान पर केतुमाल और पूर्वविदेह के स्थान पर भद्राश्व नाम मिलते हैं । इस प्रकार जो कुछ भी रहा हो किन्तु यह निश्चित ही है कि उत्तरकुरु एक दूरस्थ महाद्वीप रहा होगा जो सुमेरु के उत्तर-पश्चिम में स्थित था । इसी कारण ऐतरेय ब्राह्मण में से हिमालय से परे बतलाया गया है। डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल तथा डॉ. हेमचन्द्र रायचौधरी आधुनिक साइबेरियन प्रदेश को उत्तरकुरु मानते हैं । पाश्चात्य विद्वान जिमर वर्तमान कश्मीर के इलाके को ही उत्तरकुरु बतलाते हैं । जबकि बौद्ध विद्यामनीषि डॉ. मलशेखर ऋग्वेदकालीन उत्तरकुरु में ही अपनी अटूट श्रद्धा अभिव्यक्त करते हैं | आचार्य वसुबन्धु ने अभिधर्मकोशभाष्य में बतलाया है कि मेरु के उत्तर पार्श्व के सन्मुख कुरु अथवा उत्तरकुरु की आकृति आसन के तुल्य है यह चतुरस्र अर्थात चारों पावों के समान परिमाण में 2000 योजन विस्तृत है । निकायग्रंथ उत्तरकुरुवासियों के जीवन पर कुछ और अधिक जानकारी प्रस्तुत करते हैं। अङगुतरनिकाय और मज्झिमनिकाय की" अट्ठकथाओं में बतलाया गया है कि उत्तरकुरु में एक कल्पवृक्ष है जो कालपर्यन्त रहता है । थेरगाथा अट्ठकथा के अनुसार यहां के निवासियों का अपना घर नहीं होता, वे भूमि पर सोने के कारण भूमिसया हेमेन्य ज्योति * हेमेन्य ज्योति 101 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द ज्योति pahli kamkapy Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था कहलाते हैं । ये लोभ रहित, साहसी, अपरिग्रही और नियत आयुवाले होते हैं । सज्जनता इनका विशिष्ट गुण है। आचार्य बुद्धघोष के मत में उत्तरकुरुवासी प्राकृतिक शील के कारण सदाचार के नियमों का उल्लंघन नहीं करते - उत्तरकुरूकानंमनुस्सानं अनीतिक्कम्मो पकतिसीलं | मत्स्यपुराण मे आगत विवरण से भी उक्तकथनकी स्पष्ट पुष्टि होती है । यहां कहा गया है कि मेरु के उतरमें दक्षिणी समुद्र तक फैला हुआ है । उत्तरकुरु की निरन्तर प्रवहमान नदियों में अमृततुल्य जल विद्यमान है । जहां मधु सदश मीठे फलों से लदे वृक्ष हैं जिनसे वस्त्र एवं आभूषणों की भी उपलब्धि होती है । शब्द रहित चारों ओर शीतल मन्द सुगन्धित वायु बहती रहती है । जिसका स्पर्श पाते ही लोकोतर आनन्द एवं सुख की अनुभूति होती है । ऐसे उत्तमोत्तभ पुण्यभूमि में देवलोक से च्युत धर्मात्मा जीव ही मानव जन्म धारण करते हैं । यहां सत्व जोड़े में जन्म लेते हैं । स्त्रियां यहां अप्सराओं से भी अधिक सुन्दर होती हैं । ये पराक्रमी उत्तरकुरुवासी ग्यारह हजार वर्षों तक जीवित रहते हैं और वे दूसरा विवाह नहीं करते । इस प्रकार विपलु वैभव सम्पन्न शीलवती एवं निष्काम भावी उत्तरकुरुवासिजन भोगभूमि तुल्य सुखों का भोग करते हैं। कुरु राष्ट्र अथवा कुरुदेश के सन्दर्भ में आचार्य वसुबन्धु के चिन्तन को नकारा नहीं जा सकता जैसे कि उन्होंने अभिधर्मकोशभाष्य में देह विदेह, कुरु, कौरव, न चामर, अवरचामर, शाठ्य और उत्तरमन्त्रिण इन आठ अन्तर द्वीपों की गणना की है । इसके इलावा इन अन्तर द्वीपों को यहां अन्य छोटे छोटे पांचसौ द्वीपों से घिरा हुआ बतलाया गया है । बौद्ध आचार्य संघभद्र के अभिमतानुसार देह, विदेह, कुरु और कौरव इन चार द्वीपों में कोई भी प्राणी निवास नहीं करता। ये द्वीप निर्जन हैं । यहां वर्णित निर्जनद्वीप कुरु हमें कुरुजाङगल का स्मरण कराता है जो एक समय मैदानी भाग था और जिसे निश्चित ही महाभारत युद्ध के लिए चुना गया होगा। _महाभारत के शल्यपर्व के अनुसार राजर्षि कुरु ने जिस भूखण्ड पर हल चलाया था और उक्त भूमि का कर्षण किया था जिससे उस प्रदेश का नाम कुरुक्षेत्र पड़ गया था। इस सम्बन्ध में बौद्धों का अपना भिन्न अभिमत है । दीघनिकाय की अट्ठकथा सुमंगलविलासिनी, मज्झिमनिकाय की अट्ठकथा पपञ्चसूहनी तथा दिव्यावदान के मान्धातावदान के अनुसार चक्रवर्ती महाराज मान्धाता, जिन्हें जैन तृतीयं चक्रवर्ती मघवा बतलाते हैं , ने षट्खण्डविजय के दौरान चारों द्वीपों को जीत लेने के बाद अपना कुछ समय उत्तरकुरु में बिताया था । जब वह वहां से जम्बूद्वीप लौटा तब उनके साथ द्वीपों के कतिपयलोग जम्बूद्वीप चले आए और जहां तहां ठहर गए । कालान्तर में जो जहां रह रहा था, महाराज ने उन्हीं के नाम पर उस उस प्रदेश का नामकरण कर दिया । उत्तरकुरु से आए हुए लोग जहां बस गऐ थे उस भूभाग को कुरुराष्ट्र या कुरुदेश से पुकारा जाने लगा - देव, मयं रंजो आनुभावेन आगता, इदानि गन्तं न सक्कोम, वसनद्वानं नो देहीति याचिंसु। सोतेसं एकमेकजनपदमदासि ....... उत्तरकुरुतो आगतमनुस्सेहि आवसितपदेसो कुरुरलु तिनाम लभि"। उपर्युक्त चर्चा से यह स्पष्ट व्यक्त होता है कि उत्तरकुरु और कुरु दोनों ही भिन्न-भिन्न स्थल है । जिस कुरुदेश वा कुरुक्षेत्र को हम खोजना चाहते है । वह कुरु अन्तरद्वीप विशेष ही सिद्ध होता है । दीपवंश भी इसका अर्थात् कुरुद्वीप का समर्थन करता है जिसमें आकर कुरुजन बस गए । लगता है कि ये कुरुजन और अन्य नहीं आर्यगण ही थे । कारण कि आर्य का यथार्थ अर्थ क्या है? जानना उपादेय है । कोश ग्रंथ आर्य का अर्थ - उत्तम वा श्रेष्ठ करते है जबकि जैन एवं बौद्ध यर्थाथ दृष्टा अर्हत् को ही आर्य बतलाते हैं । बौद्धों के अनुसार आर्य वह है जो पापकर्मों से अत्यधिक दूर चलागया हैं । जिसके समस्त अकुशल पाप धर्म नष्ट (दूर) हो चुके हैं । वह निष्कलंकी, अलोभी एवं अमोही ज्ञानी अर्हत् ही आर्य कहलाता है । जैनों की दृष्टि में भी आर्य वह है जिसने यथाभिलषित तत्व को उपलब्ध कर लिया है, जिसने अपने गुणों से पांचों इन्द्रियों के विषयरूप काष्ट को काटने में आरे के तुल्य रत्नत्रय, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यकचारित्र को धारण कर लिया है । वही निष्पाप भव्यजन आर्य है - हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 102 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति goales-personal use only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मपद" के अनुसार ऐसा आर्य ही ब्राह्मण है । अमोही, अलोभी, अद्वेषी, ज्ञानी एवं ध्यानी ब्राह्मण अर्हत् है -रवीणा सवं अरहन्तं तमहं ब्रभि ब्राह्मणं । इस दृष्टि से दोनों ब्राह्मण और अर्हत् में कोई भिन्नता है ही नहीं । उपर्युक्त कुरुजनों और आर्यजनों के विवेचन से यह पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है कि शिष्ट उत्तरकुरुवासी ही आर्य थे जो कोसों दूर से चलकर जम्बुद्वीप में आए थे और आर्यावर्त भारतवर्ष के उत्तरपश्चिम में बस गए थे । ये निर्लोभी और कठोर परिश्रमी थे जिस कारण से ही अपने को इन्होंने एक समुन्नत एवं खुशहाल राष्ट्र बना लिया था । इनकी अपनी एक अन्य विशेषता यह भी थी कि ये अपने द्वारा बनाये गए नियमों का तथा सिद्धान्तों का स्वयं ही कड़ाई के साथ परिपालन करते थे ।ऐसा शील सम्पन्न एवं धर्मनिष्ठ राष्ट्र की कुरु राष्ट्र वा कुरुदेव ही कुरुक्षेत्र है जिसका कुछ एक भाग बौद्ध मज्झमण्डल में आता है जिसमें सम्यक्सम्बुद्ध गौतम बुद्ध का चङकमण हुआ था । निष्कर्ष : 1. वेद एवं पुराणों की रचना स्थली कुरुजांगल कुरुजनपद, कुरुदेश अथवा कुरुराष्ट्र किसी समय 300 योजन के विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ था जो कालान्तर में सिमट कर थानेसर के रूप में कुरुतीर्थ अतैर वर्तमान में दिल्ली से 160 किलोमीटर दूर उत्तर में छोटे शहर के रूप में विकसित कुरुक्षेत्र उपलब्ध होता है । 2. जैन आद्य तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के पुत्र कुरुराज सोमप्रभ की उग्र तपस्या से पवित्र भूभाग कुरुक्षेत्र नाम से प्रख्यात हुआ जबकि महाभारत के वर्णनानुसार महाराज कुरु ने जिस भूमि का हल जोतकर कर्षण किया वह भूप्रदेश कुरुक्षेत्र कहलाने लगा । जैन बौद्ध कुरुजनपद को सोलह स्वतन्त्र गजतंत्रों में से एक स्वशासित राज्य मानते हैं । हुए कर्तव्य परायण, धार्मिक, परिश्रमी, धनधान्य से सम्पन्न कुरुदेशवासी नैतिक मर्यादा से बंधे इनका अपना धर्म था जिसे कुरुधम्म । कुरु धर्म कुरुओं का धर्म । कहलाता था । 3. 4. श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ अज्जरभविहि आरा जाइज्जर हेयथम्यओजो वा । रदणतयरूवं वा आरं जाइत्ति अज्ज इय वु ती ॥ 5. 7. 9. 6. शुल्लकोट्ठित का निवासी रट्ठपाल बौद्ध बन गया था । जम्बुद्वीप आदि चार द्वीपों से दूरस्थ उत्तरकुरु विद्वानों के लिए आज भी खोज का विषय बना हुआ है । 8. दिग्वियजी चक्रवर्ती मान्धाता के उत्तरकुरु प्रवास में उनके साथ कतिपय उत्तरकुरुवासी जन जम्बुद्वीप आर्यखण्ड में आ गए थे और वे सभी जहां बस गए वही भूखण्ड तभी से कुरुदेश अथवा कुरुराष्ट्र कहलाने लगा । कुरुजनपद के प्रमुख दो थुल्लकोट्ठित्त तथा कम्मासदम्म, निगम थे जहां भगवान बुद्ध का पदापर्ण हुआ था और जहां उन्होंने सतिपट्ठानसुत जैसे गम्भीर धर्म की देशना दी थी । थे जिस कारण उत्तरकुरुवासी निस्संदेह शिष्ट, सुशील और बड़े साहसी तथा परिश्रमी थे । नैतिक गुणसम्पन्न आर्य भी सम्भवतः इनसे भिन्न नहीं थे । अर्थात् इनमें अभिन्नता प्रतीत होती है । International धनधान्य एवं वैभव सम्पन्न, निश्चिन्त, गम्भीर प्रकृति शील कुरुदेशवासियों को आज भी देखा जा सकता है, जो सरल सहृदय हैं । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 103 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ संदर्भ 1. दे, चारित्रकोश (चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद शर्मा, दिल्ली प्रकाशन 1983) पृ. 101 2. दे. महाभारत शल्यपर्व अ. 53, यशस्तिलकचम्पू 98/7 अ. 6 का. 20 3. वामनपुराण 23/5 4. शतपुत्र्यामभूवन नाभिसूनोः सूनुः कुरुनृपः । विविधतीर्थकल्प, (जिनप्रभसूरिविरचितम्, शांतिनिकेतन, 1934) पृ. 94 5. आदिपुराण 16/258 6. कुरुक्षेत्रभिति ख्यातं राष्ट्रमेतत्तदाख्यया । कुरोःपुत्रोऽभवद् हस्ती तदुपज्ञमिदं पुरम् । हस्तिनापुरभित्याहुरनेकाश्चर्यसेवधिम् ।। विपिष्ट तीर्थकल्प, पृ. 94 कुरुनरिंदस्स पुत्तो हत्थी नाम सयाहुत्था । तेण हस्थिणा उरंनिवेसिअं । तत्थभागीरहीमहानई पवित वारिपूरा परिवहइ । वही पृ. 27 7. दे. आदिपुराण (जिनसेन) 20/100 8. वृहत्कल्पभाष्य 1/3283 वृति, 1/3275-3289 तथा पार हर धम्मकहा 1/8 9. आदिपुराण 16/53 10. स्थानांगसूत्र 6 तथा दे. पाइअसधमहण्णवो, पृ.321 11. भगवतीसूत्र आ.9, स्थानांगसूत्र 9/691, हरिवंश 10/1053-54 12. दे. दीघनिकाय अट्ठकथा-सुमंगलविलासिनी, भा.2, पृ. 178 तथा मज्झिमनिकाय 2/4/2 13. दे. मज्झिमनिकाय अट्ठकथा-पपञ्चसूदनी भा. 2, पृ. 178 तथा अश्रुतर निकाय अट्ठकथा भा. 1, पृ. 264 14. दे. दीद्यतिकाय अट्ठकथा सुमंगलविलासिनी, भा. 2, पृ 178 15. महाभारत आदिपर्व अध्याय 9/37-40, 43 16, वही, कर्ण पर्व तथा डिक्सनरी आवं पालि प्रापर नेम्स (डॉ. मललशेखर) भा. 2, पृ. 494 कुरुपंचाल, शाल्वभत्स्य, चेदि शूरसेन, नैमिष मागध, कोसल काशी, अंगकलिंग तथा गान्धारक भद्रक ये चौदह जनपद थे । 17. अंगनं, मगधानं, कासीनं, कोसलानं, वज्जीनं, मल्लानं चेतीनं, वसानं, कुरूनं, पञ्चालानं, मच्छानं, सूरसेनानं, अस्सकानं, अवन्तीनं, गन्धारानं, कम्बोजानं । अंगुत्तरनिकाय भा. 4 (अट्ठकनिपात) तथा दे. महावस्तु, भा. / पृ. 34 18. दे. भगवतीसूत्र (नाम अपर व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र) 15 तथा आचार्य तुलसी - उत्तराध्ययन सूत्रः एक अध्ययन 19. दे. मज्झिमनिकाय अट्ठकथा भा. 2 पृ. 722 तथा मि. बुद्धचरित्र 21/16, इसी थुल्लकोहित निगम में स्थविर रट्टपाल का जन्म एवं बौद्धदीक्षा हुयी थी । एक बार स्थविर रट्टपाल अपनी जन्म एवं बौद्ध दीक्षा हुयी थी । एक बार स्थविर रट्ठपाल अपनी जन्मभूमि थुल्लकोट्ठित में आये थे तब यहां के महाराज कौरव्य से मिले थे जिनकी उस समय आयु अस्सी वर्ष की थी । विशेष के लिए दे. मज्झिमनिकाय रट्टपालसुत्त तथा थेरगाथा, गाथा 769-931 । 20. कम्मासदम्म का संस्कृत रूप कल्मासदम्म होता है । बुद्धघोष के अनुसार कल्भाषापाद के दानव था जिसका दमन सुतसोम बोधि सत्व ने उक्त स्थान पर किया था जिस कारण इसका नाम कम्मासदम्म (कल्माषदम्म) पड़ गया । महाभारत के अनुसार कल्मासपाद इक्षवाकुवंशी राजा था । नारदपुराण में भीआता है कि इक्षवाकुवंशी राजा सुवाद का पुत्र मित्रसह ही था जिसने अपने दुष्कर्मों के परिणाम स्वरूप राक्षसी वृत्ति धारण करने पर कल्माषपाद नाम पाया था । रघुका एक पुत्र भी कल्माषपाद हुआ है। इसके लिए देखिए वाल्मीकि रामायण । कम्मादम्म को कम्मासधम्म पद भी मिलता है । यहां धर्म का अर्थ है - नैतिक मर्यादा अथवा नैतिक विधान, जिसमें कल्माषपाद (दैत्य) उत्पन्न अथवा दीक्षित हुआ उसे कम्मासधम्म कहते हैं- कुरूरहवासीनं किर कुस्वत्तधम्मो । तस्सिं कम्मासो जातो, तस्मा तं ठानं कमसोएत्थ धम्मो जातो हि कम्मासधम्मति कुच्वति । दे. सुमंगलविलासिनी, भा. 2 पृ. 178-179 वर्तमान में कुरूक्षेत्र के निकटवर्ती कुभोदा ग्राम में कल्मावपाद (दैत्य) का निर्मित मंदिर आज भी देखा जा सकता है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 104हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Jain dreatiseme Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SH श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 21. कायानुपस्सी, वेदनानुपस्सी, चित्तानुपस्सी एवं धम्मानुपस्सी ये चार सतिपट्ठान (स्मृत्युपस्थान) हैं। विशेष अध्ययन के लिए दे. दी. नि. 3/221, पृ. 173 (देवना) तथा विभंग अट्ठकथा पृ. 214 22. दे. अंगुतर निकाय भा. 5, पृ. 29-30 तथा थेरीगाथा अट्ठकथा परमत्थदीपिनी । 23. दे. मज्झिमनिकाय अट्ठकथा भा. 1, पृ. 184 तथा बुद्धचर्या, पृ. 110-111 24. तत्वार्थसूत्र 3/37 25. अभिधर्मकोश (आ. नरेन्द्रदेव) 3/53-55 26. दे. बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृ. 58 पर उद्धत टिप्पण । 27. ऐतरेय ब्राह्मण 8/121/21 28. दे. इण्डियन एंटिक्वेरी, भा. 62, पृ. 170 29. दे. स्टडीज इन इण्डियन एंटिक्विटीज, पृ. 71 30. दे. वैदिक इण्डेक्स, भा. 1 पृ. 84 31. दे. डिक्शनरी आंव पालि प्रापर नेम्स, भा. 1, पृ. 356 32. अभिधर्मकोशभाष्य 3 / 53-55 33. अंगुत्तरनिकाय अट्ठकथा मनोरथपूरणी भा. 1 पृ. 264 34. मज्झिमनिकाय अट्ठकथा पपञ्चसूदनी भा. 2 पृ. 948 35. उत्तम भोगो को प्रदान करने वाले दश कल्पवृक्ष होते हैं ये हैं मर्धांग, तूर्यांग, भूषणांग ज्योतिरंग, गृहांग, भाजनांग, दीपांग, वस्त्रांग, भोजननांग और मालांग । दे. वसुनन्दि श्रावकाचार गा. 251 तथा 252-257 36. थेरगाथा अट्ठकथा भा. 2, पृ. 187-188 37. दे. विसुद्धिमग्ग 1/41 38. दे. मत्स्यपुराण 113/69-77 39. शील (सदाचार) का स्वरूपः संसारारातिभीतस्य व्रतानां गुरूसाक्षितकम् । गृहीतानामेशषाणां रक्षणं शीलमुच्यते ।। अमितगतिश्रावकाचार, परि. 12 श्लो. 41 40. देहा, विदेहाः कुरवः कौरवाश्चामरावरा । अष्टौ तदन्तरद्वीपाः शाठाः उत्तरमन्त्रिणः ।। अभिधर्मकोशभाष्य 3/56 41. वही, पृ. 370 पर दे. फुटनोट नं 4 42. दे. महाभारत शल्य पर्व 43. दी. नि. अट्ठकथा सुमंगलविलासिनी मा. 2. पृ. 178-179 44. म. नि. अट्ठकथा पपञ्चसूदनी भा. 1, पृ. 484 45. दिव्यादान (मान्धातावदानम्) पृ. 215-16 46. दे. दी. नि. अट्ठकथा सुमंगलविलासिनी मा. 2. पू. 177 178 47. आरात् याताः पापकेभ्यो धर्मेश्यः इत्यायी अभिधर्मकोश भाव्य 3/44. पृ. 157 तथा मिलाइए सूत्रकृतांगसूत्र 3/4/6 I 48. आरकस्स हेन्ति पापका अकुसला धम्मा... ति अरियोहोति । मज्सिमनिकाय 1/280, पृ. 343 49. दे. उपासकदशांगसूत्र अ. 1, पृ. 55 (लुधियाना संस्करण) 50. वही 51. धम्मपद गाथा 420 52. बौद्धों की दृष्टि में भारतवर्ष ही जम्बूद्वीप है । अधिक के लिए देखिए अभिधर्मकोशभाष्य 3 / 53-56 on Inte हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 105 T हेमेजर ज्योति हमेला ज्योति www.mmeltury.gra Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 4 प्राचीन पंजाब का जैन पुरातत्त्व पुरुषोत्तम जैन, रवीन्द्र जैन पंजाबी जैन लेखक, मंडी गोविन्दगढ़ जैन इतिहास में प्राचीन पंजाब : ___जब हम पंजाब की बात करते हैं तो इस का अर्थ सप्तसिन्धु वाला प्रदेश पंजाब है । क्योंकि पंजाब नाम मुस्लिम शासकों की देन है । पंजाब की कोई भी पक्की सीमा नहीं है । सप्तसिन्धु प्रदेश भगवान महावीर के समय छोटे-छोटे खण्डों में बंट गया था । जिनमें कुरु, गंधार, सिन्धु, सोविर, सपादलक्ष्य, मद्र, अग्र, कशमीर आदि के क्षेत्र प्रसिद्ध थे । तीर्थकर युग में प्रथम तीर्थकर भगवान श्री ऋषभदेव के छोटे पुत्र बाहुबलि की राजधानी तक्षशिला थी । 16वें तीर्थंकर शांतिनाथ जी, 17वें तीर्थंकर श्री कुंथुनाथजी, 18 अरहनाथजी का जन्म स्थान कुरु देश की राजधानी हस्तिनापुर है । इनके अतिरिक्त दिगम्बर जैन साहित्य में भगवान मल्लीनाथ, भगवान पार्श्वनाथ व भगवान महावीर का सप्तसिन्धु क्षेत्रों में पधारने का वर्णन उपलब्ध है | जैन तीर्थकरों ने जनभाषा को प्रचार का माध्यम बनाया । भगवान पार्श्वनाथ ने बहुत समय कश्मीर, कुरु व पुरु देशों में भ्रमण किया । इस क्षेत्र का एक भाग अर्ध केकय कहलाता था । भगवान महावीर ने अपने साधुओं को इस देश तक भ्रमण करने की छूट दी थी । क्योंकि भगवान महावीर के समय आर्य व अनार्य देशों के रूप में इस क्षेत्र का विभाजन हो चुका था । आर्य क्षेत्रों में साधु साध्वी को मर्यादा अनुसार भोजन मिलता था । इन आर्य क्षेत्रों को भगवान महावीर ने स्पर्श का सौभाग्य प्रदान किया । इसका वर्णन हमें आवश्यक चुर्णि, आवश्यक नियुक्ति में मिलता है । वह थूनांक (स्थानेश्वर) सन्निवेश पधारे । शायद यह मार्ग उन्होंने उत्तर प्रदेश के कनखल हरिद्वार मार्ग के माध्यम से पूर्ण किया हो। श्री भगवती सूत्र में प्रभु महावीर सिन्धु सोविर के नरेश उदयन की प्रार्थना पर लम्बा विहार करके वीतभय पत्तन पधारे थे । वापिसी में अर्ध केकय देश में घूमते हुए कश्मीर, हिमाचल की धरती से मोका नगरी पधारे। धर्म प्रचार करते हुए प्रभु महावीर वापसी पर रोहितक नगर पधारे। इन बातों का वर्णन आगमों में यंत्र तत्र मिल जाता है । जिन बातों का ऊपर वर्णन किया गया है वह क्षेत्र वर्तमान पंजाब, हरियाणा, सिन्ध, पाकिस्तान, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, देहली, उत्तर-प्रदेश में पड़ते हैं | भगवान् महावीर के बाद सप्तसिन्धु प्रदेश में जैन धर्म की स्थिति बहुत अच्छी रही, जिसका प्रमाण हमें मौर्य राजाओं द्वारा जैन धर्म को ग्रहण करने में मिलता है । मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य को सारे भारत पर साम्राज्य करने का सौभाग्य मिला । जैन ग्रंथों में चन्द्रगुप्त मौर्य व इसी वंश के अन्य सम्राटों के बारे में विपुल सामग्री उपलब्ध होती है । चन्द्रगुप्त ने तो जीवन के अंत में मुनिधर्म ग्रहण किया अशोक चाहे बुद्ध धर्म को मानता था, पर उसके प्रत्येक शिलालेख में जैन धर्म का प्रभाव मिलता है । देहली के शिलालेख में भी निर्ग्रन्थ, ब्राह्मण नियतिवादी व श्रमणों (बौद्धों) को एक साथ संबोधित किया गया है ।। जैन धर्म परम्परा के अनुसार राजा सम्प्रति ने जैन धर्म का प्रसार समस्त विश्व में किया । उस काल के मन्दिर व प्रतिमाएं गुजरात, राजस्थान के प्राचीन मन्दिर आदि दृष्टिगोचर होती हैं | इसी बीच कलिंग सम्राट खारवेल ने 161 बी.सी. में जैन धर्म को राज्य धर्म घोषित किया । उसने खण्डगिरि के शिलालेख में उस द्वारा उत्तरापथ के राज्य को विजय करने का उल्लेख है । यह राजा 15 वर्ष की अल्पायु में सिंहासन पर बैठा । इस ने खण्डगिरि व उदयगिरि में जैन मुनियों के लिए गुफाऐं निर्मित की । कश्मीर के प्रसिद्ध हेमेन्यज्योति हेमेन्द्र ज्योति 106 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति For t al use only indicsaintetitional Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ इतिहासकार कल्हण ने महामेघवाहन भिक्षराज खारवेल द्वारा कश्मीर व गंधार देश विजयकर पशुबलि बंद करने एवं मन्दिर निर्माण का उल्लेख है । कल्हण ने एक उल्लेख में अशोक को श्रीनगर का निर्माता व जैन धर्म का परम श्रावक माना जाता है। इसके बाद जैन धर्म को राजनीतिक आश्रय मिलना बंद हो गया । जैन धर्म का उतर भारत से पलायन होना मौर्य काल में शुरू हो गया था । गुप्त काल में जैन धर्म की अच्छी स्थिति का वर्णन हिन्दू पुराणों में उपलब्ध है। जैन धर्म को गुप्त काल के बाद नुक्सान पर नुक्सान उठाना पड़ा । वर्तमान पंजाब में जैन धर्म : जैन धर्म हर युग में किसी न किसी रूप में विद्यमान रहा । 8वीं सदी तक तो यह धर्म अपने परमोत्कृष्ट पर था । पंजाब में जैन धर्म को दो जातियां प्रमुख रूप में मानती हैं । 1. ओसवाल 2. अग्रवाल। पहली जाति का संबंध ओसिया (राजस्थान) से है । यह लोग राजस्थान से सिन्ध, पंजाब, गंधार तक फैले । जिन्हें स्थानीय भाषा में भावड़ा भी कहा जाता है । यह जाति अधिकांश श्वेताम्बर सम्प्रदायः को मानती है । अग्रवाल जाति का जन्म स्थान हिसार जिले का अग्रोहा गांव है । जहां विक्रम 8वीं शताब्दी में लोहिताचार्य ने अग्रवालों को जैन धर्म में दीक्षित किया । अग्रवाल प्रमुखः दिगम्बर सम्प्रदाय है । दिगम्बर पट्टवलियों के अनुसार काष्ठ संघ की स्थापना भी अग्रोहा में हुई थी । जैनधर्म का प्रसार करने में खरतरगच्छ तथा तपागच्छ के आचार्य, यतियों के अतिरिक्त श्वेताम्बर स्थानकवासी व तेरहपंथ मुनियों का प्रमुख योगदान है । महाराजा कुमारपाल ने इस क्षेत्र पर विजय प्राप्त कर यहां जैन धर्म फैलाया था। राजा कुमारपाल के समय जैन धर्म काश्मीर और गंधार तक पनप चुका था। कुवलयमाला ग्रंथ के रचयिता आचार्य उद्योतनसुरि ने पंजाब में जैन धर्म की छठी सदी की स्थिति का पता चलता है । खरतरगच्छ के दादा जिनचन्द्र सूरि और दादा जिनकुशल सूरि ने अनेक स्थलों पर जैन धर्म का प्रचार प्रसार किया। 2री सदी में कालकाचार्य कथा में पंजाब में जैन धर्म की स्थिति का अच्छा विवरण है । समस्त मुस्लिम शासकों के साथ जैनाचार्यों के अच्छे सम्बन्ध रहे हैं । इस संदर्भ में हम एक ग्रंथ विज्ञप्ति त्रिवेणी का उल्लेख करना जरुर चाहेंगे । प्रस्तुत ग्रंथ मुनि श्री जिनविजय जी ने ढूंढा था । इस ग्रंथ में विक्रम की 14-15 शताब्दी के जैन धर्म पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । इसमें आचार्य श्री जिनभद्र जी, उनके शिष्यों श्री जयसागर, मेघराज गणि, सत्यरुचि, मतिशील व हेमकुंवरजी का कांगड़ा तीर्थ की यात्रा का वर्णन है । इस वर्णन के साथ-साथ तात्कालिक पंजाब की भौगोलिक स्थिति व पंजाब में जैन मन्दिरों की स्थिति का सुन्दर वर्णन है । वि. सं. 1484 में यह यात्रा सम्पन्न हुई थी । उस समय कांगडा का राजा कटोच वंशज नरेशचन्द, जैन धर्म का प्रमुख श्रावक था । आचार्यश्री सिन्ध, वर्तमान पाकिस्तान के क्षेत्रों में विचरण करते हुए कांगड़ा क्षेत्र में पहुंचे थे । रास्ते में उन्हें व्यास नदी के पास फरीदपुर (पाकपटन), तलपाटन (तलवाड़ा), देवालपुर (दीपालपुर) कंगनपुर (पाकिस्तान) हरियाणा (होशियारपुर जिला) नगर आऐ थे । वापसी में वह गोपाचलपुर (गुलेर हिमाचल), नन्दनपुर (नादौन) कोटिल ग्राम (कोटला) होते हुए लम्बा समय धर्म प्रचार करते रहे । वि. सं. 1345 में श्रावक हरीचंद ने दर्शन किये । इस के अतिरिक्त 1400, 1422, 1440, 1497, 1700 तक कांगड़ा तीर्थ पर किले में स्थित भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा के दर्शन होते रहे । इन्हीं सन्दर्भो में हम प्राचीन पंजाब के पुरातत्व स्थलों का अध्ययन करेंगे । इन स्थलों में कुछ प्रमुख स्थलों का वर्णन इस प्रकार है : हेगेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 107 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Foreriaeligionature Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 1. हडप्पा:-सिन्धु घाटी का प्रमुख केन्द्र हड़प्पा पाकिस्तानी पंजाब में पड़ता है । यहां से प्राप्त कुछ मोहरें कायोत्सर्ग मुद्रा में प्राप्त होती हैं । इस सभ्यता का समय ईसा पू. 7000 वर्ष आंका गया है, जो भगवान पार्श्वनाथ से पहले का है। इतनी बड़ी सभ्यता में किसी भी वैदिक क्रियाकाण्ड से जुड़े धार्मिक स्थल या यज्ञशाला का प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। वस्तुतः यह सभ्यता यहां के मूल द्रविड़ लोगों की सभ्यता थी, जो श्रमण संस्कृति के उपासक थे । यहां से प्राप्त नग्न प्रतिमा की तुलना लुहानीपुर (पटना) से प्राप्त मौर्यकालीन प्रतिमा से की जा सकती है । दोनों प्रतिमाओं के आकार में अंतर जरुर है। दिगम्बर आचार्य मुनि श्री विद्यानन्द जी म. ने बहुत सी मुद्राओं का अध्ययन कर यह सिद्ध किया है कि कई मुद्राएं भरत बाहुवली से सम्बन्धित है । मोहनजोदड़ों से प्राप्त ध्यानस्थ योगी की प्रतिमा का सम्बन्ध विशुद्ध श्रमण परम्परा से है । वैदिक धर्म में ध्यान की परम्परा बाद की है। 2. कासन :- हरियाणा के गुड़गांव जिले में पिछले दिनों एक प्राचीन जैन मन्दिर के अवशेष प्राप्त हुए हैं । इस मन्दिर के 3 शिखर हैं। बीच में 16 आले हैं, जो सम्भवतः 16 विद्या देवियों के स्थान रहे होंगे । यह प्रतिमाएं धातु की हैं, सभी प्रतिमाओं का समय सं 1300 से 1400 वर्ष से 400 वर्ष तक आंका गया है । मूल प्रतिमा में भ. पार्श्वनाथ और भ. महावीर स्वामी की प्रतिमा बहुत ही आकर्षक है । इस मन्दिर को अब दिगम्बर अतिशय जैन तीर्थ का रूप दिया है । यहां से 14 प्रतिमाएं प्राप्त हुई थी । प्रतिमाएं भगवान मल्लीनाथ मुनिसुव्रत स्वामी अभिनंदन जी स्वामी की एक एक प्रतिमा है | दो यंत्र के एक चरण प्राप्त हुए हैं 4 प्रतिमाएं अष्टधातु की है । 3. पिंजौर :- पिंजौर ग्राम हरियाणा के कालका जिले में पड़ता है । अपने मुगल गार्डन के लिए प्रसिद्ध इस स्थल से कुछ दूर बहुत सी विशाल जैन प्रतिमाएं निकली थी, जो भूरे रंग की हैं । इसका समय 8वीं सदी जान पडता है । प्राचीन साहित्य में इस गांव का नाम पंचपुर था । यह जैन कला का अच्छा केन्द्र रहा है । यहां से प्राप्त प्रतिमाएं कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में देखी जा सकती है । इन में ज्यादा प्रतिमाएं तीर्थंकर ऋषभदेव, पार्श्वनाथ व महावीर की है। 4. अग्रोहा :- अग्रवालों को लोहिताचार्य ने प्रतिबोधित कर दीक्षित किया था । आजकल अग्रोहा की खुदाई में बहुत पुरातत्व सामग्री प्राप्त हुई है । एक दरवाजे का ऊपरी भाग प्राप्त हुआ है, जो सम्भवतः किसी मन्दिर का भाग रहा हो । इस पर भ. नेमिनाथ जी की सुन्दर प्रतिमा अंकित है । यह कृति आजकल हरियाणा पुरातत्व विभाग चण्डीगढ़ में देखी जा सकती है। 5. थानेश्वर :- कुरुक्षेत्र या थानेश्वर के स्थल का सम्बन्ध भ. महावीर से भी रहा है । भ. महावीर अपने तपस्या काल में धूणाक सन्निवेश पधारे थे । यह स्थल गीता स्थल के नाम से प्रसिद्ध है । यहां एक तीर्थंकर का सिर प्राप्त हुआ है । इसके समय का अंदाजा नहीं लगता, पर यह भूरे पत्थर का है । यह कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में रखा है । 6. अस्म्भलवोहल:- अगर आपको विशाल खड़ी कायोत्सर्ग श्वेताम्बर प्रतिमाओं का भण्डार देखना हो, तो आप देहली - रोहतक रोड़ पर एक नाथ सम्प्रदाय के डेरे में देख सकते हैं । सारी प्रतिमाएं लंगोटे धारण किए हुए हैं, जो राजा सम्प्रति काल या गुप्त काल की होनी चाहिए । भ. पार्श्वनाथ की प्रतिमाओं के अतिरिक्त किसी तीर्थंकर को पहचानना मुश्किल है। बहुत से शासनदेव-देवियों की प्रतिमाएं भी उस युग की हैं, शायद यह प्रतिमाएं कहीं से लाकर यहां छुपाई गई हों । पर सब प्रतिमाएं सुरक्षित हैं । 7. सिरसा :- यहां के सिकंदराबाद ग्राम व सिरसा से 9 से 11 वीं सदी की बहुतसी जिन प्रतिमाएं उपलब्ध हुई है। इसके अतिरिक्त नींव से प्रभु ऋषभदेव की 9वीं सदी की भव्य प्रतिमा प्राप्त हुई है । एक तीर्थंकर का खण्डित शीश झज्झर के भक्त से प्राप्त हुआ था जो 10वीं सदी का है । 8. हांसी :- दिगम्बर जैन धातु प्रतिमाओं का विशाल भण्डार हांसी से प्राप्त हुआ था । इसके किले में एक ईमारत देखने का हमें सौभाग्य मिला है । वह बाह्य; आकार से किसी जैन मन्दिर का प्रारूप है । हो सकता है, किले में विशाल मन्दिर हो और उसी की प्रतिमाएं किले में आक्रमणकारियों के भय से छुपा दी गई हों । अब यह प्रतिमाएं दिगम्बर जैन समाज के पास हैं । यह प्रतिमाएं परिहार राजाओं के समय की हैं और पुनः नये मन्दिर में स्थापित की जा रही है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द ज्योति 108 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्च ज्योति Hanuarue Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 9. रानीला :- यह नया दिगम्बर जैन तीर्थ है । रानीला भिवानी के पास पड़ता है । इस गांव में 24 तीर्थंकर का एक विशाल पट्ट निकला है, जिसके मूल में भ. ऋषभदेव स्थापित हैं । चक्रेश्वरी देवी की प्रतिमा भी यहां से प्राप्त हुई है। यह प्रतिमा 8वीं सदी की है । इस प्रतिमा के दर्शन का हमें सौभाग्य प्राप्त हुआ है। 10. अम्बाला :- यह हरियाणा का प्रसिद्ध जिला है । यहां श्वेताम्बर मन्दिर के जीर्णोद्धार के समय वि.सं 1155 की नेमिनाथ की, वि.सं. 1454 की भगवान वासुपूज्य जी की वि.सं. 1455 की पदमावती पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं प्राप्त हुई थी, जिसे इस मन्दिर में स्थापित कर दिया गया है । मन्दिर जैन बाजार में स्थित है । 11. नारनौल:-यहां 12वीं सदी की दो विशाल तीर्थंकरों की प्रतिमाएं भूरे रंग के पत्थर की प्राप्त हुई थी, जिसके पीछे विशाल परिकर है । 12. तोशाम :- यह छोटा सा कस्बा हिसार के पास है । 