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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ। "बेटी तू मेरा मरे हुए का ही मुँह देखे, जो मुझसे न कहे ।" गुरुजी ने तनिक प्रौढ़ावस्था के शब्दों में कहा। यशोदा निशाना ठीक लगते देखकर बोली - लो, जब सौगन्ध दिलादी तो विवश होकर कहना ही पड़ा कि तनिक अपने शिष्य से सतर्क रहना । ये पहले तो आने-जानेवालों का खूब आदर सत्कार करते हैं और न मालूम फिर क्यों चाहे जिसके नाक कान काट लेते हैं । ईश्वर रक्षा करे, न जाने यह बीमारी इन्हें न जाने कहां से लग गयी? मैं तो सारे सम्बन्धियों में बदनाम हो गई । गुरुजी! कोई किसी की छाया तो नहीं है । तनिक देखना मैं तुम्हारे पांव पड़ती हूँ।" इतना कहकर वह किंवाड़ की ओट से गुरूजी के पास से खिसक आई । उधर गुरुजी के पेट में चूहे कबड्डी खेलने लगे। अजीब परिस्थिति में घिरे हुए थे । रहें या चल दें ? चल क्यों दे? आखिर अपना शिष्य है, क्या मुझसे भी यह बदतमीजी करेगा? कर भी दे तो क्या आश्चर्य? पागल कुत्ता अपना-पराया नहीं देखता है, उसकी थोड़ी सी बात होगी और यहां जीवन पर्यन्त नकटे बूचे हो जायेंगे । ऐसी मेहमानबाजी किस काम की? इसी प्रकार न जाने क्या-क्या ऊँच नीच विचारते हुए खूटे से बंधी अपनी घोड़ी खोलकर चलते बने । मदन बडे खूबसूरत हुक्के को लखनवी खुशबूदार तम्बाकू से भर करके लाया तो गुरुजी को न पाकर पत्नी से पूछा - गुरुजी कहां गये?" यशोदा मुंह बिगाड़ कर बोली – “अच्छे गुरुजी को लाये, न लाज, न शरम, कहते भी न लजाया ।" मदन घबरा कर बोला - "आखिर हुआ क्या?" यशोदा ने मटक कर कहा -"होता क्या कहने लगा तनिक पेटी में से चाकू तो निकाल कर दो | मैंने हाथ के संकेत से मनाकर दिया । बस इतनी सी बात पर मुझे और तुम्हें गालियां बकता हुआ घोडे पर सवार होकर चल दिया । मदन दांत किचकिचा कर कहने लगा - "अरे नालायक की औलाद ! इसमें लाज और शर्म की क्या बात थी? दे क्यों नहीं दिया? एक चाकू क्या, उनके ऊपर सैकड़ों चाकू न्यौछावर कर दूं ।" इतना बोलकर मदन ने पेटी में से चमचमाता चाकू निकालकर तथा उसे खोलकर गुरुजी को मनाने चल दिया । गुरुजी ने मुड़कर देखा कि मदन चाकू लिये हुए आ रहा है तो उसे यशोदा की बात का पूरा विश्वास हो गया । उन्होंने अपना घोड़ा और भी तेज कर दिया । गुरुजी का घोड़ा दौडते देख मदन चाकू दिखाकर चिल्लाने लगा - "गुरुजी, बात तो सुनो" पर गुरुजी के तो होश उड़ रहे थे । उन्हें अपने नाक-कान की चिन्ता लगी हुई थी । अन्त में मदन विवश हो मुंह लटकाये घर आ गया । मदन उदास था और यशोदा प्रसन्न नाक-कान काटने की बात ऐसी फैली कि फिर किसी मेहमान का मदन के यहां आने का साहस न हुआ । वचन का पालन एक बार एक राजकुमार सांयकाल के समय वायु सेवन के निमित्त राजमहल से निकला । राजकुमार अकेला ही महल से निकला था । उसने किसी भी रक्षक को साथ नहीं लिया था । जब वह घने जंगल के बीच से अपनी मस्ती में जा रहा था तब अचानक एक भयनाक और क्रूर राक्षस ने वृक्ष से उतर कर उसे पकड़ लिया और मारने की तैयारी करने लगा । उस समय उसके नेत्रों में अश्रु आ गये । यह देखकर राक्षस अट्टहास करता हुआ बोला "अरे वाह! क्षत्रिय पुत्र होकर भी मृत्यु से डर रहा है?" यह व्यंगात्मक वचन सुनकर राजकुमार ने निर्भयता पूर्वक कहा - "मैं मृत्यु से कभी भी नहीं डरता । मुझे केवल इस बात का दुःख है कि मैंने एक ब्राह्मण को सहायता देने का वचन दिया था और उसे ही देने जा रहा था। पर तुम्हारे द्वारा पकड़ लिये जाने से मेरा वचन भंग हो जाएगा और ब्राह्मण बेचारा अभावग्रस्त बना रहेगा । अतः यदि तुम मुझे थोड़े समय के लिये छोड दो, तो मैं अपने वचनानुसार ब्राह्मण को सहायता रूप कुछ धन दे आऊँ।" हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 58 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Pagesonal uses Tery.org
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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