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________________ श्री राष्टसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ मांगू लपककर भीतर गया और थोड़े समय इधर-उधर देखकर सिर पकड़े हुये बाहर आया और --"हाय मैं लूट गया, बर्बाद हो गया " - कहकर जोर-जोर से रोने लगा । रोने की आवाज सुनकर पड़ोसी एकत्र होकर रोने का कारण पूछने लगे । बमुश्किल उसने बतलाया कि साहूकारसे अपने बैल वापिस लाने के लिये कुछ समय पूर्व घड़े में एक सौ रुपये गिनकर रखे थे । अब जो बाबाजी को एक रुपया दक्षिणा देने के लिये रखा था, जाकर देखा तो उसमें फूटी कौड़ी भी नहीं। पड़ोसी मांगू की गरीबी के कारण सहानुभूति रखते थे । सुनकर दंग रह गये । सबके सबने एक स्वर में कहा - "क्या कोई बाहर का व्यक्ति घर में गया था ।" मांगू ने उसी तरह मुँह लटकाये कहा – “बाहर का व्यक्ति कौन आता? बाबाजी, पत्नी और मेरे अतिरिक्त आज यहाँ प्रातः से चिड़िया तक नहीं फटकी ।" पड़ौसी बोले - "तो बन्धु ! घबराओ मत । तनिक इस साधु की तलाशी तो लो । इस भेष में सैकड़ों उठाई गिरे चोर-उचक्के फिरा करते हैं ।" मांगू गिड़ागिड़ाकर बोला – “भाई ! ऐसा मत कहो, पाप लगता है । ये साधु तो बड़े भारी महात्मा हैं । मेरे बहुत आग्रह करने पर भोजन करने का तैयार हुये थे ।" पड़ौसी तुनककर कहने लगे - "ऐसे सैकड़ों महात्मा जूतियां चटकाते फिरते हैं । दिन में ये भिक्षा मांगते हैं और रात्रि को चोरी करते हैं । अच्छा तुम न लो तलाशी हम ले लेते हैं । पाप भी लगेगा तो कोई चिन्ता नहीं । दो-चार दिन नरक में रह लेंगे।" इतना कहकर पड़ोसियों ने साधु की जेब, भीतर पहनी बण्डी की जेब आदि सब देख डाली, पर रुपये न मिले। मांगू ने देखा कि सिर के साफे को किसी ने नहीं देखा । अतः सिर पर हाथ मारकर कहा - बस बस, जो होना था सो हो गया, अब साधु के साफे को तो न उतारो । मांगू बात पूरी कह भी न पाया कि एक व्यक्ति ने साधु के साफे में जो झटका दिया तो कपड़े में बंधे रुपये खन-खन बिखर गये । पड़ोसियों ने जल्दी जल्दी सब रुपये घड़े में भर दिये । लालची साधु अपना सा मुँह ले कर जब जाने लगा तो मांगू ने चरण रज अपने मस्तक पर लगाते हुए कहा - "तो महाराज, अब कब दर्शन देंगे ।” लालची साधु बिना उत्तर दिये, नीची दृष्टि किये हुये चुपचाप चला गया । दो साधु दो साधु थे । एक का नाम आशादास और दूसरे का नाम रामशरण था । दोनों का स्वभाव दो तरह का था। रामशरण भगवान पर विश्वास रखने वाला था । वह किसी भी देवी-देवता अथवा राजा, सेठ आदि से अपनी आवश्यकता की पूर्ति की आशा नहीं रखता था। वह जो मिल जाता, उसी में सन्तोष मानकर उसे ही प्रभु की कृ पा समझ कर खा लेता । नगर का राजा उस समय गंगाराम था। रामशरण साधु नगर में यह कहता हुआ चक्कर लगाता फिरता - "जिसको दे राम उसको क्या देगा गंगाराम ।" दूसरा साधु आशादास ठीक इसके विपरीत था। वह ईश्वर को नहीं मानता था । चापलूस था । राजा, सेठ या किसी भी धनिक की चापलूसी करके उससे अपनी आशाओं की पूर्ति करने में उसका विश्वास था । परमात्मा का नाम कभी उसने जिहा पर नहीं आने दिया । आजकल वह राजा से आशा लगाये बैठा था कि किसी दिन राजा की कृपा हो जाएगी तो वह मुझे मालामाल कर देगा । इसलिये नगर में घूमता हुआ गाया करता - "जिसको देवें गंगाराम उसे क्या देगा राम ।" एक दिन वे दोनों साधु राजमहल के आसपास चक्कर लगा रहे थे । दोनों अपना-अपना गीत गा रहे थे । राजा गंगाराम उस समय अपने महल की छत पर हवा खा रहा था । उसने दोनों साधु की बातें सुनी । वह रामशरण पर बहुत ही क्रोधित हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 45 हेमेह ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति ironicatiohiblemotional
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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