9-10वीं सदी में यहा जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं प्राप्त हुई थी । जो मल्लीनाथ भगवान की है। 13. कांगड़ा :- यह प्राचीन जैन तीर्थ है, जिसका विवरण विज्ञप्ति त्रिवेणी' ग्रन्थ में विस्तृत रूप से आया है । आज भी कांगड़ा के भव्य किले में भगवान ऋषभदेव की प्राचीन प्रतिमा स्थापित है । पास ही अम्बिका देवी का मन्दिर है। ऐसा माना जाता है कि पहले यहां भ. नेमिनाथ की प्रतिमा थी, जिसके स्थान पर इस प्रतिमा को स्थापित किया गया। इस किले में और भी अनेक मन्दिरों के खण्डहर है, जिस पर शोध की आवश्यकता है । इस तीर्थ की खोज का सौभाग्य पंजाब केसरी आचार्य श्री विजयवल्लभजी म. को है । इस तीर्थ का उद्धार जैन भारती महतरा मृगावती श्री जी ने किया था । कांगड़ा के इन्द्रेश्वर मन्दिर में डा. वुल्हर ने भ. ऋषभदेव की खण्डित प्रतिमा के पत्थर पर एक शिलालेख पढा था । इसी तरह वैजनाथ पपरोला में भी एक प्रतिमा लेख का उल्लेख उन्होंने किया है | इसीके पास ज्वालाजी मन्दिर में आज भी एक स्थान पर सिद्धचक्र का गट्टा पड़ा है । आज से 100 वर्ष पूर्व वहां शिलालेख था, जिसे इसी विद्वान ने पढ़ा था । यहीं लुंकड यक्ष की पूजा होती है १० । ज्वाला जी शासनदेवी रही है, हो सकता है, मूल नायक की प्रतिमा वहां रही हो । पर आजकल वहां कोई जिनप्रतिमा नहीं । इस मन्दिर का उल्लेख विज्ञप्ति त्रिवेणी में भी आया है । 14. हस्तिनापुर :- तीन तीर्थंकरों के 12 कल्याण्कों की यह पवित्रस्थली, जिसे कौरवों की राजधानी होने का सौभाग्य रहा है । गंगा के किनारे होने से इसे बहुत विनाश झेलना पड़ा है । इसका प्रमाण विस्तृत टीले हैं और उन टीलों पर शेष हैं - पुरातत्व के चरण चिन्ह । भ. ऋषभज्ञदेव के पारणास्थल के करीबी टीले पर दिगम्बर सम्प्रदाय द्वारा मान्य तीनों तीर्थंकरों की चरण पादुका हैं । इनके अतिरिक्त गंगा नहर की खुदाई से तीन 7-8वीं सदी के तीर्थंकरों की प्रतिमाएं मिली थी, जो यहां के 200 वर्ष प्राचीन दिगम्बर मंदिर में विराजमान है, इस मंदिर में भ. शांतिनाथजी की विशाल खड़ीधातु की खंगासन प्रतिमा पारणा स्थल से प्राप्त हुई थी । इस पर एक लेख भी है। यह प्रतिमा 12वीं सदी की है । हस्तिनापुर में वर्षीतप का पारणा होता है । दोनों सम्प्रदायों के विस्तृत व भव्य मन्दिर यहां बनें हैं। माता ज्ञानमती जी का जम्बूद्वीप यहां दर्शनीय स्थल है। स्वयं आचार्य जिनप्रभवसूरि ने विविधतीर्थकल्प में इस क्षेत्र के मन्दिरों का उल्लेख किया है । पर वह मन्दिर आज प्राप्त नहीं है । प्रसिद्ध जैन विद्वान एवं समयसार नाटक के रचयिता पं. बनारसी दास ने यहां यात्रा की थी, तब भी वहां प्राचीन मन्दिर विद्यमान थे। 15. कटासराज :- यह क्षेत्र पाकिस्तान के झेहलम जिले में पड़ता है । यह पहाड़ी क्षेत्र हिन्दुओं का धर्म स्थान है। कहा जाता है कि इस स्थल पर युधिष्ठर ने यक्ष के प्रश्नों के उत्तर दिए थे । इन्हीं पहाड़ियों में अनेक स्थलों पर जिन प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं जो किसी जैन मन्दिर के अवशेष हैं, ऐसा उल्लेख 'मध्य एशिया व पंजाब में जैन धर्म' नामक ग्रन्थ में प. हीरालालजी दुग्गड़ ने किया है । इसका प्राचीन नाम सपादलक्ष पर्वत माना जाता है । 16. करेज एमीर (वर्तमान रुस) :- अफगानिस्तान में यह क्षेत्र पड़ता है । यहां एक खंडित चौबीसी प्राप्त हुई है जिस का वर्णन "जैन स्थापत्य व कला खण्ड भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्राप्त होता है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 109 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 17. दिल्ली :- यह क्षेत्र पुरातत्व से भरा पड़ा है । महरौली में कुव्वते इस्लाम, मस्जिद के खम्बे जैन प्रतिमाओं व चिन्हों से भरे पड़े हैं । मस्जिद की गुम्बदों की छतों पर तीर्थंकरों के जन्म कल्याणक की प्रतिमाएं खुदी हैं । पास में प्राचीनता की दृष्टि से खरतरगच्छ के प्रभावक मणिधारी दादाश्री जिनचन्द सुरीश्वर की दादावाड़ी है । पूज्य जिन कुशल सूरि की दादावाडी अब पाकिस्तान (सिंध) में है । 18. कल्याण :- यह गांव पटियाला से नाभा जाने वाली सड़क पर 5 क.मी. पर है । यहां इन पंक्तियों के लेखक व पुरातत्व विभाग के कर्मचारी श्री योगराज शर्मा को कुछ खण्डित प्रतिमाएं मिली, जिन्हें गाँव के बाहर दरवाजे पर लोग सिंदूर डालकर भैरव मानकर पूजते थे । कोई प्रतिमा सही सलामत नहीं थी । इन खण्डों को विभाग में लाकर साफ किया गया है यह प्रतिमा श्वेताम्बर सम्प्रदाय की है । इन खड़ी प्रतिमाओं के लंगोट धारण किए हैं, इनका समय 8-9 शताब्दी माना गया है । यह अधिकतर भ. पार्श्वनाथ व भ. ऋषभदेव की है । इनके चिन्ह भी प्रतिमाओं पर अंकित है । 19. झज्जर :- हरियाणा के गांव झज्जर से भी एक खण्डित तीर्थंकर की प्रतिमा मिली है । 20. खिजराबाद :- यह गांव रोपड़ जिले में पड़ता है । यहां ब्राह्मी लिपि में अंकित एक जैन तीर्थंकर की प्रतिमा निकली थी, जिसे पुरातत्व विभाग ने भ. महावीर की प्रतिमा माना है । इसका समय 8-9 सदी है । 21. ढोलवाहा :- यह गांव जिला होशियारपुर से 37 मील दूर है । इसका संबंध जैन व हिन्दू-दोनों धर्मों से रहा है। यहां 8वीं सदी की एक चतुर्मुखी प्रतिमा निकली है, जो आजकल साधु-आश्रम होशियारपुर के म्यूजियम में है। 22. सुनाम :- यह एक प्राचीन नगर है, जिसका सीता माता से सम्बन्ध जोड़ा जाता है । यहां एक सन्यासी श्री भगवन्त नाथ के डेरे में 7-8वीं सदी की भ. पार्श्वनाथ की काले रंग की खंण्डित प्रतिमा थी, जिसे लेखकों ने आंखो से देखा था । पर कुछ दिनों बाद मन्दिर का पुजारी इस प्रतिमा को लेकर भाग गया । उस डेरे में खण्डित प्रतिमा ही जगह एक भ. पार्श्वनाथ की प्रतिमा आज भी स्थापित है । उसका समय व स्थापनकर्ता का पता नहीं । अभी कुछ दिन पहले सुनाम के पास लोहाखेड़ा गांव में अनेक खण्डित प्रतिमाएं निकली । जिनका वर्णन पंजाबी ट्रिब्यून में आया। पर अब यह प्रतिमा कहां हैं, पता नहीं चला । इसी प्रकार फरीदकोट से एक सर्वतोभद्रिका प्रतिमा निकलने का समाचार तो आया, पर अब वह प्रतिमा कहां है, किसी को पता नहीं । 23. भठिण्डा :- पंजाब के प्रसिद्ध शहर और सबसे बड़े जंक्शन भठिण्डा में एक सज्जन श्री हंसराज वांगला के खेत से तीन परिकर युक्त प्रतिमा, एक जिनकल्पी मुनि की प्रतिमा निकली थी । समाचार पाते ही हम कैमरा लेकर वहां पहुंचे। प्रतिमाओं को साफ किया गया । सफेद संगमरमर की प्रतिमाएं थी, किसी बड़े मन्दिर की मूर्तियां थी, क्योंकि मूलनायक की इतनी बड़ी प्रतिमा पंजाब में और कहीं भी नहीं मिली । उसका शिलालेख वीर पाव पूरिया से शुरू होता था। हमने उसका अर्थ वीर निर्वाण संवत लगाया है । चिन्हों के आधार पर इसे भ. नेमिनाथ की प्रतिमा घोषित किया गया । विशाल प्रतिमा परिकर युक्त सफेद संगमरमर की है । साथ में श्री संभवनाथ भ. की प्रतिमा प्राप्त हुई है । एक जिनकल्पी मुनि की प्रतिमा तीर्थंकर सादृश्य है पर उसके कंधे पर छोटा सा वस्त्र (संभवतः) मुखवस्त्रिका है । सामने रजोहरण पड़ा है । ये प्रतिमा श्वेताम्बर है । आजकल यह धरोहर पटियाला स्थित सरकारी म्यूजियम मोती बाग में है । 24. माता श्री चक्रेश्वरी तीर्थ : यह क्षेत्र सरहिंद में पड़ता है । विशाल जंगल में भ. ऋषभदेव की शासनदेवी चक्रेश्वरी माता स्थापित है। ऐसी किवदन्ती है कि 8-9 सदी में कुछ तीर्थयात्री कांगड़ा जा रहे थे, उनके पास यह प्रतिमा थी । यह यात्री खण्डेलवाल जाति के थे, जो मध्यप्रदेश से आए थे । माता के आदेशानुसार यह इसी क्षेत्र में बस गए । माता का मन्दिर पिण्डी रूप में स्थापित किया गया, जो आज भी विद्यमान है । आज यह क्षेत्र खण्डेलवालों तक ही सीमित हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 110 हेमेन्य ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Jaurrent Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ नहीं, बल्कि जैन-अजैन सभी की आस्था का केन्द्र है । सरहिंद युद्धों का क्षेत्र रहा है । बन्दा सिंह बहादुर ने यहां की ईंट से ईंट बजा दी थी । युद्ध क्षेत्र में भी माताजी का भवन सुरक्षित रहा है । पास में चमत्कारी जलकुण्ड है, जिस में पानी खत्म नहीं होता, इसे अमृत कुण्ड कहा जाता है । इस प्रकार प्राचीन पंजाब का पुरातत्व बहुत ही विस्तृत था । हर काल में यहां जैन धर्म किसी न किसी रूप में विद्यमान रहा । स्थनकवासी व तेरहपंथी परम्परा से पहले खरतरगच्छ व तपागच्छ व लोंकागच्छ के यतियों ने जैन धर्म का प्रचार अपने ढंग से किया । हमने यथा बुद्धि प्राचीन पंजाब के पुरात्तव क्षेत्रों का वर्णन किया है । कई म्युजमों में बाहर से लाई जैन प्रतिमाएं हैं, उनका पंजाब से कोई सम्बन्ध नहीं, इस लिए वर्णन नहीं किया गया । संर्दभ स्थल कणगखल णाम आसम पद दो पंथ उज्जुओ य वंकोप जो सो उज्जुओ सो कणगखल मज्झिण वच्चति वंको परिहरंतो - सामी उज्जुएण पघाइतो- आवश्यकचुर्णि 278. (कणखल आश्रम पद को पहुंचने के दो रास्ते हैं । एक सरल दूसरा लम्बा। दोनों रास्ते कणखल आश्रम (हरिद्वार) जाते थे । प्रभु महावीर ने छोटा रास्ता छोड़ लम्बा रास्ता ग्रहण किया । क. आवश्यक चूर्णि ख. भवगती सूत्र 25/3,3-6 3. भगवती सूत्र 4. विपाक सूत्र भिखराज महामेघवाहन खारवेल के शिलालेख के अंश क, 1. नमो अरहंतान 1. नमो सवसिधांन 1. ऐरेन महाराजेन महाभेघ वाहनेन चेतराजवंस - वघनेन पसथ सुभ लखनेन चतुरतल थुन-गुनो. पहितेन कलिंगधिपतिना सिरि खारवेलन । 2. मंडे च पुव राजनिवेसित - पीथड़ग द (ल) भ-नंगले नेकासयाति जनपद-भावनं च तेरस वस-सत-कुतुभद-तितं मरदेह संघातं 1 वारसमे च वसै-सेहि वितासपति उतरापथ राजानो 6. राजतरंगनी (1 - 101, 102, 103) (4-202) 7. भात भावगत विष्णु, वायु, पदम आदि सभी पुराणों में भगवान ऋषभ का उल्लेख है । इन पुराणों से उत्तर भारत में जैनधर्म की स्थित पर प्रकाश पडता है । 8. कुमारपाल प्रबोध प्रबन्ध के अनुसार राजा कुमारपाल ने अपने देशों में जैन धर्म को राज्य धर्म घोषित किया । पूर्ण अहिंसा का पालन करवाया। जनहित कार्य किये मन्दिर बनवाये । लोगों को न्याय पर आधारित शासन प्रदान किया । 10. क. वारह नेमिसर तणए, थपिथ राय सुसरमि आदिनाह अंबिका, सहिये, कंगड़कोट सिहरमि (नगरकोट विनती स. 1488) (ख) ज्वाला मुखी तीर्थ पर जैन प्रतिमा होने का प्रमाण आचार्य श्री जय सागरोपाध्याय कृतचैत्य परिपाटी (समय विक्रम संवत 1500 के लगभग) में इस प्रकार मिलता है - इस नगरकोट षमुकरव ठाणेहि जयजिणभइ वंदिया ते वीर लउकड देवी जाल मुखिय मन्नई वंदिया । अर्थात :-'यह कांगडादि क्षेत्रों में मैंने जिनेश्वरों भगवान की प्रतिमा को नमस्कार करते समय इस क्षेत्र में वीरलकुंड और देवी ज्वालामुखी की मान्यता भी देखी। (ग) ओम संवत 1296 वर्षे फाल्गुन वदि 5 रवौ कीरग्रामे वृहमा क्षेत्र गोत्रोपन्न व्यय. भानु पूत्राम्या व्यव्दोल्हण आलहण्भ्या स्वकारित श्री मन्महावीर जैनचैत्य श्री महावीर जिन बिम्ब आत्म ओयों (\) कारितं । प्रतिष्ठतं च श्री जिन वल्लभ सुरि संतानीय रुद्रपल्लीय श्रीमद भयदेव सूरि शिष्य श्री देव भद्र सूरि । एपीग्राफी इंण्डिया भाग एक पृष्ठ 118 संपादक डा. वुल्हर. हेगेन्द्र ज्योति* हेमेन्य ज्योति 111 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति। Jata nte Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ + अद्भुत समाधि - साधना साध्वी मणिप्रभाश्री अनमोल एवं अद्भुत मनुष्य भव की संपूर्ण साधना का परिणाम जीवन की अंत घड़ी में रहने वाली समाधि है। अतः साधना ऐसी हो जो जीवन को भावित एवं सुसंस्कारित बनावें, जिन संस्कारों के कारण सर्व त्याग के क्षण मौत के समय में भी मन विहलित अथवा भयभीत न बनकर स्वस्थता का अनुभव कर सकें। गत वर्ष हम सूरत में थे । एक भाग्यशाली अपने घर के प्रांगण में रोज विशाल साधु-साध्वी समुदाय को पानी वहोराने का अपूर्व लाभ उठा रहे थे । एक दिन रात्रि में पति-पत्नी सोये हुए थे सुबह 4 बजे का समय था, अचानक पत्नी की आंखे खुली और पतिदेव के श्वास की आवाज और हृदय की धड़कन से चतुर नारी ने पति की अंतिम घड़ी का अहसास कर लिया। धर्मवासित हृदय ने संसार की असारता एवं अनित्यता को समझते हुए अंतिम साधना पर नजर दौड़ाई । एक सेकंड का भी विलम्ब या डॉक्टर आदि को बुलाने को रकझक और मौत के भय को एक तरफ रख लाइट भी करने का विलम्ब न करते हुए जोर-जोर ने नवकार मंत्र सुनाने लग गयी । उस अंधेरी रात में 4 बिल्डिंग तक उनकी आवाज पहुंच रही थी । घर में सोये हुए पुत्र एवं पुत्र वधुएं अचानक रात्रि में नवकार की इतनी जोर की आवाज सुनकर दौड़ आये । सभी लोग इक्कट्ठे हो गये नवकार की ध्वनि में सब लीन बार बार पूरा नवकार सुनाने के बाद पत्नी ने पतिदेव से पूछा- क्या आप सुन रहे है? उन्होंने ने मुख हिलाकर स्वीकृ ति दी - तीसरी नवकार सुनाते-सुनाते तो प्राण-पंखेरु उड़ गये । यह है अंतिम समाधि की साधना । जैन धर्म की परिणति और सम्यग्दर्शन के बिना यह बात संभव नहीं । मौत से घबराया हुआ व्यक्ति भय के चक्कर में आर्त्तध्यान में पड़ जाता है - धन्य है ऐसी धर्मपत्नी को जिसने ऐसे समय में अपने भावी दुःख की तरफ नजर न कर पतिदेव के आगामी भव एवं पतिदेव के भावी आत्मोत्थान को ही प्रधानता दी । एक बार एक साध्वीजी म. विहार कर रहे थे । रास्ते में विहार करते-करते गुरुदेव से थोड़े आगे निकल गये। संयोग वश वहां उनका एक्सीडेन्ट हुआ और दोनों पैरों में फेक्चर हो गया । खून की धारा बहने लगी । श्रावक गाड़ी में डॉ. के पास ले जाने के लिए आतुरतापूर्वक विनंती कर रहे थे । फिर भी साध्वीजी म. ने शांति से कहां - मेरे गुरुदेव पीछे आ रहे हैं - उनको आने दो फिर उनकी आज्ञा हो उस प्रकार करें । इतना जवाब दे, वे पक्खीसूत्र के स्वाध्याय में लीन बन गये। पंच महाव्रत को साधने लगे । ऐसी अवस्था में आत्म समाधिपूर्वक स्वाध्याय लीनता । धन्य ऐसे जैन शासन को । धन्य है साध्वीजी को । कि जिन्होंने शरीर की मूर्छा छोड़ आत्म समाधि को साध लिया । । हमारे पास के उपाश्रय के एक साध्वीजी महान् तपस्वी । अट्ठाई के पारणे अट्ठाई की अजोड़ साधना । मात्र इतना ही नहीं पारणे में भी आयम्बिल । आयम्बिल भी अनुकूल सामग्री से न कर 1 बजे आयम्बिल खाते में जब सब समेटने का समय होता उस समय जाते, एवं जो कुछ निर्दोष मिलता मात्र एक ही वर्ण का आहार वहोर कर लाते एवं अट्ठाई का पारणा स्वयं गौचरी लाकर ही करते दूसरे दिन से पुनः अट्ठाई शुरू हो जाती । अट्ठाई के साथ ही विनय वैयावच्च भी अपूर्व । एवं चारित्र चुस्तता तो इतनी की रात्रि के समय में बीच में बाहर से उजइ आ रही हो कामली ओड़कर भी एक रूम में से दूसरे रूम में नहीं जाते थे । इस प्रकार अद्भुत साधना के साथ 13 अट्ठाई हो हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 112 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ चुकी । 14 वी अट्ठाई का तीसरा दिन आया – धीरे धीरे बुखार चढ़ने लगा । गुरुदेव ने डॉ. को बुलाने का कहा। लेकिन उन्होंने नम्र निवेदन किया कि - इतने से बुखार में डॉ. की जरूरत क्या है? एक-दो दिन और देखें । दुपहर का समय अंदर अतिवेदना होने लगी तो भी मुख पर सौम्यता को धारण करते हुए गुरुदेव से विनंति की मुझे महाव्रत (पक्खी सूत्र) आपके श्रीमुख से सुनाये । तीसरे महाव्रत का आलावा सुनते सुनते मस्तक गुरु चरणों में ढल गया । अपर्दू समाधि सह प्राण पखेरु निकल गये । धन्य है इनकी समाधि / धन्य तपस्या । धन्य साधना । जिन शासन में समाधि की कीमत खूब अधिक है । इसलिए प्रतिदिन लोगस्स एवं जयवीयराय सूत्र में भगवान के पास बारम्बार उत्तम समाधि की मांगणी की जाती है । साधक आत्मा समझती है कि जीवन में मरण समय जो एक बार समाधि की साधना हो गई तो साध्य मोक्ष बिल्कुल नजदीक ही समझ लो । लेकिन यह समाधि लाने के लिए जीवन भर अद्भुत साधना एवं धन परिजन एवं संसार की अवस्थाओं एवं शरीर के मोह से दूर रहना जरूरी है । आत्म तत्व को समझे बिना उसकी कीमत आंके बिना शरीर से निस्पृह और मौत समय घर परिवार के छूटने का भयत्यागना अति मुश्किल है । जीवन में बनने वाली छोटी-छोटी घटनाएं एवं छोटे-बडे शारीरिक रोग या कष्टों में अगर पूर्व कर्म आदि के चिंतन से यदि मन को स्वस्थ रखने का प्रयत्न किया जाय तो जीवन भी समतामय बन सुखी बन सकता है एवं अंत में भी प्रभु चरणों में मन जुड़ सकता है । चलो अपने भी परमात्मा के शासन को प्राप्त करने की सफलता जीवन को समता एवं समाधि से शणगारित करके करें । जिस धर्म या समाज का साहित्य अत्युज्जवल और सत्य वस्तुस्थिति का बोधक है संसार में वह धर्म या समाज सदा जीवित रहता है, उसका नाश कभी नहीं होता। आज भारत में जैनधर्म विद्यमान है, इसका मूल कारण उसका उज्जवल साहित्य ही है। जैन-साहित्य अहिंसादि और सत्य वस्तुस्थिति का बोधक है। इसी कारण से आज भारतीय एवं भारतेतरदेशीय बड़े-बड़े विद्वान् इसकी मुक्तकंठ से सराहना कर रहे हैं। अतः जैन साहित्य का मुख उज्ज्वल और समादणीय बन रहा है। सर्वादरणीय और सत्य साहित्य में संदिग्ध रहना अपनी संस्कृति का घात करने के बराबर है। जिस देव में भय, मात्सर्य, मारणबुद्धि, कषाय और विषयवासना के चिन्ह विद्यमान हैं, उसकी उपासना से उसके उपासक में वैसी बुद्धि उत्पन्न होना स्वभाविक है। जैनधर्म में सर्व दोषों से रहित, विषयवासना से विमुक्त और भवभ्रमण के हेतुभूत कर्मो से रहित एक वीतराग देव ही उपास्य देव माना गया है। जिस की उपासना से मानव ऐसा स्थान प्राप्त कर सकता है जहाँ भवभ्रमणरूप जन्म-मरण का दुःख नहीं होता। इस प्रकार के वीतराग देव की आराधना जब तक आत्मविश्वास से न की जाय, तब तक न भवभ्रमण का दुःख मिटता है और न जन्म-मरण का दुःख। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 113हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति टेलर ज्योति के होठोठाव SEPHONULE Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ न विहार से लाभ - साध्वी मोक्षयशाश्री मेरे गुरु भगवन्तों ने मुझे विहार करने का कहा है और तुम्हारे डॉ. तुम्हें कहते हैं कि तुम मोटे हो, तुम्हें अपनी Body Maintain रखने के लिए सुबह जल्दी उठकर walking में जाओ और Exercise करो । विहार में जब भी चलना चाहें तब चल सकते हैं विहार कर सकते हैं । और जहां इच्छा हुई वहां रूक सकते हैं । सब जगह हमारे अपने ही घर है | Train की तरह कोई Fix Time नहीं कि 2.15 की Train है या 4.30 की Train हैं जल्दी चलो नहीं तो गाड़ी चूक जायेंगे । ऐसी बात हमारे में नहीं होती हैं । तुम लोग गांव, शहर घूमने जाते हो और कितना पैसा खर्च हो जाता है । ध्यान ही नहीं रहता है । और उसमें भी सब कुछ देखने को नहीं मिलता है । हमको तो विहार में जंगल में मंगल, नदी, नाला, पहाड़, टेकरी, बगीचा आदि बहुत कुछ free of Charge देखने को मिलता है । जामुन, आम, चीकू, सीताफल, पपैया आदि फलों से लदे हुए पेड़ भी दिखते हैं चाहे तो खा भी सकते हैं, मगर हमको तो आप जैसे श्रावक लोगों से वापरने के लिए बहुत कुछ मिल जाता हैं, इसलिए इन सबकी इच्छा ही नहीं होती हैं । किसी भी दिन Train आदि की भीड़ में फंसने का नहीं, कभी एक्सीडेन्ट का डर नहीं कभी गाड़ी चूकने का भय नहीं । गांव-शहर का अलग-अलग खान-पान, रहन-सहन, भाषा आदि देखने व समझने (सीखने) को मिलता है । सुबह उठकर मजे से सूट - बूट पहेरी (पहनकर) Walking करने जाने की तरह, हम अपनी 'उपधी' अपने शरीर पर बांधकर ठण्डी ठण्डी हवाओं के साथ विहार करते रहते हैं | किसी भी प्रकार के त्रस या स्थावर सूक्ष्म या बादर, एकेन्द्रिय से लगाकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों की किसी भी प्रकार से हिंसा नहीं । गांव-शहर में उपदेश देकर सबको संसार की असारता बताकर तारने का प्रयास करते हैं । "स्वयं तरिये, दूसरो को तारिये' । जिनशासन का प्रचार प्रसार करते हुए ऐसे आनन्दित विहार करते हुए देखकर दूसरी जाति के लोग भी हमको सम्मान देते हैं, बुलाते हैं अपने घर में या आस-पास में रहने की व्यवस्था करवाते हैं । हमारे पास आकर हमारे आचार विचार पूछते हैं । और जब हम उनको बताते हैं हमारी क्रिया-काम आदि के बारे में, तो वे भी जैन बनने के लिए तैयार होते हैं । और ऐसे अद्भुत जिनेश्वर के मार्ग को पाकर कदम-कदम पर शासन की अनुमोदना करने लगते हैं । आज जो जैन साधु - साध्वी समुदाय का विहार होता है । यह भी एक तरह से जिनशासन की प्रभावना ही हैं । कितने ही लोग सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं, बोधि बीज का रोपण करते हैं और इसी तरह से परम्परा चलती रहती है । ___विहार का आनन्द लेने के लिए लोग छ: री पालित संघ निकालते हैं । जिसमें आराम से विहार होता है और आनन्द भी आता है | और विहार में कितना आनन्द हैं ये बात मैं बता नहीं सकती हूं, इसलिए आपको भी इसका अनुभव करना हो तो अवश्य ही जब भी कोई म. सा. का साथ मिले, विहार का आनन्द जरुर लेना । विहार करने वाले व्यक्ति के जीवन में कभी भी बीमारी नहीं आती है । एक गांव की हवा-पानी अच्छी नहीं लगती हैं तो जल्दी ही दूसरे गांव की तरफ विहार कर सकते हैं । परन्तु बेचारे गृहस्थी की हालत क्या होती है? वह तो बार बार घर बदल नहीं सकता हैं । इसलिए अवश्यमेव संयम ग्रहण करके हमेशा के लिए आजीवन विहार का आनन्द लूटते रहों । यदि अभिलाषा । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति (114 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति Valeeshma-Usage Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ संयम जीवन का सुख साध्वी पुनीतप्रज्ञाश्री आपको दुनिया में हैरान करने वाले दुःखों से बचना है? बंधन से मुक्ति चाहते हो? परतन्त्रता से स्वतन्त्रता पाना चाहते हो? तो वीतराग के बताए हुए उपाय को जो मैंने ग्रहण किये हैं, उसे आप देखिये । अहो ! मैं कितनी भाग्यशाली हूं कि मुझे राष्ट्रपति के दर्शन नहीं लेकिन तीन लोक के नाथ जिनेश्वर भगवन्त के दर्शन व शासन मिला। मैं कितनी ग्रेट हूं आपको मिला है? आपने ग्रहण किया हो तो आप भी ग्रेट हो । इतना ही नहीं बल्कि मुझे तो उनकी आज्ञा पालन का भी लाभ मिला है। आप ग्रेट हो तो मैं ग्रेट से भी ग्रेट हूं। आपको संसार में घूमने जाने में मजा आता हैं। वह सब आनन्द यहां पर फी ऑफ चार्ज' बिना मेहनत किये, बिना मांगे सहज ही मिलता हैं । इतना ही नहीं बल्कि साथ में लाभ भी होता हैं । आपको तो पैसा आदि खर्च करना पड़ता है और साथ ही साथ रागद्वेष करके कर्मबंध भी होता है नुकसान ही नुकासन है हैं ना? सोचो 1 | हमें खाते, पीते, काप (कपड़ा धोते) निकालते, पात्रा साफ करते, काजा (झाडू) निकालते पुस्तकों की पड़िलेहण (साफ-सफाई) करते समय आदि सभी कार्यों में कर्म की निर्जरा ही होती हैं । और आप खाओं पीओं, कपड़ा बर्तन आदि साफ करो तो उसमें कर्म बंध ही है । कितनी मस्त अद्भुत आनन्द की बात है 'समर्पण (आज्ञा पालन भाव)। जो कुछ भी गुरुदेव कहें 'तहति' 10 रोटी खालो 'तहति' अकेले को वहां जाना है 'तहति तुमको एक वर्ष तक दूसरो की सेवा में रहना होगा 'तहति' । इस 'तहति' शब्द में इतनी शक्ति है कि कायर को बलवान, अज्ञानी को ज्ञानी, अनपढ़ को पंडित, जिसे बोलना नहीं आता हो उसे वाचनाचार्य बना देता है। यह एक प्रकार का मन्त्र है। इससे गुरु की अनन्य कृपा प्राप्त होती हैं। क्या खाना, कब खाना, कब पढ़ना, कब बोलना, सोना आना-जाना कुछ भी चिन्ता नहीं । एकासणा करना या उपवास, गुरु कहें वह करना एक क्षण भी विचार करने में सोचने में व्यर्थ नहीं आराम से, स्वतन्त्र रूप से, किसी समर्पण भाव को । भी प्रकार के टेन्शन बिना जीवन जीने की कला चाहिये तो ग्रहण कीजिये आपको तो यह कहां से मिले? बाहर जाऊं या नहीं, यहां कमाई करूं या वहां, यह पकाऊ या वह यह साड़ी खरीदूं या वह सब बातों में पराधीन होना पड़ता है । कितने ही गरीब व्यक्ति होते हैं, लेकिन जब वे भगवान की आज्ञा में आते हैं तो सब उन्हें नमन करते हैं। जैसे संप्रति राजा । घर के व्यक्ति ही नहीं, स्वजन, राजा सेठ, आदि सभी सेवा में हाजिर हो जाते हैं । कोई भी स्थान पर लाखों की भीड़ में सौ रुपये का टिकिट होने पर भी साधु-साध्वी भगवंत को आगे बुलाया जाता हैं । सामने से बुलावा आता हैं । घर में मेवा-मिठाई रोज नहीं खाते होंगे, कभी लाई हो या आई हो फिर भी म.सा. को पहले । सेठ लोग गद्दी से उठकर झुक जाते हैं । Jain ducatran Inte फिर भी आश्चर्य की बात हैं कि इतना मिलने पर भी संतोष सबसे बड़ा गुण हैं। जीवन को सुखी बनाने वाला हैं चाहे कुछ भी मिले या न मिले इनाम, मान सम्मान, प्रभावना, स्कूल में रेंक आदि न मिलने पर भी संतोष शांति है। मिले तो दुर्ध्यान नहीं होने देता। हमें भी गोचरी, उपाश्रय, हवा पानी आदि मिले या नहीं मिले संयम आराधना होगी और न मिले तो परिषह सहन करने को मिलेगा लाभ ही लाभ है। आप भी जीवन में 'संतोष' गुण को अपनाकर देखिये फिर सुख हैं या नहीं सो विचारे । । आजकल टेन्शन सबसे बड़ी बीमारी हैं, जो मात्र साधु जीवन में ही नहीं है । मन हो तब अपने दो पात्र लेकर चले, मन हो तब लाकर खालें, मन हो वहां महल या जंगल स्थान पर पड़ाव डाल दिया। आगे पीछे कुछ देखना नहीं, परिग्रह जैसा कोई धन नहीं है हमारे पास । फिर भी सुखी । क्योंकि चिंतामणि रत्न समान चारित्र रत्न हैं हमारे पास। जिसका मूल्य आपकी संसारी कोई भी वस्तु नहीं आंक सकती हैं । खाने पीने की एक भी दिन की सामग्री नहीं हैं, फिर भी लाखों लोग मिष्ठान्न बहोराने के लिए हैं अर्थात संतोष होने की वजह से मात्र कम से कम द्रव्य में आनन्द हैं। आप भी इस व्यावहारिक सुख को चाहते हो तो अवश्य चारित्र रूपी चिंतामणि रत्न को ग्रहण करें। वास्तविक सुख तो अपने आत्मा में ही हैं। बाहर जो सुख ढूंढते हो वह तो नाशवन्त है। क्षणिक है । इति । हेमेलर ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 115 हेमेलर ज्योति हमे ज्योति www.janelitrary.or Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ क्षमा मेरी है साध्वी क्षमाशीलाश्री 'क्षमा वीरस्य भूषणम्' एक बार यह वाक्य संस्कृत पुस्तक पढ़ते पढ़ते पढ़ा तब मेरे मन में इच्छा हई कि क्यों न मैं वीर बनूं । मेरे जीवन में यह गुण अवश्य आना चाहिये और उसी दिन से मैंने मेहनत की और मेरे जीवन में इस गुण का प्रवेश हुआ । माता पिता आदि घर के बुजुर्गों ने देखा और फिर मुझे दीक्षा की आज्ञा दी । दीक्षा लेने के बाद मेरे परम उपकारी गुरुदेव ने मेरा नाम 'क्षमाशीलाश्री रखा । तब से मैंने अपने नाम को सार्थक करने का और अधिक प्रयास किया । गुरुवर भी मेरी गृहस्थ अवस्था और संयम अवस्था में बदलाव देखकर खुश हुए । मेरा गृहस्थी का नाम 'अनीता था यानि कि नीयत बिना की और क्षमा वाली बन गई। यति धर्म के दस भेद में भी क्षमा पहला भेद है । चार कषायों में भी क्रोध की विरोधी क्षमा पहली है । इस दुनिया में आप क्रोध करके दूसरे को डरा धमका कर आते हैं और फिर मानते हैं कि हमारी जीत हुई, मगर हकीकत में देखें तो (आत्मादृष्टि से देखें) आपकी हार होती हैं । क्योंकि कषाय जो आत्मा से अलग है उसने अपना जोर लगाया और आप उसके वश में आ गये । क्रोधी व्यक्ति के सामने कोई कुछ नहीं बोलते है मगर पीछे से इस भव में बहुत गालियां देते हैं और भवोभव तक अशुभ कर्म का बंध कराते हैं । स्वयं तो कर्म बांधता हैं मगर दूसरे भी उसकी निंदा आदि करने से कर्म बांधते हैं । इससे तो अच्छा, इसका विरोधी, क्रोध का सच्चा हितकारी मित्र 'क्षमा' है । जिस व्यक्ति ने भी इसे जीवन में उतारकर रखा हैं उसने बहुत बार अपनी गलती नहीं होने पर भी कोई कहे तो सुन लेता है । कोई कलंक लगावे, निंदा करे तो भी चुपचाप सहन कर लेता है । परन्तु पलट कर जवाब नहीं देता, इस तरह वह व्यक्ति महान होता है । इसको देखकर बाकी सभी लोग भी इस गुण को धारण करे और इसकी अनुमोदना करे, इसी तरह की परम्परा चले तो फलस्वरूप क्षमावान बनते हैं । वीर प्रभु के कान में खीला लगाया गया तब और मेतारज मुनि के ऊपर सुनार ने चोरी का कलंक लगाया तब उन्होंने क्षमा रखी तो उसी भव में उन्होंने कर्म क्षय करके मोक्ष प्राप्त किया । अगर आपको भी यह सरल और सुन्दर आनन्द की अनुभूति वाले गुण को अपनाना हो तो अपने आत्मा में ही हैं खोलकर देखले । और ग्रहण कर लो । एक भी रुपया पैसा नहीं लगता हैं | दुनिया में एक भी वस्तु ऐसी नहीं है जो मुफत मिलती हों । परन्तु आत्मा के सभी गुण मुफ्त मिलते हैं । मगर इन्द्रियों के विषय से दूर रहना पड़ेगा, यही इस आत्मगुण का मूल्य हैं । आपने स्वयं ने क्षमावान व्यक्ति को मिलने वाले लाभ को देखा होगा । इसलिए चलिये मैं अपने नाम को सार्थक बनाने और आप आत्मिक गुण के प्रगटाने के लिए इस गुण को स्वीकार करते हैं । