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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था
लालची साधु ___ गांव का किसान मांगू अपने खेत के किनारे बने मचान पर बैठा हुआ बीड़ी पीता जाता और फसल की निगरानी भी करता जाता था । इतने में उसके कानों में खन खन की आवाज आई । आवाज की दिशा में मांगू ने मचान पर खडे होकर देखा तो उसके मुंह में पानी आ गया । वह मचान से उतरकर उस ओर गया देखा । एक साधु बड़ी होशियारी से रुपये गिनकर एक कपड़े में बाँध रहा था । लगभग एक सौ रुपये थे, उन्हें देखकर मांगू का मन तो बहुत ललचाया, पर विवश था । विवश होकर मुँह लटकाए, दबे पांव अपने मचान पर आकर बैठ गया।
मांगू अपने मचान पर बैठा हुआ साधु के ध्यान में निमग्न था कि जय शिव शंकर की आवाज सुनकर चौंक पड़ा। देखा तो वही साधु कुछ मांगने की दृष्टि से हाथ फैलाए उसके सामने खड़ा था । मांगू उसकी आदत से चिढ़ गया। उसने विचार किया - खड़ी फसल को जंगली जानवर चट कर गये, शेष को टिड्डी चाट गई, साहूकार ने ऋण में बैल खुलवा लिये, शेष बचे हुए अनाज को लगानवाले उठा ले गये, बहन को मामेरा पुत्री को गोना देना है और पास में फूटी कौड़ी नहीं है, फिर भी संतोष किये बैठा हूँ । और एक यह हट्टा कट्टा है कि इसे किसी बात की चिन्ता नहीं, सौ रुपये गांठ में लिये फिरता है फिर भी मांगने की लालसा बनी हुई है । इसे कुछ शिक्षा देना चाहिये ।" उसे एक उपाय सूझा ।।
मांगू मचान से उतर कर बहुत नम्रतापूर्वक प्रणाम करते हुये बोला - "सन्त प्रवर ! धन्य भाग जो तुम आये, मेरे ऐसे भाग्य कहां? दो दिन से पत्नी भूखी बैठी है, उसकी हठ है कि जब तक किसी सिद्ध महात्मा को भोजन न करा ,, मैं भी भोजन नहीं करूँगी । गांव के आसपास पांच-पांच कोस तक ढूँढते फिरे पर कोई महात्मा न मिला। मेरे पूर्व जन्म के पुण्य से ही परमात्मा ने तुम्हें भेजा है ।
साधु ने अपनी असाधारण खातिरदारी देखी तो फूले नहीं समाये । अपने चंगुल में साधु को फंसता हुआ देख मांगू ने कहा - "तो महाराज! आज का निमंत्रण स्वीकार करो, बड़ी कृपा होगी ।"
साधु को भोजन की इच्छा तो थी नहीं, भोजन तो वह पूर्व में ही कहीं कर आये थे । वह तो दक्षिणा के इच्छुक थे। बोले – “बेटा ! भोजन तो सप्ताह में हम एक बार ही करते हैं यदि कुछ नशे पत्ते का प्रबन्ध कर सको तो ..?"
मांगू साधू के मनोभाव जान गया, बीच ही में बात काटकर बोला - "भगवन् ! भोजन के साथ एक रुपया दक्षिणा भी हाथ जोड़कर दूंगा । आप मुझे निराश न करें ।
साधु ने दक्षिणा का नाम सुना तो चेहरे पर प्रसन्नता के भाव आ गये । बोले - "भक्त! आज तक तो हमने कभी किसी के यहाँ भोजन करना स्वीकार किया नहीं, पर आज तेरे कारण हम अपनी प्रतिज्ञा तोड़ते हैं, क्या करे विवशता हैं, भगवान भक्त के वश में होते आये हैं ।"
साधु ने दूध, रबड़ी, खीर और हलुवा उदरस्थ कर लेने के पश्चात् मांगू और उसकी पत्नी को अनेक आशीष दिये । आशीर्वाद ले चुकने के पश्चात् मांगू अपनी पत्नी से बोला - "जो, रुपया नारियल साधु बापजी के चरणों में भेंटकर अपने जन्म को सार्थक कर लें ।"
मांगू की पत्नी खुशी खुशी भीतर गई और फिर बाहर आकर बोली – "भीतर घड़े में तो रुपये नहीं है ।"
मांगू आंखें तरेर कर बोला - "हें, रुपये नहीं है, कहाँ गये, अभी-अभी तो एक सौ रूपये गिन कर मैंने घड़े में रखे थे।"
उसकी पत्नी ने सरल स्वभाव से कहा – “तो मैं क्या जानूं? जहां तुमने रखें हों, वहाँ देख लो मुझे तो मिले नहीं ।
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