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 116हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति मेला आयोति कलव्याख्याता Sonature Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ....... न धर्म और जीवन-मूल्य भगवन्तराव गाजरे, निम्बाहेड़ा आज मूल्यगत स्तर पर मानवता संकट-ग्रस्त है । हमारे धार्मिक विश्वास टूट रहे हैं । श्रद्धा तथा आस्था निष्ठा और भक्ति एवं साधना के स्रोत सूख रहे हैं । आत्म संयम और आत्म विश्वास डगमगा रहा है । मानव के ज्ञान और विवेक मृतप्रायः हो गए हैं । हमारा सम्पूर्ण जीवन अभावों और विषमताओं की मार से टूटता जा रहा है। हमारे चारित्रिक पतन, अनैतिक व्यवहार, अमानवीय आचरण, स्वार्थ प्रेरित धन लोलुपता परिग्रह की पागल अभिलाषा तथा सम्पूर्ण भौतिकवादी दृष्टि कोण ने मानव के मन-मस्तिष्क को विकृत कर, विश्व को विनाश के कगार पर ला खड़ा कर दिया है । इस सर्वनाश से बचने का, तथा सम्पूर्ण विश्व को पतन से बचाने का एक ही उपाय है, वह है धर्म तथा उसका कट्टरता से जीवन मूल्यों के साथ पूर्णतया पालन । “यः धारयते सः धर्मः" जिसे मानव जीवन में धारण किया जा सके वही धर्म है। धर्म के ज्ञान और आचरण से मनुष्य को सफल तथा सार्थक जीवन जीने के वे उदात्तगुण प्राप्त होते हैं जो हमें अन्तर्चेतना विवेक, दिव्यालोक, दिव्यसंदेश, दिव्यामृत प्रदान कर युगधर्म के साथ साथ सारे जीवन मूल्यों से परिचित कराकर आत्म-साक्षातकार हेतु प्रेरित करते हैं । वे मूल्य हैं सत्य, अहिंसा, प्रेम, दया, त्याग, तपस्या, सहयोग, परोपकार सेवा, संयम, क्षमा, सहानुभूति, स्वावलम्बन, स्वअनुशासन, सर्वधर्म समभाव, सरलता, धैर्य, विनम्रता, श्रम-निष्ठा, व्रत उपवास, साधना आराधना, ईमानदारी, विश्व बन्धुत्व, गुरुभक्ति, साहस, आत्मविश्वास तथा आशावादी दृष्टिकोण में मूल्य ही धर्म के द्वारा प्राप्त किये जा सकते हैं । धर्म जीवन का मूल है | किन्तु दुर्भाग्य ही मानिए की, हम सब काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद एवं मात्सर्य आदि षड्रिपुओं के अथवा कषायों के अधीन होकर मूल में भूल ही नहीं कर रहे बल्कि भूल को तूल देकर मात्र शूल प्राप्त कर रहे हैं और जीवन पथ के फूल दूर होते जा रहे हैं । यह धर्म हमें इस स्थिति से बचाकर हमारी तथा हमारे विवेक की रक्षा करता है। देव-तत्व ही धर्म का उद्गम है । धर्म आत्मा का निज स्वभाव है । किन्तु वह पृथ्वी में दबे हुए रत्न के समान है । जिनेश्वर भगवंत का मार्ग दर्शन ही 'धर्म' निर्ग्रन्थ प्रवचन एवं मोक्षमार्ग है । कहा भी है कि - "मोक्खमग्गगई तच्चं, सुणेह जिणभासियं | चउकारणसंजुत्तं, णाणदंसण - लक्खणं ।' जिस महान आत्मा ने अपनी उत्तम साधना व निर्जरा से, अपने आत्मशत्रु घातिकर्मों को नष्ट कर दिया, जिन्होंने राग द्वेष का अन्त करके वीतराग दशा प्राप्त कर ली जो सर्वज्ञ बन गए, वे ही धर्म के उद्गम स्थान है। एतदर्थ हमें सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र का अनुकरण तथा मनसा वाचा कर्मणा अनुसरण कर धर्म के मर्म को समझना चाहिए। जैन धर्म की मान्यता है कि कोई महाशक्ति या सत्ता इस विश्व का नियन्त्रण नहीं कर रही है, बल्कि ईश्वर एक सर्वोच्च पद है जिसे आत्म विकास द्वारा कोई भी भव्यात्मा प्राप्त कर सकती हैं । अतः यह आत्म विकास धर्म के बिना संभव नहीं । धर्म ही हमें जीवन मूल्यों की शक्ति भक्ति आस्था-निष्ठा, त्याग तपस्या, साधना आराधना देकर उनमें गति-मति एवं प्रगति प्रदान करता हैं अतःमूल धर्म है और जीवन मूल्य उसके तने, पत्ते शाखाएं किंवा फल और फूल हैं । यही कारण है कि हमारे शास्त्रों में तीर्थकरत्व प्राप्ति के बीस कारणों में एक कारण प्रवचन की प्रभावना अथवा धर्म प्रचार करना भी माना है अतः धर्म तथा जीवन मूल्यों का अविच्छिन्न सम्बन्ध है । वैसा ही जैसा फूल और सुगन्ध का या दीपक और बाती का । दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती । बिना धर्म को जाने या पाले बिना जीवन मूल्यों का अस्तित्व नहीं और बिना जीवन - मूल्यों के धर्म का हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 117 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Sinterritoria ForPragatihar Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ पालना संभव नहीं । अन्तोत्गत्वा दोनों एक सिक्के के ही दो पहलू हैं। हम इन्हें एक दूसरे के पर्याय मान सकते हैं । जीवन की सद्वृत्तियों तथा मानव मूल्यों का विकास करना ही धर्म का प्रमुख उद्देश्य है । मूल्य न तो आरोपित किये जा सकते हैं, और न सामग्री की भांति हस्तांतरित ही किये जाते हैं । मूल्य तो मन के संस्कार हैं । अतः हमें मन को ही। कषायों या विकारों से बचाना होगा । ये मूल्य ही भारतीय संस्कृति या श्रमण संस्कृ ति के मूलाधार है, इसलिए हम सब समवेत स्वर में कहते हैं कि धर्म ही व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र के हितों को सुरक्षित रखने का ब्रह्मास्त्र है । धर्म की आत्मा नैतिकता है और नैतिक नियम सभी धर्मों में एक समान है । इसलिए धर्म सर्वोपरि सर्वोच्च एवं सवोत्कृष्ट है । आइए । हम सब इसका पालन करने में मन से जुट जावें और श्रद्धालु श्रावकों को भी इससे जोड़े । इस स्थिति को लाने, वर्तमान भौतिकवादी भूख एवं व्यवस्था को बदलने, पाश्चात्य के प्रभाव से अनुप्राणित अपसंस्कृति हो हटाकर युवा शक्ति को सुरक्षित करने के लिए हम धर्म पर पूर्ण विश्वास रखें । जैनत्व में प्रदूषण लाने वाली प्रवृत्ति से बचें। कषायों पर अंकुश लगावें । तृष्णा नहीं बढ़ने दें। सेवा-वृत्ति को अपनाएं सदैव संवेदनशील, क्षमाशील एवं सहिष्णु बनें व बनावें । मालवतीर्थ मोहनखेड़ा मोहनखेड़ा मृत्युंजयं से, सचमुच खेल रहा है । शत्रुंजय की शाश्वत आभा, अनवरत उँढ़ेल रहा है ।। इसके कण कण में व्याप्त विजय राजेन्द्रसूरि की शक्ति । हर स्वर हर ध्वनि के अलाप में, बहती मोहन की मस्ती ।। इसकी दिव्य कल्पनाओं में, रमते यतीन्द्र सूरीश्वर । श्रृंगारिक उपकरणों में दिखते, विद्याचन्द्र सूरीश्वर ।। तो, मालव तीरथराज सुमेरु, फूला फेल रहा है ।। मोहनखेड़ा मृत्युञ्य इसलिए कि मृत्यु की महिमा यहाँ घटी है । अमर आत्माओं के पीछे, मृत्यु स्वयं मिटी है ।। शत्रुंजय की आभा अद्भुत, बाबा लेकर आया । आदिनाथ के ऋषभ रूप में, मनवांछित फल पाया ।। तो, यह तीरथ, निर्मल दर्पण सा, परछाई झेल रहा है ।। मोहनखेड़ा जहाँ मोक्षगामी पथ राही, समवसरण' करते हैं । दिव्य भाव से जागृत मानव, वहाँ नहीं मरते हैं ।। मिट्टी का उपचार जहाँ, 'मोहन' की मृत्यु गला दे । वह मृत्युञ्जय शत्रुंजय है, जो पाप शाप जला दे ।। तो, वर्षीतप का सफल पारणा, फल संकेल रहा है ।। मोहनखेड़ा ओ, जैनाकाश सजाने वालों, तीर्थाधिराज को देखो । इस पारस को छूकर अपना, लेखा जोखा .... पेखो || चुम्बक सा आकर्षण 'लहरी' सहज खींच लाता हैं । मानव, मनमंदिर में आकर, स्वयं मोक्ष पाता है ।। तो, राजेन्द्र ज्योति का अमर उजाला, आनन्द डौल रहा हैं । मोहनखेड़ा मृत्युंजय से, सचमुच खेल रहा हैं ।। सोहनलाल 'लहरी', खाचरौद (म. प्र.) शत्रुंजय की शास्वत आभा, अनवरत उँढ़ेल रहा ... हैं ।। हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 118 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ अखण्ड णमोकार गीत - दिलीप धींग णमोकार परम सत्य का स्वरूप है । सम्पूर्ण सम बनें विषम से विषम, अधमा अधम प्राणी भी बनें हैं श्रेष्ठतम, खण्ड - खण्ड काल का अखण्ड रूप है ।। ध्रुव ।। निरापद प्रभाव अनूठा अचूक है | जपा ध्याया जा रहा अनादि काल से, खण्ड - खण्ड ।। 7 ।। जपा ध्याया जायेगा अनन्त काल तक, क्षमा - शान्ति - शील का होता प्रसार है, प्रति समय का ये समयजयी रूप है । मिटता मिथ्यात्व का महा अंधकार है, खण्ड - खण्ड .... ।। 1 ।। सम्यक्त्व का ज्योतिपुंज सूर्य - रूप है । खण्ड - खण्ड || 8 ।। नित प्रति जो णमोकार जपता ध्याता है, नित प्रति वो नये - नये अर्थ पाता है, आदमी को इच्छाओं ने रखा है जकड़, मन के चोर को कौन पाता है पकड़? अनन्त रहस्यों से भरा सन्दूक है । मन का पंचेन्द्रियों का वो बनता भूप है । खण्ड - खण्ड || 2 ।। खण्ड - खण्ड ........... || 9 || मानादि कषायों की विदाई करें, णमोकार कहता खुद पे भरोसा करो, धर्म – मूल की ‘णमो' से सिंचाई करें, नहीं निमित्तों को व्यर्थ कोसा करो, शुष्क धरा पर भी हरा - भरा रूख है । उपादान प्रबल स्वयं का स्वरूप है । खण्ड - खण्ड ... || 10 ।। खण्ड - खण्ड ....... || 3 ।। अटल - आस्था परम विश्वास चाहिये, जिसकी णमोकार से सच्ची प्रीत है, एक तीव्रतम अबुझ प्यास चाहिये, उसकी हार में भी छिपी हुई जीत है, करो तृप्त आत्मा को लगी भूख है । हर रोज नया – सूर्य नई – धूप है । खण्ड - खण्ड ... || 11 ।। खण्ड - खण्ड ... || 4 || आत्म - शान्ति विश्व - शान्ति की है कामना, पंच - परमेष्ठी से यही अभ्यर्थना, कई जिन्दगियों में फूल खिल गये, सत्य - प्रेम - अहिंसा की खिली धूप है । भयंकर से भयंकर भी विघ्न टल गये, खण्ड - खण्ड... || 12 || जिन्दगी की यात्रा का संबल अनूप है । पीना पड़ा जब भी जहर पिया पच गया, खण्ड - खण्ड .... || 5 || महाप्रलय से "दिलीप धींग" बच गया, प्रेरणा का पुंज परम मित्र - रूप है । भयावह वीरानी में सुरम्य गाँव है, खण्ड - खण्ड . || 13 ।। चिलचिलाती धूप में सुहानी छाँव है, णमोकार परम सत्य का स्वरूप है । सर्द सुबह की गुनगुनी धूप है । खण्ड - खण्ड काल का अखण्ड रूप है । खण्ड - खण्ड .. || 6 ।। बम्बोरा, जि - उदयपुर (राज.)- 313 706. हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 119 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Kangar Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 4 पोरवाल जाति और उसकी विभूतियां : लेखक - समाजरत्न स्वं मनोहरलाल पोरवाल, जावरा (म. प्र.) प्रस्तुति - अशोक सेठिया (पोरवाल) जावरा (म. प्र.) पोरवाल समाज भारत की जाति व्यवस्था का एक अभिन्न अंग है । पोरवाल जाति की उत्पत्ति का प्रमाण धार्मिक एवं ऐतिहासिक दोनों ही है । महाभारत में महाराज ययाति का वर्णन आया है । उनके सबसे छोटे पुत्र पुरू कालान्तर में राजा पुरू हुए और उनके वंश का नाम ही पुरू वंश हुआ । यह पुरू वंश ही आगे चलकर पोरवाल, पुरवाल आदि वंशों से उच्चारित होने लगा । वहीं जैन समाज की अनुभूतियों से पोरवाल समाज का उद्भव बौद्धकाल से माना गया है । प्राग्वाट या पोरवाल समाज की संज्ञा प्राप्त करने के पूर्व इस जाति व समाज के लोग शुद्ध क्षत्रिय व ब्राह्मण कहलाते थे । मूलतः क्षत्रिय होने के कारण आदिकाल से ही यह जाति बड़ी शूरवीर, रणकुशल, धीर व साहसी पाई जाती है । जैन धर्मावलम्बियों के अनुसार इसकी उत्पत्ति का श्रेय जैनाचार्य स्वयंप्रभुसूरि (ईसा से लगभग 468 वर्ष पूर्व) को है। वे अनेक विधाओं तथा कलाओं में पारंगत होकर लौकिक व लोकोत्तर दोनों ही प्रकार के ज्ञान से वैष्ठित थे । पोरवाल (प्राग्वाट) शब्द की उत्पत्ति पर विचार करें तो 'प्राग्वाट' शब्द के स्थान पर 'पोरवाल' शब्द का प्रयोग कब से प्रारम्भ हुआ यह तो ठीक से नहीं कहा जा सकता । जैसे कि साहित्यिक व बोलचाल की भाषा में अन्तर होता है, उसी प्रकार प्रामाणिक ग्रंथों, ताम्रपत्रों, शिलालेखों आदि में 'प्राग्वाट' शब्द का प्रयोग हुआ है - 'प्राग्वाट' संस्कृत भाषा का शब्द है और 'पोरवाल' बोलचाल की भाषा में प्रचलित है । यह तो निश्चित ही है कि इस समाज की उत्पत्ति ईसा पूर्व में हो चुकी थी। जैन ग्रंथों के अनुसार हिन्दू समाज में भिन्न धार्मिक सम्प्रदायों की संख्या उससमय 300 थी, जो जैन धर्म में सम्मिलित हुए, जो जैन धर्म के प्रचार-प्रसार के फलस्वरूप अनेक जातियां जैन समाज में सम्मिलित हुई, जिसमें पोरवाड़ों की भी अनेक शाखाएं मिल गई । कुछ विद्वानों के अनुसार प्रारम्भ से ही आर्यों से जिस वैश्य जाति का निर्माण हुआ उसी से पोरवाड़ों की उत्पत्ति हुई । वर्तमान में पूरे भारतवर्ष में पोरवाल समाज की लगभग 17 शाखाएं है । जिनकी अनुमानित जनसंख्या 18-20 लाख के करीब है । इनके अन्तर्गत अखिल भारतिय जांगड़ा पोरवाल समाज, अ. भा. पोरवाल पुरवाइ समाज, अ. भा. पद्मावती पोरवाल समाज, श्री वैष्णव पद्मावती वीमा पोरवाल गंगराड़े समाज, श्री दशा वैष्णव पोरवाल समाज, प्राग्वाट वीसा पोरवाल समाज, अ. भा. गुर्जर प्रदेशीय पोरवाल समाज, अ. भा. पुरवाल वैश्य समाज, श्री गुजराती पोरवाल समाज, श्री वीसा जांगड़ा पोरवाल दिगम्बर जैन समाज, श्री पद्मावति पोरवाल । पुरवाल दिगम्बर जैन समाज, श्री परवार दिगम्बर जैन समाज, श्री वैष्णव पुरवार समाज विहार, श्री दशा पोरवाल श्वेताम्बर जैन समाज, श्री दशा पोरवाल स्थानकवासी जैन समाज, श्री पुरवाल राजपूत समाज कर्नाटक क्षेत्र प्रमुख हैं । इनके अलावा विभिन्न स्थानों पर पोरवाल समाज विभिन्न नामों से प्रख्यात है । जैसे माहेश्वरी समाज में पोरवाल । परवाल गोत्र, महाराष्ट्र में पौंडवाल जाति, पंजाब में पुरेवाल जाट जाति, पोरवाल कलाल समाज (म. प्र. व राजस्थान) पेरिवाल समाज दार्जलिंग व पौडवाल समाज केरल प्रमुख हैं । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 120 हेमेन्द ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ वर्तमान में इन सभी शाखाओं के सामाजिक बंधु मध्यप्रदेश, गुजरात, राजस्थान, दिल्ली, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, पंजाब, मद्रास, बिहार, कर्नाटक, दार्जलिंग, केरल, निमाड़ आदि प्रान्तों में निवास कर रहे हैं। साथ ही पड़ोसी देश नेपाल में भी पोरवाल जाति के बन्धु निवास कर रहे हैं । पोरवाल समाज में ऐसी अनेक महान विभूतियां हुई है । जिन्होंने देश के विकास को व समाज को नई दिशा प्रदान करने में अपनी महती भूमिका अदा की है। साथ ही अपने धर्म का प्रचार प्रसार करते हैं समाज का नाम रोशन किया है। श्री सौधर्म वृहत्तपागच्छीय श्रीसंघ के धर्माचार्य, वर्तमानाचार्य प. पू. श्रीमद्विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. ऐसी ही विभूतियों में एक है । आपका जन्म राजस्थान के जालोर जिले के बागरा नगर में मारवाड़ी वीसा पोरवाल श्रेष्ठि श्री ज्ञानचन्द जी महाचन्दजी तराणी पोरवाल के यहां संवत् 1975 में हुआ था । युवावस्था में आपने दीक्षा ग्रहण की तथा वर्षों तक तपस्या व ज्ञानार्जन करने के पश्चात् सन् 1983 में आहोर (राज.) में आप आचार्यपद पर प्रतिष्ठित हुए । इनके अलावा जांगड़ा पोरवाल समाज में राजा टोडरमल पोरवाल, भक्तशिरोमणि सेठ रामलाल दानगढ़, सन्त श्री सन्तारामजी, श्री कृष्णानंदजी महाराज, संत श्री हीरालालजी महाराज, इतिहासकार स्व. श्री मनोहरलालजी पोरवाल (जावरा) आदि अनेक विभूतियां हुई है । इस समाज के स्व. श्री रतनलालजी पोरवाल (रतलाम), श्री मोतीलालजी पोरवाल (इन्दौर) ने स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रिय भागीदारी निभाई है । अ. भा. पुरवाल पोरवाल समाज में श्री 1008 श्री बाबा प्रयागदास जी महाराज, श्री सतीमाता शान्तिदेवी पोरवाल (भाथना) श्री योगीराज स्वामी कैलाशचंदजी म. स्व. सेठ श्री मोहनलालजी पुरवार, अ. भा. पद्मावति पोरवाल समाज के प. पू. स्वामी श्री प्रज्ञानंदजी म., स्वामी श्री नित्यानंदजी म. पण्डितराज श्री रामकुंवर जी म., स्व. श्री शिवनारायण जी यशलहा, गंगाराड़े समाज के स्व. श्री कालूराम जी गंगराड़े, श्री मौजीलालजी गंगराड़े, श्री दशा वैष्णव पोरवाल समाज के स्व. श्री लक्ष्मीकांतजी गुप्ता, प्राग्वाट वीसा पोरवाल समाज के श्रीमद् यशोभद्र सूरि, आर्यरक्षित सूरि, मुनि श्री रवीन्द्रविजय जी म.सा., मुनि श्री ऋषभचन्द्र विजयजी म.सा., पुरवाल वैश्य समाज दिल्ली के स्वामी भोलानाथजी, स्व. लाला बनारसीदासजी धीवाले, भाई अमरनाथजी कूंचा, गुजराती पोरवाल समाज (उ. प्र.) के रायबाहादुर साहू गोकुलदाम गुजराती पोरवाल, वीमा जांगडा पोरवाल दिगम्बर जैन समाज के मुनि श्री वर्द्धमानसागरजी, श्री मोतीचन्दजी जैन, श्री बलवन्त रावजी मण्डलोई, श्री पद्मावति पोरवाल पुरवाल दिगम्बर जैन समाज के जैन मुनि ब्रह्मगुलाल जी, स्व. श्री 108 आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी म.सा., आचार्य श्री सुधर्मसागरजी म.सा. आचार्य श्री विमलसागरजी म.सा., श्री परवार दिगम्बर जैन समाज के पं. जगमोहनलालजी, सिद्धान्तशास्त्री, श्री दशा पोरवाल श्वेताम्बर जैन समाज की साध वीजी पूज्य श्री मुदिताश्रीजी, श्री शीलपद्मा श्रीजी, श्री विपुलप्रज्ञा श्रीजी, पुरवाल राजपूत समाज कर्नाटक क्षेत्र के बालब्रह्मचारी श्री अमरसिंहजी, श्री फतेसिंहजी सहित सैकड़ों धर्मावलम्बियों व समाज के बन्धुओं ने समाज के उत्थान व देश के विकास का मार्ग प्रशस्त करते हुए अपना अमूल्य योगदान दिया जो कि अविस्मरणीय है । आज आपके अथक प्रयासों व मार्गदर्शन के कारण ही पूरे भारतवर्ष में पोरवाल समाज गौरवमयी जीवन जी रहा है तथा समाज अपनी अलग ही विशिष्ट पहचान रखता है जो कि हमारे लिए गर्व की बात है । हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 121 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति www.ainelibrary.org Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AK श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ कष्टों एवम् विषमताओं की औषधिः समता -साध्वी किरणप्रभाश्री म. वर्तमान समय में समूचे विश्व पर हम चाहें सरसरी दृष्टि से देखें या गहरी दृष्टि से देखें, हमें चारों ओर विषमताओं के दिग्दर्शन होते हैं । विश्व के एक भी कोने में, किसी भी एक क्षेत्र में, कहीं भी नाम मात्र की समता भी दिखाई नहीं देगी। इसके फलस्वरूप आज सारे विश्व में अशांति, दुःख और परेशानियों का बोलबाला है । जीवन का कोई सा भी क्षेत्र ले लें कही भी समता नही है । सामाजिक क्षेत्र को देखें तो ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा, छूत-अछूत, जातिगत भेदभाव, रंगभेद, राष्ट्रभेद, वर्गभेद आदि का जाल बिछा हुआ है । जब मनुष्य मात्र ही नहीं प्राणिमात्र एक है तो फिर यह विषमता क्यों? विश्वमैत्री क्यों नहीं? किन्तु जब हम विश्वमैत्री की बात करते हैं तो हमें परिवार में ही मैत्री का अभाव दिखाई देता है । ऐसी स्थिति में विश्वमैत्री की बात करना निरर्थक प्रतीत होता है । वस्तु स्थिति तो यह है कि आज प्रायः सबके मन में भेदभाव, राग-द्वेष, मोह-घृणा आदि विषमताओं का साम्राज्य है और जहाँ इनका साम्राज्य हो वहाँ मैत्री और शांति कैसे रह सकती है । आर्थिक क्षेत्र को लेते हैं तो हम पाते हैं कि वहां रुपया ही सब कुछ है । उसे प्राप्त करने के लिए सभी प्रकार के अनैतिक कृत्य किये जा रहे हैं । आर्थिक क्षेत्र में विषमता का हाल यह है कि घर घर में खाद्य सामग्री सड़ रही है, बर्बाद हो रही है, तो दूसरे किसी घर में भर पेट रोटी भी नहीं मिल रही है । एक व्यक्ति प्रतिदिन 5, - 10 रु. कठोर परिश्रम करके प्राप्त कर पाता है तो एक को सहज ही बैठे-बैठे केवल जीभ हिलाने मात्र से हजारों का लाभ मिल जाता है । राजनीतिक क्षेत्र की विषमताओं के सम्बन्ध में आज के युग में जितना कहा जाय या लिखा जाय कम होगा। सत्ता प्राप्ति के लिए झूठ-फरेब षड्यन्त्र, हत्या, दंगा, हड़ताल, दलबदल, सौदे-बाजी आदि सभी अनैतिक उपाय काम में लाये जा रहे हैं जो व्यक्ति इतने अनैतिक तरीके से सत्ता प्राप्त करेगा, भला वह किस प्रकार नैतिक रह सकेगा। जब नैतिकता की बात आती है तो वर्तमान में पनप रही अन्याय, अनीति, बेईमानी, विश्वासघात, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, चोरी आदि की बढ़ती हुई प्रवृत्तियां सहज ही स्मरण हो आती हैं । इन सबके होते हुए समता कैसे सम्भव है? धर्म तो अमृत वर्षा करता है, समता, प्रेम, मैत्री का संदेश देता है । किन्तु दुःख इस बात का है कि धार्मिक क्षेत्र में भी विषमता का बोलबाला है । सम्प्रदायवाद बढ़ता जा रहा है । एक सम्प्रदाय के लोग दूसरे सम्प्रदाय पर कीचड़ उछाल रहे हैं, नीचा दिखाने के लिए नित नये हथकण्डे अपना रहे हैं | परस्पर बैर का बोलबाला है । गुण ग्राहकता समाप्त सी हो गई और दोष खोजने की प्रवृत्ति ने जन्म ले लिया। धर्मान्धता का विष समाज में धुल गया है । आजकल तो इस क्षेत्र में मारा पीटी, झूठे आक्षेप लगाने, बदनाम करना आदि बातें आम हो गई है । एक धर्मवाला अपने धर्म की श्रेष्ठता प्रतिपादित करने के लिये दूसरे धर्म को हीन बताता है । धर्म गुरु अपनी प्रतिष्ठा और साधना को उच्च बताने के लिये और सम्मान पाने के लिये दूसरे को नीचा दिखाने के लिए सब कुछ हथकण्डे अपनाने लगे हैं । जब चारों ओर ऐसी विषमताएं हैं, आपाधापी हैं, स्वार्थ है, महत्वाकांक्षाएँ हैं तो फिर वहां सुख और शान्ति की कल्पना व्यर्थ है। इन सब बातों के लिए यह कहा जा सकता है कि यह सब अपने-अपने कर्मों का परिणाम है । जो जैसा कर्म करता है, उसे उसके अनुरूप फल मिलता है । किन्तु भाइयो ! कर्म भी मनुष्य ही करता है । अशुभ कर्म का फल भी अशुभ ही मिलेगा । अशुभ कर्म करने वाले व्यक्तियों का जीवन अशान्त और दुःखी है । वे सदैव चिंतित और भयग्रस्त दिखाई देते हैं / तनाव में जीते हैं । जो अमीर होते हैं वे भी खाते तो अन्न ही है किन्तु वे भी किसी न किसी प्रकार की चिंता से ग्रस्त अवश्य रहते हैं, वे भी तनाव मुक्त नहीं रहते । कारण निश्चय ही विषमता है। आज विषमता की यह खाई दिन प्रतिदिन गहरी होती जा रही हैं और इस गहरी होती खाई में मानव कराह रहा है। अपने इस दुःख के लिए वह कभी भगवान् को कोसता है, कभी अपने माता पिता और परिवार वालों को कोसता हैं । अपने इन दुःखों की जवाबदारी भी वह दूसरों पर डालता है किन्तु वह कभी अपनी ओर नहीं देखता। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 122 हेमेन्द्रज्योति* हेमेन्द्र ज्योति allonal used Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था साधकों में प्रतिष्ठा पाने, नेतृत्व पाने, पूजनीय, वन्दनीय बनने की होड़ लगी है । इसके लिए बाह्याडम्बर, प्रदर्शन, भौतिक, चमत्कारों का आश्रय लिया जा रहा है । ऐसी विषम परिस्थिति में शान्ति के स्थान पर अशान्ति, चिन्ता, व्याकुलता दौड़धूप, तनाव, आदि बने रहते हैं। इन सबके होते हुए साधना में उनका मन कैसे लग सकता है? गृहस्थ साधक अपनी साधना का मूल्य वसूल करने में लग जाते हैं । भोले-भाले लोगों को ठगने लगते हैं । इन्हें भी प्रसिद्धि और रुपया चाहिए । इतनी वैषम्य परिस्थिति में यदि कोई सुखशान्ति चाहे तो कैसे मिल सकती है । लोग नाना प्रकार के उपाय करते हैं, देवी-देवताओं की मनौती मानते हैं किन्तु फिर भी उन्हें कहीं सुख शांति प्राप्त करने में सफलता नहीं मिलती है । उन्हें ऐसा कोई उपाय नहीं मिलता जिससे उन्हें सुख-शान्ति और आनन्द की प्राप्ति हो सके । विषमताओं को मिटाकर सुख-शान्ति और आनन्द प्राप्ति की महान औषधि बताई है आचार्य श्री अमितगति ने । वे इस औषधि को रामबाण औषधि बताते हैं । यह औषधि है - सामायिक | सामायिक या समता योग के लिये चार सोपान बताये गये हैं । यथा -1. भावना 2. आत्मशुद्धि 3. उपासना और 4. साधना । इन चार सोपानों से सामायिक-समतायोग की आराधना करने से सभी प्रकार की विषमता, चिंता, बेचैनी, कष्ट, तनाव, दुःख आदि सदा के लिये समाप्त हो जाते हैं । इन चारों का संक्षिप्त विवेचन यहां प्रस्तुत किया जा रहा हैं । 1. भावना - भावना का जीवन में बहुत अधिक महत्व होता है । जिसकी जैसी भावना होती है, उसके वैसे ही विचार होते हैं और विचार के अनुसार आचार होता है । इसलिए समता को परिपुष्ट करने वाली भावनाओं की आवश्यकता होती है । सामायिक का भावनात्मक लक्षण करते हुए एक आचार्य ने कहा है - समता सर्वभूतेषु संयमः शुभभावनाः । आर्त रौद्रपरित्यागस्तद्वि सामायिकं व्रतम् ।। अर्थात् - समस्त प्राणियों के प्रति समभाव, शुभ भावनाएं, आर्त्त-रौद्रध्यान का परित्याग, यही तो सामायिक व्रत का स्वरूप है । कहने का तात्पर्य यह है कि प्राणिमात्र के प्रति समभाव रखना, प्रत्येक परिस्थिति में समभाव रखना, व्यक्तिगत जीवन हो चाहे सामाजिक जीवन सब में समभाव रखना, हाँ आर्त रौद्रध्यान के अवसरों को छोड़कर समभाव रूप धर्मध्यान में विचरण करना सही समतायोग का परिस्फुट रूप है । एक आचार्य ने तो यह भी बताया है कि समभाव से भावित आत्मा निःसन्देह मोक्ष को प्राप्त करता है - समभाव भावियप्पा लहइ मुक्खं न सन्देहो । प्रबल भावना वाला व्यक्ति यदि कुसंगति में पड़ भी जाता है तो वह डिगेगा नहीं । इसके विपरीत यदि दुर्बल भावना वाला व्यक्ति ऐसी संगति में पड़ जाता है तो उसका पतन हो जायेगा । वह कुमार्गगामी हो जायेगा । इसलिये यदि मनुष्य की भावना प्रबल है । उसमें आशा, विश्वास और उत्साह है तो वह बड़े से बड़े संकट को भी पार कर लेगा । ___ मनुष्य की भावना ही मृत्यु है और भावना ही अमृत है । भावना की तेजस्विता मनुष्य में साहस, तेज, ओज, मनोबल तथा आयुष्य आदि की वृद्धि करती है जबकि भावना की दुर्बलता या निर्जीवता जीवित रहते हुए भी मनुष्य को निर्जीव, दीन-हीन-क्षीण बना देती है । इससे भावना का तात्पर्य स्पष्ट हो जाता है । 2. आत्मशुद्धि - भावना के बाद आत्मशुद्धि का क्रम आता है | समता योग का प्रबल/दृढ़ बनाने के लिए आत्मशुद्धि की भी आवश्यकता है । काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों के आ जाने से विषमता बढ़ जाती है जब विषमता बढ़ती है तो निश्चय ही समता नष्ट होती है । समता नष्ट न हो/समता भाव बना रहे, इसलिए विकारों से बचना चाहिए। दोषों की मात्रा के अनुरूप प्रायश्चित करना चाहिए । इनके निवारण के लिये आत्मालोचन करना चाहिए । ऐसा करने से आत्मशुद्धि होती है। यदि आत्मशुद्धि नहीं होती है तो समतायोग का विकास और संवर्धन अवरूद्ध हो जायेगा। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 1233हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ यही कारण है कि सामायिक पाठ में परमात्मा के चरणों को अपने हृदय में प्रतिष्ठित करके प्रतिक्रमण आलोचना, निन्दना गर्हणा एवं अतिक्रमादि दोषों को जानकर प्रायश्चित के द्वारा आत्मशुद्धि का विधान है। यह व्यवस्था इसलिए की गई है कि ऐसा करने से समता योग की प्रगति अवरूद्ध न हो, वह निरन्तर विकास की ओर अग्रसर होता रहे आत्मशुद्धि समता योग के तृतीय सोपान उपासना का मार्ग प्रशस्त करती है। 3. उपासना भावना प्रबल हो गई और आत्मशुद्धि हो गई तो फिर परमात्मा की उपासना का मार्ग प्रशस्त है। उपासना के अन्तर्गत ऐसे महान पुरुषों की उपासना करना चाहिए, जो वीतराग हो, समता के सर्वोच्च शिखर पर विराजमान हो, वीतराग समता शिरोमणि मुक्त परमात्मा को अपने अन्तःकरण में विराजमान करके उनके समता परिपोषक गुणों का गहराई से चिंतन करके उनकी उपासना करने से ही समता की परिणति प्रतिपल टिकी रह सकती है, आत्मभावों में स्थिरता अथवा मुक्त परमात्मा के गुणों में लीनता भी तभी रह सकती है और समता का दीपक हृदय मन्दिर में तभी प्रज्वलित रह सकता है । आत्मिक प्रगति के लिए उपासना आवश्यक एवं अनिवार्य माध्यम है। जीवन शोधन की प्रक्रिया के साथ चलता हुआ उपासनाक्रम आशातीत परिणाम लाता है । इसलिये तत्वंज्ञ आत्मवेताओं ने उपासना को समता योग का अनिवार्य अंग माना है । उपासना में समत्व शिखरारूढ़ परमात्मा के साथ भावात्मक दृष्टि से समीपता, तादात्म्य एवं अनन्य श्रद्धा होनी आवश्यक है। इसके लिए आचार्यों ने तीन बातों का निर्देश किया है। - 1. जप 2. अर्चा एवं 3. ध्यान । उपासना में श्रद्धा और विश्वास का होना अत्यन्त आवश्यक है। यदि श्रद्धा और विश्वास के अभाव में उपासना की जाती है तो वह फलहीन ही होगी । सामायिक पाठ में आत्मशुद्धि के पश्चात् समता योग में प्रगति और प्रोत्साहन के लिए वीतराग परमात्मा की उपासना का क्रम बताया गया है। जब तक राग-द्वेष और मोह का लेशमात्र भी अवशेष है तब तक समता योग की साधना अधूरी है । अतः इन सब बातों का ध्यान रखकर निर्मल मन से उपासना करना चाहिए । 4. साधना. I सामान्यतः लोगों के मन में यह एक भ्रान्ति है कि परमात्मा की उपासना करने से सब पाप कट जायेंगे। विषमताएं दूर हो जायेगी और परमात्मा प्रसन्न हो जायेंगे किंतु समत्व की साधना किये बिना आत्मा का पूर्ण विकास नहीं होगा । इसलिए उपासना के साथ-साथ साधना का होना भी अनिवार्य है । ये दोनों आध्यात्मिक प्रगति के दो पहलु हैं और एक दूसरे के पूरक हैं। उपासना का जितना महत्व है उतना ही साधना का भी है। उपासना के साथ-साथ साधना पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। उपासना तो कुछ घण्टे के कुछ निश्चित क्रिया कलापों के पश्चात् समाप्त हो जाती है किन्तु साधना तो निरन्तर चलती ही रहती है । पल प्रतिपल साधना चलती रहती 1 है अपने प्रत्येक कार्य पर दृष्टि रखनी होती है जहां भूल हो उसका परिष्कार करना चाहिए। समत्व साधना का अर्थ है अपनी आत्मा को साधना अपने स्वभाव में स्व-स्वरूप में रमण करने की साधना करना । समत्व साधना वह शक्ति उत्पन्न करती है, जिससे आत्मबल विकसित हो सके और आत्मनिर्माण के पथ पर चलने की पांवों में क्षमता रह सके। समत्व साधना साहस उत्पन्न करती है। जिसके कारण साधक अनेक विपत्तियों से बचा रह सकता है। इन चार सोपानों से समत्व की साधना होती है और कष्टों और विषमताओं से छुटकारा पाया जा सकता है। क्योंकि जब प्रत्येक परिस्थिति में समभाव में स्थिर हैं तो फिर क्या दुःख? क्या सुख? न तनाव, न किसी प्रकार का झगड़ा । अस्तु प्रत्येक साधक को चाहिए कि वह समत्व की आराधना कर विषमताओं को दूर करने का प्रयास करें। हमे ज्योति मे ज्योति 124 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ शान्ति -साध्वी महेन्द्रश्री मनुष्य शान्ति चाहता है, वह अपनी प्रत्येक समस्या का समाधान चाहता है । वह चाहता है कि मेरे जीवन में कोई समस्या न आये और अगर आये तो वह शीघ्र हल हो जावे । वह चाहता है कि उसका जीवन शान्त जल के समान रहे, पर क्या यह सम्भव है | कदापि नहीं, जीवन है तो समस्या है, जल है तो हलचल है, अतः ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसके जीवन में अशान्ति न हो, समस्या न हो जब तक समस्या का समाधान न होता है, वह बेचैन रहता है, अशान्त रहता है जैसे ही समस्या हल हो जाती है, उसकी बेचैनी चली जाती है और शान्ति आ जाती है । आखिर जीवन में अशान्ति क्यों आती है । जीवन में अशान्ति नहीं आये इस हेतु क्या प्रयास करना चाहिये, आदि बातें विचारणीय है, चिंतन करने वाली है | जिन व्यक्तियों का आदर्श ऊंचे होते हैं लक्ष्य ऊंचे होते हैं, वे उन्हें प्राप्त करने हेतु प्रयत्नशील रहते हैं, सतत् प्रयास में लगे रहते हैं, उन्हें जीवन में अशान्ति कम रहती है वे आस्थावान रहते हैं, क्योंकि वे जानते हैं उन्हें लक्ष्य तक पहुंचने में अनेक बाधाओं प्रतिरोधों का सामना करना होता है, कई खतरे उठाना पडते हैं अतः वे कर्म में विश्वास कर प्रयत्नशील रहते हैं । जीवन में जो हम चाहते हैं वे सभी नहीं होते हैं जिसे होना है वह होकर रहता है, और जिसे न होना है वह नहीं होता है । धूप में गर्मी है तपन है । गर्मी में बेचैनी होती है, वृक्ष की छाया होती है, छाया में शीतलता होती है, गर्मी में प्यास लगती है, पानी प्यास बुझाता है, रात्रि में अंधकार होता है, दीपक में रोशनी होती है, रोशनी अंध कार का हरण कर लेती है, यह सब अटल सत्य है । अतः हमें भी इस अटल सत्य को स्वीकार कर जीवन जीना चाहिये। इस सत्य को स्वीकार करने वाला कभी भी बेचैन न होगा, अशान्त न होगा । जो आज है वह कल नहीं रहेगा जो कल था वह आज नहीं है, अतः इस स्थाईपन को स्वीकार करते हुये मनुष्य को जीवन जीना ही शान्ति को प्राप्त करना है । एक कहानी है । एक व्यापारी था वह किसी गुरु के पास गया, गुरुने उसे एक डिब्बी देते हुये कहा इसे जीवन के गम्भीर समय पर ही खोलना । कुछ दिनों बाद उस व्यापारी को व्यापार में बड़ा घाटा हुआ वह बड़ा बेचैन हो गया । यहां तक की वह आत्महत्या करने हेतु तैयार हो गया । जैसे ही वह आत्महत्या करने वाला था कि उसे सामने रखी डिब्बी दिखाई दी, वह कुछ क्षण रूका उसने सोचा कि डिब्बी देते वक्त गुरु ने कहा था कि उसे किसी गम्भीर क्षण में ही खोलना, इस वक्त से गम्भीर क्षण और कौन सा होता, उसने वह डिब्बी खोली उसमें एक कागज था उस पर एक इबारत लिखी थी जो इस प्रकार से थी "वह समय नहीं रहा तो यह समय भी नहीं रहेगा" इस इबारत को पढ़ते ही उस व्यापारी के मन में एक नई चेतना जागृत हुई उसने सोचा कि यह कठिन समय भी निकल जायेगा मुझे आत्मा हत्या न करते हुए पुनः इन कठिनाइयों का सामना करना चाहिये, उसने ऐसा ही किया और कुछ दिनों के बाद पुनः अपने पुराने वैभव को प्राप्त कर लिया । अतः मनुष्य को अपने अशान्ति के क्षणों में भी शान्ति रखना चाहिये । हमें शान्ति पाना है तो कर्मवीर बनना होगा, अपने लक्षणे को ऊंच रखना होगा । लोक कल्याण की भावना से कर्म करना होगा समस्त विश्व को ईश्वर रूप में देखना होगा, और आसक्ति रहित जीवन जीना होगा । अपना हर कार्य, हर लक्ष्य बिना आसक्ति के करना होगा । परमार्थ और स्वार्थ का भाव मिटाना होगा । यह भी ध्यान रखना होगा कि शान्ति पाना किसी अन्य में निहित न होकर स्वयं के मन में, हृदय में है । शान्ति कोई बाहरी वस्तु न होकर आंतरिक दशा है, जो कभी वस्तु पर तो कभी भावना पर टिकी रहती है । मनुष्य की कुशलता भी इसीमें है कि चाहे जेसी परिस्थितियों हो हर्ष में शोक में वह अपने मन को स्थिर रखे, शांत रखे । शांति भंग न होने दे जिस प्रकार समुद्र में कितनी ही नदियां गिरती है । कितना ही कूड़ा कर्कट लाती है पर उसके मन में कोई विकार नहीं होता है, वह सभी को अपने में समाहित कर अविचल गति से लहराता है । जो व्यक्ति शान्ति भंग करने वाली कामनाओं का त्याग कर ममता रहित, अहंकार रहित जीवन जीता है, वह शान्ति को प्राप्त करता है, जिस प्रकार वृक्ष काटने वाले पर क्रोध नहीं करता, सींचनेवाले से मोह नहीं रखता | धूप सहता है और यात्रियों को छाया देता है । पत्थर मारनेवालों को फल देता है वैसी भी भावना शांत पुरुष की भी होती है । हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्या ज्योति 125 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 4 अपरिग्रहः एक मौलिक चिंतन है -फतेहलाल कोठारी, एम.ए.एल.एल.बी. एडवोकेट साहित्यरत्न, रतलाम (म. प्र.) जैन दर्शन के मौलिक मूलभूत सिद्धान्तों में अपरिग्रहवाद भी एक मौलिक सिद्धान्त माना गया है । इसकी मौलिकता एवं उपादेयता स्वतः सिद्ध है । वर्तमान में लोक जीवन, अत्यन्त अस्तव्यस्त हो गया है । इस अस्तव्यस्तता एवं वर्ग संघर्ष को समाप्त करने में अपरिग्रहवाद पूर्णतया समर्थ है । परिग्रह के चिन्तन के पहले परिग्रह का समझना अधिक महत्वपूर्ण है। परिग्रह क्या है : परिग्रह अपने आप में क्या है? यह एक शाश्वत प्रश्न सभी के सामने उपस्थित है। परिग्रह के प्रश्न को समझे बिना परिग्रह का निराकरण हो नहीं सकता । परिग्रह एक पारिभाषिक शब्द है। आगम में इसका कई स्थान पर पर्याप्त वर्णन मिलता है । जिससे आत्मा सर्वप्रकार के बंधन में पड़े वह परिग्रह है। परिग्रह का अर्थ जीवन निर्वाह से संबंधित अनावश्यक पदार्थों का संग्रह है | धन, संपत्ति, भोग, सामग्री आदि किसी भी प्रकार की वस्तुओं का ममत्व मूलक संग्रह ही परिग्रह है । होर्डिगं की वृत्ति आपत्तियों को आमंत्रित करती है। परिग्रह वृति के धारक व्यक्ति समाज द्रोही मानवताद्रोही ही नहीं अपितु आत्मद्रोही भी है। जीवन को भयाकान्त करनेवाली, सारी समस्याओं की जड़ परिग्रह है। समाज में भेदभाव की दिवार खड़ी कर विषमता लाने वाली एक मात्र परिग्रहवृत्ति ही है। देश में समस्या अमीर गरीब की नहीं है अर्थ संग्रह की है। अर्थ को साध्य मानकर युद्ध हुवे। पारिवारिक संघर्ष, वैयक्तिक वैमनस्य एवं तनाव इस सबके मूल में रही है अर्थ संग्रह की भावना। अंग्रेजी नाटककार शेक्सपियर ने कहा था कि: संसार में सब प्रकार के विषाक्त पदार्थों में अर्थ संग्रह भयंकर विष है । मानव आत्मा के लिये अद्वैत दर्शन के प्रणेता शंकराचार्य ने ठीक ही कहा था कि अर्थमनर्थ मानव नित्यम् अर्थ सचमुच ही अनर्थ है । शास्त्रकारों ने अर्थ के इतने अनर्थ बतलाए है फिर भी इस अर्थ प्रधान युग में अर्थ को (पैसौंको) सब कुछ समझा जा रहा है । संग्रहखोरी, संचयवृत्ति पूंजीवाद सब पापों के जनक है । इसकी शाखाएं प्रशाखाएं ईर्ष्या द्वेष कलह, असंयम आदि अनेक रूपों में विभक्त है,फैली है । जहां परिग्रह वृत्ति का बोलबाला रहता है, वहां मनुष्य अनेक शंकाओं से परे और भयों से आक्रान्त रहता है । अनेक चिन्ता चक्रों में फंसा रहता है । परिग्रह वृत जीवन के लिये एक अभिशाप है। जहां भी यह वृत्ति अधिक होती है वहां मनुष्य का जीवन अशान्त हो जाता है । अनावश्यक खर्च, झूठी शान पैसे का अपव्यय, दिखावा आदि बातों के परिवेश में ही परिग्रहवृत्ति, विशेष रूप से पनपती है । जैनागम में स्थान स्थान पर परिग्रह को बहुत निंद्य आपात, रमणीय बतलाकर उसके परित्याग के लिये विशेष बलपूर्वक प्रेरणा दी गई है । नरकगति के चार कारणों में महापरिग्रह को एक स्वतन्त्र कारण बतलाया है । आत्मा को सब ओर से जकड़ने वालों यह सबसे बड़ा बंधन है | समस्त लोक के समग्र जीवों के लिये परिग्रह से बढ़कर कोई बन्धन नहीं है । सामान्य रूप से परिग्रह की कल्पना धन सम्पत्ति आदि पदार्थों से ली जाती है, ममता बुद्धि को लेकर वस्तु का अनुचित संग्रह परिग्रह है । परिग्रह आसक्ति है । आचार्य उमास्वामी कहते हैं मूर्छा परिग्रह, मूर्छा का अर्थ आसक्ति है। वस्तु एवं पदार्थ के प्रति हृदय की आसक्ति ही मेरापन की भावना ही परिग्रह है । किसी भी वस्तु में छोटी हो या बड़ी जड़ हो या चैतन किसी भी रूप में, हो अपनी हो या पराई, उसमें आसक्ति रखना या उसमें बंध जाना उसके पीछे अपना आत्मविवेक खो बैठना परिग्रह है, एक आचार्य ने और भी परिग्रह की एक परिभाषा देते हुए कहा है कि मोहबुद्धि के द्वारा जिसे चारों ओर से ग्रहण किया जाता है वह परिग्रह है । परिग्रह के तीन भेद है | इच्छा, संग्रह, मूर्छा अनाधिकृत वस्तु समूह को पाने की इच्छा करने का नाम इच्छारूप परिग्रह है और वर्तमान में मिली हुई वस्तु को ग्रहण कर लेना संग्रह रूप परिग्रह और संग्रहित वस्तु पर ममत्व भाव और आसक्तिभाव मूर्छा रूप परिग्रह कहलाता है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 126 हेमेन्ध ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Jain Educatich nation Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन शेय ग्रंथ परिग्रह का प्रतिफल : I विश्व का सबसे बड़ा कोई पाप है तो वह परिग्रह है में संघर्ष चल रहा है । परन्तु पूंजीपति भी आपस में लड़ते हैं । परिग्रह को लेकर आज पूंजीपति एवं श्रमजीवी दोनों । वैसे ही श्रमजीवी भी । परिग्रही मानव की लालसाएं भी आकाश के समान अनन्त होती है । राज्य की लालसावश कोणिक ने सम्राट श्रेणिक को जेल मैं डाल दिया। कंस ने अपने पिता महाराजा उग्रसेन के साथ जो दुर्व्यवहार किया उसके मूल में यही मन की वितृष्णा काम कर रही थी । परिग्रह व्यक्ति को शोषक बनाता है। सभी क्लेश एवं अनर्थो का उत्पादक परिग्रह ही है । धनकुबेर देश अमेरिका जो भौतिकवाद का गुरु परिग्रहवाद का शिरोमणि है। अपने अर्थ तंत्र के बल पर सारे विश्व पर हावी होने का स्वप्न देख रहा है। परन्तु वहां पर भी आन्तरिक स्थिति वैसी है। इसी परिग्रही वृत्ति के कारण वहां के करोड़ों लोग मानसिक व्याधियों से संत्रस्त है लाखों का मानसिक सन्तुलन ठीक नहीं, अपाहिजता, पागलपन आदि बीमारियां फैली है। छोटे बच्चों में अपराधों की संख्या अधिक पाई जाती है। इसका मूल कारण फैशनपरस्ती तथा संग्रह की भावना रही है। तकनीकी युग में उपकरण जुटाये जा रहे हैं। नई नई सामग्रियों का उत्पादन बढाया जा रहा है । रहन सहन के स्तर को बढ़ाने का नारा लगाया जा रहा है । किन्तु मानसिक स्थिति उलझनों तनावों से परिपूर्ण पेचीदा बन गई है । वैचारिक संघर्ष भी बढ़ रहा है । वह भी एकान्तवाद का जनक है । इन सब आपाध पों से मुक्त होने का कोई उपाय है तो वह अपरिग्रहवाद की शरण है । अपरिग्रह का सिद्धान्त सर्वोपरि है और यही आजके युग का धर्म है । I अपरिग्रह का अर्थ : अपरिग्रह का अर्थ है जीवन की आवश्यकताओं को कम करना, लालसाओं मूर्च्छा एवं ममता का अंत ही अपरिग्रहवाद है । भीतर एवं बाहर की संपूर्ण ग्रंथियों के विमोचन का नाम ही अपरिग्रहवाद है । अपरिग्रहीवृति व्यक्ति, राष्ट्र जाति विश्व राज्य आदि सभी के लिये आनंददायिनी और सुखशांति के लिये वरदान स्वरूप है। यह संसार में फैली विषमता, अनैतिकता संग्रह एवं लालसा के अंधकार को दूर करने में सक्षम है। निर्भयता का यह प्रवेश द्वार है । अपरिग्रह दर्शन आज के युग में वर्ग संघर्ष, वर्गभेद भवनों की जड़े हिलाने के लिये अनिवार्य है। सामाजिक, राष्ट्रीय अन्तराष्ट्रीय धार्मिक आदि सभी की उन्नति के एवं क्रांति के लिये अपरिग्रहीवृत्ति की नितान्त आवश्यकता है । अपरिग्रह का आदर्श है जो त्याग दिया सो त्याग दिया । पुनः उसकी आकांक्षा न करे । अपने को सीमित करें । इसी आदर्श को लेकर जैन परंपरा से अपेक्षा दृष्टि से दो भेद किये जाते हैं - 1. श्रमण (साधु) 2 श्रावक (गृहस्थ ) दोनों की अंतर्भावना ममता एवं मूर्च्छा का त्याग करना ही है। दोनों का मार्ग एक ही है किन्तु साधु संपूर्ण आत्म शक्ति के साथ उस मार्ग पर आगे बढ़ता है और गृहस्थ यथाशक्ति से धीमे धीमे कदम बढ़ाता हैं । साधु मुनि दीक्षा लेते समय अंतरण परिग्रह मिथ्यात्व आदि का तथा बाल परिग्रह घर परिवार धन संपत्ति आदि का परित्याग करता है । गृहस्थ भी संपूर्ण रूप से नहीं किन्तु इच्छानुसार परिग्रह का परिमाण अर्थात मर्यादा करता है । संपूर्ण रूप से अपरिग्रही बनना गृहस्थ के लिये असंभव है, क्योंकि उस पर समाज का परिवार का राष्ट्र का उत्तरदायित्व है । फिर भी आवश्यकता के अनुसार मर्यादा का, वह अपरिग्रह का संकल्प कर सकता है । 1 परम पूज्य तीर्थोद्धारक श्रीमद विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. द्वारा रचित ग्रंथ में अपरिग्रह को जीवन का दर्शन निरूपित करते हुये वर्तमान युग में उसके महत्व को प्रतिपादित किया है। उसका संदेश ग्रहण करने पर अपनी आवश्यकता कषायों से मुक्ति मिल सकती है। उन्होंने कहा है कि मनुष्य के सुखी रहने के दो उपाय है कम करो तथा वर्तमान के यथार्थ को स्वीकार कर और और से मुक्त रहो । estion हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 127 हेमेकर ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ जैन तीर्थ मुहारीपास (टीटीई नगर) - मुथा घेवरचंद हिम्मतमलजी निवासी आहोर, कराड (महा.) अतिप्राचीन ऐतिहासीक तीर्थ 'मुहरीपास' (टींटोई नगर) इस तीर्थ की स्तवना केवली भगवंत श्री गौतमस्वामीजी ने जगचिंतामणि चैत्यवंदन में इस प्रकार की है । “मुहरीपास दुह दुरीय खंडण श्री मुहरीपास पार्श्वनाथ भगवान की यह मूर्ति श्वेतरंगी 41 ईंच लगभग की श्री टींटोई नगर में बिराजित है। यह मूर्ति पहले मुहरीगाम में एक ठाकुर साहब के पास थी जो दर्शनार्थियों से सुवर्ण मोहर लेता था । इस कारण मुहरीपास नाम पड़ा है। कालांतर में यह मूर्ति भूमि में गाढ़ दी गई कई वर्षों बाद मोडासा निवासी श्रावक को अधिष्टायक देव ने मूर्ति के स्थान का संकेत दिया । उसके बाद मोडासा एवं टीटोई के श्रावकों ने मिलकर संकेतानुसार स्थान पर जाकर खनन करके उस मूर्ति को प्रकट किया । बाद में दोनों संघों की मूर्ति लेजाने की भावना हुई । फिर आपस में समझकर यह मूर्ति बैलगाड़ी में बिराजमान कर सब श्रावक गण मूर्ति बिराजित बैलगाडी के पीछे पीछे चलाने लगें । टींटोई ग्राम आते ही बैलगाडी टींटोई गांव की तरफ मुड़गई । पश्चात् श्रावक संघ ने शिखर युक्त मंदिर बनवाकर यह मूर्ति बिराजमान कराई । मूर्ति के हस्त कमल में हररोज चांदी की अठन्नी आती थी । आज भी मूर्ति के हस्तकमल में अठन्नी रखे जैसा चिन्ह अंकित है । पुजारी के द्वारा दूसरों को बताने के बाद अठनी आनी बंद हुई । 35 इस मूर्ति की प्रतिष्ठा के समय ठाकुर सा. के घर में एक व्यक्ति की मृत्यु हुई । तब पंच महाजन ने मिलकर ठाकुर साहब से अर्थी मंदिर के पीछेवाले रास्ते से ले जाने की विनंती की, परंतु ठाकुर साहब ने न माना और अर्थी मंदिर के आगे से ले गये । घर आने पर दूसरी मृत्यु हुई और फिर तीसरी मृत्यु हूई । बादमें ठाकुर साहब एवं पूरे कुटुंब ने मिलकर मंदिर जाकर खूब पश्चाताप किया । और तबसे कोई भी अर्थी मंदिर के सामने से न ले जाते हैं यह सिलमिला आज भी जारी है यह बात करीबन दोसौ वर्ष के आसपास की है जिनालय बहुत ऊंचा शिखर युक्त है । यह तीर्थ टींटोई मोडसा से 7 किलो मीटर दूरी पर है । अहमदाबाद से केशरियाजी मार्ग पर है । बरोडा से भी बस मिलती है । ऐसी मूर्ति अन्यत्र दुर्लभ है । अवश्य दर्शनकर मानवभव सफल करें यही शुभ कामना के साथ । इस तीर्थ स्थान का पता इस प्रकार है - श्री मुहरीपास जैन श्वेताम्बर मंदिर की पेढी मु. पो. टींटोई वाया - हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 128 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति Personal Use Only मोडासा (गुजरात) Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ बागरा नगर : इतिहास के आलोक में 5 -पुखराज भण्डारी बागरा नगर जालोर - सिरोही राजमार्ग पर जालोर से 20 कि.मी. दक्षिण में लगभग 2500 घरों का विशाल कस्बा हैं । इस गांव में 12वीं तक पढ़ाई के लिए 6 स्कूलों, अस्पताल, रेल्वे स्टेशन, जल सप्लाई संयंत्र, टेलिफोन एक्सचेंज, बैंक पशु-चिकित्सालय, पोस्ट आफिस, बस स्टेण्ड, पुलिस थाना, तालाब एवम् बस स्टेण्ड पर विशाल बाजार आदि अवस्थित हैं। बागरा एक ऐतिहासिक नगर है । राजस्थान के इस इतिहास प्रसिद्ध बागरा नगर के सेठ बोहित्थ की परम्परा में अनुक्रम से सेठ अश्वेश्वर यक्षनाग, वीरदेव के वंशज श्री उदयन (उदा) मेहता हुए । वे गुजरात की राजधानी कर्णावती नगरी में जाकर बस गये और अपनी अद्वितीय बुद्धिमता के बल पर उन्नति कर गुर्जर नरेश श्री सिद्धराज और श्री कुमारपाल के महामंत्री के गौरवशाली पद पर आरूढ़ हुए । श्री उदयन मेहता सं. 1208 में स्वर्गवासी हुए और उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार उनके द्वितीय पुत्र महामंत्री बाहड ने वि.सं. 1213 में श्री शत्रुजय तीर्थ का उद्धार करवाया । (जैन परम्परा नो इतिहास भा-2. पृष्ठ 644 लेखक – मुनि श्री दर्शनविजयजी - त्रिपुटी) बागरेचा गोत्र - इसकी उत्पत्ति सोनगरा चौहानों से हैं | आज का बागरा गांव ही पहले का बगडा गांव होगा। इसी गांव के नाम से यहां के निवासियों के जैनधर्म स्वीकार करने पर इसका नाम बागरेचा पड़ा । (ओसवाल वंश - अनुसंधान के आलोक में – पृष्ठ 116 लेखक - श्री सोहनराज भंसाली) वि. सं. 1730 में बागरा में एक लघु जिनालय था जिसकी जगह आज संगमरमर के पाषाण से निर्मित विशाल 24 जिनालय उन्नत भाल किये सुशोभित है । प्राचीन मूलनायक श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान मूल गंभारे के बाहर के सभामण्डप में विराजमान है जिन पर "प्राचीन मूलनायक" नाम लिखा हैं । गर्भगृह में तीनों जिनबिम्ब श्री पार्श्वनाथ भगवान के हैं । सभामण्डप में पंचतीर्थी और परिक्रमा में 23 जिनेश्वरों के बिम्ब अनुक्रम से विराजमान हैं। बायें और अलग से गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. का गुरुमंदिर है । संपूर्ण संरचना नयनाभिराम, दर्शनीय एवम वैज्ञानिक ढंग से की गई हैं। मंदिरजी में प्रवेशद्वार से घुसते ही बायीं ओर चंदन केसर घिसने की जगह दीवाल पर एक शिलालेख निम्न लिखित लिखा हुआ है : "त्रयोविंशतितम श्री पार्श्वनाथ जिनालय का भव्य शिललिख" 'जगतपूज्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमः' प्रथम यहां पर सं 1730 का विनिर्मित श्री पार्श्वनाथ प्रभु का छोटे शिखरवाला मंदिर था । उसके जीर्णशीर्ण हो जाने से गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के सदुपदेश से उसका जीर्णोद्धार आरसोपल से बागरा नगर के श्री संघ ने करवाया और उसमें विराजमान करने के लिए श्री पार्श्वनाथ प्रभु की भव्य तीन प्रतिमायें की अंजनशलाका सं 1958 माघ सुदी 13 के दिन शुभ लग्नांश में सियाणा में गुरुदेव के करकमलों से ही करवाई । सं 1972 माघ सुदी 13 के दिन अष्टदिनावधिक महा महोत्सव के साथ श्रीमद् धनचन्द्र सूरीश्वरजी के पास प्रतिष्ठा कराके श्री पार्श्वनाथ प्रभु की तीन प्रतिमाएं उक्त जिनालय में विराजमान की गई । मूल पार्श्वनाथ जिनालय के चतुर्दिक विनिर्मित देव कूलिकाओं में वि. सं. 1998 मगसर सुदी 10 के दिन महामहोत्सव पूर्वक आचार्यदेव श्रीविजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के कर कमलों से भव्य नव्य प्रतिमाओं की शास्त्रोक्त विधि से प्राण प्रतिष्ठा करवा के जिन प्रतिमायें गुरुबिम्ब आदि के स्थापना श्री संघ बागरा ने करवाई। श्री राजेन्द्र सूरि सं. 341 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 129 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Friatel Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ बागरा नगर के बाह्य प्रांगण में श्री महावीर स्वामी भगवान का जिनालय बस स्टेण्ड के निकट स्थित हैं। इसी जिनालय के समीप उससे लगा हुआ पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का समाधि मंदिर स्थित है। समाधि मंदिर की दीवार पर निम्नलिखित लेख लिखा हुआ है श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरि समाधि मंदिर - बागरा (राजस्थान) दादागुरु श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के पट्टधर आचार्य श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरिजी महाराज का बागरा नगरी पर असीम उपकार है । वि. सं. 1977 भाद्रपद शुक्ला 1 सोमवार को पर्व पर्युषण में महावीर प्रभु जन्म वांचन के दिन संध्या समय आपकी आत्मा बागरा की धर्मशाला में समाधिपूर्वक स्वर्गगमन कर गई । इस पावन आत्मा की शाश्वत स्मृति में यह समाधि मंदिर श्रीसंघ ने निर्मित कर वि.सं. 1998 मार्गशीर्ष शुक्ला 10 को श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरिजी के कर कमलों से प्रतिष्ठित कराया वि.सं. 1972 माघ शुक्ला 13 को बागरा नगर के मध्यस्थित श्री चिंतामणी पार्श्वनाथ मंदिर के सौंधशिखरी जिनालय में श्री पार्श्वनाथ भगवान की तीनों मनोहर प्रशमरस निमग्न जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा आपने ही उपाध्याय श्री मोहनविजयजी के साथ सम्पन्न करवाई थी। तदनंतर इस उत्तुंग 24 जिनालय में भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर स्वामी तक (श्री पार्श्वनाथ भगवान को छोड़कर) 23 देव कुलिकाओं में जिन प्रतिमाएं एवं दादागुरुदेव की प्रतिमासं 1998 मार्गशीर्ष शुक्ला 10 को श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरिजी के शुभ हस्तों से श्री जिनमंदिर में श्री महावीर स्वामी आदि प्रतिमायें व समाधि मंदिर में श्री धनचन्द्र सूरिजी की प्रतिमा प्रतिष्ठित की गई । श्री धनचन्द्र सूरिजी का जन्म सं. 1897 चैत्र सुद 4 को किशनगढ़ में हुआ था । आपकी सगाई हो गई थी, पर वैराग्य रस में निमग्न धनराज ने सांसारिक बंधन में फंसने का निर्णय कर लग्न मुहूर्त के दिन ही 1914 वैशख सुद 3 का धानेरा में बाल ब्रह्मचारी अवस्था में 17 वर्ष की उम्र में श्री लक्ष्मीविजयजी के हाथों दीक्षा ग्रहण की शुरु के आपके चार चातुर्मास उदयपुर, कलकत्ता, करांची और मद्रास जैसे शहरों में हुए । गुरुदेव श्री राजेन्द्र सूरिजी के साथ आपने सं. 1925 आषाढ वद 10 के दिन जावरा में वट वृक्ष के नीचे क्रियोद्वार किया और कठोर पंच महाव्रतों के संवेगी पथ को ग्रहण किया। दादागुरु के स्वर्गवास के पश्चात् 1964 वैशाख शुक्ला 3 को बरलूट प्रतिष्ठा महोत्सव पर आपको आदर पूर्वक श्रीसंघ ने आचार्य पद से अभिमंडित किया । सं 1965 ज्येष्ठ शुक्ला 11 के दिन जावरा में आपको गच्छाधिपति पद अपर्ण किया गया । आपने सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान डां हर्मन जेकोबी और श्री चिदानन्दजी महाराज के साथ तत्व व दर्शन संबंधी चर्चाएं कर उनकी शंकाओं का समाधान किया । श्वेत पीत वस्त्र एवम् स्तुति संबंधी चर्चाएं सर्व श्री चंद्रसिंह सूरि, बालचंद्रजी, उपाध्याय ऋद्धिसागरजी, झवेरसागरजी, आनंदसागरजी, प्रभृतिविद्वानों के साथ सफलता पूर्वक करके कतिपय ग्रन्थ भी आपके प्रकाशित हुए थे । आपश्री द्वारा सम्पन्न प्रतिष्ठाओं में काणदर, जसवंतपुरा, जावाल, बरलूट, मगदर, मंडवारिया, सियाणा एवं बागरा मुख्य है । विजयवाडा (प्रतिष्ठा सं 1966 माघ सुदी 13) और हुबली (प्रतिष्ठा सं. 1976 माघ सुदि 13) के दक्षिण भारतीय जिनालयों का शिलान्यास मुहूर्त आपने ही दिया था । तथा दोनों प्रतिष्ठाओं के शुभ अवसर पर श्री संघ के आग्रह से मंत्राभिषिक्त वासक्षेप भी प्रदान किया था । अर्थात् दोनों जिन मंदिरों का निर्माण एवं प्रतिष्ठा आपके सदुपदेश और आशीर्वाद के ही सुफल है। ऐसे परमोपकारी परम पावन गुरुदेव श्रीमद विजय धनचन्द्र सूरिजी के चरण कमलों में बागरा सकल श्री संघ के अगणित वंदन । बागरा नगर पर परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पति आचार्यदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का भी महान् उपकार रहा है । आपश्री ने सात चातुर्मास बागरा में किये थे। वि. सं. 2002 में उपधान तप भी करवाया था। वि. सं. 1998 में प्रतिष्ठा करवाई थी। वि. सं. 1975 में बागरा में ही परम पूज्य वर्तमान गच्छाधिपति श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी का जन्म हुआ था विशेष पू. गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. । का संवत् 2040 का चातुर्मास एवं संवत् 2047 में श्री पंचमंगला महा श्रुतस्कंध उपधान तप की महान आराधना तपस्या का सौभाग्य भी बागरा जैन श्री संघ को प्राप्त हुआ । मुनिराज जयकीर्तिविजयजी भी यहीं जन्मे थे । वि. सं. 2035 में बागरा नगर में प्रवचनकार मुनिप्रवर श्री देवेन्द्रविजयजी म.सा. ने उपधान तप करवाया था और इस उपधान तप में 326 आराधक थे । बागरा नगर साध्वी श्री मोतीश्रीजी, साध्वी श्री कंचश्रीजी, साध्वी श्री तिलकप्रभाश्रीजी, साध्वी श्री कुसुमश्रीजी, साध्वी श्री कुमुदश्रीजी एवं साध्वी श्री दिव्यदर्शना श्रीजी आदि साध्वियों का जन्मस्थल भी है । ऐसे इतिहास प्रसिद्ध बागरा नगर की जितनी प्रशंसा की जाय, उतनी कम है । जय जिनेन्द्र ! हमेवर ज्योति मेजर ज्योति 130 हेगेन्द्र ज्योति हेमेल ज्योति Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन पंथ TEMPLE OF A JAIN GODDESS F Dr. Dharam Singh There stands on the outskirts of Sirhind (on the Chandigarh road) an ancient temple consecrated to a Jain goddess, Shri Chakreshavari, Goddess Chakreshavari is believed to be an ardent devotee of Lord Adinath, also named Rishabdev, the founder Tirathankar of the Jain faith. The statue of the goddess was installed and a temple erected here sometime during the reign of Prithvi Raj Chauhan. The Jain Chronicles record that in ancient and medieval times, the Jain devotees of Rajasthan region used to visit Kangra every year to pay their obeisance to Lord Adinath in the Jain temple there; presently this old temple stands a little distance from the Fort. These devotees also carried with them, on a bullock cart, the statue of the goddess, Chakreshavari. During the course of one such visit the pilgrims camped at this place, near Sirhind, to stay overnight. When they got ready to leave the place the next morning, the bullock-cart carrying the statue did not budge. A divine voice told the pilgrims of the goddess wish to be installed there permanetly. The Jain sources relate that the statue was duly installed there, and a temple came up in due course. Many additious have since been made, especially the sacred water-tank nearby. It is said that the pilgirms who now thronged this temple in large numbers deeply felt the scarcity of water. One day, the prayer of an innocent small girl to this effect was instantly heard by the goddess. They say that a spring of water suddenly shot up at the place where she stood praying. The water, believed nectar by the devotees, has curative value, they say. The construction of this temple attracted many Jain families to settle in and around Sirhind. However, a little before Banda Singh Bahadur's conquest of Sirhind (AD 1710), the Jain community was forewarned by their goddess of the impending disaster, and they emignated to different places. It is generally believed that forefathers of most of the Khandelwal Jains at Sunam, Nakodar, Jalandhar, Urmur, Garhdiwala, etc. had migrated from Sirhind at that time. This assertion is based on the fact that most of the Jains visiting Kangra from Rajasthan during the reigon of Prithvi Raj Chauhan belonged to the Khandelwal sub-caste for whom Chakreshavari was also their tribal goddess. Even today Khandelwal Jains are more enthusiastic in their devotion to this goddess. Interestingly, Jainism and goddess Chakreshavari have some very close interconnections with Sikhism. One, the person in whose house Guru Tegh Bhadur left behind his family at Patna while proceeding further eastward came originally from Jain tradition though the family had by then become adherents of Sikhism it was in the house of this family that Guru Gobind Singh was born. Second, after the death of Guru Gobind Singh's mother and two younger sons, Seth Todar Mal who made arrangements GHOST Gia* Og veifa 131 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति ate & Pee wireless Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन थ for their cremation was a wealthy Jain trader. At that time no one was willing to give a patch of land for this purpose until one Chaudhary Atta agreed to sell a plot on the stipulation that Todar Mal could buy as much space as he could cover with gold coins. Todar Mal produced the coins and bought the land. However, no memorial was raised at this place until has conquest of Sirhind by Banda Singh Bahadur in 1710 and later by Dal Khalsa in 1764. In fact, the credit for searching and locating the exact place goes to Maharaj Karam Singh (1798-1845) of Patiala, and it was goddess Chakreshavari, as says a Jain tradition, who helped the Maharaja in this venture. It is said that the efforts of officials sent out by the Maharaja to locate this place were in vain until goddess Chakreshavari came to one such official in a dream this official or soldier lay down in the precincts of this temple exhausted by his long searching forays in the area. In the dream she told him to go to his Maharaja and ask him to let his white horse loose. The horse will run to the sacred place, but instead of treading on it, it will run around it. The Maharaja, it is said, did the goddess' bidding. The urn containing the ashes was also discovered from the place thus located, and a gurdwara built there in 1843. An elegant gateway on the roadside, several rooms to lodge the pilgrims and the visiting Jain monks and nuns, and a dispensary have recently been added to the temple. An annual fair, largely attended by Jain ascetics and house holders from different parts of northern India, is held here on the last three days of the light half of the month of Savan (July-August). Mundan, naming and such other auspicious ceremonies are held on the concluding full moon day. तुम्बे का पात्र मुनिराज के हाथ में जाकर सुपात्र बन जाता है, संगीतज्ञों के द्वारा वांस में जोड़ा जा कर मधुर स्वर का साधन बन जाता है, दोराओं से बंध कर समुद्र या नदी को पार करने का कारण बन जाता है और मदिरा-मांसार्थी लोगों के हाथ जाकर रुधिर या मांस रखने का भाजन बन जाता है। इसी प्रकार मनुष्य सज्जन और दुर्जन की संगति में पड़ कर गुण या अवगुण का पात्र बन जाता है। अतः मनुश्य को सदा अच्छी संगति में ही रहना चाहिये । भोगों के भोगने में व्याधियों के होने का, कुल या उसकी वृद्धि होने में नाश होने का, धनसंचय करने में राजा, चोर, अग्नि और सम्बंधियों का मौन रहने में दीनता का, बल-पराक्रम मिलने में दुश्मनों का, सौंदर्य • मिलने में वृद्धावस्था का, सद्गुणी बनने में ईर्ष्यालुओं का और भारीर-संपत्ति मिलने में यमराज का इस प्रकार प्रत्येक वस्तुओं में भय ही भय है। संसार में एक वैराग्य ही ऐसा है कि जिस में किसी का न भय है और न चिन्त। अतः निर्भय वैराग्य मार्ग का आचरण करना ही सुखकारक है। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्डर ज्योति 132 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ENVIRONMENT & JAIN VISION Dr. Shekharchandra Jain Chief Editor "Tirthankar Vani" Ahmedabad The word environmental pollution has become very popular since last one decade. Today politicians, scientists and men of letters from each country of the world are engaged in discussing this problem and are voicing their concern about it. As a result of this the issue has been debated on a massive scale, but at the same time it has also become a bit fashion able to talk about this issue. The point that rises in my mind is that why does it happen so. If we look at the present globel situation and think about it - it becomes obvious that human beings have altered the very basic nature of the earth in order to achieve their personal gains. We have disturbed the natural ecological balance which depended on the existance of natural flora and fauna. The disaster consequences of our sinful acts are now staring us in the face and mankind is now martally afraid of its future as the threat to human existance has begun to increase. We have started thinking about protecting the environment. As this problem is not an individual one but concerns every living being on this earth, it has for every one. It is therefore that every one is now trying to discuss and final solutions to this problem. The ordinary meaning of the word environment is that it is a protective cover. To day this protective cover called the invironment is being form a part and the existance of the earth is in danger. The earth is a planet on which both flora and fona have a right to exist. Man is blessed with the faculty of thinking. It is a great gift of nature and therefore it was expected that man would protect nature. But, it is sad that man has abused this great gift of nature called thinking power and used it against nature itself. Except humanbeings no other living beings even try to strike other living beings, either for pleasure or far distruction, the only purpose for which they do so is to sustain their existence. But man has acted in an indiscriminate manner by killing plants and animals not only to satisfy his hunger but also to satisfy his pleasure and desires for destruction. Man has destroyed forests and in turn invited the wrath of Nature. Industrial, scientific and other experiments carried out in the name of progress have continuously been polluting the environment of the world. We wish to examine the problem of environmental pollution in the light of the facts which are now before us and from the angle of Jainism. It was thousands of years ago that the holly scriptures of Jain religion had established the fact that plants and vegetables too have life - a truth which the modern science has now accepted. Actually speaking 'Jain Agamas' had gone beyond this idea and given the concept of 'Sthavar-Panchstikaya Jival. They did not rest content with the concept only but went on to conduct experiments in order to prove beyond doubt the existence of life in all the 'Panchastikaya'. They attached the table of 'Sthavar Jiva' to them. It is written in 'Dhavla' that - "all the "Sthavar Jivas' have only one organ or sense and that is the sense of touch. It is only through this faculty that they know, see, eat, live and do all other actions". In 'Sarvarth-Siddhi' it is said that it is 'Sthavar Nam-Karm' which rises in that single sense and makes it do all those actions. It is mentioned in 'Panchastikaya' a 'Mulachar' that 'Kayes' - like upkays, Agnikayas, हेगेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 133 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति we Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ Vayukayas and Vanaspatikayas have life in them. Explaining this truth based on the experiments of one sense beings 'Panchastikayas' and other scriptures say that the life that exists in side the egg-shells can be compared to human life in the form of inconsious existence. And therefore these are sense-beings do almost all similar actions which unconsious living human beings do as long as they are alive. Author of the 'Rajvartika' says that the plants vegetables have sense of congnizence in them, this can be assumed on the basis of the fact that they grow when they get nourishment and they wither away when they are deprived of the nourishment. Further clarifying this idea it is said in Syadvad-Manjari that the inamimate stones found on the earth are living organisms because just as the grass grows again after it is cut. Similarly the stones also re-appear after they are dug out. The water too has life. The same applies to the water not only on the earth but also applies to the water in the sky as well. The same truth also applies to the fire and air and all the vegetables and plants on this earth. It is therefore that omnicient Almighty God has said that earth and other phenomena have life in them. In this way the definition given by the scripters and features displayed by the earth and other fine types of 'Sthavar-Jiva' prove that they have one sense and are therefore 'Ekendriya beings. Though they cannot act and react like human beings who have fine senses. Nevertheless they too are capable of experiencing the feelings of happiness or otherwise. But are unable to express those feelings. Experiments have also proved that if the plants were planted by different persons having good or bad personalities the growth of the plants varied accordingly. Similarly if the plants are watered with affection or are watered with hatered there is a lot of difference in their growth. One such experience also revealed that when sweet music was played before one plant it grew rapidly. All these experiments support the view that all the 'Ekendriya Sthavar Jivas' naturally have life in them but are also capable of experiencing the feelings of happiness or unhappiness. 'Live and let other live' is an important basic principle of Jainism. Jain philosophy in the 'Tatvarth Sutra' Umasuami has confired that principle the principle and the 'Sutra' are both a symbol of tolerance and cooperation between all the living beings in this world. We all know that every one of us loves ones own life. Even a little pain upsets us a slightest pain - physical, psychological caused by other fills us with emotions of revenge towards them. Under such circumstances why do not we think of the fact that other living beings ranging from Ekendriya to Panchendriya must also be feeling the same way. Just as we live happy in our own way similarly each living being in this world would also wish to live in its own way. But the only difference is that we think and believe that it is the life of the human beings which is most important compared to the life of all other beings. For the sake of our happiness we leave hurt others and even destroyed them. Other animals have not been able to do so. Considering their helpless condition and appreciating their silent suffering if we become sinsitive to their slight we would certainly be able to understand that other beings also feel and experience all the emotions just as we do. If we are blessed with focusty of thinking, we should employ it for making every living being happy on this earth because they too have a fundamental right to exist on this earth. To create such a situation in the world we shall have to develop the feelings of pity, mercy, affection and for giveness. If we examine all these emotions or feelings हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 134हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गष्टसंत शिरोमणि अभिनंदन गंथा in the light of Jain philosophy. It is clear that there arise and grow from the basic feelings of non-violence. It is the non-violence which is at the root of' 'It is the principle of non-violence which is the foundation stone on which be entire Jain Philosophy rests. The feeling of violence can never breed the feelings of nature love or affection. It is therefore that all the religions of the world have recognised the importance of non-violence. But the Jain philosophy has accepted it as the very basic principle for everything. Here as we are talling with refernce to environmental pollution. We shall focus attention on material violence around we. Basically man is a vegetarian animal, his anatomical constitution is more suitable for vegetarian food. In order to maintain ecological balance nature has decided the constitution, behaviour and food habits of all the animals in different ways. As a part of this design man was made to be a vegetarian animal. But it is astonishing to find that man has turned into a non vegetarian animal and totally changed nature's law. To satisfy his desire for taste he has been killing a number of animals and by eating them he has turned his stomach into a graveyard. He has even forgotten the feelings of mercy and sympathy and has indulged in indiscriminate violence. Even the wild and cruel animals do not kill lower animals when they are not hungry and do not indulge in needless violence. But man has killed defenceless animals and caused wide spread violence. The scriptures say when a person kills one animal for the purpose of eating, he does not kill only one living being but also kills many other potential lives arising from the flash of that dead animal. It is said in the that a true 'Shraman' is a strict vegetarian. 'Sagar Dharmamrit' and other holy books also support this view and advise us to abstain from meat, wine and honey because they are also considered to be included in the 'Mulguna'. In his book 'Paravachan Sar' Acharya Kund Kund says that in every piece of meat there are millions of other living cells continuously keep on arising. And therefore any one who eats raw or cooked meat or even touches it is guilty of killing millions of lives. Similarly items like eggs, roots etc. are also not considered edible because they are also covered under this category of items causing violence. Besides killing animals for consuming them man is needlessly fond of killing animals simply for the sake of deriving pleasure of hunting. Hobby of hunting animals for pleasure is perversion on the part of man. Hunting is a perverted hobby of man. How many silent, innocent animals are an asset to Nature and when a hunter is cruel by his very nature. He kills innocent birds and animals only to decorate the drawingrooms. We wish he was able to see helplessness and a cry for mercy in the eyes of those animals when he wishes to kill. Thousand of innocent animals have been cruelly killed to produce cosmetics and beauty aids, such as perfumes, sprays and lipsticks, etc. Instead of giving attention to the natural beauty and health man gives more attention to artificial ways and means to appear more beautiful. If we read the description of the precess in which animals are killed for this purpose our eyes would be filled with tears. Sometimes the hide of living animals is also removed for making costly leather garments. In this ways weakness for tasteful food, pleasure of hunting and fondness for fashion has motivated man to indulge in needless and cruel violence by killing innocent animals. As a result हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 135 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था। of this the number of animals on the earth is dwindling every year. Some animals are fast disappearing from the world and are put on the list of endangered speed. All this has disturbed the ecological balance and created an environmental crisis. This craving for violence has vitieted human psychology. Feelings of mercy or sympathy are fast disappearing from his mind, and he is indulging constantly in hunting and animal killing. He has now turned to killing human beings as well. Man who loved fellow human beings at one time have now launched wars and world wars. On other major factor causing environmental imbalance is constantly growing population. If people had followed even partially the important principle of celibacy such a situation would not have arisen. Today we are misled by materialism of the west and half-backed understanding of the science of sex and besides that consumption of non-vegetarian food has pushed us on the path of lustful living. The result has been destaterous. Today the danger of population explosion is greater than the danger of nuclear explosion. Due to population explosion man needs more land for farming as well as setting up industries and houses. Man has forgotten that vegetables, plants and other 'Panchastikaya Jivas' are also a part of nature. He started the process of de-forestation to clear the ground for constructing houses. As a result if this forests began to shrink and in places where once there were dense forests and were used as dwelling places for birds and animals we find houses and human habitation today. In the same way man has also destroyed forests to get more wood to be used as fuel. He over looked the fact that trees absorb Carbondioxide and emit life giving Oxygen for us. He even ignored the fact that trees were instrumental in bringing rains and fact that trees were instrumental in bringing rains and they also prevent the process of soil erosion. These were the symbols of greenery, pure air and natural beauty. Today the problem of drinking water is not only a national problem but an international problem. Natural disasters like earth quakes and floods are consequencies of this process. Water level has been going down year by year. The regular cycle of seasons is also disturbed. If we had fully realised the seriousness of our sinful acts of cutting trees causing earth to become a hell, we would never have indulged in this kind of suicidal acts. In the field of agriculture and farming also we have killed those millions of creatures who though consuming a little were saving a lot of our crops, scientific tests have proved it beyond doubt that chemical fertilizers and pesticides and insecticides have filled human blood with a lot of poision. It is for this reason that even the rich and the developed countries of the world have stopped producing them, where as we are still not only producing them but feeling proud for doing so. The real danger lies in the fact that if this is allowed to continue a day will come when the fertility of our land will be totally destroyed. In short we can say that de-forestation has caused ecological imbalance and poisionous material has struck the fertilisy of land. Big industrial plants and factories are also causing a lot of environmental pollution through their manufacturing processes. We point rosy pictures of industrial and technological progress but we forget that by using different types of fuels for generating power, electricity etc. we are speeding immense pollution. The smoke emitted by the factories rises to the sky and pollutes, the environment, the water affluents of these हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 136 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द ज्योति al Educatemat Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ factories are released into rivers, and thereby causing pollution in water of our sacred rivers. As a result of this millions of marine creatures get destroyed. These creatures were actually keeping the water clean and pure. But today our sacred rivers, lakes and ponds are totally polluted. Gas producing chemical plants are like our deadly neighbours in whose company we live contineously. Bhopal gas tragery and the Chernobyl atomic leak are two of the greatest tragic events of our country. The reality is so frighening that polluted air and water are the root causes of many diseases spreading in the present times. The developed countries are clever enough and avoid setting up such industries on other land and dump them on the land of developing countries, thinking that human life in these countries have no great value. And on the contrary they make us feel that they our real supporters and promoters of progress. If such industrial plants and factories multiply at a faster rate that will surely expedite our dooms days. If we contemplate deeply on these facts and examine them from the angle of Jainism we can say that if man follows and observes principles of non-violence and 'Aparigrah' man can save himself from the ratrace of earning and harding wealth. He would then limit his activities only to the extent of accuring the necessities of life and nothing more. He would then not allow culture to be destroyed by indulging in indiscriminate production. The greed for wealth whether it is on the part of an individual or a nation it leads to death and destruction. If the principle of co-existance propounded by Jainism is understood properly we would develop a feeling of harmony with natural and all the living beings. Once this happens we would never do anything that would damage the nature and the environment. To fulfil his selfish and greedy needs man has temperred with the scientific balance of nature that includes physics, Chemistry and Biology. As a result of this punctures are developing in the Ozone layer of the environment and is a signal for the approaching disaster. Actually speaking man has committed rape on the natural form of the world in order to get a few and small material comforts and facilities. It is a very clear opinion of the scientists that if there trends of indiscriminate actions continue it is likely that by the turn of the country millions of species will vanish from the world. Causing irreparable dancer to the environment. I quote here the words of Albert Switzer today man has lost his forsightedness and is leading the world towards distruction." It would not be an exaggeration to say that in order to achieve the so called progress we are inviting death disaster a destruction. If we adopt the Jain way of life we can certainly move one step forward in the direction of safety and security. It is possible to avoid desaster and save ourselves from destruction by observing in our daily life routine Jain vratas like - 12 vrates & 12 Tapas. In Jain ascriptures we find detailed and clear discription of the way of life to be follow by Sadhus (Monks) and ordinary common men and it is clearly prohibited that no vegitables animals, creatures, earth and other Agnikayik (Fire) Jivas should not be killed. The basis of these principles lies in freedom from desire and sympathy for all the living beings clarity of thought and good thoughts arise only by consumive such ŠOTO gila * ZNOG Gita 137 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति www.jamelifa yote Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन पंथ good that is conductive for such positive actions. If we examine all these things a little more closely we would find that the marks on the bodies of our Tirthankars indicate the close relationship between life and nature, because these marks are in the form of birds, animals, trees etc. In Hindu scriptures also the descritpions of twenty four incarnations releal that they are in the form of living beings existing either in the water or on the earth or in the sky. And that is why it is recommended that people should consider cow a sacred animal and perform its 'Pooja' the same idea is present even in the system of cattle breeding. Performing the pooja of 'Banyan Tree' and offering worship of flowers in the spring season in our gesture of respecting nature. Different animals and birds are treated as forms of conveyance for different Gods and Goddesses shows how even the devine elements have close and intimate relations with all the living beings in this world. In other words it can be said that we have always had an inseparable relationship with plants and vegetables, birds and animals and all forms of living beings and creatures. It is believed that when a person is going somewhere or he sees entering a place and if a monk, or a horse or an elephant or cowdung or a bull or a pot coming from the opposite direction it is a good omen for him and his success is assured. Even our monks and sages always preferred places close to nature for their Sadhna and Tap. They always lived either in caves or in mountains or on river banks. They always did so because it was in the lap of nature they must have experienced infinite peace and happiness. Here they must have developed friendly harmony with birds, animals and nature that would have been impossible if they had lived elsewhere, while describing the 'Samosharan' of 'Tirthankaras' the importance of trees is established by making a reference to the 'Ashok-Tree'. The importance of birds and animals is well recognised by the science of Astrology. If we examine the twleve sings of the zodiac we find that they are in the form of different animals and birds. It has been a part of this country's culture even to offer milk of the poisonous snake and never to kill it. Tulsi (Bacilus) plant is worshipped and offering water to it is a symbol indicating the importance of irrigation and watering. The noise pollution too is by no means less harmful Loud-speakers blaring continuously and the noise generated by radio and T.V. have made man lose his ability to think independently. It was for this reason that the sages have always stressed the importance of silence. To sum up this discourse we can say that we should be careful about the following Do's and Don'ts - We should save ourselves from inflict violence. We should protect all the living beings including Panchasti, Kay Jivas. We should eat only vegetarian food. We should follow the life style that is close to nature. We should protect the water. The earth and the sky from all forms of pollution. हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 138 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ We should not cut the trees but we should grow them and protect them. We should not kill animals for food, or for making pleasure or for fashions. We should keep the air free from spreading to the sky and getting mixed up with pure air. We should spread the principle of Jainism to strengthen the feelings of mutual love, affection, brother-hood and peaceful co-existence. We should develop mercy, pity, affection, respect, friendship, love etc. If we wish to save ourselves from the mass suicide. We should sincerely concentrate and protecting the environment. जिस व्यक्ति में न किसी प्रकार की विद्या है और न तपगुण, न दान है और न आचारविचारशीलता, न औदार्यादि प्रशस्त गुण हैं और न धर्मनिश्ठा। ऐसा निर्गुण व्यक्ति उस पशु के समान है जिसके भींग और पूंछ नही हैं; बल्कि उससे भी गयागुजरा है। जिस प्रकार सुंदर उपवन को हाथी और पर्वत को वज चौपट कर देता है, उसी प्रकार गुणविहीन नरपशु की संगति से गुणवान व्यक्ति भी चौपट हो जाता है। अतः गुणविहीन नरपशु की संगति भूल करके भी नहीं करना चाहिये। हाथों की शोभा सुकत-दान करने से, मस्तिष्क की शोभा हर्षोल्लासपूर्वक वंदन-नमस्कार करने से, मुख की शोभा हित, मित और प्रिय वचन बोलने से, कानों की भाोभा आप्तपुरुशों की वचनमय वाणी श्रवण करने से, हृदय की शोभा सद्भावना रखने से, नेत्रों की शोभा अपने इश्टदेवों के दर्शन करने से, भुजाओं की भाोभा धर्मनिन्दकों को परास्त करने से और पैरों की शोभा बराबर भूमिमार्ग को देखते हुए मार्ग में गमन करने से होती है। इन वातों को भलीविध समझ कर जो इनको कार्यरूप में परिणित कर लेता है वह ही अपने जीवन का विकास कर लेता है और अपने मार्ग को निश्कंटक बना लेता है। साध, साध्वी, श्रावक, श्राविका, संघ के ये चार अंग हैं। इनको शिक्षा देना, दिलाना, वस्त्रादि से सम्मान करना, समाजवृद्धि के लिये धर्मप्रचार करना-कराना, हार्दिक भाभ भावना से इनकी सेवा में कटिबद्ध रहना और इनकी सेवा के लिये धनव्यय करना। इन्हीं भुभ कार्यो से मनुष्य वह पुण्यानुबंधी पुण्य उपार्जन करता है जो उसको उत्तरोत्तर ऊंचा चढ़ाकर अन्तिम ध्येय पर पहुंचा देता है और उसके भवभ्रमण के दुःखों का अन्त कर देता है। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति 139 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति HAPrivateRomen and m Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ JAINA TEMPLES OF THE PRATIHARA PERIOD Dr. Brajesh Krishna The Pratiharas, also known as Gurjara-Pratiharas, occupy an important place in ancient Indian history. The period of this dynasty (eight to tenth century A.D.) saw a great cultural renaissance. In the field of art, numerous temples, adorned with innumerable images, were erected in various parts of northern India. According to the Jaina Prabandhas, a king Ama, who ruled over Kanauj and Gwalior during the ninth century, built Jaina temples at Kanauj, Gwalior, Mathura, Anahilavada, Modhera etc. King Ama of the Jaina tradition is identified with Pratihara Nagabhata II (C..A.D. 794833) who is known to have Jaina learings. The veracity of this tradition is attested by the Pratihara Jaina remains encountered at these places. In fact, the Pratihara period played a significant role in the history of the Jaina religion. In this period, it could make headway in Rajasthan, Gujarat and in central India, specially the regions of Bundelkhand and Malwa. Three inscriptions of the Pratiharas throw a welcome light on the spread of Jainism in this period. Ghatiyala inscription records that the illustrious Pratihara king Kakkuka built the temple of god Jina at Rohim sakupa which has been indentified with the modern village of Ghatiyala (35 kms from Jodhpur). The temple was entrusted by Kakukka to the Jaina community presided over by the ascetics Jamadeva and Amraka and the merchant Bhakuta in the gacha of the holy Dhanesvara. The old ruins of the temple are extent even at present in Ghatiyala village and are known as Mata ki Sala. Another inscription belonging to the regin of Pratihara king Vatsaraja (C.A.D. 778-812) found at Osian (66 kms from Jodhpur) refers to the construction of a Jaina temple. In fact the record is engraved on a porch of an extent Jaina temple, dedicated to Mahavira. This temple stood in the heart of the city Ukesa (i.e. Osian) at that time and it was renovated in samvat 1013 by a merchant named Jindaka.' The third inscriptions of the Pratiharas is inscribed on one of the four massive pillars that support a detached portico in front of a Jaina temple of the Pratihara period at Deogarh (Dist. Lalitpur, U.P.). The inscription refers to the existence of the temple of Jaina Arhat Santinatha. The pillar, which contains the inscription, was constructed by a Jaina acharya Deva, a disciple of the acharya Kamaladeva at Luachchhagiri (i.e. Deogarh).* No doubt, number of Jaina temples were erected in the Pratihara peiod. However, most of the temples have been ruined and at present not many architectural specimens have survived. In Rajasthan, amongst the extent Jaina temples of the Pratiharas the important are the Mahavira temple at Ghanerao (Dist. Pali) and the temples group at Osian (Dist. Jodhpur). M.A. Dhaky considers the temple of Ghanerao to be a notable example of the Medapata (Mewar) school of Maru-Gurjara style of architecture and assigns it to the mid-tenth century A.D. on grounds of its stylistic similarities with the Ambika temple at Jagat." Deptt. of Ancient Indian History, Culture & Archaeology, Kurukshetra University, Kurukshetra (Haryana) हेगेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 140 हेमेन्द ज्योति* हेगेन्चा ज्योति। Date - Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन पंथ The Mahavira group of temples at Osiano is a celebrated shrine dedicated to the last Jaina Tirthankara. The temple complex also comprises seven Devakulikas, i.e. chaples. Within a walled court yard the Mahavira temple (mulaprasada) with an ambulatory (pradakshina-patha), an antarala (vestibule), a gudhamandapa (closed hall) and a mukhamandapa (a open hall). A highly embellished beautiful torana stood before it, but it is now crumbled. The original valanaka also called nalamandapa (entry hall) which once stood just in front of the torana alos crumbled. Probably the temple was originally built in the last quarter of the eighth century A.D. and according to Dhaky belongs to early phase of Mahamaru style, the chronological limits of which he fixes between A.D. 725 and 825. However, the temple, as it stands now, shows renovations, additions and alterations which it has undergone in the subsequent periods. The spire of the temple shows urahsringas, karnarsringas, karnakutakas, gavakshas etc. indicating its construction during the 11th-12th centuries A.D. making use of old materials. There are seven Devakulikas in the temple complex which are pancharatha on plan and elevation and have a mukhachatushki and ekandaka sikhara. These devakulikas are precious little gems of architecuture illustrative of the art and iconography as well as the development of western Indian architecutral style. According to Dhaky they reprsent the diagnostic features of the Maru-Gurjara which had reached the utmost possibilities of their virginal development by A.D. 975 and could no longer maintain their virginal purity therafter. In the period of the Prathiharas central India had become an important centre of Jainism. Hundreds of Jaina temples were erected at different sites. However, it was only the Digambara sect of the Jaina religion which flourished in the region of central India during the period under review. In this region the sites of Gwalior fort and amrol (Gwalior), Badoh and Gyaraspur (Vidisha) and Tumain and sakarra (Guna) in Madhy Pradesh and Kausambi and Lachchhagir (Allahabad), Deogarh and Bonpur (Lalitpur) and Mathur in Uttar Pradesh appear to be important centres of art of the Jaina religion during the Pratihara period. Mathura continued to a centre of Jaina art and architecture during this period, as is attested by the find of several Jaina images. In fact, the Mathura region or the Brajbhumi was the sacred land to the Jainas as well as Brahmanists. Of the period under review the Mathura Museum has interesting collection of Jaina sculptures showing Jainas, sasana-devis and secondary gods. The State Museum Lucknow and Allahabad Museum have in their collections representative sculptures from almost all parts of U.P. Gwalior fort, which is known for the rock-cut Jaina colossi of the Tomara period has a remarkable group of rocksculptures of Ambika yakshi and her consort. The site has also yielded sculptures of Adinatha, Parsvanatha, Chaturvinsati - patta and Nandisvara-dvipa. In central India the earliest image of Adinatha, the first Tirthankara is known from the village Amrol (Gwalior)." Badoh in Dirstric Vidisha (M.P.) is a reputed site of Pratihara art and architecture, which has a fairly large Jaina temple showing a quadrangular arrangement of devakulikas, each with a square sanctum, roofed by a latina Nagara sikhara of c. हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्रज्योति 141 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति inte Private Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ A tenth century A.D. Despite their poor preservation, enough remains to show that devakulikas, numbered twenty four enshrined all the Jinas, and the central one with the tallest sikhara was probably dedicated to Rishabhanatha." It is to be mentioned here that most of the Jaina temples of the Pratiharas have, however, been ruined, rebuilt and ruined again in the region of central India. Of those few which have been preserved intact the most important architecturally would be only three temples. They are the temple no. 12 and 15 at Deogarh (Lalitpur) and Maladevi temple at Gyaraspur (Vidisha). Deogarh is one of the most important sites of central India for the study of the development of Jaina art and architecture during centuries. The place has a group of thirty one Jaina temples dating from the ninth to the twelth centuries and even later." That Deogarh was a prolific centre of Jainism is also attested by the discovery of more than hundred Jaina images belonging to the Pratihara period. Besides, numerous architectural fragments show that still more shrines as well as the large number of single images reflect the economic background against which buildingactivity took place. As the community was predominatly middle class there were few large donations, most of the donors not being able to contribute appreciable sums. Amongst all the Jaina temples of Deogarh Temple no. 12 is most important and it is the earliest Digambara shrine preserved in the North, and seems roughly contemporary with the above mentioned Mahavira temple at Osian, the oldest remaining Svetambara shrine. Its style is transitional between the Gopadri style prevalent in central India in the eighth century, and the Pratihara style of the ninth." The temple, surrounded by seven smaller shrines, stands on a broad rectangular platform and consists of a sanctum, a vestibule and an antarala, surrounded by a flatroofed pradakshinapatha (ambulatory) which is enclosed with a sandhara structure of pillars and grills. The mulaprasada of the temple no. 12 is surmounted with a massive curvilinear sikhara, while the antarala is roofed with a decorated pediment, making the sukanasa of the superstructure. The temple, facing the west, has doors in all the other three directions, smaller than the main one, set through the grilled wall, opposite the bhadra projections of the sanctum. The main door on the west was, in fact, replaced by doorjams which are more eloborate and ornate than the others in the eleventh century. The pradakshinapatha, consisting of decorated pillars and zig-zag screens, also has somple niches sculptured with the well-known labelled relief figures of twenty four yakshis. In front of the temple the large open mandapa seems to be a later construction. A pillar in front of this pavilion bears the above mentioned inscription of the time of the great Pratihara king Mihira Bhoja. The temple was dedicated to Jina Santinatha and may be dated to the middle of the ninth century A.D. The other important Jaina temple at Deogarh, temple no. 15, preserves a sarvatobhadra plan unique among extent temples in India." It is a tripurushaprasada consisting of three small sancta with a common navaranga mandapa. The temple faces west and can be entered through a pillared porch and a doorway. On the remaining three sides it shows broad central projections which have outer shallow niches sculptured with standing or seated Jaina images. The temple has lost its ENOTE gia * Sitose vifa 142 हेमेन्य ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Jain Education nations Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ sikhara and is replaced by a flat roof with a cupola in the centre. The navaranga mandapa inside the temple has four pillars, situated centrally, and surrounded by twelve pilasters on which the flat roof is resting. The pillars and pilasters carry typical Pratihara ornaments, such as designs of ghatapallava, padma, palmyra brackets and ribbed amalakas. The main image of the temple represents a seated Jina and is a masterpiece of the Pratihara period. It is modelled with great senstivity showng spiritual bliss and serene experssion. The temple was built a little later than temple no. 12. Gyaraspur in district Vidisha (M.P.) is another well-known site abounding in remains of Pratihara temples and sculptures of Jaina religion. The site is dotted with scores of loose Jaina images of this period representing standing or seated Jinas and supple figures of Jaina Yaksha and Yakshis. Of the old temples at the site the best preserved is the Jaina temple known as Maladevi temple, which indeed constitutea landmark in the development of the Pratihara architecture. The temple, partly rock-cut and partly structural, is a sandhara prasada consisting of an entrance porch (ardha mandapa), a pillared hall (Mandapa), a vestibule (antarala) and a sanctum (garbhagriha) with an ambulatory (pradakshinapatha). The sanctum, which is triratha in plan, is surmounted by a lofty curvilinear Nagara sikhara. The jangha of the temple has windows with conspicious balconies which are finely decorated with several motifis. The exterior of the temple is also richly carved with fine niches. Besides two Jaina Yakshis, lebelled with their names, Vanhisikha and Tarapati, a few more have been identified by Krishna Deva, such as, Padmavati, Purushadatta, Manovega, Ajita, Rohini and Kandarpa, on the basis of their iconographic traits. Dharanendra Yaksha has also got place in one of the niches. Eight armed Chakresvari seated on Garuda is also depicted on the south and north faces of the temple. The temple may be dated to the late ninth century A.D. which marks the culmination of the Pratihara architectural style of central India. After the distinegration of mighty Pratihara of Kanauj, a little empire of the late Pratiharas, seperated from the main branch, was established in the jungle-ridden region of central India in eleventh century A.D. The geographical area of this small principality comprised modern districtgs of Jhansi, Lalitpur (U.P.) Guna and Shivpuri (M.P.). The rulers of this seperated branch of the Pratiharas, Harirajadeva, Ranapaladeva and Vatsaraja are accredited with building of a number of temples. A group of Jaina temples has been found in the village Ruwaso, about ten kms., from Chanderi (in district Guna, M.P.). The temples belonged to the Digambara sect. In the group some are of latge Pratihara period, now badly renovated. One of these temple consists of a square garbhagriha, preceded by a small mukha mandapa. It is is probable that above it was astunted sikhara and sukanasika, now missing. The present shrine in view of pilaster decor may be dated to the end of 11th century A.D. Thus the Jaina temples of the Pratiharas, as evident from the above, have an important place in the history of ancient Indian architecture. These temples inherited the classical Gupta tradition and they clearly reveal their generic connections with Gupta architecture. The art and architecture of these temples also show a greater experimentation and achievement in the field of architecture and in the vocabulary of the decorative motifs. हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 143, हेमेन्द ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति library.com Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 2. 3. 4. 5. 6. श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन राय References R.C. Majumdar and A.D. Pusalkar (ed.). The Age of Imperial Kanauj, Bombay, 1955, p.289 Epigraphia Indica, IX, p. 278 7, Ibid., IX, p. 199 ff. Ibid., IV, pp.309-10 M.A. Dhaky, 'The Genesis and Development of Maru-Gurjara Temple Architecture', in Pramod Chandra (ed.) Studies in Indian Temple Architecture, New Delhi, 1975, pp. 114-65. For details see, Devendra Handa, Osian-History, Archaeology, Art and Architecture, Delhi, 1984. Ibid., pp.44-48, 63 and 68-69 and also M.A. Dhaky 'Some Early Jaina Temples in Western India', Shri Mahavira Jain Vidyalaya Golden Jubilee Volume, Bombay, 1968, pp. 312-27 8. Ibid., pp. 48-52. 9. M.A. Dhaky, (1975), op. cit., p.153 10. Krishna Deva, 'Examples of Early Medieval Art in Central India', in A.Ghosh (ed.) Jain Art and Architecture, New Delhi, 1974, Vol. I, pp. 168-71. 11. Michael W. Meister, Ama, Amrol and Jainism in Gwalier Fort, Journal of the Oriental Institute, Baroda, Vol. XXII, pp. 354-58. 12. Krishna Deva (1974), op. cit. p. 171. 13. Klaus Bruhn, The Jina - Images of Deogarh, Leiden, 1969, p. 52. 14. Krishna Deva, 'Group of Temples] Deogarh' in A. Ghosh (ed.) Jain Art and Architecture, New Delhi, 1974, Vol. I, p. 178. 15. Michael W. Meister, 'Jaina Temples in Central India' in U.P. Shah and M.A. Dhaky (ed.) Aspects of Jain Art and Architecture, Ahmedabad, 1975, p. 223. 16. Brajesh Krishna, The Art Under the Gurjara-Pratiharas, New Delhi, 1989.pp 94-97 17. Ibid., pp. 97-99 18. Ibid., pp. 99-102, for details see, Krishna, Deva, 'Mala Devi Temple at Gyaraspur', Shri Mahavira Jain Vidyalaya, Golden Jubilee Volume, 19. C.B. Trivedi, 'Late Pratihara Temples from Bundelkhand', in M.S. Nagaraja Rao (ed.) Madhu Recent Researches in Indian Archaeology and Art History, Delhi, 1981, pp. 195-98. हेमेन्द्र ज्योति मेटर ज्योति 144 हेमेउडर ज्योति हेमेन्द्र ज्योति Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संत शिरोम अभिनन्दन ग्रन्थ परिशिष्ट आत्मा और परमात्मा, दूर रहे बहु काल | सुंदर मेल कर दिया, हमें सद्गुरु मिले दयाल || Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TERNEAC मन मारन की औषधि, सद्गुरू देत दिखाय। जो इच्छत परमानन्द को सो गुरू चरणे जाय ।। Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथनायक द्वारा रचित गुरगुणपच्चिसा (तर्ण-चौपाई सूरि विजय राजेन्द्र हैं प्यारे जिन शासन के ध्रुव सितारे सत्यमार्ग का बोध कराकर चले गये वो मोक्ष के पथ पर गुरू ज्ञानी गुरू दीप समाना अध्यात्म मारण पहिचाना मति श्रुत ज्ञान को है बहुपाया प्रेम पीयूष केशर बरसाया D0000 जय गुरूदेव है सुमिरन साँचा जिनके चरणे नवनिधिवासा गुरूचरणों में नित गुण गावे ऋद्धि-सिद्ध समृद्धि पावे राजस्थान की विरल धरा पर भरतपुर नगरी श्रेयस्कर ऋषभदास केशरदेवी के पुत्र सलीने रत्नराजथे महिमा जिनकी वर्णी न जावे सरस्वती के पुत्र कहावे उपकारी गुरूदेव हमारे संघ चतुर्विध के रखवाले चारित्र योग उदयपुर आया प्रमोद सूरि गुरु हस्त धराया अतिशय धारी तेज दिपंता पुण्य प्रभावक जय - जयवंता ध्यान साधना जिनकी भारी योग सिद्धि भी उनकी न्यारी चामुंडवन की अटवी माहे हिंसक शेर भी शीष नमावे रत्नत्रयी का ज्ञान कराया तत्वनयी सबको समझाया निस्तुतिक उद्धार कराया पुण्योदय से सद्गुरुपाया S tatessonily Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म gooooooooooooo समकित दानी महाउपकारी जिनवर ध्यान करे भवपारी मिथ्यातम से मुक्ति दिलाई यशकीर्तिलीला जग गाई पावन क्रिया राह दिखाते पद निर्वाण का भान कराते जन्म मरण का दुःख मिटाते भव भ्रमणा से मुक्ति दिलाते शिथिलाचार बढ़ा धरती पर चिंतन करते सुज्ञ गुरुवर सत्यक्रियाको धार लिया था जावरा क्रियोद्धार किया था मांगीतुंगी पहाड़ बड़ा था अध्यात्म का रंग चढ़ा था अहम् पद का सुमिरन करते भक्तों के दुःख दारिद्र हरते उपशम संवर गुण में रमते जिन आज्ञा को दिल में धरते चार कषाय को मन से तजते पंचमहाव्रतपालन करते चिरीला मनभेद मिटाया जालोर चैत्यकाद्वार खुलाया नवशत बिंब को अंजन कीना आहोर माहे पदवी लीना शीतलचन्दनचन्द्र कहाना मुख मुद्रा वीतराग समाना आतम निर्मल वाणी मधुरी पूज्य गुरूवर धर्म की धूरी आगम ज्ञाता ज्ञान दिवाकर राजेन्द्र कोष लिखा रचनाकर प्राकृत संस्कृत के रत्नाकर ज्योतिपुंज ही आपसुधाकर मैत्री करूणा सबपर रखना आत्म सरल शुभ भाव को धरना गुरु उपदेश सदा हितकारी पंचमकाले जयजयकारी lication internation NFasna org Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनदीप यतीन्द्र विहारी शिष्य गुरु के आज्ञाकारी हर्ष अरु लक्ष्मी भी पाये नित्य पढ़ाकर ज्ञानी बनाये चिंतामणि सम चिंता चूरे कल्पतरु जिम आशा पूरे गुरु चरणे जीवन धर दीना मनवाञ्छित शुभ फल वो लीना परम कृपालु जय गुरुदेवा भव भव चाहुं तोरी सेवा सेवक अरजी उरमें धरजी सुख दुःख में गुरु साथ रहजी दुबली पतली तपसी काया त्याग किये ममता और माया नाम तुम्हारा संकट टाले भूत प्रेत को दूर भगावे अंत घड़ी गुरुने पहचानी समाधि तीन दिनों का ठानी अवनी अंबर जब तक तारे नाम अमर है, जग में प्यारे समाधि मंदिर स्वर्ग हो जैसे वर्णन करना तीर्थ का कैसे मोहनखेड़ा जो जन आवे तन मन धन सहुं कष्ट मिटावे प्रबल हुए अब भाग्य हमारे गुरुवर बिगड़े काज संवारे गुरु चरणों की पाऊं छाँया नहीं सतावे ममता माया विद्या सूरि यतीन्द्र को पाया जिन शासन का बाग खिलाया हर्ष विजय गुरु आशीष पावे सूरि हेमेन्द्र चरण में आवे ॥ दोहा ॥ नाम जपो गुरुदेव का, ॐ ह्रीं पद के साथ आधि-व्याधि-उपाधि से, मुक्ति मिले प्रभात हर्ष धरी उल्लास से, छंद रटो सुखकंद हेमेन्द्र ध्यान करी सदा, मिट जावे भव फंद Penalty Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथनायक की प्रेरणा - मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद से चल रही प्रगतिशील संस्थाएँ विश्वप्रसिद्ध श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ भारतमें दूसरा एवं राजस्थान में पहला श्री ७2 जिनालय तीर्थ- भीनमाल श्री पार्श्वनाथ राजेन्द्रधाम-नाकोडा श्री राजेन्द्रसूरी दादावाडी-जावरा श्री राजेन्द्र विहार दादावाडी- पालिताणा * श्री राजेन्द्र भवन - पालिताणा श्री राजेन्द्र विद्याधाम - पालिताणा श्री लुक्कड भवन - पालिताणा श्री पार्श्व-पद्मावती धर्मशाला -शंखेश्वर तीर्थ श्री राजेन्द्र विहार -शंखेश्वर तीर्थ श्री राजेन्द्रसूरी दादावाडी-खांचरोद आदि धार्मिक, सामाजिक, शैक्षणिक एवं चिकित्सकीय अनेक संस्थाओं... For Private & Personal use only www.jainelibrary Jain Education Intemational Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प.पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की पावन निश्रा में सम्पन्न हुए शासनप्रभावना के कार्य... ...उपधान तप... भीनमाल सन् 1981, संवत् 2038, : आयोजक: श्रीमान धमंडीरामजी गोवाणी भीनमाल सन् 1981 संवत् 2038, : आयोजक: श्रीमान घेवरचंदजी अमीचंदजी पादरावाले भीनमाल सन् 1987 संवत् 2044, : आयोजक: श्रीमान नाहर घेवरचंदजी बाबूलालजी बागरा सन् 1990 संवत् 2047, : आयोजक: श्री जैन संघ, बागरा 330 श्री शंखेश्वर तीर्थ सन् 1996 संवत् 2053, : आयोजक: श्रीमान सांकलचंदजी चुन्नीलालजी तांतेड़ आहोर सन् 2006 संवत् 2062 आयोजक: श्रीमान शा. घेवरचंदजी नगराजजी बजावत आहोर ... रिपालित संघ.. सन् 1985, संवत् 2041, जावरा से मोहनखेड़ा तीर्थ, छ:री पालित संघ सन् 1992, संवत् 2049, बम्बई से श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, छ:री पालित संघ सन् 2004, संवत् 2061, सन् 2005, संवत् 2062, भीनमाल से नाकोड़ा तीर्थ, अयोध्यापुरम से पालीताणा, छ:री पालित संघ छ:री पालित संघ सन् 2005, संवत् 2062, जावरा से नागेश्वर, छ:री पालित संघ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा अंजनशलाका व शिलान्यास प्रालिष्या गणाधिपति पदमें पालिताणा दादावाड़ी में सन् 1983, संवत् 2040, गुरुमंदिर प्रतिष्ठा जावरा (म.प्र.) सन् 1984 संवत् 2041 श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जिनालय चौपाटी श्री मोहनखेड़ा तीर्थ सन् 1985, संवत् 2041, 250 जिनबिम्बों की अंजनशलाका एवं आचार्य श्री विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी गुरूमंदिर की प्रतिष्ठा आहोर (राज.) सन् 1966, संवत् 2043, श्री सीमंधरस्वामी व 200 जिनबिम्बों की प्रतिष्ठांजनशलाका आहोर (राज.) सन् 1966, संवत् 2043, भगवान श्री पार्श्वनाथ एवं गुरूमंदिर भीनमाल (राज.) सन् 1987, संवत् 2044, श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जिनालय भीनमाल (राज.) सन् 1969, संवत् 2046, भगवान श्री मनमोहन पार्श्वनाथ प्रतिष्ठांजनशलाका * कुंदनपुर (काकमाला) (राज.) सन् 1989, संवत् 2046, श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जिनालय * पासीताणा (गुज.) सन् 1990, संवत् 2047, श्री राजेन्द्र भवन में प्रतिष्ठा ऋद्धी सिद्धी पार्श्वनाथ भगवान जिनालय भीनमाल (राज.) सन् 1990, संवत् 2047, श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जिनालय में गुरुमंदिर की प्रतिष्ठा पावा (राज.) सन् 1994, संवत् 2052, श्री संभवनाथ आदि जिन एवं श्री राजेन्द्रसूरि शुरू बिंब प्रतिष्ठांजनशलाका श्री शंखेश्वर तीर्थ (गुज) सन् 1994, सं. 2052, 250 जिनबिंबों की प्रतिष्ठांजनशलाका श्री पार्श्व पद्मावती धर्मशाला श्री राजेन्द्रभवन पालीताणा में सन् 1996, सं. 2052. गुरू गौतमस्वामी आदि मूर्तिओं की प्रतिष्ठा बम्बई (महा.) सन् 1996, संवत् 2053, श्री मिनाथ आदि जिनबिंबो एवं गुरूबिंब की अंजनशलाका, कमाठीपुरा बम्बई (महा.) सन् 1996, संवत् 2063, श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जिनालय, सुमेरटावर बम्बई (महा.) सन् 1996, संवत् 2053, प्रतिष्ठा, नीलम नगर * खाचरौद (म.प्र.) सन् 1997, संवत् 2064, श्री शंखेश्वर जिनमंदिर (दादावाडी) नागदा जंक्शन (म.प्र.) सन् 1997, संवत् 2054, श्री गुरुमंदिर प्रतिष्ठा धार (म.प्र.) सन् 1998, संवत् 2056, श्री शंखेश्वर पानाथ जिन आदि प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा भैंसवाड़ा (राज.) सन् 1999, संवत् 2056, भगवान श्री शीतलनाथ आदि जिनबिम्ब, श्री गौतम गणधर एवं गुरूदेव श्री राजेन्द्रसूरिजी की प्रतिष्ठांजनशलाका सिमलावदा (म.प्र.) सन् 1900, संवत् 2057, भगवान श्री सुपार्श्वनाथ, श्री गौतमस्वामी, गुरूदेव श्री राजेन्द्रसूरि आदि की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा नागदा जंकशन (म.प्र.) सन् 1999, संवत् 2057, भगवान श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ, श्री गौतमस्वामी, गुरूदेव श्री राजेन्द्रसूरि आदि की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा राणीबेन्नूर (कर्णा.) सन् 2000, संवत् 2057, गुरूदेव श्री राजेन्द्रसूरिजी की गुरूमंदिर दादावाड़ी की प्रतिष्ठा टिपटूर (कर्णा.) सन् 2000, संवत् 2057, गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरिजी की गुरुमूर्ति की प्रतिष्ठा चिकबालापुर (कर्णा.) सन् 2001, संवत् 2068, भगवान श्री महावीरस्वामी जिन मन्दिर एवं गुरूमंदिर चित्रदुर्ग (कर्णा.) सन् 2001, संवत् 2058, गुरू मंदिर * हुबली (कर्णा) सन् 2001, संवत् 2068, गुरू मंदिर की प्रतिष्ठा तनुकु (आ.प्र.) सन् 2002, संवत् 2050, श्री शांतीनाथ मुनिसुव्रतस्वामी जिनालय एवं गुरूमंदिर निबो (आं.प्र.) सन् 2002, संवत् 2069, जिनमंदिर एवं गुरूमंदिर विजयनगरम् (आ.प्र.) सन् 2002, संवत् 2050, जिनमंदिर एवं गुरूमंदिर पेढीमीरम (आ.प्र.) सन् 2002, संवत् 2060, गुरू मंदिर राजमहेन्द्री (आ.प्र.) सन् 2003, संवत् 2060, जिन मंदिर मरता (राज.) सन् 2003, संवत् 2061, जिन मंदिर मेघनगर (म.प्र.) सन् 2005, संवत् 2062, गुरूमंदिर चिरोसा (म.प्र.) सन् 2006, संवत् 2062, चिंतामणी पार्श्वनाथ जिनमंदिर एवं गुरूमंदिर भीनमाल (राज.) सन् 2006, संवत् 2063, श्री महावीरस्वामी जिनालय में गुरूमंदिर प्रतिष्ठा दाहोद (गुज.) सन् 2007, संवत् 2063, श्री सीमंधरस्वामी आदि 70 जिनबिंबों एवं गुरूबिंब अंजनशलाका प्रतिष्ठा Tenens anger भीनमाल सन् 1996, संवत् 2053, श्री लक्ष्मीका पार्श्वनाथ 72 जिनालय का शिलान्यास कड़ो सन् 1908, संवत् 2055, श्री पार्श्वनाथ जिनालय का शिलान्यास जावरा सन् 1999, संवत् 2056, श्री शंकर पार्श्वनाथ जिनालय वादावाड़ी * मैसूर सन् 2000, संवत् 2057, श्री सुमतिनाथ जिनमंदिर एवं गुरुमंदिर का शिलान्यास राजमहेन्द्री सन् 2001, संवत् 2058. श्री सुमतिनाथ जिनालय * नाकोड़ा (श्री पा. राजेन्द्रधाम ) सन् 2004, सं2061, श्री पार्श्वनाथ जिनालय Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षाएंट्रीक्षा - पूज्यश्री द्वारा प्रदान की गई दीक्षाएँ दीक्षाऐंसाधुवंद श्री मोहनखेड़ा तीर्थ सन् 1985, संवत् 2042, मुनि श्री जिनेन्द्रविजयजी म.सा. जावरा सन् 1984, संवत् 2041, साध्वी श्री दर्शनरेखाश्रीजी म.सा. भीनमाल सन 2003,संवत 2060. साध्वी श्री पद्मप्रभाश्रीजी म.सा. भीनमाल सन् 1987, संवत् 2044, साध्वी श्री मणिप्रभाश्रीजी म.सा. भीनमाल सन् 1987, संवत् 2044, मुनि श्री हितेशचन्द्रविजयजी म.सा. भीनमाल सन् 2003, संवत् 2060, साध्वी श्री तत्वरूचिश्रीजी म.सा. अमदावाद सन् 1989, संवत् 2046, साध्वी श्री सौम्यदर्शिताश्रीजी म.सा. भीनमाल सन् 2003,संवत् 2060, साध्वीश्रीरत्नत्रयाश्रीजी म.सा. भीनमाल सन् 1992, संवत् 2049, मुनि श्री पीयूषचंद्रविजयजी म.सा. अमदावाद सन् 1989, संवत् 2046, साध्वी श्री सौम्यरत्नाश्रीजी म.सा. आहोर सन् 2003, संवत् 2060, साध्वी श्री अर्हम्यशाश्रीजी म.सा. मनावर सन् 1993, संवत् 2050, मुनि श्री दिव्यचन्द्रविजयजी म.सा. (शुभ साम्राज्ये) भीनमाल सन् 1990, संवत् 2047, साध्वी श्री विनीतप्रज्ञाश्रीजी म.सा. आहोर सन् 2003, संवत् 2060, साध्वी श्री संवेगयशाश्रीजी म.सा. श्री शंखेश्वर तीर्थ सन् 1994, संवत् 2051, मुनि श्री लाभेशविजयजी म.सा. भीनमाल सन् 1990, संवत् 2047, साध्वी श्री पुनीतप्रज्ञाश्रीजी म.सा. आहोर सन् 2003, संवत् 2060, साध्वी श्री निर्वेदयशाश्रीजी म.सा. श्री शंखेश्वर तीर्थ सन् 1994, संवत् 2051, मुनि श्री प्रीतेशचन्द्रविजयजी म.सा. भीनमाल सन् 1993, संवत् 2050, साध्वी श्री कैवल्यप्रियाश्रीजी म.सा. भीनमाल सन 2003, संवत् 2060, साध्वी श्री प्रमोदयशाश्रीजी म.सा. दाहोद सन् 1995, संवत् 2052, मुनि श्री लवकेशविजयजी म.सा. (शुभ साम्राज्ये) भूति सन् 1994, संवत् 2050 साध्वीश्री हर्षवर्धनाश्रीजी म.सा. भीनमाल सन् 2003, संवत् 2060, साध्वी श्री प्रशमयशाश्रीजी म.सा. भीनमाल सन् 1996, संवत् 2053 मुनि श्री रजतचन्द्रविजयजी म.सा. नवसारी सन् 1994, संवत् 2051, साध्वी श्री विरागयशाश्रीजी म.सा. (शुभ साम्राज्ये) जावरा सन् 1997, संवत् 2053, मुनि श्री चन्द्रयशविजयजी म.सा. पालीताणा सन् 2005, संवत् 2062, साध्वी श्री परार्थयशाश्रीजी म.सा. * पालीताणा सन् 2005, संवत् 2062, साध्वी श्री सुव्रतयशाश्रीजी म.सा. आहोर सन् 1994, संवत् 2051, साध्वी श्री मोक्षयशाश्रीजी म.सा. दाहोद सन् 1997,संवत् 2054, मुनि श्री ललितेशविजयजी म.सा. (शुभ साम्राज्ये) आहोर सन् 1994, संवत् 2051, साध्वी श्री मोक्षरसाश्रीजी म.सा. पालीताणा सन् 2005, संवत् 2062, साध्वी श्री उपशमयशाश्रीजी म.सा. पालीताणा मुनि श्री पुष्पेन्द्रविजयजी म.सा. (शुभसामाज्ये) आहोर सन् 1994, संवत् 2051, साध्वी श्री मोक्षमालाश्रीजी म.सा. पालीताणा सन् 2005, संवत् 2062, साध्वी श्री संवरयशाश्रीजी म.सा. साध्वियाँ भीनमाल सन् 1981, संवत 2035, साध्वी श्री रत्नरेखाश्रीजी म.सा. भीनमाल सन् 1994, संवत् 2051, साध्वी श्री संवरवर्षिताश्रीजी म.सा. घानसा सन् 2006, संवत् 2063, साध्वीश्री रत्नयशाश्रीजी म.सा. पालीताणा सन् 1983, संवत् 2040, साध्वी श्री तत्वलोचनाश्रीजी म.सा. भीनमाल सन् 1994, संवत् 2051, साध्वी श्री क्षमाशीलाश्रीजी म.सा. कोशेलाव सन् 2006, संवत् 2063, साध्वी श्री राजयशाश्रीजी म.सा. पालीताणा सन् 1983, संवत् 2040, साध्वी श्री तत्वदर्शनाश्रीजी म.सा. दाहोद सन् 1995, संवत् 2052, साध्वी श्रीभावितगुणाश्रीजी म.सा. (शुभसामाज्ये) तखतगढ़ सन् 2006, संवत् 2063, साध्वी श्री तत्त्वश्रध्धाश्रीजी म.सा. Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JULIE XORAT KOT चातुर्मास सूचि... क्र. सन् संवत् 1. 1942 1999 2. 1943 2000 3. 1944 2001 4. 1945 2002 5. 1946 2003 6. 1947 2004 7. 1948 2005 8. 1949 2006 9. 1950 2007 10. 1951 2008 11. 1952 2009 12. 1953 2010 13. 1954 2011 14. 1955 2012 15. 1956 2013 16. 1957 2014 17. 1958 2015 18. 1959 2016 19. 1960 2017 20. 1961 2018 21. 1962 2019 22. 1963 2020 23. 1964 2021 24. 1965 2022 स्थान भीनमाल आहोर गुड़ाबालोतान पालीताणा थराद पालीताणा थराद आहोर भीनमाल भीनमाल धानेरा भीनमाल बागरा आहोर लोवाणा थराद जावरा राजगढ़ झाबुआ इन्दौर गुड़ाबालोतान भीनमाल भीनमाल पालीताणा साथमें मुनिश्री हर्षवजयजी म.सा. उपाध्याय श्री गुलाबविजयजी म.सा. उपाध्याय श्री गुलाबविजयजी म.सा. मुनि श्री हर्षवजयजी म.सा. मुनि श्री हर्षवजयजी म.सा. मुनि श्री हर्षवजयजी म.सा. आ. श्रीमद् यतिन्द्रसूरिजी एवं मुनि श्री हर्षविजयजी म.सा. मुनि श्री हर्षवजयजी म.सा. मुनि श्री हर्षवजयजी म.सा. मुनि श्री हर्षविजयजी म.सा. मुनि श्री हर्षवजयजी म.सा. मुनि श्री हर्षवजयजी म.सा. मुनि श्री हर्षवजयजी म.सा. मुनि श्री हर्षवजयजी म.सा. मुनि श्री हर्षवजयजी म.सा. मुनि श्री चारित्रविजयजी म.सा. श्रीमद् यतिन्द्रसूरीजी म.सा. श्रीमद् यतिन्द्रसूरीजी म.सा. मुनि श्री कल्याणविजयजी म.सा. मुनि श्री विद्याविजयजी म.सा. मुनि श्री विद्याविजयजी म.सा. मुनि श्री विद्याविजयजी म.सा. मुनि श्री विद्याविजयजी म.सा. श्रीमद् विद्याचन्द्रसूरीजी म.सा. Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25. 26. 27. 1966 1967 1968 1969 1970 31. 2023 2024 2025 2026 2027 2028 2029 2030 2031 2032 2033 2034 2035 2036 2037 2038 1971 1972 1973 1974 1975 1976 1977 1978 1979 1980 1981 पालीताणा अहमदाबाद अहमदाबाद पालीताणा उज्जैन थराव कोशेलाव खाचरोद भीनमाल राजगढ़ धानेरा मोहनखेड़ा तीर्थ मोहनखेड़ा तीर्थ मोहनखेड़ा तीर्थ मोहनखेड़ा तीर्थ भीनमाल मुनि श्री लक्ष्मणविजयजी म.सा. मुनि श्री कल्याणविजयजी म.सा. मुनि श्री कल्याणविजयजी म.सा. श्रीमद् विद्याचन्द्रसूरीजी म.सा. श्रीमद् विद्याचन्द्रसूरीजी म.सा. श्रीमद् विद्याचन्द्रसूरीजी म.सा. श्रीमद् विद्याचन्द्रसूरीजी म.सा. श्रीमद् विद्याचन्द्रसूरीजी म.सा. श्रीमद् विद्याचन्द्रसूरीजी म.सा. श्रीमद् विद्याचन्द्रसूरीजी म.सा. श्रीमद् विद्याचन्द्रसूरीजी म.सा. श्रीमद् विद्याचन्द्रसूरीजी म.सा. श्रीमद् विद्याचन्द्रसूरीजी म.सा. श्रीमद् विद्याचन्द्रसूरीजी म.सा. श्रीमद् विद्याचन्द्रसूरीजी म.सा. स्वतंत्र 33. 34. 36. 37. आहोर 43. 41. 1982 1983 1984 1985 45. 1986 46. 1987 47. 1988 1989 49. 1990 50. 1991 1992 52. 1993 53. 1994 54. 1995 55. 1996 1997 1998 1999 59. 2000 60. 2001 61. 2002 62. 2003 2004 2005 65. 2006 2039 2040 2041 2042 2043 2044 2045 2046 2047 2048 2049 2050 2051 2052 2053 2054 2055 2056 2057 2058 2059 2060 2061 2062 2063 पालीताणा जावरा मोहनखेड़ा तीर्थ बागरा मोहनखेड़ा तीर्थ मोहनखेड़ा तीर्थ मोहनखेड़ा तीर्थ पालीताणा पालीताणा मुम्बई मोहनखेड़ा तीर्थ पालीताणा पालीताणा श्रीशंखेश्वर तीर्थ भीनमाल राजगढ़ राणी बेन्नूर मद्रास (चैन्नई) राजमहेन्त्री काकीनाड़ा आहोर श्री नाकोड़ा तीर्थ जावरा श्री मोहनखेड़ा तीर्थ स्वतंत्र स्वतंत्र स्वतंत्र स्वतन्त्र स्वतंत्र स्वतंत्र स्वतंत्र स्वतंत्र स्वतंत्र स्वतंत्र स्वतंत्र स्वतंत्र स्वतन्त्र स्वतंत्र स्वतंत्र स्वतंत्र स्वतंत्र स्वतंत्र स्वतंत्र स्वतंत्र स्वतंत्र स्वतंत्र स्वतंत्र स्वतन्त्र Jain Education Interational Swaragy .org Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | पू. आचार्य भगवंत की अध्यक्षता एवं मार्गदर्शन में विकासशील श्री मोहनखेड़ा तीर्थ समाधिस्थल श्री विद्याचंद्रसूरि मंदिर NETutalent आलिशान ऑफिस मुख्य प्रवेशद्वार धर्मशाला श्री मोहन विहार For Private & Personal use only wwwrainelibrary Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PACE श्री आदिनाथ भवन विशालतम श्री राजेन्द्र विद्याविहार धर्मशाला भोजनशाला श्री विद्या विहार शांतिबाई कशाची एम. कान की से "परम पूज्य आचार्यदेवश्रीमदयतीन्द्रसूरि क्रियामन्न વાંકાન धर्मशाला श्री यतिन्द्रसूरि क्रिया भवन धर्मशाला Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर पेढी जनाचार्य वीमद्विजयजन्तुरीवरीर ताचायला मूलनायक श्री आदिनाथ भगवान तीर्थस्थापक प.पू.आ. श्री राजेन्द्रसूरिजी म.सा. तीर्थोद्धारक कविरत्न प.पू.आ. श्री विद्याचंद्रसूरिजी म.सा. श्रीसुमेरमलजी लुक्कड श्री फतेहलालजी कोठारी श्री सुजानमलजी सेठ भीनमाल-मुंबई एडवोकेट रतलाम राणापुर राजगढ़ (उपाध्यक्ष) (महामंत्री) (मेनेजिंग ट्रस्टी) श्री हकमीचंदजी बागरेचा सियाणा, राणीबेन्नुर (कोषाध्यक्ष) श्री रतनलालजी जैन राजगढ़ (ट्रस्टी) श्री मांगीलालजी पावेचा श्री चम्पालालजी कंकुचौपड़ा श्री तेजराजजी गोवाणी श्री चंपालालजी वर्धन श्री जयन्तिलालजी बाफना राजगढ़ आहोर, बेंगलोर भीनमाल, मुंबई भीनमाल, मुंबई भीनमाल, मुंबई (ट्रस्टी ) (ट्रस्टी ) (ट्रस्टी ) (ट्रस्टी) (ट्रस्टी) For Private Pernal Uba Only wwww.jainelibrary. Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनरवेड़ा ट्रस्ट मंडल तीर्थमार्गदर्शक प.पू.आचार्यदेव श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. श्री मोहनखेडा जिनालय श्री शांतीलालजी दीपचंदजी श्री पथ्वीराजजी सेठ थराद-अहमदाबाद भीनमाल-मुंबई (ट्रस्टी ) (ट्रस्टी) श्रीवालचंदजी रामाणी गुडाबालोतान, नेल्लुर (ट्रस्टी ) श्री शांतीलालजी जैन श्री कमलचंदजी लूणिया सियाणा, मुंबई आहोर, भिवंडी (ट्रस्टी ) (ट्रस्टी ) डॉ.शा. बाबुलालजी मेहता श्री बाबुलालजी खिमेसरा श्री पारसमलजी सालेचा श्री शान्तिलालजी सर्राफ सुमेरपुर जावरा बाकरा, मुंबई राजगढ़ (ट्रस्टी ) (ट्रस्टी) (ट्रस्टी ) (ट्रस्टी ) For Private & Personal use only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १सर पर रखना गलवर अपने दोनों ही रना हो तो दिजिए जनम जनम का साथ । Jestication International For Paivate & anal Use Only www jainelibraong Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनके स्मरण मात्र से हमारे मनको असीम शांति मिलती है। जिनके दर्शन से विघ्न बाधाएं समाप्त होती है, ऐसे प.पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति चमत्कारि मांगलिक प्रदाता वचनसिद्ध आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के अभिनन्दनगंथप्रकाशनपर भावभरी हार्दिक वंदना...वंदना...वंदना... * वंदनकर्ता* VIDACN LISA, SANSAREANSALIS 7/* ENTENT ': ग्रंथ के मुख्य आधारस्तंभ : श्री नमिनाथ जैन श्वेताम्बर श्री संघ कमाठीपुरा, मुम्बई. अंजनशलाका प्रतिष्ठोत्सव निमित्त सन् 1996 ': ग्रंथ के मुख्य आधारस्तंभ : श्री सम्भवनाथ जैन श्वे. त्रिस्तुतिक संघ पावा, जिला पाली, (राजस्थान) अंजनशलाका प्रतिष्ठोत्सव निमित्त सन् 1994 AFor PrecR le Only! www.jainelibrary.om Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनके दर्शन मात्र से सुखानुभूति एवं आनन्द का अनुभव होता है । संतप्त हृदय को शांति मिलती हैं, ऐसे प. पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति चमत्कारि मांगलिक प्रदाता वचनसिद्ध आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशन पर भावभरी हार्दिक वंदना... वंदना... वंदना... WIERIGHER AN * वंदनकर्ता mero 60606 : ग्रंथ के मुख्य • आधारस्तंभ : श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक जैन संघ, भैंसवाड़ा, जिला जालोर (राज.) श्री शांतिनाथ, शीतलनाथ, महावीरस्वामी, प्रतिष्ठा अंजनशलाका निमित्ते सन् 1999 : ग्रंथ के मुख्य आधारस्तंभ : सकल जैन संघ एवं श्री राजेन्द्रसूरी जैन ट्रस्ट, राणी बेन्नूर (कर्णाटक) श्री राजेन्द्रसूरी गुरुमंदिर प्रतिष्ठोत्सव निमित्ते सन् 2000 My Boy For Private & Past LOADOWTEXTEN Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन्होने तप और त्याग का मार्ग बताया। जिन्होंने सेवाधर्म का अनुपम आदर्श उपस्थित किया ऐसे प.प. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजीम.सा. के अभिनन्दना गंथ प्रकाशन पर भावभरीहार्दिकवंदना...वंदना..वंदना... *वंदनकर्ता* ReDDOOK ': ग्रंथ के मुख्य आधारस्तंभ : श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक जैन संघ भीनमाल (राजस्थान) * ': ग्रंथ के मुख्य आधारस्तंभ : श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्री संघ एवं श्री गोडी पार्श्वनाथ बावन जिनालय ट्रस्ट आहोर, जिल्ला जालोर (राजस्थान) Main Ed cation International ANA Only www.jainelibrar Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ जिनकी पीयूषवर्णी वाणी से संतप्त हृदय को आनन्द की अनुभूति होती है। जिनके दर्शन मात्र से सुखानुभूति होती है, शांति मिलती है। ऐसे पूज्य गुरुदेव राष्ट्रसंत शिरोमणि, नाच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के पावन श्री चरणों में कोटि कोटि वंदना... *बंदुनका * ग्रंथ स्तंभ स्तंभा श्री वासुपूज्य जैन श्वेताम्बर सकल संघ राजमहेन्द्री ,(आ.प्र.) पू. गुरूदेव के सन् २००१ के यशस्वी चातुमसि निमित्ते श्री त्रिस्तुतिक जैन संघ एवं श्री राजेन्द्रसूरी गुरू मंदिर ट्रस्ट बीजापुर, (कर्णाटक) पू. गुरुदेव के प्रथम प्रवेश निमित्ते श्री राजेन्द्रभवन जैन ट्रस्ट चैन्नई (तामिलनाडु) पू. गुरूदेवश्री के सन् २००० के यशस्वी चातुमसि निमित्त श्री राजेन्द्रसूरि जैन ट्रस्ट चित्रदुर्ग (कर्नाटक) श्री राजेन्द्रसूरि गुरूमंदिर प्रतिष्ठा निमित्ते www.jainelibrary.ord PleaderspreadsikashNSI Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ के स्तंभ जो हरपल धर्माराधना में रहते हैं लीन जिनकी वाणी से होती है अमृत वर्षा । जो हैं वचनसिद्ध गुरूदेव ऐसे पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि, गच्छाधिपति आचार्यश्रीमद, विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के श्री चरणों में कोटि कोटि वंदन... * बंदनकर्ता* श्री सम्भव जैन संघ चिकबालापुर (कर्नाटक) श्री महावीरस्वामी जिनालय एवं श्री गुरुमंदिर प्रतिष्ठीत्सव निमित्ते श्री राजेन्द्रसूरी जैन ट्रस्ट पेदमीरम (आ.प्र.) श्री राजेन्द्रसूरि गुरुमंदिर प्रतिष्ठोत्सव निमित्ते श्री सकल जैन संघ, निड़दबोलु (आ.प्र.) श्री जिनालय एवं श्री गुरुमंदिर प्रतिष्ठीत्सव निमित्ते श्री तनुकु जैन संघ तनुकु श्री शांतिनाथ, मुनिसुव्रत एवं श्री राजेन्द्रसूरि गुरुमंदिर प्रतिष्ठोत्सव, निमित्ते ग्रंथ के स्तंभ 200 மரே Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारी आस्था के केन्द्र पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि नाच्छाधिपत्ति आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की थिदीक्षा हीरकजयंती एवं जन्म अमृत महोत्सव के अवसर पर मंथ उनके सुस्वस्थ एवं सुदीर्घ जीवन की हार्दिक मंगलकामनाओं के साथ उनके पावन श्री चरणों में कोटि कोटि वन्दन स्तंभ *बंदुनका * स्तंभ श्री राजेन्द्र भवन जैन ट्रस्ट - पालीताणा ऋद्धि-सिद्धि पार्श्वनाथ जिनालय प्रतिष्ठोत्सव निमित्त श्री राजेन्द्रविहार दादावाडी ट्रस्ट पालीताणा श्री राजेन्द्रसूरी गुरूमंदिर प्रतिष्ठोत्सव निमित्ते श्री अचलगच्छजैन संघ, गणेशचोक, भीनमाल पू. गुरुदेवश्री का दिक्षास्थल संघ श्री पादरु जैन संघ, पावर (राज.) www.jainelibrary of P i perpepar BRANCHI Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Datenescommodanecomastics psnesseneobo जिनके स्मरण मात्र से हमारे मनको असीम शांति मिलती है ऐसेप.पू.राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के चरणों में कोटि कोटि वंदन... Tapule8000-220DREASPORAe8900000 e मुख्य Bep सहयोगी न्याल श्रीमान लालचंदजी श्रीमती गुलाबीबाई सियाणी निवासी मातुश्री गुलाबीबाई की स्मृति में चंपालाल, हुकमीचंद, सोहनलाल, संजय, महावीर, राजेश, विकास, प्रितम, पुजन, सुजल, प्रथम, नमन बेटापोता लालचंदजी रायचंदजी वागरेचा परिवार फर्म : राजेन्द्र जीनिंग फेक्ट्री, राणीबेन्नुर Connecomanobocaeone OG0000290ddrocelegenecket जिनके दर्शनसे विघ्न बाधाएं समाप्त होती है, ऐसेप.पू.राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के चरणों में कोटि कोटि वंदन... *segme20GOOGened maeodecommodoceet SansDog palesc062200-gopangeesec-9808 सहयोगी Pालाdaha श्रीमान रमेशकुमार श्रीमती मंजुबेन भीनमाल निवासी पुखराज, रमेशकुमार, शांतिलाल, प्रकाशकुमार, अशोककुमार, अंकुर, अभिषेक बेटापोता फोजाजी वाणिगोता परिवार mawated Personal use only. Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान सागरमलजी जिन्होंने तप और त्याग का मार्ग बताया ऐसे प. पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के चरणों में कोटि कोटि वंदन... मुख्य सहयोगी भीनमाल निवासी शा. सागरमल, बाबुलाल, नेमिचन्द, भंवरलाल, दिनेशकुमार, सुरेशकुमार, सज्जनराज, प्रविण, विक्रम, यश, ऋषभ, जोय बेटा - पोता-पड़पोता वस्तिमलजी लुणावत परिवार, हाल मुंबई. श्रीमान वालचन्दजी जिनके दर्शन मात्र से सुखानुभूति एवं आनन्द का अनुभव होता है ऐसे प. पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के चरणों में कोटि कोटि वंदन... मुख्य सहयोगी श्रीमती शांतिदेवी गुडाबालोतान् निवासी संघवी वालचन्द, अशोककुमार, भरतकुमार बेटा - पोता सरेमलजी रामाणी परिवार Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन्होने सेवा धर्मका अनुपम आदर्श उपस्थित किया ऐसे प.पू.राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के चरणों में कोटि कोटि वंदन... foulesome22000cceORSess Comptopesenceled ORO सहयोगी क श्रीमान मुलचंदजी श्रीमती प्यारीबाई मोदरा निवासी भंवरलाल, उत्तमचंद, चंपालाल, राजेश, बेटापोता मुलचंदजी जसाजी बाफना परिवार .. फर्म : संतोष विडीयो विजन, चैन्नई Collegeme20000CocessNROL O leec-200doecem-ch जिनके दर्शन मात्र से संतप्त हृदय को शांति मिलती है ऐसेप.पू.राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के चरणों में कोटि कोटि वंदन... सहयोगी 06965 22SPOOR श्रीमान हस्तीमलजी श्रीमतीसमदादेवी आहोर निवासी शा. हस्तीमल, हुकमीचंद, देविचंद, बेटापोता केसरीमल जी बागरेचा For Private Personal use only Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Deveckl Please ०२० श्रीमान पृथ्वीराजजी जिनके दर्शन से विघ्न बाधाएं समाप्त होती है, ऐसे प. पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के चरणों में कोटि कोटि वंदन... श्रीमती उगमदेवी मुख्य सहयोगी भीनमाल निवासी पृथ्वीराज सायरमल, कांतिलाल, मुलचंद, मेघराज, मोहनलाल, संजय, भरत, हेमन्त, अमित, विशाल, प्रदिप, अभिषेक, बेटापोता पड़पोता पुखराजजी नाहर परिवार जिनके स्मरण मात्र से हमारे मनको असीम शांति मिलती है ऐसे प. पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के चरणों में कोटि कोटि वंदन... मुख्य सहयोगी For Ravata & Parsonal Use Only राहुल, पियुष, श्रीमान साकलचंदजी श्रीमती धोपीबाई भीनमाल (राज.) निवासी स्व. उकचंदजी लालजी हरण सांकलचंद, खुशालचंद, बाबुलाल, पृथ्वीराज, रमेशकुमार, सुरेशकुमार, शैलेशकुमार, नरपतकुमार, दिनेशकुमार, अशोककुमार, दिलीपकुमार, अमीतकुमार, सुमीतकुमार, चेतनकुमार, वेदान्तकुमार, सिद्धार्थकुमार बेटापोता अन्नाजी सदाजी हरण परिवार Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोगीदाता भीनमाल निवासी कोठारी सरेमलजी धर्मपत्नि : बदामीबेन सुपुत्र माणकचन्द, स्व. चम्पालाल, भंवरलाल, पृथ्वीराज, पौत्र : दिनेश, राजेश, मुकेश, राकेश, संदिप, टिंकू, नितेश, केतन, विवेक, प्रपौत्र : मेहूल, विशाल, प्रियंक बेटापोता कपुरचंदजी हिन्दूजी गांधीधाम (गुजरात) निवासी शा. कीर्तिलाल हालचन्द वोहरा शिमोगा (कर्नाटक) निवासी शा. मांगीलालजी मुन्नीलालजी रामाणी धाणसा (राज.) निवासी श्री भंवरलालजी सरेमलजी के सुपुत्र मांगीलाल, चन्दनमल, पौत्र : हितेश, राजेश, चिराग आदि मुथा परिवार आहोर निवासी शा. मूथा मांगीलाल, अशोककुमार, आई.पी.ओस. अरविन्दकुमार, सुमनकुमार प.पू. साध्वीजी श्री मोक्षयशाश्रीजी, श्री मोक्षरसाश्रीजी, श्री मोक्षमालाश्रीजी के दिक्षा निमित्ते। Jain-Educalisa Use Only Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोगीदाता भीनमाल (राज.) निवासी शा. बाबुलालजी, मिश्रीमलजी वर्द्धन एवं धर्मपत्नि : दिवालीबाई बाबुलालजी वर्द्धन परिवार भीनमाल (राज.) निवासी स्व. श्री कन्हैयालालजी की पूण्य स्मृति में धर्मपत्नि श्री प्यारीबाई, पुत्र : तेजराज मेहता परिवार भीनमाल निवासी शा. स्व. तगराजजी साकलचंदजी मेहता की पुण्य स्मृति में पुत्र पुखराज, किशोरमल, जावंतराज, हीराचन्द, पौत्र : कमलेशकुमार, ललीतकुमार मेहता परिवार पावा (राज.) निवासी स्व. श्री खिमराजजी भगवानजी की पुण्य स्मृति में धर्मपत्नी बबीबेन, पुत्र : जवेरचन्द्र, विनोदकुमार चौहान परिवार Jain Education Interested For Private Person Use Only wwwmainelibrary.orgs Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीनमाल (राज.) निवासी शा. साकलचंदजी चुन्नीलालजी एवं शा. श्री भंवरीदेवी साकलचंदजी तांतेड भीनमाल (राज.) निवासी स्व. श्रीमति लक्ष्मीदेवी मूलचन्दजी बाफना के स्मरणार्थ पुत्र : जयन्तीलाल, कान्तिलाल, अशोककुमार बाफना परिवार बाफना मेटल कोर्पोरेशन, मुम्बई भीनमाल (राज.) निवासी स्व. श्री छगनलाल पुत्र : येवरचन्द, पौत्र : पंकजकुमार, नीरजकुमार, बेटा-पोता पुराजी पालगोता परिवार भीनमाल (राज.) निवासी श्रीमति गोकीबाई की पूण्य स्मृति में पत्र: मांगीलाल. लालचन्द, केशरीमल, सावलचंदजी तलेसरा परिवार भीनमाल (राज.) निवासी श्री सावलचन्दजी फुलचंदजी बाफणा ह. भंवरलालजी भीनमाल (राज.) निवासी श्रीमति फाऊबेन हेमराजजी पुत्र : पारसमल, सोमतमल, राजमल वाणीगोता परिवार nehmedicalorinternational Enero Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाचरोद (म.प्र.) निवासी नरेशकुमार धर्मचन्दजी नागदा, शा. भेराजी कालुजी नागदा परिवार आहोर (राज.) निवासी श्री भूपेन्द्रसूरि साहित्य समिती ह. शांतीलालजी वक्तावरमलजी मूथा बागरा निवासी स्व. मगराजजी की पूण्य स्मृतिमें पुत्र : वीरचन्द, पौत्र : जयन्तीलाल, सुरेशकुमार, गजेन्द्रकुमार, राजेन्द्रकुमार, दिलीपकुमार, श्री वंश परमार गोत्रीय धाणसा (गुज.) निवासी शा. सुखराजजी, बाबुलाल, दिनेश, मुकेश, चिराग, राहुल, पार्थ बेटापोता चमनाजी कबजी परिवार बागोड़ा निवासी स्व. श्रीमति पंकुदेवी मुलचन्दजी बन्दा मुथा की स्मृति में पुत्र : रमेशकुमार, उत्तमचंद, महेन्द्रकुमार हाल बेंगलोर थराद (गुज.) निवासी श्री शान्तिभाई दीपचन्दभाई - अहमदाबाद wamijarr Horg Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेवतड़ा निवासी जीतमल, अशोककुमार, ललितकुमार, पिंटुकुमार, अर्पणकुमार बेटापोता सुमेरमलजी गौराजी वेदमुथा परिवार आहोर (राज.) निवासी श्री विमलचन्द कुशलराजजी तलावत - चेन्नई दाहोद (गुज.) निवासी स्व. शेठश्री वजेचन्दजी की धर्मपत्नि स्व. सुगनबाई के पुत्र : महेशचन्द्र, विनोदकुमार, पोता राजेन्द्रकुमार, कमलेशकुमार, रीतेशकुमार, रोनककुमार, मेघनगरवाले राजेन्द्र ट्रेडिंग कंपनी मिठोडा (राज.) निवासी स्व. हरखचन्दजी रत्नाजी की धर्मपत्नि कमलाबाई पुत्र : ऋषभ, भँवर, जीतेन्द्र, अरविन्द, प्रफुल, भूपेन्द्र एवं समस्त चौपड़ा परिवार भीनमाल (राज.) निवासी माणकचन्दजी दीपाजी के पुत्र भीमराज, वीसनराज, अशोक एण्ड महेता परिवार आहोर (राज.) निवासी श्री फूलचंदजी जैन मेमोरियल ट्रस्ट can miliona sona Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेन्नई (तमिलनाडु) निवासी अशोका साडी सेन्टर, मीट स्ट्रीट, चेन्नई चेन्नई (तमिलनाडु) निवासी टी. मांगीलाल एण्ड कं. चेन्नई (तमिलनाडु) निवासी श्री शंखेश्वर इन्टरप्राईजेस भीनमाल (राज.) निवासी भँवरलालजी, रमेश, दिनेश, राहुल बेटापोता पुनमचंदजी कानूंगा हा. मुजोधपुर (राज.) भीनमाल (राज.) निवासी श्री साकलचन्दजी मुल्तानमलजी की पुण्य स्मृति में पुत्र : किशोरमल, भंवरलाल, घेवरचन्द, पौत्र : सुरेश, राजेश, भरत, मोहित, दिक्षित संघवी परिवार बागरा (राज.) निवासी शा. हजारीमलजी भगवानजी तराणी परिवार Ja m ntarmational visww.jaimelibendy Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बागरा (राज.) निवासी स्व. श्री हिम्मतमलजी सुस्तीगजी की पुण्य स्मृति में पुत्र प्रकाशचन्द्र, पौत्र : विशाल, राजेन्द्र भीनमाल (राज.) निवासी स्व. सोहनराजजी की पूण्य स्मृति में श्री स्व. हजारीमलजी के पुत्र जुगराज, पौत्र : दिनेश, नरपत, नरेश, मनीष, मेहुल, समता वाणीगोता परिवार भीनमाल (राज.) निवासी श्रीमान स्व. छगनराजजी की पुण्य स्मृति में पुत्र : पुखराज, पौत्र : कमलेशकुमार पालगोता परिवार आहोर (राज.) निवासी शा. श्री कान्तिलाल, जयन्तीलालजी ह. शान्तिलालजी वजावत - चैन्नई सियाणा (राज.) निवासी स्व. पुत्र प्रवीणकुमार की स्मृति में संघवी वालचन्दजी जयराजजी बेटी : पुष्पा, पत्नि : विमला, पुत्र : भरतकुमार, गोकुलनगर, भीवण्डी, थाणे चेन्नई (तमिलनाडु) निवासी एम.के इन्टरप्राईजेस, ह. हस्तीमलजी htamition MAST Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुन (राज.) निवासी मुथा टेगचन्दजी मुलचन्दजी भानमल देवीचन्द, कान्तिलाल, जीतमल, जगदीश बेटापोता कस्तुरचन्दजी परिवार बीजापुर (कर्णाटक) निवासी श्री रेवणसिद्धप्पा. अंदाणेप्पा कत्ती खाचरोद (म.प्र.) निवासी स्व. राजमलजी की पुण्य स्मृति में मन्नालालजी नागडा परिवार भूति (राज.) निवासी श्रीमति बदामीबाई आनंदराजजी वेदमुथा परिवार भीनमाल (राज.) निवासी श्री उगमराज, धनपतराज, पवनराज, बलवन्तराज, मुकेशकुमार, संदीपकुमार, सीतेशकुमार, मनीषकुमार, आतीशकुमार, भावेशकुमार, कपीसकुमार बेटापोता सोहनराजजी बुद्धमलजी। जावरा (म.प्र.) निवासी श्रीमान सोहनलालजी के सुपुत्र मुकेशकुमार पौत्र : विकासकुमार मेहता परिवार भीनमाल (राज.) निवासी श्री चुन्नीलालजी भबुतमलजी संघवी की पुण्य स्मृति में पुत्र : भंवरलालजी, पौत्र : किस्तुरचन्द, समरथ, प्रविण, नस्पत, दिनेश, मुकेश, संघवी परिवार Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DOOOOO श्री शांतिलालजी सुरेन्द्रकुमारजी कोलन नागदा जंकशन (म.प्र.) श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथजी मन्दिर ट्रस्ट नागदा जंकशन श्री अमीचन्दजी नथमलजी चैन्नई श्री उत्तमचन्दजी ओटमलजी (बागरा) श्री माँगीलालजी चैनाजी (सियाणावाला) चैन्नई श्री उत्तमचन्दजी दीपचन्दजी (माडवला) चैन्नई चैन्नई श्री रमेशचन्दजी रिखबचन्दजी (बागरा) बैंगलोर श्री साँवलचन्दजी प्रतापजी वाणीगोता (सरत) बीजापुर श्री शांतिलालजीभोपाजी बागरेचा बीजापुर थराद निवासी श्री बाबुलालजी परषोत्तमदासजी मोरखिया अहमदाबाद थराद निवासी श्री अमृतलाल वीरचंदभाई अहमदाबाद शुभेच्छक श्री बाबुभाई भाणजीभाई वीदलिया दामजीभाई वेदलिया डीसा श्री रमेशचन्दजी जैन जवाहरमार्ग राजगढ़ (धार) जिनके स्मरण मात्र से हमारे मनको असीम शांति मिलती है ऐसे प.पू.राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के चरणों में कोटि कोटि वंदन... श्री महावीर ज्वेलरी चैन्नई श्री अरूणकुमारजी झमकलालजी कटारिया चांदनी चौक, रतलाम lain Education International wviw.jaineliyan Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64520 श्री भँवरलालजी ओटमलजी खजेड़ C/o. कानमलजी हीराचंदजी छाजेड़ पुणे श्री हुकमीचंदजी माँगीलालजी, राजगढ़ (धार) पारसमलजी वालचन्दजी ओस्तवाल मुथा लोनावाला (पुना) शुभेच्छक जिनके दर्शन से विघ्न बाधाएं समाप्त होती है, ऐसे प.पू.राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के चरणों में कोटि कोटि वंदन... श्री जेठमलजी भूरमलजी सोनगरा पुणे झाबुआ (म.प्र.) श्री मथुरालालजी केशरीमलजी पुराणी राजगढ़ शा. अचलचंदजी परागचंदजी (हरजीवाला) मुंबई श्रीमति चन्द्रकांताबेन धनराजजी जैन श्री सुखराजजी फौजमलजी (बागरा) सिदंगी (कर्ना.) श्री महावीरचंद डायालालजी बागरा ( चैन्नई) 20 श्री चंपालालजी मिश्रीमलजी कोठारी तनुकु (31.9.) श्री पारसमलजी वसन्तीलालजी खंगरेचा मन्दसौर श्री भँवरलालजी अनराजजी जैन कल्याण शा. कोलचंदजी शिवराजजी जैन भायंदर (ई) मुंबई श्री लुणचंदजी केवलचंदजी बालड़ पादरू (राज.) श्रीमति इन्द्राबेन रमणीकलालजी शाह काराकुड़ी (तमी.) www.jainelum Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री किशोरमलजी सुमेरमलजी मेहता भीनमाल (चैन्नई) शा. शांतीलाल एंड को. ह. महावीरचंद-धरणेन्द्र यतीन्द्र मुथा तनुकु श्री पक्षाल एप्लायन्स कल्याण प्रो. धरणेन्द्र एस. मुथा श्री तगराजजी पीराजी मुथा चैन्नई भीनमाल निवासी सेठ उकचंदजी मलूकचंदजी जोधपुर एम.सी. जैन शा. विनोदकुमार राजेन्द्रकुमारजी सरदारपुर (म.प्र.) श्री सेजलदीप श्री जेठमलजी मगराजजी बोहरा भीनमाल (राजस्थान) श्री अनोखीलालजी ललितकुमारजी मोदी थांदला (म.प्र.) भीनमाल (राज.) श्री पुखराजजी फाऊमलजी बोहरा सांचोर (राज.) श्री मोहनलालजी शेषमलजी पोरवाल बेलगांव (कर्ना.) शुभेच्छक श्री रूपचंदजी हजारीमलजी छाजेड़ मडाल (थराद) श्री मांगीलालजी मिश्रीमलजी अंबोर राजगढ़ (म.प्र.) जिनके दर्शन मात्र से सुखानुभूति एवं आनन्द का अनुभव होता है ऐसे प.पू.राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के चरणों में कोटि कोटि वंदन... श्रीमति शकुंतलाबेन धुलचंदजी बाफना राजगढ़ (म.प्र.) श्री मनोहरमलजी रूपचंदजी नेहरूराड़ बीजापुर (कर्ना.) Education International ] Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वक्तावरमलजी हीराचंदजी चेन्नई श्री हीराचंदजी डुंगरचंदजी कंपनी श्री अरविंदकुमारजी किशोरमलजी हरण हैद्राबाद बीजापुर श्री सेठ पनराजजी सोमतमलजी सेठ भीनमाल श्री प्रथ्वीराजजी जेठमलजी बाफना कमाठीपुरा, मुंबई सेठ घेवरचंदजी पारसमलजी भीनमाल श्री नवीनभाई जवानमलजी अमीरस एंपोरियम पालनपुर श्री अशोककुमार समरथमलजी राठोड़ झाबुआ (म.प्र.) श्री मांगीलालजी मिश्रीमलजी (बागरा) राहुल सारीज मैसुर श्री दिलीपकुमार जैन (कुंदन एजेन्सी) चैन्नई श्री मूलचंदजी हीराचंदजी जैन थांदला (म.प्र.) शुभेच्छक श्री जेठमलजी कपूरचंदजी कोठारी भीनमाल श्री बगदालालजी पारसमलजी सालेचा भीनमाल जिन्होंने तप और त्याग का मार्ग बताया ऐसे प.पू.राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के चरणों में कोटि कोटि वंदन... श्री सुशीलकुमार कैलाशचंदजी जैन नरसापुर श्री झवेरचंदजी जैन (भूतीवाला) भायंदर मुंबई alf Education International www.jainelioin Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री इंदरमलजी सरेमलजी गोवाणी भीनमाल श्री राजेन्द्रकुमारजी सोभागमलजी जैन भीनमाल श्री जे. देवीचंद एंड को. बेंगलोर बोहरा भानचंदजी राजमलजी सोनारसेरी परमार Featuen International श्री कैलाशचंदजी फूलचंदजी नेल्लूर (आ.प्र.) श्री बच्चुभाई पुखराजजी थराद श्री घेवरचंदजी मूलचंदजी गुड़ाबालोतान (भिवंडी) श्री हस्तिमलजी पुनमचंदजी संघवी मुंबई श्री भंवरलालजी समरथमलजी बोहरा मुंबई श्री सुरेशकुमार हीराचंदजी (बागरा) विशाखापट्टनम् श्री विमलचंदजी आनंदराजजी वेदमुथा (भूती) पूना श्री अर्जुनप्रसादजी महेता महाप्रबंधक श्री वाल्मिकीप्रसाद महेता भोजनशाला प्रबंधक श्री मोहनखेड़ा तीर्थ नथमलजी चुन्नीलालजी सराफ गुड़ाबालोतान (राज.) श्री चुन्नीलालजी डामरचंदजी खाटोड़ भीनमाल श्री छगनलालजी फतेहचंदजी वर्द्धन अहमदाबाद शुभेच्छक जिन्होने सेवा धर्म का अनुपम आदर्श उपस्थित किया ऐसे प.पू.राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के चरणों में कोटि कोटि वंदन... www.jairelibrary.org Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ प्रकाशन पर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ मालवा की भावभरी वंदना... वंदना... वंदना... श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - इन्दौर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - आलोट श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - सिमलावदा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - मुदलाकला श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - उंबरवाड़ा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - नामली श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - उज्जैन श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - नागदा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - महिदपुर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - नयागांव श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - रतलाम श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - खाचरोद श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - बड़ावदा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - दानपुरा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - सरसी श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - बड़नगर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - अमरा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ कानवन श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ झमुनियाकला श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - गरोठ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - पिपलोद श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ- भाट पचलाना श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - ढोदर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - मामटखेड़ा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - बोरखेड़ा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - बदनावर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - नागदा (जं) श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - सेमालिया श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - एलची श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - रामपुरा www.jainélibrary.org Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain I श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - उमरकोट श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - मंदसौर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - झाबुआ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - भाभरा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ खवासा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - उदयगढ़ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - धार श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - बाग श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - मनावर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - नालछा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - कडोद Education International श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - कखड़ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ बड़ाबड़ौदा - श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ झकनावदा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - जोबट श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - सारंगी श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - थांदला श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - राजगढ़ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - टांडा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - तालनपुर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - कसरावद श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - वसाई श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - निमच श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - राणापुर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ अलिराजपुर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - बामनिया श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - मेघनगर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - बोरी श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - सरदारपुर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - कुक्षी श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - नानपुर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - कोद श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - धामंदा Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-राजोद श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ - लाबरिया श्री सौधर्म बृहत्तयागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ - झकनावद श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-पारा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-सीतामउ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-खरसोद श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-रूणिजा श्री सौधर्म बृहत्तपानच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-गजनीखेड़ी श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय | ब्रिस्तुतिक श्री संघ-मलवासा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-पतलावड़ीया श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-सुन्दराबाद श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ - खेड़ावाड़ा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-कालुखेड़ा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-महिदपुररोड़ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-रावजीका पिपलीया श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-कुकडेश्वर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-पालेड़ी श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ -पेटलावद श्री सौधर्म बहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-सेलाना श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-चिरोला श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-मड़ावदा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-रिंगनोद श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-ताल श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-नारायणगढ़ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-जावरा Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ प्रकाशन पर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ राजस्थान की भावभरी वंदना...वंदना...वंदना... श्री सौधर्म बृहत्तपानच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-जालोर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-भीनमाल श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-आहोर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-बागरा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-सियाणा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-आंकोली श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - 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खिमेल श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-रानीस्टेशन श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - कोशेलाव श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-भूती श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-कोरटा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ - सूरा Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - सरत श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - थलवाड़ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - बाकरा रोड़ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - सुमेरपुर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ पावराभागल श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - कोरा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - रानीवाड़ा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - पोसाणा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - सेरणा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - सेवरिया श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - भरूंदा Pape श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - मोदरा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - बोरटा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - सांधु श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - शिवगंज श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - नरता श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - उनड़ी श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - सांचोर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - नून श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ तखतगढ़ - श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय 'त्रिस्तुतिक श्री संघ - गुड़ाबालोतान श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ फतापुरा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - धाणसा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - बाकरा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - जोधपुर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - पावा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - दासपा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - पांथेड़ी श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - सिरोही श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - - डूड़सी श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - बाली श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - पाली श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय 'त्रिस्तुतिक श्री संघ जुनाजोगापुरा 124 www.jainelibrary.qu Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ- नया जोगापुरा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-सांडेराव श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - उदयपुर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय श्री सौधर्म बृहत्तयागच्छीय श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-बांसवाड़ा ब्रिस्तुतिक श्री संघ - निगहेड़ा ब्रिस्तुतिक श्री संघ-कुशलगढ़ ग्रंथ प्रकाशन पर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ गुजरात की भावभरी वंदना...वंदना...वंदना.... श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-थराव श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ - धानेरा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ - लोवाणा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ- उदराणा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-पाटण श्री सौधर्म बृहत्तयागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-भापी श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-जेतड़ा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-अहमदाबाद श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - सुरत श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-नडियाद श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ - आणंद श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-बड़ोदरा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-डीसा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ - पालनपुर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-मेहसाणा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - राजकोट श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-लाखणी श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-वामी श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-पावड़ Jain Education anal PTERahiruse only i Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ प्रकाशन पर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ महाराष्ट्र की भावभरीवंदना...वंदना...वंदना... श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - मुंबई श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-पूना श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-धूलिया श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-मालेगांव श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-सांगली श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-कराड़ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ - सिरड़ी श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - कामशेत श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ - इंदापुर श्री सौधर्म बृहत्रापागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - कर्जत श्री सौधर्म बृहत्तयागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-सोलापुर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-वाई ग्रंथ प्रकाशन पर श्री सौधर्म बहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - कर्णाटक की भावभरी वंदना...वंदना...वंदना... श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-बेंगलोर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-बीजापुर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-हुबली श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - सोरापुर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ - रानीबेन्नूर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-चित्रदुर्ग श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ - टूमकुर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-टिपदूर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - दावणगीरी श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - हावेरी श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-बेड़गी श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-बल्लारी श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-हासपेट श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ - मैसूर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-रायचूर Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ- नरगुंद श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ - नवलगुंद श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-चिक्बालापुर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-कोलार ब्रिस्तुतिक श्री संघ-हिरीपूर ग्रंथ प्रकाशन पर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ तामिलनाडू की भावभरी वंदना...वंदना...वंदना... श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ - चैन्नई श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ - कोयंबतुर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ - सेलम श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ - मदुराई श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-तिरछी श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-कुम्भाकोणम श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-ईरोड श्री सौधर्म बृहत्तपानच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-वेल्लूर ग्रंथ प्रकाशन पर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - आंध्रप्रदेश की भावभरी वंदना...वंदना...वंदना... श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - हैदराबाद श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-सिकंद्राबाद श्री सौधर्म बृहत्तयागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ - विशाखापटनम श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-विजयनगरम श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-विजयवाड़ा श्री सौधर्म बृहत्तपानच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - गुंटूर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-राजमेंद्री श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्रीसंघ-काकीनाड़ा श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्रीसंघ-सामलकोट श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ-थुनी श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-अंकापल्ली श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय ब्रिस्तुतिक श्री संघ-पिठापुरम Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - पेद्दापुर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - मुमडीवरम श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - फोव्वूर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - गुड़िवाड़ा वंदना... वंदना... वंदना... वंदना... वंदना. P Jain Education Internation वंदना... वंदना... वंदना... वंदना...वंदना.. 'वदना... वंदना... वदना... वदना... वदना.... brity वंदना .... वंदना..... वंदना... वंदना...वंदना.......वंदना... वंदना श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - भीमावरम श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - नरसापुर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - करनुल श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ अमलापुर श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - नेल्लू 2/2/2/25 श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - रामचंद्रपुरम श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - कोत्तपेटा वदना... वदना... वदना... वदना... वदना.... वढना... वदना श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - व्राक्षाराम श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - अदोणी श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्री संघ - कडप्पा वंदना... वंदना... वंदना....वंदना... वंदना... 'वंदना... वंदना... वंदना... वंदना... वंदना. . वंदना... वंदना .... वंदना वंदना वंदना... वंदना.. वंदना Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्या सहयोगी स्व.श्रीमान् किशोरचंद्रजी एम. वर्धन एवं श्रीमती शांतिदेवी वर्धन स्व. श्रीमान् किशोरचंद्रजी एम. वर्धन मूलतः भीनमाल - मारवाड़ राजस्थान के निवासी थे और वे प.पू. ग्रंथनायक आचार्यश्री के परम गुरुभक्त थे । देव-गुरु और धर्म के प्रति उनकी अट आस्था थी। हसमुख एवं सरल स्वभावी श्री किशोरचंदजी वर्धन श्री मोहनखेड़ा तीर्थ के आजीवन कोषाध्यक्ष रहे। वे जैनशासन की सर्वोच्च संस्था भारत जैन महामंडल के अध्यक्ष रहे। वे जिन संस्थाओं में रहे, सदैव उनके विकास में अपना योगदान देते रहे। इस के अतिरिक्त आपकी साहित्य में भी अच्छी रूचि थी और समय समय पर आपने जैन धर्म विषयक आलेख भी लिखकर प्रकाशित करवाये । अधिकतर जानने वाले लोग आपको "मास्टरजी' के नाम से भी जानते थे। परमात्मा द्वारा प्रदत्त लक्ष्मी को आपने शासन प्रभावना के अनेक धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यों में लगाया जिनका वर्णन करना मुश्किल कार्य होगा। आपके अनुरूप ही आपकी धर्मपत्नी श्रीमती शांतिदेवी वर्धन है। श्रीमती शांतिदेवी “यथा नाम तथा गुण" की कहावत को चरितार्थ किये हुए है। आपके पुत्रों के नाम है श्री चम्पालालजी वर्धन, श्री उम्मेदराजजी वर्धन एवं स्व. श्री भरतकुमारजी वर्धन | आपके पुत्र द्वय भी आपके बताये मार्ग पर चल रहे हैं और वे भी पू. राष्ट्रसंत शिरोमणी गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के अनन्य गुरुभक्तों में से हैं। श्री वर्धन परिवार का अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशन में सराहनीय योगदान रहा है । भविष्य में भी आपका ऐसा ही सहयोग बना रहे, यही विश्वास है। salonintenmebpmalta Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्य सहयोगी समाजभूषण सुश्रावक श्री सुमेरमलजी हंजारीमलजी लुक्कड़ एवं सुश्राविका सुआबाई सुमेरमलजी लुक्कड़ भीनमाल (राज.) निवासी श्रीमान्हंजारीमलजी जवानमलजी लुक्कड़ के सुपुत्र समाजभूषण श्री सुमेरमलजी लुक्कड़, अ.भा. त्रिस्तुतिक जैन श्री संघ के अध्यक्ष एवं श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ के उपाध्यक्ष हैं। आप सरल स्वभावी एवं मूदुभाषी व्यक्तित्व के धनी है। आपके दिल में प.पू. ग्रंथनायक आचार्यश्री के प्रति अनन्य श्रद्धा हैं। उसी के वशीभूत होकर पूज्यश्री की शुभ प्रेरणा से अपनी जन्मभूमि भीनमाल में भारत का अलौकिक एवं अद्वितीय श्री र जिनालय स्वद्रव्य से निर्माण कराने का शुभ संकल्प लिया हैं जो की पूर्णता की ओर अग्रसर हो रहा हैं। आप देव-गुरु एवं धर्म के प्रति समर्पित हैं। समाजसेवा एवं धार्मिक कार्यों में आप सदैव अग्रणी बने रहते हैं। आपने अभी तक अनेक जिनालयो, शाला, भवनों, अस्पताल भवनों आदि का निर्माण करवाया है, वे इस प्रकार हैं: * श्री र जिनालय, भीनमाल (राज.) * श्री मनमोहन पार्श्वनाथ जिनालय, भीनमाल (राज.) * श्री गोडी पार्श्वनाथ जिनालय, सुमेर टॉवर, मुंबई * श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जिनालय, अरविंद कुंज, मुंबई * श्री चिंतामणि पालनाथ जिनालय, सुमेरनगर, बोरीवली, मुंबई * श्रीमती मालूबाई हंजारीमलजी लुक्कड़ चिकित्सालय, भीनमाल (राज.) * श्रीमती सुआबाई सुमेरमलजी लुक्कड़ उच्च म.वि., भीनमाल (राज.) * श्री सुमेरमलजी हंजारीमलजी लुक्कड़ गेस्ट हाउस, भीनमाल (राज.) * श्री हंजारी भवन धर्मशाला, भीनमाल (राज.) * श्री लुक्कड़ भवन, पालीताणा (गुज.) * श्री लुक्कड़ प्रवेशद्वार, श्री सम्मेतशिखरजी तीर्थ * श्री भोजनशाला भवन, श्री भांडवपुर तीर्थ (राज.) * श्री जिनमंदिर द्वार, उवसठगहरं तीर्थ (म.प्र.) आपके द्वारा आयोजित विविध कार्यक्रमः * पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की पावन निश्रा में पालीताणा में १००० आराधकों का सन् १९९५ में भव्य चातुर्मास * श्री सिद्धाचल तीर्थ की नव्वाणु यात्रा * श्री उपधान महातप, भीनमाल * पू. आचार्यश्री के आशीर्वाद से भीनमाल से श्री सम्मेतशिखरजी तीर्थ के लिए ९०० यात्रियों का ट्रेन द्वारा यात्रा संघ आपकी धर्मपत्नी सुश्राविका सौ. सुआबाई भी अपने पति की भांति ही देव-गुरु और धर्म के प्रति समर्पित है तथा आप अपने पतिदेव के प्रत्येक कार्य में कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग प्रदान करती है। आप तपस्विनी भी हैं। सुश्राविका सौ. सुआबाई द्वारा सिमलावदा (म.प्र.), निरोला (म.प्र.), कड़ोद (म.प्र.) एवं अनेक जिनालायों के जिर्णोद्धार एवं निर्माण में विशेष सहयोग प्रदान किया है। सौ. सुआबाई द्वारा मासक्षमण, वर्षीतप, वर्धमानतप, ओली, १०० अट्ठम, अनेक अट्ठाईयां आदि की तपस्याएं की है। श्री सुमेरमलजी के दो भाता श्री किशोरमलजी एवं श्री माणकचंदजी सरल स्वभावी हैं। आपके पुत्र श्री रमेशकुमारजी भी आपके बताये मार्ग पर चल रहे हैं। शासनदेव से आपके सुस्वस्थ एवं सुदीर्घ जीवन की कामना है। lernational For Prvale & Personal Use Only Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PER मूलनायक मूलनायक श्री महावीर स्वामी भगवान श्री चिंतामणी पार्श्वनाथ भगवान चौबीस जिनालय श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ जैन मन्दिर श्री महावीरस्वामी जैन मन्दिर (आन्तरिक दृश्य) जिन्होंने बागरा की कीर्ति में चार चांद लगाए, जिन्होंने अपनी जाति और कूल को उज्ज्वल किया जिन्होंने हमारे अज्ञानरूपी अंधकार को दूर किया, जिन्होंने तप-त्याग का मार्ग बताया जिन्होंने क्षमा-दया-करुणा का पाठ पढ़ाया, जिन्होंने सबका पथ प्रशस्त किया ऐसे बागरा के गौरव परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के दीक्षा हीरक जयंति एवं जन्म अमृत महोत्सव के अवसर पर उनके पावन श्री चरणों में कोटि कोटि वन्दना... वन्दनकर्ता: श्री जैन सकल संघ बागरा, जिला जालोर (राज.) भूपेन्द्रसूरीश्वरजीमा आ. श्रीमद् विजय धनचन्द्रसूरीश्वरजीम.सा. तीन्द्रवीश्वरीमा गुरुगोविन्द दोऊखड़े, काको लागूंपाय। बलीहारी गुरू आपने, गोविंद दियो बताय॥ आचार्य श्रीमद् विजय धनचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.का समाथि मन्दिर, बागरा (राज.) अभिनन्दन ग्रंथ के सूत्रधार अपने गुरुदेव के प्रति पूर्णरूप से समर्पित स्व. मुनिराज श्री प्रीतेशचंद्रविजयजी म. Forte ParmenalUse Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुदेव! मैं आपका अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित करना चाहता हूँ नहीं प्रीतेश। अभिनन्दन ग्रंथ तो महापुरुषों के निकाले जाते हैं और गुणगान एवं किर्तन महापुरुषों का किया जाता है गुरुदेव। इस धरा पर वर्तमान समय में आप जैसा महापुरुष दूसरा कौन होगा। Nehai 28736745-28736535